Sunday, April 6, 2025

अदृश्य 'है'

 अदृश्य ‘है’

             जो ‘नहीं’ होते हुए भी ‘है’ प्रतीत होती है, वह माया है । इसके ठीक विपरीत कहा जा सकता है कि जो ‘है’ है उसका होना हमें ‘नहीं’ होना प्रतीत होता है,वास्तव में वही 'है' सत्य है । इसी कारण से हमें ऐसी प्रतीति होती है कि जो ‘नहीं’ है वह तो हमें प्राप्त है और जो ‘है’ है वह अप्राप्त है । जबकि सत्यता यह है कि ‘नहीं’ के प्राप्त होते हुए भी वह अप्राप्त ही है क्योंकि उसकी प्राप्ति हमें सदैव अधूरी ही लगती है । उसको हम चाहे जितना प्राप्त कर लें, जीवन में सदा असंतुष्ट ही बने रहेंगे । इसीलिए कहा जाता है कि ‘नहीं’ का ‘है’ प्रतीत होना भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, वह तो ‘नहीं’ ही है ।

         जो वास्तव में ‘है’ है, वह दिखलाई नहीं देकर भी उसका होना प्रत्येक संदेह से परे है । हमें एक ‘है’ ही सदैव के लिए प्राप्त है और केवल उसी की प्राप्ति से हम संतुष्ट हो सकते हैं । उस ‘है’ के अप्राप्त होने का अनुभव तभी तक है जब तक हम ‘नहीं’ का प्राप्त होना मान रहे हैं । जिस दिन ‘नहीं’ का नहीं होना सिद्ध कर लेंगे, ‘है’ स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा । इसीलिए ‘है’ की प्राप्ति को ‘प्राप्त की प्राप्ति’ कहा जाता है ।

           ‘नहीं’ तो दिखलाई दे रहा है और ‘है’ हमारी दृष्टि में आता नहीं है । इसका कारण ‘है’ पर पड़ा ‘नहीं’ का आवरण है । ‘नहीं’ को नहीं होना स्वीकार करते ही ‘है’ प्रकट हो जाता है ।’नहीं’ सदैव सामने होता है उस नहीं में भी ‘है’ उपस्थित है । ‘नहीं’ में ‘है’ को देखना ही सर्वत्र वासुदेव को देखना है ।‘नहीं’ का सत्तावान दिखना भी उस ‘है’ के कारण ही है । 

     कहा जाता है कि -

        ‘है’ सो सुन्दर है सदा, ‘नहीं’ सो सुन्दर नाहीं ।

        ‘नहीं’ को प्रकट देखिए, ‘है’ सो दिखे नाहीं ।।

             वास्तव में ‘नहीं’ कहीं है ही नहीं, सब कुछ एक ‘है’ ही है । आइए ! जानने का प्रयास करते हैं कि ऐसा क्यों है ? कैसे ‘नहीं’ में छिपे ‘है’ को देखा जा सकता है ? 

                 बचपन में श्री सियाराम शरण की लिखी एक कविता पढ़ी थी - “मैं तो वही खिलौना लूँगा, मचल गया दीना का लाल” । इस कविता में दीना नाम की एक ग़रीब महिला होती है । उसके बच्चे के पास मिट्टी का एक खिलौना होता है, जिससे खेलकर वह अपना मन बहला लिया करता है । उसी राज्य के राजकुमार के पास स्वर्ण से बना खिलौना है, जिससे वह खेलता रहता है । एक दिन दोनों बच्चे खेलते हुए एक दूसरे के खिलौने को देख लेते हैं । अपने अपने घर जाकर वे क्या और कैसी ज़िद्द करते हैं, यह कविता हमें आगे उसी ओर ले जाती है ।

          घर लौटकर दीना का बच्चा अपना मिट्टी का खिलौना फैंक देता है और ज़िद्द करता है कि जिस खिलौने से राजकुमार खेल रहा है, मुझे तो वही खिलौना चाहिए । इसी प्रकार राजकुमार भी अपने स्वर्ण खिलौने को फैंक देता है क्योंकि उसे भी वैसा ही मिट्टी का खिलौना चाहिए । दोनों का रोना बंद नहीं होता । राजा की हैसियत के सामने मिट्टी का खिलौना नगण्य है और दीना की क्षमता अपने बच्चे को स्वर्ण खिलौना दिलाने की नहीं है ।

         खिलौना चाहे मिट्टी का हो अथवा सोने का, उससे केवल खेल कर मन बहलाया जाता है । जो एक के पास नहीं है और दूसरे के पास दिखलाई पड़ रहा है, इस संसार में उसे ही प्राप्त करने की होड़ मची है । दीना के बच्चे और राज्य के राजकुमार, दोनों की दौड़ भी उस अप्राप्त को पाने की है जो खेलने के लिए खिलौने के रूप में उन्हें पहले से ही प्राप्त है । हमारा जीवन भी इसी प्रकार चल रहा है । दूसरे के पास जो है, वही अच्छा प्रतीत होता है और उसी को पाने के लिए हम सब दौड़ रहे हैं । अप्राप्त सदैव अप्राप्त ही रहता है और जो पहले से ही प्राप्त है उस ओर हमारी दृष्टि जाती नहीं है ।

             जो मिट्टी और स्वर्ण के मूल में है, जिसके कारण ये दोनों ही खिलौने के रूप में ढले हैं, उस मूल को कोई नहीं देख पा रहा है क्योंकि वह दिखलाई नहीं पड़ रहा । 

           वास्तविकता तो यह है कि जो दिखलाई पड़ रहा है, वह सब व्यर्थ है चाहे वह मिट्टी हो अथवा स्वर्ण । अन्तर केवल इतना सा है कि स्वर्ण तिजोरियों को सुशोभित करता है और मिट्टी गलियों की ख़ाक छानती है । जड़ दोनों ही हैं, एक तिजोरी में बंद जड़ है तो दूसरी राह में पड़ी जड़ है । मनुष्य के मन ने स्वर्ण को मिट्टी से क़ीमती मानते हुए महत्ता दे दी है । दोनों ही मानव जीवन के आध्यात्मिक उत्थान में कोई भूमिका नहीं निभाते । इसीलिए इनको व्यर्थ कहा गया है । जो जीवन के लिए व्यर्थ है, उसका होते हुए भी वास्तव में नहीं होना ही है । मिट्टी और स्वर्ण तो फिर भी स्थूल है परन्तु इस स्थूल से भी सूक्ष्म और सूक्ष्म से भी परे जो कुछ है, उसका अनुभव हुए बिना सत्य तक पहुँचना असंभव है । अतः उसको जानना भी आवश्यक है ।

        इस संसार में जो कुछ भी दिखलाई पड़ता है, उससे भी कहीं बहुत अधिक छुपा हुआ है । दिखलाई पड़ने वाले को ही सत्य समझ लेना सबसे बड़ी मानवीय भूल है । स्थूल, सूक्ष्म और उससे भी परे जो अदृश्य है, इन तीनों का जो अनुभव एक साथ कर लेता है, वह सत् को जान जाता है । स्थूल को तो हम छूकर भी अनुभव कर सकते है, अतः उसके होने पर कोई विवाद नहीं हो सकता । सूक्ष्म को हम भले ही देख नहीं पाते परंतु उसका अनुभव ही उसके होने को प्रमाणित कर देता है । सूक्ष्म का अनुभव इंद्रियों के माध्यम से होता है । इंद्रियाँ भी स्थूल हैं परंतु उनको नियंत्रण में रखने वाला अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार) सूक्ष्म है । सूक्ष्म अंतःकरण से भी जो परे है, वह अदृश्य है । साधारण रूप से इसको आत्मा कहा जाता है । उस अदृश्य आत्मा को तो इंद्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता ।

              जीव का जो शरीर हमें हिलता-डुलता, बोलता-सुनता, खाता-पीता, सोचता-विचारता, सोता-जागता दिखलाई पड़ता है, वास्तव में वह इन तीन का मिश्रण है - स्थूल शरीर (बाह्यकरण), मन (अंतःकरण) और आत्मा । यदि इन तीनों में से केवल एक आत्मा को ही निकाल दिया जाए तो शेष बचने वाले स्थूल और सूक्ष्म शरीर अनुपयोगी हो जाते हैं और उसकी समस्त क्रियाएँ बंद हो जाती है । शरीर की क्रियाओं का बंद हो जाना ही उसका मरना है । स्थूल शरीर का जब कोई अंग ख़राब हो जाता है, सड़ जाता है अथवा रोगग्रस्त हो जाता है तो एक शल्य चिकित्सक उस अंग को काटकर शरीर से अलग कर सकता है । उस अंग के अभाव में भी स्थूल शरीर कार्य कर सकता है । इससे स्पष्ट होता है कि स्थूल शरीर को नियन्त्रित किया जा सकता है ।

           सूक्ष्म शरीर (अंतःकरण) को भी नियंत्रित किया जा सकता है । बुद्धि में विवेक पैदा हो जाए तो मन का मिटना (अमन हो जाना) भी संभव हो सकता है । मन के अमन हो जाने से अर्थ है, मन का शरीर (संसार) से अलग हो जाना । 

        स्पष्ट है कि स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है । प्रश्न उठता है कि जो सूक्ष्म से भी परे है, जिसका अनुभव नहीं हो सकता, क्या उस आत्मा पर भी नियंत्रण हो सकता है ? प्रश्न का उत्तर देना इतना सरल नहीं है । स्थूल को पकड़ा जा सकता है, सूक्ष्म को भी पकड़ पाना संभव है परन्तु जिसका अस्तित्व होना भी भौतिक और सूक्ष्म दृष्टि की पकड़ में नहीं आता, उस पर नियंत्रण पाना भला कैसे संभव हो सकता है ? साथ ही उसका होना भी सत्य है क्योंकि उसकी अनुपस्थिति में केवल सूक्ष्म शरीर ही नहीं, स्थूल शरीर भी अस्तित्व विहीन हो जाता है ।

