Wednesday, December 7, 2022

एक परमात्मा ही है।

 एक परमात्मा ही है

"परमात्मा एक है" और "एक परमात्मा ही है ", इन दो वाक्यों में साधारण व्यक्ति को केवल शब्द विन्यास का अंतर ही दिखलाई पड़ेगा।परंतु गूढ़ दृष्टि से देखें तो अंतर बहुत बड़ा है।"परमात्मा एक है", इसका अर्थ है कि परमात्मा के अतिरिक्त भी कोई अन्य है जबकि "एक परमात्मा ही है", यह वाक्य स्पष्ट करता है कि परमात्मा से भिन्न कोई दूसरा है ही नहीं।

       "परमात्मा एक है", इसको द्वैतवाद कहा जाता है और "एक परमात्मा ही है" वह अद्वैतवाद है। सनातन धर्म की विशेषता है कि वह इन दोनों वाद में विश्वास करता है। यही कारण है कि सनातन धर्म में मतभेद होते हुए भी मनभेद नहीं है। जो सम्प्रदाय "परमात्मा एक है" केवल इसी बात में विश्वास रखते हैं और जो कोई उनके इस कथन में विश्वास नहीं करता, उसके वे पक्के विरोधी बन जाते हैं।आज देश इसी वैचारिक भिन्नता का सामना कर रहा है। इस भिन्नता से उबरने का एक ही रास्ता है कि हम "एक परमात्मा ही है", इस बात को दृढ़ता से स्वीकार करें।

प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरि:शरणम्।।

Tuesday, December 6, 2022

शरीर और साधना

 शरीर और साधना 

क्या साधना के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है ?

"साधना साधिता पूर्वं सोSधुना नैव सक्षम:।

असमर्थ्यादयं शोक: देहाभिमानमूलक:।।

पहले मैंने साधना संपन्न की किन्तु इस समय मैं असमर्थ हूं। असमर्थता से होने वाला यह शोक देहाभिमानमूलक है।अर्थात् पूर्व में किया अब नहीं कर पा रहा हूं -ऐसे विचार देहाभिमानी को होते हैं। साधक को यह निश्चय करना चाहिए कि मैं देह नहीं हूं। इसलिए मेरा करने न करने से कोई सम्बन्ध नहीं है।"

    स्वामीजी कहते हैं कि मात्र क्रिया से आत्मबोध नहीं होता। अस्वस्थ शरीर के द्वारा जबरदस्ती की जाने वाली क्रियाएं परमात्मा तक पहुंचने में सहयोग प्रदान करने के स्थान पर कई बार बाधक बन जाती है। अपने परम उद्देश्य तक पहुंचने के लिए हमें प्रत्येक क्रिया और कामना का त्याग करना होगा।शरीर से क्रियाएं ही होती है।अतः परमात्मा की प्राप्ति के लिए केवल शरीर का स्वस्थ बने रहना  आवश्यक नहीं है। शरीर भले ही अस्वस्थ रहे परंतु परमात्मा के प्रति लगन में कमी कभी नहीं आनी चाहिए।

प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरि:शरणम्।।

Monday, December 5, 2022

जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई

 जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई

      सत्य सदैव के लिए ही सत्य होता है। असत्य चाहे कितनी बार बोल लिया जाए वह कभी भी सत्य नहीं हो सकता।इस संसार में चारों ओर सत्य से प्रतीत होने वाला असत्य बिखरा पड़ा है। यहाँ क्या सत्य है और क्या असत्य, पता लगाना मुश्किल अवश्य है परंतु असम्भव नहीं। 

       कांच के सहस्त्रों टुकड़ों के मध्य पड़ा इकलौता हीरा अपनी चमक को कभी खो नहीं सकता। भ्रम में जीने वाले मनुष्य कांच के टुकड़ों को हीरे समझ बैठे हैं और उनको बीन रहे हैं, उनका संग्रह कर अहंकार से भर रहे हैं परंतु जिस दिन पता चलेगा कि ये केवल कांच के टूकड़े मात्र हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और जीवन के संध्या काल में हाथ मलने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर पाएंगे।

      हमें इस भ्रम को मिटाना होगा।भ्रम के मिटते ही कांच के टुकड़ों के मध्य पड़े हीरे को पहिचान लेंगे। फिर कांच महत्वहीन हो जाएगा। यह शरीर और संसार के पदार्थ ही कांच है और इनके मध्य पड़ा हीरा परमात्मा है। भ्रम का निवारण होते ही संसार छूट जाएगा और परमात्मा शेष रह जाएंगे।

    इस हीरे की पहिचान कौन कराएगा ? हीरे को कांच के माध्यम से नहीं पहिचान सकते, हीरे की पहिचान स्वयं हीरे से ही हो सकती है। इसी प्रकार परमात्मा की पहिचान केवल परमात्मा ही करा सकता है।उनकी कृपा से ही समस्त भ्रम मिट सकते हैं और हमें आत्म-बोध हो सकता है। बड़ी सूक्ष्मता से इस विषय पर कल से चिंतन करना प्रारम्भ करेंगे, एक नई श्रृंखला "जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई" में।

           अभी गत दिनों हमने सत और असत पर एक लम्बा विवेचन किया है | इस विवेचन के पश्चात् स्पष्ट हो जाना चाहिए था कि इस संसार में और संसार से परे जो कुछ भी है, एक परमात्मा ही है | परन्तु मनुष्य का कुछ ऐसा ही स्वभाव है कि वह जब पढता और सुनता है, तब तो उसे वह बात उचित प्रतीत होती है परन्तु सांसारिक जीवन के साथ उस बात का सामंजस्य बिठाना उसके लिए कठिन हो जाता है | जब आध्यात्मिक जीवन और सांसारिक जीवन को भिन्न-भिन्न मान लिया जाता है, तब भ्रम की अवस्था पैदा होती है | यही कारण है कि मनुष्य अपने जीवन में शास्त्र, सत्संग और संत-सानिध्य का पूरा लाभ नहीं उठा पाता है |

          सांसारिक जीवन को अध्यात्म से जोड़ देने का एक लाभ अवश्य है, वह लाभ है मनुष्य के जीवन से दुःख का चले जाना | भले ही आपको यह बात जम नहीं रही हो परन्तु यह शत-प्रतिशत सही है | हाँ, हमें अपनी भ्रम की इस दशा को छोड़ना होगा और प्रभु पर असीम श्रद्धा और विश्वास रखना होगा | बिना इसके जीवन में आनंद का आगमन नहीं हो सकता | यह भ्रम कैसे मिटे ? भ्रम के मिटाने में प्रभु की कृपा होना आवश्यक है और यह कृपा हमें परमात्मा पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखने से ही प्राप्त होती है |

            जीवन में अध्यात्म मार्ग पर चलने को प्रारम्भ करने से ही भ्रम की स्थिति पैदा होती है, उससे पूर्व नहीं | कारण - जब तक हम नींद में रहते हैं, तब तक हमें देखा जाने वाला स्वप्न ही सत्य प्रतीत होता है परन्तु जब नींद टूटने लगती है और जागृति जीवन में आने लगती है, तब नींद में देखा जा रहा सत्य से प्रतीत होने वाला स्वप्न अथवा जागरण अवस्था में देखा जाने वाला सत्य - इन दोनों में कौन सा वास्तव में सत्य है, इस बात का भ्रम पैदा होना स्वाभाविक है | इसी भ्रम के कारण और निवारण को जानने और समझने का प्रयास हम इस श्रृंखला ‘जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई’ के अंतर्गत करेंगे ।

        संसार में जितने भी प्राणी हैं, उन्होंने पूर्व मानव जीवन में किये गए कर्मों के अनुसार फल भोगने के लिए भिन्न-भिन्न शरीर धारण किये हैं | उन शरीरों से भोगे जाने वाले भोग समाप्त होते ही शेष बचे कर्मों के भोग भोगने के लिए नए मनुष्य शरीर के साथ इसी संसार में जन्म लेंगे | सभी शरीरों के अंत में मिलने वाले इस मनुष्य शरीर का जीव कितना लाभ उठा पाता है, यह उसके विवेक पर निर्भर करता है | मनुष्य शरीर के मिलने का कारण केवल शेष रहे भोग भोगना ही नहीं है बल्कि परमात्मा के साथ योग करना ही इसका मूल उद्देश्य है | इस स्थिति में आकर मनुष्य अगर पुनः भोगों में आसक्त होकर नए-नए कर्म करने में लग गया तो वह इसी संसार में उलझ कर रह जायेगा और फिर से नए-नए शरीर लेता रहेगा | इस प्रकार वह संसार के आवागमन-चक्र से कभी भी मुक्त नहीं हो पायेगा |

           जीव को मनुष्य जीवन मिलता ही इसलिए है कि वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सके, लेकिन न जाने वह हर बार इस बात को क्यों भूल जाता है ? क्यों वह समझ नहीं पाता कि 84 के आवागमन से छूटना उसके लिए कितना आवश्यक है ? मनुष्य जीवन का उद्देश्य भोगों में आसक्त होना नहीं है बल्कि उस सत्य तक पहुँचना है, जहाँ पहुँच जाने के बाद फिर लौटकर संसार में आना नहीं पड़ता | मनुष्य का सबसे बड़ा भ्रम यही है कि उसने इस शरीर में रहते हुए सांसारिक भोगों को ही सत्य समझ लिया है | वास्तव में देखा जाये तो इन विषय-भोगों का सत्यता से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध ही नहीं है ।

         मनुष्य जब अज्ञान के कारण अपने वास्तविक स्वरुप को भूलकर स्थूल और सूक्ष्म शरीर में अहंबुद्धि कर लेता है तब उसका झुकाव रजोगुण की तरफ हो जाता है | वास्तव में देखा जाये तो अपने शरीर को ही स्वयं का होना मान लेना उसका भ्रम मात्र है | रजोगुण की प्रधानता हो जाने के कारण उसमें विभिन्न संकल्प-विकल्प जन्म लेते हैं और वह अज्ञानी मनुष्य कामनाओं के वशीभूत होकर विषयों को भोगने के लिए विभिन्न प्रकार के कर्म करने लगता है | इस प्रकार बार-बार विषयों का सेवन करने से उसका चित्त/मन विषयों के प्रति आसक्त हो जाता है और विषय भी उसके मन में प्रवेश पा जाते हैं |

         विषय भोगों से मिलने वाला सुख मनुष्य का केवल भ्रम मात्र है | अगर यह सुख ही शाश्वत और सत्य होता तो फिर वही सुख एक दिन दुःख में परिणित क्यों हो जाता है ? संसार में सुख-दुःख दोनों दिन-रात की तरह आते जाते रहते हैं | परन्तु मनुष्य इस भ्रम में जीता रहता है कि यह सुख सदा के लिए रहेगा | इसी भ्रम में वह जीवन भर दुःख का भोग करता है और सुख की प्रतीक्षा |  

        मनुष्य के लिए भ्रम क्या है ? भ्रम किसको कहते हैं ? जो जैसा दिखलाई पड़ रहा है, प्रतीत हो रहा है, अथवा ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हमें जैसा ज्ञान हो रहा है, वह वास्तव में वैसा न होकर उससे एक दम भिन्न प्रकार का होता है | उसे ही भ्रम होना कहते हैं |

   मनुष्य अपने जीवन काल में सदैव भ्रम में ही जीता रहता है | जिसे वह अपने सगे-सम्बन्धी, पुत्र, पत्नी आदि समझता है, वे सभी स्वार्थ के साथी हैं | जिस दिन उनका स्वार्थ पूरा नहीं होगा और न ही स्वार्थ पूरा होने की आशा रहेगी, उसी दिन वे आपसे दूर हो जायेंगे | सभी सम्बन्ध आपसी स्वार्थ-पूर्ति पर टिके होते हैं | सम्बन्ध में स्वार्थ क्या है ? स्वार्थ है-एक दूसरे के लिए सुख की व्यवस्था करना | मैं जो अपने पुत्र से चाहता हूँ लगभग वैसा ही कुछ पुत्र भी मेरे से पाने की आशा रखता है | जिस दिन किसी एक पक्ष से यह आशा समाप्त हो जाएगी, उसी दिन यह सम्बन्ध भी समाप्त हो जायेगा | सभी आपसी सम्बन्ध अपेक्षाओं पर ही टिके होते हैं और अपेक्षाएं भी केवल एक दूसरे से सुख पाने की रहती है | एक दूसरे से सुख की अपेक्षा करना भी एक प्रकार का भ्रम ही है |

      आधुनिक विज्ञान के अनुसार भ्रम तीन प्रकार का होता है -

        (क) मतिभ्रम (Hallucination) – इस प्रकार के भ्रम में कोई बाहरी कार्य होता ही नहीं है बल्कि केवल उसके होने का भ्रम होता है अर्थात जिसकी प्रत्यक्ष उपस्थिति नहीं होती फिर भी उसके उपस्थित होने का अनुभव करना | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है - बाहरी उत्तेजना की अनुपस्थिति में बन गयी एक धारणा | जैसे व्यक्ति अकेला कमरे में बैठा बोल रहा है अर्थात उसे लगता है जैसे दीवार उससे बातें कर रही है जबकि वास्तव में दीवार बातें नहीं कर रही होती है | दूसरा उदाहरण - जैसे बाज़ार में चलते हुए उसे लगता है कि कोई उसका पीछा कर रहा है जबकि वास्तव में कोई भी उसका पीछा नहीं कर रहा होता है | इसी प्रकार व्यक्ति शांत वातावरण में बैठे कल्पना करता है जैसे घंटियों की आवाज़ उसके कानों में गूंज रही है | महर्षि पतंजलि ने अपने योग-दर्शन में मतिभ्रम को मन की विकल्प वृत्ति बताया है ।

        इस प्रकार पहले प्रकार का भ्रम हुआ – मतिभ्रम | दूसरे प्रकार का भ्रम है – भ्रान्ति |

        (ख) भ्रान्ति (delusion)- इस प्रकार के भ्रम में प्रत्यक्ष रूप से किसी भी बात के बारे में एक गलत धारणा बना ली जाती है | यह भ्रम एक प्रकार का दृढ विश्वास होता है जो तर्कसंगत तर्क के सामने / उसके विरोध में मजबूती से खड़ा हो जाता है | जैसे यह मान लेना कि पृथ्वी समतल यानि चपटी है | अब कोई भी व्यक्ति उसको बताये कि पृथ्वी गोल है, तो वह इस बात को स्वीकार कभी नहीं करेगा | इसी प्रकार एक अन्य भ्रान्ति आजकल लोगों में फ़ैल रही है कि कोरोना का टीका व्यक्ति को नपुंसक बना देता है, जबकि इस टीके का पौरुषत्व से कोई सम्बन्ध ही नहीं है | ऐसी ही कई भ्रांतियां हम जीवन भर अपने मन के भीतर पाले बैठे रहते हैं |

            उपरोक्त दोनों प्रकार के भ्रम मानसिक रुग्णता के अंतर्गत आते हैं जिनकी एक मनोरोग चिकित्सक चिकित्सा कर सकता है | मनोरोग चिकित्सक मतिभ्रम और भ्रान्ति दोनों ही प्रकार के भ्रम का उपचार कर सकता है | परन्तु तीसरे प्रकार के भ्रम की चिकित्सा कोई गुरु ही कर सकता है क्योंकि इसकी कोई औषधि नहीं है | अतः यह तीसरी प्रकार का जो भ्रम है वह वास्तव में सही रूप से भ्रम कहलाने योग्य है | किसी भी साधारण और भले-चंगे मनुष्य को भी इस प्रकार का भ्रम हो सकता है | इस भ्रम का उपचार किसी औषधि से नहीं होता बल्कि केवल ज्ञान से ही इसका निवारण संभव है |

         तीसरी प्रकार का जो भ्रम है, उसको जानना बड़ा ही महत्वपूर्ण है | अध्यात्म में इसी भ्रम का महत्त्व है क्योंकि यह भ्रम बिना ज्ञान के मिटता नहीं है | आइये ! इस भ्रम को भी जान लेते हैं |  

        (ग) भ्रम (Illusion)- इस प्रकार के भ्रम में बाहर प्रत्यक्ष रूप से कोई न कोई वस्तु अवश्य ही उपस्थित होती है परन्तु उसका अनुभव हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा कुछ भिन्न प्रकार से कर लिया जाता है | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इस प्रकार के भ्रम में बाहरी उत्तेजना की उपस्थिति में हमारी इन्द्रियों द्वारा उसकी गलत व्याख्या कर ली जाती है | जैसे कमरे में पड़ी रस्सी को सांप समझ लेना | इसमें रस्सी बाहरी उत्तेजना है | रात को सूनसान क्षेत्र से अँधेरे में हवा से हिलते हुए आक के पौधे को कोई मनुष्य अथवा भूत समझ लेना | यहाँ आक का पौधा बाहरी उत्तेजना है | महर्षि पतंजलि ने अपने योगदर्शन में इस भ्रम को मन की विपर्यय वृति कहा है |

            भ्रम की जो तीन अवस्थाएं बताई हैं, वे सब ‘माया’ के अंतर्गत आ जाती है | माया को ही हम सत्य समझ लेते हैं, अतः माया भी एक भ्रम हुई | माया का ज्ञान हमारे शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से होता है | माया भ्रम इसलिए हो जाती है क्योंकि हमें जो दिखलाई पड़ रहा है, उसको ही हम सत्य समझ लेते हैं | माया शाश्वत नहीं है | उसका एक दिन विलीन हो जाना निश्चित है | यह संसार और शरीर, सब कुछ माया के अंतर्गत है | संसार को ही सत्य समझ उसमें आसक्ति कर लेने के कारण ही हम सत्य से दूर हो जाते हैं | असत को सत मान लेना ही हमारा भ्रम है |

        असत संसार को ही सत मान लेना हमारा भ्रम है | इसीलिए इस संसार को ‘माया’ कहा गया है | माया अर्थात भ्रम, जो दिखलाई तो अवश्य ही दे रही है और दिखने के कारण हमें वह सत्य भी प्रतीत हो रही है परन्तु वास्तव में वह सत्य है नहीं |

          इस संसार में चारों और आकर्षण ही आकर्षण भरे पड़े हैं जो प्रतिपल मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करने में लगे हुए हैं | इस प्रकार के आकर्षण में फंसने को ही आसक्त होना कहते हैं | जब हमें भूख लगती है तब हम भोजन की ओर आकर्षित होते हैं और जब प्यास लगती है तो जल की ओर | जब किसी भी प्रकार भूख मिटे तब तक तो ठीक है परन्तु भूख मिटाने के लिए हमें विशेष प्रकार के व्यंजन ही चाहिए, ऐसी कामना रखना ही मनुष्य को उन पदार्थों के प्रति आसक्त कर देता है |

            मनुष्य जीवन की यह सबसे बड़ी विडंबना है कि उसकी भूख-प्यास कभी मिटती नहीं है | भूख-प्यास भी एक प्रकार की नहीं है | जितनी हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ है, उतनी प्रकार की ही हमारी भूख है | नाक की भूख गंध है | मनुष्य प्रतिपल सुगंधित वातावरण में ही रहना चाहता है | कान की भूख शब्द है | उसके माध्यम से मनुष्य प्रत्येक समय अपनी प्रशंसा और अन्य की आलोचना ही सुनना चाहता है | आँख की भूख सुन्दरता है | मनुष्य सदैव ही सुन्दर वस्तु की चाहना करता है | हमारी जीभ सदैव ही स्वादिष्ट भोजन की कामना करती है | त्वचा की भूख तो सबसे बड़ी भूख है | इसके माध्यम से मनुष्य सदैव स्पर्श सुख में खोया रहना चाहता है |

           ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ भी हम ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, वह वास्तव में असत का ज्ञान है | असत का ज्ञान वास्तविक ज्ञान न होकर अज्ञान है | आधुनिक विज्ञान के अनुसार सभी ज्ञानेन्द्रियों का विकास चर्म से ही हुआ है | इसीलिए कहा जाता है कि चर्म से बनी इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से मनुष्य सभी समय चर्म-सुख में खोया रहना चाहता है | इन इन्द्रियों से मिलने वाला सुख वास्तव में सुख नहीं है | अतः ‘इन्द्रियों से सुख प्राप्त होता है’ यह मान लेना हमारा भ्रम ही है |

           भ्रम मनुष्य में पैदा होता है, परमात्मा की बनाई इसी माया के कारण | हाँ, यह माया भी प्रभु की है | प्रभु की इस माया को जो समझ जाता है वह इस माया के पार चला जाता है | माया से पार जाने के लिए हमारे सभी भ्रम मिटने आवश्यक है | इसलिए सर्वप्रथम माया को जानना आवश्यक है | यह सत्य है कि परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की है | जीव का शरीर बनाने के बाद वह स्वयं अंतर्यामी रूप से उसमें प्रवेश करता है | प्रवेश करने के पश्चात् वह सबसे पहले अपने आप को ही एक मन के रूप में और बाद में दस इन्द्रियों के रूप में विभक्त कर लेता है | इस अवस्था में आकर अब वह एक जीव बन गया है जो इस मन और इन्द्रियों के माध्यम से विषयों का भोग करता है |

      जब यह जीव विषय-भोग में रत रहता है तब उसमें संसार के प्रति आसक्ति-भाव पैदा हो जाता है और इस शरीर को ही ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिए’ मानने लगता है | इस प्रकार वह शरीर को ही अपना स्वरुप समझने लगता है और अपने मूल स्वरुप को भूल जाता है | कर्मेन्द्रियों से कर्म करके वह उनके फल रूप में सुख-दुःख भोगता है | परन्तु इन भोगों से वह जीवनभर संतुष्ट नहीं हो पाता | इस प्रकार भोगों से संतुष्टि प्राप्त करने के लिए वह नए-नए शरीरों की यात्रा करता रहता है और संसार में भटकने लगता है | यही भगवान् की माया है |

            मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह विभिन्न प्रकार के कर्म करता हुआ दुःख से बाहर निकलना चाहता है और सुख को प्राप्त करना चाहता है | वह यह नहीं समझ पाता कि यह सब माया है | वह माया से बाहर आने के लिए विभिन्न प्रकार के सकाम कर्म करता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि सकाम कर्म करते हुए माया से पार नहीं हुआ जा सकता |

         यहाँ आकर प्रश्न उठता है कि फिर इस भ्रम से बाहर निकलने का उपाय क्या है ? इस माया से बाहर कैसे निकला जा सकता है ? इस माया से बाहर निकलने के लिए हमें गुरु की शरण में जाना होगा | हमारे गुरु भी ऐसे हों, जो वेदों के पारदर्शी विद्वान, तत्वज्ञानी और अनुभवी हों | गुरु के पास जाकर उनकी निष्कपट भाव से सेवा करें और उनके माध्यम से माया के स्वरुप, इसकी उत्पत्ति और विलयन को समझें | जब आप इस ज्ञान को आत्मसात कर लेंगे तब पहले शरीर और संतान आदि में अपनी आसक्ति छोड़ अनासक्त हो जाएँ | सर्वत्र और सबमें परमात्मा को देखें | अपने धर्म का पालन करें | जो कुछ मिल जाये उसी में संतोष धारण करें | अपनी समस्त इन्द्रियों को स्थिर रखें | केवल एक परमात्मा का ही आश्रय लें | परमात्मा की कृपा से ही हमारे सभी भ्रम मिट पाएंगे और हम उसकी इस माया से पार हो जायेंगे |

         मनुष्य की महत्वपूर्ण आवश्यकताएं रोटी, कपडा और मकान हैं | इसके बाद आता है उसका परिवार | माया के पार जाने के लिए पहले घर छोड़ना पड़ता है | घर छोड़ने से आशय केवल घर का त्याग कर वन अथवा आश्रम में चले जाना नहीं है बल्कि घर में निवास करते हुए उसमें आसक्ति न रखना है | कपडे की आवश्यकताएं भी सीमित की जा सकती है और रोटी की भी | परिवार में आसक्ति छोड़ना तभी सुगम होगा जब रोटी, कपड़ा और घर से हम अनासक्त हो जाएँ | सबसे मुश्किल है, स्वयं के ‘मैं’ होने का अहंकार छोड़ना | अहंकार का परित्याग किये बिना माया से पार नहीं हुआ जा सकता | ‘मैं’ को छोड़ने से ही हम अपने वास्तविक स्वरुप तक पहुंचेंगे अन्यथा नहीं |

             माया से पार हो जाना जितना सरल प्रतीत होता है उतना है नहीं | महान व्यक्ति भी माया से निकलकर पुनः माया में फंस जाते हैं | इसके लिए देवर्षि नारद के जीवन का एक दृष्टान्त देना चाहूँगा | काम को जीत लेने के बाद नारदजी एक बार प्रभु की माया में फंसकर विश्वमोहिनी से विवाह का सपना पाल बैठे थे | उस समय तो श्री हरि ने श्राप लेकर भी उनको माया में फंसने से बचा लिया था | जैसा कि मैंने पहले कहा है , अहंकार का त्याग करना असंभव सा है क्योंकि किसी न किसी बात को लेकर अहंकार अपना फन बार-बार उठाता रहता है | नारदजी को भी तो काम को जीत लेने का अहंकार हो गया था जिसको श्री हरि ने तोडना आवश्यक समझा था | नारदजी द्वापर युग में भी फिर एक बार माया के जाल में फंस गए थे |

            हुआ यूँ कि एक बार नारदजी के मन में विचार आया कि संसार के लोग माया में फंसकर अपना स्वरुप तक भूल जाते हैं | सांसारिक लोग क्यों सब कुछ जानते हुए भी इस माया के वश में हो जाते हैं ? मुझे भी एक बार फिर से माया का साक्षात्कार कर लेना चाहिए | देखता हूँ, माया कैसे मुझे अपने वश में कर लेती है ?

          नारदजी तो तीनों लोकों में निर्बाध घूम सकते हैं, उनके लिए दूर से भी दूर की यात्रा कर लेना असंभव नहीं है | अपनी मन की इच्छा पूरी करने के लिए एक दिन नारदजी पहुँच गए, द्वारकाधीश के यहाँ | द्वारका पहुँचते ही भगवान के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट कर दी | भगवान् श्री कृष्ण ने कहा 'त्रिलोकी में घूमते घूमते आप थक गए होंगे, कुछ समय के लिए तनिक विश्राम तो कर लीजिये | माया से सामना तो आपका कभी और किसी दिन भी हो सकता है |' इस प्रकार कई दिन तक नारदजी द्वारका में ही रहे | एक दिन भगवान् ने उनसे द्वारका के बाहर वन-भ्रमण पर चलने का आग्रह किया |

          राजमहल को छोड़कर पैदल ही दोनों (नारदजी और श्री कृष्ण) वन की ओर चल पड़े | वन में टहलते टहलते भगवान् श्री कृष्ण को प्यास लगी | उन्होंने नारदजी को एक पात्र देते हुए कहा – “जाइए पता कीजिये , पास में ही कोई गाँव होगा, वहां जाकर मेरे लिए थोडा सा जल ले आइये | आज मैं कुछ ज्यादा ही थक गया हूँ, इस पेड़ के नीचे जरा विश्राम कर लेता हूँ | आप जल लेकर शीघ्र ही लौट आइए |” नारद मुनि पात्र लेकर जल लेने के लिए वहां से चल दिए | थोड़ी ही दूर चलते ही उन्हें एक गाँव दिखलाई पड़ा |

                नारदजी ने उस गाँव में प्रवेश किया | वे उस गाँव के एक सुन्दर से घर के सामने जा पहुंचे और आवाज देते हुए गृह-स्वामी से जल देने का आग्रह किया | घर का दरवाज़ा खुला और एक अतिसुन्दर कन्या ने मुनि से आने का प्रयोजन पूछा | मुनि नारद तो उसकी सुन्दरता देखकर मुग्ध हो गए | द्वार पर मुनि को अचंभित खड़े देखकर कन्या ने अपने पिता को द्वार पर ही बुला लिया | कन्या के पिता ने आते ही मुनि को प्रणाम किया और आदर सहित घर के भीतर ले गए | उचित आसन देकर गृहस्वामी ने मुनि से आने का प्रयोजन पूछा | नारदजी जल लेना तो भूल गए और सीधे ही कन्या से विवाह करने का प्रस्ताव उसके पिता के समक्ष रख दिया |

          कन्या के पिता ने कहा – “यह कन्या मेरी एक मात्र संतान है | इसके विवाह के लिए मेरी एक शर्त है | आपको विवाह उपरांत यहीं हमारे पास ही रहना होगा |” नारदजी तो कन्या के रूपजाल में गहराई तक उलझ गए थे | भगवान् के लिए जल लेना तो भूल गए और तत्काल ही उस शर्त को स्वीकार कर लिया | इस प्रकार नारदजी और कन्या का विवाह हो गया |

            नारदजी विवाह उपरांत अपनी ससुराल में ही रहने लगे | घर और कृषि का कार्य नारदजी सम्हालने लगे | धीरे धीरे समय बीतता जा रहा था | समय पाकर कन्या के पिता का देहावसान हो गया था | तब तक नारदजी दो बच्चों के पिता बन चुके थे | नारदजी का गृहस्थाश्रम निर्बाध गति से सुखपूर्वक बीत रहा था | तभी एक दिन समय ने करवट ली |

         प्राकृतिक प्रकोप से हो रही अतिवृष्टि ने गाँव को अपनी चपेट में ले लिया | गाँव के प्रायः घर एक-एक कर गिरते हुए खंडहर में बदलते जा रहे थे | नारदजी ने विचार किया कि समय रहते हमें भी इस घर को छोड़ देना चाहिए | उन्होंने अपनी पत्नी का हाथ पकड़ा और दोनों बच्चों को कंधे पर बिठाकर उस गाँव से बाहर निकल आये | सामने उफान मारते नदी बह रही थी | सुरक्षित स्थान की ओर जाने के लिए नदी को पार करना आवश्यक था | हिम्मत कर हाथ पकड़कर नारदजी अपनी पत्नी के साथ धीरे-धीरे नदी को पार करने लगे |

         नदी के तेज बहाव में पहले उनसे अपनी पत्नी का हाथ छूटा और वह तेज जलधारा में बह गयी | फिर एक बालक भी उनके कंधे से फिसलकर नदी में जा गिरा | नदी के बीच पहुंचे ही थे कि दूसरा बच्चा भी नदी की धारा में बह गया | अब स्वयं के प्राण बचाने के लिए नारदजी पूरा जोर लगाकर नदी को शीघ्रता से पार करने का प्रयास कर रहे थे | तभी उनके पाँव भी उखड गए और वे नदी की तेज जल-धारा में बहने लगे | प्राणों की सुरक्षा के लिए वे सहायता के लिए चिल्लाने लगे – “बचाओ ! बचाओ !!” 

         तभी भगवान् श्री कृष्ण ने नारदजी को जोर जोर से हिलाते हुए पूछा – “नारद ! तुम कब आए ? मेरे लिए लाया गया जल कहाँ है ?” सुनकर नारदजी चौंके - “कहाँ गए मेरे बच्चे ? कहाँ है मेरी पत्नी ? ओह सब कुछ एक सपना था, भ्रम था |” प्रभु बोले – “नारद, यही माया है | माया में उतरकर इसको जानने समझने का प्रयास न करो | इसमें उतरोगे तो उलझते जाओगे, इसका आदि-अंत मिलना असम्भव है, फिर बाहर निकलना भी संभव नहीं रहेगा |केवल एक प्रभु की शरण में ही सदैव बने रहो, फिर मेरी यह माया भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी |’

            गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज, जिन्होने श्री रामचरितमानस जैसे महान ग्रन्थ की रचना की है, वे भी एक बार भ्रम के शिकार हो गए थे | एक बार उनके मन में अपने इष्ट प्रभु श्री राम के दर्शन की प्रबल इच्छा हुई | वे उनके दर्शन करने के लिए जगन्नाथपुरी की ओर चल दिए | मंदिर के सामने भारी भीड़ को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई | वे भी भीड़ के साथ दर्शन करने हेतु मंदिर में प्रवेश कर गए | गर्भगृह में मूर्ति की ओर देखते ही उन्हें बड़ी निराशा हुई | उन्होंने सोचा कि ये मेरे इष्ट कैसे हो सकते हैं, इनके तो हाथ भी नहीं है | भला, यह फिर कुछ करते भी कैसे होंगे ? बिना हाथों के तो वे धनुष-बाण कैसे धारण करेंगे ?

             बिना हाथों की प्रभु की मूर्ति को देखकर, तुलसी उन्हें अपना इष्ट स्वीकार करने को तैयार नहीं थे | निराशा का भाव लिए वे दुखी मन से मंदिर के बाहर निकल आये | सूर्य अस्ताचल की ओर चला जा रहा था | सूरज को ढलते देखकर तुलसीदासजी महाराज मुंह लटकाए हुए एक निर्जन स्थान पर जाकर बैठ गए | थके-हारे और भूखे प्यासे गोस्वामीजी को आज अपनी यह यात्रा बड़ी निरर्थक प्रतीत हो रही थी |

           धीरे-धीरे रात गहराती जा रही थी | भूख के मारे तुलसीदासजी महाराज बड़े व्याकुल हो रहे थे | तभी एक छोटा सा बालक एक थाली में भोजन लिए उनके सामने आ खड़ा हुआ | गोस्वामी तुलसीदासजी के पास बैठकर बालक बड़े प्रेम से बोला –‘बाबा, जगन्नाथजी ने आपके लिए प्रसाद भेजा है | ग्रहण कीजिये |’ तुलसीदासजी ने कहा –‘मैं यह प्रसाद नहीं लूँगा, इसे वापिस ले जाइए |’

       गोस्वामीजी तो जगन्नाथ भगवान् की बिना हाथों की मूर्ति देखकर बहुत व्यथित थे | उनके इष्ट तो शस्त्रधारी हैं, भला वे बिना हाथों के किसी अस्त्र-शस्त्र का उपयोग कैसे करेंगे ? भूख तो उनको थी परन्तु उन्होंने मना कर दिया | आहत मन भले ही दिखावे के तौर पर करे, भोजन का बहिष्कार कर ही देता है | बालक ने उनसे एक बार फिर से प्रसाद ग्रहण करने का आग्रह किया | बालक ने कहा – ‘जगन्नाथ का भात, जगत पसारे हाथ’, और आप इस प्रसाद को ग्रहण करने से मना कर रहे हैं | आपकी इनसे ऐसी क्या नाराजगी है, जो आप उनके द्वारा भेजे गए प्रसाद के हाथ तक नहीं लगा रहे हैं ?’ तुलसीदासजी ने कहा –‘मैं अपने इष्ट को भोग लगाये बिना कुछ भी ग्रहण नहीं करता हूँ और जगन्नाथ के जूठे हुए प्रसाद का मैं मेरे इष्ट को भोग नहीं लगा सकता |’

            इतना सुनते ही बालक खिलखिलाकर हंस पड़ा और बोला – ‘यह आपके इष्ट ने ही तो भेजा है |’ तुलसीदासजी तो पहले से ही भीतर भरे पड़े थे | उबल पड़े – ‘बिना हाथ वाला मेरा इष्ट नहीं हो सकता |’

         ‘बिना हाथ वाला मेरे इष्ट धनुर्धारी राम नहीं हो सकते’, इतना सुनते ही बालक ने गोस्वामीजी से मुस्कुराकर पूछा कि फिर आपने श्री रामचरितमानस में उनके स्वरूप का इस प्रकार वर्णन क्यों किया है -

         बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना | 

        कर बिनु करम करइ बिधि नाना ||

         आनन रहित सकल रस भोगी |

          बिनु बानी बकता बड़ जोगी ||

               एक छोटे से बालक के मुंह से इतनी बड़ी बात सुनकर गोस्वामीजी का चेहरा देखने लायक था | वे समझ गए कि यह कोई साधारण बालक नहीं है | “कहीं ये ही तो मेरे ईष्ट नहीं है ? मेरा भ्रम दूर करने के लिए ही तो कहीं ये बालक बनकर नहीं आये हैं ?” उनकी आँखे खुल गयी | उनकी आँखों से लगातार आंसू झरने लगे, मुंह से बोल तक नहीं निकल पा रहे थे |

         बालक ने अपने दोनों हाथों से थाल को उतारकर तुलसीजी के सामने रख दिया और उनके आंसू अपने हाथों से पोंछते हुए बोला – “मैं ही राम हूँ | मेरे इस मंदिर के चारों द्वारों पर हनुमान का पहरा रहता है | विभीषण प्रतिदिन मेरे दर्शन करने को लंका से चलकर आता है | तुम भी सुबह मेरे दर्शन करने आ जाना |’’ इतना कहकर थाली वहीं छोड़ वह बालक अदृश्य हो गया | तुलसीजी इस बात को सुनकर बड़े संतुष्ट हुए | फिर उन्होंने बड़े प्रेम से वह प्रसाद ग्रहण किया |

       बालक द्वारा लाये गए जगन्नाथजी के प्रसाद को ग्रहण करते हुए तुलसीदासजी का रोम-रोम हर्षित हो रहा था | साथ ही मन में बड़ी भारी ग्लानि भी हो रही थी कि मेरे भ्रम का निवारण करने के लिए मेरे इष्ट को मेरे पास बालक बनकर आने का कष्ट उठाना पड़ा | फिर भी ख़ुशी इस बात की थी कि प्रातः मेरे इष्ट उसी मंदिर में दर्शन देकर मुझे कृतार्थ करेंगे | रात भर तुलसीजी के नेत्रों में नींद नहीं थी | राम-राम रटते सुबह हुई | दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर तुलसीदासजी महाराज मंदिर की ओर बढे | द्वार पर ही हनुमानजी महाराज ने उनका अभिवादन किया | पलकें झुकाए धीरे-धीरे चलते हुए गोस्वामीजी ने मंदिर में प्रवेश किया |

              मंदिर के गर्भ-गृह के पास पहुंचकर गोस्वामीजी ने अपना सिर ऊपर उठाया और मूर्तियों की ओर देखा | उन्हें पूर्व की भांति जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ ही दिखलाई पड़ी | तत्काल ही उनका स्थान श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी की मूर्तियों ने ले लिया | इस प्रकार तुलसी को अपने इष्ट के दर्शन उन मूर्तियों में हुए | भगवान् ने अपने भक्त का भ्रम दूर करते हुए उनकी इच्छा का पूरा सम्मान किया | तुलसीदासजी भाव विभोर हो गए | उनको समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपने इष्ट की स्तुति किस प्रकार करे | देखा जाए तो जो राम है, वही कृष्ण है | दोनों में अंतर कर देना हमारी मानसिक रूग्ण अवस्था को ही प्रदर्शित करता है और केवल इसी कारण से हमें इन दोनों के अलग अलग होने का भ्रम पैदा हो जाता है |

