Saturday, December 14, 2024

सत्संग - असंग होने का मार्ग

 सत्संग - असंग होने का मार्ग  

           प्रत्येक प्राणी अपने जीवन में किसी न किसी का संग चाहता है । संग ही जीव के बंधन का कारण है । संग का जैसा चरित्र होता है, संगी का चरित्र भी उसी प्रकार का हो जाता है । कहावत है - “ख़रबूज़े को देखकर ख़रबूज़ा रंग बदलता है”, उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में भी संग का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता ।

       अपनी प्रकृति के अनुसार संग या तो कुसंग हो सकता है अथवा सत्संग । कुसंग से मनुष्य का पतन होता है और सत्संग से उत्थान । संग जीव के स्वभाव को भी बदल डालने की क्षमता रखता है । मनुष्य को अपने जीवन में कुसंग करना चाहिए अथवा सत्संग, बहुत कुछ उसकी बुद्धि पर निर्भर करता है । इसलिए मनुष्य को अपनी बुद्धि के अनुसार संग का चुनाव करना चाहिए ।

           कुसंग संसार से मुक्त नहीं होने देता जबकि सत्संग मुक्ति के द्वार खोलता है । प्रत्येक प्रकार का संग मुक्ति में बाधक है क्योंकि वह बँधनकारी होता है । सत्संग बाँधने वाला होने के बाद भी मनुष्य को मुक्ति की राह दिखलाता है । सत्संग ही हमें संसार से असंग करता है और यह असंगता ही मुक्त हो जाना है । मुक्ति की दिशा में ले जाने वाला सत्संग मिलना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है । परमात्मा की असीम कृपा से जिसका भाग्य बड़ा प्रबल है, उसी को ही अच्छा सत्संग मिलता है । भगवान स्वयं मानस में कह रहे हैं - 

          “बड़े भाग पाइब सतसंगा । बिनहि प्रयास होहिं भव भंगा ।। मानस - 7/33/8 ।।” 

           श्रुति कहती है - “असंगो अयं पुरुष: इति श्रूते” अर्थात् यह पुरुष अर्थात् जीवात्मा असंग है । इसकी संसार से असंगता वैसी है जैसी कमल-पत्र की कीचड़ से । जब पुरूष किसी शरीर का अधिग्रहण कर लेता है तब वह संसार के प्रति आकर्षित होकर उसके साथ एकता कर लेता है । यह एकता वास्तव में छद्म है क्योंकि एकता दो समान तत्वों के मध्य होती है, दो विपरीत तत्वों के बीच नहीं । शरीर और संसार दोनों प्रकृति के अंग होने से परिवर्तनशील और विनाशशील है जबकि पुरुष और परमात्मा दोनों ही अपरिवर्तनशील और अविनाशी है । इसलिए पुरुष की एकता परमात्मा के साथ है, न कि संसार और शरीर के साथ । शरीर के साथ पुरुष द्वारा अपनी एकता मान लेना ही उसे असंग होने नहीं देता ।

             जब पुरुष; शरीर और संसार का संग कर लेता है तब उसका पुनः असंग हो पाना बड़ा कठिन है । यह सत्य है कि संसार भगवान का आदि अवतार है परंतु संसार की सक्रियता उसको विनाशशील बना देती है अर्थात् उसका प्रतिपल परिवर्तित होना निश्चित है । यही कारण है कि परमात्मा का आदि अवतार होने पर भी संसार को सत् नहीं कहा जा सकता । परमात्मा के अपने अंश, पुरुष द्वारा उसका संग कर लेने से पुरुष का व्यवहार भी संसार की तरह हो जाता है । पुरुष को संसार का संग त्यागना होगा क्योंकि मूलतः वह असंग ही है । उसको स्वयं के असंग होने का भान तभी होगा जब उसे सत्संग मिले । सत्संग अर्थात् चित्त का आत्मा के स्वर में स्वर मिलाकर संगत करना । 

           परमात्मा असंग है और हमें (पुरुष को) संसार से असंग होना है । कैसे ? प्रश्न का उत्तर पाने के लिए सर्वप्रथम सृष्टि-सृजन के कारण को जानते हुए इस यात्रा पर आगे बढ़ते हैं । रास्ते में मिलने वाला सत्संग ही इस यात्रा का मुख्य पड़ाव है, जहां से असंग होने की राह निकलती है ।

              परमात्मा ने इस जगत् की रचना की । जगत् स्वयं से अलग नहीं बनाया बल्कि वे स्वयं ही जगत् बने हैं । रचनाकार स्वयं ही रचना बन गया, इसीलिए शास्त्रों में इस जगत् को परमात्मा का आदि अवतार भी कहा गया है । भगवान को जगत् बनने का विचार क्यों आया ? क्योंकि - ‘एकाकी न रमते’ । भगवान एक हैं, अकेला क्या प्रेम करे, किससे प्रेम करे, कैसे आनंदित हों और किसको आनंद दे ? ‘बहु स्यां प्रजायेय’ (छान्दोग्य उपनिषद् - 6/2/3) अर्थात् मैं अनेक रूपों में प्रकट हो जाऊँ । इस प्रकार जगत् के रूप में वे प्रकट हुए और उनके प्रकट होने का कारण बना - प्रेम और आनन्द का आदान-प्रदान करना । प्रेम करने और आनन्द प्राप्त करने के लिए कम से कम दो का होना आवश्यक है, जिससे वे एक दूसरे का संग करते हुए प्रेम कर सके, एक दूसरे को आनन्द दे सके । 

                जगत् के रूप में अवतरित होने के लिए परमात्मा अपने एक अंश में अक्रिय से सक्रिय होना प्रारम्भ हुए । सक्रिय होते ही उनमें गति का प्रादुर्भाव हुआ । गति होने के कारण वे जगत् कहलाए । जगत् अर्थात् जो सदैव गतिमान रहता है । जगत् बनकर परमात्मा सक्रिय हुए अवश्य परंतु उनकी अपने शेष अंश की अक्रियता में कोई कमी नहीं आई । परमात्मा का सक्रिय अंश जगत् कहलाया और अक्रिय परमात्मा जगत्-पिता । जगत् की सक्रियता का कारण उसमें निरन्तर चलने वाली विभिन्न क्रियाएँ हैं । उन क्रियाओं से ही आगे बढ़ते हुए धीरे धीरे पदार्थ का निर्माण हुआ । ‘क्रिया से पदार्थ और पदार्थ में क्रिया’ - यही इस जगत् का सत्य है । 

              परमात्मा के एक अंश में जगत् की सक्रियता और शेष अंश में अक्रियता । जगत् में अकेले पदार्थ से प्रेम और आनन्द प्राप्ति का उद्देश्य पूर्ण कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता क्योंकि पदार्थ अचेतन है । पदार्थ को प्रेमानंद का अनुभव नहीं हो सकता, अनुभव के लिए उसका चेतन होना आवश्यक है । सक्रियता का अनुभव अक्रियता के बिना नहीं हो सकता जैसे गतिमान की भ्रमण क्रिया अर्थात् उसकी दशा और दिशा का ज्ञान बिना किसी स्थिर द्रष्टा के होना असंभव है । 

          पदार्थ में क्रिया होने के कारण वह सतत सक्रियता के कारण परिवर्तनशील हो गया । परिवर्तन होना अर्थात् अंततः विनाश की ओर जाना । पदार्थ परिवर्तनशील होने के साथ साथ विनाशशील भी है । इस प्रकार जगत् में हो रही क्रिया से बने सभी पदार्थ निर्जीव अर्थात् अचेतन कहलाए । अचेतन में चेतना का अभाव है । सक्रिय तत्व और चेतन तत्व, दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं । क्रियाएँ अचेतन में होती है, जबकि चैतन्य में क्रिया का अभाव है ।

          पदार्थ सक्रिय है क्योंकि उसमें क्रियाएँ हो रही हैं परंतु वह चेतन नहीं है क्योंकि पदार्थ को अपने भीतर चल रही क्रियाओं का ज्ञान नहीं है । चेतनता के अभाव के कारण किसी अजीव (पदार्थ) से न तो प्रेम का आदान-प्रदान हो सकता है और न ही आनन्द का । हाँ, पदार्थ (अचेतन) से किसी चेतन द्वारा कहने भर को एक पक्षीय प्रेम अवश्य किया जा सकता है परंतु वह वास्तव में प्रेम नहीं होता क्योंकि उस प्रेम से चेतन को आनंद नहीं मिल सकता । आनन्द के लिए तो उभयपक्षीय प्रेम होना आवश्यक है ।             

           प्रेम और आनन्द की प्राप्ति के लिए सक्रिय पदार्थ में जब अक्रिय परमात्मा अपने अंश रूप में प्रवेश करते हैं तब जाकर निर्जीव पदार्थ सजीव हो उठता है । अचेतन में चेतन का प्रवेश होना, इस जगत् में होने वाली सबसे बड़ी घटना है । 

                  सजीव पहले अचर रूप में थे अर्थात् एक ही स्थान पर स्थिर (स्थावर) रहते हैं, बिलकुल निर्जीव पदार्थ की तरह परंतु निर्जीव प्रतीत होते हुए भी वे चेतन हैं, सजीव है । उदाहरण - पेड़ पौधे । परमात्मा को फिर भी इनसे प्रेम और आनन्द की अनुभूति नहीं हुई । फिर उन्होंने जंगम अर्थात् चर सजीव की रचना की, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने को सक्षम था । इस प्रकार यह चराचर जगत अस्तित्व में आया जिसमें सजीव भी हैं और निर्जीव भी । सजीव पदार्थ अर्थात् चेतन को प्राणी कहा जाता है जिसके अंतर्गत हम मनुष्य भी हैं ।

         इस अवस्था तक आते-आते परमात्मा पदार्थ (अचेतन) और उसमें स्थित अंश (चेतन), इन दो भागों में विभक्त हो गए । यह विभाजन केवल समझाने की दृष्टि से है, मूलतः तो सब कुछ एक परमात्मा ही है । सजीव का पदार्थ अर्थात् जगत् अंश शरीर कहलाता है और उसमें स्थित परमात्मा का अंश आत्मा । जगत् असत् है और आत्मा सत् । जगत् असत् इसलिए है क्योंकि वह सदैव परिवर्तित होता रहता है । वह जैसा आज है, कल वैसा नहीं रहेगा । आत्मा सत् है, क्योंकि वह ऐसे किसी भी परिवर्तन होने से परे है अर्थात् उसमें न तो परिवर्तन आता है और न ही उसका विनाश ही हो सकता है । अविनाशी ही विनाशशील का साक्षी है ।

