येन सर्वमिदं ततम्
संसार ‘नहीं’ है क्योंकि वह अभी जैसा दिख रहा है, वैसा वह भविष्य में रहेगा नहीं | जो कभी नहीं बदलता बल्कि एक जैसा रहता है वह ‘है’ है | हमें अपनी दृष्टि से ‘नहीं’ तो दिख रहा है, इसलिए उसको ही होना अर्थात ‘है’ मान लेते हैं और जो ‘है’ वह वास्तव में है, वह हमें दिखता नहीं है; अतः उसको हमने नहीं होना मान लिया है | मनुष्य जीवन का यही भ्रम उसे ‘नहीं’ में उलझाकर रख देता है | ‘नहीं’ में उलझने वाला ‘है’ तक कभी नहीं पहुँच पाता | यही कारण है कि उसका ‘नहीं’ से पिण्ड कभी छूटता नहीं है |
‘नहीं’ स्वप्नवत है, दर्पण में दिखाई पड़ने वाली छाया मात्र है और सबसे बड़ी बात – वह दर्पण में बना प्रतिबिम्ब ‘है’ का ही है | इसका अर्थ हुआ कि ‘नहीं’ की व्यक्तिगत सत्ता नहीं है बल्कि उसकी सत्ता प्रतीत होने के पीछे ‘है’ ही है | जिस दिन इस बात का अनुभव हमें हो जायेगा फिर संसार में ‘नहीं’ कहीं दिखलाई नहीं पड़ेगा बल्कि सब कुछ ‘है’ ही दिखेगा |
इस ‘नहीं’ और ‘है’ की उलझन को कुछ सीमा तक सुलझाने के लिए एक नए विषय पर श्रृंखला प्रारम्भ कर रहे हैं – ‘येन सर्वमिदं ततम्’ अर्थात जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है | जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमात्मा को जानना कठिन नहीं है | हाँ, उसको जानने के लिए, सर्वप्रथम उसको पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ मानना आवश्यक है | गणित में भी किसी प्रश्न के परिणाम को जानने के लिए पहले कुछ न कुछ (X,Y,Z) मानना जरूरी होता है, फिर यहां तो परमात्मा को जानने का प्रश्न है। परमात्मा को मान कर ही जाना जा सकता है।
जब जब धर्म के बारे में चर्चा होती है तो सत्य की बात उस चर्चा में अवश्य आती है | सभी धर्म उस एक शक्ति को ही सत्य मानते हैं, जिसने इस जगत की सृष्टि की है | मतभेद जगत और परमात्मा के दो अथवा एक होने को लेकर हो सकते हैं परन्तु सत्य को लेकर कोई मतभेद नहीं है | जो सत्य है वह सदैव के लिए सत्य है और जो असत्य है वह कुछ समय के लिए भले ही असत्य प्रतीत होता हो परन्तु वास्तव में उसके असत्य प्रकटीकरण के पीछे भी सत्य की शक्ति ही होती है | सत्ता सदैव एक की ही रहती है, दो की सत्ता कभी भी नहीं हो सकती | जो एक सत्य है उसी को हम परमात्मा के नाम से जानते हैं |
परमात्मा अनिर्वचनीय है फिर भी उसे जाना जा सकता है | गीता में भगवान् कहते हैं –
‘ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते |
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते’ ||गीता-13/12||
भगवान् कहते हैं कि जो ज्ञेय है, उस परमात्मतत्व को मैं अच्छी तरह से कहूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है | वह ज्ञेय तत्व अनादि और परम ब्रह्म है | उसको न तो सत कहा जा सकता है और न ही असत |
सत और असत में भेद देखने/मान लेने के कारण परमात्मा को इन दोनों से परे कहा गया है | वास्तव में असत के पीछे सत की ही सत्ता रहती है | ज्ञान हो जाने पर जब असत का आवरण हट जाता है तब शेष सब कुछ सत ही रह जाता है | उस सत्य अर्थात परमात्मतत्व को संसार को जानने की तरह नहीं जाना जा सकता | परमात्मा को तो मानना पड़ता है, स्वीकार करना पड़ता है और यह स्वीकृति आपके अपने अनुभव से ही हो सकती है, किसी अन्य साधन से नहीं | इसलिए परमात्मा को मानकर उसकी अनुभूति करें कि इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड में उस एक के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है | संसार में कोई भी दो मनुष्य न तो एक समान है और न ही एक दूसरे से एकदम भिन्न हैं । यहाँ प्रत्येक मनुष्य अपने आप में विशिष्ट (unique) है | अतः परमात्मतत्व को अनुभव करने का मार्ग गुरु बता तो सकता है परन्तु उस तत्व की अनुभूति तो स्वयं को ही होगी किसी दूसरे को नहीं |
इसी विषय पर कल विस्तार से इस चर्चा को आगे बढ़ाएंगे |
सत् को सभी चाहते हैं, असत्य को कोई पसंद नहीं करता फिर भी सत्य से दूरी बनाये रखकर सभी असत में डूबे रहते हैं | सत को चाहना सभी के लिए मात्र एक सैद्धान्तिक बात बनकर रह गयी है | इसके पीछे क्या कारण है ? सबसे बड़ा कारण है - सत्य को स्वीकार न कर पाना; क्योंकि सत्य को स्वीकार करने में बहुत बड़ी कठिनाई है | असत हमें इतना अधिक आकर्षित करता है कि हम सत्य से सदैव एक दूरी ही बनाये रखते हैं | भले ही हमारी सोच ऐसी नहीं है कि हम सत्य से दूर रहना चाहते हों परन्तु असत की चाहना हमें सत्य से दूर कर देती है | कहा जाता है कि सत्य कटु होता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि सत्य की स्वीकार्यता नहीं है बल्कि अर्थ है कि स्वार्थवश सत्य को कोई सुनना नहीं चाहता | सत्य केवल उन्हीं के लिए कड़वा होता है जो असत में आकंठ डूबे हुए हैं |
जिस प्रकार प्रकाश की उपस्थिति में अंधकार नहीं रह सकता उसी प्रकार सत्य के सामने असत भी अस्तित्वहीन हो जाता है | इसका अर्थ यह नहीं है कि जिसको हम असत कह रहे हैं उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है | असत, वह है जिसका कोई नाम है, रूप है यानि आकार है और जिसकी दशा प्रतिपल बदल रही है | केवल इतना होने पर ही ‘असत का कोई अस्तित्व नहीं है’, ऐसा नहीं कहा जा सकता | प्रश्न उठता है कि अगर असत का अस्तित्व है तो फिर उसका अस्तित्व किस पर टिका है,उसके अस्तित्ववान होने का आधार क्या है ? प्रत्येक पदार्थ (असत) के रूप और नाम में परिवर्तन होना शाश्वत सत्य है और उसमें ऐसा परिवर्तन संभव होना ही असत के पीछे सत की सत्ता होने की ओर संकेत करता है | अतः आवश्यक है कि हम असत को सत के आलोक में देखें | जिस दिन हम असत को सत के प्रकाश में देखेंगे तो अचंभित रह जायेंगे और स्वीकार कर लेंगे कि अब तक हम एक प्रकार के भ्रम में ही जी रहे थे |
इस प्रकार स्पष्ट है कि न तो असत की सत्ता है और न ही अन्धकार की सत्ता है बल्कि सत्ता केवल सत की है, प्रकाश की है | जिस प्रकार अन्धकार के पीछे प्रकाश की सत्ता रहती है उसी प्रकार असत के पीछे भी सत की सत्ता है | प्रकाश की अनुपस्थिति जिस प्रकार अन्धकार को जन्म देती है उसी प्रकार सत से विमुखता असत को अस्तित्व प्रदान कर देती है | दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि असत और अन्धकार कहीं है ही नहीं बल्कि चहुँ ओर प्रकाश ही प्रकाश है, सत ही सत है | सत के अतिरिक्त जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है, सब भ्रम मात्र है |
गीता कहती है – ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ | इसका एक ही अर्थ है – असत की सत्ता नहीं है और सत का कहीं अभाव नहीं है अर्थात एक सत के अतिरिक्त किसी अन्य की सत्ता है ही नहीं | असत की जब कोई सत्ता है ही नहीं तो फिर हमें जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है, वह क्या है ? उसको असत क्यों कहा गया है ? इस जगत को, जिस संसार में हम रह रहे हैं, उसको शास्त्रों में ब्रह्माजी ने परमात्मा का आदि अवतार तक कहा है | परमात्मा सत है, फिर तो उसका अवतार भी सत ही होना चाहिए, वह असत कैसे हो सकता है ? परोक्ष रूप से देखा जाये तो वास्तव में समस्त जगत सत ही है | उसमें आसक्त होकर हमने ही इस संसार को सत्ता दी है | हम भी तो परमात्मा के ही अंश हैं | परमात्मा ने संसार बनाया था, अपने आनंद के लिए | परमात्मा के अंश होने के कारण हमें भी इस संसार से आनंद लेना था | परन्तु इस संसार में आकर हमने क्या किया ? हमने इस संसार के एक क्षुद्र से भाग में स्वयं के सुख के लिए अपना एक छोटा सा अलग ही संसार बसा डाला | इस प्रकार हम असीम होते हुए भी संकुचित हो गए।अपना संसार बनाया, वहां तक तो फिर भी उचित था परन्तु उस संसार से स्वयं को सुख मिलने की कामना भी करने लगे, जोकि अनुचित था | हमारी इस स्वार्थ बुद्धि ने ही सत संसार को असत रूप में परिवर्तित कर दिया |