     जहाँ तुलसीदासजी जगन्नाथपुरी में ठहरे थे उस स्थान को ‘तुलसी चौरा’ कहा जाता है | आज के समय वह स्थान तुलसीदासजी की पीठ “बड़छता-मठ” के नाम से प्रसिद्ध है | गोस्वामीजी को भ्रान्ति रुपी भ्रम था कि मेरे इष्ट तो केवल श्री राम ही हैं | वे राम, जो शस्त्रधारी हैं, जो अपने धनुष बाण से निर्बलों की सहायता करते हैं | वे राम जिन्होंने इस धरा को असुरों से मुक्त किया और शरणागत की रक्षा की | परन्तु वे भूल गए कि श्री राम उसी ब्रह्म के अवतार हैं जो ब्रह्म बिना पैरों के ही चलता है, कान न होते ही सुनता है, बिना हाथों के बहुत प्रकार के कार्य कर लेता है, बिना जिह्वा के छहों रस का आनंद लेता है और बिना वाक् इन्द्रिय के बहुत योग्य वक्ता भी है | बिना त्वचा के ही स्पर्श का अनुभव कर लेता है, बिना आँखों के देख भी लेता है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण भी करता है | वह विभिन्न रूप धारण कर सकता है । अतः जगन्नाथ और श्री राम में कोई भेद नहीं हो सकता | इनमें भेद करना ही हमारा भ्रम है।

          इसी प्रकार हमें भी भ्रम होता है, निर्गुण और सगुण के बारे में | दोनों में कोई भेद नहीं है । भ्रम होता है-इनमें भेद मान लेने के कारण | गोस्वामीजी मानस में कहते भी हैं कि निर्गुण और सगुण में कुछ भी भेद नहीं है परन्तु वाद-विवाद करने वालों में से कोई भी उनकी बात को नहीं समझता | सगुण होने का अर्थ है, जो प्रकृति के तीनों गुणों से ओतप्रोत है और वह एक मनुष्य की तरह ही प्रतीत होता है | निर्गुण होने का अर्थ है कि उसमें प्रकृति का कोई गुण नहीं होता अर्थात वह गुणातीत होता है |

           मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने समकक्ष और अपने जैसा प्रतीत होने वाले को अधिक महत्त्व देता है | यही कारण है कि वह अवतारों और विभिन्न देवताओं की पूजा करता है | इनकी पूजा करने के लिए उसने उनकी मूर्तियों का निर्माण किया | इन मूर्तियों की पूजा करने के लिए उसने विभिन्न प्रकार की क्रियाओं को महत्त्व दिया | मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह साधन और क्रिया को महत्त्व अधिक देता है, जिस कारण वह साध्य से विमुख हो जाता है | साधन में विभिन्न प्रकार की क्रियाएं आती है, जिनसे हम साध्य को साधने का प्रयास करते हैं | ध्यान रखें, क्रियाओं पर अधिक ध्यान देने से साध्य से ध्यान हट जाने की प्रबल संभावनाएं बन जाती है |

             वास्तविकता तो यह है कि परमात्मा तक पहुँचने के लिये प्रत्येक क्रिया अंततः जाकर  प्रायः महत्वहीन ही सिद्ध होती है | परन्तु हम हैं कि इन क्रियाओं के जाल में इस प्रकार उलझ जाते हैं कि साध्य का मार्ग तक भूल जाते है | मार्ग भूलते ही नहीं है बल्कि उस मार्ग पर अग्रसर होने में उन क्रियाओं को ही बाधा बना कर खड़ी कर देते हैं ।

           मेरे कहने का मंतव्य यह नहीं है कि परमात्मा को पाने के लिए क्रियाओं को करना अनुचित है | मैं यह कहना चाहता हूँ कि जिसके लिए ये क्रियाएं की जा रही हैं, उस 'एक' पर ही एकटक दृष्टि जमाये रखना क्रियाओं से अधिक महत्वपूर्ण है | इसलिए क्रियाओं के जाल में अटककर परमात्मा के मार्ग से भटके नहीं |

       तुलसी ने निर्गुण निराकार ब्रह्म के बारे में मानस में स्पष्ट किया है –

              बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना |

              कर बिनु करम करइ बिधि नाना ||

             आनन रहित सकल रस भोगी | 

             बिनु बानी बकता बड़ जोगी ||

             तनु बिनु परस नयन बिनु देखा |

              ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ||

             असि सब भाँति अलौकिक करनी | 

              महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ||

जेहि इमि गावहि बेद बुध

 जाहि धरहिं मुनि ध्यान ||

 सोइ दसरथ सुत भगत हित

 कोसलपति भगवान || बालकाण्ड – 118 ||

      वह ब्रह्म बिना पैरों के ही चलता है, कान न होते ही सुनता है, बिना हाथों के बहुत प्रकार के कार्य कर लेता है, बिना जिह्वा के छहों रस का आनंद लेता है और बिना वाक् इन्द्रिय के बहुत योग्य वक्ता भी है | बिना त्वचा के ही स्पर्श का अनुभव कर लेता है, बिना आँखों के देख भी लेता है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है | उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती | जिसका वेद और पण्डित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथ नंदन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान् श्री रामचन्द्रजी हैं |

         गोस्वामीजी ने इन चौपाइयों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि जो निर्गुण निराकार है वही सगुण साकार के रूप में प्रकट होता है | निर्गुण निराकार होते हुए भी ब्रह्म बिना इन्द्रियों के ही सभी इन्द्रियों के काम कर लेता है |

       गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को निर्गुण निराकार की बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि उस 'एक' के कारण ही व्यक्ति की सभी इन्द्रियों का कार्य करना संभव होता है | वे कहते हैं कि -

      सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् |

      असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च || गीता -13/14||

अर्थात वे परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाले हैं, आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाले हैं तथा गुणों से रहित हैं और सम्पूर्ण गुणों के भोक्ता हैं |

      परमात्मा बिना इन्द्रियों के भोक्ता कैसे बन गए हैं, यह बात भगवान् श्री कृष्ण इससे पूर्व के श्लोक में स्पष्ट करते हैं -

     सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोSक्षिशिरोमुखम् |

     सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति || गीता- 13/13 ||

अर्थात वे परमात्मा सब जगह हाथों और पैरों वाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखों वाले तथा सब जगह कानों वाले हैं | वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है |

          इससे स्पष्ट है कि प्राणियों में जो कुछ भी कार्य इन्द्रियों के द्वारा किया जाता है और उन इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ भी भोगा जाता है, उन सब के पीछे परमात्मा की भूमिका है अन्यथा ये सभी इन्द्रियां बेकार पड़ी मशीन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |

                यह सत्य है कि निर्गुण निराकार से ही सगुण साकार आता है | गुणातीत होने का अर्थ है, गुणों से जो प्रभावित नहीं है अर्थात उसे कुछ करने के लिए गुणों का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं होती | निर्गुण बिना किसी गुण के होते हुए भी सब कुछ कर सकता है | इसलिए जब संसार में हम कोई अप्रत्याशित घटना घटित होते हुए देखते हैं तो कहते हैं कि सब कुछ परमात्मा ही करता है | वह जब निर्गुण है, निराकार है तो ऐसा करना उसके द्वारा कैसे संभव हो सकता है ? यही बात हमारे भीतर भ्रम को जन्म दे देती है |

            परमात्मा निर्गुण निराकार है जबकि जगत सगुण साकार है | परमात्मा दिखलाई नहीं पड़ रहे हैं, संसार तो दृष्टिगत भी है और आकर्षक भी | हमें जो कुछ दिखलाई पड़ रहा है, उसी की सत्य मानकर स्वीकार करते हैं, यही हमारा सबसे बड़ा भ्रम है | वास्तव में निर्गुण निराकार ने ही सगुण साकार सृष्टि की रचना की है | निर्गुण निराकार के बिना सगुण साकार का जन्म नहीं हो सकता | साथ ही यह भी सत्य है कि सगुण साकार के कारण ही निर्गुण निराकार की महत्ता है | स्वामीजी कहते हैं कि सगुण साकार में निर्गुण निराकार भी आ जाता है, अतः सगुण साकार की उपासना ज्यादा प्रभावी है | कहने का अर्थ है कि सगुण साकार यह संसार है जिसको भगवान् ने अपना आदि अवतार भी कहा है और इस संसार का आविर्भाव निर्गुण निराकार से हुआ है | दूसरे शब्दों में कह सकता हूँ कि संसार का सत्य यही है कि वह स्वयं परमात्मा पर आश्रित है |

         निर्गुण निराकार से इस जगत का निर्माण हुआ है और वह परमात्मा इस जगत के कण-कण में व्याप्त है | इसका अर्थ हुआ कि बिना परमात्मा के इस जगत का अस्तित्व नहीं है | इसी बात को गोस्वामीजी ने मानस में इस प्रकार कहा है –

      एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई | 

       जदपि असत्य देत दुख अहई ||

        यह सारा संसार परमात्मा पर ही आश्रित है | इस संसार में रहते हुए हम सुखी-दुखी होते रहते हैं, जबकि इस प्रकार सुख-दुःख भोगने का कोई औचित्य नहीं है |

             संसार असत्य है क्योंकि यह प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है | परमात्मा अक्षर है, असीम है, अपरिवर्तनशील है और साथ ही निराकार भी | संसार का अस्तित्व स्वयं निर्गुण निराकार परमात्मा पर टिका है | सत्य केवल एक परमात्मा ही है | इस प्रकार संसार का अस्तित्व संसार के स्तर पर स्वीकार करना भी विचारणीय हो गया है | वास्तव में संसार को कार्य कहा जाता है और प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य ही होता है | संसार के होने का कारण परमात्मा है | इस प्रकार संसार भी परमात्मा ही हुआ | अतः परोक्ष रूप से कहा जा सकता है कि परमात्मा सत्य हैं और संसार भी सत्य है | संसार को असत्य बनाती है, हमारी उसके प्रति आसक्ति | यह संसार हमारे लिए तभी सत्य सिद्ध हो सकता है, जब हम उस संसार को भी परमात्मा माने और संसार को परमात्मा तभी स्वीकार किया जा सकता है जब हम इसके प्रति अनासक्त हों |

           संसार असत् है क्योंकि हमारी उसमें आसक्ति है | इसे हमने अपना और अपने लिए मान लिया है | संसार के असत् होने को स्वीकार करना आवश्यक है, तभी हमारे जीवन से दुःख दूर हो सकते हैं अन्यथा नहीं | इसके लिए हमें ज्ञान प्राप्त करना होगा | ज्ञान ही हमें सत् तक ले जा सकता है | असत् को सत् मान लेना ही हमारे जीवन में दुःख का एक मात्र कारण है | हमारा यह दुःख तब तक दूर नहीं होगा जब तक हम इस असत्य के पीछे छिपे सत्य को पहिचान नहीं लेते | यह पहिचान ज्ञान होने से ही हो सकती है अन्यथा नहीं | अज्ञान हमारी निद्रावस्था है जबकि ज्ञान हो जाना जाग्रत अवस्था कहलाती है |

               सुषुप्ति अवस्था से जाग्रत अवस्था में आने से ही सारा भ्रम मिट जायेगा | सुषुप्ति की अवधि में एक स्वप्नावस्था भी आती है, जिसका सत्य से दूर दूर का कोई सम्बन्ध नहीं होता है | सपने में एक राजा भी भिखारी बन जाता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह वास्तव में वह भिखारी हो गया है | राजा जनक के जीवन का एक प्रसंग है | एक बार जनकजी अपने राजनिवास के शयनकक्ष में सो रहे थे | तभी उनको एक स्वप्न आया कि वे एक भिखारी हैं | कई दिनों से उन्हें भोजन नहीं मिला है | भूख के मारे उनका हाल बेहाल हो रहा है | वे कुछ खाने की खोज में इधर उधर भटक रहे है | तभी एक स्त्री भोजन लेकर उनके सामने आती है | स्त्री भोजन तो ले आयी परन्तु जनकजी के पास तो उसे लेने के लिए कोई पात्र तक नहीं है | देखिए, स्वप्न भी व्यक्ति को कहाँ से कहाँ ले जाता है, कल्पना से बाहर की बात है |

         मरघट में इधर स्त्री भोजन लिए खड़ी है और उधर जनकजी के पास उस भोजन को प्राप्त करने के लिए कोई पात्र नहीं है | मरघट में भला भोजन के लिए पात्र कहाँ से मिलेगा ? जनकजी ने इधर उधर दृष्टि दौड़ाई | एक भग्न नर मुंड उन्हें दिखलाई पड़ा | उन्होंने भोजन लेने के लिए उसी खप्पर को एक पात्र बना लिया | स्त्री ने भोजन उस खप्पर में डाल दिया | जनकजी अपनी क्षुधा शांत करने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गए | ज्योंही वे उस भोजन को उदरस्थ करने वाले थे कि एक चील कहीं से उडती हुई आई | उस चील ने उस खप्पर में से भोजन उठाना चाहा परन्तु यह क्या ? चील के झपटते ही वह भोजन भरा खप्पर जनकजी के हाथ से नीचे गिर गया | खप्पर के नीचे गिरते ही उसमें से भोजन बिखरकर मिट्टी में मिल गया | भोजन अब खाने योग्य नहीं रह गया था | भूख से बिलबिला रहे भिखारी जनकजी के मुंह से एक चीख निकल गयी | इस चीख के साथ ही राजा जनकजी की आँख खुल गयी | यह क्या ? पसीने से लथपथ जनकजी तो राजमहल में सोये हुए है | वे सोचने लगे – “ओह ! यह तो एक स्वप्न था | मैं तो अभी राजा हूँ | फिर स्वप्न में जो जनक भिखारी बना घूम रहा था वह कौन था ?”

           स्वप्न में अपनी दशा देखकर जनकजी को भी भ्रम हो गया | वे समझ नहीं पा रहे थे कि अभी जो मैं हूँ वह सत्य है अथवा जो स्वप्न मैंने देखा वह सत्य है | सत्य का निर्णय कौन करे ? सत्य का निर्णय केवल वही कर सकता है जिसने सत्य को जान लिया हो | सत्य पढने, बोलने, लिखने अथवा सुन लेने तक ही सीमित नहीं है बल्कि सत्य तो अनुभव करने की बात है | जब तक सत्य का अनुभव नहीं होता तब तक सारा पढ़ा, बोला, लिखा, सुना ज्ञान उच्छिष्ट के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |

             सत्य क्या है, वह स्वप्न अथवा यह सांसारिक जाग्रत अवस्था ? इस सत्य को जिसने जान लिया, वह ज्ञानी हो कर सारी माया के पार हो गया | ज्ञान को स्वयं के भीतर उतारकर आचरण में लाने से ही वह भ्रम को दूर करने में सहायक है अन्यथा ज्ञान उच्छिष्ट बनकर रह जाता है | जिसने इस ज्ञान को केवल पढ़ने, सुनने, लिखने और बोलने तक सीमित रखा उसका सारा ज्ञान वमन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | जब आप पौष्टिक भोजन करते हैं, तब वह भोजन आपको तुष्टि और पुष्टि तभी दे पायेगा जब वह भोजन आपके भीतर जाकर रचे, पचे, उसका रस बने और धमनियों के माध्यम से शरीर में दौड़ते हुए एक शक्ति बन जाए | वमन कर देने पर वह भोजन चाहे कितना ही पौष्टिक हो आपको पुष्ट नहीं कर सकता |

           सत्य का अनुभव जिस व्यक्ति ने कर लिया है उसी व्यक्ति को गुरु कहा जाता है | गुरु ही वह माध्यम है जिससे हमें सत्य की ओर जाने की राह मिलती है | गुरु ही हमारे सभी भ्रम दूर कर सकता है | जनकजी का भ्रम दूर उनका गुरु ही करेगा, यह जानकर विदेहराज पहुँच गए अपने गुरु अष्टावक्र के पास | ज्ञान का शरीर सौष्ठव और सुन्दरता से कोई सम्बन्ध नहीं है | घड़ा बाहर से भले ही कितना ही सुन्दर हो, जब तक वह अपने भीतर के जल को शीतल नहीं कर देता तब तक उसकी सुन्दरता व्यर्थ है | इसी प्रकार शरीर चाहे कितना ही बदसूरत हो, टेढ़ा-मेढा हो अगर भीतर ज्ञान भरा पड़ा है तो ही वह शरीर सबसे सुन्दर है | अष्टावक्र मुनि का शरीर आठ स्थानों से वक्रता लिए हुए था, इसी कारण उनका नाम अष्टावक्र पड़ा था | जनकजी ने अष्टावक्र जी को प्रणाम किया और अपने आने का प्रयोजन बताया |

             जनकजी पूछ रहे हैं कि गुरुवर ! स्वप्न में जो मैं भिखारी था वह सत्य था अथवा जो मैं वर्तमान में एक राजा हूँ, वह सत्य है | अष्टावक्र जी ने बहुत ही सुन्दर उत्तर दिया – “राजन ! न तो स्वप्न ही सत्य था और न ही अभी वर्तमान में जो आप राजा हैं, वह सत्य है | दोनों ही भ्रम मात्र है | आप शारीरिक नींद से जाग जाते हैं तो स्वप्न असत्य सिद्ध हो जाता है | उसी प्रकार आप आत्मिक रूप से जिस दिन जाग जायेंगे तो आपका यह राजा होना भी असत्य सिद्ध हो जायेगा | देखा जाये तो यह सारा संसार ही स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं है | नींद का सपना तो शरीर के जागने से टूट सकता है परन्तु शरीर के जागते रहते जो आप अपने को राजा बना देख रहे हैं वह भी एक सपना ही है जोकि बिना ज्ञान के टूटना असंभव है |”

          इसी प्रकार हम भी इस मनुष्य शरीर में स्वयं के बहुत कुछ होने का अहंकार लिए जी रहे हैं, वह भी हमारा मात्र भ्रम ही है | जिस दिन हमें ज्ञान हो जायेगा उस दिन हमारा यह भ्रम समाप्त होगा उससे पहले नहीं | संसार को एक सपना बताते हुए शंकर भगवान् पार्वतीजी को मानस में कह रहे हैं –

            उमा कहउं मैं अनुभव अपना | 

            सत हरि भजनु जगत सब सपना ||

       सत्य केवल एक परमात्मा है | उसके लिए सभी कर्म करना, उनका भजन करना है | यह सारा जगत एक भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | यह भ्रम तभी दूर हो सकता है जब ज्ञान हो जाये और यह ज्ञान बिना प्रभु की कृपा के अनुभव में आ नहीं सकता | इसलिए प्रभु की कृपा से ही भ्रम का निवारण हो सकता है अन्यथा नहीं |       

            भ्रम को मिटाने के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है | इसी बात को गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज मानस में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि -

                    जौं सपनें सिर काटै कोई | 

                    बिनु जागें न दूरि दुख होई ||

       जिस प्रकार सपने में कोई हम पर आक्रमण करके हमारा शीश काटने लगता है तब हमें बहुत दुःख पहुंचता है | अपने सिर के कटने की पीड़ा किसी से भी सहन नहीं होती | सिर काटे जाने का यह दुःख तभी समाप्त हो सकता है, जब हम नींद से जाग जाएँ | इसी प्रकार इस संसार में हम आसक्त होकर बहुत से सुख-दुःख झेल रहे हैं | इसका एक मात्र कारण है कि हम इसी संसार को सत्य समझ रहे हैं | संसार का दुःख तभी दूर हो सकता है जब इस संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान हमें हो जाये |

