Friday, April 1, 2022

करिष्ये वचनं तव 1से30

 करिष्ये वचनं तव 

         परमात्मा की लीला देखिए!मनुष्य को बनाया, जीवन में आनंद लेने के लिए। आनंद की अनुभूति के लिए इंद्रियां बनाई,शरीर की परिधि पर और स्वयं जाकर बैठ गया शरीर के केंद्र पर।विषयों को रखा इस शरीर के बाहर।वह भी इसलिए कि मनुष्य के शरीर की परिधि पर स्थित इंद्रियां बाहर घूम रहे विषयों का आनन्द तो ले परंतु दृष्टि सदैव केंद्र पर रखे।मानव शरीर से आनंद प्राप्त करने का एक मात्र यही उपयोग होना चाहिए।

     मानव देह पाकर परमात्मा की इच्छा का सम्मान नहीं हुआ।इंद्रियां केंद्र से बंधी रहने के स्थान पर विषयों से जाकर बंध गई। यहीं से मनुष्य के जीवन में पतन प्रारम्भ होता है। इंद्रियां केंद्र की ओर उन्मुख रहे,इसके लिए दीर्घ काल तक और सतत संत समागम तथा शास्त्र अध्ययन आवश्यक है। संत तो मिले अथवा न मिले शास्त्र तो सदा से ही उपलब्ध है । शास्त्रों में भी श्रीमद्भगवद्गीता सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें गुरु भी है और ज्ञान भी है।"कृष्णम् वन्दे जगद्गुरुं" यूँही नहीं कहा गया है।

      गुरु और गीता का ज्ञान तभी उपयोगी है,जब उसे आचरण में लाया जाए। हम कह तो देते हैं कि संतों और शास्त्रों के बतलाये मार्ग पर चलेंगे परंतु कब हमारी इंद्रियां केंद्र से विमुख होकर संसार के विषयों में फंसकर उलझ जाती है, पता ही नहीं चलता। गुरु और गीता हमारी बाह्य दृष्टि (विषयासक्ति) को दिव्य दृष्टि में परिवर्तित कर पुनः केंद्र (परमात्मा) की ओर उन्मुख कर देती है। इसलिए आवश्यक है कि हम सतत सत्संग और स्वाध्याय करते रहें जिससे "सावधानी हटी,दुर्घटना घटी" हमारे साथ चरितार्थ न हो । गुरु और गीता के आकर्षण से हम भी अर्जुन की तरह कह सकेंगे -"करिष्ये वचनं तव"। साथ ही ध्यान रखें कि हमें गीता में कहे गए गुरु-वचनों का सदैव पालन करना है, पुनः संसार जाल में नहीं उलझना है।  

       श्रीमद्भगवद्गीता हमारा महत्वपूर्ण शास्त्र है | इसे गीतोपनिषद भी कहा गया है क्योंकि इसमें शिष्य ने गुरु के सामने बैठकर श्रद्धापूर्वक अपनी शंकाओं का समाधान किया है | उपनिषद् तीन शब्दों से मिलकर बना है- ‘उप’ अर्थात समीप, ‘निः’ अर्थात श्रद्धा और ‘सद्’ अर्थात बैठना | इस प्रकार उपनिषद् का अर्थ हुआ, शिष्य का गुरु के समीप श्रद्धापूर्वक बैठना जिससे शिष्य की अविद्या का नाश हो और उसे ब्रह्म की प्राप्ति हो | गुरु शिष्य का एकांत में बैठकर वार्तालाप करना ही उपनिषद् है | गीता में अर्जुन-श्रीकृष्ण संवाद है, इसलिए इसे उपनिषद की श्रेणी में रखा जाता है |

           अभी कुरुक्षेत्र की भूमि पर महाभारत का युद्ध प्रारम्भ ही नहीं हुआ था कि अपने पक्ष और  विपक्ष में खड़े मरने मारने को उतारू अपने ही सगे सम्बन्धियों को देखकर अर्जुन मोहग्रस्त हो गए थे | आज जीवन में पहली बार उसने युद्ध के परिणाम के बारे में सोचा था | यह बात नहीं है कि महाभारत के युद्ध से पहले अर्जुन ने कोई युद्ध नहीं लड़ा था | इससे पूर्व भी उसने कई युद्ध लड़े थे परन्तु आज महाभारत प्रारम्भ होने से पूर्व वह अपने रचे संसार के मोह जाल में पड़ कर कर्तव्यच्युत होने जा रहा है क्योंकि वह जानता है कि इस युद्ध में क्षति केवल उसी के परिवार को होनी है | ऐसा होने पर उसका युद्ध करना अर्थहीन हो जाएगा| इस प्रकार की सोच रखना कि संभावित क्षति का कारण मैं ही बनूँगा, ही व्यक्ति को कर्तव्य मार्ग से डिगा देती है |

          हमारे और अर्जुन के जीवन में जरा भी भिन्नता नहीं है | हमारी स्वार्थपूर्ण आसक्तियां हमें कुछ व्यक्तियों के साथ बांधकर एक संसार का निर्माण कर देती है | स्वनिर्मित इस संसार को जब किसी प्रकार की तनिक सी भी क्षति पहुँचने की सम्भावना बनती है, तब हम भी अर्जुन की तरह विचलित हो जाते हैं | उस समय हमें भी किसी श्रीकृष्ण के रूप में योग्य गुरु की आवश्यकता पड़ती है, जिससे हम मोहजाल से मुक्ति पा सके और ज्ञान पाकर अर्जुन की तरह अपने गुरु को कह सकें –

  नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |

  स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||गीता-18/73||

      गीताज्ञान प्राप्त कर अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्ण से कहा था-“हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |

            ज्ञान व्यक्ति के मोह को नष्ट करता है और उसे सभी प्रकार के द्वंद्वों से मुक्त करता है | इसलिए जीवन में ज्ञान का पदार्पण होना आवश्यक है | ज्ञान क्या है ? ज्ञान है, स्वयं को पहिचानना, स्वयं के स्वरुप को जानना | स्वरुप तक पहुँच जाना ही स्मृति को प्राप्त कर लेना है | जब हमें अपने वास्तविक स्वरुप की स्मृति हो जाती है, तब जीवन में संशय का कोई स्थान ही नहीं रहता अर्थात सभी संशय मिट जाते है | संशयरहित होने से ही गुरु की आज्ञा का पालन हो सकता है अन्यथा नहीं |

           इस भौतिक संसार में न तो गुरुओं की कमी है और न ही शिष्यों की | दूरदर्शन को खोलते ही दसों गुरु ज्ञान बांटते दिखलाई पड़ जाते हैं और हजारों शिष्य उन गुरुओं को सुनते हुए | फिर भी क्या कारण है कि संसार से विसंगतियां समाप्त होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है | किसमें कमी है,गुरु में है अथवा शिष्य में है ? ज्ञान बाँटना जितना सरल है, उतना ही मुश्किल है उसको जीवन में उतारना | जब तक गुरु ज्ञान के अनुसार जीवन नहीं जियेगा तब तक शिष्य के भीतर गुरु के प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न नहीं हो सकता | जब तक गुरु के प्रति श्रद्धा भाव नहीं होगा तब तक जीवन में उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान शून्य प्रगतिकारक ही सिद्ध होगा |

          श्रद्धा और विश्वास, ये दो शब्द आध्यात्मिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं | श्रद्धा का अर्थ है, किसी के प्रति सम्मान और समर्पण का भाव | विश्वास का अर्थ है, जिसमें श्रद्धा है उनके कथन पर विश्वास करना | केवल उनके कथन पर ही विश्वास नहीं रखना है बल्कि इस बात का भी विश्वास होना चाहिए कि इनके वचनों से ही मेरा कल्याण होगा | विश्वास में तर्क-वितर्क का कोई स्थान नहीं होता | जहाँ तर्क-वितर्क होता है वहां विश्वास को ठेस पहुँचती है | इस प्रकार श्रद्धा और विश्वास दोनों एक दूसरे के पूरक हुए | जिसमें श्रद्धा भाव रखेंगे उसके प्रति हमारे भीतर विश्वास भी होगा और जिसमें विश्वास है उसके प्रति श्रद्धा भाव भी होगा |

                    हमारी आध्यात्मिक यात्रा में किसी प्रकार की प्रगति क्यों नहीं हो रही है ? यह प्रश्न जब ब्रह्मलीन स्वामी श्री राम सुख दासजी महाराज से पूछा जाता तो वे एक दोहा सुनाया करते थे-

कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान |

घर का रहा न घाट का ज्यों धोबी का श्वान ||

      यह दोहा स्पष्ट करता है कि गुरु के प्रति श्रद्धा और विश्वास पूर्णरूपेण होना चाहिए अन्यथा व्यक्ति जीवन में न तो इधर (संसार) का रहेगा और न ही उधर (परमात्मा की ओर) जा पायेगा |

           एकलव्य का अपने गुरु के प्रति पूर्ण रूप से श्रद्धा भाव था और मजबूत विश्वास भी कि उनकी शिक्षा से मैं अवश्य ही धनुर्विद्या में पारंगत हो जाऊंगा | भले ही गुरु द्रोण ने प्रारम्भ में उसे अपना शिष्य स्वीकार नहीं किया परन्तु एकलव्य की उनके प्रति दृढ़ निष्ठा और श्रद्धा ने द्रोणाचार्य की मूर्ति में ही गुरु की प्राण-प्रतिष्ठा कर दी | श्रद्धा और विश्वास के कारण ही गुरु की मूर्ति के समक्ष अभ्यास करते हुए एकलव्य विश्व का श्रेष्ठ धनुर्धर बन गया | अंततः एक दिन परिस्थिति के वशीभूत होकर द्रोणाचार्य को उसे अपना शिष्य स्वीकार करना पड़ा | गुरु-दक्षिणा में एकलव्य से उन्होंने उसके दायें हाथ का अंगूठा मांग लिया | यह सरासर अन्याय था, एक धनुर्धर के साथ | फिर भी एकलव्य ने अपने साथ होने जा रहे इस अन्याय पर तनिक भी विचार नहीं किया और अंगूठा काटकर गुरु के चरणों में डाल दिया | एकलव्य का अपने गुरु के प्रति ऐसा श्रद्धा भाव इतिहास के पन्नों में स्वर्णक्षरों से अंकित हो गया |

            गीता में अर्जुन ने कह तो दिया ‘शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ कि मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण लेता हूँ, इसलिए आप मुझे शिक्षा दीजिये | दूसरे अध्याय में कहे गए अपने इन वचनों से क्या अर्जुन ने अपने गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा दिखलाई थी ? अर्जुन के भीतर श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धा कब उत्पन्न हुई ? अवश्य ही श्री कृष्ण के प्रति अर्जुन का श्रद्धाभाव था, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता परन्तु इस श्रद्धा के उत्पन्न होने का जो कारण था, वह जानना भी महत्वपूर्ण है | माना कि अर्जुन अपने समय का महान योद्धा था परन्तु वह अपने मोह के कारण भीतर ही भीतर मानसिक रूप से कमजोर हो गया था और युद्ध-भूमि से पलायन करने की सोच रहा था | अपनी इस दुर्बल अवस्था में उसे एक सहारे की आवश्यकता थी | ऐसे समय में व्यक्ति के लिए अपने अभिन्न परम मित्र का ही सहारा लेना उचित होता है और उसने ऐसा किया भी | श्रीकृष्ण उसके परम सखा थे और सखा को ही उसने अपना गुरु माना |

        गुरु मान लेने के उपरांत भी भगवान् श्री कृष्ण के प्रति उसकी श्रद्धा बीच-बीच में डांवाडोल होती रही, तभी तो उसने बहती ज्ञान धारा के मध्य एक-एक कर कई प्रतिप्रश्न कर डाले | प्रतिप्रश्न करना किसी प्रकार अनुचित नहीं है क्योंकि ज्ञान को भीतर तक ले जाने के लिए उनका उठना स्वाभाविक है | प्रतिप्रश्न से ही शिष्य की मुमुक्षा का पता चलता है | परन्तु श्रद्धा और मुमुक्षा में अंतर है | श्रद्धा गुरु के प्रति समर्पण है और मुमुक्षा गुरु के समक्ष ज्ञान के प्रति जिज्ञाषा व्यक्त करना |

         दसवें अध्याय में भगवान् ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया और अर्जुन को अंत में कह भी दिया कि और अधिक जानने से तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए | तुम तो केवल इतना जान लो कि ‘एकांशेन स्थितो जगत्त्’ - मेरे एक अंश में यह संसार व्याप्त है और मैं उसमें स्थित हूँ | तब जाकर अर्जुन के मन में भगवान् के प्रति श्रद्धा दृढ हुई और उसका संशय नष्ट होना प्रारम्भ हुआ | श्रद्धा होते हुए भी उसने भगवान् के वास्तविक स्वरुप को देखना चाहा | जब अर्जुन को भगवान् का विश्वरूप दर्शन हुआ तब जाकर उसके मन में श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति और पूर्ण समर्पण भाव पैदा हुआ |

           हमारा जीवन भी अर्जुन से तनिक भी भिन्न नहीं है | हमारी श्रद्धा भी घडी के पेंडुलम (दोलक) की तरह इधर उधर डोलती रहती है | सुख मिला तब भगवान् को भूल गए और दुःख आया तो “भगवान् तू ही एक सहारा है” कहने लगे परन्तु क्या कभी भगवान् के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हुए हैं ? नहीं हुए और न ही कभी हो सकेंगे क्योंकि संसार का सुख हमें बार बार अपनी ओर आकर्षित करता है और हम भगवान् को भूल जाते हैं | मनुष्य जीवन का उद्देश्य है-आत्मज्ञान को उपलब्ध होना अर्थात परमात्मा को प्राप्त कर लेना | परन्तु हमारा उद्देश्य हमारी कामनाओं के बोझ तले दबकर सिसकियाँ लेने लगता है | कहने का अर्थ है कि हमारी कामनाएं हमें संसार से मुक्त नहीं होने देती |

          जीवन का उद्देश्य है कामनारहित होना, कामनाओं में उलझकर सुखी-दुखी होना नहीं है | कामना किसी की पूरी नहीं हो सकती परन्तु अपने उद्देश्य तक प्रत्येक कोई पहुंच सकता है | कामनाओं में डूबे रहेंगे तो जन्म-जन्मान्तर तक भटकते रहेंगे और उद्देश्य के पीछे लग जायेंगे तो भटकने से मुक्त हो जायेंगे | गीता का ज्ञान मात्र इतना ही है | आवश्यकता है, गीता के ज्ञान को मानकर गुरु के वचनों का पालन करें | भगवान् श्री कृष्ण ने अपने वचनों के माध्यम से अर्जुन को कौन सा ज्ञान दिया था और अर्जुन ने उन वचनों के अनुसार कैसा आचरण किया ? यह जानने के लिए हमें गीता के मर्म को जानना होगा |

         श्रीमद्भगवद्गीता न जाने कितनी बार कही गयी है और सुनी गयी है परन्तु इस गीता-ज्ञान को कहने और सुनने से अधिक महत्वपूर्ण है कि हम यह जानें कि इसको कितने व्यक्तियों ने आत्मसात किया है | गीता-ज्ञान की प्रासंगिकता इसी से सिद्ध होगी, कहने और सुनने मात्र से नहीं | अगर इस ज्ञान को किसी भी व्यक्ति द्वारा आत्मसात नहीं किया जायेगा तो धीरे-धीरे एक दिन यह गीता भी लुप्तप्राय हो जाएगी | गीता चाहे कुछ समय के लिए लुप्तप्राय हो जाये परन्तु इसका अप्रासंगिक होना असंभव है | इसी गीता ज्ञान को पुनर्जीवित करने के लिए फिर एक बार श्री कृष्ण को इस धरा पर अवतार लेना होगा और साथ ही अर्जुन को भी, जो यह ज्ञान सुन सके | 

        गीता में भगवान श्री कृष्ण स्वयं इस ज्ञान के लुप्त होने की बात को स्वीकारते हुए अर्जुन को कह रहे हैं –

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेSब्रवीत् ||

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः |

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ||गीता-4/1-2||

             श्री कृष्ण कह रहे हैं-हे अर्जुन! मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा | इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना; किन्तु उसके बाद वह योग इस धरा से लुप्तप्राय हो गया | 