विराट संसार को क्षुद्र बना डालने के कारण परमात्मा के अंश होने के बावजूद भी हम क्षुद्र हो गए और अपने छोटे से संसार में आसक्त होकर अपना वास्तविक स्वरूप भूल गए | सांसारिक आसक्ति के कारण, इस स्व-निर्मित संसार से बहुत सी अपेक्षाएं कर बैठे | जहाँ पर अपेक्षाएं और कामनाएं होती है वहां सत्य क्षण भर के लिए भी टिक नहीं सकता | यही कारण है की संसार परमात्मा का आदि अवतार होने के बाद भी हमारे लिए सत्य से दूर होकर असत हो गया है |
गीता में भगवान् ने प्रत्येक जीव को अपना अंश बताया है | श्री कृष्ण भगवान् अर्जुन को कह रहे हैं –
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातन: |
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||गीता-15/7||
इस शरीर में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है |
यह शरीर (मन और इन्द्रियाँ सहित) प्रकृति विभाग में है और जीवात्मा चेतन विभाग में है | परमात्मा का अंश होने के कारण ही जीवात्मा चेतन विभाग के अन्तर्गत है | जीवात्मा वास्तव में है तो चेतन परन्तु प्रकृति में स्थित होकर अर्थात जड़ शरीर को प्राप्त कर वह स्वयं को शरीर ही मान लेता है | प्रकृति के आकर्षण में वह अपना वास्तविक स्वरुप भूल जाता है | स्वरुप को भूल जाने के बाद भी वह जिसमें आसक्त है उसी को सत्य समझने लगता है, वही उसका सबसे बड़ा भ्रम है | संसार में रहते हुए भी अपने वास्तविक स्वरुप तक पहुँचने के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है -उस सत्य को सदैव स्मृति में बनाये रखना |
प्रकृति में आकर्षण है और उस आकर्षण के छलावे में जीवात्मा आ जाता है | प्रकृति का आकर्षण उसमें उपस्थित तीन गुणों के कारण होता है | उन गुणों की आपस में हो रही क्रियाएं ही शरीर को सुख-दुःख का अनुभव कराती है | प्रकृति में आकर्षित होकर जीवात्मा अपने आप को सुखी दुखी होना समझ लेता है | जबकि वास्तविकता यह है कि परमात्मा का अंश होने से जीवात्मा स्वयं भी निर्गुण है | निर्गुण होने के कारण उसमें क्रियाएं नहीं होती | क्रियाएं नहीं होने से उसमें सुख-दुःख का होना भी संभव नहीं है | निर्गुण जीवात्मा जब सगुण प्रकृति के आकर्षण में बन्ध जाता है तभी उसको सुख-दुःख का अनुभव होगा अन्यथा नहीं | हमें केवल अपनी मान्यता ही बदलनी है कि हम परमात्मा के अंश हैं; इसलिए निर्गुण निराकार हैं |
परमात्मा निर्गुण निराकार है | अपने आनंद के लिए उन्होंने अपने स्वरूप में ही तनिक सा परिवर्तन किया और वे सगुण साकार हो गए | इतना करने के बाद भी वे अपने मूल स्वरुप में ही स्थित रहते हैं, सगुण बनकर भी गुणों में फंसते नहीं हैं | निर्गुण अर्थात गुण रहित होने के कारण किसी भी प्रकार के सुख-दुःख अथवा आनंद का मिलना असंभव है | गुण ही गुण के साथ व्यवहार करते हुए विभिन्न प्रकार की क्रियाएं करते हैं और इन क्रियाओं के कारण ही सगुण साकार जीव को सुख-दुःख आदि का अनुभव होता है | जब इन्हीं क्रियाओं को केवल गुण का व्यवहार होना मान लिया जाता है तो जीव इन गुणों के परे हो जाता है अर्थात गुणातीत हो जाता है | फिर वह जीव उन क्रियाओं को गुणों का आपसी व्यवहार मानते हुए उनसे निर्लिप्त बना रहता है | इस अवस्था को उपलब्ध हुआ जीव ही सुख-दुःख से मुक्त होकर आनंद की अवस्था को उपलब्ध होता है |
परमात्मा का बनाया यह संसार केवल आनंद की अनुभूति करने के लिए है | यहाँ आनंद तभी मिल सकता है जब हम इस संसार में होने वाली किसी भी क्रिया में लिप्त न हों | क्रियाओं में लिप्त होने से अर्थ है - क्रियाओं को अपने द्वारा और स्वयं के सुख लिए किया जाना मान लेना और फिर नए कर्म करने के लिए उद्यत हो जाना | ऐसा मान लेना ही सत संसार को असत बना देता है | विराट जगत का एक निश्चित आकार और नाम है, साथ ही उसमें प्रकृति के तीनों गुण भी विद्यमान है | प्रकृति के तीनों गुण आपस में व्यवहार करते हुए विभिन्न प्रकार की क्रियाएं भी करते हैं | प्रत्येक क्रिया का एक निश्चित परिणाम भी होता है, जिसके कारण जगत का स्वरुप निरंतर परिवर्तित होता रहता है | यह परिवर्तन इस जगत की विशालता के कारण हमें तत्काल अनुभव में नहीं आता है | इसी जगत के एक अति क्षुद्र भाग में जब हम अपने सुख के लिए अलग संसार बसा लेते हैं तब हमें यह परिवर्तन स्पष्ट रूप से अनुभव में आने लगता है | यह परिवर्तन ही हमें जीवन में सुख-दुःख की अनुभूति कराता है |
जगत का एक निश्चित आकार होता है, रूप होता है और नाम होता है | शरीर भी जगत के अंतर्गत ही है | इस शरीर में भी निरंतर परिवर्तन हो रहे हैं | हम स्वयं अपरिवर्तनशील है | अपरिवर्तित रहने वाला ही शरीर में हो रहे परिवर्तन को अनुभव कर सकता है जैसे ‘मैं जवान हूँ, मैं बुढा हो रहा हूँ’ इत्यादि । इस शरीर में होने वाले परिवर्तन को अनुभव करने वाला यह ‘मैं’ कौन है ? यह ‘मैं’ ही हम है, जोकि हमारा वास्तविक स्वरुप है | यही जीवात्मा है, जोकि परमात्मा का अंश है |
अष्टावक्र गीता में विदेहराज जनक को उपदेश करते हुए मुनि अष्टावक्र जी कह रहे हैं -
साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलम् |
एतत्तत्वोपदेशेन न पुनर्भवसम्भवः ||अ.गीता-1/18||
हे राजन ! तू साकार को मिथ्या जान और निराकार को निश्चल, नित्य जान | इस यथार्थ उपदेश से संसार में पुनः उत्पत्ति नहीं होती है |
साकार तभी तक सत्य है, जब तक हम अज्ञान में जी रहे हैं | शरीर साकार है और शरीर को हम स्वयं होना मान लेते हैं, इससे बड़ा कोई अज्ञान नहीं है | इस अज्ञान के कारण ही मनुष्य संसार के आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता | देखा जाये तो यह साकार-निराकार, स्थूल-सूक्ष्म, जड़-चेतन और सृष्टि अर्थात प्रकृति-परमात्मा सब उसी चैतन्य परमात्मा के रूप हैं | साकार सृष्टि का जो रूप हमें दिखलाई पड़ रहा है वास्तव में वह वैसी नहीं है | यह उस सूक्ष्म का ही एक प्रकार है एवं उसी का परिवर्तित स्थूल रूप है, इसलिए उसमें वास्तविकता नहीं है | यह हमारा भ्रम ही है कि हम इस को सत्य समझ रहे हैं |
इस प्रकृति के कारण जो सुख-दुःख का अनुभव होता है, वह भी नित्य नहीं है क्योंकि परिवर्तनशील होने के कारण सुख भी एक दिन दुःख में परिवर्तित हो जाता है और दुःख सुख में | इसलिए कहा जा सकता है कि सुख-दुःख भी नित्य नहीं है | सुख-दुःख का अनुभव भी प्राणियों की मानसिकता पर निर्भर करता है | मन भी निरंतर बदलता रहता है | जो मन जिस कारण से बचपन में खिलौनों से खेलने में सुख का अनुभव करता था वह मन युवावस्था में उन्हीं खिलौनों के प्रति उदासीन हो जाता है |
प्रत्येक प्राणी की अपनी-अपनी मानसिकता होती है | कीचड़ और गन्दगी भले ही हमें अपनी दुर्गन्ध से दुखी करता हो परन्तु एक सूअर को उसी कीचड में, उसी गन्दगी में मुंह मारना सुखी करता है | जीवन में कब किस से घृणा हो जाती है और कब किस से स्नेह हो जाता है, कहा नहीं जा सकता | यह शरीर भी प्रतिपल बदल रहा है | जो शरीर जन्म के साथ हमें मिला था उसका रूप-लावण्य वृद्धावस्था आते-आते कुरूपता में परिवर्तित हो जाता है |