          कबीर ने अपने दोहों के माध्यम से संसार की क्षण भंगुरता को बहुत ही सरल शब्दों के माध्यम से स्पष्ट किया है | कबीर कहते हैं –

        पानी केरा बुलबुला अस मानुस की जात |

        देखत ही छुप जायेगा ज्यों तारा प्रभात ||

      यह मनुष्य जीवन जो हमें परमात्मा की असीम कृपा से मिला है, वह जीवन पानी में बने बुलबुले के सामान है | पानी में बने बुलबुले का कोई विश्वास नहीं है, न जाने वह कब फूट कर मिट जाए | भोर का तारा बुध को कहा जाता है | सूर्योदय से कुछ समय पहले ही उसके दर्शन होते हैं | सूर्योदय होते ही वह दिखलाई पड़ना बंद हो जाता है।

         कबीर के कहने का मंतव्य है कि जो यह मनुष्य जीवन अल्प समय के लिए मिला है, उसको व्यर्थ न गवाएं बल्कि परमात्मा की प्राप्ति में लगायें | यह संसार एक भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | संसार की वास्तविकता को जान कर उससे भ्रममुक्त होना आवश्यक है | भ्रम निवारण हुए बिना असत्य ही सत्य प्रतीत होगा और ऐसे में सत्य तक पहुंचना असंभव हो जायेगा |

          संसार के सत्य होने का भ्रम जो हमारे भीतर गहराई तक बैठ गया है, उस भ्रम का निवारण कैसे हो ? जैसा कि मैंने पूर्व में बताया है कि सांसारिक भ्रम से हमें वही बाहर निकाल सकता है जिसने संसार के सत्य होने के भ्रम को तोड़ दिया है | अनुभव सिद्ध व्यक्ति ही हमें इस अवस्था से बाहर निकाल सकता है और वह व्यक्ति है – गुरु | गुरु उस रास्ते पर चल चूका है, जिस पर चलकर वह सत्य को उपलब्ध हो गया है | जब सत्य की खोज पूरी हो जाती है, तभी संसार असत्य सिद्ध होगा उससे पहले नहीं | हमारे पास दो रास्ते हैं – ज्ञान प्राप्त कर संसार को मात्र माया अथवा भ्रम मान लेना | यह ज्ञान हमें उपलब्ध करता है –गुरु | योग्य गुरु जो हमें मायिक संसार से बाहर निकलने में सहायता प्रदान करता है, वह बिना प्रभु की कृपा के हमें मिलता नहीं है | इसलिए दूसरा रास्ता है- परमात्मा के प्रति समर्पण | जब हम परमात्मा के प्रति पूर्णरूप से समर्पित हो जाते है, तब हमरा भ्रम अनायास ही मिट जाता है | इसीलिए मानस में तुलसी लिखते हैं -  

     जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई।

      गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।।

     आदि अंत कोउ जासु न पावा।

      मति अनुमानि निगम अस गावा।।

          इसलिए परमात्मा के प्रति समर्पित होकर इस संसार को असंग रहते हुए देखें | फिर संसार में भी परमात्मा दृष्टिगत होंगे | एक परमात्मा के अतिरिक्त इस संसार में जो कुछ भी आप देख रहे हैं, वह सब आपका भ्रम है | संसार तभी तक असत्य है जब तक हम उसे भोग और सुख प्राप्त करने की दृष्टि से देखते हैं अन्यथा परमात्मा का आदि अवतार होने से संसार असत्य कैसे हो सकता है ?

           अगर माया असत है, भ्रम है, तो फिर सत्य क्या है ? एक बार आदि शंकराचार्यजी महाराज अपने शिष्यों के साथ भ्रमण पर थे | उस समय विद्युत् का उत्पादन नहीं होता था, केवल तारों और ग्रहों, उपग्रह आदि के प्रकाश से ही रात के समय आवागमन का मार्ग दिखलाई पड़ता था | उस मद्धम प्रकाश में एक शिष्य ने देखा कि यात्रा के आगे के मार्ग में एक सर्प लेटा हुआ है | उसने शंकराचार्य महाराज से कहा कि महाराज, आगे रास्ते में एक सर्प लेटा हुआ है | प्रत्युतर में आचार्यजी ने प्रश्न किया कि ध्यान से देखो क्या वह सर्प ही है ? शिष्य ने ध्यान से देखा तो उसे अनुभव हुआ कि वह सर्प न होकर एक टेढ़ी-मेढ़ी लकड़ी है, जिसे उसने पहले भ्रमवश सर्प समझ लिया था | उस शिष्य ने कहा कि नहीं महाराज, यह सांप नहीं है बल्कि यह तो एक लकड़ी है | आचार्यजी ने फिर पूछा कि क्या तुमने उसको छूकर देखा है ? शिष्य ने कहा कि नहीं | इस पर शंकर ने कहा - “तो फिर सावधानी रखते हुए उसे छूकर देखो और पता लगाओ कि वास्तव में वह है क्या ?”

       शिष्य ने सावधानी रखते हुए उसके थोडा और पास जाकर उसे ध्यान से देखा | अब वह टेढ़ी मेढ़ी लकड़ी भी उसे दिखलाई नहीं पड़ी | स्पष्ट था कि उसे अब वह न तो सर्प ही प्रतीत हो रहा था और न ही लकड़ी | निर्भय होकर उस शिष्य ने उस वस्तु का अपने हाथ से स्पर्श किया और फिर ऊपर उठा लिया | शिष्य दूर खड़ा-खड़ा ही बोला –‘महाराज, यह तो रस्सी है | भ्रमवश इसी रस्सी को मैंने पहले तो सर्प समझा और बाद में टेढ़ी-मेढ़ी एक लकड़ी | मेरा यह भ्रम था | सत्य में तो यह एक रस्सी है |’ 

        शिष्य ने पहले जिसको सर्प समझा था और बाद में लकड़ी, वह दोनों ही न होकर अस्त-व्यस्त पड़ी एक साधारण सी रस्सी निकली | इस पर आदि शंकराचार्य महाराज ने कहा है कि सत्य तो यह है कि वह रस्सी भी नहीं है बल्कि उसका एक रस्सी होना भी भ्रम ही है | रस्सी को बिखेरना शुरू करोगे तो वहां धागे निकलेंगे | धागे को ध्यानपूर्वक देखोगे तो वे भी धागे न होकर रूई होगी | इस प्रकार आगे बढ़ते बढ़ते हुए कहाँ तक पहुंचोगे, आप कल्पना कर सकते हो | इसलिए मैं कहता हूँ कि जो एक बार असत्य सिद्ध हो गया, समझो वह सदैव के लिए ही असत्य सिद्ध हो गया | तो फिर वह सर्प नहीं था, लकड़ी भी नहीं थी, रस्सी भी नहीं थी, धागा भी नहीं है, रूई भी नहीं है तो फिर आखिर वह है क्या ? प्रश्न को आपके विचारार्थ यहीं पर छोड़े जाता हूँ |

       चलिए ! आगे बढ़ते हैं | शंकराचार्यजी महाराज ने सत्य की ओर संकेत तो कर दिया परन्तु शिष्य ने उसे कैसे और किस प्रकार समझा वह उसके विवेक पर निर्भर करता है | हम सब उस शिष्य की तरह ही इस संसार को लेकर एक प्रकार के भ्रम में जी रहे हैं | जो दिखलाई पड़ रहा है, उसी को सत्य समझ बैठे है, जबकि सत्य क्या है, उसकी एक झलक मात्र से हम अभी भी कोसों दूर खड़े हैं | संसार के प्रति हमारा यह भ्रम कैसे मिटेगा और उस सत्य तक हम कैसे पहुँच पाएंगे ? कौन हमें उस सत्य तक पहुंचाएगा ?

        बिना परमात्मा की कृपा के किसी भी भ्रम का मिटना असंभव है | जगदीश्वर की धर्मपत्नी दक्षसुता सती को भी एक बार इसी प्रकार का भ्रम हो गया था और उस भ्रम को मिटाने के लिए उन्हें पार्वती के रूप में इस संसार में पुनः जन्म लेना पड़ा | जब शंकर भगवान् की पार्वती पर कृपा हुई तभी वह राम-कथा सुनकर इस भ्रम से मुक्त हो सकी |  

             भगवान् की बनाई माया के प्रति हमारा भ्रम पैदा ही क्यों होता है ? सबसे अधिक भ्रम तब होता है, जब हम सगुण रूप में  प्रकट हुए परम ब्रह्म पर भी अविश्वास जताने लगते हैं | भगवान् राम को भी उस समय कितनों ने परमब्रह्म के रूप में देखा और जाना था ? यहाँ तक कि दशरथ महाराज को भी उनमें अपना पुत्र ही दिखलाई पड़ रहा था | इसी पुत्र की आसक्ति ने उनके प्राण तक ले लिए थे |

              दक्ष-पुत्री सती के साथ भी तो यही हुआ था | शंकर भगवान् तो जानते थे कि सगुण और निर्गुण के मध्य कोई भेद नहीं है परन्तु सती उनकी पत्नी होते हुए भी इस बात को नहीं जान सकी थी | जिसका परिणाम उन्हें शंकर से परित्यक्त होने के रूप में मिला और धर्मपत्नी के पद से च्युत होना पड़ा था | शंकर भगवान् के साथ आसन पर सदैव उनके वाम पार्श्व में बैठने वाली सती को एक दिन उनके सम्मुख बैठना पड़ा |

            शंकर जैसा गुरु किसी को भी नहीं मिल सकता, फिर भी सती को ज्ञान नहीं हो सका कि इस सृष्टि के कण-कण में परमात्मा व्याप्त हैं | जो कुछ भी आप संसार में देख रहे हैं, वह उसी की लीला मात्र है | अभिनय और वास्तविकता में अंतर को पहिचानना आवश्यक है | इस बात को जो जान लेता है वही ज्ञानी हो जाता है | हाँ, अभिनय की सर्वोच्च अवस्था में अभिनय और वास्तविकता में अंतर करना एक साधारण मनुष्य की क्षमता के बाहर की बात है | इस अंतर को गुरु ही स्पष्ट कर सकता है | इसके लिए आवश्यक है कि गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो | सती ने शंकर के कहे पर ही तो विश्वास नहीं किया था | उसी अविश्वास का परिणाम उन्हें अपने पति से परित्यक्त होकर भुगतना पड़ा |

           गुरु भी तो परमात्मा की कृपा से ही मिलते हैं | बिना उसकी कृपा के गुरु भी आपको ज्ञान नहीं दे सकता | गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान की भूमिका आपके भीतर के विवेक को जाग्रत करने में है | विवेक सभी व्यक्तियों में जन्म से ही उपस्थित रहता है, उसको पैदा नहीं करना पड़ता | विवेक को तो जाग्रत किया जा सकता है और उसमें एक गुरु की भूमिका ही महत्वपूर्ण होती है |

              जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चूका है कि माया का दूसरा नाम भ्रम ही है और यह भ्रम पैदा होता है, माया में उपस्थित प्रकृति के तीन गुणों के कारण | परमात्मा की बनाई इस माया से सभी प्राणी मोहित हो जाते है | परन्तु मनुष्य के पास तो विवेक है फिर भी मनुष्य भ्रमित क्यों हो जाता है ? प्रकृति के तीनों गुण आपस में जिस प्रकार तालमेल रखते हुए कार्य करते हैं, उससे भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है | भगवान् कहते हैं कि इन तीन गुणों के कारण जो भी भाव मनुष्य में होते हैं, वे सब मेरे कारण ही होते हैं | परन्तु मनुष्य उन भावों में उलझकर भ्रमित होकर रह जाता है | जैसे सात्विक भाव के कारण मनुष्य को सुख मिलता है और राजसिक भाव के कारण मनुष्य कर्म करने को उद्यत होता है | इसी प्रकार तामसिक भाव में मनुष्य ज्ञान से विमुख हो जाता है | इस प्रकार इन तीनों के कारण मनुष्य अपने ही गुणों के सामने पराजित हो जाता है | इन गुणों से उत्पन्न भावों से मोहित प्राणी भगवान् को नहीं जान सकता क्योंकि वह गुणों के आपसी कार्य को अपने द्वारा करना मान लेता है |

         भगवान् कह रहे हैं कि जो भी तीनों भाव (सात्विक, राजसिक और तामसिक भाव ) हैं, वे सभी मेरे कारण ही होते हैं फिर भी वे भाव न तो मुझमें हैं और न ही मैं उनमें हूँ |(गीता-7/12) | परमात्मा तो गुणातीत है | अगर हम अपने इन भावों पर दृष्टि न रखकर अपनी समग्र दृष्टि को केवल परमात्मा पर रखेंगे तो फिर हम इन भावों के मूल अर्थात गुणों से तनिक भी प्रभावित न होकर भ्रमित भी नहीं होंगे | हम कुछ भी नहीं करते बल्कि गुण ही गुण में बरतते है (गुणा वर्तन्त इत्येव-गीता - 14/23) अर्थात गुणों के आपसी व्यवहार के कारण ही यह संसार गतिमान है, ऐसा मानने वाला फिर संसार में रहते हुए भी कभी भ्रमित नहीं होगा |

                गीता में भगवान् श्री कृष्ण अपनी इस माया के बारे में बताते हुए अर्जुन को कह रहे हैं –

         दैवी ह्येषा  गुणमयी मम ममय दुरत्यया |

         मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || गीता – 7/14 ||

          भगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि मेरी यह माया दुरत्यय है अर्थात इससे पार होना कठिन है |  जो केवल मेरी शरण होते हैं, वे इस माया से पार हो जाते हैं |

                  हम सब मृग मरीचिका के बारे में तो जानते ही हैं | तेज गर्मी में जब मृग को प्यास लगती है, तब वह जल की तलाश में मैदान में इधर उधर भटकता है | कहीं दूर उसको जल होने का आभास होते ही वह उस ओर दौड़ पड़ता है | दौड़ते दौड़ते वह बहुत दूर पहुँच जाता है परन्तु जल-स्रोत निकट आने के स्थान पर उससे उतना ही दूर बना रहता है | वह पलटकर देखता है तो उसे अपने पीछे भी वैसा ही जल स्रोत दिखलाई पड़ता है | वह पलटकर फिर पीछे की ओर दौड़ने लगता है | वह दिन भर इधर उधर दौड़ता रहता है परन्तु जल स्रोत तक कभी भी पहुँच नहीं पाता |

               इधर उधर दौड़ते दौड़ते आखिर एक समय मृग की शक्ति चूक जाती है और वह भूमि पर गिर पड़ता है | इतनी अधिक दौड़ का परिणाम क्या निकला ? कुछ भी नहीं | जल स्रोत केवल माया थी, वहां जल कभी था भी नहीं | यही हमारे जीवन में होता है | माया के कारण हम इसी भ्रम में जी रहे होते हैं कि कल सुख मिलेगा | सुख की खोज में हम इधर उधर दौड़ते रहते हैं, परन्तु सुख कभी मिलता ही नहीं है | सुख क्यों नहीं मिलता ? क्योंकि सुख भी एक भ्रम ही है | मनुष्य की मानसिक दशा के अलावा सुख-दुःख कुछ भी नहीं है | यह मानसिक दशा जब तक परिवर्तित नहीं होगी तब तक माया हमें छलती रहेगी |

           परमात्मा की माया के पार वही हो सकता है जिसने मायापति की शरण ले ली है | परमात्मा की शरण लेने का अर्थ है, सब कुछ परमात्मा ही है, यह स्वीकार कर लेना | फिर जीवन में सुख मिलता है, तो वह भी परमात्मा है और दुःख आया है तो भी परमात्मा का आगमन हुआ है, यह मान लेना | यह स्वीकार कर लेना भी सहज नहीं है क्योंकि हमें जो कुछ दिखलाई पड़ रहा है, केवल उसी को महत्वपूर्ण मानते हैं | दिखलाई माया पड़ती है परमात्मा नहीं | जिस दिन हम माया के पीछे छिपे परमात्मा को देख लेंगे उस दिन ही हम परमात्मा की शरण हो जायेंगे | ऐसा तभी होगा जब हमारे भीतर जो विवेक सोया पड़ा है उसे हम जाग्रत कर लेंगे |

       श्रीरामचरितमानस में लक्ष्मणजी निषादराज गुह को कह रहे हैं –

           एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी |   

            परमारथी प्रपंच बियोगी ||

           जानिअ तबहिं जीव जग जागा | 

           जब सब बिषय बिलास बिरागा ||

           होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा |

           तब रघुनाथ चरन अनुरागा ||

       अर्थात इस जगतरूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच से दूर बने हुए हैं | जगत में जीव को तभी जागा हुआ मानना चाहिए जब उसे सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाये | विवेक होने पर मोह रुपी भ्रम भाग जाता है और ज्ञान हो जाने पर श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम हो जाता है |

               संसार से प्रेम को हमें एक तीव्र मोड़ देकर 180 अक्षांश तक घुमाना होगा और उसे परमात्मा के प्रेम में परिवर्तित करना होगा तभी हम इस माया के भ्रम से मुक्त हो सकेंगे अन्यथा नहीं |

              पुनः चलते हैं शंकराचार्य जी महाराज के उस कथन की ओर जिसमें उन्होंने अपने शिष्य को कहा था कि जो बात एक बार असत्य सिद्ध हो जाती है, समझ लो वह सदैव के लिए असत्य सिद्ध हो गयी | पहले जो सांप दिखलाई दे रहा था, वह फिर एक लकड़ी प्रतीत होने लगी | छूकर देखने से वही लकड़ी एक रस्सी में परिवर्तित हो गयी थी | रस्सी का ताना-बाना उधेडा गया तो वह कई धागों में परिवर्तित हो गयी | उन धागों का जब विश्लेषण किया गया तो वह रूई में परिवर्तित हो गयी | आदि शंकर का कहना था कि यह भी रूई न होकर परमात्मा ही है | अगर हम गंभीरता से देखें तो एक परमात्मा के अतिरिक्त इस संसार में कुछ और है ही नहीं | इसलिए सर्वत्र एक परमात्मा को ही देखो | जब सब ओर परमात्मा ही दृष्टिगोचर होंगे तो फिर किसी प्रकार का भ्रम होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा | भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं –

      यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |

     तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति || गीता-6/30||

              जो सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |

             सबमें एक उसको ही देखने का अर्थ है कि एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई इस संसार में है ही नहीं | माया के पीछे मायापति को देखने से माया भ्रम नहीं हो सकती | फिर माया हमें छल नहीं सकती | माया हमें तभी तक भ्रमित करती है जब तक हम माया को ही सत्य समझकर उसमें आसक्त हो जाते हैं | एक परमात्मा की शरण ले लेने से माया प्रभावहीन होकर रह जाती है |

                इसी बात को मानस में तुलसीदासजी ने भगवान् शंकर के मुख से इस रूप में कहलाया हैं -       

  “जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई | 

    गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ||”

              हे गिरिजे ! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु श्री रघुनाथजी है |

      भ्रम है, माया को ही सत्य समझ लेना | सत्य कभी भी परिवर्तित नहीं होता जबकि असत कभी स्थिर नहीं रह सकता | इस संसार में सत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | 

              “नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः” (गीता-2/16) कहता है कि असत की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत का कहीं अभाव नहीं है | लेख के प्रारम्भ में मैंने कहा था कि हमारी इन्द्रियां जो कुछ भी देखती है, सुनती है, स्पर्श का अनुभव करती है, सूंघती है अथवा स्वाद लेती है, उन सबका अनुभव मन के माध्यम से जीव को होता है | जीव ही इन सभी का भोक्ता है | जीव परमात्मा का अंश है | इस प्रकार परोक्ष रूप से परमात्मा ही भोक्ता हो गए | साथ ही भगवान् कह रहे हैं कि मैं न तो कुछ करता हूँ और न ही लिप्त होता हूँ | ऐसे में भ्रम की स्थिति पैदा क्यों हो जाती है ?

