संसृतिर्न निवर्तते
परमात्मा की सृष्टि यह जगत् है । जो सतत परिवर्तित हो रहा है, निरन्तर गतिमान है, वही जगत् है । इस जगत् में प्रत्येक प्राणी ने अपना एक संसार बना रखा है । उस संसार में उसकी ममता है । अपने संसार का निर्माता वह स्वयं है, इसी बात की उसमें अहंता है । ‘मैं और मेरा’ की भावना के कारण ही भय और शोक ने उसके जीवन में स्थाई निवास बना लिया है । स्वनिर्मित संसार से जीव अपने जीवन में सुखी-दुःखी होता रहता है । अन्य सभी जीव तो सुख-दुःख भोगने के लिए ही पैदा हुए हैं परंतु मनुष्य नामक जीव सुख-दुःख रूपी इस संसार में आवागमन के चक्र (संसृति) से बाहर निकलने के लिए छटपटाता रहता है ।
मनुष्य के जीवन की वास्तविकता है कि जो कुछ भी उसे यहाँ मिला है वह एक निश्चित ऋणानुबंध के अनुसार मिला है, चाहे वे व्यक्ति हो अथवा भोग-पदार्थ । उनमें आसक्ति कर लेना ही मनुष्य को दुःखी करता है क्योंकि जिनसे मिलना निश्चित हुआ है उनसे एक दिन बिछड़ना भी निश्चित है । आसक्ति बिछड़ने को स्वीकार नहीं कर पाती इसलिए मनुष्य दुःख का अनुभव करता है । जब मनुष्य दुःखी होता है, तब उसे संसार दुखालय प्रतीत होता है और वह उससे निवृत्त होना चाहता है ।
मनुष्य की इस संसार-चक्र से बाहर निकलने की इच्छा तो बहुत होती है परन्तु अहंता-ममता के कारण वह निकल नहीं पाता । अहंता-ममता के कारण मनुष्य को शरीर पर शरीर लेकर बार-बार इस दुःख भरे संसार में आना पड़ता है । हमारे संत और शास्त्र इस विषय पर बहुत कुछ समझाते हैं परंतु विडंबना है कि मनुष्य की इस आवागमन से निवृत्ति नहीं हो पाती । क्यों नहीं हो पाती हमारी निवृत्ति इस आवागमन के चक्र से ?
इस संसार में पदार्पण करने वाला प्रत्येक प्राणी यहाँ आकर इस भाँति उलझ जाता है कि यहाँ से निकल जाने की उसकी इच्छा तक नहीं होती । प्रत्येक प्राणी की इच्छा उसकी अपनी होती है । एक प्राणी की इच्छा जैसी ही इच्छा दूसरे प्राणी की हो, असम्भव है । यही कारण है कि इन जीवों के मध्य कुछ न कुछ पाने के लिए सदैव प्रतिस्पर्धा बनी रहती है । मनुष्य भी इसी संसार का शरीरधारी एक जीव है, इसलिए वह भी इस स्तर पर अन्य प्राणियों से भिन्न नहीं है । फिर भी मनुष्य और अन्य जीवों में एक स्तर पर भिन्नता अवश्य है । उस भिन्नता के कारण ही मनुष्य को सभी जीवों में विशिष्ट स्थान मिला है ।
मनुष्य और अन्य जीवों में जो भिन्नता है, वह भिन्नता है; संसार-चक्र से मुक्त होने की इच्छा के कारण । अन्य प्राणियों ने तो केवल भोग भोगने के लिए शरीर धारण किए हैं परंतु मनुष्य का शरीर केवल विषय-भोग के लिए ही नहीं बना है । वह शरीर संसार-चक्र से मुक्त होने के लिए भी बना है । संसार से मुक्त होने की इच्छा मनुष्य के अधीन है क्योंकि प्रत्येक इच्छा का जनक वह स्वयं ही है । जो मनुष्य संसार से मुक्त होने की इच्छा नहीं रखता उसका जीवन अन्य प्राणियों से भिन्न नहीं हो सकता । कुछ मनुष्य संसार से निवृत्त होने की इच्छा तो रखते हैं फिर भी उनकी निवृत्ति हो नहीं पाती । क्योंकि उनकी यह इच्छा मात्र दिखावे के लिए है अन्यथा कोई कारण नहीं है कि व्यक्ति मुक्त न हो सके ।