सब कुछ परिवर्तित हो जाना केवल प्रकृति की इस सृष्टि में ही संभव है, यह जीवात्मा का स्वभाव नहीं है | जीवात्मा तो केवल इस हो रहे परिवर्तन का साक्षी है, दृष्टा है | जिस दिन हम शरीर को अपना स्वरुप न मानकर उससे मिलने वाले सुख-दुःख को दृष्टा भाव से देखने लगेंगे उसी दिन हम अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित हो जायेंगे | मूल स्वरुप को प्राप्त कर लेने वाले को फिर संसार में बार-बार जन्म नहीं लेना पड़ता | संसार में बार-बार जन्म लेने वाला वही होगा जो स्वयं को शरीर मानता है | स्वयं को परमात्मा का अंश मानने वाला तो किसी बंधन में बन्ध ही नहीं सकता | वह तो सदैव मुक्त ही है |
जीवन में सुख-दुःख हमारे ही संसार के कारण हमें मिलते हैं, जबकि आनंद इस विराट जगत की क्रियाओं को केवल दृष्टा भाव से देखने से मिलता है | इस जगत में आकर जो संसार हमने बना लिया है, उसको ‘मैं, मेरा और मेरे लिए” कहने लग गए हैं | यही सोच हमें संसार में आसक्त कर देती है |
‘मैं, मेरा तथा मेरे लिए’ की भावना हमें विशालता से क्षुद्रता की ओर ले आती हैं, जहाँ तनिक सा भी परिवर्तन हमें बहुत अधिक प्रभावित करने लगता है | इस परिवर्तन के कारण ही हम इस संसार में सुखी-दुखी होते रहते हैं | हम अपने पुत्र की रुग्णता के कारण व्यथित होते हैं परन्तु किसी अनजान व्यक्ति ( जिसको हम अपना नहीं मान रहे हैं ) की बीमारी हमें तनिक भी विचलित नहीं करती है | रोग दोनों को भी भले ही एक प्रकार का ही हो, हमें अपने पुत्र के स्वास्थ्य की अधिक चिंता होती है | इसके पीछे एक मात्र कारण हमारी यह “मेरा” होने की भावना ही है |
जब तक हम संसार के सभी प्राणियों में स्वयं को नहीं देखेंगे तब तक असत से पीछा नहीं छूटने वाला | इस प्रकार देखने के अभ्यास से एक दिन सर्वत्र हमें परमात्मा ही दिखाई देंगे और असत का अस्तित्व हमारे लिए समाप्त हो जायेगा | फिर इसी संसार में रहते हुए भी हम आसक्त नहीं होंगे क्योंकि तब हमारा यह ‘मैं’ ही समाप्त हो जायेगा |
“मैं, मेरा और मेरे लिए” की भावना हमें सत से विमुख कर देती है | सत से विमुख होने पर जो कुछ भी पीछे रह जाता है वह असत ही हो जाता है | वास्तव में असत की सत्ता नहीं है परन्तु हमारी अपने संसार के प्रति आसक्ति उसे असत बना देती है | सूर्यग्रहण के दिन चन्द्रमा हमारे और सूर्य के बीच आ जाता है तब अंधकार हो जाना प्रतीत अवश्य होता है परन्तु वास्तव में सूर्य अस्तित्व विहीन नहीं होता है | इसी प्रकार हमारा ज्ञान जब संसार की आसक्ति से ढक जाता है तब हमारे अज्ञान के कारण यही संसार असत हो जाता है | वास्तव में संसार तभी तक असत है जब तक हमारी इस संसार में आसक्ति है अन्यथा संसार भी सत ही है | यही बात तो भगवान् गीता में कह रहे हैं |
जो अविनाशी है, अपरिवर्तनशील है, अजर है, अमर है - वही सत है | सत केवल परमात्मा ही है | एक मात्र उसकी ही सत्ता है और जो कुछ भी हमारी बाह्य भौतिक दृष्टि से अनुभव में आता है, वह सब असत है | वह असत इसलिए है क्योंकि वह निरंतर विनाश की ओर जा रहा है, धीरे-धीरे परिवर्तित हो रहा है, उसका रूप /आकार, नाम आदि सब कुछ बदल रहा है | निरंतर परिवर्तित होना सत्य का स्वभाव नहीं है | इसीलिए संसार को असत कहा गया है | असत होते हुए भी उसके पीछे सत की ही सत्ता है | असत के पीछे सत की सत्ता के कारण ही संसार की बागडोर उस सत के पास ही रहती है |
भगवान् श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कह रहे हैं कि –
अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् |
अनाशिनोSप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत || 2/17 ||
हे अर्जुन ! नाश रहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत-दृश्यवर्ग व्याप्त है | इस अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं है |
भगवान् कह रहे हैं कि जो भी इस जगत में दृष्टिगत है, उस सम्पूर्ण जगत में जो व्याप्त है, वह अविनाशी है, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो रहा है | जो कुछ भी हमें यहाँ परिवर्तित होता नज़र आ रहा है, उसके भीतर जो बैठा है, उसके रोम-रोम में जो बसा है, उसमें जरा सा भी परिवर्तन नहीं हो रहा है | मनुष्य जीवन के रहते इस बात को समझ लेना सर्वाधिक महत्त्व रखता है |
मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना है कि उसे तो केवल परिवर्तित होता संसार ही दिखलाई पड़ता है, जिसे देखकर वह सुखी-दुखी होता रहता है | उसकी दृष्टि इस संसार की धुरी बने अर्थात संसार के केंद्र में बैठे उस सत्य की ओर तनिक भी नहीं जाती, जहाँ स्वयं परमात्मा बैठे है | वह संसार के केंद्र में बैठा रहकर भी उसके सम्पूर्ण भाग तक विस्तारित है | एक सूई की नोंक जितना स्थान भी उसकी उपस्थिति के बिना नहीं है | वास्तव में देखा जाये तो यही सत्य है | इस सत्य के अतिरिक्त जो कुछ भी मनुष्य इस संसार में अपनी भौतिक और स्वार्थभरी दृष्टि से देखता है, वह सब असत ही है |
जो असत की आसक्ति में आकंठ डूबा है उसके लिए सत्य को स्वीकार करना बड़ा ही कठिन होता है | वह सत्य को स्वीकार इस लिए नहीं कर पाता क्योंकि जो दिखलाई पड़ रहा है, उसे अस्वीकार करना उसके लिए असंभव हो जाता है | दृश्य जगत को ही वह सत्य मानने लगता है परन्तु उस दृश्य को दरसाने के लिए जो आवश्यक अदृश्य शक्ति है, उस शक्ति का उसे ज्ञान नहीं है | यही कारण है कि सांसारिक व्यक्ति को हम कितना ही कह दें कि एक परमात्मा ही सत्य है; असत से मिल रहे सुख को ही वह जीवन का सत्य समझता है और वास्तविक सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता | जब उसे अपने जीवन में दुःख की अवस्था से गुजरना पड़ता है, तब तो भले ही वह कुछ समय के लिए सत्य की ओर उन्मुख हो सकता है लेकिन यह उन्मुखता प्रायः अस्थायी ही होती है | ऐसी स्थिति किसी विरले के जीवन में ही आती है जब वह दुःख में केवल परमात्मा की ओर देखने लगे | प्रायः तो लोग दुःख की अवस्था में पुनः सुख मिलने की आशा करने लगते हैं | इस प्रकार दुःख में सुख की आशा रखने को दुःख का भोग करना कहते हैं |
जो व्यक्ति दुःख का भोग करने के स्थान पर दुःख का प्रभाव देखने का प्रयास करता है वही सत्य को जानने का प्रयास कर सकता है | दुःख का प्रभाव देखने का अर्थ है, जीवन में दुःख पैदा होने के कारण को जान लेना | प्रत्येक दुःख का कोई न कोई कारण अवश्य ही होता है और उस कारण को जानकर ही व्यक्ति दुःख से मुक्त हो सकता है | दुःख का कोई न कोई कारण सदैव हमारे अन्दर ही छिपा होता है | उस कारण का हमें तभी ज्ञान होगा जब हम स्वयं पर उस दुःख के प्रभाव का सूक्ष्म अवलोकन करेंगे | भगवान् बुद्ध इसी साधन से सत्य को उपलब्ध हुए थे |
भगवान् बुद्ध ने कहा है कि जीवन में दुःख के आने का कारण जानकर ही हम दुःख से मुक्त हो सकते हैं अन्यथा नहीं | जीवन में केवल सुख ही सुख मिले, दुःख थोडा सा भी न मिले, ऐसा कभी हो नहीं सकता | केवल सुख की चाहना करना ही जीवन में बंधन का कारण है | सुख-दुःख का कारण जान लेने के उपरांत जीवन में उनका प्रभाव हमारे ऊपर तनिक सा भी नहीं होगा | सुख दुःख से मुक्त हो जाना ही जीवन-मुक्ति है |