                  चलिए, श्रीमद्भगवद्गीता के कुछ पन्नों को पलटते हुए आधुनिक युग के साथ इसका सामंजस्य बिठाने का प्रयास करते हैं | भौतिकतावादी युग ने मनुष्य के जीवन को बड़े संकट में डाल रखा है | आधुनिक विज्ञान ने मनुष्य को भौतिक संसाधनों के प्रति आसक्त किया है | विज्ञान का उद्देश्य भले ही प्रकृति के रहस्यों को एक एक कर के खोलना रहा हो परन्तु इन रहस्यों से जरा सा पर्दा उठते ही मनुष्य उन संसाधनों का दास बनता जा रहा है | सुख प्राप्ति के लिए संसाधनों के प्रति उसकी दासता जितनी अधिक बढेगी उतना ही वह परमात्मा से अर्थात स्वयं से दूर होता चला जायेगा | जब मनुष्य एक दिन स्वयं से ही दूर चला जायेगा तो फिर ऐसी वैज्ञानिक उपलब्धियों का लाभ ही क्या ? संसाधनों का उपयोग करना अनुचित नहीं है बल्कि उन संसाधनों का दास बन जाना अनुचित है |

                गीता-ज्ञान बड़ा ही विलक्षण ज्ञान है और इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए योग्य पात्र का होना आवश्यक है | जब किसी योग्य पात्र का अभाव हो जाता है तभी यह ज्ञान लुप्तप्राय हो सकता है अन्यथा नहीं | यही कारण है कि गीता की अनेकों विद्वानों ने अपने अपने अनुसार व्याख्याएं की है, जिससे इस ज्ञान के प्रति समाज में रुचि बनी रहे और योग्य पात्रों का कभी अभाव न होने पाये | इस लेख में मैं उन महत्वपूर्ण तथ्यों को आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास करने जा रहा हूँ, जिससे हम यह समझ सकें कि कमी गीता-ज्ञान में नहीं है बल्कि हमारे में है, जो इस ज्ञान का समुचित उपयोग नहीं कर पा रहे हैं |  

      श्रीमद्भगवद्गीता की प्रासंगिकता इसके ज्ञान को आत्मसात करने में ही है, केवल पढ़ने, सुनने और व्याख्या करते रहने में नहीं | अगर हम केवल इन तीन कार्यों में ही उलझे रहे तो एक दिन यह ज्ञान भी लुप्तप्राय हो जायेगा |

           इस ज्ञान के लुप्तप्राय हो जाने का अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि ज्ञान सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो गया था, बल्कि इसका अर्थ है कि ज्ञान स्मृति में नहीं रह पाया था | स्मृति के लोप हो जाने का अर्थ ज्ञान का नष्ट हो जाना नहीं है बल्कि उस ज्ञान का स्मृति में न बने रहना है | गीता-ज्ञान शाश्वत ज्ञान है, सनातन ज्ञान है, यह कभी भी नष्ट नहीं हो सकता |

        जब भगवान श्री कृष्ण गीता-ज्ञान का समापन कर चुके होते हैं और अर्जुन से पूछते हैं कि क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया ? तभी अर्जुन कह उठते हैं –

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||गीता-18/73||

   अर्जुन स्वीकार करते हैं कि हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |

              प्रश्न यह उठता है कि क्या भगवान श्री कृष्ण से ज्ञान पाकर सचमुच में अर्जुन का मोह नष्ट हो गया था ? क्या उसने स्मृति प्राप्त कर ली थी ? स्मृति उस ज्ञान की जो उसके जीवन में मोह उत्पन्न हो जाने के कारण विस्मृत कर दिया गया था | क्या वह पूर्णरूप से संशय रहित हो गया था ? हमारा जीवन भी अर्जुन की तरह का ही जीवन है | हमारे में और अर्जुन में तनिक मात्र भी भिन्नता नहीं है | अर्जुन को साक्षात् परमात्मा से ज्ञान प्राप्त हुआ था और हमें वही ज्ञान श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से मिल रहा है और संशय रहित होने के लिए हमें भी श्रीकृष्ण जैसे योग्य गुरु भी उपलब्ध है | फिर क्या कारण है कि हम स्मृति प्राप्त कर लेने के बाद भी बार-बार मोह में पड़ जाते हैं और ज्ञान को विस्मृत कर संशयग्रस्त हो जाते हैं ? यह सब जानने के लिए हमें उस प्रसंग में उतरना होगा जो महाभारत में वर्णित है |

            महाभारत में वर्णित कई प्रसंग अर्जुन से सम्बंधित है जो गीता-ज्ञान प्राप्त कर लेने के उपरांत उसके जीवन में घटित हुए हैं | हमारे में और अर्जुन में नाम, समय और स्थान आदि का अंतर भले ही हो परन्तु उसकी और हमारी मानसिकता में तनिक भी अंतर नहीं है | इसी से हम समझ सकते हैं कि जो कुछ अर्जुन ने गीता-ज्ञान प्राप्त कर के अपने जीवन में किया वह हम भी कर सकते हैं | अर्जुन ने गीता-ज्ञान का अपने जीवन में किस प्रकार उपयोग (Utilise) किया, जब हम यह समझ लेंगे तभी हम श्रीमद्भगवद्गीता जैसे महान ग्रन्थ की सार्थकता (Significance) को समझ पाएंगे |

           स्मृति को प्राप्त कर लेने से अर्थ है, आत्म-बोध को उपलब्ध हो जाना | भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में आत्म-बोध को उपलब्ध होने के तीन मार्ग बतलाये हैं | ये तीन मार्ग हैं-ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग | कर्म, भक्ति और ज्ञान मार्ग एक दूसरे के पूरक मार्ग है | ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि इनमें से प्रत्येक साधन आत्मबोध के लिए अपने आप में स्वतंत्र साधन है।इसका अर्थ यह नहीं है कि एक साधन में रत मनुष्य दूसरे साधन को उपयोग में बिल्कुल नहीं लेता। किसी साधक के लिए एक साधन प्रधान अवश्य होता है फिर भी शेष दोनों साधनों का उपयोग भी उसके द्वारा किया जाता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे किसी भी मनुष्य में केवल एक ही प्राकृतिक गुण की उपस्थिति नहीं हो सकती | मनुष्य जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए सत, रज और तम तीनों प्राकृतिक गुणों की उपस्थिति होनी आवश्यक है | हाँ, यह बात अलग है कि तीनों गुणों में से किसी एक प्राकृतिक गुण की प्रधानता प्रत्येक मनुष्य में होती है | किसी में सत्व गुण की प्रधानता होती है, किसी में रज की और किसी में तमोगुण की | आत्म-बोध के लिए सांसारिक व्यक्ति के लिए कर्म-योग उपयुक्त अवश्य होता है, परन्तु आत्म-बोध के लिए कर्म के साथ-साथ ज्ञान और भक्ति की उपस्थिति भी आवश्यक होती है | केवल एक अकेले कर्म-योग से भी आत्म-ज्ञान होना संभव नहीं हो सकता | उसके साथ ज्ञान और भक्ति का होना भी आवश्यक है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि कर्म योग तभी सिद्ध होता है जब सभी कर्म, ज्ञान और भक्ति के आधार पर किये जायें।

                 कर्म-योग व्यक्ति के कुछ न कुछ करते रहने से सम्बंधित है | हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्म हमारा व्यवहार (Conduct) निर्धारित करते है | भक्ति-योग मनुष्य की भावनाओं (Emotions) से सम्बंधित है जबकि ज्ञान-योग मनुष्य के व्यक्तित्व से, स्वयं के अस्तित्ववान (Personal identity) होने से सम्बंधित है | आत्म-बोध को उपलब्ध होना, केवल कुछ करने से, जानने से अथवा भावना व्यक्त करने से, इन तीनों में से किसी अकेले एक से संभव नहीं हो सकता | तीनों का एक साथ उपस्थित होना आवश्यक है, तभी व्यक्ति योगी हो सकता है | हाँ, मनुष्य में उपस्थित प्रकृति के किसी एक गुण की प्रधानता होना, इन तीनों में से किसी एक मार्ग अथवा योग के चयन को सुनिश्चित अवश्य ही कर देता है |

          प्रकृति के गुणों में से किसी एक गुण की प्रधानता के अनुरूप ही मनुष्य को इनमें से किसी एक मार्ग पर चलना अधिक सुगम प्रतीत होता है अथवा फिर वह इन तीनों ही मार्गों से विमुख भी बना रह सकता है | सब कुछ प्रकृति के गुणों की उपस्थिति और किसी एक गुण की प्रधानता पर निर्भर करता है | जो व्यक्ति इन तीनों योग में से किसी भी एक योग को मुख्य साधन नहीं बना सके तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह कर्म करने से भी विमुख हो जाएगा | कर्म करना अलग बात है और कर्म-योगी होना अलग बात है | अतः व्यक्ति भले ही किसी एक भी योग को आत्मसात न करे परन्तु जीवन में कर्म तो उसको फिर भी करने ही पड़ेंगे |

