Friday, May 16, 2025

राधा

 राधे-राधे 

         वृन्दावन भगवान श्री कृष्ण की लीला स्थली है । वृन्दावन में अभिवादन की शैली ही राधे-राधे है । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वहाँ के निवासियों में राधा कितनी गहराई तक बैठी हुई है । सन्तजन भगवान श्रीकृष्ण तक पहुँचने के लिए ‘राधा’ नाम का ही आश्रय लेते हैं । कहा जाता है कि राधे-राधे का स्मरण करने मात्र से ही भगवान कृष्ण दौड़े चले आते हैं । प्रश्न उठता है कि राधा नाम में ऐसा कौन सा आकर्षण है , इस नाम में ऐसी कौन सी शक्ति है कि अनन्त ब्रह्मांडों के स्वामी भी उनके वश में है ।

          राधा-कृष्ण, नाम भले ही दो हों, फिर भी एक दूसरे से इतने जुड़े हैं कि दोनों में भेद करना असम्भव है । भेद है ही नहीं तो भेद करना संभव भी कैसे हो सकता है । श्रीमद्भागवत महापुराण में राधा का केवल संकेत मात्र मिलता है । राधा का विस्तार से वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण में मिलता है । आज भी राधा को लेकर आमजन में भी कई भ्रांतियां है । मेरे कई मित्रों ने राधा के बारे में मुझसे ऐसे ही बहुत से प्रश्न किए जिनका उत्तर तत्काल मेरे पास भी नहीं था । अपनी क्षमता अनुसार जितना भी संभव हो सका राधा के बारे में जानने का प्रयास किया ।

             राधा भगवान श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति है । जिस प्रकार पुरुष-प्रकृति दो प्रतीत होते हुए भी एक ही हैं, उसी प्रकार कृष्ण-राधा भी दो न होकर एक ही हैं । श्रीकृष्ण पुरुष है तो राधा उनकी शक्ति- प्रकृति ।

      राधा कौन थी ? राधा को समझने के लिए सबसे पहले कृष्ण को समझना होगा । कृष्ण परमात्मा के आठवें अवतार हुए हैं । प्रथम सात अवतारों ने संसार में आकर केवल दिव्य लीला की थी । श्रीकृष्ण ने दो लीलाएँ की - दिव्य और सांसारिक । इसीलिए उनको परमात्मा का पूर्ण अवतार माना जाता है । उनकी दिव्य लीला मथुरा के कारागार में अवतरित होने से लेकर  पुनः मथुरा पहुँचने तक चली । यह अवधि लगभग ग्यारह वर्ष की थी यानि जब कृष्ण कंस का वध करने मथुरा पहुँचे तब उनकी आयु ग्यारह वर्ष थी । उसके बाद उनकी सांसारिक लीला प्रारम्भ हुई । 

         अब बात करते हैं, राधा की । कृष्ण का अवतरित होने का एक महत्वपूर्ण कारण था, इस भूमि को अत्याचारियों से मुक्त करना । इसके लिए परमात्मा ने निश्चय किया कि मैं देवकी के आठवें गर्भ से कृष्ण के रूप में अवतरित होऊँगा । इस निश्चय के साथ ही भगवान स्वयं आह्लादिनी शक्ति बनकर पहले राधा के रूप में बरसाना में वृषभानु के यहाँ कन्या के रूप में अवतरित हुए । राधा के जन्म के समय उनमें वही लक्षण और चिन्ह थे जो परमात्मा के अवतार में होते हैं । कृष्ण के रूप में भगवान ने कई वर्षों बाद अवतार लिया । यही कारण है कि राधा कृष्ण से आयु में बड़ी थी । 

       आह्लादिनी शक्ति का अर्थ है जिससे आनंद मिले । प्रेम में आनंद है और वासना में सुख । सुख, दुःख में परिवर्तित हो सकता है परंतु आनंद नित्य है, बदलता नहीं है । वैष्णव संप्रदाय के अनुसार भगवान का सच्चिदानंद (सत्+चित+आनन्द) स्वरूप है । शैव इसे सत्यम् शिवम् सुंदरम् कहते है । सत् और सत्य एक ही है । चित अर्थात् चैतन्य (conscious) या शिवम् और आनन्द अर्थात् सुंदर । परमात्मा सत् है अर्थात् He exists, परमात्मा चैतन्य है अर्थात् He is conscious और परमात्मा आनन्द स्वरूप हैं अर्थात् He is pleasureful । परमात्मा के इसी आनंद स्वरूप की अभिव्यक्ति राधा के रूप में हुई है । कृष्ण का नारी अर्थात् स्त्री रूप ही राधा है और राधा का पुरुष रूप श्रीकृष्ण ।

        राधा के रूप में परमात्मा के प्रकट होने का कारण संसार को दिव्य प्रेम से परिचित कराना था । कृष्ण की दिव्य लीला इसी प्रेम का दर्शन कराती है । रासलीला में वासना कहीं पर भी नहीं है, है तो केवल एक प्रेम । प्रेम ही परमात्मा है, यह दिव्य लीला कृष्ण का भगवान होना सिद्ध करती है । बृज में केवल राधा और गोपिकाएँ ही जानती थी कि कृष्ण परमात्मा हैं । मथुरा में केवल वसुदेव ही यह बात जानते थे । भागवत के दशम स्कन्ध के तीसरे अध्याय में वसुदेवजी शिशु कृष्ण को देखकर यह बात कहते हैं कि प्रभु ! मैं जान गया हूँ कि आप साक्षात् परमात्मा हैं ।

         गोपाल सहस्रनाम में राधा और कृष्ण को एक ही शक्ति के दो रूप बताया गया है । इसका अर्थ हुआ कि राधा ही कृष्ण है और कृष्ण ही राधा है । कृष्ण की बांसुरी राधा को प्रिय थी और कृष्ण को बांसुरी और राधा । दोनों ही प्रेम और आनंद के प्रतीक हैं । कहा जाता है कि राधा और कृष्ण का विवाह वृंदावन के भांडीरवन में हुआ था, लेकिन इसका शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है । 

      ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार राधा का विवाह रायाण (अयन) के साथ निश्चित हुआ था । राधा को जब इस बात का पता चला तब वह घर में अपने को छायारूप में छोड़कर वहाँ से चली गई अर्थात अंतर्धान हो गई । यह ठीक वैसा ही है जैसे पंचवटी में सीता को अग्नि-प्रवेश कराकर उसके छाया रूप को वहाँ रखा गया था । रावण ने इसी छाया-सीता का अपहरण किया था । इसका अर्थ है कि रायाण का विवाह भी राधा से नहीं हुआ बल्कि उसकी छाया से हुआ था । 

    राधा-कृष्ण के बारे में एक बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि इनके मध्य शारीरिक प्रेम (वासना) तो क़तई नहीं था । उनके मध्य दिव्य प्रेम था । दिव्य प्रेम में दो होने का प्रश्न ही नहीं होता । इसके आधार पर कहा जा सकता है कि राधा और कृष्ण दो न होकर एक ही हैं । कहा जाता है कि राधा जब सो रही होती थी और कृष्ण नाम से कोई आवाज़ देता तो वह नींद से जाग जाती थी । इसी प्रकार जब कृष्ण कुछ कर रहे होते और कोई राधा नाम की पुकार लगाता है तो वे उसके पास दौड़े चले आते हैं । इसीलिए वृंदावन में राधा का अधिक महत्व है । आज भी कृष्ण को प्रसन्न और उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए प्रायः लोग राधे-राधे बोलते हैं ।

        प्रेम और आनंद अविनाशी है बिलकुल परमात्मा की तरह । कृष्ण जब मथुरा चले गए तब भी गोपियाँ उनके विरह में प्रेम का आनंद ले रही थी । राधा भी उनमें  एक थी । उन्होंने कभी भी कृष्ण को इस बारे में उलाहना नहीं दिया । कहा जाता है कि जब कृष्ण द्वारिका में अपनी सांसारिक लीला को समेटने की तैयारी कर रहे थे, तब बरसाना से अंतर्धान हुई उनकी आह्लादिनी शक्ति राधा भी उनके पास पहुँच गई । वह भी भौतिक देह त्यागने की तैयारी में थी । उसने अपने शरीर की अंतिम इच्छा कृष्ण के सामने व्यक्त की थी कि मैं बांसुरी सुनना चाहती हूँ, आप बांसुरी बजाइये । कृष्ण ने वृंदावन छोड़ने के बाद बांसुरी को हाथ तक नहीं लगाया था परंतु अपनी लीला को समेटने से पूर्व उन्होंने अंतिम बार बांसुरी बजाई । बांसुरी की धुन में डूबकर दोनों आनन्द विभोर हो गये । बांसुरी वादन के समाप्त होते ही राधा ने अपनी देह त्याग दी और ब्रह्मलोक को चली गई । थोड़े दिनों बाद श्रीकृष्ण भी देह त्यागकर चले गए ।

          श्रीकृष्ण की दिव्य लीला में राधा है और सांसारिक लीला में रुक्मणी । कहीं कहीं दोनों को लक्ष्मी का अवतार भी बताया गया है परन्तु राधा और कृष्ण को एक ही मानें तो यह बात गले नहीं उतरती । शारीरिक प्रेम में रुक्मणी जँचती है और दिव्य प्रेम में राधा । ग्यारह वर्ष तक भगवान श्रीकृष्ण ने जो लीला की थी वे सब उन्हें परमात्मा सिद्ध करती है चाहे वह पूतना का वध हो अथवा गोवर्धन को एक अंगुली पर उठाना या दिव्य प्रेम को प्रकट करती रास - लीला । 