           इसे मनुष्य जीवन की विडम्बना ही कहा जा सकता है कि वह स्थूल और सूक्ष्म से आगे देख ही नहीं पा रहा है । उसके पास वह दृष्टि है ही नहीं, जो इन दोनों के आवरण को भेदकर एक मात्र सत् (आत्मा) तक पहुँच सके । इन दोनों का जो आवरण जीव पर पड़ा है, उसी को माया कहा जाता है । माया का अर्थ ही है - “जो नहीं है” । जो दिखलाई पड़ रही है वह होते हुए भी “नहीं” है क्योंकि उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है ही नहीं । स्थूल और सूक्ष्म शरीर का स्वतंत्र अस्तित्व होता तो आत्मा के अभाव में भी उनका “होना” होता परंतु ऐसा होना संभव ही नहीं है । कहने का अर्थ है कि शरीर का अस्तित्व अर्थात् उसका होना जिसके कारण संभव हुआ है, वह “है” (आत्मा) है । 

                   जिस किसी ने इस माया के आवरण को भेद डाला है वह उस सत् के द्वार तक पहुँच गया है । परन्तु यह माया भी इतनी जल्दी हार मानने वाली कहाँ है ? माया फिर से कोई नया आवरण जीव पर डालकर उसे भ्रमित कर देती है । रह-रहकर वह जीव को विचलित करते हुए स्थूल में फँसाती रहती है । इस माया से साधारण जीव की तो बात ही क्या करें, नारद मुनि भी यहाँ तक कि ब्रह्माजी तक भी फँस चुके हैं । ब्रह्मा और नारद तो परमात्मा के अति निकट हैं, वे तो माया में फँसकर तत्काल ही उससे मुक्त हो जाते हैं परंतु इस मनुष्य जीव को माया का खेल समझ में आ भी जाता है, तो भी उससे मुक्त नहीं होना चाहता, उसी में फँसा रहना चाहता है ।

       देखिए ! माया के इस आवरण को भेद डालने वाले ऐसे ही एक सन्त के साथ माया ने पुनः फाँसने के लिए क्या किया ?

            एक संत को किसी भक्त ने सोने की ईंट भेंट स्वरूप दे दी । केवल एक लँगोटी और कमण्डलु को अपने साथ रखने वाले के लिए चाहे दूसरी कोई भी वस्तु हो, वह बोझ बन ही जाती है और फिर स्वर्ण तो सभी वस्तुओं में सबसे भारी है । संत के हृदय में जहां शिव बसते थे, अब स्वर्ण बस गया । शिष्य के साथ जहां कहीं भी जाते, उस स्वर्ण ईंट को झोले में रख सिर पर उठाए चलते । शिष्य को पता नहीं था कि गुरु के पास सोने की ईंट है । सदैव भयमुक्त रहने वाले संत स्वर्ण पाकर भयग्रस्त रहने लगे । भय का कारण केवल एक ही कि कहीं कोई इस ईंट को चुरा न ले ।

          एक बार गुरु-शिष्य किसी दूरस्थ स्थान की यात्रा पर जा रहे थे । पहले तो शाम होने से पहले गाँव हो या जंगल, कहीं पर भी ठहर जाते और प्रातःकाल फिर आगे की यात्रा पर निकल पड़ते थे । परंतु स्वर्ण ईंट मिलने के बाद संत शिष्य को सूर्यास्त होने से पहले किसी गाँव में पहुँचकर विश्राम करने का कह रहे थे । शिष्य ने कहा कि गुरुजी , गाँव अभी बहुत दूर है, क्यों न हम आज यहीं ठहर जाएँ ? गुरु ने कहा - ‘नहीं ! आज रात तो किसी बस्ती में ही रुकेंगे ।’

      ख़ैर ! तेज चाल से चलते हुए वे सूर्यास्त तक एक गाँव में पहुँच ही गए । संत अपनी पोटली शिष्य को सम्हला कर दैनिक कर्म से निवृत होने लगे । शिष्य ने चुपके से पोटली खोली । पोटली के खुलते ही स्वर्ण ईंट सामने आ गई । शिष्य को गुरु की तेज चाल का रहस्य समझ में आ गया । संत दैनिक क्रियाओं से मुक्त होकर लौटे, शिष्य से पोटली लेकर ईंट को टटोला और सो गए । 

             अगले दिन ब्रह्म मुहूर्त में संत उठकर दैनिक क्रियाओं में लग गए । शिष्य भी उठ गया । उसने देखा कि संत अभी दैनिक क्रिया से निवृत नहीं हुए हैं । शिष्य ने इस परिस्थिति का लाभ उठाया । उसने चुपके से स्वर्ण ईंट को पोटली में से निकाला और पास के कुएँ में फ़ैंक दिया तथा समान आकार और भार की मिट्टी की एक ईंट उनकी पोटली में रख दी । गुरु ने आते ही पोटली को सम्भाला । उन्होंने टटोलकर ईंट को अनुभव किया और आगे की यात्रा पर निकल पड़े ।

         शिष्य ने बहुत आग्रह किया कि पोटली भारी है, इसे उसे दे दे परंतु संत के लिए तो पोटली में कुछ भी वजन नहीं था । आज तो पोटली उनके प्राण बन गई थी । वह तो उनको फूल से भी हल्की लग रही थी । आसक्ति और ममता इसी तरह से हमारे जीवन में आती है । प्रत्येक ममता सिर पर बोझ होती है परन्तु वस्तु/व्यक्ति में मोह हमें उसके बोझ का अनुभव नहीं होने देता । ज्योंही आसक्ति/ममता हटती है कि मोह दूर हो जाता है । फिर तो संसार का प्रत्येक सम्बन्ध बोझ बन जाता है । सम्बन्ध बनता ही आसक्ति से है । अनासक्त व्यक्ति के लिए सभी जीव समान है, कोई निकट नहीं कोई दूर नहीं । आसक्ति से उत्पन्न मोह के कारण बनने वाली निकटता ही व्यक्तियों में आपसी सम्बन्ध बनाती है ।

              प्रत्येक सम्बन्ध अस्थाई होता है । अस्थाई को स्थाई मान लेना ही हमारा भ्रम है । अस्थाई का होना वास्तव में “नहीं” होना है । जो “नहीं” है, उसको “है” मान लेना ही मोह है । संत ऐसे तो प्रत्येक प्रकार के मोह से मुक्त थे परंतु स्वर्ण ने फिर से उन्हें मोह ग्रस्त कर दिया । शिष्य ने भले ही मिट्टी की ईंट रख दी हो परंतु संत तो उसे अभी भी स्वर्ण की ईंट ही समझ रहे हैं । 

          संत और शिष्य बिना किसी वार्तालाप के तेज चाल से चले जा रहे थे । अन्य दिनों में तो सन्त शिष्य को सारे रास्ते उपदेश देते हुए चलते थे परंतु आज जैसे उनका समस्त ज्ञान स्वर्ण की ईंट के नीचे दब गया था । दिन ढलने को आया, शाम धीरे-धीरे उतर रही थी । सूर्यास्त निकट जानकर संत ने पास के गाँव की दूरी का आकलन किया और तेज़ कदमों से चलने लगे । शिष्य ने कहा कि गाँव बहुत दूर है, सूर्यास्त तक वहाँ पहुँचना असंभव है । उसने संत को जंगल में ही विश्राम करने को कहा । गुरु ने जंगली जानवरों का भय दिखलाते हुए तेज चाल से आगे बढ़ने को कहा । वास्तव में उन्हें भय था स्वर्ण के पास होने का, उसके चोरी हो जाने का । जिसको व्यक्ति बहुमूल्य समझता है, उसके खोने का भय ही सबसे बड़ा भय है । जिसमें मोह अधिक होता है, वही हमारे लिए बहुमूल्य होता है । 

             शिष्य ने शांत भाव से कहा कि अब इस जंगल में शिकारी जानवर रहे ही कहाँ है ? परंतु संत की दृष्टि में ख़ूँख़ार जानवर तो वह काल्पनिक चोर था जो उसकी पोटली में समाए स्वर्ण को चुराना चाहता है । शिष्य ने उनके भय को देखकर आगे कहा कि कोई चोर-लुटेरा आएगा भी तो हमसे क्या छीन लेगा ? हमारे पास तो कुछ बचा ही नहीं । चाहे तो आप अपनी पोटली खोलकर देख सकते हैं, उसमें चुराने को अब कुछ भी नहीं है । 

             संत शिष्य की गूढ़ बात को समझ गए । उन्होंने पोटली खोलकर देखी । तुरंत ही उन्होंने पोटली में से मिट्टी की ईंट को निकालकर फेंकते हुए कहा कि अब कोई चोर आएगा भी तो हमारा क्या बिगाड़ लेगा ? आज तो चलते-चलते बहुत थक गए हैं, अब तो इस रात यहीं इसी जंगल में विश्राम करेंगे ।