मुक्ति तो स्वतः सिद्ध है । बस, जो बेड़ियाँ उसने ख़ुद पहनी है, उन बेड़ियों को उतार फैंकना होगा । इन बेड़ियों से उसे कोई दूसरा मुक्त न कर सकेगा । जिन कारणों के कारण व्यक्ति की संसार से निवृत्ति नहीं हो पाती उन कारणों पर जब तक दृष्टिपात नहीं करेंगे, निवृत्ति स्वप्न बनकर ही रह जाएगी ।
इस संसार को दु:खालय कहा जाता है । जीवन में दुःख ही दुःख होने के कारण इस संसार को दुःखमय कहा गया है । प्रकृति किसी को सुखी-दुःखी नहीं करती । परमात्मा ने प्रकृति के कुछ नियम बनाए हैं, उन नियमों की अवहेलना करने से ही मनुष्य दुःखी होता है । परमात्मा का बनाया संसार सुख-दुःख के द्वन्द्व से मुक्त है परन्तु मनुष्य द्वारा अपने सुख के लिए बनाया संसार दुःख से भरा पड़ा है । इसके लिए मनुष्य स्वयं उत्तरदायी है क्योंकि उसने अपने जीवन में केवल सुख की ही कामना की है । उसे जीवन में केवल सुख ही सुख चाहिए क्योंकि वह दुःख से सदैव दूर रहना चाहता है । सुख प्राप्त करने के लिए उसने अपना एक संसार बसाया । इस संसार के अन्तर्गत पत्नी, संतान, मित्र, घर, परिवार, धन-सम्पति आदि आ जाते हैं ।
चूँकि उसने सुख के लिए अपना संसार बनाया है, अतः उसमें अहंता और ममता का होना अवश्यंभावी है । अहंकार इस बात का कि मेरे पास इतना धन है, इतने मकान हैं, मेरे पुत्र आज्ञाकारी है आदि आदि । जब अहंकार आता है तब व्यक्ति अपना मूल स्वरूप भूल जाता है । संसार और शरीर को अपना मान लेना ही अहंकार है । अहंता का अर्थ है - “मैं” । “मैं” ही सब कुछ हूँ । मैंने ही इतना धन इकट्ठा किया है, मैं सब कुछ कर सकता हूँ, ऐसी अहंता रखना ही संसृति से निवृत्ति में बाधक है । उसकी यह अहंता स्वनिर्मित संसार में ममता पैदा कर देती है । ममता का अर्थ है - “ मेरा” । यह “ मैं-मेरा” की भावना उसे संसार के साथ बाँध देती है । एक बार जो इस स्वनिर्मित संसार के साथ बंध जाता है, वह जीवन भर सुखी-दुःखी होता रहता है । केवल दुःखी ही नहीं होता बल्कि बार-बार इस संसार में नए-नए शरीर धारण कर आता-जाता रहता है ।
'सब कुछ मैंने प्राप्त किया है’, यह व्यक्ति की अहंता है । प्राप्त वस्तु को अपना और अपने लिए मान लेने का नाम ममता है । अप्राप्त को प्राप्त करने की भावना रखना कामना कहलाती है । प्राप्त वस्तु को और अधिक प्राप्त कर भविष्य को सुरक्षित करने के लिए संग्रहित कर लूँ, यह व्यक्ति की स्पृहा है । व्यक्ति में जितने भी विकार प्रवेश करते हैं, उनके पीछे उसकी अनन्त कामनाएँ हैं । प्राप्त वस्तु के कारण उत्पन्न हुई अहंता से राग पैदा होता है । राग से उस वस्तु में आसक्ति, आसक्ति से उसके प्रति ममता और ममता से कामना पैदा होती है । कामनाओं से ही अनेक प्रकार के विकारों की उत्पत्ति होती है । एक कामना पूरी होती है तो मनुष्य लोभी हो जाता है और फिर नई कामना के वशीभूत होकर संग्रह करने में लग जाता है । जिसकी कामना पूरी नहीं होती, उसे क्रोध आने लगता है । क्रोध उन परिस्थितियों और व्यक्तियों पर जिनको वह कामनाओं के पूर्ण होने में बाधक समझता है ।