             भागवत जी के दसवें स्कंध में पांच अध्याय ऐसे है, जो कृष्ण के दिव्य प्रेम को स्पष्ट करते हैं। इनको रास-पंचाध्यायी भी कहते हैं। इन पांच अध्यायों को गंभीरता से पढ़ने पर दिव्य प्रेम और शारीरिक प्रेम का अंतर स्पष्ट हो जाएगा और सारी भ्रांतियां दूर हो जाएगी ।

         ग्यारह वर्ष के बाद की सांसारिक लीला कृष्ण को मनुष्य के रूप में ही अभिव्यक्त करती है चाहे वह कुरुक्षेत्र का युद्ध ही क्यों न हो । इसी अवधि में उन्होंने प्रेम की प्रतीक बांसुरी को छुआ तक नहीं और जब छुआ तो अंतिम बार और लीला का संवरण कर दिया ।

और अन्त में अपनी बात -

       राधा-कृष्ण के बारे में जो पढ़ा, सुना और समझा उसको अनुभव कर अल्प रूप से आपके साथ साझा किया है । इनके प्रेम की चर्चा जितनी करलें, कम ही है । राधा-कृष्ण की लीला निश्छल और निष्काम प्रेम का प्रकटीकरण है । इसका उद्देश्य हमें दिव्य प्रेम से परिचित कराना है । तेत्तरीय उपनिषद् में कहा गया है - “रसो वै स:” अर्थात् परमात्मा रस (प्रेम, आनंद) स्वरूप हैं । जिसको जिसमें रस आता है अथवा जिसको जिससे रस मिलता है उसके लिये वही परमात्मा है । किसी को धन में रस मिलता है, किसी को स्त्री में । अद्वैत सिद्धांत के अनुसार सर्वत्र केवल एक परमात्मा ही है, दूसरा है ही नहीं । जब सब कुछ परमात्मा ही हैं तो धन और स्त्री भी उनसे अलग नहीं हैं । ये रस अवश्य हैं परंतु विनाशशील रस हैं । इनका आदि भी है और अन्त भी है । परंतु प्रेम और आनंद अखण्ड और अनंत रस हैं । इनका विनाश नहीं हो सकता । इसलिए प्रेम रस में डूबकर आनंदित होइए आसक्त नहीं । राधा-कृष्ण अनासक्त प्रेम के प्रतीक हैं , यही दिव्य प्रेम है । 

       इसी के साथ इस लेख का समापन करते हैं, दिव्य-प्रेम का नहीं । प्रेम से बोलिए - राधे-राधे ।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।


Friday, May 9, 2025

संयोग का वियोग - योग

संयोग का वियोग - योग 

             शान्त आकाश में विमान अपनी गति से उड़ा जा रहा था । आधे घण्टे बाद वायुयान को अपने गन्तव्य स्थान पर उतरना था । तभी पश्चिमी विक्षोभ में फँसकर विमान डगमगाने लगता है ।  पायलट घोषणा करता है कि विमान वायु-चक्र में फँस गया है, कृपया आप सभी यात्री अपनी कमर-पेटी बांध लें और शान्त होकर बैठे रहें ।

          पायलट की उद्घोषणा अभी पूरी हुई नहीं थी कि तेज हवा के प्रभाव से विमान बुरी तरह हिचकोले खाने लगा । ऐसा महसूस हो रहा था कि विमान अब गिरा, तब गिरा । सारे यात्री भयवश चिल्लाने लगे । कोई अपने बच्चों को याद कर रहा था, कोई उस मनहूस घड़ी को कोस रहा था जिसमें उसने यात्रा करने का निर्णय लिया था, कोई अपने इष्ट से संकट से बाहर निकालने की प्रार्थना कर रहा था । कहने का अर्थ है कि प्रायः सभी यात्री अपनी संभावित मृत्यु की कल्पना करते हुए धैर्य खो बैठे थे ।

              इस यात्रा-अवधि में केवल दो यात्री ऐसे थे जो तनिक भी विचलित नहीं थे । एक तो पाँच वर्ष की बच्ची, जिसको परिस्थिति की गंभीरता का आकलन करना नहीं आता था और दूसरे एक सन्त जो शान्त भाव से आँखें मूँदे बैठे थे । बच्ची इस परिस्थिति में भी विमान के हिचकोलों को झूला झूलना समझकर हंसते हुए तालियाँ बजा रही थी । सन्त ही एक मात्र ऐसे थे जो इस प्रतिकूल परिस्थिति को संयोग समझते हुए शांत बैठे थे । वे बाहर के संसार का त्याग कर अपने भीतर चले गए थे क्योंकि वे जानते थे कि इस संयोग का भी वियोग होना निश्चित है । हाँ, यह सत्य है कि प्रत्येक संयोग का वियोग होना निश्चित है । संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है । परिस्थितियां निश्चित रूप से बदलती है । यह विमान भी उस प्रतिकूल परिस्थिति (वायु-चक्र) से बाहर निकल आया और सुरक्षित उतर गया ।

            इस संयोग-वियोग को जो समझ जाता है, वह योग को उपलब्ध हो जाता है । संसार दुःखालय है, क्योंकि हम इसमें सुखासक्ति कर बैठे हैं । सुख की आशा में यहाँ दुःख से हमारा बार - बार संयोग होता रहता है । दुःख के प्रत्येक संयोग का भी एक दिन वियोग होना निश्चित है । हमें बार - बार संसार (दुःख) से संयोग नहीं करना है बल्कि इससे स्थाई वियोग कर योग तक पहुंचना है ।योगका फिर वियोग नहीं हो सकता । 

      गीता में बार-बार आने वाला शब्दयोगबड़ा महत्वपूर्ण है । योग का शाब्दिक अर्थ है - किसी के साथ जुड़ना । एक का दूसरे एक के साथ जुड़ कर एक हो जाना ही योग है । गीता में प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर उस अध्याय का नामकरण किया गया है, उसमें भी संबंधित विषय के आगे योग शब्द आता है जैसे प्रथम अध्याय अर्जुन विषाद-योग है, दूसरा सांख्य-योग है आदि । विषाद-योग से तात्पर्य है कि विषाद की अवस्था भी व्यक्ति को परमात्मा तक ले जा सकती है । 

         अर्जुन यदि युद्धभूमि में अपने परिजनों को देखकर मोहग्रस्त नहीं होता तो क्या उसमें विषाद पैदा होता ? जिस व्यक्ति ने स्वयं महाभारत जैसे युद्ध को आमंत्रित किया हो वह व्यक्ति विषाद से पीड़ित हो जाए तो आश्चर्य ही होगा । इस विषाद के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण से ज्ञान पाकर अर्जुन मोहमुक्त हो सका । अगर ऐसा नहीं होता तो या तो अर्जुन युद्ध से पलायन कर गया होता अथवा वह युद्ध को एक साधारण सैनिक की भाँति ही लड़ता ।

            संसार में आदिकाल से युद्ध होते आए हैं । किन्हीं दो पक्षों के मध्य किसी बात को लेकर विवाद पैदा हो जाता है और उस विवाद का जब वार्ता से कोई निर्णय नहीं हो पाता तब युद्ध ही एक मात्र विकल्प शेष रहता है । पहले दैव और दैत्यों के मध्य युद्ध होता था फिर व्यक्ति- व्यक्ति के मध्य होने लगा और आज तो यह युद्ध प्रत्येक मनुष्य के भीतर तक पहुँच गया है । आंतरिक युद्ध ही मनुष्य के भीतर विषाद पैदा करता है जो उसको अवसाद में डूबो देता है । अवसाद की स्थिति में प्रत्येक वर्ष इस संसार में लाखों मनुष्य आत्महत्या तक कर लेते हैं ।

          मनुष्य के भीतर चल रहे युद्ध से मुक्ति पाने की राह उसे मिल नहीं रही है । इस युद्ध में शरीर रूपी रथ का रथी वह स्वयं है और इस रथ की सारथि उसकी बुद्धि है । विषाद में बुद्धि भी लकवाग्रस्त हो जाती है, वह रथ का संचालन सही प्रकार से नहीं कर पाती । ऐसे विषादग्रस्त मनुष्य को किसी मार्गदर्शक/ सारथि की आवश्यकता होती है जो उसे इस आंतरिक युद्ध से मुक्ति पाने की राह दिखला सके ।

            रथ में बैठकर जो योद्धा युद्ध लड़ता है वह रथी कहलाता है और रथ को संचालित करने वाला सारथि । सारथि प्रायः युद्ध में भाग नहीं लेता, वह युद्ध में हथियार नहीं उठाता । सारथि की भूमिका केवल कुशलता पूर्वक रथ के संचालन की होती है । युद्ध में सारथि की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है । सारथि और रथी, दोनों के मध्य सामंजस्य हो तो कितना भी कठिन युद्ध हो, जीता जा सकता है । त्रेता में रथी दशरथ की सारथि कैकेयी थी, जिसने अंतिम चक्र में लगभग हारा हुआ युद्ध भी जितवा दिया था ।

           महाभारत युद्ध में रथ के रथी थे अर्जुन और उनके सारथि थे श्रीकृष्ण । रथी के निर्देश पर सारथि रथ का संचालन करता है । कुरुक्षेत्र में युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व अर्जुन ने अपने सारथि श्रीकृष्ण को कहा कि वे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जाकर खड़ा करे जिससे वह भलीभाँति देख सके कि उसे किन-किन योद्धाओं के साथ युद्ध करना है । सारथि बने श्रीकृष्ण ने ऐसा ही किया । अर्जुन ने जब प्रतिद्वंद्वी सेना के महारथियों को देखा तो विचलित हो गया । उस सेना में उसके पितामह थे, गुरु थे, कोई चाचा था, कोई साला था, कोई ससुर था यानि जितने भी योद्धा थे उनमें से प्रायः उसके सम्बन्धी ही थे ।