             कर्म का सम्बन्ध हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियों (भौतिक शरीर) से है, ज्ञान का सम्बन्ध मस्तिष्क (बुद्धि) से है, जबकि भावना अर्थात भक्ति का सम्बन्ध हृदय (मन) से है | हमारी समस्त कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय रहते हुए व्यवस्थित रूप से तभी कर्म कर सकती है, जब हमारे मस्तिष्क और हृदय के साथ उनका स्वस्थ रूप से तालमेल बना रहे | इनमें से किसी एक में भी आया व्यवधान हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने से वंचित कर सकता है |

            कर्म-योग का सम्बन्ध हमारे शरीर से है, ज्ञान-योग का सम्बन्ध बुद्धि से है और भक्ति-योग का सम्बन्ध हमारे मन से है | शरीर से ‘करना’ होता है, बुद्धि से ‘जानना’ होता है और मन से ‘मानना’ होता है | अतः शरीर, मन और बुद्धि इन तीनों में सामंजस्य (Harmony) होना आवश्यक है | हमारे जीवन में दुःख इसीलिए ही है क्योंकि इन तीनों अर्थात शरीर, मन और बुद्धि में सामंजस्य का अभाव है |यह अभाव ही किसी भी एक योग को साधने में बाधक बन जाता है |

       हम स्वयं में उपस्थित गुणों की प्रधानता (Dominancy) के अनुरूप किसी एक योग को प्रमुखता देते हुए अपने साध्य (Target) तक सुगमता से पहुँच सकते हैं | गीता में भगवान ने आपको तीनों मार्ग बता दिए हैं, आपको अपने में उपस्थित गुणों के आधार पर किसी एक मार्ग को प्रधानता (Priority) देते हुए चयन करना होगा | भगवान ने आप पर ही यह कार्य छोड़ा है | उन्होंने गीता ज्ञान का समापन करते हुए अर्जुन को भी ऐसा ही कहा है ।

  गीता-ज्ञान का समापन करते हुए भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं -

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु || गीता-18/63||

          अर्थात इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया है | अब तुम इस रहस्य युक्त ज्ञान पर पूर्णतया भली भांति विचार कर, जैसे चाहता है, वैसे ही कर |

            परमात्मा की यही विशेषता है कि वे सब कुछ बताकर भी निर्णय (Decision) सामने वाले श्रोता पर ही छोड़ देते हैं | इसका कारण है कि मनुष्य चाहे कितना ही ज्ञान प्राप्त कर ले, वह उस ज्ञान को किस प्रकार लेता है, यह सब उसके विवेक पर निर्भर करता है, ज्ञान देने वाले की क्षमता पर नहीं | इस संसार में अथाह ज्ञान भरा पड़ा है, ज्ञान देने वाले गुरु भी बहुत हैं, ज्ञान देने वाले शास्त्र भी बहुत हैं फिर भी व्यक्ति मुक्ति की राह पर चल नहीं पा रहा है | कारण है, ज्ञान को जीवन में धारण न करना | जरा विचार कीजिये, गीता- ज्ञान को आत्मसात कर उस पर चलने वाले कितने लोग हैं ? इस प्रश्न का उत्तर आप और मैं, हम सब भली-भांति जानते हैं |

          भगवान श्री कृष्ण ने अपने सखा, अपने शिष्य अर्जुन को गोपनीय (Confidential) से भी अति गोपनीय ज्ञान कह दिया है | यह गोपनीय ज्ञान रहस्यों से परिपूर्ण है और रहस्य युक्त ज्ञान केवल वही व्यक्ति आत्मसात कर सकता है, जो ज्ञान को आत्मसात करने से पूर्व किसी भी प्रकार के कथित ज्ञान से पूर्णतया रिक्त हो | अर्जुन तो पहले से ही कथित ज्ञान से भरा पड़ा था, तभी तो वह युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व भगवान श्री कृष्ण से एक ज्ञानी की तरह बातें कर रहा था | युद्ध से होने वाली हानि और उससे लगने वाले पाप को समझा रहा था | भगवान श्री कृष्ण चाहते हैं कि ज्ञान को भली भांति विचारकर उसके अनुसार चलने अथवा उस पर न चलने का निर्णय स्वयं अर्जुन करे | भगवान ने तो अर्जुन के समक्ष ज्ञान देकर ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर दिया है कि उसे निर्णय करने में जरा सी भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए |  

       पहले से ही बुद्धि में भरे ज्ञान (जो कि वास्तव में ज्ञान न होकर अज्ञान है) को मिटाए बिना वास्तविक ज्ञान को आत्मसात नहीं किया जा सकता | पूर्व में भरा ज्ञान, जोकि केवल सांसारिक ज्ञान है, के सामने वास्तविक ज्ञान बौना बन कर रह जाता है जिससे व्यक्ति के  सामने द्वंद्व पैदा हो जाता है | वह समझ नहीं पाता कि कौन सा ज्ञान वास्तविक ज्ञान है | समय आने पर पूर्व में प्राप्त सांसारिक ज्ञान ही आध्यात्मिक ज्ञान पर भारी पड़ जाता है जिसके कारण व्यक्ति के सामने आने वाली विपरीत परिस्थितियां उसे मोहग्रस्त कर देती है |

           एक बार एक संत भिक्षा के लिए एक घर में जाते हैं |  भिक्षा देने वाली महिला संत से कहती है कि मुझे ज्ञान दीजिये | संत कहते हैं कि अभी तक तुमने क्या क्या ज्ञान प्राप्त कर लिया है ? तब वह महिला अपनी पढी और सुनी ज्ञान की बातें संत को बतला देती है | बार बार संत से ज्ञान की बातें कहने का आग्रह करने पर संत कहते हैं कि आज नहीं, कल जब मैं भिक्षा के लिए आऊंगा तब तुम्हें ज्ञान दूंगा | दूसरे दिन भिक्षा के लिए जब संत उसी द्वार पर जाते हैं तब महिला भिक्षा देने के लिए बाहर आती है | संत भिक्षा के लिए पात्र को आगे कर देते हैं और कहते हैं कि इसमें भिक्षा डाल दो | महिला पात्र को देखती है कि उसमें तो गोबर भरा है | महिला कहती है कि महात्माजी, इसमें तो गोबर भरा है | संत कहते हैं भिक्षा इसी पात्र में डाल दो | महिला कहती है कि इससे तो भोजन दूषित हो जायेगा |

            तब संत महिला को समझाते हैं कि इसी प्रकार पहले से ही तुम्हारे भीतर जो ज्ञान भरा पड़ा है उस पर मेरे द्वारा दिया गया ज्ञान भी दूषित होकर अर्थहीन हो जायेगा | इसलिए पहले उस ज्ञान को बाहर निकाल फेंको, तभी मेरे दिए ज्ञान का कुछ प्रभाव होगा अन्यथा मेरे द्वारा दिया ज्ञान भी अर्थहीन होकर रह जायेगा | हम भी उस महिला की तरह ही हैं जो पहले से ही ज्ञान से भरे हैं | इसीलिए हमारे ऊपर भी गीता का ज्ञान भी किसी प्रकार का प्रभाव नहीं छोड़ पा रहा है |  

                 आइये ! पुनः चलते है कुरुक्षेत्र में होने जा रहे युद्ध की ओर जहां अभी युद्ध प्रारम्भ नहीं हुआ है | दोनों पक्षों की सेनाएं आमने-सामने डटी हुई है और युद्ध के लिए तत्पर है | दोनों सेनाओं के मध्य अर्जुन का रथ लिए भगवान् श्री कृष्ण खड़े हैं | अपने भीतर भरे ज्ञान (अज्ञान) के कारण अर्जुन विषाद कर रहे हैं | विषाद मनुष्य को अवसाद में ले जाता है और अवसाद मनुष्य को कुछ भी करने लायक नहीं छोड़ता है | भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को अवसाद में जाने से रोकने का प्रयास कर रहे हैं | अथक प्रयास के बाद जब भगवान् को प्रतीत होता है कि अब अर्जुन सभी संशयों से मुक्त हो चूका है तब वे अर्जुन को अपने विवेक से निर्णय करने का कह देते हैं | इस प्रकार समस्त गीता-ज्ञान को पाकर अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को अब कह रहे हैं-