        सजीव अर्थात् चेतन में भी दो प्रकार के प्राणी आते हैं । पहली प्रकार के वे प्राणी हैं जिनमें बुद्धि तो होती है, परन्तु वह बुद्धि सीमित होती है । उनकी बुद्धि आहार करने, निद्रा लेने, भय में डूबे रहने और मैथुन कर संतति देने तक ही सीमित है । ऐसे प्राणी विवेकहीन होते हैं । प्रायः सभी प्राणी इस श्रेणी में आते हैं, केवल कुछ मनुष्यों को छोड़कर । ऐसे सजीव प्राणियों को ‘अचेतन चेतन’ कहा जाता है अर्थात् चेतन होते हुए भी वे लगभग अचेतन की अवस्था में रहकर जीवन बिताते हैं । शास्त्र और संतों ने ऐसी प्राणियों को ‘भोग योनि’ के अन्तर्गत रखा है । ऐसे प्राणी अपने शारीरिक सुख तक ही सीमित रहते हैं और पूर्व मानव जीवन में बने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगते हैं । प्रेम और आनन्द से उनका दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता ।

            दूसरे प्रकार के सजीव (चेतन) प्राणी वे हैं जिनकी बुद्धि बहुत अधिक विकसित है । उस बुद्धि में विवेक जाग्रत होने की प्रबल संभावना रहती है, जिससे जीव को प्रेम और आनन्द उपलब्ध हो सकता है । सन्तों और शास्त्रों ने ऐसे प्राणियों को भोग योनि के साथ साथ कर्म (योग) योनि में भी रखा है । इस प्रकार के सजीव प्राणियों को ‘स्व-चेतन’ कहा गया है । सभी जीवों में मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है, जिसे इस श्रेणी के अंतर्गत रखा गया है । मनुष्य अपने विवेक का सदुपयोग कर प्रेम और आनन्द को उपलब्ध हो सकता है, जिसके लिए ही परमात्मा ने जगत् रूप धारण किया है । इस प्रकार प्रेम और आनन्द प्राप्त कर मनुष्य स्वयं ही परमात्म अवस्था को प्राप्त हो सकता है ।

         सजीव अर्थात् चेतन तत्व ही प्रेम और आनन्द की अनुभूति कर सकता है क्योंकि उसमें सत् (परमात्मा) स्वयं स्थित है । सत् के कारण ही चेतन, प्रेम और आनन्द का अधिकारी है अन्यथा असत् तो चेतन है ही नहीं, उसे भला इन दोनों का अनुभव कैसे होगा ? प्रश्न उठता है कि क्या केवल अचेतन और चेतन, निर्जीव और सजीव, पदार्थ और प्राणी की रचना करके ही प्रेम और आनंद प्राप्त हो सकता है ? नहीं, क्योंकि जब तक इनमें से किन्हीं दो का अर्थात् चेतन का चेतन से या चेतन का अचेतन से संयोग नहीं होगा, तब तक न तो प्रेम किया जा सकता है और न ही आनंद की प्राप्ति हो सकती है । ऐसे किसी भी संयोग को संग या संगति करना कहा जाता हैं ।

           जहां संग होगा, वहीं प्रेम होगा और जहां प्रेम होगा वहीं आनंद मिलेगा । प्रत्येक संग में प्रेम और आनंद की अनुभूति होगी ही, यह आवश्यक नहीं है क्योंकि इनकी अनुभूति होना संग के प्रकार (कुसंग अथवा सत्संग) पर निर्भर करता है ।

              अचेतन का अचेतन से संग होने पर उनमें आपसी क्रिया होते हुए कोई नया पदार्थ तो बन सकता है परंतु संग से जो प्रेम और आनंद मिलना चाहिए, वह उन दोनों में से किसी को नहीं मिल सकता क्योंकि यह सर्वथा उदासीन संग है । यही कारण है कि प्रत्येक अचेतन पदार्थ (निर्जीव) प्रेम और आनन्द से दूर है । निर्जीव एक दूसरे के संग रहते हुए भी अनंत काल तक एक दूसरे से अपरिचित बने रहते हैं । एक पहाड़ असंख्य पत्थरों से बना होता है परंतु फिर भी उसके एक पत्थर दूसरे पत्थर से परिचय नहीं कर पाते । परिचय करने के लिए पत्थर जैसे पदार्थ को भी सजीव होना पड़ेगा । 

           निर्जीव चाहे बरसों आपस में संग रहते आए हों, उनको प्रेम और आनन्द की अनुभूति नहीं हो सकती क्योंकि संग के दोनों पक्ष अचेतन हैं । सजीव एक दूसरे का संग करते हुए एक दूसरे से परिचित होते हैं क्योंकि वे चेतन हैं । यह आपसी परिचय ही उनके लिए प्रेम और आनन्द के द्वार खोलता है ।

            मूल बात यह है कि संग करने का अनुभव सजीव को ही होता है, निर्जीव को तो संग रहने का अनुभव तक नहीं होता । सजीव जब निर्जीव अर्थात् पदार्थ का संग कर लेता है तो वह एक पक्षीय संग होता है, उभयपक्षीय नहीं । एक पक्षीय संग में सजीव अर्थात् चेतन, निर्जीव पदार्थ को प्रेम तो कर सकता है परंतु वह प्रेम न होकर आसक्ति होती है जिसके प्रत्युत्तर में उसे प्रेम और आनंद मिलने के स्थान पर केवल सुख अथवा दुःख की अनुभूति ही होती है । यह प्रेम अस्थाई होता है और उससे मिलने वाला आनन्द केवल मात्र एक अल्पकालिक छद्म सुख ही होता है । पदार्थ से किए जाने वाले प्रेम से मिलने वाला सुख एक न एक दिन दुःख में अवश्य ही परिवर्तित होगा क्योंकि पदार्थ सदैव न तो आपके साथ रह सकता है और न ही सदा एकसा रह सकता है । जो पदार्थ आपको मिला है वह एक दिन आपसे बिछुड़ेगा ही, यह निश्चित है । अतः पदार्थ से किया जाने वाला प्रेम, वास्तव में प्रेम न होकर उस पदार्थ में हमारी आसक्ति है और ऐसी आसक्ति कुछ समय के लिए छद्म सुख अवश्य देती है परंतु अंत में यह सुख, दुःख में परिवर्तित हो जाता है ।

               इतने विवेचन से दो बातें स्पष्ट रूप से निकल कर सामने आई है - प्रथम, पदार्थ का संग पदार्थ के साथ होते हुए भी उनमें आपस में प्रेम नहीं हो सकता क्योंकि वे संग रहते हुए भी सदैव असंग बने रहते हैं । द्वितीय - पदार्थ का संग सजीव (चेतन) कर सकता है परंतु उसकी परिणति दुःख के रूप में ही होती है क्योंकि पदार्थ का संग कभी भी स्थाई नहीं रह सकता । इन दो संभावनाओं से अलग, एक तीसरी संभावना भी बनती है । वह संभावना है - चेतन का चेतन के साथ संग । इस प्रकार के संग की अनुभूति द्विपक्षीय होती है । ऐसे संग में प्रेम का अनुभव होने और आनन्द प्राप्त करने की क्षमता होती है । इस प्रकार का संग एक प्राणी ही दूसरे प्राणी के साथ कर सकता है । ऐसा संग ही एक दूसरे को प्रेम और आनन्द से सरोबार कर सकता है ।

              आज सजीव ही सजीव का संग कर रहा है, फिर भी वह प्रेम और आनन्द से कोसों दूर बना हुआ है । आख़िर इसका क्या कारण है ? जब तक उस कारण की गहराई तक नहीं पहुँचेंगे, तब तक प्रेम और आनन्द का अनुभव तो होना दूर, उनको परिभाषित तक नहीं कर पायेंगे । समस्या यह है कि प्रत्येक सजीव दूसरे सजीव के शरीर (पदार्थ अंश) का संग करता है, आत्मा का संग नहीं करता । शरीर से किए जाने वाले संग से उत्पन्न होने वाली वासना और ममता को हम प्रेम का नाम दे देते हैं और उससे प्राप्त हुए क्षणिक सुख को आनन्द कह देते हैं, परंतु ये वास्तविक प्रेम और आनन्द नहीं है । वास्तविक प्रेम और आनन्द का अनुभव तो कोई विरला ही कर सकता है । इनका अनुभव जिस प्रकार के संग से हो सकता है, उस संग का नाम ही सत्संग है ।

               मूल चर्चा है मनुष्य के जीवन की । चेतन प्राणी मनुष्य अन्य प्राणियों की तरह चेतन होते हुए भी जन्म तो ‘स्व-अचेतन’ (self-unconscious) के रूप में ही लेता है परंतु वह ‘स्व-चेतन’ (self-conscious) की अवस्था तक अपनी बुद्धि के माध्यम से पहुँच सकता है । इस अवस्था तक पहुँचने के लिए उसके जीवन में संग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । वह संग किसका करता है अर्थात् वह संग कुसंग है अथवा सत्संग है, इसको जानना बड़ा महत्वपूर्ण है । जिस प्रकार का उसका संग है, उसी अनुसार उसकी अवस्था बन जाती है । सत्संग उसे स्व-चेतन की अवस्था तक पहुँचा सकता है अन्यथा कुसंग में पड़कर वह सदैव के लिए स्व-अचेतन ही बना रह सकता है । संग ही उसका भावी जन्म और जीवन (पुनर्जन्म) निश्चित करता है ।

            चेतन होकर भी मनुष्य अपने जीवन को दो प्रकार से जीता है - या तो स्व- अचेतन चेतन होकर अथवा स्व-चेतन चेतन होकर । ‘स्व-अचेतन चेतन’ होकर जीने वाले मनुष्य और पशु में सींग-पूँछ को छोड़कर और कोई विशेष अंतर नहीं होता । पशु की तरह ऐसे मनुष्य भी आहार, निद्रा, भय और मैथुन में रत रहते हुए अपना मनुष्य जन्म खो देते हैं । दूसरे प्रकार के मनुष्य ‘स्व-चेतन चेतन’ की अवस्था प्राप्त कर अपने विवेक का सदुपयोग कर आत्म-बोध की अवस्था तक पहुँच जाते हैं । चेतन मनुष्य को ‘स्व-अचेतन’ होकर जीना है अथवा ‘स्व-चेतन’ होकर, यह उसके संग पर निर्भर करता है । कुसंग पाकर वह स्व-अचेतन होकर जीता है और सत्संग पाकर वह स्व-चेतन होकर ।