            कुरुक्षेत्र की भूमि पर लड़ा गया युद्ध कोई साधारण युद्ध नहीं था, तभी उसे महाभारत कहा जाता है । सम्भवतः इतिहास का यह प्रथम महायुद्ध रहा होगा जो एक ही वंश के भाइयों - भाइयों के मध्य लड़ा गया था । युद्ध में जब दोनों ओर एक ही परिवार के सदस्य और परिजन हो तो युद्ध की संभावित विभीषिका की कल्पना कर किसी न किसी का तो विषाद ग्रस्त होना निश्चित है । जब विषाद अपनी सीमा से अधिक बढ़ जाता है तब वह अवसाद को आमंत्रित करता है, फिर मनुष्य कुछ भी करने की स्थिति में नहीं रहता । विषाद की अवस्था में मनुष्य खड़े रहने की स्थिति में भी नहीं रहता, युद्ध लड़ना तो बहुत दूर की बात है । विषाद में डूबे अर्जुन ने भी हथियार डाल दिए थे और रथ के पिछले भाग में जाकर मुँह लटकाकर बैठ गया था ।

            मारने वाले और मरने वाले, दोनों ही उसके परिजन, ऐसी परिस्थिति में अर्जुन करे भी तो क्या करे ? अर्जुन को कोई रास्ता दिखलाई नहीं पड़ा । युद्धभूमि में रास्ता दिखलाने का कार्य सारथि का होता है । सारथि जब साक्षात् परमात्मा हो तो उनके द्वारा दिखलाया जाने वाला रास्ता प्रत्येक जीव के लिए मार्गदर्शन बन जाता है । महाभारत जैसा युद्ध भी प्रत्येक जीव के भीतर सतत चलता रहता है, जिसको जीतने का रास्ता विषादग्रस्त रहने के कारण उसकी दृष्टि में नहीं आता । जब सही मार्ग दिखलाई नहीं पड़ेगा तब मन में विषाद ही उत्पन्न होगा । मन के भीतर दीर्घकाल तक चलने वाला विषाद ही व्यक्ति को अवसादग्रस्त कर देता है ।

         युद्ध चाहे शरीर के बाहर हो रहा हो अथवा भीतर, दोनों ही युद्ध के मूल में विषमता है । इस विषमता के कारण ही व्यक्ति विषाद में घिर जाता है, जो उसके अवसाद में जाने का कारण बनता है । भीतर चल रहा युद्ध जीवन में आई विषमता के कारण होता है । युद्ध तभी जीता जा सकता है जब व्यक्ति समता में रह कर प्रत्येक विषम परिस्थिति का सामना करे । समता को ही योग कहा गया है - समत्व योग उच्यते । अर्जुन को भी भगवान ने विषाद के घेरे से बाहर निकालने के लिए समता का उपदेश दिया था । समता का अर्थ है, प्रत्येक परिस्थिति में सम रहना । 

          जीवन में विषमता आती है, समता खो देने से । समता तभी साथ छोड़ जाती है, जब हम स्वार्थवश (ममता और कामना के अनुसार) प्रत्येक परिस्थिति का आकलन करते हैं । जो हमारे मन के अनुकूल होता है वह हमें अच्छा लगता है । अनुकूल के मिलने पर हम हर्षित होते हैं और उससे बिछड़ जाने पर दुःखी । ऐसे मिलने वाले सुख-दुःख का कारण केवल हमारी मनोस्थिति है अन्यथा सुख-दुःख कहीं है ही नहीं । मूलतः हम निरपेक्ष हैं, उदासीन हैं । जीवन में परिस्थितियाँ बनती है, बिगड़ती हैं, उन परिस्थितियों को हमारा मन किस परिप्रेक्ष्य में देखता है उसी के सापेक्ष हमें अनुकूलता/प्रतिकूलता का अनुभव होता है । 

           परिस्थिति चाहे अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल, प्रत्येक परिस्थिति जीवन में दुःख को ही निमंत्रित करती है । अनुकूल परिस्थिति में जो सुख का अनुभव होता है, वह छद्म सुख है क्योंकि वह सुख शीघ्र ही दुःख में बदलने लगता है । मनुष्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से विषयों का भोग करता है । यह भोग उसे कुछ समय तक सुख का अनुभव कराता है । विषय जब किसी इंद्रिय का स्पर्श करता है, तब हमें सुख अथवा दुःख का अनुभव होता है । इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक भोग स्पर्शजन्य भोग है । भगवान गीता में कहते हैं -ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।’ (गीता -5/22) अर्थात् सभी भोग (सुख) इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होते हैं और दुःख के ही कारण हैं । 

              वास्तव में देखा जाय तो संसार में सुख नाम की कोई चीज है ही नहीं । संसार के सभी सुख दुःख की अपेक्षा से है । जब दुःख की तीव्रता कम होती है, तो हमें सुख का आभास होता है । इसी प्रकार सुख लंबी अवधि तक एक सा ही बना रहता है तो वह दुःख में बदलने लगता है । वैसे सुख-दुःख सदैव एकसे रहते भी नहीं है, रह सकते भी नहीं हैं ।

         मनुष्य के जीवन में इंद्रिय और विषय का संयोग होना केवल परिस्थितियों का निर्माण करता है । संसार की परिवर्तनशीलता इन परिस्थितियों के निर्माण में सहयोग करती है जिससे व्यक्ति को सुख अथवा दुःख का अनुभव होता है । इसी श्लोक में भगवान आगे कहते हैं -आद्यन्तवन्त: कौंन्तेय न तेषु रमते बुध: अर्थात् संयोग से पैदा होने वाले सभी भोग आदि-अन्त वाले हैं, दुःख के कारण हैं अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करते ।

            संसार और शरीर में हो रहे प्रत्येक परिवर्तन से हम अछूते हैं, कोई परिवर्तन अथवा परिस्थिति हम तक पहुँच ही नहीं सकते, यह मूल बात हैं । संसार में रहते हुए अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थितियों से संयोग-वियोग होता रहता है । हमारा मन इस संयोग-वियोग से अछूता नहीं रह पाता और यही कारण है कि हम मन के साथ लगकर सुखी-दुःखी होते रहते हैं । सुख-दुःख दोनों में से हमें दुःख सबसे अधिक विचलित करता है । इसीलिए संसार को दु:खालय कहा गया है । हमारा सबसे बड़ा भ्रम यही है कि हम दुःख से वियोग करने के स्थान पर इस दुःखालय संसार में अपने लिए सुख ढूँढ रहे हैं । 

              संसार में सुख कहीं है ही नहीं । जीवन में सुख का आना कोई विशेष परिस्थिति नहीं है कि जिसको अलग से परिभाषित करना पड़े । दुःख की तीव्रता में कमी आ जाने का नाम ही सुख है । यही सुख जब कुछ समय टिकता है तो दु:खदाई बन जाता है । कहने का अर्थ है कि दुःख की न्यूनता अथवा अधिकता ही हमें सुखी-दुःखी करती है । जब जीवन से दुःख पूर्ण और स्थाई रूप से तिरोहित हो जाता है तब जो स्थिति बनती है उसी का नाम आनंद है अर्थात् न तो सुख, न ही दुःख ।

            परिस्थितियों के सापेक्ष तीन शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं - संयोग, वियोग और योग । जब मनोनुकूल पदार्थ अथवा व्यक्ति से वियोग होता है, तब बड़ा दुःख होता है और जब पुनः उससे संयोग होता है तब हम सुख का अनुभव करते हैं । कहने का अर्थ है कि संयोग से व्यक्ति को सुख मिलता है और वियोग से दुःख । अगर हम संयोग और वियोग को सम भाव से लें तो हमें न तो संयोग सुखी करेगा और न ही वियोग दुःखी । इसी सम भाव को समता अथवा योग कहा जाता है । केवल योग ही ऐसा है जो जीव को सुख-दुःख से परे ले जाते हुए आनन्द का अनुभव कराता है ।

          संयोग-वियोग होना संसार और शरीर में ही संभव है । आत्मा तो प्रत्येक संयोग-वियोग से निरपेक्ष है । परिवर्तनशीलता ही प्रकृति का स्वरूप है । संसार और शरीर प्रकृति के अंश होने के कारण परिवर्तनशील हैं । आत्मा परमात्मा का अंश है जो अनादि हैं, शाश्वत हैं और अपरिवर्तनशील हैं । प्रकृति में हो रहे सतत परिवर्तन से ही संयोग-वियोग होते रहते हैं । जब हम स्वयं को परमात्मा का अंश न मानकर संसार का अंश मान लेते हैं, तभी संयोग-वियोग हमें विचलित करते हैं । प्रत्येक संयोग का वियोग होना अवश्यंभावी है । इसका अर्थ है कि प्रकृति में प्रत्येक संयोग का वियोग होना निश्चित है । प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ परिवर्तित हो रहा है अर्थात् उस पदार्थ से हमारा प्रतिपल वियोग हो रहा है । वियोग से पुनः संयोग होगा ही, कहा नहीं जा सकता परंतु प्रत्येक संयोग का वियोग होना निश्चित है ।

         भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में संसार के बारे में अर्जुन को कहा है -

                मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।

                नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां ग़ता: ।। 8/15 ।।

      महात्मा लोग मुझे प्राप्त करके दुःखालय अर्थात् दुःखों के घर और अशाश्वत अर्थात् नित्य बदलने वाले इस संसार में पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि वे परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं ।

           संसार को दु:खालय और अशाश्वत कहा गया है । संसार के साथ संयोग कर लेना ही दुःख के साथ संयोग करना है । मनुष्य अपने जीवन में प्रायः दुःखी ही रहता है क्योंकि उसने स्वयं को संसार का अंश समझ लिया है । संसार प्रतिपल बदल रहा है अर्थात् संसार का वियोग निरंतर हो रहा है । इसका अर्थ है कि दुःख से भी हमारा वियोग हो रहा है । इसी कोदुःख के संयोग का वियोगहोना कहते हैं । प्रश्न उठता है कि जब दुःख का वियोग निरंतर हो रहा है तो फिर भी मनुष्य दुःखी क्यों है ? उसके दुःखी होने का कारण है कि दुःख का थोड़ा सा वियोग भी उसे सुख का अनुभव करा रहा है । वह इसी सुख के और अधिक मिलने की आशा में बैठा संसार से मुक्त नहीं होना चाहता ।आज दुःख है, कल सुख होगाइसी आशा में वह सुखी-दुःखी होता रहता है । यदि हमें संसार के संयोग-वियोग का पूर्ण ज्ञान हो जाए तो हमयोगमें स्थित हो सकते हैं । योग में न तो सुख है, न दुःख, केवल आनंद ही आनंद है ।

        गीता में भगवान श्रीकृष्ण इसदुःख के संयोग-वियोग से योग तकपहुंचने का मार्ग समझाते हुए अर्जुन को कह रहे हैं -

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।। 6/23 ।।

जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसी कोयोगनाम से जानना चाहिए । उस ध्यान योग का अभ्यास न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिए । 

         जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि इस दु:खालय संसार में सुख कहीं है ही नहीं फिर भी हम इसमें सुख ढूँढ रहे हैं । केवल परिस्थितियों का संयोग-वियोग होता है और हम सुखी-दुःखी होते रहते हैं । इस संसार में संयोग केवल दुःख का ही होता है । दुःख की तीव्रता जब कुछ समय बाद कम होने लगती है तब हमें सुख का अनुभव होता है । सर्दी जब अपने चरम पर होती है तब हम दुःखी होते हैं । सर्दी में थोड़ी सी कमी आते ही हम सुख का अनुभव करते हैं । कहने का अर्थ है कि जब दुःख के संयोग का वियोग होना प्रारंभ होता है, तब हमें सुख का अनुभव होता है ।

          ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव तेअर्थात् इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले समस्त भीग (सुख) हैं वे ही दुःख के कारण है । सुख तो कुछ समय के लिए अनुभव होता है परन्तु उसके मूल में दुःख ही है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रत्येक सुख का जन्म दुःख से ही होता है । अतः दुःख से हुए संयोग से स्थाई वियोग कर लेना ही दुःख से मुक्त होना है ।

         दुःखों से संयोग, फिर वियोग और फिर पुनः संयोग, यह संयोग-वियोग का चक्र तब तक चलता रहेगा जब तक इस संसार से मुक्त नहीं होंगे । कल्पना कीजिए जब दुःख के संयोग का पूर्ण रूप से वियोग हो जाए तब किस प्रकार की परिस्थिति पैदा होगी ? दुःख के संयोग से अर्थ है दुःखालय संसार में आसक्त हो जाना, इसमें ममता कर लेना, इससे सुख की चाहना रखना । दुःख के संयोग का वियोग ही योग है अर्थात् संसार से आसक्ति, ममता, कामना का हट जाना । फिर न तो कहीं सुख है और न ही दुःख बल्कि जो अनुभवगम्य है वह है आनंद अर्थात् परमात्मा से योग । 

          प्रश्न उठता है कि संयोग-वियोग को योग में कैसे परिवर्तित किया जा सकता है जिससे जीवन में आनंद ही आनंद हो ? आख़िर इस दुःख से संयोग का वियोग कैसे होगा ? संसार से मुक्त हो जाना और दुःख से हुए संयोग का वियोग हो जाना, दोनों एक ही बात है । जब तक संसार से चिपके रहेंगे तब तक दुःखों से संयोग बना रहेगा । गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 

         मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा ।

         आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।।2/14।।

अर्थात् हे कुन्तीनन्दन ! इंद्रियों के विषय तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) के द्वारा सुख-दुःख देने वाले हैं तथा आने-जाने वाले और अनित्य हैं । हे अर्जुन ! तुम उनको सहन करो ।

         मनुष्य को निरंतर हो रहे पारिस्थितिक परिवर्तन को समझना चाहिए । अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती जाती रहती है । इनको तटस्थ भाव से स्वीकार करना चाहिए । संसार में संयोग-वियोग चलता रहता है । संसार और शरीर प्रकृति के अंश है और पदार्थ से बने हैं । पदार्थ में प्रकृति के तीन गुणों के कारण क्रियाएँ निरंतर चलती रहती है, जिससे पदार्थ अपना रूप परिवर्तित करता रहता है । पदार्थों में हो रहा यह परिवर्तन ही विभिन्न परिस्थितियों का निर्माण करता है । 

           जो परिस्थिति मनुष्य को दुःखी करती है वह उसके लिए प्रतिकूल होती है और जो उसे सुख देती है, वह उसके लिए अनुकूल । अनुकूल परिस्थिति भी पदार्थ/व्यक्ति के रूप बदलते ही प्रतिकूल परिस्थिति में बदल जाती है और फिर यही प्रक्रिया पुनः दोहराई जाती है अर्थात् अनुकूल से प्रतिकूल और पुनः अनुकूल-प्रतिकूल । मनुष्य का इस परिस्थिति-चक्र से मुक्त होना मुश्किल है ।

       प्रत्येक परिस्थिति अस्थाई है, इसलिए मनुष्य को परिस्थिति के अनुसार सुखी-दुःखी नहीं होना चाहिए ।  परिस्थिति परिवर्तन से विचलित होना ही उसके लिए मुक्ति के द्वार बंद कर देता है । प्रश्न उठता है कि हमें प्रत्येक परिस्थिति में क्या करना चाहिए जिससे हम सुखी-दुःखी न हों

           अनुकूल परिस्थिति जो सुख का अनुभव कराती है । सुख पाकर हमें बोराना नहीं है बल्कि ऐसी स्थिति में उदार हो जाना चाहिए । उदार होने से अर्थ है, जिस संसार से हमें सुख मिला है उस संसार की सेवा करनी चाहिए । सेवा सुख को द्विगुणित कर देती है, बढ़ा देती है । संसार की सेवा करना ही हमें आनन्द की अवस्था तक ले जा सकता है । इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थिति में दुःखी नहीं होना चाहिए । प्रतिकूल परिस्थिति में हम दुःखी होते हैं , सुख को पाने की चाहना, कामना के कारण । हमें सुख की चाहना का त्याग कर देना चाहिए फिर कोई भी प्रतिकूल परिस्थिति हमें दुःखी नहीं कर सकती ।

                 अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से मुक्ति अर्थात् संसार से वियोग । संसार से हमारा प्रतिपल वियोग ही हो रहा है परन्तु हम मूर्ख बने बैठे है और इसको समझ नहीं पा रहे हैं। हम संसार के अंश नहीं है, इससे वियोग होना ही हमें योग की अवस्था तक ले जाता है अर्थात् हमें हमारे मूल स्वरूप का ज्ञान करा देता है । इसलिए जीवन में प्रत्येक परिस्थिति में समता नहीं खोनी चाहिए । भगवान ने गीता में समता को ही योग कहा है ।

         योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय ।

         सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। गीता -2/48 ।।

               हे धनंजय ! तू आसक्ति का त्याग कर के सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है ।

         क्रियाशीलता प्रकृति का स्वभाव है । प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है । उस प्रतिक्रिया को ही हम क्रिया का परिणाम कहते हैं । क्रिया और प्रतिक्रिया दोनों ही प्रकृति में होती है ऐसे में उनसे विचलित होना हमारी मूर्खता है । प्रकृति में हो रही कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया हम तक अर्थात् स्वरूप तक पहुँच ही नहीं सकती । शरीर का कष्ट शरीर ही झेलता है, वही प्रतिक्रिया देता है हमें तो उस कष्ट में भी सम रहना है । इस प्रकार स्पष्ट है कि क्रिया और प्रतिक्रिया दोनों से ही प्रभावित न होना ही समत्व है और समत्व को ही योग कहा जाता है ।

            संसार के सभी प्राणी कर्म करने को विवश हैं । प्रत्येक कर्म किसी न किसी फल की आशा से ही किया जाता है । कर्म का परिणाम मनोनुकूल हो गया तो हम प्रसन्न होते हैं और चाहना के विपरीत मिलता है तो दुःखी । चाहना के अनुकूल मिले परिणाम को सिद्धि कहा जाता है और विपरीत परिणाम को असिद्धि । सिद्धि अथवा असिद्धि जो भी कर्म का परिणाम हो उसे बिना किसी विचलन के स्वीकार करने का नाम ही समता में रहना है ।

            कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में विचलन क्यों होता है ? क्योंकि हम कर्मों को करने से पूर्व मनोनुकूल परिणाम मिलने के बारे में आश्वस्त होते हैं । इस प्रकार की फ़लासक्ति ही हमें समता में नहीं रहने देती । इसलिए कर्म को करने से पूर्व फल की आसक्ति का त्याग कर देंगे तो उसकी सिद्धि-असिद्धि में विचलित नहीं होंगे । फल में आसक्ति का त्याग कर सिद्धि-असिद्धि में सम रहना ही योग में स्थित हो जाना है । इस प्रकार योग में स्थित होकर किए जाने वाले कर्म के परिणाम से हम कभी विचलित नहीं होंगे । 