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत |

स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्य वचनं तव || गीता-18/73||

अर्थात हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |

                  यह श्लोक गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद का अंतिम श्लोक है, जो अर्जुन द्वारा उच्चारित किया गया है | इस श्लोक के अनुसार भगवान श्री कृष्ण को अर्जुन आश्वस्त करता है कि उसका समस्त प्रकार का मोह समाप्त हो चूका है और उसने अपनी स्मृति प्राप्त कर ली है | वह द्वंद्व से बाहर निकल कर निर्द्वंद्व हो चूका है अतः वह भगवान की आज्ञा का पालन करेगा |

          भगवान् की आज्ञा क्या है ? भगवान् की आज्ञा है-‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज’ | क्या अर्जुन भगवान् श्री कृष्ण के प्रति पूर्ण रूप से शरणागत हो गए थे ? क्या अर्जुन ने मीरां की तरह कह दिया था –‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ ? इस श्लोक को पूर्ण रूप से समझने के लिए इस श्लोक इसके भीतर उतरते हैं |  

              गीता के इस श्लोक (18/73) में चार बातें अर्जुन द्वारा कही गयी है | प्रथम, मेरा मोह (अज्ञान) नष्ट हो गया है; दूसरी बात, मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है; तीसरी, मैं संशय रहित हो गया हूँ और चौथी तथा अंतिम बात कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा | इन चारों में अतिमहत्वपूर्ण बात है, मोह (अज्ञान) का नष्ट हो जाना | अतः प्रथम बात को थोड़ा विस्तार से जानना आवश्यक है तभी हम निश्चित कर सकते हैं कि गीता-ज्ञान का अर्जुन पर कितना प्रभाव पड़ा है ?

         अर्जुन पर पड़े प्रभाव के अनुसार ही हमारे ऊपर इस गीता-ज्ञान का क्या प्रभाव पड़ सकता है, यह निश्चित होगा | मोह नष्ट होना, ज्ञान का प्रथम प्रभाव होता है | शेष सभी तीनों प्रभाव मोह के अधीन है | मोह के नष्ट होते ही व्यक्ति को स्मृति भी प्राप्त हो जाती है, फिर वह निर्द्वंद्व (संशय रहित) होकर सब कुछ परमात्मा के नियमानुसार करेगा अर्थात उनकी आज्ञा का पालन करेगा | हम सब सांसारिक मोह में इतने जकड़े हुए हैं कि हमें मोह से मुक्त होना लगभग असंभव प्रतीत होता है | मोह हमें एक प्रकार की सुखद अनुभूति देता है, जो हमें साक्षात् इस जीवन में अनुभव होती दिखाई देती है |

              ज्ञानी चाहे कितना ही ज्ञान देता रहे कि यह संसार मिथ्या है, मृग-मरीचिका है परन्तु हमें जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, हम उसी को सत्य मानते हुए जड़ बने रहते हैं | परिवार जनों का मोह, शरीर का मोह, व्यवसाय का मोह, धन-सम्पति का मोह आदि असंख्य मोह के बंधनों से छूट पाना इतना आसान नहीं है | इस मोह की पकड़ इतनी अधिक मजबूत है कि गीता का ज्ञान भी हमें इस मोह से तत्काल मुक्त नहीं कर सकता | यह मोह आखिर है क्या ?

              मोह अज्ञान है | जो परिवर्तनशील है, उसको शाश्वत मान लेना ही मोह है | जो अपना नहीं है, उसको अपना मान लेना ही मोह है | फिर इस अपनत्व को गहराई से आत्मसात कर लेना और उसे ही अपना संसार बना लेना अपनी आंतरिक दृष्टि को भी खो देना है | आखिर ‘मोह में व्यक्ति अंधा हो जाता है’, यह कथन चरितार्थ हो ही जाता है | मोह के कारण व्यक्ति अपना भला-बुरा नहीं समझ सकता और उसी के वशीभूत होकर वह अपनी स्मृति खो बैठता है | वह यह नहीं जानता कि वह क्या है, कौन है और उसके इस जीवन का उद्देश्य क्या है ? 

               ज्योंही व्यक्ति मोह के बंधन से छूटता है, उसको अपने होने का, अपने जीवन के उद्देश्य का भान हो जाता है | इसी को स्मृति को प्राप्त हो जाना कहते हैं | इसीलिए अर्जुन यहाँ पर कह रहा है कि मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है | आप अपने शरीर को ही स्वयं का होना मान रहे हैं; स्वयं को भूल जाना, अपने आपको विस्मृत कर देना, मोह के कारण ही संभव होता है और ज्योंही आपका मोह समाप्त हो जाता है, आप को अपनी सही स्थिति का अनुभव हो जाता है | यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे दर्पण पर धूल जम जाती है तब आप उसमें अपना वास्तविक स्वरूप नहीं देख सकते | ज्योंही दर्पण से धूल की वह परत हटा दी जाती है आपका वास्तविक स्वरूप आपके समक्ष प्रकट हो जाता है | इस प्रकार जब आपको अपनी स्मृति पुनः प्राप्त हो जाती है, तब आपका प्रत्येक संशय भी समाप्त हो जाता है | इस प्रकार संशय की समाप्ति हो जाना आपके मन को स्थिरता प्रदान कर देता है जिससे आपकी सोचने समझने की क्षमता तीव्र हो जाती है | मोह के नष्ट हो जाने से लेकर निर्द्वंद्व होने की स्थिति में पहुँचने तक, प्रभु कृपा और गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण होती है |

               परमात्मा की कृपा के बिना न तो मोह नष्ट हो सकता है और न ही संशय दूर हो सकता है | प्रभु कृपा से आपको गुरु के रूप में एक सच्चा मार्गदर्शक मिल जाता है, जो आपको मोह के जाल से बाहर निकाल कर प्रत्येक संशय से रहित कर देता है | संशय रहित जीवन ही वास्तविकता में जीवन होता है अन्यथा द्वंद्व में तो सारा संसार जी ही रहा है | जब तक आप अपने जीवन के होने, अपने स्वयं के होने को नहीं समझते तब तक संशय ग्रस्त ही बने रहते हैं | संशय दूर होते ही आपकी मानसिक दशा भी स्थिर हो जाती है और धीरे-धीरे आप आत्म-बोध होने की ओर बढ़ने लगते हैं |

         इतना ज्ञान हो जाने पर मनुष्य समझ जाता है कि वह कुछ भी नहीं करता है बल्कि सब कुछ परमात्मा की इच्छानुसार ही होता है | उसके हाथ में कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि वह स्वयं भी व्यक्तिगत रूप से कुछ भी नहीं है बल्कि सब कुछ वह एक परमात्मा (सर्व लोकैक नाथम्) ही है | यही कारण है कि अर्जुन यहाँ पर कह रहे हैं कि अब वह सब कुछ वैसे ही करेगा जैसा उसे भगवान श्री कृष्ण कहेंगे अर्थात ‘करना और होना परमात्मा की मर्जी के अनुसार’, इस बात को स्वीकार कर लेगा | इस स्थिति को उपलब्ध हो जाने के बाद ही मनुष्य परमात्मा होने की राह पर आगे बढ़ता है | 

              परमात्मा होने की राह पर आगे बढ़ने का अर्थ परमात्मा हो जाना नहीं है | आध्यात्मिकता की राह बड़ी फिसलन भरी राह है | यहां पर कदम-कदम पर फिसल जाने का खतरा बना रहता है | जब तक सोपान के अंतिम भाग तक पहुँच कर छत पर पांव नहीं जमाये जाते तब तक गिरने का भय बना ही रहता है | 

          एक सांसारिक व्यक्ति को जिन संकटों का सामना अपने जीवन में करना पड़ता है, उससे कहीं अधिक संकट आध्यात्मिकता की राह पर चलने से व्यक्ति के समक्ष उपस्थित होते हैं | ये संकट ही मनुष्य की कड़ी परीक्षा लेते है | जो इन संकटों से निकल गया, वही परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है | आध्यात्मिकता के रास्ते की वे बाधाएं क्या हैं, जो व्यक्ति को अपने लक्ष्य से भटका देती हैं ? अर्जुन को गीता-ज्ञान साक्षात् परमात्मा श्री कृष्ण से मिला था, परन्तु फिर भी वह परमात्मा को नहीं पा सका | परमात्मा तो सभी के साथ सदैव है।साथ में होने का अर्थ यह नहीं है कि आप स्वयं परमात्मा हो गए है।स्वयं का परमात्मा हो जाना ही आत्मबोध को उपलब्ध होना है। 

         जब अर्जुन जैसा व्यक्ति जो सतत कई वर्षों तक स्वयं परमात्मा के सानिध्य में रहा था, फिर भी परमात्मा से उसकी दूरी बनी रही, तो फिर आप की और हमारी तो उसके सामने बिसात ही क्या है ? भगवान श्री कृष्ण भौतिक रूप से अर्जुन के साथ अवश्य बने रहे परन्तु आत्मिक स्तर पर क्या अर्जुन उनके साथ एकत्व स्थापित कर सका ?