              मनुष्य की दो श्रेणियों के बारे में स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं कि पहली प्रकार के तो वे मनुष्य हैं, जो भौतिक रूप से तो जाग्रत अवस्था में है परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से सोए हुए हैं । ऐसे मनुष्य सांसारिक भोगों में आकण्ठ डूबे हुए हैं । इस लेख में ऐसे मनुष्यों को ‘स्व-अचेतन चेतन’ कहा गया है । दूसरी प्रकार के वे मनुष्य हैं जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से जाग्रत हैं । ऐसे मनुष्य संसार में रहते हुए भी संसार से मुक्त हैं । जिस प्रकार कमल-पुष्प दल और कमल-पत्र जल में रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होते ऐसे ही इस प्रकार के मनुष्य संसार में रहते हुए भी संसार में लिप्त नहीं होते । इस लेख में ऐसे मनुष्यों को ‘स्व-चेतन चेतन’ कहा गया है ।

        स्व-अचेतन और स्व-चेतन में ‘स्व’ का अर्थ है, स्वयं । मनुष्य स्वयं के कारण ही अचेतन होता है और स्वयं के कारण ही चेतन । स्व-अचेतन भी प्रयास कर स्व-चेतन हो सकता है । जो मनुष्य भौतिक/स्थूल रूप से जाग्रत है परंतु जानबूझकर सोया है अर्थात् सांसारिक गतिविधियों में लिप्त है, वह घोर सांसारिक है । उसे जगाना बड़ा कठिन है । जो मनुष्य स्थूल रूप से जाग्रत है और साथ ही संसार से भी निर्लिप्त है वह आध्यात्मिक रूप से भी जाग्रत है ।

            सोया हुआ व्यक्ति तो वह है, जो संसार के भोग और संग्रह में लगा हुआ है । जो सांसारिक भोग-संग्रह से विमुख है, वास्तव में वही मनुष्य जाग्रत है । सिक्कों की खनक को सुनने वाला जाग्रत होते हुए भी गहरी नींद में है क्योंकि वह परमात्मा से विमुख है । ऐसा मनुष्य चेतन होते हुए भी अचेतन अवस्था में है ।

         परमात्मा की ओर से सोए हुए मनुष्य का संग किसी जाग्रत के साथ हो जाए तो ऐसा मनुष्य भी गहरी नींद से जाग खड़ा होता है । महत्वपूर्ण है कि मनुष्य अपने जीवन में किसका संग करता है ? जो संग स्व-अचेतन चेतन को स्व-चेतन चेतन कर सकता है, वही संग सत्संग है । कुसंग मिल जाए तो स्व-चेतन भी स्व-अचेतन हो जाता है ।

           जो सदैव और संपूर्ण रूप से जाग्रत है, उसे सांसारिक गतिविधियों से कोई प्रयोजन नहीं रहता । इस बात को स्पष्ट करते हुए गीता में भगवान कहते हैं -

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: ।। 2/69 ।।

          संपूर्ण प्राणियों की जो रात होती है, उसमें संयमी पुरुष जागता है । जिस समय सभी प्राणी जागते हैं, वह समय तत्वज्ञ मुनि की दृष्टि में रात है ।

             दिन भर सांसारिक गतिविधियों में व्यस्त रहकर रात को भौतिक रूप से जब संसारी सो जाता है, ऐसी रात में भी सदैव जाग्रत रहने वाला मनुष्य (नींद में) सोते हुए भी चौकन्ना रहता है अर्थात् स्वप्न में भी वह संसार में नहीं उलझता । जब दिन में सांसारिक गतिविधियाँ, जिसमें प्रत्येक प्राणी स्थूल रूप से जाग्रत होकर भाग लेता है, आध्यात्मिक रूप से जाग्रत मनुष्य के लिए वह दिन भी रात्रि के समान है अर्थात् वह संसार की गतिविधियों में कोई रुचि नहीं लेता ।

         इतने विवेचन से स्पष्ट है कि चेतन मनुष्य की भी दो प्रकार की श्रेणियाँ है । प्रथम जिसमें मनुष्य चेतन होकर भी अचेतन की अवस्था में रहता है । ऐसे मनुष्यों को ‘स्व-अचेतन’ कहा जाता है । दूसरी श्रेणी में वे चेतन मनुष्य हैं जो ‘स्व-चेतन’ की अवस्था में रहते हैं । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के दैवासुर सम्पदा विभाग योग नामक अध्याय में विस्तार से इन दोनों का वर्णन किया है ।

         इस संसार में दो ही प्रकार के मनुष्य हैं - दैव और असुर । दैव वे चेतन मनुष्य हैं जो अपने विवेक का सदुपयोग करते हुए ‘स्व-चेतन’ की अवस्था में हैं । असुर वे चेतन मनुष्य हैं जो अपने विवेक का अनादर करते हुए ‘स्व-अचेतन’ बने हुए हैं । स्व-चेतन मनुष्य का संग प्रायः दूसरे स्व-चेतन मनुष्य के साथ ही होता है जिससे उसके भीतर सदैव दैव सम्पदा विकसित होती रहती है । स्व-अचेतन मनुष्य सदैव कुसंग ही करता है जिसके कारण उसमें आसुरी संपदा विकसित होती है जो उसके पतन का कारण बनती है । शारीरिक रूप से दोनों ही प्रकार के मनुष्यों में कोई विशेष अंतर नज़र नहीं आता परंतु आचार-व्यवहार के स्तर पर इनको आप सुगमता से पहिचान सकते हैं ।

         भगवान ने गीता के 16 वें अध्याय में दैवी एवं आसुरी संपदा वाले व्यक्तियों के लक्षणों का विस्तार से वर्णन किया है । मनुष्य का संग ही उसे दैव की श्रेणी में भी रख सकता है और असुर की श्रेणी में भी । इसलिए मनुष्य को अपने विवेक का सही उपयोग करते हुए संग का चुनाव करना चाहिए । सत्संग आपमें दैवी संपदा की वृद्धि करता है और कुसंग आसुरी संपदा की ।

             संग के मूल में कामना है । बिना किसी कामना के संग हो ही नहीं सकता । आप रेल में यात्रा कर रहे हैं । उसमें कई यात्रियों का संग स्वतः ही मिल जाता है । यह उदासीन संग है । इस संग में कामना केवल यात्रा करना है । दूसरा संग होता है किसी विशेष वस्तु अथवा व्यक्ति के साथ । ऐसे संग में स्वयं को सुख मिलने की कामना होती है । यह अशुभ कामना है । तीसरा संग होता है, प्रेम और आनन्द मिलने की कामना से । इसमें सत् का सत् के साथ संग होता है । इसमें कामना केवल उस परम तक पहुँचने की होती है । इसे शुभ कामना कहा जाता है । 

             मनुष्य के जीवन में संग या तो कुसंग होता है अथवा सत्संग होता है । संग नाम है उस बंधन का, जिसमें एक जीव दूसरे जीव के साथ बंधता है । एक संग तो वह होता है, जिसमें कामनापूर्ति के लिए मनुष्य एक दूसरे के साथ बंधते हैं । यह बंधन मनुष्य को संसार के साथ बाँधने वाला होता है । दूसरा बंधन वह होता है, जिसे मनुष्य संसार से अपनी मुक्ति के लिए स्वीकार करता है अर्थात् वह संग जो मुक्ति के लिए किया जाता है, ऐसा संग बंधन प्रतीत होते हुए भी बंधन नहीं है । इस संग का नाम ही सत्संग है । सत्संग नाम है उस संग का, जिसमें हम एक दूसरे के साथ बंधे बिना अर्थात् असंग रहकर उस प्रेम और आनन्द को अनुभव कर सकते हैं जिसके लिए परमात्मा संसार के रूप में अवतरित हुए हैं । सत्संग केवल उन्हीं के लिए बंधन है, जो सत्संग से सीख न लेकर सुख लेते हैं । सत्संग से अगर जीवन में परिवर्तन नहीं आता तो ऐसा सत्संग बंधन है ।

          जन्म-जन्मांतर से हम संसार बियाबान में भटकते हुए उससे बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ रहे हैं । रास्ता मिलेगा, सत्संग से । परंतु दुर्भाग्य से सत्संग करने के साथ ही साथ हम संसार का कुसंग नहीं छोड़ पा रहे हैं । बंधे हुए तो हम पहले से ही है, तभी तो सत्संग में केवल उपस्थिति दर्ज कराने आते हैं । सत्संग में संत के प्रवचन करते समय हमारा मन तो बाहर कहीं का कहीं भटकता रहता है, केवल स्थूल शरीर वहाँ बैठा रहता है । इस प्रकार सत्संग करने का कोई लाभ नहीं है । ऐसा सत्संग भी बंधन में डालने वाला हो जाता है । जब तक हमारी जड़ता में तनिक सा भी परिवर्तन आता दिखलाई नहीं पड़ता, तब तक सत्संग बंधन है । मनोयोग से किए सत्संग का प्रभाव तो तत्काल होता है । फिर बार-बार सत्संग करने की आवश्यकता नहीं होती । एक दृष्टांत के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ ।

           एक गाँव की पुलिस वहां कई दिन से हो रही चोरियों के कारण परेशान थी । उस पर चोरी करने वाले को पकड़ने का पूरा दबाव था । एक बार एक चोर उसी गाँव के किसी घर में भरी दुपहर चोरी कर रहा था । चोरी का माल लेकर वह घर से बाहर निकला ही था कि पुलिस की नज़र उस पर पड़ गई । पुलिस को देखकर चोर भागने लगा । रास्ते में सुनसान स्थान देखकर उसने माल को वहीं यह सोचकर फेंक दिया कि पुलिस अब पीछा नहीं करेगी । पुलिस को माल से कोई मतलब नहीं था, उसे तो चोर को पकड़ना था । चोर आगे और पुलिस पीछे । पुलिस से बचने का चोर को कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था । तभी उसकी दृष्टि गाँव के ही एक मंदिर पर पड़ी, जहां किसी संत का सत्संग हो रहा था । चोर उस मंदिर में घुस कर वहाँ हो रहे सत्संग को सुन रहे लोगों के बीच जाकर बैठ गया और मनोयोग से प्रवचन सुनने लगा ।        

             चोर बैठा है श्रोताओं के बीच, पूरे ध्यान से प्रवचन सुन रहा है क्योंकि पुलिस की नज़रों से बचने का यही एक मात्र उपाय है । संत कह रहे हैं - “इस संसार में चोरी करने से बड़ा कोई पाप नहीं है । चोरी के अपराध में चोर को कोई सजा मिले अथवा नहीं, ऊपर वाला निश्चित ही उसका न्याय करेगा । मनुष्य चोरी करता है, अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए । सोचिए ! पशु-पक्षियों का पेट कौन भरता है ? जो उनका भरता है, वही हमारा भी भरता है । फिर चोरी क्यों करते हैं ? चोरी करना महापाप है । जिस दिन हम इस पाप से मुक्ति पा लेंगे, उसी दिन से आपके भरण-पोषण की ज़िम्मेवारी परमात्मा की हो जाएगी ।” संत बोले जा रहे थे, चोर मन लगाकर उनको सुन रहा था । पुलिस मंदिर परिसर में आई लेकिन श्रोताओं के मध्य बैठे चोर को पहचान न सकी और लौट गई ।

          चोर ने उसी समय चोरी छोड़ने का संकल्प कर लिया । संत के प्रवचन समाप्त होने से पूर्व ही चोर वहाँ से उठा और उस गाँव को छोड़ दिया । 

        कई वर्ष बीत गए । एक दिन वही चोर, जो अब साधु बन चुका था, उसी गाँव से होकर आगे जा रहा था । उसने देखा कि मंदिर के पास बहुत भीड़ है । वह किसी से पूछ बैठा -“यहाँ क्या हो रहा है ?” उत्तर मिला - “सत्संग चल रहा है ।” उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि अभी तक सत्संग चल रहा है । अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए किसी से पूछा तो उत्तर मिला कि यहाँ तो कई वर्षों से प्रतिदिन सत्संग होता ही है । साधु (चोर) को बड़ा आश्चर्य हुआ कि सत्संग करने का लाभ तो तत्काल मिल जाता है, फिर यह कैसा सत्संग है, जो अभी भी करना पड़ रहा है ?