         स्वामीजी कहते हैं कि किसी एक वस्तु या व्यक्ति में आसक्ति अर्थात् राग होता है तो दूसरी वस्तु अथवा व्यक्ति में द्वेष होना स्वाभाविक है । राग-द्वेष के रहते समता का आना असम्भव है । अतः सर्वप्रथम राग-द्वेष का मिटना आवश्यक है । राग-द्वेष के न रहने पर जो समता आती है, उस समता में स्थित होकर कर्तव्य-कर्मों को करना चाहिए । इस समता रूपी योग में स्थित हुआ व्यक्ति कभी विचलित नहीं होता ।

           मनुष्य परिस्थिति में होने वाले परिवर्तन से विचलित होता है क्योंकि उसमें धैर्य का अभाव है । प्रतिकूल परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए वह अथक प्रयास करता है और जब उसका प्रयास सफल नहीं होता तो उसका धीरज जवाब दे देता है । धैर्य धारण करना बुद्धि के अधीन है, इसलिए व्यक्ति को अपनी बुद्धि को धैर्ययुक्त करना चाहिए । भगवान गीता में कहते हैं - 

शनै: शनैरूपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।

आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ।। 6/25 ।।

धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा संसार से धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि) को परमात्म स्वरूप में सम्यक् प्रकार से स्थापन करके फिर कुछ भी चिंतन न करे ।

          बुद्धि धैर्ययुक्त कैसे होगी बुद्धि को धैर्ययुक्त करने के लिए राग-द्वेष से बाहर निकलना होगा । किसी एक वस्तु विशेष के प्रति राग होता है तो दूसरी वस्तु के प्रति द्वेष होना स्वाभाविक है । संसार के राग-द्वेष से मुक्त होने को संसार से उपराम (विरक्त) होना कहते हैं । संसार से उपराम होने  के लिए हमें पहले अपनी बुद्धि में यह निश्चित करना होगा कि संपूर्ण संसार एक परमात्म-तत्व से परिपूर्ण है । एक परमात्मा के अतिरिक्त किसी दूसरे की सत्ता नहीं है । इस प्रकार निश्चय करने से संसार से आसक्ति हट जाएगी । संसार से विरक्त होते ही अर्थात् उपराम होते ही एक अभय अवस्था का निर्माण हो जाता है, जो मनुष्य को विचलित अर्थात् सुखी-दुःखी नहीं होने देती ।  

            जब तक राग-द्वेष रहेंगे तब तक बुद्धि में किसी न किसी बात का चिंतन चलता रहेगा ।  राग-द्वेष से मुक्त न हो पाने के कारण व्यक्ति को वांछित परिणाम नहीं मिलता और वह धैर्य खो बैठता है । इसलिए सर्वप्रथम बुद्धि को धैर्ययुक्त करने का कहा गया है । संसार से उपराम होने का अर्थ है राग-द्वेष से परे हो जाना । जब संसार में राग-द्वेष नहीं रहेगा तो बुद्धि भी अचिंतनीय अवस्था में आ जाएगी । संसार से उपराम होने के पश्चात् सर्वत्र केवल एक परमात्मा ही होंगे । 

        इस अवस्था में बुद्धि के द्वारा न तो संसार का चिंतन करना है और न ही परमात्मा का । यदि हम परमात्मा का चिंतन करते हैं तो साथ में संसार का चिंतन अवश्य ही होगा । इसका अर्थ है कि संसार के राग-द्वेष से अभी भली प्रकार से मुक्त नहीं हुए हैं । धैर्ययुक्त बुद्धि को परमात्मा में भली-भांति स्थापित करना है और चिंतन किसी का नहीं करना है । फिर भी इस साम्य अवस्था में संसार का चिंतन कभी कभार बुद्धि में आ भी जाता है तो उसकी उपेक्षा ही करनी है । संसार का चिंतन होने लगे तो बुद्धि को पुनः परमात्म-स्वरूप में स्थापित करें । 

            ऐसे अभ्यास से एक अवस्था ऐसी आती है, जब किसी का भी चिंतन नहीं होता । जब संसार का चिंतन नहीं होगा तो परमात्मा का चिंतन स्वतः होगा और यह परमात्म-चिंतन ऐसा होगा जिसके चिंतन होने का आभास तक नहीं होगा । इस प्रकार ध्यान-मार्ग से संसार से हुए संयोग का वियोग किया जा सकता है । इस मार्ग में सबसे बड़ी कठिनाई धैर्य धारण करने की है । 

         संसार के साथ तादात्म्य ही दुःख के साथ संयोग है । इस संयोग का वियोग हो जाना ही योग है । संसार के साथ किए गए संयोग का वियोग होते ही परमात्मा के साथ योग हो जाता है । संसार अशाश्वत और दुःखों का घर है । अशाश्वत होने के कारण संसार से शरीर को संयोगजन्य सुख-दुःख मिलते है । यदि जीव संसार के साथ संयोग नहीं करे तो संसार के सुख-दुःख उस तक नहीं पहुंच सकते । संसार और शरीर अपरा प्रकृति है जबकि जीव परा प्रकृति है । अपरा प्रकृति परिवर्तनशील है । उन परिवर्तनों का प्रभाव अपरा प्रकृति तक ही सीमित रहता है, परा प्रकृति ऐसे परिवर्तनों से अप्रभावित रहती है । 

         इससे स्पष्ट है कि अपरा के परिवर्तित होने से परा को विचलित नहीं होना चाहिए । परंतु परा का अपरा से हुआ संयोग ही अपरा में हुए परिवर्तन से स्वयं को सुखी-दुःखी होना अनुभव करने लगता है । ऐसे छद्म अनुभव से मुक्त होने के लिए अपरा से किए संयोग का वियोग करना होगा । अपरा से परे होते ही परा को अपने वास्तविक शाश्वत स्वरूप का अनुभव हो जाएगा । 

       अपरा प्रकृति अर्थात् संसार से वियोग करने के लिए हमें संसार को जानना होगा । संसार को जानने से अर्थ है, इसमें सतत हो रहे परिवर्तन का अवलोकन करना । यह अवलोकन संसार से स्वयं को भिन्न मानने से ही हो सकता है । संसार की वास्तविकता उससे भिन्न होते ही स्पष्ट हो जाती है और फिर से उसके साथ संयोग करने की सोच भी नहीं सकेंगे ।

            संसार में शरीर के रूप में जन्म लेने का महत्वपूर्ण कारण है - पूर्व मनुष्य जीवन में अपूर्ण रही कामनाएं । उन अपूर्ण कामनाओं को पूरा करने के लिए इस शरीर से प्रारब्धवश कर्म होते हैं । हम उन कर्मों से मिले परिणाम (भोग) के प्रति अहंता और ममता पाल लेते हैं । अहंता अर्थात् कर्तापन और ममता अर्थात् परिणाम (भोग) के प्रति आसक्त होना । कर्तापन - यह कर्मफल मेरे प्रयासों का परिणाम है । ममता - इस परिणाम पर मेरा अधिकार है अर्थात् यह भोग मेरे लिए है ।

         अहंता और ममता, नई-नई कामनाओं को जन्म देती है और फिर से नए कर्म किए जाते हैं । जीवन में कामना अपूर्ण रह जाएगी तो फिर से नया प्रारब्ध बनेगा जो जीव को इस संसार में नए-नए शरीरों में घुमाता रहेगा और उसे आवागमन से मुक्त नहीं होने देगा । यह सब संसार से संयोग का परिणाम है ।

          संसार से मुक्त होने का नाम हीदुःख के संयोग का वियोगहै । संसार के संयोग को वियोग में बदलने के लिए कामनाओं पर नियंत्रण आवश्यक है । जब तक कामनाओं का अंत नहीं होगा, तब तक दुःख के संयोग का वियोग नहीं होगा । जीवन में कामनाएं आज तक किसी की भी पूरी नहीं हुई है क्योंकि ज्योंही लगता है कि यह कामना पूरी होने ही जा रही है, तत्क्षण दूसरी कामना भीतर जन्म लेने लगती है । इस प्रकार मनुष्य एक-एक कर कामनाओं को पूरा करने में जुट जाता है और सांसारिक बियाबान में उलझकर जीवन भर भटकता रहता है ।

          कामना के कारण ही मनुष्य कर्म करने को उद्यत होता है । प्रत्येक कर्म का एक निश्चित परिणाम होता है । कर्म से तीन प्रकार के परिणाम मिल सकते हैं - इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित । जो हम नहीं चाहते वह अनिष्ट फल है जैसे - परिवार में मृत्यु हो जाय, व्यापार में हानि हो जाय, बीमार हो जाय आदि । जैसा हम चाहते हैं वैसा हो जाता है तो यह कर्म का इष्ट परिणाम है  जैसे - धन मिल जाय, मान-प्रतिष्ठा हो जाय आदि । तीसरा परिणाम मिश्रित होता है जैसे कुछ लाभ हुआ, कुछ हानि हुई, बीमारी के इलाज से कुछ स्वास्थ्य लाभ हुआ परंतु पूर्ण स्वस्थ नहीं हो पाए आदि । 