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि हमारे सुख-दुःख का कारण परमात्मा का बनाया संसार न होकर अपना बनाया संसार ही है । इस अपने बनाए संसार में अहंता-ममता हो जाने के कारण हम इसमें उलझ जाते हैं । इस प्रकार अहं और मम के कारण मनुष्य में बार-बार सुख-भोग की कामना पैदा होती है जोकि बढ़कर स्पृहा में परिवर्तित हो जाती है । जब कोई कार्य हमारे अनुरूप नहीं होता तब अहंता को चोट पहुँचती है और हम दुःखी हो जाते हैं । ममता की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती है । जगत् का कोई अन्य व्यक्ति हमारी कामना के अनुसार कोई कार्य नहीं करता तो हम दुःखी नहीं होते क्योंकि उस व्यक्ति के प्रति हमारी ममता नहीं है । “मैं”, “मेरा” और “मेरे लिए” की भावना ही संसार-चक्र में व्यक्ति को बांधकर रखती है । इस संसृति से निवृत्ति के लिए, आवगमन के चक्र से बाहर निकलने के लिए इन सबका त्याग करना आवश्यक है ।
अहंता, ममता, कामना और स्पृहा; ये चारों आपस में संबंधित और एक दूसरे की पोषक है । इनके उद्भव के मूल में जो है, उसको जानना महत्वपूर्ण है । इनकी जनक को नियंत्रित करने से इन चारों पर नियंत्रण स्वतः ही हो जाएगा । इन चारों की जनक है हमारी आसक्ति । आसक्ति जब कर्मफल और उससे मिलने वाले भोग के प्रति होती है, तब कामना का जन्म होता है । कामना के कारण ही व्यक्ति संसार में उलझ जाता है ।
कामना के कारण इंद्रियों के माध्यम से कर्म संपन्न होते हैं । इंद्रियों से कर्म होते हैं, सुख पाने की कामना से । यह सुख मिलता है विषय और इंद्रिय के संयोग से । सुख मिलने पर व्यक्ति उस विषय-भोग में आसक्त हो जाता है । यह भोग और भोग प्रदान करने वाले पदार्थ/व्यक्ति के प्रति उसकी ममता को दर्शाता है ।
सुख मिलने पर व्यक्ति स्वयं को उस कर्म का कर्ता मान लेता है । यह कर्ताभाव उसमें अहंकार पैदा करता है । अहंकार उसे स्वरूप से दूर कर देता है ।
अहंता के कारण मनुष्य में ‘मैं’ की भावना पैदा होती है । ‘मैं’ के कारण ‘मेरा” का जन्म होता है । यह ‘ मेरा’ ही ममता है ।’ मैं’, ‘ मेरा’ के बाद जन्म होता है, ‘ मेरे लिए’ का । ‘ मेरे लिए’ मनुष्य के स्वार्थ का द्योतक है । इस प्रकार कामना के कारण बात बढ़कर ममता और अहंता तक पहुँच जाती है । सुखासक्ति के कारण भविष्य के लिए जब व्यक्ति को सुख में सम्भावित कमी आना लगता है, तब वह सुख के साधनों के संग्रह में लग जाता है । यह उसकी स्पृहा है । स्पृहा एक प्रकार से भविष्य में जीवनयापन की सोच रखते हुए कामनाओं को विस्तार देना है । “जब यह शरीर वृद्ध हो जाएगा, शरीर की कार्य क्षमता में कमी आने लगेगी तब इस शरीर का निर्वाह कैसे होगा ?” व्यक्ति की यही सोच उसकी स्पृहा है, जिसके वशीभूत होकर वह और अधिक संग्रह करने में जुट जाता है ।