            उस साधु (चोर) का सोचना सही था । जब तक हम सत्संग को गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक उसे सही मायने में सत्संग नहीं कहा जा सकता । सत्संग थोड़े समय के लिए भी मिल जाए तो भी बहुत लाभकारी होता है, बस सत्संग मनोयोग से हो, यह आवश्यक है । कबीर ने कहा भी है -

       एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से पुनि आध ।

       कबीरा संगत साधु की, कटे कोटि अपराध ।।

              कुसंग तो स्वरूप से ही बँधनकारी है परंतु सत्संग से केवल सुख लेना भी बांधने वाला हो सकता है । है न बड़े आश्चर्य की बात ! इसका अर्थ यह नहीं है कि सत्संग करें ही नहीं । थोड़ी देर के सत्संग से भी लाभ मिलता है । कम से कम उतने समय तक तो व्यक्ति का कुसंग से दूर रहना हो जाता है । प्रतिदिन अल्प समय के लिए ही सही, ऐसा सत्संग दीर्घकाल तक करने से कभी न कभी तो जीवन में परिवर्तन आएगा ही । कठोर लोहे को तोड़ने के लिए उस पर हथौड़े से चोट मारी जाती है । अंतिम चोट से लोहा टूट कर बिखर जाता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि पूर्व में मारी गई सभी चोटें अनुपयोगी थी । प्रत्येक चोट के साथ लोहे का भीतर से टूटना चल रहा था । हाँ, अंतिम चोट ने अवश्य ही उसको खण्ड-खण्ड कर दिया था । 

           इसी प्रकार कई जन्मों की जड़ता एक बार में समाप्त नहीं होती । महत्वपूर्ण है, सत्संग को गंभीरता से लेना । जितने समय के लिए ही सत्संग करें, उसमें डूब जाएँ । इसके लिए आवश्यक है कि हम स्वयं को परिवर्तित करने के लिए दृढ़ संकल्प हों । बिना लक्ष्य के प्रति दृढ़ता रखे कोई भी सत्संग कल्याण नहीं कर सकता ।

            संग किसका, किसके साथ और कैसे होता है ? ज़रा उस ओर भी दृष्टि डाल लेते हैं । एक संग होता है - पदार्थ और पदार्थ के बीच, जिसमें दोनों एक साथ रहते हुए भी अनंतकाल तक अपरिचित बने रहते हैं । यह असत् के साथ असत् का संग है । इसमें दोनों में से न तो कोई किसी को प्रेम करता और न ही कोई किसी को दुःख देता है, आनन्द का अनुभव होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । दूसरा संग होता है - कुसंग । यह दो प्रकार का होता है । सजीव (चेतन) का निर्जीव पदार्थ (अचेतन) के साथ और सजीव (चेतन) का सजीव पदार्थ (शरीर) के साथ । सजीव का निर्जीव पदार्थ के साथ संग का उदाहरण है - धन, ज़मीन, भवन आदि में आसक्त होना, उनमें ममता रखना । सजीव का सजीव पदार्थ (शरीर) का संग करने का अर्थ है, सजीव के शरीर (पदार्थ) में आसक्त होकर उसमें सुख खोजना । इसके उदाहरण है - पत्नी, पुत्र, माता-पिता, बंधु, मित्र और परिवार में ममता रखना ।

            कुसंग चाहे किसी प्रकार का हो, उसमें दोनों ही पक्षों को दुःख के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता । इसीलिए गोस्वामीजी ने कहा है - 

      ‘को न कुसंगति पाइ नसाई । रहइ न नीच मते चतुराई ।।

             संसार में ऐसा कौन है, जो कुसंग पाकर नष्ट नहीं होता ? इसलिए मनुष्य को सदैव कुसंग से बचना चाहिए । कुसंग ही मनुष्य के बंधन का कारण है क्योंकि कुसंग के कारण ही कामना, आसक्ति और ममता पैदा होते हैं । इसलिए कुसंग सदैव ही त्याज्य है ।

           स्वामीजी की पुस्तक ‘भगवन्नाम’ में कुसंग के त्याग की बात कही गई है । वे कहते हैं - “कुसंग का त्याग करो । कुसंग क्या है ? यह धन हमारा है, सम्पत्ति हमारी है - यह कुसंग है । जो धनके लोभी हैं, भोगोंके कामी हैं, उनका संग कुसंग है । जो परमात्मा से विमुख हैं, उनका संग महान् कुसंग है । जो कुसमाज है, उनसे बचो । नहीं तो महाराज ! थोड़ा-सा कुसंग भी आपकी वृत्तियों को बदल देगा, एकदम भगवान् से विमुख कर देगा । लोग कहते हैं कि भगवद्-भजन में इतनी ताकत नहीं, जो कुसंग पर इतना असर कर जाय । वह ताकत कुसंग में भी नहीं है भाई, प्रत्युत अपने भीतर में अनेक तरह के जो विरुद्ध संस्कार पड़े हुए हैं, वे भगवद्-भजन के विरुद्ध संस्कार पड़े हैं । वे संस्कार कुसंग से उभर जाते हैं, जग जाते हैं । इस वास्ते कुसंग का बड़ा असर पड़ता है । 

           आप भजन करोगे तो वे सब संस्कार नष्ट हो जाएंगे, फिर - *'बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ।” कभी किसी कारणसे कोई सज्जन कुसंग में पड़ भी जायँ तो जैसे साँप की मणि होती है, उसको जहर नहीं लगता । वह तो जहर के ऊपर रखने से जहर का शोषण कर लेती है, पर वह खुद जहरीली नहीं होगी । इसी तरह से आप भजन में तल्लीन हो जाओगे, तदाकार हो जाओगे तो फिर आपका मन नहीं बदलेगा, आपके ऊपर कुसंग का असर नहीं पड़ेगा । कारण कि आपके अन्तःकरण में भगवत्-सम्बन्धी संस्कार दृढ़ हो गये, प्रत्युत कुसंग पर आपका असर पड़ेगा, भजन का असर पड़ेगा । कुसंग की शक्ति बढ़े, उससे पहले ही सावधान रहो ।”

            स्वामीजी ने कुसंग के बारे में बिलकुल सत्य कहा है । मनुष्य जीवन कुसंग से ही सर्वाधिक प्रभावित होता है क्योंकि कुसंग बड़ी तेज़ी से सांसारिक विषयों में रुचि पैदा करता है । विषयों के प्रति बढ़ती रुचि का कारण है - शारीरिक सुख के प्रति मनुष्य का आसक्ति भाव । किसी के प्रति आसक्त होना जीवन में विषमता पैदा करता है । इस विषमता के कारण मनुष्य का एक न एक दिन पतन होना निश्चित है । कहने का अर्थ है कि कुसंग मनुष्य को दुर्गति की ओर ले जाता है जबकि सत्संग प्रगति/सद्गति की ओर । 

              “दुर्गति और प्रगति” इन दोनों में ‘गति’ शब्द बड़े महत्व का है । गति एक सदिश इकाई (vector unit) है, जिसमें मात्रा/परिमाण के साथ दिशा भी होती है । एक ही स्थिति में बने रहने की अवस्था को भौतिक विज्ञान में जड़ता (Inertia) कहा गया है । गति के तीन नियम हैं, जिनमें पहला नियम ‘जड़त्व का नियम’ कहलाता है । जड़त्व का नियम कहता है - “अगर कोई वस्तु स्थिर है तो वह स्थिर ही रहेगी और कोई वस्तु जिस दिशा में गतिमान है वह उसी दिशा में तब तक गति करती रहेगी, जब तक उस पर कोई बाह्य बल न लगाया जाय ।” 

          बाह्य बल लगाने से स्थिर वस्तु को गति मिल जाती है और गतिमान वस्तु की या तो दिशा बदल जाती है अथवा दशा बदलकर वह स्थिर हो जाती है । जड़त्व के नियम से निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक प्रकार की जड़ता को तोड़ने के लिए बाह्य बल की आवश्यकता होती ही है ।

           वस्तु स्थिर है तो भी उसमें जड़ता है और गतिमान है तो भी उसमें जड़ता है । जड़ता का अर्थ है, एक ही स्थिति में बने रहना । यह जड़ता तीन प्रकार की होती है - स्थितिज जड़ता (Inertia of rest), गतिज जड़ता (Inertia of motion) और दिशा की जड़ता (Inertia of Direction) । प्रत्येक प्रकार की जड़ता को तोड़ने के लिए बाह्य बल की आवश्यकता होती है । व्यावहारिक और सामाजिक जीवन में इसको संगति अर्थात् संग करना कहा जाता है । यह संग अर्थात् संगति ही है जो गति का परिमाण, दिशा और दशा बदलने में बाह्य बल का कार्य करता है ।

           आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो जड़ता के सम्बन्ध में भौतिकी (Physics) की बात सही है । जड़ता एक ही स्थिति में बने रहने को कहते हैं । इस जड़ता की स्थिति से व्यक्ति तभी बाहर निकल सकता है, जब उसे किसी का संग मिले । संग अगर सही मिला तो उसके जीवन में प्रगति होगी अन्यथा सांसारिक संग में भटकाव के अतिरिक्त कुछ मिलने वाला नहीं है, जो अंततः उसे पतन की ओर ले जाने वाला ही सिद्ध होगा । 