                हम अपने जीवन में विभिन्न प्रकार के दुःख और सुख भोगते हैं | सुख में हम इतने अधिक उत्साहित हो जाते हैं कि हमें परमात्मा की स्मृति तक नहीं रहती | जब दुःख सामने आता है, तो एक पल में ही व्यथित होकर भगवान को पुकारने लगते हैं | हमारी भौतिक दृष्टि में परमात्मा सुख में भी हमारे आस-पास नहीं थे और दुःख में भी कहीं दिखलाई नहीं पड़ते | जबकि वास्तविकता यह है कि परमात्मा हमें छोड़कर जा ही नहीं सकते, जिस समय परमात्मा इस भौतिक शरीर को छोड़ देंगे, हमारा इस एक योनि का जीवन भी समाप्त हो जायेगा अर्थात यह शरीर भी नष्ट हो जायेगा | इस संसार में हमें दुःख मिलता ही इसी कारण से है कि हम कर्म भी केवल इस शरीर के लिए ही करते हैं | जबकि महत्वपूर्ण हमारा शरीर नहीं बल्कि हमारी आत्मा है, जो कि हम स्वयं है | हम शरीर नहीं हैं | आत्म-बोध हो जाने पर शरीर में रहते हुए भी हम केवल ‘शरीर’ नहीं रहते बल्कि जिस के कारण यह शरीर मिला है, वही हम हो जाते हैं  | आत्म-ज्ञान को प्राप्त होकर ही हम मुक्त हो सकते हैं अन्यथा नहीं ।

              अर्जुन ने कह तो दिया कि ‘करिष्ये वचनं तव’ परन्तु क्या उसने भगवान् श्री कृष्ण द्वार कहे गए वचनों के आधार पर उस ज्ञान को प्राप्त कर लिया जिसको पाकर मनुष्य संसार से मुक्त होकर आत्म-बोध को उपलब्ध हो जाता है |नहीं, ज्ञान को सुनकर भी उसका मन युद्ध भूमि पर ही  डांवाडोल हो गया था |

        आइये ! अब हम यह जानने का प्रयास करें कि वे कौन से कारण थे, जिनके कारण अर्जुन जैसा शिष्य भी आत्म-ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सका | अर्जुन के जीवन में जो कारण रहे, वही कारण हमारे जीवन में आज भी उपस्थित हैं जो हमारी मुक्ति में बाधक बनते है | श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित ज्ञान को श्री कृष्ण से प्राप्त कर लेने के उपरांत अर्जुन के जीवन में उस महायुद्ध में और उस युद्ध के उपरांत क्या कुछ घटित हुआ, इसको जानने के लिए महाभारत की और चलते हैं |

                गीता महाभारत के भीष्म-पर्व के अंतर्गत आती है | गीता-ज्ञान से आगे की बातें महाभारत में वर्णित है | गीता-ज्ञान प्राप्त कर लेने के उपरांत अर्जुन ने कह दिया है कि वह अब वही करेगा, जैसा उसे भगवान श्री कृष्ण आदेश देंगे | उसके अनुसार उसका मोह नष्ट हो चूका था और मानसिक रूप से संशय रहित होकर वह स्थिर हो गया था | कुरुक्षेत्र की रण-भूमि में रण-भेरी बज चुकी है और युद्ध प्रारम्भ हो गया है | श्री कृष्ण के ज्ञान के प्रभाव से अर्जुन मन लगाकर युद्ध भी कर रहा है | समता का आचरण करते हुए वह समभाव से अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग कर रहा है | युद्ध अपनी निर्बाध गति से आगे बढ़ रहा है और आखिर एक दिन वह घडी आ जाती है, जब अर्जुन पुनः मोहग्रस्त हो जाता है | उधर सामने विरोधी पक्ष में पितामह भीष्म और इधर अर्जुन | अर्जुन के मानसिक दृष्टि पटल पर पितामह के साथ बाल्यकाल से लेकर आज तक के दृश्य एक-एक कर आ जा रहे हैं | वह अभी भी महाप्रतापी भीष्म को एक योद्धा न मानकर अपना पितामह ही मान रहा है |

                  पितामह को सामने देखकर वह श्री कृष्ण द्वारा दिया गया वह ज्ञान भूल चूका है कि ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च‘ अर्थात जन्म लेने वाले की मृत्यु और मरने वाले का जन्म होना निश्चित है | एक व्यक्ति को, एक योद्धा को केवल अपना पितामह मान लेना भी मोह है | इस प्रकार उत्पन्न हुए मोह के कारण भला अपने पितामह को वह कैसे मार सकता है ? अर्जुन इस मोह के वशीभूत होकर यह भी भूल गया था कि श्री कृष्ण ने कहा है कि ‘देही नित्यमवध्योSयं देहे सर्वस्य भारत’ अर्थात देह में स्थित यह देही सदैव ही अवध्य है यानि इसे मारा नहीं जा सकता, केवल देह मरती है | मोहग्रस्त होकर वह अपने क्षत्रिय धर्म को भी भूल गया था जहाँ उसका एकमात्र धर्म युद्ध करना होता है | जैसे तैसे भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझा बुझा कर इस मोह रुपी अज्ञान से बाहर निकालते हैं और इस प्रकार युद्ध फिर से अपनी लय प्राप्त कर लेता है और भीष्म को अर्जुन के द्वारा शर-शैया उपलब्ध होती है |

                 इसी प्रकार युद्ध के मध्य में ही अर्जुन जान चूका है कि कर्ण उसका बड़ा भाई है | एक बार फिर युद्ध में मोहग्रस्त होने की स्थिति अर्जुन के सामने उपस्थित हो जाती है | इस बार भीष्म के स्थान पर कर्ण अर्जुन के सामने होता है | मोह उसे एक बार फिर अपनी पकड़ में जकड़ लेता है | युद्धभूमि में निहत्था कर्ण अपने रथ के पहिये को दलदल से बाहर निकालने का प्रयास कर रहा है | निहत्थे पर प्रहार करना युद्ध के नियम के विरुद्ध होता है | अर्जुन इस नियम के वशीभूत हो जाता है और मोहग्रस्त होकर उसे केवल देख भर रहा है | श्री कृष्ण उसे फिर मोह से बाहर निकलते हुए स्मृति दिलाते हैं कि इस युद्ध में नियम अनेकों बार टूटे हैं | अभिमन्यु को भी तो नियम तोड़ कर मारा गया था | यह जानकर ही अर्जुन मोह से बाहर निकल पाता है और कर्ण का वध कर देता है |

           एक बार ज्ञान हो जाने के बाद भी बार-बार मोहग्रस्त हो जाना ‘मनुष्य की नियति है’ ऐसा कहा जा सकता है | मोह संसार का आकर्षण है इसलिए यह अंधकार है, अज्ञान है | अन्धकार को केवल आलोक से ही दूर किया जा सकता है | अज्ञान को केवल ज्ञान से ही मिटाया जा सकता है | वह ज्ञान, जो केवल पढ़ा अथवा सुना ही नहीं जाये बल्कि उस ज्ञान को गुना भी जाये, उस ज्ञान के अनुसार जिया जाये | जब व्यक्ति ज्ञान में जीने लगता है, वह पुनः मोह के जंगल में भटकता नहीं है | अर्जुन ने केवल ज्ञान को सुना ही था, ज्ञान के अनुरुप चला नहीं था, उस ज्ञान को जिया नहीं था, उस ज्ञान को पूर्ण रूप से आत्मसात नहीं किया था |