यह शरीर क्षणभंगुर है, यह प्रत्येक मनुष्य जानता है, फिर भी मनुष्य अपने जीवन को सदैव के लिए सुरक्षित करना चाहता है । वह इस संसार के पदार्थों का सुख प्राप्त करते हुए उन्हीं साधनों का संग्रह करता है, जो स्वयं क्षणभंगुर है । जिस दिन यह बात उसके मनोमस्तिष्क में स्पष्ट हो जाएगी, तब वह अपरिग्रह के रास्ते को पकड़ेगा, उससे पहले नहीं ।
अहंता, ममता, कामना और स्पृहा के पीछे संयोगजन्य सुख के प्रति आसक्ति और मनुष्य का स्वार्थ, मुख्य रूप से ये दो ही हैं । मनुष्य के जीवन में प्रथम सुख उसे संयोगवश ही मिलता है । यह संयोग हालाँकि उसके प्रारब्ध के कारण ही बनता है, परंतु उसे इस जीवन में उसका ज्ञान नहीं रहता । इस प्रथम संयोग के कारण ही वह सुख के प्रति आसक्त होता है और फिर उसके भीतर उसी सुख को पुनः और बार-बार प्राप्त करने की कामना पैदा होती है ।
जिसने इस आसक्ति के दुष्परिणाम को समय रहते समझ लिया वह संसार में नहीं उलझता । परन्तु विषय और इंद्रियों का बार-बार होने वाला संयोग उसे संयोगजन्य सुख के प्रति आकर्षित करता रहता है । इस आकर्षण में कोई बिरला ही फँसने से बच सकता है, प्रायः तो लोग इस सुख का रसास्वादन करने को विवश हो ही जाते हैं ।
संयोगजन्य सुख के कारण जब अहंता घर करती है, तब मनुष्य स्वार्थी हो जाता है और संसार के सुखों को केवल अपने लिए ही मानने लगता है । स्वार्थ की भावना मनुष्य में कामनाओं की वृद्धि करने में सहायक होती है । इस प्रकार ‘मैं’, ‘ मेरा’ और ‘ मेरे लिए’ इन तीनों से दूर रहना आवश्यक है, तभी संसृति से निवृत्ति होगी अन्यथा आवागमन कभी भी नहीं मिट पाएगा ।
स्वनिर्मित संसार को किसी भी प्रकार की क्षति से दूर रखने के लिए मनुष्य सदैव भयग्रस्त रहता है । इसको तनिक सी क्षति पहुँचते ही वह शोकग्रस्त हो जाता है । धन इस स्वनिर्मित संसार का एक महत्वपूर्ण अंग है । स्वनिर्मित संसार के जन-धन की क्षति कोई भी मनुष्य स्वीकार नहीं कर पाता इसलिए वह जीवनभर भय और शोक से मुक्त नहीं हो पाता । भय और शोक से मुक्त रहने के लिए एक बात सदैव अपनी स्मृति में रखें कि इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है, यहाँ तक कि धन और जन भी । यह सत्य है फिर हम भोग और संग्रह में लगे हुए हैं । एक दृष्टान्त के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करते हुए विवेचन में आगे बढ़ते हैं ।
एक धनी व्यक्ति अपने घर से बाहर निकल ही रहा था कि उसे सामने से एक फ़क़ीर आता हुआ दिखाई दिया । फ़क़ीर को देखकर कि वह उससे कहीं कुछ माँग न ले, सोचकर धनी वापस घर में घुसने लगा । तभी पीछे से फ़क़ीर ने एक स्वर्ण मुद्रा उछालकर सड़क पर फैंकी । लोभी व्यक्ति को गरीब की चीत्कार भले ही सुनाई न दे, सिक्के की तनिक सी खनखनाहट उसका ध्यान आकर्षित कर ही लेती है । इस धनी व्यक्ति के साथ भी यही हुआ । स्वर्ण मुद्रा से निकली टन्न की आवाज़ धनी के कानों तक भी पहुँची । उसने पीछे मुड़कर देखा ।
मुद्रा के गिरने से उठी टन्न की ध्वनि ने सेठ को उस दिशा में देखने को मजबूर कर दिया । सेठ को इस प्रकार देखते हुए देखकर फ़क़ीर हंस पड़ा । बोला - “सेठ ! मैं तुमसे कुछ माँगने नहीं आया हूँ बल्कि आज कुछ देने आया हूँ । मैं आज यह स्वर्ण मुद्रा तुम्हें देता हूँ परन्तु मेरी एक शर्त है ।”