            मिट्टी और स्वर्ण में क्या भेद है ? दोनों ही माया है । जिसने स्वर्ण को मिट्टी समझ लिया, वह माया को भी जान चुका है । माया से मोहित वही हो सकता है जो इन दोनों (मिट्टी और स्वर्ण) में भेद करता है । इसी भेद के कारण ही तो संत स्वर्ण के आकर्षण में फँस गए थे । माया के पड़े आवरण से ही जीव ‘नहीं’ को ‘है’ समझ लेता है । माया भ्रम है । भ्रम अर्थात् जो सत्य दिखलाई दे रहा है, वह वास्तव में सत्य नहीं है । माया के इस आवरण को भेदने से ही सत् सामने आ सकता है । माया के आवरण को भेदने से अर्थ है, ‘नहीं’ को जान लेना । ‘नहीं’ को जान लेते ही ‘है’ स्वतः प्रकट हो जाता है । जब तक हम ‘नहीं’ को ही ‘है’ समझते रहेंगे, तब तक भययुक्त नहीं हो सकते । ‘नहीं’ से दूर होते ही समझ में आ जाता है कि ‘नहीं’ कभी ‘है’ था भी नहीं और हम भयमुक्त हो जाते है जैसे संत के साथ स्वर्ण से दूर होते ही हुआ था ।

            आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रत्येक वस्तु की एक अर्द्ध-आयु (Half life) होती है अर्थात् उस वस्तु या धातु के अस्तित्व में आने के पश्चात् उस अवधि तक आते-आते वह आधी समाप्त हो चुकी होती है । शेष बची आधी आयु भी पहले से ही कम समय में समाप्त हो जाती है । इसका अर्थ है कि स्वर्ण, जिसको हम क़ीमती धातु समझकर तिजोरी में बंद करके बैठे है, कुछ समय पश्चात् वह भी अपनी आयु समाप्त कर एक दिन मिट्टी हो जाएगा । हाँ, ऐसा होने में करोड़ों वर्ष लग जाते हैं । जब स्वर्ण को भी एक दिन मिट्टी हो जाना है, तो फिर उसमें और मिट्टी में भेद कहाँ रहा ? 

            इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि स्वर्ण भी प्रतिदिन अपना अस्तित्व खोते हुए विनाश की ओर जा रहा है । इसलिए स्वर्ण में आसक्ति रखना, उसको अहमियत देना हमारी बहुत बड़ी भूल है । न तो तिजोरी में पड़ा स्वर्ण काम आ रहा है और न ही राह में पड़ी मिट्टी । फिर स्वर्ण में इतनी ममता क्यों ? क्योंकि स्वर्ण सुंदर दिखता है और मिट्टी कुरूप । स्वर्ण के आभूषण बनाकर उस शरीर को सजाया जाता है, जिस शरीर को भी एक दिन नष्ट होना है । दिखने वाली वस्तु सुंदर हो अथवा कुरूप, सभी विनाशशील है । विनाश की ओर जाने वाली प्रत्येक वस्तु को “नहीं” ही कहा जाएगा क्योंकि अभी जिस रूप में वह हमारे समक्ष है उसका वह रूप भी प्रतिपल बदल रहा है । रूप में यह परिवर्तन इतना मद्धम गति से हो रहा है कि हम उस परिवर्तन को पकड़ नहीं पाते और ‘नहीं’ को ही ‘है’ समझ बैठते हैं ।

            हम सब ‘नहीं’ के पीछे ही तो दौड़ रहे हैं । यह नहीं समझ रहे हैं कि जो ‘नहीं’ है, उसको कैसे पकड़ पाएंगे ? ‘नहीं’ को पकड़ने का केवल भ्रम ही होता है । ज्यों ही ‘नहीं’ हमारी पकड़ में आया हुआ लगता है कि तत्क्षण वह हाथ से फिसल जाता है । फिसलने का भी केवल भ्रम ही है क्योंकि जिसका अस्तित्व होगा तभी तो वह हाथ में आकर फिसलेगा । फिर भी हम ‘नहीं’ को पाने के लिए जीवन भर एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाते है । जीवन का संध्याकाल आ जाता है, शरीर की शक्ति चूक जाती है परन्तु हाथ कुछ भी नहीं आता । जो ‘नहीं’ है वह सदैव अप्राप्त ही रहेगा । उस ‘नहीं’ के दिखलाई पड़ने के पीछे जो सत्ता है, वह ‘है’ की है। ‘है’ के होते हुए भी हमारी भौतिक दृष्टि की उससे दूरी बनी रहेगी । आख़िर भौतिक/स्थूल दृष्टि भी तो शरीर की तरह ‘नहीं’ ही है, वह भला ‘है’ को कैसे देख पाएगी ?

          स्थूल दृष्टि की पकड़ से सूक्ष्म वस्तु दिखलाई नहीं पड़ती । दृष्टि को किसी यंत्र के द्वारा सूक्ष्म कर लें तो सूक्ष्म वस्तुएँ तो दिखलाई पड़ जाएगी, फिर भी बहुत कुछ दिखने से छूट भी जाएगा । उस छूट जाने वाले को देखने के लिए दिव्य दृष्टि चाहिए । जब स्थूल और सूक्ष्म को पीछे छोड़कर आगे बढ़ेंगे तभी अनुभव होगा कि हम ‘नहीं’ को पाने के लिए व्यर्थ ही प्रयास कर रहे थे । जो दिव्य दृष्टि की पकड़ में आता है, वही ‘है’ है जोकि नित्य प्राप्त है । उस प्राप्त की प्राप्ति का अनुभव करने के लिए हमें ‘नहीं’ की प्राप्ति का प्रयास छोड़ना होगा ।

            सांसारिक वस्तुएँ जो अप्राप्त हैं, वे सदैव अप्राप्त ही रहेंगी क्योंकि वे दिखलाई पड़ते हुए भी “नहीं” ही है । जो इन सबको देखने वाला है, वह दिखलाई नहीं पड़ रहा है, वही तो “है” है । उसको हम अप्राप्त मान रहे हैं, जबकि वह पहले से ही प्राप्त है ।

              जीवन में पाने के लिए कुछ न कुछ खोना पड़ता है । जिसको खोना है वह भी प्रतिपल हमसे छूट ही रहा है । हमारे जीवन की यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि निरंतर छूट रहे को हम पकड़े रखना चाहते हैं । चाहे जितना प्रयास कर लें, निरंतर छूटते जा रहे को हम पकड़ कर रख ही नहीं सकते । जो प्रतिपल परिवर्तित होता जा रहा है, भला वह हमारे पास सदैव के लिए कैसे टिका रह सकता है ? इसलिए जीवन में उसी को पाने का प्रयास करना चाहिए, जो स्थाई है, जो सदैव अपरिवर्तित रहता है । 

            प्रश्न उठता है कि फिर जीवन में किसे पाने का प्रयास करना चाहिए ? केवल एक परमात्मा ही है, जोकि अपरिवर्तनशील, अविनाशी है । जिस दिन उसको पकड़ लेंगे उस दिन प्रतिपल खो रहे को बचाने का प्रयास स्वतः ही छूट जाएगा । यह जगत् विनाशशील है । प्रतिक्षण वह मिटता जा रहा है, परंतु इसका भान हमें हो नहीं पा रहा है । तभी तो हम संसार को प्राप्त करने के लिए हो रही प्रतियोगिता की दौड़ में सम्मिलित हो गए हैं । यह दौड़ एक दूसरे को पीछे छोड़ आगे निकल जाने की दौड़ है । यह दौड़ अनंत है जिसमें आज तक कोई विजयी नहीं हो पाया है । इस दौड़ से जिसने स्वयं को अलग कर लिया उसकी दृष्टि अविनाशी की ओर हो जाती है ।

              पाने-खोने की इस दौड़ में संसार से सम्मुखता या विमुखता मुख्य बात है । संसार के सम्मुख होकर उसे पाने की दौड़ में सम्मिलित होंगे तो सिवाय कुण्ठा के कुछ भी नहीं मिलेगा । कुण्ठा इस बात की कि जो चाहा वह मिला नहीं । अगर चाहा वह किसी कारण से मिल भी गया तो वह आपकी दृष्टि में सदैव अपर्याप्त ही रहेगा । चलो, अपर्याप्त ही सही, कुछ तो मिला लेकिन जो अल्प सा मिला भी, वह टिकता कहाँ है ? ऐसे में भीतर कुंठा जन्म नहीं लेगी तो क्या होगा । हम उसको प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं जो कभी प्राप्त नहीं हो सकता, वह सदैव अप्राप्त ही रहेगा ।

            ध्यान देने योग्य एक ही बात है कि जिसे हम पाना चाहते हैं, वह मृग-मरीचिका है । मृग को प्यास लगी है, दूर कहीं जल दिखलाई पड़ रहा है परंतु जब वहाँ दौड़कर पहुँचता है तो पता चलता है कि जल पहले से ही और आगे खिसक गया है । मृग-मरीचिका में केवल जल होने का भ्रम होता है, जल नहीं होता । इसी प्रकार जीवन में भी संसार से प्राप्त होने का केवल भ्रम ही होता है, कुछ प्राप्त नहीं होता है । संसार अप्राप्त है और सदैव अप्राप्त ही रहेगा क्योंकि वह “है” है ही नहीं । वह तो “नहीं” है ।

         मनुष्य के सामने दो प्रश्न खड़े हैं । पहला - क्या आप अप्राप्त को प्राप्त करना चाहते हैं ? दूसरा - क्या आप पहले से ही प्राप्त को प्राप्त करना चाहते हैं ? प्रायः सभी की ‘हाँ’ प्रथम प्रश्न के उत्तर में होगी । भला कौन प्राप्त को प्राप्त करना चाहेगा क्योंकि वह तो उसे पहले से ही प्राप्त है । वह तो सदैव अप्राप्त को ही प्राप्त करना चाहेगा । वह नहीं जानता कि अप्राप्त तो सदैव ही अप्राप्त ही रहता है जबकि प्राप्त की अप्राप्ति का उसे छद्म अनुभव हो रहा है अर्थात् जिस प्राप्त को वह अप्राप्त मान रहा है, वास्तव में उस प्राप्त की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं है । जब तक जो पहले से ही प्राप्त है, उस ओर दृष्टि नहीं होगी तब तक वह अप्राप्त ही लगेगा । इसलिए पहले से ही प्राप्त को वही प्राप्त करना चाहेगा जिसको वह अप्राप्त लग रहा है ।