             शरीर के सुख के लिए संसार के पदार्थों पर निर्भर रहना मानव की सबसे बड़ी भूल है । वह इन पदार्थों को प्राप्त करने के लिए दौड़ता रहता है । इस प्रकार की दौड़ भी जड़ता है । इस जड़ता को समाप्त करने के लिए सत्संग आवश्यक है । सत्संग संसार और उसके पदार्थों का संग छुड़ाकर असंग कर देता है । असंग होते ही जड़ता टूट जाती है और सांसारिक दौड़ समाप्त हो जाती है ।

      संग का प्रभाव कभी भी और किसी पर भी हो सकता है परंतु विकसित होते मस्तिष्क, विकसित होती बुद्धि पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है । बाल्यकाल से जिसको अच्छा संग मिल जाता है, उसकी प्रगति की दिशा निःसंदेह प्रशंसनीय होती है । कुसंग पाकर बच्चे कम आयु में ग़लत राह पकड़ कर भटक भी जाते हैं । 

                   संग के बारे में श्रीरामचारितमानस में तुलसी लिखते हैं -

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । 

कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ।।1/7/9।।

                अर्थात् धूल उर्ध्वगामी वायु का संग पाकर आकाश तक पहुँच जाती है । वही धूल अधोगामी जल का संग पाकर कीचड़ बन जाती है । धूल एक ही है परंतु उसके द्वारा किए जाने वाले संग भिन्न भिन्न है । जैसा संग होता है, उसी प्रकार की गति होती है ।

            जीवन में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी का संग अवश्य ही करता है क्योंकि अकेलेपन का जीवन उसे नीरस और बोझिल लगता है । हाँ, सत्संग से जीवन में असंगता आती है, जो मनुष्य को बोझिल नहीं लगती क्योंकि संसार से असंग वही होता है, जो परमात्मा का संग चाहता है । आत्मा का परमात्मा से संग सत् का सत् से संग है । ऐसे संग में दोनों मिलकर एक हो जाते हैं, वह एक परमात्मा ही है । परमात्मा का संग कभी उबाऊ नहीं होता, वे प्रेम और आनंद के सागर जो हैं । 

           जैसा संग होता है, उसका वैसा प्रभाव मनुष्य की बुद्धि पर अवश्य पड़ता है । कहावत भी है कि संग से व्यक्ति का रंग भले ही न बदले, अक़्ल अवश्य ही परिवर्तित हो जाती है । हाँ, व्यक्ति की बुद्धि अगर अधिक प्रभावी हो तो व्यक्ति सोच-समझकर संग करता है । तुलसी ने कहा भी है - 

     “सठ सुधरिहिं सतसंगति पाई । 

     पारस परस कुधात सुहाई ।।” मानस - 1/3/9।।

     अर्थात् दुष्ट भी सत्संग पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है ।

             व्यक्ति के जीवन में विवेक का बड़ा महत्व है । प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि में विवेक छिपा रहता है । विवेक के प्रकट होने पर व्यक्ति की सोचने-समझने की क्षमता का विकास होता है । विवेक ही सही संग का चुनाव करता है । सामान्यतः मन की गति सुख की ओर रहती है क्योंकि मन की गति अधोगामी है जबकि विवेक की गति उर्ध्वगामी है । सुख इंद्रियों का विषय है जोकि अचेतन है । आनन्द, विवेक अर्थात् चित् (चैतन्य) का विषय है । आनन्द का अनुभव केवल चेतन ही कर सकता है । यह व्यक्ति की क्षमता पर निर्भर करता है कि वह किसका दास है - इंद्रियों का या फिर विवेक का ।

          शारीरिक सुख की चाहना रखने वाला इंद्रियों का दास है जबकि प्रेम और आनन्द की चाह रखने वाला सदैव अपने विवेक का आदर करता है । विषयों में आसक्त इंद्रियाँ व्यक्ति की जड़ता को बढ़ाती है जबकि विवेक विषयासक्ति से इंद्रियों को मुक्त करता है । आसक्ति दुर्गति की नींव है । जीवन में प्रगति करनी है तो विवेक का सदुपयोग करते हुए अनासक्त होना ही होगा ।

          मन में बार-बार एक ही प्रश्न उठता है कि जीवन में संग करना क्यों आवश्यक है ? एक एकाकी और उदासीन जीवन किसी को पसन्द नहीं है । उदासीन जीवन नीरस होता है । आप अकेले एक कमरे में बन्द हो जाएँ तो आपको कैसा लगेगा ? आपका न तो समय बीत पाएगा और न ही मन स्थिर रह पाएगा । आप एक ही स्थिति में रहने को विवश होंगे । एक ही स्थिति में बने रहना ही जड़ता है। इस विवशता से बाहर निकलने के लिए व्यक्ति को किसी न किसी का साथ चाहिए । आधुनिक युग में समय काटने के लिए व्यक्ति या तो टेलीविज़न देखता है अथवा मोबाइल पर सोशल मीडिया पर सक्रिय रहता है । यह भी एक प्रकार की जड़ता हुई क्योंकि इसमें व्यक्ति का समय तो कट रहा है परन्तु एक ही स्थिति में रहते हुए वह उससे मुक्त नहीं हो पा रहा है ।

              मनुष्य सामाजिक और पारिवारिक जीवन को तभी स्वीकार करता है, जब उसके जीवन में रस का अभाव हो । वह सुख की कामना में परिवार और समाज का संग लेता है । ऐसा संग कुसंग भी हो सकता है । कुसंग मनुष्य की कामना को और अधिक बढ़ाता है । जब कामी व्यक्ति का संग मिल जाता है, तो व्यक्ति पतन की राह पर चला जाता है । कामना से कर्म होते हैं जिनकी सफलता से मनुष्य को सुख मिलता है । ऐसा होने पर कहने भर को तो वह प्रेम और आनन्द की अवस्था में मग्न है परंतु वास्तव में वह स्वार्थ और वासना के दलदल में फँसा हुआ है । जहां प्रेम होता है वहाँ स्वार्थ और वासना का कोई स्थान नहीं है । क्षणिक शारीरिक सुख को आनन्द मान लेना सबसे बड़ी मानवीय भूल है ।

      अयोध्या में भगवान श्री राम का राज्याभिषेक होना निश्चित हुआ । माँ शारदा ने कैकेयी की दासी मंथरा की बुद्धि फेरकर उसे मोहग्रस्त कर दिया । मोहग्रस्त हुई मंथरा अवध की शोभा को नहीं पचा पा रही है । क्यों ? क्योंकि एक राजमाता की दासी होने और राजपरिवार के किसी अन्य सदस्य की दासी होने में बड़ा अन्तर होता है । उसने सोच लिया कि यदि दासी बनकर रहना ही नियति में लिखा है, तो क्यों न राजमाता की दासी होकर रहा जाय । बस, मंथरा की इसी कामना ने एक ही रात में उस राजपरिवार को हिला कर रख दिया, जिस राज परिवार में स्वयं परमात्मा अवतरित हुए हैं । इसी कामी मंथरा के संग ने कैकेयी जैसी बुद्धिमति की बुद्धि को भी परिवर्तित कर दिया था ।   

                 संग ही वह बाह्य बल है जो या तो जड़ता को बढ़ाता है या वह जड़ता से मुक्त कर देता है । संग बुद्धि की दिशा को परिवर्तित करता है । आपका संग कैसा है, उसी अनुसार बुद्धि में परिवर्तन आता है । संग से बुद्धि की जड़ता की दिशा और दशा दोनों बदल जाती है । कुसंग में व्यक्ति विवेकहीन हो जाता है फिर बुद्धि पर दूसरा कोई बल प्रभाव नहीं डाल सकता । कुसंग व्यक्ति को सर्वाधिक आकर्षित करता है क्योंकि उसमें आपको अपना स्वार्थ सिद्ध होता नज़र आता है । आपका स्वार्थ है कि आप जैसा चाहते हैं, वैसा हो जाय । कैकेयी के भीतर राजमाता होने की थोड़ी बहुत कामना शायद पूर्व में भी कभी रही होगी, तभी वह कामना मंथरा के कुसंग से सतह पर आ गई और उसने दशरथ से पहला वर भरत का राज्याभिषेक करने का माँगा, राम के वनवास का नहीं ।

           कुसंग का अर्थ है, असत् का संग । असत् तो शरीर और संसार है और सत् शरीर में स्थित आत्मा है । जब शरीर में स्थित आत्मा की उपेक्षा कर दी जाती है, तभी कुसंग प्रभावी होता है । प्रारंभ में मंथरा के द्वारा विभिन्न प्रकार से समझाने पर भी कैकेयी विचलित नहीं हुई क्योंकि तब तक वह अपने भीतर (आत्मा) की आवाज़ सुन रही थी । परंतु जब मंथरा ने कैकेयी के मर्म भाग पर प्रहार किया अर्थात् भरत को लेकर कुछ कहा तब उसने सत् (आत्मा) को ठुकरा दिया और असत् के संग हो ली । कुसंग आत्मा की आवाज़ को दबा देता है और अंततः व्यक्ति असत् के संग हो लेता है ।

           सत्संग, कुसंग के ठीक विपरीत है । इसमें व्यक्ति का संग सत् के साथ होता है । चित्त का आत्मा के स्वर में स्वर मिलाकर संगत करना ही सत्संग है । सत्संग में आवाज़ सत् की होती है और सुनने वाला भी सत् ही होता है । सत् की वाणी असत् तक पहुँच ही नहीं सकती । शरीर-रूप से भले ही दोनों ही असत् हो परंतु वक्ता और श्रोता दोनों के लिए सत् ही महत्वपूर्ण है । एक सत् को पा चुका है, एक सत् को पाना चाहता है, तभी दोनों का सत्संग होता है । जब वक्ता असत् हो और श्रोता भी असत् हो तो दिखने में सत्संग भले ही हो रहा हो परंतु तब वह वाणी इतनी प्रभावशाली नहीं होती । यही कारण है कि आज चारों ओर सत्संग हो रहे हैं परंतु उनका प्रभाव दृष्टिगोचर कहीं नहीं हो रहा है ।

             लंकिनी नाम की राक्षसी का हनुमानज़ी से थोड़े समय के लिए ही वार्तालाप होता है । लंकिनी कहती है - “ब्रह्माजी जब लंका बनाकर वापस जा रहे थे तब जाते-जाते उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम एक बन्दर के प्रहार से जब विकल हो जाओ, तब समझ जाना कि अब लंका का विनाश होना सुनिश्चित है । इस बात से मेरे मन में विश्वास हो गया कि भगवान के दूत का मुझे स्पर्श होगा । मेरा बड़ा भाग्य है जो भगवान श्रीराम के दूत के दर्शन हुए ।” लंकिनी जैसा विश्वास हमें हो जाए तो एक सत्संग से ही हमारा कल्याण हो जाएगा ।