“ क्या शर्त है?” धनी बोला ।
फ़क़ीर ने कहा - “मैं तुम्हारा ख़ज़ाना केवल एक घण्टे के लिए जी भर कर देखना चाहता हूँ । उसको छूकर अवश्य देखूँगा परंतु उसमें से कुछ भी साथ लेकर नहीं जाऊँगा । इतना सब करने के लिए मैं यह स्वर्णमुद्रा तुम्हें अग्रिम दे रहा हूँ । मुझे न तो तुम्हारे ख़ज़ाने से एक पाई लेनी है और न ही यह मुद्रा वापिस चाहिए । यह शर्त स्वीकार हो तो ठीक है, नहीं तो मैं किसी और सेठ की तलाश में आगे जाता हूँ ।”
फ़क़ीर तो फ़क़ीर होते हैं । उन्हें रुपए-पैसे का लोभ नहीं होता और न ही जीवन-यापन की कोई फ़िक्र । वे तो मस्तमौला होते हैं, खाना मिला तो ठीक नहीं तो भूखे ही सो गए । वे तो अपनी अजीब सी हरकतों से अज्ञानियों की आँखें खोलने का प्रयास करते हैं । सेठ लालची तो था ही । उसने सोचा कि एक घण्टे के लिए ख़ज़ाने को देखना, छूना और बदले में कुछ भी न लेना, एक स्वर्णमुद्रा में यह घाटे का सौदा तो कदापि नहीं है । फिर भी फ़क़ीर ऐसा क्यों करना चाहता है ? कहीं इसमें कोई राज़ तो नहीं है ? एक स्वर्णमुद्रा का लोभ सेठ के मस्तिष्क पर इस सीमा तक हावी था कि उसने तत्काल ही हाँ कर दी ।
सेठ ने उस फ़क़ीर से एक स्वर्ण मुद्रा ली और उसके साथ अपने घर में प्रवेश किया । तलघर के ताले खोलकर उसने फ़क़ीर को अपना ख़ज़ाना दिखलाया । ख़ज़ाने में पड़े हीरे-मोती के गहने, स्वर्ण की ईंटे, रजत के सैंकड़ों थाल और असंख्य स्वर्ण मुद्राएँ देखकर फ़क़ीर उछल पड़ा । कहने लगा - “ आह ! मेरे पास आज कितनी अकूत सम्पति है । आज मैं संसार का सबसे धनी व्यक्ति हूँ ।”
फ़क़ीर के मुँह से यह सुनकर सेठ हक्का-बक्का रह गया और फ़क़ीर से बोला - “यह सम्पति तुम्हारी कहाँ से हुई, यह तो मेरी है ।” फ़क़ीर ज़ोर से बोला - “ सेठ ! चुप कर यह ‘मेरी- मेरी’ । अभी एक घण्टे के लिए यह ख़ज़ाना मेरा है । ऐसा कहने के लिए मैंने तुम्हें एक स्वर्ण मुद्रा दी है ।”
सेठ की तो सिट्टीपिट्टी गुम हो गई । एक स्वर्ण मुद्रा के लालच में आकर कहीं वह ठगा तो नहीं गया । फिर सोचा कि यह तो फ़क़ीर है । इसके लिए तो धन मिट्टी के समान है । हो सकता है फ़क़ीर केवल मज़ाक़ के लिए ऐसा कह रहा हो । सिर पर झलक आए पसीने को उसने कंधे पर लटक रहे तौलिए से पोंछा और अपने दिल को थोड़ी तसल्ली दी ।
सेठ थोड़ा शान्त हुआ और बोला - “ लेकिन वह मुद्रा तो केवल ख़ज़ाने को एक घण्टे तक देखने और छूने के लिए दी है, लेकर जाने के लिए नहीं ।” फ़क़ीर बोला - “ कौन कमबख़्त इसे लेकर जा रहा है ? किसको चाहिए तेरा यह धन ? हम तो फ़क़ीर हैं । हमारा इन सब में कोई मोह नहीं है । मोह होता तो क्या फ़क़ीर होते ? तेरा ख़ज़ाना तुम्हें मुबारक । पर मेरी एक बात ध्यान से सुन, न तो तू इस ख़ज़ाने को अपने साथ ले जा सकता है और न ही मैं लेकर जाऊँगा । जैसे यह सम्पति एक घण्टे के लिए मेरी है, वैसे ही इस शरीर के रहने तक तुम्हारी रहेगी । वास्तव में यह न तो तेरी है और न ही मेरी । तू व्यर्थ में ही इसको मेरी-मेरी कह रहा है । सेठ ! ले सम्भाल अपनी सम्पति, एक घण्टा हो गया है, मैं तो जा रहा हूँ । परंतु मेरी एक बात याद रखना, यह सम्पति किसी की नहीं है । तू व्यर्थ ही इस पर इठला रहा है ।”