              हम अपने भीतर कभी झांकते ही नहीं है । आँखें सदैव बाहर की ओर ही देखती है क्योंकि वह भौतिक तत्वों से बनी है । जो भीतर बैठा (अहम्) शरीर की भौतिक आँखों से देख रहा है, वह भी बाहर के पदार्थों को देखकर उसके आकर्षण में फँस जाता है । इस आकर्षण का कारण है, दृश्य में प्रतिपल होने वाला परिवर्तन । हम सिनेमा देखते हैं । सिनेमा की रील में स्थिर चित्र होते हैं । स्थिर चित्र कभी भी व्यक्ति को बाँधते नहीं है । परंतु जब ये चित्र एक-एक कर बड़ी तेज गति से लेंस के सामने से गुजरते हैं तो पर्दे पर चलायमान दिखलाई पड़ते है । इस प्रकार दृश्य में एक प्रकार की छद्म निरंतरता आ जाती है । उस निरंतरता के आकर्षण में ही मनुष्य खो जाता है । सतत हो रहे परिवर्तन में खो कर उसको ही “है” मान लेना हमारा भ्रम है, वास्तव में वह “है” न होकर “नहीं” ही है । सिनेमा सत्य नहीं है वह तो एक स्वप्न की तरह है । 

            जब बाहर से दृष्टि भीतर प्रवेश करती है, तब अनुभव होता है कि बाहर देखना भी व्यर्थ था । संसार की दृष्टि से देखें तो ‘नहीं’ ही ‘है’ रूप में दिख़लाई पड़ता है । यह बाहरी दृष्टि है । जब स्वयं के भीतर झांकेंगे तो अनुभव होगा कि बाहर जो भी ‘है’ रूप में दिखता है, उसे इस रूप में दिखाने की क्षमता जिसकी है, वह तो यहाँ बैठा है । भीतर बैठा ‘है’ अगर नहीं रहे तो फिर बाहर दिखलाई पड़ने वाले ‘है’ की वास्तविकता प्रकट हो जाएगी और स्पष्ट हो जाएगा कि वह ‘है’ न होकर ‘नहीं’ ही था । सत्ता केवल सत् की है और उसी का भाव होता है । असत् की सत्ता सत् के कारण होती है परन्तु बाह्य दृष्टि से वह सत् (है) नज़र नहीं आता, उसको तो असत् (नहीं) ही सत् (है) दिखता है ।

          जिसकी सत्ता नहीं है उसका सदैव अभाव ही रहेगा, इसलिए कभी भी असत् को भाव नहीं देना चाहिए । अगर हमने असत् को भाव दे दिया तो जिस दिन उसका अभाव होगा, हमें बड़ा दुःख होगा । असत् का एक न एक दिन अभाव होना निश्चित है । असत् के अभाव को जानकर भी उसका भाव होना मान लेना ही हमारा भ्रम है । इसी भ्रम में परमात्मा की कृपा से मिला दुर्लभ मनुष्य जीवन भी बह जाता है और संसार-चक्र में घूमते हुए सुखी-दुःखी होना पड़ता है । 

          जिसका सदैव अभाव है, उसको पकड़ना दिवास्वप्न के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । इसलिए ‘नहीं’ को ‘है’ मानने से बाहर निकलें और ज्ञान-दृष्टि से देखें तो अदृश्य ‘है’ भी स्पष्ट रूप से नज़र आ जाएगा । यह ‘है’ उस प्रकार नहीं दिखेगा, जैसा हम चर्म चक्षुओं से कोई वस्तु अथवा व्यक्ति को देखते हैं बल्कि अदृश्य ‘है’ की उपस्थिति का केवल अनुभव होगा ।

कठपुतली का खेल आप सबने देखा होगा । खेल में एक मंच होता है, जिस पर कठपुतलियाँ नाचती है, विभिन्न करतब दिखाती है । मंच के पीछे एक पर्दा लगा होता है । प्रत्येक कठपुतली से तीन-चार बड़े बारीक धागे बंधे होते हैं, जिनका दूसरा छोर पर्दे के पीछे खड़े कलाकार की अंगुलियों में लिपटा रहता है । वही कलाकार अपनी अंगुलियों के इशारों से कठपुतलियों को मंच पर नचाता है । बच्चे उन लकड़ी से बनी पुतलियों को नाचते देखकर आश्चर्य करते हैं । ये कठपुतलियाँ मंच पर नाचती है परंतु पर्दे के पीछे खड़ा कलाकार दर्शकों को दिखलाई नहीं पड़ता । 

       मंच भी उसी कलाकार का है और पर्दा भी उसी का है । कठपुतलियाँ भी उसी की है और वही इनको अंगुलियों के इशारों से नचाता है । कहने का अर्थ है कि सब कुछ एक कलाकार ही है । परंतु दर्शकों को भ्रम होता है कि कठपुतलियाँ नाच रही है क्योंकि नचानेवाला पर्दे के कारण उनको दिखलाई नहीं पड़ रहा है । पर्दा माया है और मंच संसार । परमात्मा ही वह कलाकार है, जो पर्दे के पीछे रहकर संसार के मंच पर जीवों को अपनी अंगुलियों के इशारों पर नचा रहा है । परंतु हम जैसी कठपुतलियों (जीवों) को भ्रम हो गया है कि हम स्वयं नाच रहे हैं । 

        कठपुतलियाँ और मंच तभी तक सत् प्रतीत होते हैं जब तक पीछे लगा पर्दा हट नहीं जाता । पर्दे के हटते ही ‘है’ (सत्) प्रतीत होने वाली कठपुतलियाँ ‘नहीं’ (असत्) हो जाती है । पर्दे के पीछे छिपा कलाकार, जिसको अब तक हम देख नहीं पा रहे थे, पर्दे के हटते ही उसके सत् होने का अनुभव तत्काल हो जाता है ।

             प्रश्न उठता है कि उस ‘है’ का अनुभव कैसे हो सकता है ? ‘है’ दिख़लाई नहीं पड़ता और जो दिखलाई पड़ता है वह ‘है’ न होकर ‘नहीं’ है । ‘नहीं’ में ‘है’ को देख लेना ही ‘है’ का अनुभव होना है । संसार एक विशाल मंच है, जिसमें करोड़ों ब्रह्मांड है । प्रत्येक ब्रह्मांड में उसके अपने सौर मंडल है । प्रत्येक सौर मंडल के केन्द्र में एक सूर्य है । यह सूर्य विभिन्न ग्रहों और उनके उपग्रहों को साथ लेकर अपने ब्रह्मांड के केंद्र की परिक्रमा कर रहा है । इस प्रकार समस्त सृष्टि का संचालन एक व्यवस्थित प्रकार से हो रहा है । न कभी कोई उपग्रह अपने ग्रह से टकराता है और न ही ग्रह की गति में कभी विचलन होता है । सब अपने-अपने परिभ्रमण पथ पर निश्चित गति से चक्कर लगा रहे हैं ।

            संपूर्ण ब्रह्मांडों को आप कठपुतलियों के खेल का मंच माने । मंच पर जितने भी सूर्य, ग्रह, उपग्रह और उन पर रहने वाले जीव हैं, सब उस खेल को खेल रहे हैं । यह खेल ही एक अभिनय है । जिसको जैसा अभिनय करने का आदेश मिला है, सब उसी के अनुसार अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं । भूमिका निभाना स्वयं के स्तर पर नहीं हो रहा परंतु निर्देशक के स्तर पर निश्चित होता है । वह निर्देशक भले ही दिख नहीं रहा है परंतु वह ‘है’, यह निश्चित है । वह ‘है’ कल्पना मात्र नहीं है । जगत् को गतिमान बनाये रखने में किसी की तो भूमिका होगी, यह निश्चित है । उस निर्देशक की उपस्थिति को ‘मानना’ और स्वीकार करना ही उस ‘है’ के होने की पुष्टि है ।

        संसार उन्हीं के लिए असत् है जिनकी इस संसार के पदार्थों में आसक्ति है । आसक्ति का मूल कारण है, संसार के पदार्थों में सुख खोजना । संसार दुःखालय और अशाश्वत है, इसमें दुःख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । दुःख में आई तनिक सी कमी हमें सुख का अनुभव अवश्य कराती है परन्तु थोड़े समय बाद यह सुख भी दुःख में परिवर्तित होने लगता है । सुख संसार का स्थाई भाव है ही नहीं । संसार स्वयं अशाश्वत है, ऐसे में भला इससे मिलने वाला सुख सदैव के लिए कैसे हो सकता है ? यह परिवर्तनशीलता ही संसार को “नहीं” होने की श्रेणी में ला खड़ा करती है । फिर भी हमें यह “है” रूप में दिखलाई पड़ रहा है क्योंकि हमारी इससे सुख लेने की कामना जो है । 

         “नहीं” से जो सुख प्राप्ति हो रही है उसके पीछे संसार की कोई भूमिका नहीं है क्योंकि संसार की सत्ता है ही नहीं । जिसकी सत्ता होती है वही कुछ दे सकता है, शेष तो देने के माध्यम मात्र हैं । जिस दिन सत्ता ने संसार से हाथ हटा लिया कि संसार को निष्क्रिय हो जाना है । फिर उससे कुछ भी नहीं मिल सकता । इसलिए दिखलाई पड़ने वाले संसार के पीछे सदैव उस सत्तावन को देखेंगे तो संसार के प्रति हमारी आसक्ति नहीं रहेगी । यही “नहीं” में “है” को देखना है ।