            भ्रम तभी उत्पन्न होता है जब जीव स्वयं को इन भोगों में आसक्त कर लेता है | भोगों के प्रति आसक्ति जीव को भोक्ता तो बना देती है परन्तु परमात्मा से उसे दूर कर देती है | ऐसे में मूल स्वरुप परमात्मा तक पहुँचने का एक ही मार्ग शेष बचता है, और वह मार्ग है परमात्मा के शरणागत हो जाना | शरणागति की अवस्था ही परमात्मा की कृपा होना है | उनकी कृपा से ही सभी प्रकार के भ्रमों का निवारण हो जाता है | इसीलिए गोस्वामीजी ने मानस में भगवान् शंकर के मुख से कहलाया है –

          “जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई”

सार-संक्षेप -

          हमारे जीवन में भ्रम मुख्य भूमिका निभाता है | प्रत्येक स्थान पर और प्रतिदिन भ्रम से हमारा आमना–सामना होता रहता है | एक बार भ्रम में पड़ने के बाद भी हम चेतते नहीं है और पुनः किसी दूसरे भ्रम के शिकार हो जाते हैं | माया को भ्रम का कारण माना गया है, इसीलिए माया को भ्रम भी कहा जाता है | जो दिखलाई पड़ रहा है, उसको सत्य तभी माना जा सकता है जब हम उसमें आसक्त न हों | मनुष्य आसक्त हुए बिना रह नहीं सकता क्योंकि वह दिखलाई पड़ रही माया को ही सत्य समझ लेता है | माया ही उसे जीवन में सुख-दुःख, राग-द्वेष, जय-पराजय, लाभ-हानि आदि द्वंद्वों में उलझा देती है | यह जीवन इतना छोटा सा है कि हमें इन फालतू द्वंद्वों में ही फंसकर नहीं रह जाना चाहिए |

              सत्य केवल एक ही हो सकता है और वह सत्य है-परमात्मा | दिखलाई न पड़ने के उपरांत भी हम उसका होना तो मान लेते है परन्तु उसके होने पर भी हमारा अडिग विश्वास नहीं रहता | माया का उद्भव कहाँ से होता है ? जहाँ से उसका सृजन हुआ है वह मायापति ही परमात्मा कहलाता है | जब हम उसकी माया में भी उसे ही देखने लगेंगे तब हमारे सभी भ्रम मिट जायेंगे | माया के पीछे परमात्मा को देखना ही भ्रम निवारण कर सकता है | इसके लिए हमें गुरु की शरण लेनी होगी, एक वही हमारा विवेक जाग्रत करने में सिद्धहस्त है | स्वामीजी कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में विवेक होता ही है उसे पैदा नहीं किया जा सकता बल्कि उसे जाग्रत करना होता है | विवेक के जाग्रत होते ही फिर परमात्मा तक पहुंचकर उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है | उनकी कृपा होते ही फिर किसी भी प्रकार का भ्रम पैदा नहीं हो सकता | भ्रम से ब्रह्म की हमारी यात्रा प्रभु कृपा से ही संपन्न हो सकती है | इसलिए सदैव याद रखें - परमात्मा की कृपा से ही माया से मुक्त हुआ जा सकता है |

       “जासु कृपाँ अस भ्रम मिट जाई”

        इसी के साथ यह श्रृंखला समाप्त होती है | आप सभी का साथ बने रहने का आभार |

प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 


Sunday, October 23, 2022

येन सर्वमिदं ततम्

 येन सर्वमिदं ततम् 

         संसार ‘नहीं’ है क्योंकि वह अभी जैसा दिख रहा है, वैसा वह भविष्य में रहेगा नहीं | जो कभी नहीं बदलता बल्कि एक जैसा रहता है वह ‘है’ है | हमें अपनी दृष्टि से ‘नहीं’ तो दिख रहा है, इसलिए उसको ही होना अर्थात ‘है’ मान लेते हैं और जो ‘है’ वह वास्तव में है, वह हमें दिखता नहीं है; अतः उसको हमने नहीं होना मान लिया है | मनुष्य जीवन का यही भ्रम उसे ‘नहीं’ में उलझाकर रख देता है | ‘नहीं’ में उलझने वाला ‘है’ तक कभी नहीं पहुँच पाता | यही कारण है कि उसका ‘नहीं’ से पिण्ड कभी छूटता नहीं है |

            ‘नहीं’ स्वप्नवत है, दर्पण में दिखाई पड़ने वाली छाया मात्र है और सबसे बड़ी बात – वह दर्पण में बना प्रतिबिम्ब ‘है’ का ही है | इसका अर्थ हुआ कि ‘नहीं’ की व्यक्तिगत सत्ता नहीं है बल्कि उसकी सत्ता प्रतीत होने के पीछे ‘है’ ही है | जिस दिन इस बात का अनुभव हमें हो जायेगा फिर संसार में ‘नहीं’ कहीं दिखलाई नहीं पड़ेगा बल्कि सब कुछ ‘है’ ही दिखेगा |

              इस ‘नहीं’ और ‘है’ की उलझन को कुछ सीमा तक सुलझाने के लिए एक नए विषय पर श्रृंखला प्रारम्भ कर रहे हैं – ‘येन सर्वमिदं ततम्’ अर्थात जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है | जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमात्मा को जानना कठिन नहीं है | हाँ, उसको जानने के लिए, सर्वप्रथम उसको पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ मानना आवश्यक है | गणित में भी किसी प्रश्न के परिणाम को जानने के लिए पहले कुछ न कुछ (X,Y,Z) मानना जरूरी होता है, फिर यहां तो परमात्मा को जानने का प्रश्न है। परमात्मा को मान कर ही जाना जा सकता है।

           जब जब धर्म के बारे में चर्चा होती है तो सत्य की बात उस चर्चा में अवश्य आती है | सभी धर्म उस एक शक्ति को ही सत्य मानते हैं, जिसने इस जगत की सृष्टि की है | मतभेद जगत और परमात्मा के दो अथवा एक होने को लेकर हो सकते हैं परन्तु सत्य को लेकर कोई मतभेद नहीं है | जो सत्य है वह सदैव के लिए सत्य है और जो असत्य है वह कुछ समय के लिए भले ही असत्य प्रतीत होता हो परन्तु वास्तव में उसके असत्य प्रकटीकरण के पीछे भी सत्य की शक्ति ही होती है | सत्ता सदैव एक की ही रहती है, दो की सत्ता कभी भी नहीं हो सकती | जो एक सत्य है उसी को हम परमात्मा के नाम से जानते हैं |

          परमात्मा अनिर्वचनीय है फिर भी उसे जाना जा सकता है | गीता में भगवान् कहते हैं –

      ‘ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते |

      अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते’ ||गीता-13/12||

      भगवान् कहते हैं कि जो ज्ञेय है, उस परमात्मतत्व को मैं अच्छी तरह से कहूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है | वह ज्ञेय तत्व अनादि और परम ब्रह्म है | उसको न तो सत कहा जा सकता है और न ही असत |

             सत और असत में भेद देखने/मान लेने के कारण परमात्मा को इन दोनों से परे कहा गया है | वास्तव में असत के पीछे सत की ही सत्ता रहती है | ज्ञान हो जाने पर जब असत का आवरण हट जाता है तब शेष सब कुछ सत ही रह जाता है | उस सत्य अर्थात परमात्मतत्व को संसार को जानने की तरह नहीं जाना जा सकता | परमात्मा को तो मानना पड़ता है, स्वीकार करना पड़ता है और यह स्वीकृति आपके अपने अनुभव से ही हो सकती है, किसी अन्य साधन से नहीं | इसलिए परमात्मा को मानकर उसकी अनुभूति करें कि इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड में उस एक के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है | संसार में कोई भी दो मनुष्य न तो एक समान है और न ही एक दूसरे से एकदम भिन्न हैं । यहाँ प्रत्येक मनुष्य अपने आप में विशिष्ट (unique) है | अतः परमात्मतत्व को अनुभव करने का मार्ग गुरु बता तो सकता है परन्तु उस तत्व की अनुभूति तो स्वयं को ही होगी किसी दूसरे को नहीं |

             इसी विषय पर कल विस्तार से इस चर्चा को आगे बढ़ाएंगे |            

                    सत् को सभी चाहते हैं, असत्य को कोई पसंद नहीं करता फिर भी सत्य से दूरी बनाये रखकर सभी असत में डूबे रहते हैं | सत को चाहना सभी के लिए मात्र एक सैद्धान्तिक बात बनकर रह गयी है | इसके पीछे क्या कारण है ? सबसे बड़ा कारण है - सत्य को स्वीकार न कर पाना; क्योंकि सत्य को स्वीकार करने में बहुत बड़ी कठिनाई है | असत हमें इतना अधिक आकर्षित करता है कि हम सत्य से सदैव एक दूरी ही बनाये रखते हैं | भले ही हमारी सोच ऐसी नहीं है कि हम सत्य से दूर रहना चाहते हों परन्तु असत की चाहना हमें सत्य से दूर कर देती है | कहा जाता है कि सत्य कटु होता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि सत्य की स्वीकार्यता नहीं है बल्कि अर्थ है कि स्वार्थवश सत्य को कोई सुनना नहीं चाहता | सत्य केवल उन्हीं के लिए कड़वा होता है जो असत में आकंठ डूबे हुए हैं |

            जिस प्रकार प्रकाश की उपस्थिति में अंधकार नहीं रह सकता उसी प्रकार सत्य के सामने असत भी अस्तित्वहीन हो जाता है | इसका अर्थ यह नहीं है कि जिसको हम असत कह रहे हैं उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है | असत, वह है जिसका कोई नाम है, रूप है यानि आकार है और जिसकी दशा प्रतिपल बदल रही है | केवल इतना होने पर ही ‘असत का कोई अस्तित्व नहीं है’, ऐसा नहीं कहा जा सकता | प्रश्न उठता है कि अगर असत का अस्तित्व है तो फिर उसका अस्तित्व किस पर टिका है,उसके अस्तित्ववान होने का आधार क्या है ? प्रत्येक पदार्थ (असत) के रूप और नाम में परिवर्तन होना शाश्वत सत्य है और उसमें ऐसा परिवर्तन संभव होना ही असत के पीछे सत की सत्ता होने की ओर संकेत करता है | अतः आवश्यक है कि हम असत को सत के आलोक में देखें | जिस दिन हम असत को सत के प्रकाश में देखेंगे तो अचंभित रह जायेंगे और स्वीकार कर लेंगे कि अब तक हम एक प्रकार के भ्रम में ही जी रहे थे |

              इस प्रकार स्पष्ट है कि न तो असत की सत्ता है और न ही अन्धकार की सत्ता है बल्कि सत्ता केवल सत की है, प्रकाश की है | जिस प्रकार अन्धकार के पीछे प्रकाश की सत्ता रहती है उसी प्रकार असत के पीछे भी सत की सत्ता है | प्रकाश की अनुपस्थिति जिस प्रकार अन्धकार को जन्म देती है उसी प्रकार सत से विमुखता असत को अस्तित्व प्रदान कर देती है | दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि असत और अन्धकार कहीं है ही नहीं बल्कि चहुँ ओर प्रकाश ही प्रकाश है, सत ही सत है | सत के अतिरिक्त जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है, सब भ्रम मात्र है |

             गीता कहती है – ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ | इसका एक ही अर्थ है – असत की सत्ता नहीं है और सत का कहीं अभाव नहीं है अर्थात एक सत के अतिरिक्त किसी अन्य की सत्ता है ही नहीं | असत की जब कोई सत्ता है ही नहीं तो फिर हमें जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है, वह क्या है ? उसको असत क्यों कहा गया है ? इस जगत को, जिस संसार में हम रह रहे हैं, उसको शास्त्रों में ब्रह्माजी ने परमात्मा का आदि अवतार तक कहा है | परमात्मा सत है, फिर तो उसका अवतार भी सत ही होना चाहिए, वह असत कैसे हो सकता है ? परोक्ष रूप से देखा जाये तो वास्तव में समस्त जगत सत ही है | उसमें आसक्त होकर हमने ही इस संसार को सत्ता दी है | हम भी तो परमात्मा के ही अंश हैं | परमात्मा ने संसार बनाया था, अपने आनंद के लिए | परमात्मा के अंश होने के कारण हमें भी इस संसार से आनंद लेना था | परन्तु इस संसार में आकर हमने क्या किया ? हमने इस संसार के एक क्षुद्र से भाग में स्वयं के सुख के लिए अपना एक छोटा सा अलग ही संसार बसा डाला | इस प्रकार हम असीम होते हुए भी संकुचित हो गए।अपना संसार बनाया, वहां तक तो फिर भी उचित था परन्तु उस संसार से स्वयं को सुख मिलने की कामना भी करने लगे, जोकि अनुचित था | हमारी इस स्वार्थ बुद्धि ने ही सत संसार को असत रूप में परिवर्तित कर दिया |

            विराट संसार को क्षुद्र बना डालने के कारण परमात्मा के अंश होने के बावजूद भी हम क्षुद्र हो गए और अपने छोटे से संसार में आसक्त होकर अपना वास्तविक स्वरूप भूल गए | सांसारिक आसक्ति के कारण, इस स्व-निर्मित संसार से बहुत सी अपेक्षाएं कर बैठे | जहाँ पर अपेक्षाएं और कामनाएं होती है वहां सत्य क्षण भर के लिए भी टिक नहीं सकता | यही कारण है की संसार परमात्मा का आदि अवतार होने के बाद भी हमारे लिए सत्य से दूर होकर असत हो गया है |

             गीता में भगवान् ने प्रत्येक जीव को अपना अंश बताया है | श्री कृष्ण भगवान् अर्जुन को कह रहे हैं –

   ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातन: |

   मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||गीता-15/7||

    इस शरीर में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है |

          यह शरीर (मन और इन्द्रियाँ सहित) प्रकृति विभाग में है और जीवात्मा चेतन विभाग में है | परमात्मा का अंश होने के कारण ही जीवात्मा चेतन विभाग के अन्तर्गत है | जीवात्मा वास्तव में है तो चेतन परन्तु प्रकृति में स्थित होकर अर्थात जड़ शरीर को प्राप्त कर वह स्वयं को शरीर ही मान लेता है | प्रकृति के आकर्षण में वह अपना वास्तविक स्वरुप भूल जाता है | स्वरुप को भूल जाने के बाद भी वह जिसमें आसक्त है उसी को सत्य समझने लगता है, वही उसका सबसे बड़ा भ्रम है | संसार में रहते हुए भी अपने वास्तविक स्वरुप तक पहुँचने के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है -उस सत्य को सदैव स्मृति में बनाये रखना |

                प्रकृति में आकर्षण है और उस आकर्षण के छलावे में जीवात्मा आ जाता है | प्रकृति का आकर्षण उसमें उपस्थित तीन गुणों के कारण होता है | उन गुणों की आपस में हो रही क्रियाएं ही शरीर को सुख-दुःख का अनुभव कराती है | प्रकृति में आकर्षित होकर जीवात्मा अपने आप को सुखी दुखी होना समझ लेता है | जबकि वास्तविकता यह है कि परमात्मा का अंश होने से जीवात्मा स्वयं भी निर्गुण है | निर्गुण होने के कारण उसमें क्रियाएं नहीं होती | क्रियाएं नहीं होने से उसमें सुख-दुःख का होना भी संभव नहीं है | निर्गुण जीवात्मा जब सगुण प्रकृति के आकर्षण में बन्ध जाता है तभी उसको सुख-दुःख का अनुभव होगा अन्यथा नहीं | हमें केवल अपनी मान्यता ही बदलनी है कि हम परमात्मा के अंश हैं; इसलिए निर्गुण निराकार हैं |

          परमात्मा निर्गुण निराकार है | अपने आनंद के लिए उन्होंने अपने स्वरूप में ही तनिक सा परिवर्तन किया और वे सगुण साकार हो गए | इतना करने के बाद भी वे अपने मूल स्वरुप में ही स्थित रहते हैं, सगुण बनकर भी गुणों में फंसते नहीं हैं | निर्गुण अर्थात गुण रहित होने के कारण किसी भी प्रकार के सुख-दुःख अथवा आनंद का मिलना असंभव है | गुण ही गुण के साथ व्यवहार करते हुए विभिन्न प्रकार की क्रियाएं करते हैं और इन क्रियाओं के कारण ही सगुण साकार जीव को सुख-दुःख आदि का अनुभव होता है | जब इन्हीं क्रियाओं को केवल गुण का व्यवहार होना मान लिया जाता है तो जीव इन गुणों के परे हो जाता है अर्थात गुणातीत हो जाता है | फिर वह जीव उन क्रियाओं को गुणों का आपसी व्यवहार मानते हुए उनसे निर्लिप्त बना रहता है | इस अवस्था को उपलब्ध हुआ जीव ही सुख-दुःख से मुक्त होकर आनंद की अवस्था को उपलब्ध होता है |

           परमात्मा का बनाया यह संसार केवल आनंद की अनुभूति करने के लिए है | यहाँ आनंद तभी मिल सकता है जब हम इस संसार में होने वाली किसी भी क्रिया में लिप्त न हों | क्रियाओं में लिप्त होने से अर्थ है - क्रियाओं को अपने द्वारा और स्वयं के सुख लिए किया जाना मान लेना और फिर नए कर्म करने के लिए उद्यत हो जाना | ऐसा मान लेना ही सत संसार को असत बना देता है | विराट जगत का एक निश्चित आकार और नाम है, साथ ही उसमें प्रकृति के तीनों गुण भी विद्यमान है | प्रकृति के तीनों गुण आपस में व्यवहार करते हुए विभिन्न प्रकार की क्रियाएं भी करते हैं | प्रत्येक क्रिया का एक निश्चित परिणाम भी होता है, जिसके कारण जगत का स्वरुप निरंतर परिवर्तित होता रहता है | यह परिवर्तन इस जगत की विशालता के कारण हमें तत्काल अनुभव में नहीं आता है | इसी जगत के एक अति क्षुद्र भाग में जब हम अपने सुख के लिए अलग संसार बसा लेते हैं तब हमें यह परिवर्तन स्पष्ट रूप से अनुभव में आने लगता है | यह परिवर्तन ही हमें जीवन में सुख-दुःख की अनुभूति कराता है |  

            जगत का एक निश्चित आकार होता है, रूप होता है और नाम होता है | शरीर भी जगत के अंतर्गत ही है | इस शरीर में भी निरंतर परिवर्तन हो रहे हैं | हम स्वयं अपरिवर्तनशील है | अपरिवर्तित रहने वाला ही शरीर में हो रहे परिवर्तन को अनुभव कर सकता है जैसे ‘मैं जवान हूँ, मैं बुढा हो रहा हूँ’ इत्यादि । इस शरीर में होने वाले परिवर्तन को अनुभव करने वाला यह ‘मैं’ कौन है ? यह ‘मैं’ ही हम है, जोकि हमारा वास्तविक स्वरुप है | यही जीवात्मा है, जोकि परमात्मा का अंश है |