         इष्ट परिणाम से अनुकूल परिस्थिति का अनुभव होता है और अनिष्ट परिणाम से प्रतिकूल परिस्थिति बनती है । मिश्रित फल में अनुकूलता प्रतिकूलता, दोनों का अनुभव होता है । प्रत्येक परिस्थिति तभी तक हमें प्रभावित करती है, जब तक भीतर कामनाएं भरी हैं । कामनाओं से मुक्त हो जाएँ तो फिर कोई परिस्थिति हमें विचलित नहीं कर सकती । भगवान गीता में कहते हैं - 

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम् ।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ।। 18/12 ।।

        अर्थात् कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों को कर्मों का इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित - ऐसे तीन प्रकार का फल होता है; परन्तु कर्मफल का त्याग करने वालों को कहीं भी नहीं होता ।

           सनातन धर्म में त्याग का बड़ा महत्व है । त्याग से तत्काल शान्ति मिलती है । शान्त-जीवन से बड़ा सुख कोई दूसरा नहीं है । प्रारब्धवश प्रत्येक प्राणी को कर्म करने ही पड़ते हैं । कर्म से जो फल मिलता है उसको प्रकृति के साथ बने तादात्म्य के कारण जीव को भोगना ही पड़ता है । कर्म से मिले फल में पैदा हुई आसक्ति के कारण ही मनुष्य में नई-नई कामनाओं का अंकुरण होता है । 

           यदि हम कर्म के परिणाम (फल) का त्याग करदें तो नई कामनाओं का जन्म लेना थम जाएगा । जब नई-नई कामनाएं पैदा ही नहीं होंगी तो कर्म जाल में उलझने से जीव बच जाएगा । अनिष्ट और मिश्रित कर्मफल का त्याग तो फिर भी जीव कर देता है परन्तु इष्ट कर्मफल का त्याग करना ज़रा मुश्किल होता है । इसलिए जीवन में शान्ति धारण करने के लिए प्रत्येक प्रकार के कर्मफल का त्याग करना होगा चाहे वह इष्ट कर्मफल ही क्यों न हो । गीता में भगवान कहते हैं -

      श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्-ज्ञानाद्-ध्यानं विशिष्यते ।

      ध्यानात्कर्मफलत्यागस् त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।। 12/12 ।।

   अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है ; क्योंकि त्याग से तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है ।

      प्रश्न उठता है कि प्रत्येक कर्म अपना फल देगा ही, यह निश्चित है फिर कर्मफल का त्याग कैसे हो सकता है ?

            जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि प्रत्येक कर्म का इष्ट, अनिष्ट अथवा मिश्रित - इन तीनों में से किसी एक प्रकार का फल अवश्य ही मिलता है । इष्ट फल तो सुख देने वाला होता है, अनिष्ट फल दुखदाई होता है जबकि मिश्रित फल में सुख-दुःख दोनों का अनुभव होता है । इष्ट फल और अधिक तथा बार-बार मिले, ऐसी इच्छा होती है । अनिष्ट फल जीवन में कभी न मिले, ऐसी इच्छा होती है । मिश्रित फल में ऐसी इच्छा होती है कि भविष्य में कर्म इस प्रकार किए जाय की केवल इष्ट फल ही मिले ।

             इतने विवेचन से स्पष्ट है कि कर्मफल का त्याग तो हो नहीं सकता परन्तु फल की इच्छा का त्याग किया जा सकता है । कर्मफल में आसक्ति ही संसार में बंधन का कारण है । गीता में भगवान कहते भी हैं -फले सक्तो निबध्यते’ (5/12) अर्थात् फल में आसक्ति ही सांसारिक बंधन का कारण है । फल में आसक्ति किसी फल (इष्ट फल) को बार-बार पाने अथवा किसी अन्य फल (अनिष्ट फल) को न पाने की इच्छा पैदा करती है । यह फलेच्छा ही कामना कहलाती है । इसी कामना से हमें मुक्त होना है ।

           कामनाओं से मुक्त होना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि हम फल के साथ बंधे रहते हैं । कर्मफल की इच्छा का त्याग करने पर ही कामनाओं से मुक्त हुआ जा सकता है । कामनाओं के संबंध में भागवत जी के सातवें स्कन्ध में प्रह्लादजी और नरसिंह भगवान के मध्य संवाद है । इस संवाद पर एक दृष्टि डालना महत्वपूर्ण होगा ।

           प्रह्लादजी हिरण्यकश्यप के पुत्र थे । राक्षस कुल में उत्पन्न होने के बाद भी वे परमात्मा के परम भक्त थे । इसी बात से क्रोधित होकर हिरण्यकश्यप ने उन्हें मारना चाहा । तब खम्भे में से भगवान नरसिंह रूप में प्रकट हुए और उन्होंने हिरण्यकश्यप को मार डाला ।  इसके पश्चात् भगवान प्रह्लादजी से वरदान माँगने को कहते हैं । प्रह्लादजी वरदान के लिए स्पष्ट रूप से मना कर देते हैं । जब भगवान बार- बार आग्रह करते हैं तब प्रह्लादजी कहते हैं -

        यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ ।

        कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ।। (भागवत - 7/10/7 )

         अर्थात् हे वरदानिशिरोमणि स्वामी ! यदि आप मुझे मुँहमांगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिए कि मेरे हृदय में कभी किसी कामना का बीज अंकुरित ही न हो ।

          प्रह्लादजी आगे कहते हैं कि कामना के कारण इंद्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य - ये सबके सब नष्ट हो जाते हैं । हे कमलनयन ! जिस समय मनुष्य अपने मन में रहने वाली कामनाओं का परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है । 

           जीवन में कामना का त्याग किए बिना मनुष्य शांति को उपलब्ध नहीं हो सकता । अशांत जीवन मनुष्य को दुःख के अतिरिक्त क्या दे सकता है ? इसलिए कामनाओं का त्याग ही संसार से हुए संयोग का वियोग करा योग तक ले जा सकता है ।

          श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान दत्तात्रेय ने अपने चौबीस गुरु बताए गए हैं । दत्तात्रेय महाराज ने अपना चौबीसवाँ गुरु पिंगला नाम की वैश्या को माना है । गुरु वह होता है, जिससे कोई न कोई ज्ञान मिलता है और जो जीवन- मुक्ति में सहायक होता है । प्रश्न उठता है कि वैश्या और गुरु ! भला ऐसा कैसे हो सकता है ?

            जीव का शरीर प्रकृति का अंश है, उसमें परिवर्तन आना अवश्यंभावी है । इसी प्रकार मनुष्य अर्थात् स्त्री और पुरुष के भी शरीर है । उस शरीर में युवावस्था आती है, बढ़ती है तो एक दिन ढलती भी है । जिसने अवस्था के चढ़ाव-ढलाव को समझ लिया वह फिर इस शरीर से आशा रखना छोड़ देता है । उसमें शरीर के सौष्ठव का अहंकार नहीं रहता । 

          पिंगला के पास भी स्त्री का शरीर है, उसमें भी युवावस्था आई । स्त्री की युवावस्था पुरुष को आकर्षित करती ही है । उस शरीर के आकर्षण ने पिंगला को गणिका बना दिया । वह प्रतिदिन अपने घर के द्वार पर खड़ी हो जाती और किसी पुरुष का इंतज़ार करती । समय बीतता गया और एक दिन वह अपने द्वार पर खड़ी-खड़ी किसी पुरुष का इंतज़ार करती ही रह गई । वह आशा लगाए कई देर तक खड़ी रही । उस दिन कोई पुरुष उसके पास नहीं आया । अन्ततः उसने आशा छोड़ दी और जाकर सो गई । उस दिन उसे असीम सुख का अनुभव हुआ । उसकी दशा देखकर दत्तात्रेय जी ने उसको गुरु मानते हुए ज्ञान ले लिया -  ‘आशा हि परमं दुःखं नैराश्य परमं सुखम् ।आशा का वियोग ही मनुष्य को शान्ति उपलब्ध कराता है ।

         भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को प्रत्येक कामना का त्याग करने का कहते है - 

विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह ।

निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति ।। 2/71।।

       जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंतारहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है ।

            जो कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा स्वाभाविक क्रिया के कारण होते हैं, उन्हें अपने द्वारा करना मानना ही अहंता है । कर्म से मिले फल को केवल अपने लिए मानना ही उसमें ममता करना है । जीवन के लिए उस फल को आवश्यक समझ कर सदैव उसको पाने के प्रयास में मन लगाए रहना स्पृहा है ।

            प्रत्येक कर्म एक तरफ़ तो कामना से जुड़ा होता है और दूसरी तरफ़ फल से जुड़ा होता है । जब कर्म में अहंता और उसके फल में ममता हो जाती है तब उस फल को स्वयं के लिए बार-बार पाने की मन में स्पृहा पैदा होती है जो फिर से नई कामना को जन्म देती है । इस प्रकार कामना से कर्म, कर्म से फल, फल में ममता, फिर स्पृहा, कामना और पुनः कर्म । इस प्रकार कामना और कर्म का एक अटूट चक्र बन जाता है, जिससे बाहर निकलना जीव के लिए असम्भव हो जाता है ।

          कामना का त्याग करते ही अहंता, ममता और स्पृहा से मुक्ति मिल जाती है और जीव शान्ति को पा लेता है । कामना ही कर्म के माध्यम से जीव को संसार की आपाधापी (अशान्ति) में उलझा देता है क्योंकि प्रत्येक कर्म व्यक्ति के समक्ष विभिन्न परिस्थितियां पैदा करता है और मनुष्य उन परिस्थितियों में जीवनभर उलझा रहता है ।