सत्य को जान लेने के बाद कोई भी व्यक्ति पुनः असत में उलझता नहीं है | एक सत्य के अतिरिक्त जब किसी का अस्तित्व ही नहीं है, तो फिर असत रह ही कहाँ जाता है ? फिर तो यह संसार और आप स्वयं भी उस सत के अंतर्गत आ जाते हैं | सभी संत हमें बार-बार इसी बात को भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाते हैं परन्तु हम भी किसी चिकने घड़े से कम नहीं है | हमारे ऊपर भी उन संतों के उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता |
सत और असत को स्पष्ट करने के लिए ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी महाराज एक दोहा सुनाया करते थे -
“है” सो सुन्दर है सदा, “नहीं” सो सुन्दर नाहीं |
“नहीं” सो प्रकट देखिये, “है” सो दिखे नाहीं ||
संसार में आसक्ति रखते हुए हम सब उसे ही सुन्दर समझ रहे हैं क्योंकि हमें यह स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ रहा है, जबकि हम जानते हैं कि वह असत ही है | इस संसार को जो चला रहा है, जो इसका जनक है उसकी ओर हमारी दृष्टि तनिक भी नहीं जाती है क्योंकि वह दृष्टिगत है ही नहीं | उसे चर्म चक्षुओं से देखा जाना असंभव है | जो भौतिक दृष्टि की सीमा से परे है, वही वास्तव में सत्य है | उसको देखने के लिए दिव्यदृष्टि की आवश्यकता पड़ती है | दिव्य दृष्टि या तो वेद व्यास जैसा पहुंचा हुआ कोई गुरु ही दे सकता है अथवा स्वयं भगवान् श्री कृष्ण, जिन्होंने संजय और अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी थी |
मनुष्य में बुद्धि के साथ-साथ विवेक भी जन्मजात होता है | बुद्धि किसी बात का निर्णय तो ले सकती है परन्तु सत्य तक पहुँचने में वह भी असफल ही सिद्ध होती है | बुद्धि हमारी ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त कर उसका विश्लेषण कर सकती है परन्तु आत्म-बोध नहीं करा सकती | व्यक्ति को आत्म-बोध तो विवेक ही करा सकता है | भीतर कहीं कोने में सुषुप्त अवस्था में पड़े विवेक को जाग्रत करने पर ही सत्य को जाना जा सकता है ।
सुषुप्त पड़े विवेक को जाग्रत करने का कार्य गुरु ही कर सकता है | वेद व्यासजी आदिगुरू हैं | उनके द्वारा प्रदत्त शास्त्र हमें इस बारे में निर्देशित कर सकते हैं अथवा कोई शास्त्र मर्मज्ञ व्यक्ति कर सकता है | शास्त्रों के मर्म को जानने वाला ही गुरु कहलाता है | शास्त्रों में लिखे काले अक्षरों को पढ़ तो हर कोई सकता है परन्तु उसके मर्म को जानने वाला कोई एक विवेकवान ही होता है |
बुद्धि में विवेक छिपा रहता है | विवेक को जाग्रत करने में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है और गुरु के मिलने में परमात्मा की | बिना परमात्म-कृपा के आदर्श गुरु भी मिलने कठिन हैं | विवेक के जाग्रत हो जाने से मनुष्य की दृष्टि ही बदल जाती है | इसी दृष्टि के कारण अंततः मनुष्य तत्व-ज्ञान यानि आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होता है | तत्व-ज्ञान की स्थिति को उपलब्ध हो जाने को ही आत्म-बोध हो जाना कहा जाता है | आत्म-ज्ञान होते ही सारा संसार भी परमात्मा-मय हो जाता है | आत्म-ज्ञान के अभाव में व्यक्ति कस्तूरी के मृग की भांति इधर उधर भटकता है | वह यह सोचकर भटकता है कि कहीं न कहीं परमात्मा अवश्य ही मिलेंगे परन्तु वह यह नहीं जानता कि परमात्मा से भिन्न कोई है ही नहीं | सब जगह एक परमात्मा ही हैं उसके अतिरिक्त कहीं कोई दूसरा है ही नहीं | आत्म-ज्ञान होते ही असत रहता ही नहीं बल्कि सब जगह सत ही सत नज़र आने लगता है |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण एक ही बात को बार-बार और भिन्न-भिन्न प्रकार से अर्जुन के समक्ष रखते जा रहे हैं | उनका उद्देश्य एक ही है कि ऐसे, वैसे, कैसे,जैसे भी हो अर्जुन का विवेक जाग्रत हो जाय | अर्जुन के विवेक का जाग्रत होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि वह दृष्टिगत संसार को ही सत्य समझ बैठा है,जिससे उसे मोह हो गया है | इसीलिए आज उसे स्वजनों के साथ युद्ध करना अनुचित जान पड़ रहा है क्योंकि उसकी बुद्धि की पहुँच इतनी दूर तक ही है | वह जानता है कि युद्ध में प्रबल हिंसा होगी और उस हिंसा में उसके प्रायः मित्रों और सगे-सम्बन्धियों का मारा जाना अवश्यम्भावी है | उन सब के मरने का कारण वह स्वयं को ही मान रहा है क्योंकि वह युद्ध करने में स्वयं को कर्ता मान बैठा है | कर्ता मान लेने का अर्थ है कि फिर युद्ध के परिणाम का भोक्ता भी वही होगा | इस प्रकार युद्ध का परिणाम अंततः उसे दुःख ही पहुंचाएगा | युद्ध के इस परिणाम के भोग को इस प्रकार अर्थात दुःख के रूप में भोगना उसे स्वीकार नहीं है |
भगवान् ने गीता में अर्जुन को यहाँ तक स्पष्ट कर दिया है कि प्रत्येक जीव परमात्मा का अंश है | इस बात को जान लेने के बाद उसको यह स्पष्ट हो जाना चाहिए था कि कौन तो मारा जा सकता है और कौन किस को मार सकता है अर्थात न तो कोई मारा जाता है और न ही कोई किसी को मार सकता है | सभी में वह एक परमात्मा व्याप्त है | अतः स्वाभाविक रूप से हो रही क्रियाओं का न तो कर्ता बनो और न ही भोक्ता बनकर उन क्रियाओं में लिप्त ही होओ |
गीता में भगवान् कह रहे हैं –
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |
शरीरस्थोSपिकौन्तेय न करोति न लिप्यते || गीता-13/30 ||
हे अर्जुन ! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न ही उसमें लिप्त होता है |
क्या परमात्मा केवल शरीर में ही स्थित है ? नहीं, परमात्मा तो सर्वव्यापी है परन्तु हम अपने शरीर को ही सब कुछ मान बैठे हैं और शरीर के द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया को अपने द्वारा किया जाना मानने लगे हैं | इसलिए भगवान ने परमात्मा को शरीर में स्थित बताया है, जिससे मनुष्य की स्वयं के द्वारा कर्म करने की भ्रान्ति मिट सके |
शरीर में स्थित परमात्मा न तो कुछ करते हैं और न ही लिप्त होते हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल शरीर में ही परमात्मा स्थित हैं | अर्जुन को केवल कर्तापन छोड़ देने के लिए भगवान् ने उसे इस प्रकार समझाया है | वास्तव में परमात्मा क्या है और कैसे हैं, इस बात को उन्होंने गीता में इस प्रकार स्पष्ट किया है -
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्त मूर्तिना |
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः || गीता-9/4 ||
भगवान् अर्जुन को स्पष्ट करते हैं कि मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत जल से बरफ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार पर स्थित हैं, किन्तु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ |
इस श्लोक (गीता-9/4) के माध्यम से भगवान् ने अपनी सर्वव्यापकता को अर्जुन के समक्ष स्पष्ट कर दिया है | बरफ में जल कहाँ नहीं है, क्या कोई बता सकता है ? जल के बिना बरफ का अस्तित्व में आना ही असंभव है | जिस प्रकार बरफ में सभी जगह जल है उसी प्रकार सृष्टि में सर्वत्र परमात्मा हैं | बरफ के केवल केंद्र में ही जल है, ऐसा नहीं है बल्कि उसका प्रत्येक कण जल से परिपूर्ण है |