      अष्टावक्र गीता में विदेहराज जनक को उपदेश करते हुए मुनि अष्टावक्र जी कह रहे हैं -

   साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलम् |

   एतत्तत्वोपदेशेन    न     पुनर्भवसम्भवः ||अ.गीता-1/18||

       हे राजन ! तू साकार को मिथ्या जान और निराकार को निश्चल, नित्य जान | इस यथार्थ उपदेश से संसार में पुनः उत्पत्ति नहीं होती है |

           साकार तभी तक सत्य है, जब तक हम अज्ञान में जी रहे हैं | शरीर साकार है और शरीर को हम स्वयं होना मान लेते हैं, इससे बड़ा कोई अज्ञान नहीं है | इस अज्ञान के कारण ही मनुष्य संसार के आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता | देखा जाये तो यह साकार-निराकार, स्थूल-सूक्ष्म, जड़-चेतन और सृष्टि अर्थात प्रकृति-परमात्मा सब उसी चैतन्य परमात्मा के रूप हैं | साकार सृष्टि का जो रूप हमें दिखलाई पड़ रहा है वास्तव में वह वैसी नहीं है | यह उस सूक्ष्म का ही एक प्रकार है एवं उसी का परिवर्तित स्थूल रूप है, इसलिए उसमें वास्तविकता नहीं है | यह हमारा भ्रम ही है कि हम इस को सत्य समझ रहे हैं |

             इस प्रकृति के कारण जो सुख-दुःख का अनुभव होता है, वह भी नित्य नहीं है क्योंकि परिवर्तनशील होने के कारण सुख भी एक दिन दुःख में परिवर्तित हो जाता है और दुःख सुख में | इसलिए कहा जा सकता है कि सुख-दुःख भी नित्य नहीं है | सुख-दुःख का अनुभव भी प्राणियों की मानसिकता पर निर्भर करता है | मन भी निरंतर बदलता रहता है | जो मन जिस कारण से बचपन में खिलौनों से खेलने में सुख का अनुभव करता था वह मन युवावस्था में उन्हीं खिलौनों के प्रति उदासीन हो जाता है |

               प्रत्येक प्राणी की अपनी-अपनी मानसिकता होती है | कीचड़ और गन्दगी भले ही हमें अपनी दुर्गन्ध से दुखी करता हो परन्तु एक सूअर को उसी कीचड में, उसी गन्दगी में मुंह मारना सुखी करता है | जीवन में कब किस से घृणा हो जाती है और कब किस से स्नेह हो जाता है, कहा नहीं जा सकता | यह शरीर भी प्रतिपल बदल रहा है | जो शरीर जन्म के साथ हमें मिला था उसका रूप-लावण्य वृद्धावस्था आते-आते कुरूपता में परिवर्तित हो जाता है |

                 सब कुछ परिवर्तित हो जाना केवल प्रकृति की इस सृष्टि में ही संभव है, यह  जीवात्मा का स्वभाव नहीं है | जीवात्मा तो केवल इस हो रहे परिवर्तन का साक्षी है, दृष्टा है | जिस दिन हम शरीर को अपना स्वरुप न मानकर उससे मिलने वाले सुख-दुःख को दृष्टा भाव से देखने लगेंगे उसी दिन हम अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित हो जायेंगे | मूल स्वरुप को प्राप्त कर लेने वाले को फिर संसार में बार-बार जन्म नहीं लेना पड़ता | संसार में बार-बार जन्म लेने वाला वही होगा जो स्वयं को शरीर मानता है | स्वयं को परमात्मा का अंश मानने वाला तो किसी बंधन में बन्ध ही नहीं सकता | वह तो सदैव मुक्त ही है |

           जीवन में सुख-दुःख हमारे ही संसार के कारण हमें मिलते हैं, जबकि आनंद इस विराट जगत की क्रियाओं को केवल दृष्टा भाव से देखने से मिलता है | इस जगत में आकर जो संसार हमने बना लिया है, उसको ‘मैं, मेरा और मेरे लिए” कहने लग गए हैं | यही सोच हमें संसार में आसक्त कर देती है |

              ‘मैं, मेरा तथा मेरे लिए’ की भावना हमें विशालता से क्षुद्रता की ओर ले आती हैं, जहाँ तनिक सा भी परिवर्तन हमें बहुत अधिक प्रभावित करने लगता है | इस परिवर्तन के कारण ही हम इस संसार में सुखी-दुखी होते रहते हैं | हम अपने पुत्र की रुग्णता के कारण व्यथित होते हैं परन्तु किसी अनजान व्यक्ति ( जिसको हम अपना नहीं मान रहे हैं ) की बीमारी हमें तनिक भी विचलित नहीं करती है | रोग दोनों को भी भले ही एक प्रकार का ही हो, हमें अपने पुत्र के स्वास्थ्य की अधिक चिंता होती है | इसके पीछे एक मात्र कारण हमारी यह “मेरा” होने की भावना ही है | 

         जब तक हम संसार के सभी प्राणियों में स्वयं को नहीं देखेंगे तब तक असत से पीछा नहीं छूटने वाला | इस प्रकार देखने के अभ्यास से एक दिन सर्वत्र हमें परमात्मा ही दिखाई देंगे और असत का अस्तित्व हमारे लिए समाप्त हो जायेगा | फिर इसी संसार में रहते हुए भी हम आसक्त नहीं होंगे क्योंकि तब हमारा यह ‘मैं’ ही समाप्त हो जायेगा |

            “मैं, मेरा और मेरे लिए” की भावना हमें सत से विमुख कर देती है | सत से विमुख होने पर जो कुछ भी पीछे रह जाता है वह असत ही हो जाता है | वास्तव में असत की सत्ता नहीं है परन्तु हमारी अपने संसार के प्रति आसक्ति उसे असत बना देती है | सूर्यग्रहण के दिन चन्द्रमा हमारे और सूर्य के बीच आ जाता है तब अंधकार हो जाना प्रतीत अवश्य होता है परन्तु वास्तव में सूर्य अस्तित्व विहीन नहीं होता है | इसी प्रकार हमारा ज्ञान जब संसार की आसक्ति से ढक जाता है तब हमारे अज्ञान के कारण यही संसार असत हो जाता है | वास्तव में संसार तभी तक असत है जब तक हमारी इस संसार में आसक्ति है अन्यथा संसार भी सत ही है | यही बात तो भगवान् गीता में कह रहे हैं |

                जो अविनाशी है, अपरिवर्तनशील है, अजर है, अमर है - वही सत है | सत केवल परमात्मा ही है | एक मात्र उसकी ही सत्ता है और जो कुछ भी हमारी बाह्य भौतिक दृष्टि से अनुभव में आता है, वह सब असत है | वह असत इसलिए है क्योंकि वह निरंतर विनाश की ओर जा रहा है, धीरे-धीरे परिवर्तित हो रहा है, उसका रूप /आकार, नाम आदि सब कुछ बदल रहा है | निरंतर परिवर्तित होना सत्य का स्वभाव नहीं है | इसीलिए संसार को असत कहा गया है | असत होते हुए भी उसके पीछे सत की ही सत्ता है | असत के पीछे सत की सत्ता के कारण ही संसार की बागडोर उस सत के पास ही रहती है |

      भगवान् श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कह रहे हैं कि –

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् |

अनाशिनोSप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत || 2/17 ||

        हे अर्जुन ! नाश रहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत-दृश्यवर्ग व्याप्त है | इस अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं है |

             भगवान् कह रहे हैं कि जो भी इस जगत में दृष्टिगत है, उस सम्पूर्ण जगत में जो व्याप्त है, वह अविनाशी है, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो रहा है | जो कुछ भी हमें यहाँ परिवर्तित होता नज़र आ रहा है, उसके भीतर जो बैठा है, उसके रोम-रोम में जो बसा है, उसमें जरा सा भी परिवर्तन नहीं हो रहा है | मनुष्य जीवन के रहते इस बात को समझ लेना सर्वाधिक महत्त्व रखता है | 

               मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना है कि उसे तो केवल परिवर्तित होता संसार ही दिखलाई पड़ता है, जिसे देखकर वह सुखी-दुखी होता रहता है | उसकी दृष्टि इस संसार की धुरी बने अर्थात संसार के केंद्र में बैठे उस सत्य की ओर तनिक भी नहीं जाती, जहाँ स्वयं परमात्मा बैठे है | वह संसार के केंद्र में बैठा रहकर भी उसके सम्पूर्ण भाग तक विस्तारित है | एक सूई की नोंक जितना स्थान भी उसकी उपस्थिति के बिना नहीं है | वास्तव में देखा जाये तो यही सत्य है | इस सत्य के अतिरिक्त जो कुछ भी मनुष्य इस संसार में अपनी भौतिक और स्वार्थभरी दृष्टि से देखता है, वह सब असत ही है |

            जो असत की आसक्ति में आकंठ डूबा है उसके लिए सत्य को स्वीकार करना बड़ा ही कठिन होता है | वह सत्य को स्वीकार इस लिए नहीं कर पाता क्योंकि जो दिखलाई पड़ रहा है, उसे अस्वीकार करना उसके लिए असंभव हो जाता है | दृश्य जगत को ही वह सत्य मानने लगता है परन्तु उस दृश्य को दरसाने के लिए जो आवश्यक अदृश्य शक्ति है, उस शक्ति का उसे ज्ञान नहीं है | यही कारण है कि सांसारिक व्यक्ति को हम कितना ही कह दें कि एक परमात्मा ही सत्य है; असत से मिल रहे सुख को ही वह जीवन का सत्य समझता है और वास्तविक सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता | जब उसे अपने जीवन में दुःख की अवस्था से गुजरना पड़ता है, तब तो भले ही वह कुछ समय के लिए सत्य की ओर उन्मुख हो सकता है लेकिन यह उन्मुखता प्रायः अस्थायी ही होती है | ऐसी स्थिति किसी विरले के जीवन में ही आती है जब वह दुःख में केवल परमात्मा की ओर देखने लगे | प्रायः तो लोग दुःख की अवस्था में पुनः सुख मिलने की आशा करने लगते हैं | इस प्रकार दुःख में सुख की आशा रखने को दुःख का भोग करना कहते हैं |

         जो व्यक्ति दुःख का भोग करने के स्थान पर दुःख का प्रभाव देखने का प्रयास करता है वही सत्य को जानने का प्रयास कर सकता है | दुःख का प्रभाव देखने का अर्थ है, जीवन में दुःख पैदा होने के कारण को जान लेना | प्रत्येक दुःख का कोई न कोई कारण अवश्य ही होता है और उस कारण को जानकर ही व्यक्ति दुःख से मुक्त हो सकता है | दुःख का कोई न कोई कारण सदैव हमारे अन्दर ही छिपा होता है | उस कारण का हमें तभी ज्ञान होगा जब हम स्वयं पर उस दुःख के प्रभाव का सूक्ष्म अवलोकन करेंगे | भगवान् बुद्ध इसी साधन से सत्य को उपलब्ध हुए थे |

              भगवान् बुद्ध ने कहा है कि जीवन में दुःख के आने का कारण जानकर ही हम दुःख से मुक्त हो सकते हैं अन्यथा नहीं | जीवन में केवल सुख ही सुख मिले, दुःख थोडा सा भी न मिले, ऐसा कभी हो नहीं सकता | केवल सुख की चाहना करना ही जीवन में बंधन का कारण है | सुख-दुःख का कारण जान लेने के उपरांत जीवन में उनका प्रभाव हमारे ऊपर तनिक सा भी नहीं होगा | सुख दुःख से मुक्त हो जाना ही जीवन-मुक्ति है |

             सत्य को जान लेने के बाद कोई भी व्यक्ति पुनः असत में उलझता नहीं है | एक सत्य के अतिरिक्त जब किसी का अस्तित्व ही नहीं है, तो फिर असत रह ही कहाँ जाता है ? फिर तो यह संसार और आप स्वयं भी उस सत के अंतर्गत आ जाते हैं | सभी संत हमें बार-बार इसी बात को भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाते हैं परन्तु हम भी किसी चिकने घड़े से कम नहीं है | हमारे ऊपर भी उन संतों के उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता |

            सत और असत को स्पष्ट करने के लिए ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी महाराज एक दोहा सुनाया करते थे -

  “है” सो सुन्दर है सदा, “नहीं” सो सुन्दर नाहीं |

  “नहीं” सो प्रकट देखिये, “है” सो दिखे नाहीं ||

        संसार में आसक्ति रखते हुए हम सब उसे ही सुन्दर समझ रहे हैं क्योंकि हमें यह स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ रहा है, जबकि हम जानते हैं कि वह असत ही है | इस संसार को जो चला रहा है, जो इसका जनक है उसकी ओर हमारी दृष्टि तनिक भी नहीं जाती है क्योंकि वह दृष्टिगत है ही नहीं | उसे चर्म चक्षुओं से देखा जाना असंभव है | जो भौतिक दृष्टि की सीमा से परे है, वही वास्तव में सत्य है | उसको देखने के लिए दिव्यदृष्टि की आवश्यकता पड़ती है | दिव्य दृष्टि या तो वेद व्यास जैसा पहुंचा हुआ कोई गुरु ही दे सकता है अथवा स्वयं भगवान् श्री कृष्ण, जिन्होंने संजय और अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी थी |

                  मनुष्य में बुद्धि के साथ-साथ विवेक भी जन्मजात होता है | बुद्धि किसी बात का निर्णय तो ले सकती है परन्तु सत्य तक पहुँचने में वह भी असफल ही सिद्ध होती है | बुद्धि हमारी ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त कर उसका विश्लेषण कर सकती है परन्तु आत्म-बोध नहीं करा सकती | व्यक्ति को आत्म-बोध तो विवेक ही करा सकता है | भीतर कहीं कोने में सुषुप्त अवस्था में पड़े विवेक को जाग्रत करने पर ही सत्य को जाना जा सकता है ।

               सुषुप्त पड़े विवेक को जाग्रत करने का कार्य गुरु ही कर सकता है | वेद व्यासजी आदिगुरू हैं | उनके द्वारा प्रदत्त शास्त्र हमें इस बारे में निर्देशित कर सकते हैं अथवा कोई शास्त्र मर्मज्ञ व्यक्ति कर सकता है | शास्त्रों के मर्म को जानने वाला ही गुरु कहलाता है | शास्त्रों में लिखे काले अक्षरों को पढ़ तो हर कोई सकता है परन्तु उसके मर्म को जानने वाला कोई एक विवेकवान ही होता है |

               बुद्धि में विवेक छिपा रहता है | विवेक को जाग्रत करने में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है और गुरु के मिलने में परमात्मा की | बिना परमात्म-कृपा के आदर्श गुरु भी मिलने कठिन हैं | विवेक के जाग्रत हो जाने से मनुष्य की दृष्टि ही बदल जाती है | इसी दृष्टि के कारण अंततः मनुष्य तत्व-ज्ञान यानि आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होता है | तत्व-ज्ञान की स्थिति को उपलब्ध हो जाने को ही आत्म-बोध हो जाना कहा जाता है | आत्म-ज्ञान होते ही सारा संसार भी परमात्मा-मय  हो जाता है | आत्म-ज्ञान के अभाव में व्यक्ति कस्तूरी के मृग की भांति इधर उधर भटकता है | वह यह सोचकर भटकता है कि कहीं न कहीं परमात्मा अवश्य ही मिलेंगे परन्तु वह यह नहीं जानता कि परमात्मा से भिन्न कोई है ही नहीं | सब जगह एक  परमात्मा ही हैं उसके अतिरिक्त कहीं कोई दूसरा है ही नहीं | आत्म-ज्ञान होते ही असत रहता ही नहीं बल्कि सब जगह सत ही सत नज़र आने लगता है |  

            गीता में भगवान् श्री कृष्ण एक ही बात को बार-बार और भिन्न-भिन्न प्रकार से अर्जुन के समक्ष रखते जा रहे हैं | उनका उद्देश्य एक ही है कि ऐसे, वैसे, कैसे,जैसे भी हो अर्जुन का विवेक जाग्रत हो जाय | अर्जुन के विवेक का जाग्रत होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि वह दृष्टिगत संसार को ही सत्य समझ बैठा है,जिससे उसे मोह हो गया है | इसीलिए आज उसे स्वजनों के साथ युद्ध करना अनुचित जान पड़ रहा है क्योंकि उसकी बुद्धि की पहुँच इतनी दूर तक ही है | वह जानता है कि युद्ध में प्रबल हिंसा होगी और उस हिंसा में उसके प्रायः मित्रों और सगे-सम्बन्धियों का मारा जाना अवश्यम्भावी है | उन सब के मरने का कारण वह स्वयं को ही मान रहा है क्योंकि वह युद्ध करने में स्वयं को कर्ता मान बैठा है | कर्ता मान लेने का अर्थ है कि फिर युद्ध के परिणाम का भोक्ता भी वही होगा | इस प्रकार युद्ध का परिणाम अंततः उसे दुःख ही पहुंचाएगा | युद्ध के इस परिणाम के भोग को इस प्रकार अर्थात दुःख के रूप में भोगना उसे स्वीकार नहीं है |

              भगवान् ने गीता में अर्जुन को यहाँ तक स्पष्ट कर दिया है कि प्रत्येक जीव परमात्मा का अंश है | इस बात को जान लेने के बाद उसको यह स्पष्ट हो जाना चाहिए था कि कौन तो मारा जा सकता है और कौन किस को मार सकता है अर्थात न तो कोई मारा जाता है और न ही कोई किसी को मार सकता है | सभी में वह एक परमात्मा व्याप्त है | अतः स्वाभाविक रूप से हो रही क्रियाओं का न तो कर्ता बनो और न ही भोक्ता बनकर उन क्रियाओं में लिप्त ही होओ |

        गीता में भगवान् कह रहे हैं –

     अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |

     शरीरस्थोSपिकौन्तेय न करोति न लिप्यते || गीता-13/30 ||

     हे अर्जुन ! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न ही उसमें लिप्त होता है |

      क्या परमात्मा केवल शरीर में ही स्थित है ? नहीं, परमात्मा तो सर्वव्यापी है परन्तु हम अपने शरीर को ही सब कुछ मान बैठे हैं और शरीर के द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया को अपने द्वारा किया जाना मानने लगे हैं | इसलिए भगवान ने परमात्मा को शरीर में स्थित बताया है, जिससे मनुष्य की स्वयं के द्वारा कर्म करने की भ्रान्ति मिट सके |

       शरीर में स्थित परमात्मा न तो कुछ करते हैं और न ही लिप्त होते हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल शरीर में ही परमात्मा स्थित हैं | अर्जुन को केवल कर्तापन छोड़ देने के लिए भगवान् ने उसे इस प्रकार समझाया है | वास्तव में परमात्मा क्या है और कैसे हैं, इस बात को उन्होंने गीता में इस प्रकार स्पष्ट किया है -

    मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्त मूर्तिना |

    मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः || गीता-9/4 ||

          भगवान् अर्जुन को स्पष्ट करते हैं कि मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत जल से बरफ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार पर स्थित हैं, किन्तु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ |

             इस श्लोक (गीता-9/4) के माध्यम से भगवान् ने अपनी सर्वव्यापकता को अर्जुन के समक्ष स्पष्ट कर दिया है | बरफ में जल कहाँ नहीं है, क्या कोई बता सकता है ? जल के बिना बरफ का अस्तित्व में आना ही असंभव है | जिस प्रकार बरफ में सभी जगह जल है उसी प्रकार सृष्टि में सर्वत्र परमात्मा हैं | बरफ के केवल केंद्र में ही जल है, ऐसा नहीं है बल्कि उसका प्रत्येक कण जल से परिपूर्ण है |  

            बरफ का एक निश्चित आकार होता है | आकार ले लेने के कारण जो हमें बरफ के रूप में दिखलाई पड़ रहा है वह वास्तव में जल ही है, जल से भिन्न कुछ भी नहीं है | जल के आकार ले लेने के कारण जल का ही दूसरा नाम बरफ हुआ है | इसी प्रकार परमात्मा के आकार ले लेने का नाम ही जगत है | जिस प्रकार जल के बिना बरफ का बनना संभव ही नहीं है उसी प्रकार सृष्टि का सृजन भी उस परमात्मा के बिना होना संभव नहीं है | जिस प्रकार बरफ के प्रत्येक स्थान पर जल है उसी प्रकार सृष्टि के कण-कण में परमात्मा है | जिस प्रकार जल की अनुपस्थिति में बरफ का होना ही नहीं रहता उसी प्रकार परमात्मा की अनुपस्थिति में सृष्टि का भी कोई अस्तित्व नहीं रहता | कहने का अर्थ है कि सर्वत्र एक परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है | परमात्मा के विभिन्न आकार में प्रकट होने के कारण उसी एक के भिन्न भिन्न नाम हो गए हैं | गीता भवन, स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) के भोजनालय में खाने-पीने की प्रत्येक वस्तु के साथ राम नाम को जोड़ा जाता है, जैसे रोटीराम, दालराम आदि | इसका अर्थ है कि राम स्वयं आकार लेकर रोटी हो गए हैं अर्थात यह रोटी नहीं है बल्कि रोटी के रूप में परमात्मा ही हैं |

           एक भौतिक शरीर से घिरे होने के कारण उसी एक परमात्मा को यहाँ अंतर्यामी परमेश्वर अर्थात ईश्वर कहा गया है | इसका अर्थ यह नहीं है कि परमात्मा केवल प्राणी के हृदय में ही निवास करते हैं | समझाने की दृष्टि से शरीर से घिरी हुई आत्मा (Embodied soul) को ईश्वर नाम दे दिया गया है | इस ईश्वर को जीवात्मा भी कहा जाता है | वैसे सब कुछ परमात्मा है तो फिर मृत शरीर में भी परमात्मा है, वे उससे अलग नहीं है | हाँ, शरीर में स्थित ईश्वर एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश अवश्य ही करता है और इस प्रकार प्राणी नए शरीर से अपने पूर्व शरीर के द्वारा किये गए कर्मों के फल को भोगता है |

        अभी तक के विवेचन से स्पष्ट है कि एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ इस सृष्टि में नहीं है | ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर जब शरीर की मृत्यु हो जाती है, तो पीछे जो मृत शरीर शेष रह जाता है; क्या वह भी परमात्मा है ? हाँ, मृत शरीर भी परमात्मा है | एक ओर तो हम कहते हैं कि ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देश्यSर्जुन तिष्ठति’ अर्थात हे अर्जुन ! ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में स्थित है तथा दूसरी ओर कहते हैं कि मृत शरीर भी परमात्मा है, ऐसा कहना कहाँ तक उचित है ? शरीर की मृत्यु भी तो तभी होती है जब ईश्वर उसके हृदय को छोड़ देते हैं | गीता में सम्पूर्ण श्लोक इस प्रकार है –

          ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देश्यSर्जुन तिष्ठति |

         भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया || गीता -18/61 ||

       भगवान् श्री कृष्ण कह रहे हैं कि हे अर्जुन ! शरीर रुपी यंत्र में आरुढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है |

         भगवान् ने इस श्लोक (गीता-18/61) में स्पष्ट कर दिया है कि ईश्वर की माया के कारण ही व्यक्ति प्रत्येक क्रिया (कर्म) का कर्ता बनता है और उन कर्मों के कारण परमात्मा ही उसे विभिन्न योनियों में भ्रमण करवाता है | स्वयं के द्वारा कर्म करना और उन कर्मों के आधार पर संसार में विभिन्न प्राणियों के रूप में बार-बार जन्म लेना, सब कुछ ईश्वर की माया है | जिस दिन हमें उसकी माया का ज्ञान हो जायेगा उस दिन न तो हम कर्मों के कर्ता बनेंगे और न ही हमारा बार-बार जन्म होगा |

            जब प्राणी के हृदय में स्थित अंतर्यामी परमेश्वर उस शरीर को छोड़ देता है तो यहाँ इस धरा पर शेष रहा मृत शरीर भी क्या परमात्मा है ? इस बात को यम ने नचिकेता को कठोपनिषद में पूर्ण रूप से स्पष्ट किया है | कठोपनिषद में नचिकेता यमराज से तीसरा वर मांगता है कि-

           येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये

                Sस्तीत्येके नायमस्तीति चैके |

          एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं

                वरणामेष        वरस्तृतीयः ||1/1/20||

       हे यमराज ! मरे हुए मनुष्य के विषय में, जो यह संशय है – कोई तो कहते हैं कि मरने के बाद यह आत्मा रहता है; और कोई ऐसा कहते हैं कि आत्मा नहीं रहता | आप मुझे उपदेश दीजिये जिससे मैं इस बात को भलीभांति समझ लूं कि शेष क्या रहता है | आपके द्वारा दिए गए तीनों वरों में से यही मैं तीसरा वर मांगता हूँ |

               यमराज से नचिकेता पूछ रहा है कि जीवात्मा के देह छोड़कर चले जाने के उपरांत शेष क्या बचता है ? नचिकेता के इस प्रश्न के उत्तर में जो कुछ यमराज कहते हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि मरने के बाद जो भी शेष रहता है, वह भी परमात्मा है | यम कहते हैं -    

      अस्य विस्त्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः |

         देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते || एतद्वै तत् ||कठोपनिषद – 2/2/4||

    हे नचिकेता ! इस शरीर में स्थित एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने वाले जीवात्मा के शरीर से निकल जाने पर यहाँ क्या शेष रहता है, जो शेष रहता है वह भी वही परमात्मा है, जिसके विषय में तुमने पूछा है |

           एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन करने के स्वभाव वाला जीवात्मा जब वर्तमान शरीर को छोड़ कर चला जाता है तब उसके साथ सभी इन्द्रिय और प्राण आदि भी चले जाते हैं | तब इस मृत शरीर में क्या शेष रह जाता है ? देखने पर तो कुछ भी शेष नहीं रहता; पर वह जो परमात्मा सर्वव्यापी है, जो चेतन तथा जड़ प्रकृति – सभी में सदा व्याप्त है, वह अवश्य ही शेष रह जाता है | यमराज कहते हैं कि हे नचिकेता | शेष रह जाने वाला वही ब्रह्म है, जिसके बारे में तुमने मुझसे पूछा है | बड़ा निर्भीक बालक है, नचिकेता | जिसने अपने पिता को भी कमजोर गौएँ दान करने पर सचेत कर दिया था, वही बालक मृत्यु से डरे बिना बड़ी निर्भीकता से यमराज के सामने खड़ा होकर ऐसे प्रश्न कर रहा है, जिसकी अपेक्षा उस वय के किसी भी बालक से नहीं की जाती |

              मृत शरीर भी परमात्मा है | कैसे हो सकता है यह परमात्मा ? इस प्रश्न का उत्तर भी जान लीजिए। प्राण निकल जाने के पश्चात इस शरीर का विखंडन हो जाने पर भी परमात्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता | वह वैसे का वैसा ही परिपूर्ण रहता है, जैसा पूर्व में था | मृत शरीर के पूर्ण विखंडन के उपरांत पाँचों भौतिक तत्वों का पुनः संयोजन होता है और फिर से प्रकृति द्वारा एक नए शरीर का निर्माण होता है | इस नए शरीर में फिर वही ईश्वर (जीवात्मा) प्रवेश करता है और इस प्रकार सृष्टि का चक्र निरंतर चलता रहता है | जो भी परिवर्तन होते हैं वे सब सृष्टि अर्थात प्रकृति में होते हैं और परमात्मा इस परिवर्तन से अछूते बने रहते हैं |

             गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –

“अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |

  यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः||”

(गीता -3/14)

        अन्न से भूतों अर्थात सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं | अन्न से ही सभी प्राणियों के शरीर अस्तित्व में आते हैं | प्राणी का मृत शरीर विखंडित होकर मिट्टी में मिल जाता है | मिट्टी में मिलकर वह भी मिट्टी हो जाता है | वर्षा के बाद उसी मिट्टी से अन्न उत्पन्न होता है | अन्न से प्राणी के शरीर पुष्ट होते हैं | अन्न से ही पुरुष के शरीर में वीर्य और नारी के शरीर में डिम्ब बनता है | उन दोनों के मिलन से प्राणी का शरीर बनता है | कहने का अर्थ है कि मृत शरीर विखंडन के बाद भी अनुपयोगी नहीं रहता बल्कि एक निश्चित प्रक्रिया से उसी शरीर के तत्वों का पुनर्मिलन होकर अप्रत्यक्ष रूप से नए शरीर का निर्माण हो जाता है | इस प्रकार स्पष्ट है कि मरने के बाद भी जो कुछ शेष रहता है, वह भी परमात्मा ही है |

         इतने विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि इस सृष्टि में एक परमात्मा के अलावा अन्य किसी का अस्तित्व नहीं है | जहां तक हमारी भौतिक दृष्टि की पहुँच है और जो कुछ इस दृष्टि की पहुँच से भी बाहर है, वहां केवल परमात्मा ही है | केवल भौतिक दृष्टि की पहुँच ही क्यों; मन की पहुँच भी जहाँ तक है, उससे भी परे चले जाएँ तो वहां पर भी परमात्मा ही हैं | “एक परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा अन्य कोई नहीं है”, इस बात को सही रूप से स्वीकार न कर पाना ही परमात्मा के दो विभाग कर देता है – जड़ और चेतन | जड़ के अंतर्गत समस्त पदार्थ और क्रियाएं आ जाती है तथा चेतन के अंतर्गत आत्मा और परमात्मा | इन दोनों विभागों को क्रमशः क्षर और अक्षर तथा असत और सत भी कहा जाता है | हमारे मन के भीतर उठ रही विभिन्न इच्छाएं ही इस भेद के लिए उत्तरदायी है अन्यथा परमात्मा में कोई भेद नहीं है | संसार में आसक्ति इस भेद की मान्यता को और अधिक दृढ़ता प्रदान करती है | यह जो जड़-चेतन की ग्रंथि पड़ गई है,यद्यपि वह मिथ्या है परंतु जिस दिन यह ग्रंथि खुल जाएगी,उस दिन परमात्मा का वास्तविक स्वरुप समझ में आ जायेगा |

                  संसार में आसक्ति रखना संसार से प्रेम करना है | इस असत संसार से प्रेम करने के कारण ही जीवन में हमें सुख-दुःख की प्राप्ति होती है जबकि केवल परमात्मा से प्रेम करने पर हमें आनंद की अनुभूति होती है | हमारी अनन्त इच्छाएं ही संसार से प्रेम करने का मुख्य कारण है | इच्छाओं की पूर्ति होने से हमें सुख मिलता है और इच्छाओं की पूर्ति में बाधा आ जाने पर हमें दुःख की प्राप्ति होती है | इसलिए अगर हमें जीवन में आनंद का अनुभव करना है तो अपनी समस्त इच्छाओं से निवृति लेनी होगी |

         हमारी असीमित कामनाएं हमें संसार के आवागमन से मुक्त नहीं होने देती, इसलिए कामनाओं का त्याग करना आवश्यक है | जितनी अधिक हमारी कामनाएं होगी उतने ही अधिक हम सुखी-दुखी होते रहेंगे | एक शरीर के जीवन से हम दूसरे शरीर के जीवन को प्राप्त तो हो जाते है परन्तु सुख-दुःख हमारा फिर भी पीछा नहीं छोड़ते हैं | अतः आवश्यक है कि समस्त कामनाओं से निवृति लेकर भविष्य में मिल सकने वाले विभिन्न शरीरों से मुक्त हुआ जाये |

            परमात्मा सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है, बरफ और जल के उदाहरण से इस बात को पूर्व में स्पष्ट किया गया है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को एक और प्रकार से इसी बात को स्पष्ट कर रहे हैं-

          मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनञ्जय |

          मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ||7/7||

   हे धनञ्जय ! इस जगत का मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं हैं | यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मनियों के सदृश मुझमें गुंथा हुआ है |

            जिस प्रकार हम सूत में गांठें लगाकर मनिये बनाते हुए एक बड़ी सी माला बना लेते हैं, उस माला में भले ही मनियें और सूत के धागे भिन्न भिन्न प्रतीत होते हों, वास्तव में सारा का सारा सूत ही तो है, सूत से भिन्न कुछ भी नहीं है | उसी प्रकार इस जगत में एक परमात्मा से भिन्न कोई दूसरा नहीं है | जगत की रचना उसने स्वयं से स्वयं में ही की है और स्वयं ही विभिन्न रूपों में दिखलाई पड़ रहा है |

        हम भी परमात्मा के साकार रूप है | परमात्मा के आकार ले लेने से इस शरीर को ही मनुष्य नाम दिया गया है | इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी अपने अपने आकार के कारण भिन्न भिन्न नाम लिए हुए हैं | चाहे रूप और नाम भिन्न भिन्न हों, हैं तो सब परमात्मा ही | यही बात अष्टावक्र मुनि, राजा जनक को समझा रहे हैं –

    त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः |

   शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं सागमः क्षुद्रचित्तताम् || अ.गीता-1/16||

      यह संसार तुझमें है और तुझी में पिरोया है | वास्तव में तू चैतन्य स्वरुप है, अतः विपरीत चित्तवृति को प्राप्त मत हो |

             विभिन्न रूपों और आकार के कारण जानने में आने वाले चाहे भिन्न भिन्न नामों से पुकारे जाते हों, विवेकवान पुरुष को सर्वत्र एक परमात्मा ही दिखलाई पड़ते हैं | हमारी बाह्य दृष्टि से देखने पर भले ही सर्वत्र भिन्नता नज़र आये परन्तु भीतर की दृष्टि में तो सर्वत्र एक परमात्मा की ही स्वीकार्यता होनी चाहिए | प्रारम्भ में इस प्रकार की स्वीकार्यता में अड़चन आएगी परन्तु अभ्यास से धीरे-धीरे इस भाव में दृढ़ता आती जाएगी | साधक को साध्य की ओर चलने से पहले ‘सर्वत्र एक परमात्मा ही है’ इस बात को दृढ़ता से मान लेना चाहिए | ऐसा मान लेने से एक-एक कर सभी भ्रांतियां मिटती चली जाएगी और शेष केवल परमात्मा ही रह जायेंगे | 

            गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने सर्वत्र परमात्मा की उपस्थिति को स्वीकार करने के लिए विभिन्न कोणों से अर्जुन को ज्ञान दिया है | वे कहते हैं –

    यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |

   तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति ||6/30||

       श्री कृष्ण कह रहे हैं कि जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |

           सभी भूतों के अंतर्गत समस्त चर-अचर, चेतन-अचेतन आदि आ जाते हैं | पत्थर भी भूत है, जीव भी भूत हैं, स्थावर प्राणी भी भूत हैं और घूमने फिरने वाले जीव भी भूत हैं | जब सृष्टि के सभी पदार्थ, सभी शरीर भूत हैं तो उनका भूत रूप से दिखना केवल परमात्मा की माया है | देखा जाये तो वे सब के सब परमात्मा ही हैं |

            जब परमात्मा ही सब कुछ है, तो फिर न तो उनकी दृष्टि से कोई दूर हो सकता है और न ही किसी की दृष्टि से वे ओझल हो सकते हैं | जो इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है उसके लिए परमात्मा निकट से भी निकट है और जो इसे स्वीकार नहीं करता उसे करोड़ों सूर्यो का प्रकाश भी परमात्मा को दिखा नहीं सकता | फिर तो उसके लिए परमात्मा दूर से भी दूर हुए | अब प्रश्न उठता है कि परमात्मा को आखिर किस प्रकार जाना जा सकता है अर्थात हमें इस बात का बोध कैसे हो सकता है कि सर्वत्र एक परमात्मा ही है, उनसे भिन्न कोई दूसरा नहीं है ? 

            उस सर्वव्यापक परमात्मा तक कैसे पहुंचा जा सकता है ? गीता के 8 वें अध्याय के 22 वें श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट किया है -

   पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया |

   यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ||

           अर्थात हे पार्थ ! जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं और जिस परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है |

         केवल अनन्य भक्ति से ही उस परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है | जब मीरा कहती है – ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ तो उसका यह कथन भगवान् से अन्यनता को प्रकट करता है | चितौड़ के सुविधा और सुख सम्पन्न राजमहल में रहते हुए भी उसने परमात्मा को कभी भी विस्मृत नहीं किया | वे चाहती तो महारानी होने का राज-सुख भोग सकती थी परन्तु उन्हें एक परमात्मा का होना, एक राजा की रानी होने से अधिक महत्वपूर्ण लगा | जो परमात्मा से अन्यनता रखता है वह पूरे राजमहल में भी परमात्मा को ही देखता है | अपने पति भोजराज की मृत्यु से वह तनिक भी विचलित नहीं हुई और न ही राणा विक्रमजीत की प्रताड़ना से | पति की मृत्यु के बाद उसने राजमहल छोड़ना उचित समझा और अपने आराध्य से मिलने के लिए वृन्दावन चली आई | अनन्य भक्ति का उदहारण मीरां बाई के अतिरिक्त भला दूसरा कौन हो सकता है ? 