               हनुमानजी जैसे राम-भक्त के संग से लंकिनी इतनी प्रभावित होती है कि वह सत्संग से मिले सुख का वर्णन करने लगती है । प्रारम्भ में लंकिनी राक्षसी के शरीर (असत्) का संग हनुमानज़ी (सत्) के साथ था परन्तु मुष्टि प्रहार के बाद लंकिनी की आत्मा (सत्) का संग सत् (रामभक्त हनुमान) के साथ हो गया । तभी वह सत्संग प्रभावी हो पाया ।

                   तुलसी मानस में लिखते हैं -

         तात स्वर्ग अपबर्ग सुख, धरिअ तुला एक अंग ।

         तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सतसंग ।। सुंदरकांड - 4 ।।

                  लंकिनी कह रही है कि हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सुखों को तराज़ू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर उस दूसरे पलड़े में रखे गए सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव अर्थात् क्षण मात्र के सत्संग से होता है ।

             ज्ञान की बातें हर किसी के मुख से सुनना ही केवल सत्संग नहीं है । सत्संग वही है जिससे व्यक्ति की जड़ता को ऐसी नई दिशा मिलती हो, जो उसकी अध्यात्म-पथ पर प्रगति करा दे । प्रत्येक प्रकार की जड़ता को तोड़ने के लिए किसी बाह्य बल की आवश्यकता पड़ती है । सत्संग ही वह बाह्य बल है, जो बिना किसी प्रयास के जड़ता समाप्त कर मुक्ति की राह खोल देता है । 

           संतों का संग इसी प्रकार का सत्संग है क्योंकि संत सत् की उस अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं, जहां पर हर कोई पहुँचने की इच्छा रखता है । सत्संग के बारे में भगवान स्वयं कहते हैं कि जो बड़े भाग्यशाली होते हैं, उन्हें ही संतों का संग अर्थात् सत्संग मिलता है । मानस में गोस्वामीजी लिखते हैं -

        बड़े भाग पाइब सतसंगा । बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा ।। उत्तरकांड -33/8।।

              बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिना किसी प्रयास के जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है ।

        सत्संग का मिलना बड़ा मुश्किल है । जिसका प्रारब्ध बड़ा प्रबल है, उसी को वास्तविक सत्संग उपलब्ध होता है । पहले तो मानव शरीर मिलना असंभव है । परमात्मा अगर कृपा करके मनुष्य शरीर दे भी देते हैं तो सत्संग का मिलना कठिन है । कठिन इसलिए क्योंकि संसार में आकर जीव इंद्रियों का दास बनकर सुख-भोग में लग जाता है । 

                संसार में आकर शरीर के सुख के लिए इंद्रियों को विषयों की ओर खुला छोड़ देना ही घातक है । इंद्रियों का नियंत्रण मन के पास है और मन चंचल होता है । मन संसार से सुख चाहता है । असत् संसार का संग ही कुसंग है । परमात्मा से प्रेम करना ही सत्संग है क्योंकि एक वे ही सत् हैं । असत् संसार में आकर असत् का संग करना कुसंग है । असत् शरीर में रहते हुए अपनी आत्मा को सदैव जाग्रत रखना आपको सत्संग उपलब्ध करा सकता है अन्यथा संसार के बियाबान में उलझ कर शरीर का ही नाश करना है । फिर यह मानुष देह कब मिलेगी, कहा नहीं जा सकता ।

             जन्म-मृत्यु का चक्र क्या है ? इस संसार में बार-बार नए-नए शरीर लेकर आना ही जन्म-मृत्यु चक्र है । सत्संग हमें हमारे मूल स्वरूप तक पहुँचने में सहायता करता है । मूल स्वरूप तक पहुँचने पर संसार में लौटना नहीं होता । कुसंग सांसारिक सुख में प्रवृत्त करता है, जबकि सत्संग संसार से निवृत्त करते हुए आत्मिक सुख अर्थात् आनंद की अनुभूति कराता है । सांसारिक सुख कामना के अधीन है जबकि आनंद प्रत्येक प्रकार की कामना के छूट जाने पर उपलब्ध होता है । सत्संग व्यक्ति को आत्म-अनात्म का ज्ञान कराता है । इस प्रकार का ज्ञान हो जाने से व्यक्ति संसार के प्रत्येक जीव को पहले स्वयं में और फिर स्वयं सहित सभी जीवों को परमात्मा में देखता है ।

          सबमें परमात्मा है, इसका अर्थ है कि एक परमात्मा ही है । ऐसा स्वीकार करने वाले किन्हीं दो का संग ही सत्संग हो जाता है । इस प्रकार सत् का जो संग सत् के साथ होता है, उससे प्रेम उत्पन्न होता है अर्थात् परमात्मा से प्रेम । परमात्मा से प्रेम होना ही व्यक्ति को आनंद की अवस्था तक ले जाता है । परमात्मा ही सत् है, वे ही चैतन्य है और आनंदघन भी । इसीलिए उनको सच्चिदानन्दघन कहा जाता है । 

            प्रारंभ में प्रेम और आनंद की कामना अवश्य रहती है परंतु सत्संग से धीरे-धीरे प्रत्येक कामना मिट जाती है । संग में कम से कम दो का साथ होता है परंतु आत्म-ज्ञान होते ही केवल एक ही बच रहता है और वह है सत् । सत्संग का परिणाम - संग मिट गया और सत् शेष रहा । प्रेम की पराकाष्ठा में दो मिट जाते हैं और केवल एक बच रहता है । दोनों का संग इतना प्रगाढ़ होता है कि दो के स्थान पर एक ही प्रतीत होता है । जो एक बच रहता है, वह सांसारिक सुख न होकर आनंद का सागर होता है । परमात्मा का एक से अनेक होने का उद्देश्य इसी प्रेम और आनंद को प्राप्त करने का था । 

         प्रेम जब अनंत हो गया, रोम-रोम संत हो गया ।

         बदन बन गया देवालय, मन महंत हो गया ।।

        प्रेम तो अनंत है क्योंकि वह असीम है । प्रेम से कोई कभी अघाता नहीं है । जिसने प्रेम किया है, उसने ही प्रेम पाया है, वही व्यक्ति संत कहलाने का अधिकारी है । देह, मन आदि सब प्रेम-पात्र के हो जाते हैं, स्वयं के लिए कुछ भी नहीं बचता क्योंकि फिर स्वयं ही स्वयं का नहीं रहता ।

              प्रेम में न तो प्रेमी रहता है और न ही प्रेम-पात्र, दोनों ही खो जाते हैं, दोनों एक दूसरे में समा जाते हैं । राधा कृष्ण हो जाता है और कृष्ण राधा हो जाती है । एक दूसरे में समा जाने से अर्थ अचेतनता से नहीं है बल्कि चैतन्य हो जाने और परम आनंद की अवस्था से है । फिर कौन तो ढूँढे, किसको ढूँढे और कहाँ ढूँढे ? प्रेम की सर्वोच्च अवस्था ही सत् है, वह चैतन्य है और वही परम आनंद है अर्थात् वह सच्चिदानंदघन परमात्मा है । 

                जब सब कुछ परमात्मा ही है, तो किसमें तो राग हो और किससे द्वेष ? जब सब कुछ वही है, मुझ में भी, तुझ में भी, तो इसका अर्थ है कि फिर ‘मैं’ ही ‘मैं’ से प्रेम करता है । फिर जो सुख प्राप्त होगा वह आत्यंतिक और इन्द्रियातीत सुख होगा । ऐसा सुख आनंद कहलाता है । जब सब कुछ वही है, तो फिर सुख-दुःख कहीं है ही नहीं, हो सकते ही नहीं । कामना, सुख-दुःख आदि तो ‘मेरा-तेरा’ में है । प्रेम तथा आनंद रूप तो केवल एक वही है । 

                 यह ज्ञान सत्संग से ही मिलता है । सनकादि ऋषि भगवान श्रीराम से मिलने अयोध्या जाते है, तब उनसे मिलकर भगवान बड़े प्रसन्न होते हैं । इस सम्बन्ध में तुलसीदास जी मानस में लिखते हैं -

        संत संग अपबर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।

        कहहिं संत कबि कोबिद, श्रुति पुरान सद्-ग्रंथ ।।      

                           - उत्तरकाण्ड -33 

     संत का संग मोक्ष (भव बंधन से छूटने) का और कामी का संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का मार्ग है । संत, कवि और पण्डित तथा वेद, पुराण आदि सद्-ग्रंथ ऐसा कहते हैं ।

            बार-बार मन में एक ही प्रश्न उठता है कि जीवन में संग क्यों आवश्यक है ? संसार का कोई भी प्राणी अकेला नहीं रह सकता, यह सार्वभौमिक सत्य है । अकेले को कभी प्रेम उपलब्ध नहीं होता और न ही उसको आनंद की अनुभूति हो सकती है । प्रेम और आनंद प्राप्त करने के लिए कम से कम दो का होना आवश्यक है । केवल दो का होना ही आवश्यक नहीं है बल्कि दोनों का एक साथ होना आवश्यक है । दो के एक साथ होने से ही एक दूसरे से प्रेम कर सकते हैं, जिससे दोनों को ही आनंद की प्राप्ति होती है ।

             परमात्मा का अंश रूप से प्रकृति और पुरुष के रूप में रूपांतरित होने का लक्ष्य भी प्रेम और आनंद की एक समान अनुभूति करना है । परंतु दुर्भाग्यवश मनुष्य के रूप में पुरुष एक समान के इस उद्देश्य से विचलित होकर स्वार्थी हो गया है । अपने निजी स्वार्थ के कारण वह न तो प्रेम कर सका और न ही आनंद को उपलब्ध हो सका ।

          पुरुष को प्रकृति वह सब कुछ उपलब्ध करवाती है, जिसमें अगर वह आसक्त न हो तो वह प्रकृति को प्रेम करते हुए आनंद की अनुभूति कर सकता है । प्रकृति और पुरुष के आपसी प्रेम में अंततः दोनों खो जाते हैं और केवल परमात्मा शेष रह जाते हैं, प्रेम और आनंद के साथ । परंतु हुआ क्या ? जिस पुरुष को मनुष्य के माध्यम से प्रकृति से प्रेम करना था, उससे वह प्रेम के स्थान पर वासना कर बैठा, उससे सुख चाहने लगा । सुख लेने के लिए वह प्रकृति को ही छलने लगा । इस प्रकार एक पक्षीय प्रेम होने से उसे छद्म सुख तो अवश्य मिला परंतु आनंद की अवस्था तक पहुँचने में वह विफल रहा ।