             संसार सुंदर तभी तक दिखता है जब तक हमें उससे सुख मिलता है और हमारी प्रत्येक कामना पूरी हो रही है । जिस दिन ऐसा नहीं होगा, यही संसार हमें कुरूप और दुखदाई लगने लगेगा । संसार सुखालय कभी था ही नहीं और न ही कभी हो सकता है । संसार से क्षणिक सुख मिलने का अनुभव होने का कारण केवल दुःख का कुछ समय के लिए कम हो जाना है ।

                शरीर और संसार नाशवान है, इनको एक न एक दिन समाप्त होना है । विनाशशील का होते हुए भी दिखना वास्तव में उसका ‘नहीं’ होना है । जो पहले नहीं था, बाद में भी नहीं होगा, उसका बीच में भी नहीं होना है । यह संसार हमें सुंदर दिख रहा है परंतु जो कभी भी रहता नहीं है उसका सुंदर दिखना भी असत्य है । हमें संसार से शरीर का सुख चाहिए इस कारण से यह सुंदर लगता है । यह सुख भी संसार की तरह नाशवान है अतः इसको भी एक दिन चले जाना है । जो सदैव के लिए हमारे साथ नहीं रह सकता उसे सुंदर कहना हमारा भ्रम है ।

           स्वामीजी कहते हैं कि संसार का सुख लेना व्यभिचार है । स्वयं अविनाशी है, पर सुख लेता है नाशवान से । हम अविनाशी हैं तभी तो हमें सुख के आने-जाने का अनुभव होता है । यदि हम भी संसार और शरीर की तरह नाशवान होते तो इनमें हो रहे परिवर्तन का हमें भान तक नहीं होता । जिसको परिवर्तन का भान होता है, निश्चय ही वह उस नाशवान से भिन्न है अर्थात् अविनाशी है । अविनाशी होकर नाशवान से सुख की आशा रखना अनुचित है ।

          वास्तविक सुख तो वही है, जो सदैव के लिए रहता है । वह सुख तभी उपलब्ध हो सकता है, जब हम स्वयं को नाशवान से अलग कर लें । नाशवान से भिन्न होते ही अनुभव होगा कि जो सुंदर है वह दिखलाई नहीं दे रहा और जो सुंदर दिखलाई पड़ रहा है वह सुंदर नहीं है । 

          सृष्टि के सृजन से पूर्व केवल एक परमात्मा ही थे । परमात्मा अविनाशी हैं । उनके संकल्प से ही सृष्टि बनी है । उस सृष्टि को सत्ता स्वयं परमात्मा ने दी है । सृष्टि परमात्मा से अलग नहीं है बल्कि जिस शक्ति से इसका सृजन हुआ है, वह परमात्मा की शक्ति से ही हुआ है । कहने का अर्थ हुआ कि सृष्टि जिस शक्ति से संचालित होती है, वह परमात्मा से अभिन्न है । सृष्टि में निहित शक्ति नेत्रों की पकड़ में नहीं आती । नेत्र पकड़ते हैं सृष्टि को, पदार्थ को, संसार को, शरीर को । इससे केवल सृष्टि को ही हम सब कुछ समझ बैठे हैं ।

         यह जानना बड़ा ही महत्वपूर्ण है कि शक्ति विहीन सृष्टि भी शरीर को संसार में नहीं ला सकती । शरीर की शक्ति में भी आयु अनुसार सघनता-दुर्बलता आती है । शरीर में जो शक्ति बालपन में थी वह युवावस्था में सघन हो जाती है, वही वृद्धावस्था में घट जाती है और एक दिन शरीर की सारी शक्ति चूक जाती है । यही इस शरीर की वास्तविकता है । जब यह शक्ति शरीर की है ही नहीं, तो फिर शरीर का अभिमान क्या करना । जिसको एक दिन समाप्त हो जाना है, उस शरीर को सजाना-संवारना अर्थहीन है । जिस दिन यह बात हमारी समझ में आ जाएगी, अविनाशी-विनाशी का भेद समझ में आ जाएगा । 

                जो दृश्य जगत् है, वह सारा का सारा विनाश की ओर जा रहा है, वह असत् है और जो अविनाशी है, अदृश्य है, वही सत् है । विनाशशील से प्रेम करना सदैव दुःख ही देता है । इसलिए अविनाशी से प्रेम करें, जोकि हम स्वयं है, हम शरीर नहीं है बल्कि परमात्मा के अंश हैं । प्रेम ही सबसे सुंदर है, जो होते हुए भी मौन है, वह दिखलाई नहीं देता ।

            ‘है’ को प्रकट होने के लिए ‘नहीं’ का सहारा लेना पड़ता है । ‘नहीं’ माया है और ‘है’ वह शक्ति है, जिसने माया को बनाया है अर्थात् ‘नहीं’ तो माया है और ‘है’ मायापति । चूँकि ‘नहीं’ में तीनों गुण है, जिनके कारण इसमें सदैव विभिन्न क्रियाएँ चलती रहती है । इन क्रियाओं के कारण विभिन्न पदार्थ बनते-बिगड़ते रहते है । इस बनने-बिगड़ने में ही मुख्य आकर्षण है, तभी तो मनुष्य सुख-दुःख के चक्कर में कोल्हू का बैल बनकर एक ही घेरे में (संसार-चक्र में) घूमता रहता है । 

             जो पदार्थ स्वयं किसी क्रिया से बना है, वह पदार्थ क्रियाओं के चलते प्रतिपल परिवर्तित भी हो रहा है । जो कुछ क्षण पूर्व कुछ है, वह अगले ही क्षण कुछ और हो जाता है । स्थायित्व के अभाव के कारण ही इसे होते हुए भी ‘नहीं’ कहा गया है । जिसमें स्थायित्व का अभाव है, वह नाश की तरफ़ प्रति क्षण बढ़ता जाता है । अंततः एक दिन इसका पूरा नाश हो जाता है । जो नाशवान है, उसका होते हुए भी यथार्थ में ‘नहीं’ होना ही है ।

            इस ‘नहीं’ के पीछे ‘है’ की सत्ता ही है । जो इस ‘नहीं’ में हो रहे परिवर्तन को देख रहा है, उसको अनुभव कर रहा है, वह ‘है’ है । जिस दिन ‘है’ ‘नहीं’ से अलग हो जाएगा, उस दिन ‘नहीं ’भी नहीं रहेगा, वह ‘है’ में विलीन हो जाएगा । इससे सिद्ध होता है कि ‘नहीं’ की स्वतंत्र सत्ता नहीं है बल्कि उसको सत्ता देने वाला ‘है’ ही है । प्रत्येक ‘नहीं’ में ‘है’ को देखने से ही हमें ‘है’ का अनुभव होगा अन्यथा ‘नहीं’ को ही सत्य मानकर सदैव भ्रमित ही होते रहेंगे ।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘नहीं’ में ‘है’ को देखने के लिए अर्जुन को एक श्लोक कहा है -

          समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।

          विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥

                             ॥गीता-13/27॥

         इस श्लोक पर प्रवचन करते हुए स्वामीजी कहते हैं कि भगवान ने इस ब्रह्मांड में कोई दो वस्तु अथवा व्यक्ति एक समान नहीं बनाए हैं । जितने भी प्राणी इस पृथ्वी पर हमारे देखने में आते हैं, वे सब एक-दूसरे की अपेक्षा से विषम हैं । शरीर, मन, बुद्धि, योग्यता आदि की प्राप्ति में किन्हीं दो में तनिक सी भी समानता नहीं है । इनमें विषमता होते हुए भी सबमें एक ही परमात्म-तत्त्व परिपूर्ण रूप से व्याप्त है । प्रत्येक प्राणी जन्म लेता है, बढ़ता है, रहता है, क्षीण होता है और मर जाता है । इसी प्रकार दृश्यमात्र में भी निरन्तर परिवर्तन होता ही रहता है, लेकिन 'है' तत्त्व में कभी कोई परिवर्तन होता ही नहीं है । प्राणी और पदार्थ, सब निरन्तर ही नाश की तरफ जा रहे हैं, लेकिन 'है' तत्त्व सनातन है, इसका आदि-अन्त नहीं है ।

          जो 'है' तत्व है, वह क्रिया-पदार्थ से अतीत है, वहाँ तक क्रिया-पदार्थ पहुँचते ही नहीं, कभी पहुँचे ही नहीं । जिसकी दृष्टि बदलने वाले शरीर-संसार की तरफ ही रहती है, वह ठीक नहीं देखता है, उसका पतन हो जाता है और जिसकी दृष्टि बदलने वाले के आधार, प्रकाशक परमात्मा ('है') की तरफ है, वह ठीक देखता है, उसे परमात्म-तत्त्व का अनुभव हो जाता है ।

           स्वामीजी ‘है’ और ‘नहीं’ को स्पष्ट करते हुए आगे कहते हैं कि 'रहता रूप सही कर राखो, बहता संग न बहीजे।' अपनी प्रियता सदा रहने वाले (है) में ही हो जाय; बहने वाले (नहीं) में हमारी ममता, आसक्ति, महत्त्व-बुद्धि नहीं रहे । स्वत: स्वाभाविक सबकी स्थिति तत्त्व (है) में ही है, उस तत्त्व से विलग कोई हो सकता ही नहीं, लेकिन दृष्टि नाशवान् (नहीं) की तरफ ही रहने से, नाशवान् में महत्त्व-बुद्धि होने से तत्त्व का, आनन्द-रूपता का अनुभव नहीं हो रहा है । सुखदायी परिस्थिति आती है, दुःखदायी परिस्थिति आती है, लेकिन इनके ज्ञान में क्या फर्क पड़ा ? 'है' में स्थित रहते हुए हम नाशवान् में आकृष्ट होकर, नाशवान् के लिए लोलुप होकर बिना बात के ही दुःख पा रहे हैं ।