                  आपके जीवन में भी आपको अपने लक्ष्य से भटकाने के लिए ऐसे ही सब विकार अवरोध बनकर आयेंगे | अगर आप ने ज्ञान को आत्मसात किया होगा तो फिर संसार की कोई भी शक्ति आपको मोह ग्रस्त नहीं कर सकती | परन्तु यह सब इतना सरल नहीं है | साधारण मनुष्य के लिए तो एक दम नहीं है | ब्रह्मा पुत्र नारद जैसे देवर्षि भी स्त्री के मोह के जाल में फंसने से नहीं बच पाए थे |

         देवर्षि नारद ने काम को जीत लिया था | इसका उनको अभिमान हो गया था | वे सभी देवताओं को अपनी उपलब्धि बताते हुए आत्मप्रशंसा कर रहे थे | भगवान शंकर ने उन्हें कहा भी कि मुझे तुम जो यह सब काम-विजय की गाथा सुना रहे हो न, उसे भगवान विष्णु को मत बताना | देवर्षि तो काम-विजय के मद में चूर थे | भला वे शिव की बात को सुनने वाले कहाँ थे ? पहुँच गए बैकुण्ठ, श्री हरि के दरबार में और करने लगे उनके समक्ष आत्मप्रशंसा | श्री हरि ने भी स्वीकार किया कि आप जैसा कोई नहीं है, जो काम को जीत सका हो | परन्तु नारद कहाँ रुकने वाले थे | वे तो लगातार अपनी प्रशंसा किये जा रहे थे |

                 परमात्मा की एक बहुत बड़ी विशेषता है | वे संसार में सब कुछ सहन कर सकते हैं परन्तु अपने भक्त का पतन उनको सहन नहीं होता | नारद ठहरे भगवान के परम भक्त | सदैव तीनों लोकों में ‘नारायण-नारायण’ का जप करते हुए घूमते रहते हैं | श्री हरि ने देखा कि अहंकार के कारण मेरे भक्त नारद का पतन हो रहा है, उसको इस प्रकार पतित होने से रोकना होगा | नारद जब बैकुण्ठ में श्री हरि के सामने आत्मप्रशंसा करते-करते थक गए तो उन्होंने परमात्मा को प्रणाम कर पृथ्वी लोक के भ्रमण पर जाने के लिए उनसे आज्ञा मांगी |

      श्री हरि की स्वीकृति पाकर वे ‘नारायण-नारायण’ जपते हुए पृथ्वी-लोक के लिए चल पड़े | तुरंत ही वे पृथ्वी लोक में पहुँच गए | वहां पहुंचते ही वे देखते हैं कि एक  नगर में वहां के राजा शीलनिधि की अति सुन्दर कन्या राजकुमारी विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा है | उस नगर में पहुंचकर वे राज निवास गए | शीलनिधि ने नारदजी का स्वागत करते हुए अपनी कन्या का हाथ देखकर भविष्य बतलाने का आग्रह किया | हस्त-रेखा पढ़कर देवर्षि समझ गए थे कि इस कन्या का वर तो श्री हरि के समान ही कोई होगा |

     किसी भी मनुष्य को भले ही भविष्य जानने का कितना ही ज्ञान हो परन्तु काम के वशीभूत होकर वह मोहग्रस्त हो ही जाता है | नारद जानते थे कि विश्वमोहिनी का वर श्री हरि जैसा ही होगा परन्तु वह स्वयं हरि जैसा है नहीं | फिर भी काम ने उनको भ्रमित कर दिया | वे जानते थे कि श्री हरि जैसा होना केवल श्री हरि की कृपा से ही संभव हो सकता है अन्यथा नहीं |

          मन में जब कोई कामना जन्म लेती है तो मनुष्य उसे तत्काल ही पूरा करने में लग जाता है और जीवन की वास्तविकता से मुंह मोड़ लेता है | नारदजी ने भी यही किया, सत्य से मुंह मोड़ लिया | उन्होंने विश्वमोहिनी के भविष्य का सब कुछ ज्ञान अपने मन में छुपाकर रख लिया क्योंकि वे तो राजकुमारी को देखते ही मोहग्रस्त हो गए थे | उनके मन में उत्कंठा हुई कि क्यों न स्वयंवर में राजकुमारी उन्हें ही वर के रूप में चुने और जयमाला पहनाये ? परन्तु ऐसा होना इतना आसान नहीं था | सब कुछ राजकुमारी विश्वमोहिनी के द्वारा किये जाने वाले चयन पर निर्भर था | देवर्षि नारद के सामने एक ही रास्ता था | वे श्री हरि से प्रार्थना करने लगे कि प्रभु, आप मुझे आपके जैसा सुन्दर रूप दीजिये | आप वह सब कुछ कीजिये जिससे राजकुमारी विश्वमोहिनी मुझे ही वर के रूप में स्वीकार करे | श्री हरि ने देवर्षि को कहा कि ‘मैं वह सब कुछ करूँगा जिसमें तुम्हारा हित निहित होगा | तुम्हारे हित के विरुद्ध मैं कुछ भी नहीं करूँगा |’

                       श्री हरि से आशीर्वाद प्राप्त कर देवर्षि पहुँच गए, शील निधि के दरबार में जहाँ विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा था | राजकुमारी जयमाला लेकर मंडप में आती है, नारद उछल-उछल कर उसके सामने अपने चेहरे को ले जाते हैं परन्तु राज कुमारी उनकी ओर दृष्टि तक नहीं डालती है | राजकुमारी उनकी तरफ दुबारा आती ही नहीं है और भीड़ में अदृश्य हो जाती है | अन्ततः स्वयंवर समाप्त हो जाता है और सभी अपने-अपने स्थान पर वापिस जाने के लिए उठ खड़े होते हैं | नारदजी भी अपना सा मुंह लेकर दुखी मन से इधर-उधर देखने लगते हैं | सभी एक-एक कर वापिस जाने लगते हैं ।

                  स्त्री-वियोग में दुखी होकर देवर्षि भी उठ खड़े होते हैं | पास में बैठे थे शिव के दो गण, वे दोनों नारद के बन्दर जैसे चेहरे को देखकर उनकी हंसी उड़ाते हैं | नारद उन्हें शाप देते हैं कि तुम दोनों जो मेरी इस देह को देखकर राक्षसों की तरह मुझ पर हंस रहे हो न, त्रेता युग में तुम दोनों निशाचर बनोगे | व्यथित नारद राजप्रासाद से बाहर निकलते हैं और पास में स्थित सरोवर में जाकर अपने मलिन मुख को धोते हैं | वे अपना चेहरा जल-दर्पण में देखकर हतप्रभ रह जाते हैं | यह कैसा रूप दे दिया श्री हरि आपने ? भयंकर विशाल बन्दर की देह | नहीं, ऐसा हो नहीं सकता | रोष में जलते नारद सोच रहे हैं कि आखिर श्री हरि ने जानबूझकर मेरे साथ ऐसा क्यों किया ?

               नारद इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि श्री हरि आ पहुंचे देवर्षि के सम्मुख | साथ में एक ओर चल रही है जन्म जन्मान्तर की भार्या रमा और दूसरी ओर राजकुमारी  विश्वमोहिनी | श्री हरि और राजकुमारी विश्वमोहिनी, दोनों के गले में पड़ी वरमाला देखकर नारद सब कुछ समझ गए | स्त्री-मोह ने उनसे आंतरिक दृष्टि छीन ली थी, मोह ने उन्हें अँधा बना दिया था | वे व्यथित तो पहले से ही थे, श्री हरि के साथ राजकुमारी को देखकर उनकी व्यथा कई गुना अधिक बढ़ गयी | उन्होंने श्री हरि को शाप दिया कि जिस प्रकार एक स्त्री के वियोग में मैं आज दुखी हो रहा हूँ, उसी प्रकार आप भी एक दिन स्त्री के वियोग में दुखी होंगे | साथ ही साथ जिस प्रकार आपने मुझे जैसे यह वानर देह दी है, वैसे ही वानर एक दिन आपके लिए सहायक सिद्ध होंगे | श्री हरि ने मुस्कान के साथ उनका शाप शिरोधार्य किया और अपनी माया समेट ली | अब वहां पर न तो कोई नगर था और न ही राजकुमारी विश्वमोहिनी | यह सब कुछ केवल भ्रमित करने वाली माया थी जिसके मोह में काम को जीत लेने वाले देवर्षि नारद भी काम के वश होकर फंस गए थे |