बरफ का एक निश्चित आकार होता है | आकार ले लेने के कारण जो हमें बरफ के रूप में दिखलाई पड़ रहा है वह वास्तव में जल ही है, जल से भिन्न कुछ भी नहीं है | जल के आकार ले लेने के कारण जल का ही दूसरा नाम बरफ हुआ है | इसी प्रकार परमात्मा के आकार ले लेने का नाम ही जगत है | जिस प्रकार जल के बिना बरफ का बनना संभव ही नहीं है उसी प्रकार सृष्टि का सृजन भी उस परमात्मा के बिना होना संभव नहीं है | जिस प्रकार बरफ के प्रत्येक स्थान पर जल है उसी प्रकार सृष्टि के कण-कण में परमात्मा है | जिस प्रकार जल की अनुपस्थिति में बरफ का होना ही नहीं रहता उसी प्रकार परमात्मा की अनुपस्थिति में सृष्टि का भी कोई अस्तित्व नहीं रहता | कहने का अर्थ है कि सर्वत्र एक परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है | परमात्मा के विभिन्न आकार में प्रकट होने के कारण उसी एक के भिन्न भिन्न नाम हो गए हैं | गीता भवन, स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) के भोजनालय में खाने-पीने की प्रत्येक वस्तु के साथ राम नाम को जोड़ा जाता है, जैसे रोटीराम, दालराम आदि | इसका अर्थ है कि राम स्वयं आकार लेकर रोटी हो गए हैं अर्थात यह रोटी नहीं है बल्कि रोटी के रूप में परमात्मा ही हैं |
एक भौतिक शरीर से घिरे होने के कारण उसी एक परमात्मा को यहाँ अंतर्यामी परमेश्वर अर्थात ईश्वर कहा गया है | इसका अर्थ यह नहीं है कि परमात्मा केवल प्राणी के हृदय में ही निवास करते हैं | समझाने की दृष्टि से शरीर से घिरी हुई आत्मा (Embodied soul) को ईश्वर नाम दे दिया गया है | इस ईश्वर को जीवात्मा भी कहा जाता है | वैसे सब कुछ परमात्मा है तो फिर मृत शरीर में भी परमात्मा है, वे उससे अलग नहीं है | हाँ, शरीर में स्थित ईश्वर एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश अवश्य ही करता है और इस प्रकार प्राणी नए शरीर से अपने पूर्व शरीर के द्वारा किये गए कर्मों के फल को भोगता है |
अभी तक के विवेचन से स्पष्ट है कि एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ इस सृष्टि में नहीं है | ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर जब शरीर की मृत्यु हो जाती है, तो पीछे जो मृत शरीर शेष रह जाता है; क्या वह भी परमात्मा है ? हाँ, मृत शरीर भी परमात्मा है | एक ओर तो हम कहते हैं कि ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देश्यSर्जुन तिष्ठति’ अर्थात हे अर्जुन ! ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में स्थित है तथा दूसरी ओर कहते हैं कि मृत शरीर भी परमात्मा है, ऐसा कहना कहाँ तक उचित है ? शरीर की मृत्यु भी तो तभी होती है जब ईश्वर उसके हृदय को छोड़ देते हैं | गीता में सम्पूर्ण श्लोक इस प्रकार है –
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देश्यSर्जुन तिष्ठति |
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया || गीता -18/61 ||
भगवान् श्री कृष्ण कह रहे हैं कि हे अर्जुन ! शरीर रुपी यंत्र में आरुढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है |
भगवान् ने इस श्लोक (गीता-18/61) में स्पष्ट कर दिया है कि ईश्वर की माया के कारण ही व्यक्ति प्रत्येक क्रिया (कर्म) का कर्ता बनता है और उन कर्मों के कारण परमात्मा ही उसे विभिन्न योनियों में भ्रमण करवाता है | स्वयं के द्वारा कर्म करना और उन कर्मों के आधार पर संसार में विभिन्न प्राणियों के रूप में बार-बार जन्म लेना, सब कुछ ईश्वर की माया है | जिस दिन हमें उसकी माया का ज्ञान हो जायेगा उस दिन न तो हम कर्मों के कर्ता बनेंगे और न ही हमारा बार-बार जन्म होगा |
जब प्राणी के हृदय में स्थित अंतर्यामी परमेश्वर उस शरीर को छोड़ देता है तो यहाँ इस धरा पर शेष रहा मृत शरीर भी क्या परमात्मा है ? इस बात को यम ने नचिकेता को कठोपनिषद में पूर्ण रूप से स्पष्ट किया है | कठोपनिषद में नचिकेता यमराज से तीसरा वर मांगता है कि-
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये
Sस्तीत्येके नायमस्तीति चैके |
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं
वरणामेष वरस्तृतीयः ||1/1/20||
हे यमराज ! मरे हुए मनुष्य के विषय में, जो यह संशय है – कोई तो कहते हैं कि मरने के बाद यह आत्मा रहता है; और कोई ऐसा कहते हैं कि आत्मा नहीं रहता | आप मुझे उपदेश दीजिये जिससे मैं इस बात को भलीभांति समझ लूं कि शेष क्या रहता है | आपके द्वारा दिए गए तीनों वरों में से यही मैं तीसरा वर मांगता हूँ |
यमराज से नचिकेता पूछ रहा है कि जीवात्मा के देह छोड़कर चले जाने के उपरांत शेष क्या बचता है ? नचिकेता के इस प्रश्न के उत्तर में जो कुछ यमराज कहते हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि मरने के बाद जो भी शेष रहता है, वह भी परमात्मा है | यम कहते हैं -
अस्य विस्त्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः |
देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते || एतद्वै तत् ||कठोपनिषद – 2/2/4||
हे नचिकेता ! इस शरीर में स्थित एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने वाले जीवात्मा के शरीर से निकल जाने पर यहाँ क्या शेष रहता है, जो शेष रहता है वह भी वही परमात्मा है, जिसके विषय में तुमने पूछा है |
एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन करने के स्वभाव वाला जीवात्मा जब वर्तमान शरीर को छोड़ कर चला जाता है तब उसके साथ सभी इन्द्रिय और प्राण आदि भी चले जाते हैं | तब इस मृत शरीर में क्या शेष रह जाता है ? देखने पर तो कुछ भी शेष नहीं रहता; पर वह जो परमात्मा सर्वव्यापी है, जो चेतन तथा जड़ प्रकृति – सभी में सदा व्याप्त है, वह अवश्य ही शेष रह जाता है | यमराज कहते हैं कि हे नचिकेता | शेष रह जाने वाला वही ब्रह्म है, जिसके बारे में तुमने मुझसे पूछा है | बड़ा निर्भीक बालक है, नचिकेता | जिसने अपने पिता को भी कमजोर गौएँ दान करने पर सचेत कर दिया था, वही बालक मृत्यु से डरे बिना बड़ी निर्भीकता से यमराज के सामने खड़ा होकर ऐसे प्रश्न कर रहा है, जिसकी अपेक्षा उस वय के किसी भी बालक से नहीं की जाती |
मृत शरीर भी परमात्मा है | कैसे हो सकता है यह परमात्मा ? इस प्रश्न का उत्तर भी जान लीजिए। प्राण निकल जाने के पश्चात इस शरीर का विखंडन हो जाने पर भी परमात्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता | वह वैसे का वैसा ही परिपूर्ण रहता है, जैसा पूर्व में था | मृत शरीर के पूर्ण विखंडन के उपरांत पाँचों भौतिक तत्वों का पुनः संयोजन होता है और फिर से प्रकृति द्वारा एक नए शरीर का निर्माण होता है | इस नए शरीर में फिर वही ईश्वर (जीवात्मा) प्रवेश करता है और इस प्रकार सृष्टि का चक्र निरंतर चलता रहता है | जो भी परिवर्तन होते हैं वे सब सृष्टि अर्थात प्रकृति में होते हैं और परमात्मा इस परिवर्तन से अछूते बने रहते हैं |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –
“अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः||”
(गीता -3/14)
अन्न से भूतों अर्थात सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं | अन्न से ही सभी प्राणियों के शरीर अस्तित्व में आते हैं | प्राणी का मृत शरीर विखंडित होकर मिट्टी में मिल जाता है | मिट्टी में मिलकर वह भी मिट्टी हो जाता है | वर्षा के बाद उसी मिट्टी से अन्न उत्पन्न होता है | अन्न से प्राणी के शरीर पुष्ट होते हैं | अन्न से ही पुरुष के शरीर में वीर्य और नारी के शरीर में डिम्ब बनता है | उन दोनों के मिलन से प्राणी का शरीर बनता है | कहने का अर्थ है कि मृत शरीर विखंडन के बाद भी अनुपयोगी नहीं रहता बल्कि एक निश्चित प्रक्रिया से उसी शरीर के तत्वों का पुनर्मिलन होकर अप्रत्यक्ष रूप से नए शरीर का निर्माण हो जाता है | इस प्रकार स्पष्ट है कि मरने के बाद भी जो कुछ शेष रहता है, वह भी परमात्मा ही है |