         कर्मों का फल भले ही कैसा हो, वे मनुष्य के समक्ष केवल परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रत्येक जीव के समक्ष अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां आएंगी ही, उन्हें कोई रोक नहीं सकता, लेकिन आने वाली परिस्थितियों का हमारे ऊपर तनिक भी प्रभाव न पड़े, यह अपने हाथ की बात है । प्रत्येक परिस्थिति अनित्य है, आज जो परिस्थिति है वह कल नहीं रहेगी । हमारे समक्ष जैसी भी परिस्थिति आए, हम प्रसन्न अथवा दुःखी न हो तो हम योगी हो जायें, जीवन्मुक्त हो जायें, अमरता को प्राप्त हो जायें, तत्वज्ञ हो जायें । परिस्थितियों से प्रभावित होकर हम राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि में फँस जाते हैं । हमारे भीतर राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि न हों, इसमें हम स्वतंत्र हैं ।

           सिद्धि-असिद्धि, राग-द्वेष आदि द्वन्द्व जीवन में आते ही इसीलिए है क्योंकि हम परिस्थिति के वश में हो जाते हैं । परिस्थिति अनित्य है, कल बदल जाएगी परंतु यह ज्ञान हम भूल जाते हैं और परिस्थिति के साथ बहने लग जाते हैं । परिस्थिति के साथ तभी नहीं बहेंगे जब हम समता में रहेंगे अर्थात् प्रत्येक प्रकार के द्वंद्व से परे रहेंगे । ऐसा होना तभी संभव हो सकता है जब हमारा संसार के संयोग से वियोग हो जाता है । जरा विचार कीजिए - अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां आती-जाती रहे और उनका हमारे ऊपर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़े, तो क्या वे स्वतः ही मूल्यहीन नहीं हों जाएंगी ?

          स्वामीजी इन परिस्थितियों के बारे में एक बड़ी मार्मिक बात बताते हैं । कहते हैं कि मनुष्य के समक्ष जो भी परिस्थितियां आती है, उनका वियोग नित्य है । इसका अर्थ है कि परिस्थितियां अनित्य है । परिस्थितियों के वियोग को स्वीकार कर लें तो नित्य-तत्व में स्थिति का अनुभव हो जाएगा । परिस्थितियां तो आने-जाने वाली है और हम सदा रहने वाले हैं । अनुकूलता में राज़ी हो गए, प्रतिकूलता में दुःखी हो गए, तो इसका अर्थ है कि हमने परिस्थिति को पकड़ लिया है । 

            परिस्थितियों को पकड़ना नहीं है । परिस्थितियों से सुखी-दुःखी नहीं हों बल्कि उनको सहन कर लें । महापुरुषों के समक्ष भी ऐसी परिस्थितियां आती हैं, लेकिन वे उन्हें सहन कर लेते हैं जिससे उन पर परिस्थितियों का तनिक सा भी असर नहीं पड़ता । 

         हमारे दो आयाम हैं - बाहर का और भीतर का । परिस्थितियां बाहर के आयाम पर बनती हैं, वे भीतर प्रवेश नहीं कर सकती । बाहर तो परिस्थिति प्रत्येक शरीरधारी पर अपना प्रभाव डालती ही है परंतु समता में स्थित व्यक्ति भीतर से अप्रभावित बना रहता है । जैसे सर्दी की परिस्थिति में बाहर से तो प्रत्येक जीव का शरीर प्रभावित होगा परन्तु भीतर से अप्रभावित केवल समता में रहने वाला ही रहेगा क्योंकि वह जानता है कि सर्दी अनित्य है, वह उसे सहन कर लेगा ।

          परिस्थितियों का संयोग-वियोग अनित्य है और समता नित्य है । समता में हमारी स्थिति सदा से है । जिन व्यक्तियों का मन साम्यावस्था में स्थित हो गया, उन्होंने जीवित अवस्था में ही संसार को जीत लिया, वे संसार से ऊपर उठ गए, जीवन्मुक्त हो गए । यही दुःख के संयोग का वियोग है, जो योग कहलाता है ।

          भगवान गीता में कहते हैं -पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान्‘ (13/21) अर्थात् प्रकृति में स्थित पुरुष (जीव) ही प्रकृति के गुणों का भोक्ता बनता है । प्रकृति के तीन गुणों का संग कर लेना अर्थात् इन गुणों में आसक्ति रखना ही जीव का प्रकृति में स्थित होना है । प्रकृति में हो रही विभिन्न क्रियाओं के मूल में उसके गुण ही हैं । इन गुणों के कारण होने वाली विभिन्न क्रियाओं को जीव अपने द्वारा की जानी मानने लगता है और इनका कर्ता बन बैठता है । ऐसी क्रियाओं का परिणाम ही प्रकृतिस्थ पुरुष को सुख-दुःख का अनुभव कराता है । 

               न तो प्रकृति में कोई सुख-दुःख है और न ही जीव में । प्राकृतिक गुणों के कारण हो रही क्रियाएं प्रकृति में विभिन्न परिस्थितियों (अनुकूल-प्रतिकूल) का केवल निर्माण करती हैं । कोई भी परिस्थिति मूल स्वरूप (स्व में स्थित पुरुष) तक पहुँच ही नहीं सकती । जो पुरुष प्रकृति में स्थित हो गया है अर्थात् जिसने स्वयं को प्रकृति होना मान लिया है, उसको ही इन परिस्थितियों के कारण सुख-दुःख का अनुभव होता है । प्रकृति में परिस्थितियां पल पल बदलती रहती है । अतः प्रत्येक परिस्थिति का वियोग होना निश्चित है । यह सत्य है । 

           परिस्थिति के संयोग और वियोग में सुखी-दुःखी होना जीव के स्वयं के हाथ में है । परिस्थितियां तो आएंगी जाएंगी, उनको दृष्टा भाव से देखते रहना ही मनुष्य को सुखी-दुःखी होने से रोक सकता है । ऐसा होना केवल समता में रहने से ही संभव हो सकता है । समता दुःख के संयोग का वियोग करा देती है । इसीलिए गीता में दुःख से हुए संयोग के वियोग को ही योग कहा गया है ।

           हमने अभी तक संसार के संयोग के वियोग की बातें की हैं । साथ ही वियोग करने के उपायों पर भी चर्चा की है । सभी के मूल में एक ही बात महत्वपूर्ण है - कर्म । जिन कर्मों को हम अपने शारीरिक सुख की प्राप्ति के लिए करते हैं, ज्ञान की दृष्टि से देखें तो वे सब प्रकृति के गुणों द्वारा होने वाली क्रियाएँ मात्र हैं । गुणों के कारण होने वाली क्रियाओं को अपने द्वारा और उस क्रिया की प्रतिक्रिया (फल) को अपने लिए मान लेना ही संसार के साथ बने संयोग को दृढ़ता प्रदान करता है । ऐसे संयोग का वियोग करना असंभव है क्योंकि क्षण भर के लिए हुआ वियोग मनुष्य को पुनः संयोग करने के लिए उद्वेलित करता ही है ।

               क्रिया का मूल कारण गुण है । मनुष्य के इस संयोग का भी मूल कारण गुण है । गुणों के साथ संबंध बना लेना ही दुःखों को निमंत्रित करना है । प्रकृति के गुणों के कारण संसार के साथ हुए संयोग से वियोग करने के लिए इन गुणों से सम्बन्ध विच्छेद करना होगा । इस अवस्था को प्राप्त कर लेना ही गुणातीत हो जाना है । भगवान गीता में कहते हैं -

    गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।

    जन्ममृत्युजरादुखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ।।14/20 ।।

        अर्थात् देहधारी (विवेकी मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले प्रकृति के इन तीनों गुणों (सत्व, राज, तम) का अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थारूप दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है ।

           कहने का अर्थ है कि गुणातीत होकर मनुष्य जीवित अवस्था में ही संसार के साथ बने संयोग के वियोग का अनुभव कर सकता है ।

           प्रकृति के गुणों के साथ सम्बन्ध बना लेने से ही व्यक्ति संसार के साथ बंध जाता है । सांसारिक बन्धन के कारण ही प्रकृति के गुणों से होने वाली क्रियाओं को वह अपने में अनुभव करने लगता है जिसके कारण वह प्रभावित होता है । वास्तव में क्रियाओं के कारण होने वाली अनुभूतियाँ केवल शरीर तक ही सीमित रहती है, स्वरूप तक नहीं पहुँच सकती ।

            ये अनुभूतियां तीन प्रकार की होती हैं - दुःख, सुख और आनन्द । सुख और दुःख की अनुभूतियां बाहर से होती है, संसार से होती हैं । बाहर कुछ मिल जाए तो सुख होता है, न मिले अथवा मिलकर खो जाए तो दुःख होता है । भूलकर भी सुख को आनन्द न समझ लें । आनन्द का अर्थ है - सुख, दुःख दोनों का अभाव अर्थात् न सुख न दुःख । जहां सुख- दुःख दोनों ही नहीं है, वैसी चित्त की परिपूर्ण शान्त स्थिति ही आनन्द की अवस्था है । जब हमारा चित्त बाहर की किसी भी परिस्थिति से प्रभावित नहीं होता, उस स्थिति का नाम आनन्द है । इस आनन्द को ही योग कहा जाता है ।

         आनन्द की अवस्था तक पहुँचने के लिए गुणों के साथ बनाए गए सम्बन्ध को तोड़ना होगा । इस सम्बन्ध के टूटते ही संसार-बन्धन से मुक्त हो जाएंगे । यह अवस्था ही गुणातीत अवस्था है । गुणातीत अवस्था को उपलब्ध होने के लिएकरनाका त्याग करहोनास्वीकार करना होगा । जिस प्रकृति के गुणों से होने वाली क्रिया को हम अपने द्वारा किये जाने वाले कर्म मानते हैं, वहकरनाहै और उन्हें केवल प्रकृति में होने वाली क्रिया मान लें तो यहहोनाहै ।होनामान लेना ही प्रकृति के गुणों से सम्बन्ध विच्छेद कर लेना है ।