             शरीर-संसार की प्राप्ति आज तक किसी को हुई ही नहीं । शरीर-संसार किसी को प्राप्त हो सकते ही नहीं और भगवान् सबको नित्य प्राप्त हैं; भगवान् की अप्राप्ति किसी को हो सकती ही नहीं । मान मिल गया, धन मिल गया, सम्पत्ति मिल गई, पद मिल गया— मिलता कुछ है ही नहीं, कोरा मिलने का वहम है । यदि ये चीजें मिल जाती, तो अब तक हमारी तृप्ति हो गई होती, लेकिन हमारा अनुभव है कि जैसे-जैसे भौतिक संसाधन बढ़ते हैं, वैसे-वैसे ही अशान्ति बढ़ती है, असन्तोष बढ़ता है; हम अपने-आपसे और भगवान् से दूर होते जाते हैं । अपने को नहीं बदलने वाले परमात्मा के साथ अनुभव करना ही मुक्ति है और बदलने वाले शरीर-संसार के साथ अनुभव करना ही बन्धन है ।

       स्वामीजी ने बहुत ही कम और स्पष्ट शब्दों में ‘है’ और ‘नहीं’ के अंतर को समझाया है । आसक्ति के कारण ही ‘नहीं’ को हम ‘है’ मान लेते हैं । चमकदार दिखलाई पड़ने वाली प्रत्येक वस्तु सोना नहीं होती । हम संसार की चमक को देखकर भ्रमित हो रहे हैं और उसी को सत् समझ रहे हैं । सत् केवल वही है जो सदा के लिए है । संसार तो प्रतिपल बदल रहा है, ऐसे में उसे सत् क्यों कर कहा जा सकता है । वह तो होते हुए भी ‘नहीं’ ही है । संसार का बदलना जिस कारण से संभव होता है, वह कभी भी नहीं बदलता है और जो कभी भी नहीं बदलता वही सत् है, वही ‘है’ है । 

               नदी बहती है, ऐसा देखने वाला स्वयं स्थिर है । बहने वाले के साथ अर्थात् नदी में बहने वाले को नदी का बहना दिखलाई नहीं देगा । इसी भ्रम के कारण बह रहे संसार के साथ बहने वाले को यह संसार स्थिर और सदैव के लिए रहने वाला दिखाई देता है । संसार से अलग होते ही संसार बहता दिखलाई देने लगेगा । 

       ‘नहीं’ के साथ हो जाने पर ही ‘है’ की विस्मृति हो जाती है और ‘नहीं’ ही ‘है’ प्रतीत होने लगता है । वास्तव में ‘नहीं’ है ही नहीं, जो कुछ है वह ‘है’ ही है । यह ‘है’ अदृश्य है क्योंकि वह ‘नहीं’ के रूप में दृश्यमान हुआ है और हम ‘नहीं’ के पीछे छिपी ‘है’ की सत्ता को नहीं देख पा रहे हैं । यह ‘है’ हमें तभी दिखलाई पड़ेगा जब ‘नहीं’ में हमारी ममता नहीं रहेगी । 

            ‘वासुदेव सर्वम्’ का अर्थ है कि एक ‘है’ के अतिरिक्त कोई दूसरा है ही नहीं । फिर ‘है’ क्यों कर ‘नहीं’ हो जाता है ? परमात्मा ही ‘है’ है । यह ‘है’ निराकार है, जिसके कारण वह दिखलाई नहीं देता । साकार रूप ही दृष्टि की पकड़ में आता है, निराकार नहीं । निराकार अपने आनंद के लिए साकार रूप ग्रहण करता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि निराकार मिट जाता है । मिटना अथवा परिवर्तित होना साकार में ही संभव है, निराकार में नहीं । कहने का अर्थ है कि निराकार परमात्मा ही साकार रूप ग्रहण कर जगत् के रूप में प्रकट हुआ है । इसलिए जगत् में परिवर्तन होना अवश्यंभावी है ।

              अक्रियता निराकार का स्वभाव है और सक्रियता साकार का । निराकार से साकार की यात्रा में अक्रियता सर्वप्रथम सक्रियता में परिवर्तित होती है । इस प्रकार क्रिया से पदार्थ का निर्माण होता है । क्रिया से बने पदार्थ के भीतर भी सदैव क्रिया चलती रहती है । क्रिया ही साकार में हो रहे सतत परिवर्तन का आधार है । जगत् इसी क्रिया के कारण सदैव गतिमान बना रहता है ।

                अक्रियता अविनाशी है जबकि सक्रियता विनाशशील है । इस प्रकार सिद्ध होता है कि विनाशशील के मूल में अविनाशी ही है । जब हम शरीर में हो रही क्रियाओं से स्वयं को मुक्त कर लेते हैं, हमें अपने आप का अविनाशी होना अनुभव में आ जाता है । हम अविनाशी ही हैं परंतु शरीर में हो रही क्रियाओं को अपने द्वारा होना मान लेना ही हमें विनाशशील बना देता है । ऐसा क्यों होता है ?

             अविनाशी के द्वारा अपने आपको विनाशशील समझ लेना ही मनुष्य को संसार के साथ बांध देता है । संसार और शरीर एक ही जाति के हैं अर्थात् दोनों ही पदार्थ से निर्मित है । पदार्थ अपने में हो रही क्रियाओं के कारण सतत परिवर्तित होता रहता है । यह परिवर्तन उसमें उपस्थित त्रिगुणी व्यवस्था के कारण होता है । गुणों के अभाव में क्रियाएँ होना संभव ही नहीं है । निराकार में कोई सक्रिय गुण नहीं है अर्थात् वह निर्गुण होता है । निराकार में गुणों का अभाव नहीं होता बल्कि उसमें गुणों की सक्रियता नहीं रहती अर्थात् वे गुणातीत हैं, गुणों से परे हैं । गुणातीत होने के कारण ही उसमें क्रियाओं का अभाव है । निराकार में गुणों के सक्रिय होते ही उसमें क्रियाएँ होने लगती है और वह साकार रूप ग्रहण कर लेता है ।

          क्रियाओं के कारण पदार्थ विभिन्न रूपों में प्रकट होता है । ये पदार्थ एक दूसरे की तरफ़ आकर्षित होते हैं, इस कारण वे अपने मूल स्वरूप ( निर्गुण निराकार) को लगभग विस्मृत कर बैठते हैं । मनुष्य शरीर भी इसी प्रकार एक दूसरे शरीर व पदार्थों के प्रति आकर्षित हो जाते हैं । विभिन्न क्रियाओं के संपर्क में आने से शरीर को जो सुख-दुःख का अनुभव होता है वह मनुष्य अपने में होना अनुभव करता है । यही अविनाशी का स्वयं को शरीर (विनाशशील) होना मानना है ।

          स्वामीजी कहते हैं कि संसार और शरीर जड़ है । जड़ ही जड़ के प्रति आकर्षित होता है और उससे सुख पाने की कामना करने लगता है । सुख की कामना उसे अपने मूल स्वरूप अविनाशी से दूर कर देती है और मनुष्य स्वयं को शरीर मानते हुए उसका मरना जीना स्वयं का मरना जीना मानने लगता है ।

          निराकार में कोई आकार नहीं है । आकार न होने का अर्थ है, पदार्थ और क्रिया का अभाव । पदार्थ न होने का अर्थ है दृश्यमान न होना । साकार में पदार्थ है और पदार्थ होने के कारण उसमें क्रियाएँ भी है । दृष्टि केवल साकार को ही पकड़ती है निराकार को नहीं । पदार्थ में चल रही क्रियाओं के कारण साकार में परिवर्तन होते रहते हैं अर्थात् उसमें स्थाई भाव नहीं है । जो स्थाई नहीं है वह वास्तव में होते हुए भी ‘नहीं’ ही है। इसीलिए संसार को ‘नहीं’ कहा जाता है । 

         इतने विवेचन से स्पष्ट है कि निराकार ही ‘है’ है जबकि साकार ‘नहीं’ है । हमारा मूल स्वरूप निराकार है और हमें स्वयं का निराकार होना स्वीकार करना होगा तभी हम ‘नहीं’ को ‘है’ कह पाएंगे । वास्तव में ‘नहीं’ है ही नहीं, सब कुछ ‘है’ ही है । इस अवस्था तक पहुँचने के लिए हमें प्राकृतिक गुणों से परे जाना होगा । साकार रूप में रहते हुए गुणों से ऊपर उठ जाना ही गुणातीत होना है । गुणातीत होने पर ही हमें साकार होते हुए भी स्वयं के निराकार होने का अनुभव होगा । यही ‘नहीं’ में ‘है’ को देखना है ।

          ‘है’ का आकार लेना और ‘नहीं’ के रूप में दिखने का उद्देश्य केवल आनंद का अनुभव करना है न कि ‘नहीं’ में आसक्त होकर सुखी-दुःखी होना । ‘है’ का सुखी-दुःखी होना संभव ही नहीं है । शरीर और विषयों के प्रति आसक्त भाव केवल ‘नहीं’ को ही सुखी-दुःखी कर सकता है । ‘है’ के द्वारा ऐसा अनुभव करना मात्र भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।