इतने विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि इस सृष्टि में एक परमात्मा के अलावा अन्य किसी का अस्तित्व नहीं है | जहां तक हमारी भौतिक दृष्टि की पहुँच है और जो कुछ इस दृष्टि की पहुँच से भी बाहर है, वहां केवल परमात्मा ही है | केवल भौतिक दृष्टि की पहुँच ही क्यों; मन की पहुँच भी जहाँ तक है, उससे भी परे चले जाएँ तो वहां पर भी परमात्मा ही हैं | “एक परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा अन्य कोई नहीं है”, इस बात को सही रूप से स्वीकार न कर पाना ही परमात्मा के दो विभाग कर देता है – जड़ और चेतन | जड़ के अंतर्गत समस्त पदार्थ और क्रियाएं आ जाती है तथा चेतन के अंतर्गत आत्मा और परमात्मा | इन दोनों विभागों को क्रमशः क्षर और अक्षर तथा असत और सत भी कहा जाता है | हमारे मन के भीतर उठ रही विभिन्न इच्छाएं ही इस भेद के लिए उत्तरदायी है अन्यथा परमात्मा में कोई भेद नहीं है | संसार में आसक्ति इस भेद की मान्यता को और अधिक दृढ़ता प्रदान करती है | यह जो जड़-चेतन की ग्रंथि पड़ गई है,यद्यपि वह मिथ्या है परंतु जिस दिन यह ग्रंथि खुल जाएगी,उस दिन परमात्मा का वास्तविक स्वरुप समझ में आ जायेगा |
संसार में आसक्ति रखना संसार से प्रेम करना है | इस असत संसार से प्रेम करने के कारण ही जीवन में हमें सुख-दुःख की प्राप्ति होती है जबकि केवल परमात्मा से प्रेम करने पर हमें आनंद की अनुभूति होती है | हमारी अनन्त इच्छाएं ही संसार से प्रेम करने का मुख्य कारण है | इच्छाओं की पूर्ति होने से हमें सुख मिलता है और इच्छाओं की पूर्ति में बाधा आ जाने पर हमें दुःख की प्राप्ति होती है | इसलिए अगर हमें जीवन में आनंद का अनुभव करना है तो अपनी समस्त इच्छाओं से निवृति लेनी होगी |
हमारी असीमित कामनाएं हमें संसार के आवागमन से मुक्त नहीं होने देती, इसलिए कामनाओं का त्याग करना आवश्यक है | जितनी अधिक हमारी कामनाएं होगी उतने ही अधिक हम सुखी-दुखी होते रहेंगे | एक शरीर के जीवन से हम दूसरे शरीर के जीवन को प्राप्त तो हो जाते है परन्तु सुख-दुःख हमारा फिर भी पीछा नहीं छोड़ते हैं | अतः आवश्यक है कि समस्त कामनाओं से निवृति लेकर भविष्य में मिल सकने वाले विभिन्न शरीरों से मुक्त हुआ जाये |
परमात्मा सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है, बरफ और जल के उदाहरण से इस बात को पूर्व में स्पष्ट किया गया है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को एक और प्रकार से इसी बात को स्पष्ट कर रहे हैं-
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनञ्जय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ||7/7||
हे धनञ्जय ! इस जगत का मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं हैं | यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मनियों के सदृश मुझमें गुंथा हुआ है |
जिस प्रकार हम सूत में गांठें लगाकर मनिये बनाते हुए एक बड़ी सी माला बना लेते हैं, उस माला में भले ही मनियें और सूत के धागे भिन्न भिन्न प्रतीत होते हों, वास्तव में सारा का सारा सूत ही तो है, सूत से भिन्न कुछ भी नहीं है | उसी प्रकार इस जगत में एक परमात्मा से भिन्न कोई दूसरा नहीं है | जगत की रचना उसने स्वयं से स्वयं में ही की है और स्वयं ही विभिन्न रूपों में दिखलाई पड़ रहा है |
हम भी परमात्मा के साकार रूप है | परमात्मा के आकार ले लेने से इस शरीर को ही मनुष्य नाम दिया गया है | इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी अपने अपने आकार के कारण भिन्न भिन्न नाम लिए हुए हैं | चाहे रूप और नाम भिन्न भिन्न हों, हैं तो सब परमात्मा ही | यही बात अष्टावक्र मुनि, राजा जनक को समझा रहे हैं –
त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः |
शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं सागमः क्षुद्रचित्तताम् || अ.गीता-1/16||
यह संसार तुझमें है और तुझी में पिरोया है | वास्तव में तू चैतन्य स्वरुप है, अतः विपरीत चित्तवृति को प्राप्त मत हो |
विभिन्न रूपों और आकार के कारण जानने में आने वाले चाहे भिन्न भिन्न नामों से पुकारे जाते हों, विवेकवान पुरुष को सर्वत्र एक परमात्मा ही दिखलाई पड़ते हैं | हमारी बाह्य दृष्टि से देखने पर भले ही सर्वत्र भिन्नता नज़र आये परन्तु भीतर की दृष्टि में तो सर्वत्र एक परमात्मा की ही स्वीकार्यता होनी चाहिए | प्रारम्भ में इस प्रकार की स्वीकार्यता में अड़चन आएगी परन्तु अभ्यास से धीरे-धीरे इस भाव में दृढ़ता आती जाएगी | साधक को साध्य की ओर चलने से पहले ‘सर्वत्र एक परमात्मा ही है’ इस बात को दृढ़ता से मान लेना चाहिए | ऐसा मान लेने से एक-एक कर सभी भ्रांतियां मिटती चली जाएगी और शेष केवल परमात्मा ही रह जायेंगे |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने सर्वत्र परमात्मा की उपस्थिति को स्वीकार करने के लिए विभिन्न कोणों से अर्जुन को ज्ञान दिया है | वे कहते हैं –
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति ||6/30||
श्री कृष्ण कह रहे हैं कि जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |
सभी भूतों के अंतर्गत समस्त चर-अचर, चेतन-अचेतन आदि आ जाते हैं | पत्थर भी भूत है, जीव भी भूत हैं, स्थावर प्राणी भी भूत हैं और घूमने फिरने वाले जीव भी भूत हैं | जब सृष्टि के सभी पदार्थ, सभी शरीर भूत हैं तो उनका भूत रूप से दिखना केवल परमात्मा की माया है | देखा जाये तो वे सब के सब परमात्मा ही हैं |
जब परमात्मा ही सब कुछ है, तो फिर न तो उनकी दृष्टि से कोई दूर हो सकता है और न ही किसी की दृष्टि से वे ओझल हो सकते हैं | जो इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है उसके लिए परमात्मा निकट से भी निकट है और जो इसे स्वीकार नहीं करता उसे करोड़ों सूर्यो का प्रकाश भी परमात्मा को दिखा नहीं सकता | फिर तो उसके लिए परमात्मा दूर से भी दूर हुए | अब प्रश्न उठता है कि परमात्मा को आखिर किस प्रकार जाना जा सकता है अर्थात हमें इस बात का बोध कैसे हो सकता है कि सर्वत्र एक परमात्मा ही है, उनसे भिन्न कोई दूसरा नहीं है ?
उस सर्वव्यापक परमात्मा तक कैसे पहुंचा जा सकता है ? गीता के 8 वें अध्याय के 22 वें श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट किया है -
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया |
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ||
अर्थात हे पार्थ ! जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं और जिस परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है |
केवल अनन्य भक्ति से ही उस परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है | जब मीरा कहती है – ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ तो उसका यह कथन भगवान् से अन्यनता को प्रकट करता है | चितौड़ के सुविधा और सुख सम्पन्न राजमहल में रहते हुए भी उसने परमात्मा को कभी भी विस्मृत नहीं किया | वे चाहती तो महारानी होने का राज-सुख भोग सकती थी परन्तु उन्हें एक परमात्मा का होना, एक राजा की रानी होने से अधिक महत्वपूर्ण लगा | जो परमात्मा से अन्यनता रखता है वह पूरे राजमहल में भी परमात्मा को ही देखता है | अपने पति भोजराज की मृत्यु से वह तनिक भी विचलित नहीं हुई और न ही राणा विक्रमजीत की प्रताड़ना से | पति की मृत्यु के बाद उसने राजमहल छोड़ना उचित समझा और अपने आराध्य से मिलने के लिए वृन्दावन चली आई | अनन्य भक्ति का उदहारण मीरां बाई के अतिरिक्त भला दूसरा कौन हो सकता है ?