                  श्रीकृष्ण (पुरूष) के रूप में स्वयं परमात्मा ही अवतरित हुए । उन्होंने प्रकृति को अपने आनंद और प्रेम के लिये राधाजी की रचना की । इसीलिए राधाजी (श्रीजी) को भगवान की आह्लादिनी शक्ति भी कहा जाता है । आह्लादिनी शक्ति अर्थात् भगवान से प्रेम कर आनंद देने वाली शक्ति । श्रीजी ने भगवान से और भगवान ने श्रीजी से निस्वार्थ प्रेम किया जिससे दोनों ही आनंदित हुए । प्रेम असीम और कालातीत है । प्रेम करने वाला कभी नहीं कहता कि मैं तुम्हें इतनी सीमा तक, इतनी तीव्रता से और इतने समय तक प्रेम करूँगा । जहां प्रेम को समय और सीमा में बांध दिया जाता है तब वह वास्तविक प्रेम नहीं रहता बल्कि वासना बनकर रह जाता है ।

              श्रीकृष्ण (परमात्मा का मनुष्य शरीर के रूप में अवतार) की तरह हम भी मनुष्य हैं और उसी परमात्मा के अंश है । प्रेम करने के लिए हमारे पास भी श्रीजी (प्रकृति) हैं । हमें भी उससे असीम प्रेम मिलता है । हमें भी उससे प्रेम करना चाहिए । परंतु हमारा प्रेम तो स्वार्थ के वशीभूत हो गया जो एक निश्चित समय और सीमा में बंधा हुआ है । इसे प्रेम नहीं कहा जा सकता । यह प्रेम नहीं है, यह तो आपसी लेन-देन हुआ, एक प्रकार का व्यापार हुआ । व्यापार में सब कुछ निश्चित होता है । जहां एक दूसरे से लेना और देना समाप्त हुआ कि प्रेम तिरोहित । व्यापार में प्रेम कहाँ होता है ? व्यापार में तो एक दूसरे से अपेक्षा/कामना रखना होता है ।

        अपेक्षा ही ऐसे कथित प्रेम के मूल में है । जहां अपेक्षाएं टूटती है, वहाँ ऐसा छद्म प्रेम भी समाप्त हो जाता है । जब तक एक दूसरे से अपेक्षाएं समाप्त नहीं होगी तब तक वास्तविक प्रेम और आनंद से दूरी बनी रहेगी और हम जीवन में सुखी-दुःखी होते रहेंगे । 

              प्रश्न उठता है कि वास्तविक प्रेम तक पहुँचने के लिए क्या कोई उपाय है ? हाँ, है - सत्संग ही वह उपाय है । जीवन में प्रेम की शून्यता ही मनुष्य को सुखी-दुःखी करती है । प्रेम में गहराई तक डूबने के लिए व्यक्ति को ज्ञान होना आवश्यक है । बुद्धि में ज्ञान का जागरण होना ही विवेक है । विवेक का जाग्रत होना केवल सत्संग से ही संभव है । सत्संग बिना प्रभु-कृपा के मिलना संभव नहीं है । प्रभु-कृपा उसी पर होती है, जो परमात्मा में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखता हो । जिसमें इनका नितांत अभाव है उसको सत्संग मिलना असंभव है ।

                मानस में तुलसी लिखते हैं - 

 ‘बिनु सतसंग बिबेक न होई । 

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।’ बालकाण्ड - 3/7।।

            आज दिखावे के रूप में सभी श्रद्धावान बने हुए है । जब तक श्रद्धा भीतर अंतर्मन की गहराई से जुड़ी नहीं होगी, तब तक प्रभु-कृपा नहीं हो सकती । स्वामीजी इस सम्बन्ध में एक दोहा प्रायः कहते रहते हैं -

   कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान ।

   घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ।।

        परमात्मा में आंशिक श्रद्धा रखना और साथ-साथ संसार में विश्वास रखना ही ‘कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता’ है, जिसका परिणाम है कि जीवन में कभी भी विवेक उदय नहीं होता । जीवन में सदैव एक प्रकार की संशयात्मक अवस्था बनी रहती है । इस अवस्था से उबरने के लिए आवश्यक है कि सत्संग करें । सत्संग से परमात्मा में श्रद्धा दृढ़ होगी । ऐसी दृढ़ता सत्संग को आत्मसात् करने में सहायक होगी ।

              सत्संग को जब तक बुद्धि तक नहीं पहुँचाया जाएगा, तब तक विवेक का प्रकट होना असंभव है । संतों का सानिध्य लेकर व्यक्ति उनकी बातों को सुनता तो है परंतु या तो उन्हें अपने लिए नहीं मानता या फिर उन्हें जीवन में उतारता नहीं है । जब तक ज्ञान केवल शब्दों तक सीमित रहता है, तब तक उसे विवेक नहीं कहा जा सकता । ज्ञान विवेक में तभी परिवर्तित होता है जब उस ज्ञान को आचरण में लाया जाता है । विज्ञान विषय के विद्यार्थी के लिए प्रयोगशाला में जाकर अपने हाथों से उस ज्ञान का प्रयोग कर अनुभव प्राप्त करना आवश्यक होता है । सैद्धांतिक ज्ञान को जब तक प्रायोगिक ज्ञान में परिवर्तित नहीं किया जाता तब तक वह ज्ञान केवल शास्त्रों में शब्दों के रूप में ही बना रह जाता है, विवेक कभी नहीं बन पाता ।

         इस प्रकार स्पष्ट है कि शास्त्रीय ज्ञान को उपयोगी बनाकर उसको जीवन-भर काम में लेना ही ‘विवेक का सदुपयोग’ करना है । विवेक का सदुपयोग ही परमात्मा से प्रेम कराता है । विवेक से ही सारे सांसारिक भ्रम मिट जाते हैं । मानस में गोस्वामीजी लिखते हैं -

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा । 

तब रघुनाथ चरन अनुरागा ।। अयोध्याकांड - 93/5 ।।

         परमात्मा से चली कहानी प्रेम और आनंद प्राप्त करते हुए परमात्मा तक ही पहुँच जाती है । इस पूरी यात्रा को सुगमता से संपन्न करने में संग की भूमिका महत्वपूर्ण है । संग अगर ‘कुसंग’ है तो मनुष्य यहीं चौरासी के चक्कर में घूमता रहेगा । सत्संग ही उसे इस आवागमन के चक्र से मुक्त करा सकता है ।

          इतने विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य के जीवन में संग बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । कुसंग उसे प्रेम और आनंद के अनुभव से वंचित रखता है । सत्संग ही उसे प्रेम और आनंद की अवस्था तक ले जा सकता है । कुसंग तो इस संसार में बड़ी सुगमता से हो जाता है परंतु सत्संग का होना बड़ा मुश्किल है क्योंकि कुसंग में सत्संग की तुलना में अधिक आकर्षण है । इसीलिए कहा जाता है कि सत्संग किसी भाग्यवान को ही मिलता है । सत्संग जब मिल जाता है, तब उसको पचाना मुश्किल है और जिसने पचाना सीख लिया वह फिर संसार में फँसकर सुखी-दुःखी नहीं होता बल्कि आनंद को उपलब्ध हो जाता है ।

          सत्संग पर चर्चा को थोड़ा आगे बढ़ाते हैं । सत्संग भी दो प्रकार का होता है - बाह्य और आंतरिक । बाह्य सत्संग के अन्तर्गत शास्त्र चिंतन और सत्पुरुषों का संग किया जाता है जबकि आंतरिक सत्संग में आत्मा का परमात्मा के साथ संग होता है । इसको ईश्वर-दर्शन भी कहा जाता है । 

            बाह्य सत्संग आवश्यक है क्योंकि इसी से व्यक्ति के काम, क्रोध आदि विकार समाप्त होते हैं । अन्यायपूर्ण तरीक़े से धन कमाने की कामना का नाश होता है । दीन-हीन की सेवा करने की प्रवृति बढ़ती है तथा बुरे विचारों से मुक्ति मिलती है । कहने का अर्थ है कि बाह्य सत्संग से जीवन पवित्र और निर्मल बनता है ।

           बाह्य सत्संग से आंतरिक सत्संग की भूमिका तैयार होती है । बाह्य सत्संग से मन निर्मल होता है । निर्मल मन से अहम् के मूल स्वरूप तक पहुँचा जाता है फिर सीधे परमात्मा का संग मिल जाता है । परमात्मा से प्रेम और ईश्वर-दर्शन ही आंतरिक सत्संग है ।

            आंतरिक सत्संग में परमात्मा से प्रेम सर्वोच्च अवस्था तक पहुँच जाता है । प्रेम की पराकाष्ठा में दो रहते ही नहीं है, केवल एक बचता है । जो एक रहता है, वही परमात्मा है । पुरुष और प्रकृति, प्रेम और आनंद से सराबोर होकर परमात्मा हो जाते हैं । कबीर कहते हैं -

         जब ‘मैं’ था तब हरि नहीं, अब हरि है ‘मैं’ नाहीं ।

         प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाही ।।

           जब तक अहम् के वास्तविक स्वरूप को नहीं जाना जाता तब तक व्यक्ति का अहंकार नहीं जाता । अहंकार ही छद्म अहम् है, जो आत्मा को परमात्मा से भिन्न होने की मान्यता को दृढ़ता प्रदान करता है । इसका कारण है, शरीर को ही सब कुछ मान लेना । सत्संग से व्यक्ति का छद्म अहम् समाप्त हो जाता है और वह अपने मूल स्वरूप को जान लेता है । इसे ही ‘मैं’ का नहीं होना/रहना कहते हैं । जब तक ‘मैं’ है तब तक परमात्मा से प्रेम नहीं हो सकता । ‘मैं’ के समाप्त होते ही परमात्मा का अनुभव हो जाता है फिर व्यक्ति का संसार से प्रेम परमात्मा पर स्थानांतरित हो जाता है । इस प्रकार परमात्मा और स्वयं में भिन्नता तत्काल ही समाप्त हो जाती है और प्रेम अपनी सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।

        जब दोनों ही एक दूसरे से अथाह प्रेम करते हैं, तो ऐसे प्रेम में न तो प्रेम पाने वाला रहता है और न ही प्रेम करने वाला, दोनों ही एक दूसरे में खो जाते हैं । दोनों के मध्य का अंतर समाप्त हो जाता है और केवल एक ही बच रहता है, वही परमात्मा है । परमात्मा का ऐसा अनुभव हो जाना ही ईश्वर-दर्शन है ।