       बीज के अंकुरित होने से ही पौधा बनता है और वही पौधा पनपकर एक दिन वृक्ष बनता है । वृक्ष सबको दिखलाई पड़ता है परंतु भूमि में दबा बीज किसी को नहीं । मूल तो बीज ही है । वृक्ष का आधार वही बीज है क्योंकि बीज के अभाव में वृक्ष हो ही नहीं सकता । वृक्ष पर पत्ते आते-जाते रहते हैं, फूल खिलते-मुरझाते रहते हैं परंतु जब तक वृक्ष का मूल सुरक्षित है अर्थात् वृक्ष जब तक मूल से जुड़ा है, तब तक सब कुछ ‘है’ ही है । मूल के अभाव में वृक्ष जिसका ‘है’ होना प्रतीत हो रहा है, वह भी ‘नहीं’ होने में चला जाएगा । जो एक दिन ‘नहीं’ में चला जाएगा वास्तव में वह पहले भी ‘नहीं’ ही था । वृक्ष में उसके मूल बीज को देखेंगे तो वृक्ष भी ‘है’ ही है अन्यथा वह दिखलाई देते हुए भी ‘नहीं’ ही है ।

         साकार संसार और शरीर का मूल बीज सब कुछ निराकार परमात्मा ही है । संसार-शरीर के प्रति आसक्ति रखना और मूल बीज को विस्मृत कर देना ही उनको ‘नहीं’ होने की श्रेणी में ला खड़ा कर देता है । आसक्ति हटते ही वह ‘नहीं’ का भी ‘है’ होना अनुभव में आ जाता है । स्मरण रहे, दृष्टि सदैव उस अदृश्य की ओर रहनी चाहिए जिसके कारण ‘नहीं’ दृश्यमान हुआ है । अदृश्य को अनुभव करने वाली ऐसी दृष्टि ही दिव्य-दृष्टि कहलाती है ।

           दिव्य दृष्टि से सब ओर केवल ‘है’ ही दिखलाई देगा । महाभारत युद्ध के उपरांत जब बर्बरीक के शीश से पूछा गया कि युद्ध में आपने क्या देखा ? उत्तर मिला - ‘केवल कृष्ण और उनका सुदर्शन चक्र । वही युद्ध कर रहे थे, वही मार रहे थे और वही मर रहे थे । युद्धभूमि में केवल श्रीकृष्ण ही थे, कोई अन्य था ही नहीं ।’ कहने का अर्थ है, ‘नहीं’ कहीं नहीं है, सब कुछ ‘है’ ही है । यही गीता का सार है - वासुदेव सर्वम् ।

               ‘है’ दिखाई नहीं पड़ता परंतु उसको अनुभव किया जा सकता है । प्रश्न उठता है - कैसे ? स्वामीजी कहते हैं कि एक तो दृश्यमान संसार है और एक है उस दृश्य को देखने वाला द्रष्टा । जो दृश्य को स्वयं से अलग देखता है, वह दृश्य नहीं हो जाता । दृश्य को दृश्य के रूप में देखने वाला द्रष्टा ही ‘है’ है । संसार को जब तक हम स्वयं से भिन्न नहीं देखेंगे तब तक ‘है’ का अनुभव नहीं होगा ।

          परमात्मा ‘है’ रूप है और संसार ‘नहीं’ रूप है । यदि ‘नहीं’ से ‘है’ को देखने का प्रयास करेंगे तो शुद्ध ‘है’ नहीं दिखेगा । ‘नहीं’ को ‘नहीं’ रूप से देखने पर ही शुद्ध ‘है’ दीखता है । ‘है’ को सीधे देखने के लिए हमें मन-बुद्धि को लगाना पड़ता है, जो स्वयं ‘नहीं’ रूप है । उनसे ‘है’ शुद्ध रूप से न दिख कर ‘नहीं’ के साथ मिला दिखलाई पड़ेगा । आख़िर मन-बुद्धि भी तो ‘नहीं’ ही है । ‘नहीं’ से ‘है’ देखने से ‘नहीं’ भी ‘है’ रूप के साथ मिला हुआ दिखलाई पड़ेगा । इसे ही शुद्ध ‘है’ होना मान लेना भ्रमित ही करेगा । इससे स्पष्ट होता है कि ‘नहीं’ से शुद्ध ‘है’ देखा ही नहीं जा सकता । 

        जब हम ‘नहीं’ को ‘नहीं’ रूप में देखने लगेंगे तब स्वतः ही शुद्ध ‘है’ रूप का अनुभव हो जाएगा । ‘नहीं’ को ‘नहीं’ रूप से देखने पर ‘नहीं’ तो तिरोहित हो जाएगा और शेष केवल ‘है’ रह जाएगा । झाड़ू से कूड़े-करकट को हटाते ही जैसे कूड़े के साथ झाड़ू का भी त्याग हो जाता है वैसे ही ‘नहीं’ को ‘नहीं’ स्वीकार करते ही ‘नहीं’ का भी त्याग हो जाता है और शेष केवल ‘है’ रह जाता है ।

           स्वामीजी कहते हैं कि संसार को अभाव रूप से देखने पर संसार और उसकी वृत्ति, दोनों से ही संबंध विच्छेद हो जाता है और भावरूप शुद्ध परमात्म-तत्व स्वतः शेष रह जाता है ।

       संसार ‘नहीं’ रूप है । संसार में यह भौतिक शरीर भी ‘नहीं’ ही है । शरीर में मन-बुद्धि हैं, वे भी ‘नहीं’ हैं । मन-बुद्धि की अपनी वृत्तियां है जिनके कारण मनुष्य सदैव संशयात्मक स्थिति में बना रहता है । अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश मन की वृत्तियां है । तर्क-वितर्क बुद्धि की वृत्ति है । मन- बुद्धि से ‘है’ को देखने से ‘है’ का अनुभव तो हो जाता है, परंतु यह ‘है’ अशुद्ध होता है क्योंकि मन-बुद्धि की वृत्तियां उसके साथ मिली होती है । इन्हीं वृत्तियों के कारण शुद्ध ‘है’ से हमारी दूरी बनी ही रहती है । जब तक इन वृत्तियों से मुक्त नहीं होंगे तब तक शुद्ध ‘है’ के अनुभव से दूरी बनी रहेगी ।

         साधक अपने जीवन में यही गलती करता है कि वह अपने मन-बुद्धि से ‘है’ को पकड़ने का प्रयास करता है । मन स्वयं चंचल है, वह ‘है’ को भला कैसे पकड़ पाएगा । मन-बुद्धि से जो सूक्ष्म है, वह अहम् है । मन-बुद्धि के स्थान पर अहम् को ‘है’ में लगाएंगे तो मन-बुद्धि की वृत्तियां स्वतः ही हट जाएँगीं । स्वामीजी कहते हैं कि अपने आप में स्थित तत्व (है) का अनुभव अपने आप (अहम्) से ही हो सकता है, इन्द्रियां, मन, बुद्धि (नहीं) आदि से बिलकुल नहीं । अपने आप में स्थित तत्व (है) का अनुभव करने के लिए किसी दूसरे की सहायता लेने की आवश्यकता भी नहीं है । 

        मूल बात है स्वयं को ही भगवान में लगाना है न कि मन को भगवान में लगाने का प्रयास करना । मन-बुद्धि को ‘है’ में लगाने से अर्थ है ‘नहीं’ से ‘है’ का अनुभव करना । इससे ‘है’ के साथ ‘नहीं’ का मिश्रण अंत तक बना रहेगा और ‘नहीं’ से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो पाएंगे । जब तक संसार से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं होंगे, तब तक परमात्मा के दर्शन नहीं होंगे ।

         ‘है’ और ‘नहीं’ को विभिन्न प्रकार से समझाने के पश्चात् भी यह एक पहेली ही है कि संसार जो दीख रहा है, उस दीखते हुए को ‘है’ न मानकर ‘नहीं’ कैसे मानें ? यदि सामने दीवार दिख रही है, उसको ‘नहीं’ मानते हुए जाकर उससे टकरा जाएं तो क्या हमें चोट नहीं लगेगी ? निश्चित ही चोट लगेगी । इसका अर्थ हुआ कि दीवार ‘नहीं’ न होकर ‘है’ है । दीवार की तरह ही संसार को ‘नहीं’ नहीं मानकर ‘है’ क्यों नहीं मान सकते ?