        जो परमात्मा की अन्यन्य भक्ति करता है, उसे परिस्थितियां कभी सुखी-दुखी नहीं कर सकती | अनन्य भक्त संसार से प्रेम न कर केवल एक परमात्मा से ही प्रेम करता है | संसार का प्रेम मनुष्य जीवन में आपको सुख-दुःख दे सकता है परन्तु परमात्मा का प्रेम आपको सदैव आनंदित बनाये रखता है |

        अनन्य भक्ति कैसी होती है ? जैसे एक पतिव्रता स्त्री अपने पति को ही सर्वस्व समझकर केवल उन्हीं का चिंतन करती हुई, पति की आज्ञानुसार पति के लिए ही मन, वाणी और शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमात्मा को ही सर्वस्व समझकर उसी का चिंतन करते हुए और उन्हीं की आज्ञानुसार अपने मन, वाणी और शरीर से कर्म करते रहना ही अनन्य भक्ति है | मीरा ने भी यही किया था – ‘जांके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई’ | परमात्मा के लिए, परमात्मा की आज्ञानुसार, परमात्मा का चिंतन करते हुए और परमात्मा को ही सर्वस्व मानकर जो कर्तव्य कर्म किये जाते हैं उसे ही कर्म द्वारा परमात्मा की पूजा करना कहा जाता है | इस प्रकार अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए जो स्वाभाविक कर्म किये जाते हैं, उनसे परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है |

    गीता में भगवान् अंतिम अध्याय में इसी बात को अर्जुन के समक्ष इस रूप में रख रहे हैं -

यतः प्रवृतिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ||गीता-18/46||

            जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है |   

          परमात्मा सर्वत्र व्याप्त हैं और इस जगत का, इस सृष्टि का अत्यल्प सा भाग भी ऐसा नहीं है जहाँ कि परमात्मा नहीं है, हमें केवल इस बात को मान लेना है | स्वीकार नहीं करेंगे तब तक इस बोध से वंचित ही रहेंगे और जगत की माया में उलझकर सुख-दुःख का भोग करते रहेंगे |

            श्री मद्भागवत महापुराण में एक कथा आती है कि किस प्रकार श्री कृष्ण के परमात्मा होने पर ब्रहमाजी को भी संदेह हो गया था ? श्री कृष्ण के द्वारा किये गए अघासुर के वध को देखकर ब्रहमाजी ने विचार किया कि अगर कृष्ण ही साक्षात् परमात्मा हैं तो उनकी एक और लीला देखनी चाहिए | ब्रहमाजी को संदेह था कि व्रज की गलियों में ग्वाल-बालों के साथ खेलने वाला और गोपियों को दूध-दही और माखन के लिए तंग करने वाला एक चंचल बालक भला परमात्मा कैसे हो सकता है ? उन्होंने इस बात को जानने और भगवान् की एक और लीला देखने के लिए एक योजना बनाई |

               ब्रहमाजी ने बछड़ों का तब अपहरण कर लिया जब ग्वालबाल और कृष्ण आपस में गोल घेरा बना कर यमुना की पुलिन पर खेल खेलने में तन्मय थे |  थोड़ी देर बाद जब ग्वालबालों ने बछड़ों को वहां नहीं देखा तो वे भयभीत हो गए | तब कृष्ण भगवान् ने उनको आश्वस्त किया और वे स्वयं बछड़ों को ढूँढने के लिए कुछ दूर चले गए | अवसर पाकर ब्रह्माजी ने ग्वालबालों का भी अपहरण कर लिया | उन्होंने उन ग्वालबालों को बछड़ों के साथ एक गुफा में ले जाकर छुपा दिया | उन्होंने सोचा कि सायंकाल को जब बछड़े और ग्वाल-बाल घर नहीं पहुंचेंगे तब सभी चिंतित होंगे | आगे देखता हूँ कि भगवान् श्री कृष्ण क्या करते हैं ? पता चल जायेगा कि वह एक साधारण उद्दंड बालक है अथवा साक्षात् परब्रह्म | यह सोचकर ब्रह्माजी वहां से अंतर्धान हो गए |  

            बछड़े जब कहीं दिखाई नहीं दिए तब श्री कृष्ण उस स्थान पर लौटे जहाँ यमुना के पुलिन पर ग्वालबालों को छोड़कर गए थे, तो वे देखते हैं कि वहां तो कोई नहीं है | उन्होंने अपनी अंतर्दृष्टि से पता लगा लिया कि यह कार्य तो ब्रह्माजी का है | श्री कृष्ण ने तत्काल ही उन्हीं गोपबालों और बछड़ों की वैसी की वैसी सृष्टि कर ली | सर्वात्मा भगवान स्वयं ही बछड़े बन गए और स्वयं ही ग्वालबाल | सभी बछड़ों और ग्वालबालों के साथ वे घर लौट आये | न तो इस बात का पता ग्वालबालों की माताओं को लगा और न ही बछड़ों की मां धेनुओं को | इस प्रकार यही क्रम प्रतिदिन लगभग एक वर्ष तक चलता रहा |

           एक दिन भगवान् श्री कृष्ण बलरामजी के साथ बछड़ों को चराते हुए वन में गए | वहां उन बछड़ों की माताएं गौएँ गोवर्धन पर्वत की चोटी पर घास चर रही थीं | वहां से ही धेनुओं ने अपने बछड़ों को आते देख लिया | अपने बछड़ों को देखते ही उनका वात्सल्य-प्रेम उमड़ पड़ा | वे दौड़ पड़ी और वहां पहुंचकर अपने बछड़ों को दूध पिलाने लगी | बलरामजी समझ नहीं सके कि यह ईश्वर की कैसी माया है ? जब बलरामजी ने ज्ञानदृष्टि से देखा तो उन्हें ऐसा लगा कि बछड़ों और ग्वालबालों के रूप में स्वयं श्री कृष्ण ही है | बलरामजी ने तब श्री कृष्ण से यह प्रश्न किया –

         नेते सुरेशा ऋषयो न चैते

                       त्वमेव भासीश भिदाश्रयेSपि |

          सर्वं पृथक्त्वं निगमात् कथं वादे-

                    त्युक्तेन वृत्तं प्रभुणा बालोSवैत् || भागवत -10/13/39 ||

     भगवन् । ये ग्वालबाल और बछड़े न तो कोई ऋषि-मुनि हैं और न ही कोई देवता। इनके भिन्न-भिन्न रूप होते हुए भी सभी में केवल आप ही दिखलाई पड़ रहे हैं। कृपया संक्षिप्त में इतना सा ही बतला दीजिये कि आप इस प्रकार अलग अलग रूपों में प्रकाशित क्यों हो रहे हैं ?

               बलरामजी द्वारा किया गया यही प्रश्न स्पष्ट करता है कि सब कुछ परमात्मा ही है, सब रूपों में भी परमात्मा ही है |

              ग्वालबालों और बछड़ों के रूप में भगवान् श्री कृष्ण को देखकर बलरामजी भगवान् से प्रश्न कर रहे हैं कि - ‘भगवन ! ये ग्वाल बाल न तो कोई देवता है और न ही ऋषि-मुनि | इन भिन्न-भिन्न रूपों में मुझे तो केवल आप ही प्रतीत हो रहे हैं | अब यह स्पष्ट कर दीजिये कि आप स्वयं ही ग्वालबाल, बछड़ों, सिंगी, बांसुरी और विभिन्न वस्त्रों आदि में अलग-अलग क्यों प्रतीत हो रहे हैं ?’ तब उत्तर में भगवान् ने बलरामजी को ब्रहमाजी की सारी करतूत कह सुनाई कि कैसे उन्होंने पहले तो बछड़ों को उठा लिया और फिर ग्वालबालों को |

                   इधर ब्रहमाजी भी कुछ समय बाद व्रज में भगवान् की लीला देखने चले आये | वे उत्सुक थे, यह जानने के लिए कि श्री कृष्ण ने ग्वालबालों और बछड़ों की अनुपस्थिति में क्या किया ? ब्रह्मलोक के अनुसार समय चाहे एक दिन का ही व्यतीत न हुआ हो, इधर पृथ्वी पर तो तब तक एक वर्ष बीत चूका था | व्रज में आते ही वे देखते हैं कि जितने ग्वालबाल और बछड़ों को मैंने अपहृत कर लिया था उतने ही और वैसे के वैसे ही सब भगवान् श्री कृष्ण के साथ खेल रहे हैं | वे भगवान् की यह लीला देखकर आश्चर्यचकित रह गए |  ब्रहमाजी सोचने लगे – ‘मेरी माया से मोहित ग्वालबाल और बछड़ों के अतिरिक्त उतनी ही संख्या में दूसरे ग्वाल-बाल और बछड़े यहाँ कहाँ से आ गए ?’ ब्रह्माजी को संदेह हुआ | वे उस स्थान पर गए जहाँ वास्तविक ग्वालबाल और बछड़ों को उन्होंने छुपा रखा था | वे तो वैसे के वैसे और वहीँ पर थे जहाँ पर वे उन्हें एक वर्ष पूर्व छोड़ कर गए थे | उन्होंने अपनी ज्ञानदृष्टि से जानने का बहुत प्रयास किया परन्तु असफल रहे ।

          ब्रहमाजी इधर भगवान् की लीला को जानने और समझने के लिए अपना ज्ञान लगा रहें हैं और उधर बालकृष्ण उन्हें देखकर खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे हैं | ज्ञान के माध्यम से निर्गुण निराकार को तो फिर भी जाना जा सकता है परन्तु सगुण साकार को जानना हो तो हृदय में परमात्मा की भक्ति होनी चाहिए | केवल भक्ति से ही सगुण साकार को जानना संभव है |

             भगवान् श्री कृष्ण की माया से सभी मोहित हो रहे थे, यहाँ तक कि ब्रहमाजी भी | परन्तु भगवान् स्वयं कभी अपनी माया से मोहित नहीं होते | ‘एक वही सत्य हैं’ इसलिए उन पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती | ब्रह्माजी उन्हीं भगवान् श्री कृष्ण को अपनी माया से मोहित करने चले थे परन्तु उलटे श्री कृष्ण की माया से वे स्वयं ही मोहित हो गए थे | ब्रह्माजी अजन्मा होते हुए भी भगवान् की माया में उलझ गए | शुकदेवजी महाराज कहते हैं कि हे परीक्षित –

     तम्यां तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि |

     महतीतरमायैश्यं निहन्त्यात्मनि युन्जतः ||भगवत -10/13/45||

      जिस प्रकार रात के घोर अन्धकार में कुहरे के अंधकार का और दिन के प्रकाश में जुगनू के प्रकाश का पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षुद्र पुरुष, महापुरुषों पर अपनी माया का प्रयोग करते हैं, तब वह माया उनका तो कुछ नहीं बिगाड़ सकती बल्कि अपना ही प्रभाव खो बैठती है |

              यही ब्रह्माजी के साथ हुआ | ब्रह्माजी विचार कर ही रहे थे कि उन्हें भी सभी ग्वालबाल और बछड़े श्री कृष्ण के रूप में दिखने लगे | साथ ही ब्रह्माजी ने देखा कि ब्रह्मा से लेकर सभी चर-अचर जीव भगवान् के उन सब रूपों की उपासना कर रहे हैं | 

            एक भगवान् की सत्ता और महत्ता के समक्ष उन सभी की सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठती है, जो अपने दम पर स्वयं को सत्तावान समझते हैं | क्या सत्य के समक्ष असत की सत्ता बनी रह सकती है ? नहीं, कभी नहीं | हम सब असत को देखकर उसमें मोहित हो रहे हैं, उससे सुख प्राप्त करने की कामना करते हुए पागल हो रहे हैं परन्तु सत्य तो यही है कि असत का कारण भी सत ही है | अतः असत से मोह करने के स्थान पर सत से प्रेम करना महत्वपूर्ण है |

          भगवान् श्री कृष्ण ने ब्रह्माजी के इस मोह और असमर्थता को जानकार तुरंत ही उन पर से अपनी माया का पर्दा हटा लिया | तत्काल ही ब्रहमाजी ब्रह्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गए, वे मानो मरकर जी उठे हों | उन्होंने बड़े कष्ट से अपने नेत्र खोले तब जाकर उनको अपना शरीर और यह जगत दिखलाई पड़ा | ब्रहमाजी देख रहे हैं कि श्री कृष्ण ही ग्वालबाल बने हुए हैं और स्वयं ही स्वयं के साथ खेल रहे हैं | वही श्री कृष्ण, कृष्ण बने ग्वालबालों को ढूंढ रहा है, बछड़े बने श्री कृष्ण ही घास बने कृष्ण को चर रहे हैं | सारा व्रज ही कृष्णमय है |

               भगवान् की यह अनुपम लीला देखकर ब्रहमाजी अपने वाहन हंस पर से नीचे कूद पड़े | उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण को दंडवत प्रणाम किया | वे बार-बार उनके चरणों में गिरते, उठते और पुनः भगवान् के चरणों में गिर पड़ते | वे भगवद्प्रेम में आत्मविभोर होकर कांपने लगे | दोनों हाथ जोड़कर वे भगवान् श्री कृष्ण के समक्ष खड़े हो गए और बड़ी नम्रता और एकाग्रता के साथ भगवान् की स्तुति करने लगे |  

              ब्रह्माजी द्वारा की गयी स्तुति में उन्होंने स्पष्ट किया है कि किस प्रकार उस एक मात्र सत्य को जाना जा सकता है | हम इस असत जगत को देखकर मोहित हो रहे हैं और यह समझ बैठे हैं कि सब कुछ सत्य यही है | जब तक हमारा माया के आवरण में से बाहर निकलना संभव नहीं होगा तब तक सत्य मान लिए गए इस असत जगत से, इस असार संसार से छुटकारा पाना दूर की कोडी होगा |

         परमात्मा तक पहुँचने के लिए हमने पूर्व में गीता के दो श्लोकों (8/22 और 18/46) का विवेचन किया था | भागवतजी में ब्रहमाजी द्वारा की गयी स्तुति से तो परमात्मा के निर्गुण स्वरुप तक का भी बोध हो जाना संभव प्रतीत होता है |

 तथापि भूमन् महिमागुणस्य ते

           विबोद्धुमर्हत्यमलान्तरात्मभि: |

 अविक्रियात् स्वानुभवादरूपतो

           ह्यनन्यबोध्यात्मतया न चान्यथा || भागवत -10/14/6 ||

    हे अनन्त ! आपके सगुण-निर्गुण दोनों स्वरूपों का ज्ञान कठिन होने पर भी निर्गुण स्वरुप की महिमा इन्द्रियों का प्रत्याहार करके शुद्ध अंतःकरण से जानी जा सकती है | जानने की प्रक्रिया यह है कि विशेष आकार का परित्याग पूर्वक आत्माकार अंतःकरण का साक्षात्कार किया जाय | यह आत्माकारता घट-पटादि रूप के समान ज्ञेय नहीं है, प्रत्युत आवरण का भंग मात्र है | यह साक्षात्कार ‘यह ब्रहम है’, ‘मैं ब्रह्म को जानता हूँ’ इस प्रकार नहीं होता, बल्कि स्वयं प्रकाश रूप से होता है |

             सभी कहते हैं कि परमात्मा को जानना असंभव है परन्तु ब्रहमाजी द्वारा की गयी इस स्तुति के अनुसार तो परमात्मा के सगुण के साथ-साथ निर्गुण रूप को भी जाना जा सकता है; यद्यपि यह ज्ञान कठिन है | ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों द्वारा लिया जाता है जबकी बोध हमें बाह्य इन्द्रियों से नहीं हो सकता | ज्ञानेन्द्रियों द्वारा परमात्मा का ज्ञान होना असंभव होता है क्योंकि जड़ ज्ञानेन्द्रियों से चेतन का ज्ञान होना असंभव है, उनसे तो केवल जड़ का ही ज्ञान हो सकता है | बोध होने के लिए तो विशुद्ध अंतःकरण की आवश्यकता होती है | अमल (मलरहित) अर्थात शुद्ध अंतःकरण ही हमें निर्गुण निराकार परमात्मा का बोध करा सकता है |

               ब्रह्माजी भगवान् श्री कृष्ण को सर्वात्मा के रूप में देखकर उनकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि आपकी महिमा अनन्त है फिर भी इसकी योग्यता रखने वाला इसका विशेष बोध कर सकता है | इस प्रकार के बोध को उपलब्ध होने के लिए आवश्यक योग्यता है - व्यक्ति की अंतरात्मा अर्थात आत्माकार अंतःकरण का एकदम शुद्ध होना | मनुष्य ने अपने जीवन में बाह्य करण (इन्द्रियादि) से जो कुछ भी अनुभव किया है, उसे विस्मृत कर केवल उस एक परमात्मा का चिंतन करना चाहिए | इसके लिए उसे सभी प्रकार के आकार, रूप और नाम (संसार) को विस्मृत कर केवल आत्माकार अंतःकरण का साक्षात्कार करना है | अंतःकरण मनुष्य की आत्मा का ही रूप है जो कि शरीर को पाकर उसमें ही आसक्त हो गया है | शरीर और संसार से आसक्ति तभी हट सकती है, जब एक अनन्य की शरण ले ली जाए |

                अनन्य अर्थात एक परमात्मा की शरण ले लेने से अंतःकरण विकार रहित होकर अमल (purified) हो जाता है | अंतःकरण ही वास्तव में आत्मा है और आत्मा ही परमात्मा है | ब्रहमाजी कहते हैं कि फिर वह परमात्मा आपको किसी रूप और नाम के रूप में दृष्टिगोचर नहीं होंगे बल्कि उसका बोध हो जाने से आप स्वयं ही उसके समान प्रकाशित हो जायेंगे | इसी को अपनी आत्मा में ही परमात्मा को पा लेना कहते हैं |

            घट-पट आदि की तरह परमात्मा को देखना संभव ही नहीं है | रूप, आकार और नाम के दर्शन तो बाह्यकरण (ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ) से होते हैं परन्तु वास्तव में अगर परमात्मा का बोध करना है तो आपके अंतःकरण का अमल अर्थात मलरहित होना आवश्यक है | आपके अन्तः कारण पर जो माया का आवरण पड़ा है, उस माया के आवरण का भंग होना केवल उस अनन्य की भक्ति से ही संभव हो सकता है | माया का आवरण हटते ही अन्धकार मिट जाता है और केवल प्रकाश रह जाता है | फिर आप भी विदेह राज जनक की तरह कह सकते हैं कि -

  प्रकाशो मे निजं रूपं नातिरिक्तोSस्म्यहं ततः ||

   यदा प्रकाशते विश्वं तदाSहं भास एव हि ||अ.गीता-2/8||

      प्रकाश मेरा निज रूप है | मैं उससे अलग नहीं हूँ | जब संसार प्रकाशित होता है, तब वह मेरे प्रकाश से ही प्रकाशित होता है |

           आप शरीर न होकर आत्मा हैं | आत्मा स्वयं प्रकाशमान है | आत्मा का यह प्रकाश शरीर को अपना मान लेने के अज्ञान से अब तक ढका हुआ था | आत्म-ज्ञान होने से अज्ञान का पर्दा हट जाता है और भीतर से प्रकाश प्रकट होकर चारों ओर फ़ैल जाता है |                       

              इस लम्बे विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस जगत में एक परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है | सबमें और सब स्थानों पर परमात्मा को देखना ही आत्म-बोध है, फिर हम स्वयं भी परमात्मा से भिन्न नहीं हैं | जिस दिन परमात्मा से हमारी इस अभिन्नता का ज्ञान हो जायेगा फिर हमें इसी जीवन में सुख-दुःख के स्थान पर आनंद की अनुभूति ही होगी | यही सत्य है |

              इस प्रकार अब तक के विवेचन से परमात्मा की सर्वव्यापकता सिद्ध हुई है | श्रीमद्भगवद्गीता का मूलभूत सन्देश भी ‘वासुदेवःसर्वम्’ है |

       बहुनाजन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |

       वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || गीता-7/19 ||

     बहुत जन्मों के अन्त में जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष सब कुछ वासुदेव ही है – इस प्रकार जो मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है |

              इस श्रृंखला को “येन सर्वमिदं ततम्” शीर्षक दिया गया है, इसका अर्थ है – जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, वह एक परमात्मा ही है | जैसे बर्फ के प्रत्येक कण में जल की उपस्थिति रहती है; भले ही जल दृष्टि में न आ रहा हो वैसे ही जगत के कण-कण में परमात्मा व्याप्त हैं | मनुष्य जीवन के रहते उस परमात्मा का बोध हो जाना ही इस शरीर के मिलने का एक मात्र ध्येय है | जो इस ध्येय तो समझ जाता है, वह महात्मा ही आत्म-बोध को उपलब्ध हो सकता है शेष सभी तो संसार चक्र में उलझकर भविष्य में नया शरीर लेने की प्रतीक्षा करते हुए इस जीवन को व्यर्थ ही जाने दे रहे हैं |

         इस लेख का मुख्य संदेश “वासुदेवः सर्वम्” है | 

प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||