जो परमात्मा की अन्यन्य भक्ति करता है, उसे परिस्थितियां कभी सुखी-दुखी नहीं कर सकती | अनन्य भक्त संसार से प्रेम न कर केवल एक परमात्मा से ही प्रेम करता है | संसार का प्रेम मनुष्य जीवन में आपको सुख-दुःख दे सकता है परन्तु परमात्मा का प्रेम आपको सदैव आनंदित बनाये रखता है |
अनन्य भक्ति कैसी होती है ? जैसे एक पतिव्रता स्त्री अपने पति को ही सर्वस्व समझकर केवल उन्हीं का चिंतन करती हुई, पति की आज्ञानुसार पति के लिए ही मन, वाणी और शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमात्मा को ही सर्वस्व समझकर उसी का चिंतन करते हुए और उन्हीं की आज्ञानुसार अपने मन, वाणी और शरीर से कर्म करते रहना ही अनन्य भक्ति है | मीरा ने भी यही किया था – ‘जांके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई’ | परमात्मा के लिए, परमात्मा की आज्ञानुसार, परमात्मा का चिंतन करते हुए और परमात्मा को ही सर्वस्व मानकर जो कर्तव्य कर्म किये जाते हैं उसे ही कर्म द्वारा परमात्मा की पूजा करना कहा जाता है | इस प्रकार अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए जो स्वाभाविक कर्म किये जाते हैं, उनसे परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है |
गीता में भगवान् अंतिम अध्याय में इसी बात को अर्जुन के समक्ष इस रूप में रख रहे हैं -
यतः प्रवृतिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ||गीता-18/46||
जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है |
परमात्मा सर्वत्र व्याप्त हैं और इस जगत का, इस सृष्टि का अत्यल्प सा भाग भी ऐसा नहीं है जहाँ कि परमात्मा नहीं है, हमें केवल इस बात को मान लेना है | स्वीकार नहीं करेंगे तब तक इस बोध से वंचित ही रहेंगे और जगत की माया में उलझकर सुख-दुःख का भोग करते रहेंगे |
श्री मद्भागवत महापुराण में एक कथा आती है कि किस प्रकार श्री कृष्ण के परमात्मा होने पर ब्रहमाजी को भी संदेह हो गया था ? श्री कृष्ण के द्वारा किये गए अघासुर के वध को देखकर ब्रहमाजी ने विचार किया कि अगर कृष्ण ही साक्षात् परमात्मा हैं तो उनकी एक और लीला देखनी चाहिए | ब्रहमाजी को संदेह था कि व्रज की गलियों में ग्वाल-बालों के साथ खेलने वाला और गोपियों को दूध-दही और माखन के लिए तंग करने वाला एक चंचल बालक भला परमात्मा कैसे हो सकता है ? उन्होंने इस बात को जानने और भगवान् की एक और लीला देखने के लिए एक योजना बनाई |
ब्रहमाजी ने बछड़ों का तब अपहरण कर लिया जब ग्वालबाल और कृष्ण आपस में गोल घेरा बना कर यमुना की पुलिन पर खेल खेलने में तन्मय थे | थोड़ी देर बाद जब ग्वालबालों ने बछड़ों को वहां नहीं देखा तो वे भयभीत हो गए | तब कृष्ण भगवान् ने उनको आश्वस्त किया और वे स्वयं बछड़ों को ढूँढने के लिए कुछ दूर चले गए | अवसर पाकर ब्रह्माजी ने ग्वालबालों का भी अपहरण कर लिया | उन्होंने उन ग्वालबालों को बछड़ों के साथ एक गुफा में ले जाकर छुपा दिया | उन्होंने सोचा कि सायंकाल को जब बछड़े और ग्वाल-बाल घर नहीं पहुंचेंगे तब सभी चिंतित होंगे | आगे देखता हूँ कि भगवान् श्री कृष्ण क्या करते हैं ? पता चल जायेगा कि वह एक साधारण उद्दंड बालक है अथवा साक्षात् परब्रह्म | यह सोचकर ब्रह्माजी वहां से अंतर्धान हो गए |
बछड़े जब कहीं दिखाई नहीं दिए तब श्री कृष्ण उस स्थान पर लौटे जहाँ यमुना के पुलिन पर ग्वालबालों को छोड़कर गए थे, तो वे देखते हैं कि वहां तो कोई नहीं है | उन्होंने अपनी अंतर्दृष्टि से पता लगा लिया कि यह कार्य तो ब्रह्माजी का है | श्री कृष्ण ने तत्काल ही उन्हीं गोपबालों और बछड़ों की वैसी की वैसी सृष्टि कर ली | सर्वात्मा भगवान स्वयं ही बछड़े बन गए और स्वयं ही ग्वालबाल | सभी बछड़ों और ग्वालबालों के साथ वे घर लौट आये | न तो इस बात का पता ग्वालबालों की माताओं को लगा और न ही बछड़ों की मां धेनुओं को | इस प्रकार यही क्रम प्रतिदिन लगभग एक वर्ष तक चलता रहा |
एक दिन भगवान् श्री कृष्ण बलरामजी के साथ बछड़ों को चराते हुए वन में गए | वहां उन बछड़ों की माताएं गौएँ गोवर्धन पर्वत की चोटी पर घास चर रही थीं | वहां से ही धेनुओं ने अपने बछड़ों को आते देख लिया | अपने बछड़ों को देखते ही उनका वात्सल्य-प्रेम उमड़ पड़ा | वे दौड़ पड़ी और वहां पहुंचकर अपने बछड़ों को दूध पिलाने लगी | बलरामजी समझ नहीं सके कि यह ईश्वर की कैसी माया है ? जब बलरामजी ने ज्ञानदृष्टि से देखा तो उन्हें ऐसा लगा कि बछड़ों और ग्वालबालों के रूप में स्वयं श्री कृष्ण ही है | बलरामजी ने तब श्री कृष्ण से यह प्रश्न किया –
नेते सुरेशा ऋषयो न चैते
त्वमेव भासीश भिदाश्रयेSपि |
सर्वं पृथक्त्वं निगमात् कथं वादे-
त्युक्तेन वृत्तं प्रभुणा बालोSवैत् || भागवत -10/13/39 ||
भगवन् । ये ग्वालबाल और बछड़े न तो कोई ऋषि-मुनि हैं और न ही कोई देवता। इनके भिन्न-भिन्न रूप होते हुए भी सभी में केवल आप ही दिखलाई पड़ रहे हैं। कृपया संक्षिप्त में इतना सा ही बतला दीजिये कि आप इस प्रकार अलग अलग रूपों में प्रकाशित क्यों हो रहे हैं ?
बलरामजी द्वारा किया गया यही प्रश्न स्पष्ट करता है कि सब कुछ परमात्मा ही है, सब रूपों में भी परमात्मा ही है |
ग्वालबालों और बछड़ों के रूप में भगवान् श्री कृष्ण को देखकर बलरामजी भगवान् से प्रश्न कर रहे हैं कि - ‘भगवन ! ये ग्वाल बाल न तो कोई देवता है और न ही ऋषि-मुनि | इन भिन्न-भिन्न रूपों में मुझे तो केवल आप ही प्रतीत हो रहे हैं | अब यह स्पष्ट कर दीजिये कि आप स्वयं ही ग्वालबाल, बछड़ों, सिंगी, बांसुरी और विभिन्न वस्त्रों आदि में अलग-अलग क्यों प्रतीत हो रहे हैं ?’ तब उत्तर में भगवान् ने बलरामजी को ब्रहमाजी की सारी करतूत कह सुनाई कि कैसे उन्होंने पहले तो बछड़ों को उठा लिया और फिर ग्वालबालों को |
इधर ब्रहमाजी भी कुछ समय बाद व्रज में भगवान् की लीला देखने चले आये | वे उत्सुक थे, यह जानने के लिए कि श्री कृष्ण ने ग्वालबालों और बछड़ों की अनुपस्थिति में क्या किया ? ब्रह्मलोक के अनुसार समय चाहे एक दिन का ही व्यतीत न हुआ हो, इधर पृथ्वी पर तो तब तक एक वर्ष बीत चूका था | व्रज में आते ही वे देखते हैं कि जितने ग्वालबाल और बछड़ों को मैंने अपहृत कर लिया था उतने ही और वैसे के वैसे ही सब भगवान् श्री कृष्ण के साथ खेल रहे हैं | वे भगवान् की यह लीला देखकर आश्चर्यचकित रह गए | ब्रहमाजी सोचने लगे – ‘मेरी माया से मोहित ग्वालबाल और बछड़ों के अतिरिक्त उतनी ही संख्या में दूसरे ग्वाल-बाल और बछड़े यहाँ कहाँ से आ गए ?’ ब्रह्माजी को संदेह हुआ | वे उस स्थान पर गए जहाँ वास्तविक ग्वालबाल और बछड़ों को उन्होंने छुपा रखा था | वे तो वैसे के वैसे और वहीँ पर थे जहाँ पर वे उन्हें एक वर्ष पूर्व छोड़ कर गए थे | उन्होंने अपनी ज्ञानदृष्टि से जानने का बहुत प्रयास किया परन्तु असफल रहे ।
ब्रहमाजी इधर भगवान् की लीला को जानने और समझने के लिए अपना ज्ञान लगा रहें हैं और उधर बालकृष्ण उन्हें देखकर खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे हैं | ज्ञान के माध्यम से निर्गुण निराकार को तो फिर भी जाना जा सकता है परन्तु सगुण साकार को जानना हो तो हृदय में परमात्मा की भक्ति होनी चाहिए | केवल भक्ति से ही सगुण साकार को जानना संभव है |
भगवान् श्री कृष्ण की माया से सभी मोहित हो रहे थे, यहाँ तक कि ब्रहमाजी भी | परन्तु भगवान् स्वयं कभी अपनी माया से मोहित नहीं होते | ‘एक वही सत्य हैं’ इसलिए उन पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती | ब्रह्माजी उन्हीं भगवान् श्री कृष्ण को अपनी माया से मोहित करने चले थे परन्तु उलटे श्री कृष्ण की माया से वे स्वयं ही मोहित हो गए थे | ब्रह्माजी अजन्मा होते हुए भी भगवान् की माया में उलझ गए | शुकदेवजी महाराज कहते हैं कि हे परीक्षित –
तम्यां तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि |
महतीतरमायैश्यं निहन्त्यात्मनि युन्जतः ||भगवत -10/13/45||
जिस प्रकार रात के घोर अन्धकार में कुहरे के अंधकार का और दिन के प्रकाश में जुगनू के प्रकाश का पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षुद्र पुरुष, महापुरुषों पर अपनी माया का प्रयोग करते हैं, तब वह माया उनका तो कुछ नहीं बिगाड़ सकती बल्कि अपना ही प्रभाव खो बैठती है |