सेठ की धन-सम्पति में ममता थी । उसी ममता के कारण उसकी लोभ प्रवृति हो गई । ऐसी ममता उसे संसृति से कभी निवृत नहीं होने देगी । अपने उसी ख़ज़ाने को सँभालने के लिए सेठ को विभिन्न रूपों में बार-बार इस संसार में आना होगा, कभी साँप बनकर और कभी कुत्ता बनकर । संसार-चक्र ऐसा ही है । जो इसको शरीर रहते नहीं समझ पाता वह अपना मनुष्य जीवन व्यर्थ ही खो रहा है । बैंक का कर्मचारी भी सेठ की तरह ही दिनभर रुपयों का आदान-प्रदान करता है परन्तु उन रुपयों में उसकी ममता नहीं है और न ही उसमें आसक्ति होती है क्योंकि वह जानता है कि ये सब मेरे नहीं है । जहां “ मेरा” शब्द आ गया वहीं ममता हो गई, फिर आवागमन से मुक्त होना असंभव हो जाता है ।
इस संसार में जो अहंता, ममता आदि रखते हुए कामना और स्पृहा को पूरा करने के प्रयास में दिन-रात एक कर रहे हैं, उनको समझ लेना चाहिए कि यह जगत् नीन्द में देखे जाने वाले स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं है । हम सपने को जंजाल (भ्रम) कहकर सुबह उठते ही उसे त्याग देते हैं लेकिन अपने बनाए संसार के बारे में ऐसा न तो कहते हैं और न ही करते हैं । वास्तव में स्वप्नवत् इस संसार को त्यागना बड़ा ही मुश्किल है । इसका त्याग करना मुश्किल हो सकता है परंतु असंभव नहीं है । कब इस शरीर की आँखें सदैव के लिए बन्द हो जाएगी, कहा नहीं जा सकता । तभी तो इस संसार को स्वप्नवत् बताया गया है । संतजन और शास्त्र सभी यही बात कहते हैं । शिवजी मानस में पार्वती को कह रहे हैं -
उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना ।
सत हरि भजन जगत सब सपना ।।
राजा जनक के जीवन का एक वृतांत है । एक रात को नींद में राजा जनक ने स्वप्न देखा कि वे राजा न होकर भिखारी हैं और एक शमशान में भूखे-प्यासे पड़े हैं । उनका कृशकाय शरीर भूख से बिलबिला रहा है । शरीर में इतनी शक्ति भी नहीं बची है कि भीख मांगने के लिए इधर-उधर कहीं जा सके । हाथ में कोई कटोरा भी नहीं था जिसमे वे भिक्षा का कुछ अन्न भी ले सके । उन्होंने आस पास मिट्टी से बने एक टूटे फूटे पात्र की तलाश की परन्तु वे ऐसे किसी भी पात्र को ढूंढ पाने में असफल रहे । अंत में उन्हें एक मानव कपाल नज़र आया । उन्होंने उसे ही अपना भिक्षा पात्र बना लिया । अब तक उनकी भूख और अधिक तीव्र हो चुकी थी । उन्होंने किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश शुरू की, जो उन्हें भिक्षा के रूप में कुछ खाने को दे सके । अंत में उनकी तलाश पूरी हुई । एक साधारण सी महिला ने रात के खाने में से बचा हुआ थोडा सा रूखा सूखा बासी भोजन उनके खप्पर में डाल दिया ।