            इस प्रकार हमने सत्संग विषय पर विस्तार से चर्चा की है । चर्चा से जो मुख्य बात निकल कर सामने आई है उससे पता चलता है कि सत्संग मिलना कितना दुर्लभ है अर्थात् बहुत ही दुर्लभ है । संग तो जीवन में प्रत्येक जीव को मिलता ही है परंतु इस संग की श्रेणी कौन सी है और इस संग का परिणाम क्या होगा, यह जानना महत्वपूर्ण है । कुसंग तो स्वरूप से ही त्याज्य है । सांसारिक पदार्थों, विषयों और व्यक्तियों का संग जीव को आवागमन में डाले रखता है । आवागमन से मुक्ति पाने के लिए सत्संग आवश्यक है और बिना हरि-कृपा के जीव को सत्संग नहीं मिल सकता । हरि-कृपा भी किसी किसी पर ही होती है, इसीलिए सत्संग प्राप्ति को दुर्लभ कहा गया है ।

       विवेक चूड़ामणि में आदि शंकराचार्य महाराज कहते हैं -

दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् ।

मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रय: ।। विवेक चूड़ामणि - 3 ।।

      अर्थात् भगवत् कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महापुरुषों का संग - ये तीनों ही दुर्लभ हैं ।

           इस जगत् में चौरासी लाख योनियां है, इसमें भटकते हुए अंततः जीव को हरि-कृपा से मनुष्य का शरीर मिलता है । सभी जीव-शरीरों में मनुष्य का शरीर ही उच्च कोटि का है क्योंकि उसमें विवेक है । इतने अच्छे शरीर को पाकर भी मनुष्य चौरासी के चक्कर में फिर चला जाता है, यही तो उसका दुर्भाग्य है ।

            आदि शंकराचार्य महाराज कहते हैं कि मनुष्य शरीर का मिलना सबसे बड़ी ईश्वर-कृपा है । इस शरीर का सदुपयोग करते हुए मनुष्य आवागमन से मुक्त हो सकता है । मुक्त होने के लिए उसमें मुक्ति की इच्छा पैदा होना (मुमुक्षा) आवश्यक है । मुमुक्षुत्व ही मनुष्य को सत्संग की ओर जाने को प्रेरित करता है । बिना मुमुक्षा के मनुष्य जीवन व्यर्थ ही चला जाता है । भगवत्-कृपा से ही मनुष्य को अपनी मुमुक्षा से सत्-पुरुषों का संग मिलता है । इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा की कृपा के बिना सत्संग उपलब्ध नहीं होता । 

        मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व और महापुरुष संश्रय की त्रिवेणी में डुबकी लगाने में परमात्म-कृपा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । परमात्म-कृपा बिना स्व-कृपा के नहीं हो सकती । स्व-कृपा से अर्थ है, जीव द्वारा परमात्म प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयास । प्रयास से अर्थ है, अपनी क्षमता का सर्वाधिक उपयोग परमात्म-प्राप्ति के लिए करना । यह प्रयास ही जीव के प्रारब्ध अर्थात् भाग्य का निर्माण करता है । स्व-कृपा से बने इस भाग्य के कारण ही जीव पर परमात्म-कृपा होती है ।

         जीव को परमात्म-कृपा से मनुष्य शरीर मिलता है । इस शरीर को पाकर मनुष्य को स्व-कृपा करनी होगी, जिससे उसमें मुमुक्षुत्व पैदा हो । स्व-कृपा से आशय है कि सांसारिक क्रियाकलापों में अनावश्यक न उलझना । मुमुक्षुत्व से उसे महान पुरुषों, महात्माओं का सानिध्य प्राप्त होगा । इस प्रकार मिला सत्संग ही मनुष्य को ज्ञान उपलब्ध कराता है । इस प्राप्त हुए ज्ञान से मनुष्य संसार, शरीर, व्यक्ति और पदार्थ का संग छोड़ परमात्मा की ओर उन्मुख होगा ।

      सत्संग का परिणाम - सत्संग हमें असंग करता है । मनुष्य शारीरिक और सांसारिक सुख के लिए विभिन्न पदार्थों और व्यक्तियों का संग कर लेता है, उनमें आसक्त हो जाता है । ऐसे सभी संग व्यक्ति को बंधन में डालने वाले हैं क्योंकि सुख की आशा में वह इन्हें छोड़ भी नहीं सकता । गाहे-बगाहे अगर सुख मिल भी गया तो वह टिकता नहीं है । थोड़े समय के लिए कभी टिक भी गया तो वही सुख अपर्याप्त लगने लगता है । ये सभी बातें सुख की कामना पूरी होने तक मनुष्य को संसार के साथ बांधे रखती है और वह चाहा गया सुख जीवन में कभी मिलता नहीं है । इसी कारण से मनुष्य जीवन भर दुःखी बना रहता है । 

              जब व्यक्ति संतों का संग करता है तब उसका विवेक जाग्रत होता है । विवेक का आदर करने से व्यक्ति को ज्ञान होता है कि संसार और उसके पदार्थ सभी परिवर्तनशील और विनाश की ओर ले जाने वाले हैं । इस ज्ञान को आचरण में लाने से संसार के पदार्थों और व्यक्तियों से असंग हुआ जा सकता है । सत्संग ही एक मात्र ऐसा साधन है जिससे असंगता को उपलब्ध हुआ जा सकता ही ।

         असंग होने का अर्थ है, प्रत्येक प्रकार के संग से दूर हो जाना । फिर व्यक्ति स्वयं की आत्मा में ही रमण करता है । इसी को मूक सत्संग/मौन साधना कहते हैं अर्थात् आत्मा का परमात्मा के साथ संग, जिससे मनुष्य प्रेम करता भी है और प्रेम पाता भी है तथा आनंद को भी उपलब्ध हो जाता है । असंगता ही सहज अवस्था है जिसको प्राप्त कर मनुष्य स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । मनुष्य जीवन का यही तो उद्देश्य है ।

       श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान कहते हैं -

न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च ।

न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा ।।

व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमा: ।

यथावरुन्धे सत्संग: सर्वसंगापहो हि माम् ।। भागवत - 11/12/1-2 ।।

        भगवान कहते हैं कि जगत् में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है । यही कारण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है, वैसा साधन न तो योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय । तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता । कहाँ तक कहूँ - व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्संग के समान मुझे वश में करनेमें समर्थ नहीं है ।

         “सत्संगलब्धया भक्त्या मयि मां स उपासिता ।

          स वै मे दर्शितं सद्भिरंजसा विन्दते पदम् ।।” भागवत - 11/11/25 ।।

     भगवान कहते हैं - भक्ति की प्राप्ति सत्संग से होती है; जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है, वह मेरी उपासना करता है, मेरे सान्निध्य का अनुभव करता है । इस प्रकार उसका अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतों के उपदेशों के अनुसार बताए हुए मेरे परम पद को अर्थात् अपने वास्तविक स्वरूप को सहज ही प्राप्त हो जाता है ।

         स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि सत्संग करे और जीवन न बदले, यह हो ही नहीं सकता । सत्संग करने से जीवन और स्वभाव बदलेगा ही, पक्की बात है । ऐसा सत्संग करके भी जीवन न बदले तो फिर बदलेगा भी नहीं, चाहे कहीं चले जाओ ।

        स्वामीजी कहना चाहते हैं कि संतों का सान्निध्य पाकर भी यदि आप उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते तो आपमें कोई परिवर्तन नहीं आ सकता । जिस संत का सानिध्य लेते हैं, उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए । इसके साथ ही उनकी कही बातों को ध्यान से सुनते हुए उन पर मनन करना चाहिए । एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने से सत्संग का तनिक भी प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होगा । 

         संत का आचरण भी उनके द्वारा कही गई बातों के अनुसार हो, ऐसे सन्त का संग ही प्रभावी होता है । आज के समय में एक आदर्श संत का मिलना बड़ा मुश्किल है । इसलिए संग करने से पूर्व यह भलीभाँति जाँच लेना आवश्यक है कि जिनका संग किया जा रहा है, वह आपके लिए सत्संग सिद्ध होगा अथवा कुसंग । 

         वास्तविक सत्संग मिलना बड़ा मुश्किल है । जिसके भाग्य में होगा, परमात्मा की कृपा से तभी उसे सत्संग मिलेगा । इसी बात की मानस में भगवान श्रीराम ने सनकादि ऋषियों के आगमन पर उनसे भेंट करते हुए कहा है -

“ बड़े भाग पाइब सतसंगा”

सार-संक्षेप 

             प्रत्येक जीव जिसने चाहे किसी भी शरीर के रुप में जन्म लिया हो, वह अकेला नहीं रह सकता, उसे किसी न किसी का संग लेना ही पड़ता है । जीवन में संग की आवश्यकता प्रेम और आनंद की प्राप्ति के लिए है । सांसारिक सुख के लिए किया जाने वाला संग प्रायः दुःख देने वाला सिद्ध होता है । विषयासक्ति रखते हुए किए जाने वाला संग कुसंग ही है । जो संग प्रेम और आनंद उपलब्ध करवाता है, वास्तव में वही सत्संग है । सत्संग आपके भाग्य के कारण परमात्म-कृपा से ही मिलता है । 

      जीवन में सत्संग क्यों आवश्यक है ? मानस में तुलसी कहते हैं -

  बिनु सतसंग न हरि कथा, तेहि बिनु मोह न भाग ।

      मोह गएँ बिनु राम पद, होइ न दृढ़ अनुराग ।। उत्तराकाण्ड-61।।

          सत्संग के बिना भगवान की कथा सुनने को नहीं मिलती । बिना हरि-कथा के सांसारिक मोह नहीं जा सकता । सांसारिक मोह संसार के प्रति राग को बनाए रखता है । इस राग को परमात्मा के प्रति अनुराग में बदलने के लिए मोह का त्याग आवश्यक है । मोह के गए बिना परमात्मा के प्रति प्रेम जाग्रत नहीं हो सकता । परमात्मा से प्रेम करना ही भक्ति है ।

           भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी । 

           बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ।। उत्तराकाण्ड - 45/5 ।।

             परमात्मा के प्रति प्रेम को अनुराग कहा जाता है । अनुराग ही भक्ति है । भक्ति के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं है । बिना सत्संग के भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । सत्संग बड़े भाग्यशाली को ही मिलता है । तभी भगवान स्वयं कहते हैं - 

   बड़े भाग पाइब सतसंगा । 

  बिनहि प्रयास होहिं भव भंगा ।। मानस - 7/33/8 ।।

बड़े भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिना किसी परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है ।

           सभी को सत्संग मिले । जिस संग को पाकर हम संसार से असंग हो सकें, प्रेम और आनंद की अवस्था तक पहुँच सकें, वही वास्तव में सत्संग है ।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

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