यही ब्रह्माजी के साथ हुआ | ब्रह्माजी विचार कर ही रहे थे कि उन्हें भी सभी ग्वालबाल और बछड़े श्री कृष्ण के रूप में दिखने लगे | साथ ही ब्रह्माजी ने देखा कि ब्रह्मा से लेकर सभी चर-अचर जीव भगवान् के उन सब रूपों की उपासना कर रहे हैं |
एक भगवान् की सत्ता और महत्ता के समक्ष उन सभी की सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठती है, जो अपने दम पर स्वयं को सत्तावान समझते हैं | क्या सत्य के समक्ष असत की सत्ता बनी रह सकती है ? नहीं, कभी नहीं | हम सब असत को देखकर उसमें मोहित हो रहे हैं, उससे सुख प्राप्त करने की कामना करते हुए पागल हो रहे हैं परन्तु सत्य तो यही है कि असत का कारण भी सत ही है | अतः असत से मोह करने के स्थान पर सत से प्रेम करना महत्वपूर्ण है |
भगवान् श्री कृष्ण ने ब्रह्माजी के इस मोह और असमर्थता को जानकार तुरंत ही उन पर से अपनी माया का पर्दा हटा लिया | तत्काल ही ब्रहमाजी ब्रह्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गए, वे मानो मरकर जी उठे हों | उन्होंने बड़े कष्ट से अपने नेत्र खोले तब जाकर उनको अपना शरीर और यह जगत दिखलाई पड़ा | ब्रहमाजी देख रहे हैं कि श्री कृष्ण ही ग्वालबाल बने हुए हैं और स्वयं ही स्वयं के साथ खेल रहे हैं | वही श्री कृष्ण, कृष्ण बने ग्वालबालों को ढूंढ रहा है, बछड़े बने श्री कृष्ण ही घास बने कृष्ण को चर रहे हैं | सारा व्रज ही कृष्णमय है |
भगवान् की यह अनुपम लीला देखकर ब्रहमाजी अपने वाहन हंस पर से नीचे कूद पड़े | उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण को दंडवत प्रणाम किया | वे बार-बार उनके चरणों में गिरते, उठते और पुनः भगवान् के चरणों में गिर पड़ते | वे भगवद्प्रेम में आत्मविभोर होकर कांपने लगे | दोनों हाथ जोड़कर वे भगवान् श्री कृष्ण के समक्ष खड़े हो गए और बड़ी नम्रता और एकाग्रता के साथ भगवान् की स्तुति करने लगे |
ब्रह्माजी द्वारा की गयी स्तुति में उन्होंने स्पष्ट किया है कि किस प्रकार उस एक मात्र सत्य को जाना जा सकता है | हम इस असत जगत को देखकर मोहित हो रहे हैं और यह समझ बैठे हैं कि सब कुछ सत्य यही है | जब तक हमारा माया के आवरण में से बाहर निकलना संभव नहीं होगा तब तक सत्य मान लिए गए इस असत जगत से, इस असार संसार से छुटकारा पाना दूर की कोडी होगा |
परमात्मा तक पहुँचने के लिए हमने पूर्व में गीता के दो श्लोकों (8/22 और 18/46) का विवेचन किया था | भागवतजी में ब्रहमाजी द्वारा की गयी स्तुति से तो परमात्मा के निर्गुण स्वरुप तक का भी बोध हो जाना संभव प्रतीत होता है |
तथापि भूमन् महिमागुणस्य ते
विबोद्धुमर्हत्यमलान्तरात्मभि: |
अविक्रियात् स्वानुभवादरूपतो
ह्यनन्यबोध्यात्मतया न चान्यथा || भागवत -10/14/6 ||
हे अनन्त ! आपके सगुण-निर्गुण दोनों स्वरूपों का ज्ञान कठिन होने पर भी निर्गुण स्वरुप की महिमा इन्द्रियों का प्रत्याहार करके शुद्ध अंतःकरण से जानी जा सकती है | जानने की प्रक्रिया यह है कि विशेष आकार का परित्याग पूर्वक आत्माकार अंतःकरण का साक्षात्कार किया जाय | यह आत्माकारता घट-पटादि रूप के समान ज्ञेय नहीं है, प्रत्युत आवरण का भंग मात्र है | यह साक्षात्कार ‘यह ब्रहम है’, ‘मैं ब्रह्म को जानता हूँ’ इस प्रकार नहीं होता, बल्कि स्वयं प्रकाश रूप से होता है |
सभी कहते हैं कि परमात्मा को जानना असंभव है परन्तु ब्रहमाजी द्वारा की गयी इस स्तुति के अनुसार तो परमात्मा के सगुण के साथ-साथ निर्गुण रूप को भी जाना जा सकता है; यद्यपि यह ज्ञान कठिन है | ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों द्वारा लिया जाता है जबकी बोध हमें बाह्य इन्द्रियों से नहीं हो सकता | ज्ञानेन्द्रियों द्वारा परमात्मा का ज्ञान होना असंभव होता है क्योंकि जड़ ज्ञानेन्द्रियों से चेतन का ज्ञान होना असंभव है, उनसे तो केवल जड़ का ही ज्ञान हो सकता है | बोध होने के लिए तो विशुद्ध अंतःकरण की आवश्यकता होती है | अमल (मलरहित) अर्थात शुद्ध अंतःकरण ही हमें निर्गुण निराकार परमात्मा का बोध करा सकता है |
ब्रह्माजी भगवान् श्री कृष्ण को सर्वात्मा के रूप में देखकर उनकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि आपकी महिमा अनन्त है फिर भी इसकी योग्यता रखने वाला इसका विशेष बोध कर सकता है | इस प्रकार के बोध को उपलब्ध होने के लिए आवश्यक योग्यता है - व्यक्ति की अंतरात्मा अर्थात आत्माकार अंतःकरण का एकदम शुद्ध होना | मनुष्य ने अपने जीवन में बाह्य करण (इन्द्रियादि) से जो कुछ भी अनुभव किया है, उसे विस्मृत कर केवल उस एक परमात्मा का चिंतन करना चाहिए | इसके लिए उसे सभी प्रकार के आकार, रूप और नाम (संसार) को विस्मृत कर केवल आत्माकार अंतःकरण का साक्षात्कार करना है | अंतःकरण मनुष्य की आत्मा का ही रूप है जो कि शरीर को पाकर उसमें ही आसक्त हो गया है | शरीर और संसार से आसक्ति तभी हट सकती है, जब एक अनन्य की शरण ले ली जाए |
अनन्य अर्थात एक परमात्मा की शरण ले लेने से अंतःकरण विकार रहित होकर अमल (purified) हो जाता है | अंतःकरण ही वास्तव में आत्मा है और आत्मा ही परमात्मा है | ब्रहमाजी कहते हैं कि फिर वह परमात्मा आपको किसी रूप और नाम के रूप में दृष्टिगोचर नहीं होंगे बल्कि उसका बोध हो जाने से आप स्वयं ही उसके समान प्रकाशित हो जायेंगे | इसी को अपनी आत्मा में ही परमात्मा को पा लेना कहते हैं |
घट-पट आदि की तरह परमात्मा को देखना संभव ही नहीं है | रूप, आकार और नाम के दर्शन तो बाह्यकरण (ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ) से होते हैं परन्तु वास्तव में अगर परमात्मा का बोध करना है तो आपके अंतःकरण का अमल अर्थात मलरहित होना आवश्यक है | आपके अन्तः कारण पर जो माया का आवरण पड़ा है, उस माया के आवरण का भंग होना केवल उस अनन्य की भक्ति से ही संभव हो सकता है | माया का आवरण हटते ही अन्धकार मिट जाता है और केवल प्रकाश रह जाता है | फिर आप भी विदेह राज जनक की तरह कह सकते हैं कि -
प्रकाशो मे निजं रूपं नातिरिक्तोSस्म्यहं ततः ||
यदा प्रकाशते विश्वं तदाSहं भास एव हि ||अ.गीता-2/8||
प्रकाश मेरा निज रूप है | मैं उससे अलग नहीं हूँ | जब संसार प्रकाशित होता है, तब वह मेरे प्रकाश से ही प्रकाशित होता है |
आप शरीर न होकर आत्मा हैं | आत्मा स्वयं प्रकाशमान है | आत्मा का यह प्रकाश शरीर को अपना मान लेने के अज्ञान से अब तक ढका हुआ था | आत्म-ज्ञान होने से अज्ञान का पर्दा हट जाता है और भीतर से प्रकाश प्रकट होकर चारों ओर फ़ैल जाता है |
इस लम्बे विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस जगत में एक परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है | सबमें और सब स्थानों पर परमात्मा को देखना ही आत्म-बोध है, फिर हम स्वयं भी परमात्मा से भिन्न नहीं हैं | जिस दिन परमात्मा से हमारी इस अभिन्नता का ज्ञान हो जायेगा फिर हमें इसी जीवन में सुख-दुःख के स्थान पर आनंद की अनुभूति ही होगी | यही सत्य है |
इस प्रकार अब तक के विवेचन से परमात्मा की सर्वव्यापकता सिद्ध हुई है | श्रीमद्भगवद्गीता का मूलभूत सन्देश भी ‘वासुदेवःसर्वम्’ है |
बहुनाजन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || गीता-7/19 ||
बहुत जन्मों के अन्त में जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष सब कुछ वासुदेव ही है – इस प्रकार जो मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है |
इस श्रृंखला को “येन सर्वमिदं ततम्” शीर्षक दिया गया है, इसका अर्थ है – जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, वह एक परमात्मा ही है | जैसे बर्फ के प्रत्येक कण में जल की उपस्थिति रहती है; भले ही जल दृष्टि में न आ रहा हो वैसे ही जगत के कण-कण में परमात्मा व्याप्त हैं | मनुष्य जीवन के रहते उस परमात्मा का बोध हो जाना ही इस शरीर के मिलने का एक मात्र ध्येय है | जो इस ध्येय तो समझ जाता है, वह महात्मा ही आत्म-बोध को उपलब्ध हो सकता है शेष सभी तो संसार चक्र में उलझकर भविष्य में नया शरीर लेने की प्रतीक्षा करते हुए इस जीवन को व्यर्थ ही जाने दे रहे हैं |
इस लेख का मुख्य संदेश “वासुदेवः सर्वम्” है |
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||