जनक ने इतना सा भोजन पाकर भी यूँ महसूस किया मानो पूरे विश्व की धन-सम्पति उन्हें प्राप्त हो गयी हो । वे उसको उदरस्थ करने की सोच ही रहे थे कि आसमान से एक चील ने उनके खप्पर, उनके भिक्षा पात्र को झपट्टा मारा । उनके हाथ से भिक्षा पात्र नीचे कीचड़ में गिर पड़ा । भिक्षा में प्राप्त सारा अन्न कीचड़ से सनकर खाने योग्य नहीं रह गया था । भिखारी जनक की हिम्मत टूट गई । अब उनका बचा खुचा धैर्य भी जवाब दे चूका था । उनके मुंह से चीत्कार निकल गयी । बदहवास से होकर वे भोजन के लिए इधर उधर दौड़ने लगे । अचानक एक पत्थर की ठोकर लगी और भिखारी जनक धरती पर गिर पड़े । भिखारी जनक के पत्थर की ठोकर से उठे दर्द के कारण राजा जनक का सपना टूट गया । उन्होंने पाया कि वे अपने राज-महल में आरामदायक पलंग पर सो रहे हैं ।
उन्हें बड़ा ही अचरज हुआ कि अभी कुछ पल पहले वे अपने आपको किस रूप में देख रहे थे और दूसरे ही पल वे क्या से क्या हो गए हैं ? अभी थोड़ी देर पहले स्वप्न में वे एक रोटी के छोटे से टुकडे के लिए तरस रहे थे और इधर नींद से जागते ही वे राजा हैं और उनके पास सभी प्रकार की भोग सामग्री भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं । स्वप्न भ्रम है, यह जानते हुए भी वे अपने स्वप्न को चाहकर भी भूला नहीं पा रहे थे । वे शेष रात्रि की अवधि को करवटें बदलते हुए व्यतीत कर रहे थे । आखिर रात्रि ने विदा ली और प्रभात वेला में राजा जनक उठकर तैयार होने लगे । उनको जल्दी थी, अष्टावक्रजी के पास जाने की, उनसे अपने स्वप्न के बारे में जानने की और अपनी वास्तविकता को जानने की । वे जानना चाहते हैं कि दोनों में से कौन सी अवस्था सत्य है और कौन सी असत्य ?
अष्टावक्र, (जिनका शरीर आठ स्थानों से मुड़ा हुआ था) राजा जनक के गुरु थे । उनकी बुद्धि-विवेक का विकास गर्भावस्था में भी उच्च अवस्था तक पहुँच चुका था । गर्भावस्था के दौरान एक दिन उन्होंने पाया कि उनके ऋषि पिता वेद मंत्रों और श्लोकों का गलत उच्चारण कर रहे हैं । उन्होंने अपने पिता को गर्भ के भीतर से ही आवाज़ देकर बार-बार आगाह किया । उन्होंने आठ बार अपने पिता को उनके उच्चारण में हुई अशुद्धियों के बारे में बताया । प्रत्येक बार उनके पिता ने अहंकारवश इसे अनुचित मानते हुए उनके एक-एक अंग को टेढ़ा हो जाने का श्राप दिया । इस प्रकार कुल आठ बार ऐसा होने पर उनके शरीर के विभिन्न भाग आठ स्थानों से टेढ़े यानि वक्रता लिए हुए हो गए । जब वे पैदा हुए तब उनका शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा था इसी कारण से उनका नाम अष्टावक्र पड़ गया । वे अद्वेतवादी थे ।
अद्वेतवादी अर्थात् संसार में एक मात्र शक्ति या परम ब्रह्म को मानना, किसी अन्य के अस्तित्व को नकारना । सब कुछ परमात्मा ही है , प्रत्येक सजीव, प्रत्येक निर्जीव सब कुछ । एक परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य का अस्तित्व ही नहीं है । जो कुछ भी इस संसार में है, हो रहा है या भविष्य में होने वाला है, वह सब कुछ उस एक का ही खेल है और एक मात्र वही सब कुछ है, वही करता है और वही व्यक्त होता है । प्रकृति भी वही है, व्यक्ति भी वही है, वही सब करता है और वही करवाता है । वह अपनी मर्जी से सारा खेल चलाता है और अपनी मर्जी से उस खेल को समेट भी लेता है । आज के इस युग में अद्वेतवादी बहुत कम ही देखने को मिलते है । आदिगुरू शंकराचार्य अद्वेतवादी थे । अष्टावक्र भी मात्र एक परमब्रह्म को ही मानने वाले अद्वेतवादी ही थे ।