        यह प्रश्न एक पाठक का है । मैं भी उनकी बात से सहमत हूँ कि दिखलाई देने वाला ही ‘है’ है, वह ‘नहीं’ हो ही नहीं सकता । यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपका देखना किस प्रकार का है, आप किस दृष्टि से संसार को देख रहे हैं ? बर्फ में व्याप्त जल को देखोगे, जल के अतिरिक्त किसी को नहीं देखोगे तो वह बर्फ ‘है’ है और यदि बर्फ को चौकोर है या तिकोनी है, पीली है अथवा सफ़ेद है या वह ‘ठण्डी और सुख देने वाली है’ इस दृष्टि से देखेंगे तो बर्फ ‘नहीं’ है क्योंकि वह प्रतिपल पिघलते हुए परिवर्तित हो रही है । न तो वह स्थाई रूप से ठण्डी रहेगी और न ही वह सदैव सुख देगी । इसी प्रकार संसार दीखता है तो भी वह ‘है’ नहीं है क्योंकि वह परिवर्तित हो रहा है । 

         ‘है’ अथवा ‘नहीं’ होना आपकी दृष्टि की गुणवत्ता पर निर्भर करता है । परमात्मा का बनाया संसार तो परमात्मामय ही है, वह ‘है’ ही है । आपने सुखासक्ति के कारण अपना अलग संसार बना लिया जिससे संसार ‘नहीं’ हो गया है । 

           स्वामीजी कहते हैं कि संसार एकरूप कभी रहा नहीं, रहेगा नहीं, रहता नहीं, रह सकता नहीं । ऐसे में फिर वही प्रश्न उठता है कि प्रत्यक्ष दीखते हुए भी क्या संसार को न दीखता हुआ मान लेना चाहिए ? स्वामीजी उत्तर देते हुए कहते हैं कि प्रत्यक्ष दीखते हुए भी संसार का आदर नहीं करना है । आदर विवेक का करना है । सत्-असत् का जो विवेक है, उसमें सत् अंश का आदर करना है, असत् अंश का आदर नहीं करना है । ऐसा करते-करते असत् की निवृत्ति हो जाएगी और बोध हो जाएगा ।

         हमारे अंतःकरण में जो असत् की सत्ता पड़ी है, उसको दूर करने के लिए ‘संसार है ही नहीं’ ऐसा मानना ही होगा । जैसे दो आदमी हैं । एक आदमी को रस्सी में साँप दिखा तो वह भयभीत हो गया और इस डर से काँपने लगा कि साँप काट खाएगा । दूसरा आदमी धैर्यवान है, इसलिए वह डरा नहीं कि साँप दीख गया तो क्या हुआ, अपने तो उससे बच जाओ । जो आदमी साँप से डर गया उसको दो बातें कहनी पड़ेगी - पहले बात कि यह साँप नहीं है और दूसरी बात कि यह रस्सी है । जो डरा नहीं उसको केवल इतना ही कहना पड़ेगा कि यह रस्सी है ।

       इसी तरह जिस व्यक्ति की संसार में आसक्ति, राग, ईर्ष्या, द्वेष आदि है, उसको कहना पड़ता है कि संसार है ही नहीं बल्कि केवल उसकी प्रतीति है, यह रस्सी में साँप की तरह है, मृगतृष्णा की तरह है, यह स्वप्न की तरह है, यह दर्पण में दीखने वाले दृश्य की तरह है । ऐसा कहने का केवल तात्पर्य व्यक्ति की संसार में आसक्ति मिटाने से है । आसक्ति मिटते ही संसार ‘नहीं’ न दिखकर ‘है’ दीखने लगेगा ।

                   ‘है’ का शुद्ध रूप से अनुभव करने के लिए संसार और शरीर को ‘नहीं’ रूप में देखना ही होगा । सांसारिक गतिविधियों में हम आकंठ डूबे हुए हैं । यही कारण है कि हम संसार का ‘नहीं’ होना स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं । ‘नहीं’ सदैव नहीं ही रहेगा क्योंकि जो आदि में भी नहीं था, अंत में भी नहीं रहेगा वह वर्तमान में भी ‘नहीं’ ही है । ‘नहीं’ की ‘है’ रूप में जो प्रतीति हो रही है उसका कारण हमारी आसक्ति और ममता है । सुख प्राप्त करने की कामना ही ‘नहीं’ को ‘है’ मानने का आधार बनती है, जबकि वास्तव में वह 'है' नहीं है । जब हम प्रत्येक कामना से मुक्त हो जाते हैं तब ‘नहीं’ का स्वतः ही नहीं होना अनुभव में आ जाएगा । फिर जो शेष बचेगा वह ‘है’ ही है ।

       ‘नहीं’ का नहीं होना ही ‘है’ का अनुभव है । ‘नहीं’ को नहीं स्वीकार करते ही ‘नहीं’ में भी ‘है’ के दर्शन होंगे क्योंकि सत्ता केवल एक की होती है, दो की नहीं । सत्ता केवल ‘है’ की है । ‘नहीं’ को नहीं मानना ही ‘है’ की सत्ता स्वीकारना है । इसलिए संसार से आसक्ति, ममता और कामना को हटाते ही संसार ‘है’ से भिन्न नहीं रह सकता । जिस संसार को हम ‘नहीं’ कह रहे हैं, वह भी ‘है’ हो जाता है । दृश्य तभी तक दृश्य है जब तक वह स्वयं को द्रष्टा से अलग अनुभव करता है । द्रष्टा की दृष्टि जैसी होगी दृश्य का दर्शन भी उसी अनुरूप होगा । दृश्य के समाप्त होते ही केवल एक द्रष्टा ही रह जाता है और यह द्रष्टा ही ‘है’ है ।

        सार बात यह है कि ‘है’ को ‘नहीं’ से भिन्न मानने में हमारी आसक्ति, ममता और कामना की भूमिका रहती है अन्यथा सब कुछ ‘है’ ही है, ‘है’ के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है ।

       गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - “मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्त मूर्तिना” (9/4) मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत् परिपूर्ण है अर्थात् यह जगत् भी ‘है’ है । स्वामीजी कहते हैं कि बर्फ में जल की तरह संसार में सत्ता (‘है’) रूप से एक सम, शान्त, सद्ज्ञन, चिद् घन और आनंदघन परमात्म-तत्व परिपूर्ण है । हम जिस प्रकार से सोचते हैं, उसी अनुसार जगत् को देखते हैं । यदि हम सोचते हैं कि संसार और परमात्मा दो अलग-अलग हैं तो यह मानना चाहिए कि संसार में परमात्मा है और परमात्मा में संसार है ।

            संसार और परमात्मा दो है ही नहीं । संसार को परमात्मा से अलग मानने का कार्य जीव ने किया है । हम मनुष्यों ने ही संसार को परमात्मा से भिन्न मानते हुए उसे सत्ता दी है । देखा जाए तो सत्ता दो हो ही नहीं सकती, सत्ता केवल एक की ही होती है । संसार की जो स्वतंत्र सत्ता दिखलाई पड़ती है, उसके मूल में परमात्मा की ही सत्ता है । 

           ‘नहीं’ का ‘है’ रूप में दिखना मन की कामना के कारण होता है । मन में कामना जन्म ही न ले तो ‘नहीं’ भी कहीं नहीं टिकेगा और सब जगह ‘है’ ही दिखलाई पड़ेगा । ‘नहीं’ के आकर्षण में फंसकर मनुष्य ‘नहीं’ को ही सत्य समझ लेता है । सर्वत्र ‘है’ की अनुभूति करने के लिए मन का कामना रहित होना आवश्यक है ।  

         मनुष्य संसार से सुख चाहता है जिसके कारण उसके भीतर अहंता, कामना और ममता घर कर चुकी है । जब तक मनुष्य अहंता, ममता और कामना से मुक्त नहीं होता तब तक संसार में परमात्मा है और परमात्मा में संसार है । वास्तव में न तो संसार में परमात्मा है और न ही परमात्मा में संसार है, केवल परमात्मा ही परमात्मा है अर्थात् “वासुदेव सर्वम्” । 

सार - संक्षेप 

              सत् के ऊपर असत् का आवरण है । यह आवरण स्वयं सत् का ओढ़ा हुआ है । सत् एक ही है, दो नहीं, आनन्द की प्राप्ति के लिए उसे एक से अनेक होना पड़ा । आनन्द की खोज में निकले सत् ने विभिन्न नाम और रूप धारण किए । उन नाम-रूप के केन्द्र में वह स्वयं बैठ गया । अपने आकर्षक नाम-रूप को देखकर वह भ्रमित हो गया और स्वयं को भूल गया । इस प्रकार दृश्यमान तो नाम-रूप (संसार) ही रहे और मूल तत्व (परमात्मा) अदृश्य हो गया । शरीर की सभी इंद्रियां और मन असत् को ही पाने की कामना करते हैं । इस प्रकार असत् के आकर्षण से मुक्त होना उसके लिए असंभव हो जाता है ।

           ‘है’ ही वह मूल तत्व है, जो दिखलाई नहीं पड़ रहा । कृष्ण-मृग की नाभि में कस्तूरी रहती है । कस्तूरी की गंध के प्रति आसक्त होकर मृग वन में इधर-उधर घास सूंघता डोलता रहता है । वह यह नहीं जानता कि जिसे वह खोज रहा है, वह उसकी नाभि में ही है । हम भी कृष्ण-मृग की तरह ही हैं, जो संसार में परमात्मा को ढूँढते फिर रहे हैं, जबकि वह हमारे केंद्र में पहले से ही मौजूद है । 

       इंद्रियों से जो प्राप्त हो सकता है, वह वास्तव में शरीर की तरह ही नाशवान होता है । जो नाशवान है, उसका होना भी ‘नहीं’ होना है । वह सदैव अप्राप्त ही रहेगा क्योंकि उसकी प्राप्ति सदैव ही अपर्याप्त रहेगी । जो ‘है’ है, वह हमें नित्य प्राप्त है परंतु हमारी दृष्टि उधर जाती ही नहीं है क्योंकि भौतिकता की चकाचौंध ने हमें भ्रमित कर दिया है जिससे वह दिखलाई नहीं दे रहा । भौतिकता की चकाचौंध झूठी है, वह दिखलाई पड़ते हुए भी ‘नहीं’ है और जो सत्य है, शिव है, सुन्दर है, वह ‘है’ हमें दिखलाई नहीं पड़ता । ‘है’ के दिखलाई नहीं पड़ने का अर्थ यह नहीं है कि वह ‘नहीं’ है । ‘नहीं’ दिखलाई देते हुए भी सदैव नहीं ही रहेगा, वह ‘है’ नहीं हो सकता । 

 इसीलिए स्वामीजी बार-बार कहते हैं -

       ‘है’ सो सुन्दर है सदा, ‘नहीं’ सो सुन्दर नाहीं ।

       ‘नहीं’ को प्रगट देखिए, ‘है’ सो दिखे नाहीं ।।

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

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