                 मोह परमात्मा की माया के कारण ही पैदा होता है और माया में ही पैदा होता है | मोह के कारण ही काम, क्रोध, लोभ, मद, ईर्ष्या आदि सब विकार मनुष्य के मन में जन्म ले लेते हैं | ये सभी नरक के द्वार हैं और मनुष्य को चाहिए कि वह इनसे बचकर रहे | मोह में फंसकर ही व्यक्ति सुख-दुःख का अनुभव करता है, वह सदैव अपने आपको असुरक्षित पाता है | अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से ज्ञान पाकर भी बार-बार मोह में फंसता जा रहा था और एक मात्र यही कारण था कि वह मोक्ष को उपलब्ध नहीं हो सका |

           अर्जुन इंद्र-पुत्र था और इंद्र स्वर्ग का राजा है, फिर भी अर्जुन सीधे स्वर्ग में भी नहीं पहुँच सका | जब स्वर्ग जाने के लिए पांचो भाई व द्रोपदी हिमालय में स्वर्गारोहण कर रहे थे तभी एक पहाड़ पर चढते समय फिसल कर गिर जाने से अर्जुन की मृत्यु हो गयी थी | देह छोड़ते समय भी उनके मन में स्वर्ग तक न पहुँच पाने का दुःख था | स्वर्ग जाने का मोह भी अंत समय में उसके दुःख का कारण रहा | इस प्रकार जीवन के अंत तक मोह नष्ट न होने के कारण वे कभी भी द्वंद्व से मुक्त नहीं हो सके थे | इस कारण से अर्जुन को प्रारम्भ में कुछ समय के लिए नरक में भी जाना पड़ा | नरक की अवधि भोगकर वहां से फिर वह अपने जैविक पिता इंद्र की नगरी स्वर्ग पहुंचे | जहाँ पर रहकर उन्होंने अपने मानव जीवन में किये गए सत्कर्मों का फल भोगा और पुनः पृथ्वी-लोक में मनुष्य के रूप में जन्म लिया |

           इस प्रकार हमने जाना कि साक्षात् परमात्मा श्री कृष्ण का सानिध्य और उनसे प्राप्त किया ज्ञान भी अर्जुन को बैकुण्ठ में स्थान नहीं दिला सका | इसका कारण गीता-ज्ञान में कोई कमी होना नहीं है, बल्कि मनुष्य की कमजोरी है क्योंकि उसकी मानसिकता ही ऐसी हो गयी है कि वह बार-बार मोह में पड़ता रहता हैं | ज्ञान पाकर भी हम त्याज्य विकारों का त्याग नहीं कर पाते हैं अथवा एक बार त्यागने के बाद पुनः उनको ही अपना लेते हैं | यह हमें सोचने को विवश करता है कि ऐसा क्या किया जा सकता है, जिससे हम सदैव के लिए मोह और माया से मुक्त हो सकें ?

                अर्जुन के मुक्त न होने का एक मात्र कारण केवल मोह का नष्ट न हो पाना ही नहीं था | कुरुक्षेत्र का युद्ध महाभारत समाप्त हो चूका था | अर्जुन को अपने आपको महायोद्धा मान लेने का अभिमान भी हो गया था | अभी कुछ दिन ही तो बीते थे उसे गीता-ज्ञान प्राप्त किये | फिर भी वह समझ नहीं पा रहा था कि युद्ध करने वाला, युद्ध में मरने वाला और युद्ध में मारने वाला, ये तीनों भला केवल 'एक' व्यक्ति ही कैसे हो सकता है ?

           भगवान् श्रीकृष्ण का ‘एक’ कहने से तात्पर्य कुछ ओर ही था जिसे अर्जुन समझ न सका था | भगवान् कहना चाहते हैं कि उस एक परम के अतिरिक्त इस जगत में कोई अन्य जब है ही नहीं ऐसे में कौन तो मारे, किसको मारे और कौन मरवाए ? मरने वाला, मारने वाला और मरवाने वाला, ये तीनों एक ही चैतन्य के अंश हैं |

     श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध प्रारम्भ होने से पहले यहाँ तक स्पष्ट कर दिया था कि ‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ अर्थात ‘ये युद्ध भूमि में खड़े सभी योद्धा मारे जा चुके हैं, तू तो केवल इनको मारने का निमित मात्र बन जा |’ युद्ध की समाप्ति पर अर्जुन इस ज्ञान को विस्मृत कर चूका है | वह इस युद्ध में हुई विजय को केवल स्वयं की विजय होना मान रहा है | इस प्रकार अर्जुन में महाभारत युद्ध की विजय से उत्पन्न हुए अभिमान में और नारद में काम-विजय उपरांत जगे अभिमान में मूलभूत से कोई अंतर नहीं है | ऐसा अभिमान भी व्यक्ति को पतन की राह पर डाल देता है | नारद को तो श्री हरि ने अभिमान के गर्त से बाहर निकाल लिया था | देखें ! अर्जुन के साथ श्री कृष्ण क्या करते हैं ?

                    अर्जुन और श्री कृष्ण युद्ध भूमि में विचरण कर रहे हैं | भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख अर्जुन अपने आपको सर्वकालीन महायोद्धा बताते हुए आत्मप्रशंसा में लीन है | उसके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए श्री कृष्ण अवसर का इंतजार कर रहे हैं | तभी उनके सामने कुरुक्षेत्र की वह पहाड़ी आ जाती है, जहाँ भीम पुत्र बर्बरीक का मस्तक युद्ध देखने के लिए रखा गया था | गुरु-शिष्य दोनों टहलते हुए बर्बरीक के शीश के पास पहुंचते हैं | अर्जुन अभी भी आत्मप्रशंसा में लीन है | अंततः भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि ‘हे अर्जुन ! महाबली बर्बरीक ने सम्पूर्ण महाभारत युद्ध को अपनी आँखों से देखा है | क्यों न इनसे ही पूछ लिया जाये कि इस महायुद्ध का महायोद्धा कौन है ?’ अर्जुन ने बर्बरीक की और देख कर उनसे इस प्रश्न का उत्तर जानना चाहा | महाबली बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया-‘मुझे तो इस युद्ध में कोई भी व्यक्ति योद्धा के रूप में लड़ते हुए दिखाई ही नहीं दिया | केवल एक मात्र सुदर्शन चक्र ही इस छोर से उस छोर तक घूमते हुए संहार कर रहा था |’ बर्बरीक का यह उत्तर सुनकर अर्जुन का गर्व चूर-चूर हो गया |

                  इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मोह और मद (अभिमान) सभी विकारों के मूल है | अगर इतना ज्ञान सुनकर और पढ़कर भी हमारा अहंकार और मोह नष्ट नहीं होता तो कमी हमारे में है, ज्ञान में और ज्ञान देने वाले में नहीं | हमें यह जानना आवश्यक है कि ज्ञान केवल सुनने और पढ़ने की पुस्तकीय बातें होने तक ही सीमित नहीं है बल्कि उस ज्ञान को जीवन में अपनाने से ही उसकी महता है | इसीलिए कहा जाता है कि ‘ज्ञानं भारः क्रियाः बिना’ अर्थात ज्ञान को काम में लिए बिना वह ज्ञान मात्र बोझ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | हम ज्ञान के बोझ तले दबे जा रहे हैं | यह बोझ ही मनुष्य में ज्ञान का अहंकार पैदा करता है | इस ज्ञान के बोझ को कम करने का एक ही उपाय है, उस ज्ञान का सही समय पर सदुपयोग कर लिया जाये | अगर ज्ञान का समय पर सदुपयोग नहीं किया जाता तो फिर ऐसा ज्ञान बोझ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रह जाता है |

             हम पढ़ते हैं, सुनते हैं, गुरु के पास जाते हैं और सब कुछ सीखते और जानते भी हैं परन्तु उस जाने हुए ज्ञान के अनुसार चलते नहीं है | यह प्रत्येक मनुष्य की कमी है | आज जो कुछ भी सामने दिखाई दे रहा है, उसी को सत्य मान बैठे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी हमें दिखलाई पड़ रहा है, वह प्रतिपल निरंतर परिवर्तित हो रहा है | निरंतर परिवर्तित होने वाला सत्य हो ही नहीं सकता फिर भी हम उसी को सत्य मान रहे हैं | वास्तविक ज्ञान वही है जो इस बात का ज्ञान करा दे कि सत्य ही शाश्वत होता है और इस भौतिक दृष्टि से वह दिखाई नहीं दे सकता | मोह वह अज्ञान है जो हमें हमारे जीवन में वास्तविक ज्ञान से वंचित कर देता है |

क्रमशः

प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||



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