            प्रकृति प्रदत्त गुणों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेने के पीछे क्रिया से मिलने वाला सुख है । इंद्रियों और विषयों के संयोग से गुणों के कारण जो क्रिया होती है, उसका परिणाम ही भोग कहलाता है । उस क्रिया से पहले भी दुःख था और क्रिया से प्राप्त हुए भोग को भोगने पर भी अंततः दुःख ही मिलेगा । क्रिया जब तक क्रिया रहेगी तब तक कोई दुःख नहीं है परन्तु जब क्रिया को कर्म बनाने का प्रयास करेंगे तो उसमें परिश्रम होगा । यह परिश्रम ही भोग मिलने से पूर्व मनुष्य के दुःख का कारण है । परिश्रम के उपरान्त जो कर्म का परिणाम मिलता है, वह परिणाम ही सुख का अनुभव कराता है । सुख केवल इसलिए नहीं होता कि परिणाम अनुकूल मिला बल्कि इसलिए भी अनुभव होता है क्योंकि परिश्रम का कष्ट भी मिट जाता है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि सुख का अनुभव होना कष्ट (दुःख) की तीव्रता पर निर्भर है । 

           स्वामीजी भी कहते हैं कि भोग के पहले भी दुःख है और अन्त में भी दुःख है । पहले दुःख हुए बिना भोग सुख दे ही नहीं सकता जैसे भूख का दुःख बढ़िया भोजन मिल जाने पर सुख का अनुभव कराता है । भूख की तीव्रता का दुःख न हो तो बढ़िया भोजन भी सुख नहीं देता । स्पष्ट है कि भोगों का सुख लेने के लिए पहले दुःख का होना आवश्यक है ।

           मनुष्य भोग के आरम्भ को ही अधिक महत्व देता है । यदि वह भोग के अन्त की अवस्था को ठीक तरह से देख ले तो उसका भोग में कोई आकर्षण नहीं रहेगा । गीता में भगवान कहते हैं कि जो सुख इंद्रियों और विषयों के संयोग से होता है, वह आरम्भ में अमृत की तरह और परिणाम में विष की तरह प्रतीत होता है; वह सुख राजस कहा जाता है । (गीता -18/38)

            स्वामीजी कहते हैं कि संसार के जितने भी सुख हैं, उनका फल दुःख होगा ही - यह नियम है । मनुष्य इंद्रियों और विषयों के संयोग से गुणों में क्रिया के परिणाम से जो भोग प्राप्त होता है, उसके प्रारम्भ को तो देखते हैं परन्तु परिणाम को नहीं देखते । अगर परिणाम को पहले ही देख ले तो विवेक जाग्रत हो जायेगा । विवेक जाग्रत होने पर भोगों में सुख नहीं दिखेगा । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -हे कुन्तीनन्दन ! जो इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले भोग हैं, वे आदि-अन्त वाले और दुःख के कारण हैं । अतः विवेकशील मनुष्य उसमें रमण नहीं करता । (गीता - 5/22)

              विवेक जाग्रत हो जाने पर मनुष्य के लिए उसके द्वारा किए जाने वाले कर्म (करना) प्रकृति के गुणों के कारण हो रही क्रिया (होना) हो जाती है । यहकरनासेहोनाकी यात्रा है । जब इसहोनासे आगे बढ़ते हैं तबहैतक पहुँच जाते हैं ।हैतक पहुँचने से अर्थ है केवल एक परमात्मा ही है, ‘करनाअथवाहोनाकहीं है ही नहीं ।  ‘करनासेहोनातक पहुँचने पर भी अहंकार का सूक्ष्म अंश मनुष्य में रह ही जाता है परंतु जब केवलहैकी स्वीकार्यता हो जाती है तब अहंकार भी गल जाता है । फिर करने/ होने से होने वाले सुख-दुःख की अनुभूति पूर्णरूप से मिट जाती है और केवल आनन्द की अनुभूति होती है । यह अवस्था गुणातीत की अवस्था है ।

              ‘अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते (गीता -3/27) का अर्थकरनासे है ।गुणागुणेषु वर्तन्ते (गीता -3/28) औरनैव किंचित्करोमीति’ (गीता -5/8) का अर्थहोनासे है । सबसे महत्वपूर्ण है  - ‘योऽवतिष्ठति नेंगते’ (गीता -14/22),  जिसका अर्थहैसे है अर्थात् एक चिन्मय सत्ता ही सम्पूर्ण क्रियाओं में परिपूर्ण है । क्रियाओं का अन्त तो हो जाता है पर चिन्मय सत्ता ज्यों की त्यों रहती है । सांसारिक संयोग के  वियोग को जो योग कहा जाता है, उसकी यह सर्वोच्च अवस्था है ।

          लेख का समापन करने से पहले कहना चाहूँगा कि योग शब्द देखने, पढ़ने, लिखने, कहने में जितना सीधा और सरल प्रतीत होता है, उतना ही इस तक पहुँच पाना कठिन है । परन्तु स्वामीजी कहते हैं कि योग को उपलब्ध होना बहुत ही सरल है, कठिन तो आपने बना रखा है; क्योंकि दुःखालय के संयोग का आप स्थाई रूप से वियोग करना ही नहीं चाहते । प्रत्येक जीव संसार में इतना अधिक आसक्त है कि यहाँ मिल रहे दुःख में भी उसे सुख का अनुभव हो रहा है । दुःख का भी सुख लेना और संसार में सुख ढूंढ़ना ही मनुष्य को संसार में उलझाए रखता है, उससे मुक्त नहीं होने देता ।

           स्वामीजी कहते हैं किसंयोग-वियोगका विभाग अलग है औरयोगका विभाग अलग है । शरीर और संसार के संयोग का वियोग तो अवश्यम्भावी है परंतुयोगका वियोग होना सम्भव ही नहीं है । संसार और शरीर सदा हमारे साथ रहेंगे नहीं और परमात्मा हमारे से अलग होंगे नहीं ।योगपरमात्मा से संबंधित होने के कारण परमात्मा का है ।

         इसीयोगका ध्यान सदैव करना चाहिए जिससे संसार के संयोग का वियोग हो सके । जीवन में अहंतारहित, ममतारहित और कामनारहित हो जायें, राग-द्वेष आदि द्वंद्व से मुक्त रहें और सिद्धि-असिद्धि, लाभ-हानि, अनुकूलता-प्रतिकूलता को सहन करना सीख जायें तो जीवन में शान्ति और समता आ जाती है । समता ही योग है जो संसार के संयोग का वियोग करा देती है ।समत्वं योग उच्यते’ (गीता - 2/28) अर्थात् समता को ही योग कहा जाता है ।

सार-संक्षेप

               मनुष्य की दृष्टि में संसार दो प्रकार के हैं - एक तो परमात्मा (प्रकृति) का बनाया संसार (सृष्टि) और दूसरा स्वयं का बनाया संसार । परमात्मा के बनाए संसार (सृष्टि) में हम मनुष्य शरीर लेकर आए हैं और हमारा शरीर उसी संसार का अंश है । प्राकृतिक गुणों के कारण जैसी विभिन्न क्रियाएं इस संसार में होती है वैसी ही क्रियाएं हमारे शरीर में भी चलती रहती है । ये क्रियाएं हमें तब तक तनिक भी प्रभावित नहीं कर सकती जब तक हम उन क्रियाओं के प्रति आसक्त नहीं होते । ज्योंही हम परमात्मा के बनाए संसार की क्रियाओं के प्रति आसक्त होते हैं त्योंही हम अपने व्यक्तिगत संसार के निर्माण की आधारशिला रख देते हैं ।

           व्यक्तिगत संसार के निर्मित होते ही उसमें हमारी ममता पैदा हो जाती है और हम अपने मूल स्वरूप को विस्मृत कर बैठते हैं । इस विस्मृति के कारण परमात्मा के बनाए शरीर और संसार में हो रही क्रियाएं हमारे निजी संसार को विभिन्न परिस्थितियों के माध्यम से प्रभावित करने लगते हैं । अनुकूल परिस्थिति में हम सुख का अनुभव करते हैं और प्रतिकूल परिस्थिति में दुःखी हो जाते हैं । सुख-दुःख का अनुभव शरीर के माध्यम से जीव को होता है क्योंकि उसने स्वयं को शरीर समझ लिया है ।

          परमात्मा के बनाए संसार (सृष्टि) का त्याग हम इस शरीर के रहते हुए नहीं कर सकते । सुख-दुःख से मुक्त होने के लिए हमें हमारे व्यक्तिगत संसार, जोकि दुःखालय है, उससे वियोग करना होगा । इस संयोग का वियोग कराने के लिए समता को धारण करना होगा, जिससे हम किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होंगे । समता से अहंता, कामना, ममता, स्पृहा आदि से मुक्त हो जाते हैं, यही दुःख के संयोग का वियोग है, जिसे शास्त्रों मेंयोगनाम से कहा गया है । संयोग से वियोग कर लेना ही योग को उपलब्ध होना है । संसार से बने इस संयोग की अवस्था में रहते हुए ही इसके वियोग का अनुभव कर लेने को ही योग कहा गया है ।

           इसी के साथ इस लेख का समापन होता है । आप सभी का हृदय से आभार ।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।