राजा जनक अपने रात को देखे स्वप्न से इतने उद्वेलित थे कि उन्होंने देरी करना उचित नहीं समझा और शीघ्रता से तैयार होकर पहुँच गए अपने गुरु अष्टावक्र के पास । अष्टावक्र ने उनको समय से पहले आया देखकर उन्हें आदर सहित बिठाकर आने का प्रयोजन पूछा । राजा जनक ने रात को देखे गए स्वप्न को विस्तार से बताकर पूछा - "हे आचार्य ! जो कुछ भी मैंने रात को सपने में देखा वह असत्य है या सत्य तथा जो मैं वर्तमान में हूँ वह सत्य है या असत्य ?" अष्टावक्र महाराज ने उन्हें शांति के साथ उनके प्रश्न का उत्तर दिया- "राजन ! न तो स्वप्न सत्य है और न ही वह जो आप वर्तमान में है । यहाँ संसार में जो कुछ भी आप जागते हुए देख रहे हो अथवा निद्रावस्था में जो कुछ भी अनुभव करते हो, सब कुछ स्वप्नमात्र है । सत्य केवल एक परमात्मा ही है, जो दोनों ही अवस्थाओं को निरपेक्ष भाव से देखता है । दोनों ही अवस्थाओं में जो कुछ आप स्वयं के साथ होना अनुभव कर रहे हैं वह सब स्वप्न ही है, स्वप्न के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । अतः आपको किसी भी परिस्थिति में विचलित होने की आवश्यकता नहीं है ।”
यह सुनकर राजा जनक आश्चर्यचकित रह गए । उनकी उलझन सुलझने के स्थान पर और अधिक बढ़ गयी । उन्होंने पुनः अष्टावक्र से पूछा -"गुरुदेव ! मैं कुछ समझा नहीं । कृपा करके इस बात को और अधिक विस्तार देकर स्पष्ट करने की कृपा करें ।” अष्टावक्र ने उत्तर दिया - "राजन ! इस संसार में कोई भी व्यक्ति राजा से भिखारी कभी भी हो सकता है और एक भिखारी कभी भी राजा बन सकता है, आपका ऐसा सोचना सत्य है ।" राजा जनक ने सहमति में अपना सिर हिलाया और स्वीकार किया कि आप सत्य कह रहे हैं ।
अष्टावक्र ने आगे कहा -"यह सपना और वर्तमान आपके नियंत्रण में कदापि भी नहीं है जबकि आप सोच रहे हैं कि वर्तमान आपके नियंत्रण में है और स्वप्न आपके नियंत्रण से बाहर है । आप ऐसा समझ रहे हैं कि सपना असत्य है और वर्तमान सत्य | अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो गलत सोच रहे है । स्वप्न और वर्तमान, इन दोनों पर आपका नियंत्रण नहीं है । आप कुछ भी नहीं करते हैं और न ही आपके वश में कुछ करने को है । ऐसे में आपका इस प्रकार सोचना सत्य है । अगर आप स्वप्न और वर्तमान, दोनों में से किसी एक को भी असत्य मानते हैं तो फिर दूसरे को भी भी असत्य ही है, ऐसा मानें ।
राजा जनक उनके इस उत्तर से कुछ संतुष्ट हुए | आगे कई दिनों तक वे अष्टावक्र जी से अद्वेत पर चर्चा करते रहे । सब कुछ स्पष्टतः जानकर और आत्मसात कर वे "विदेह" हो गए अर्थात जीवन मुक्त होकर समस्त को परमब्रह्म का खेल ही मानते रहे । इस प्रकार सत, असत जानकर उनसे भी ऊपर उठ गए । यही अध्यात्म की सर्वोच्च अवस्था है, जो व्यक्ति को "विदेह" होने की ओर ले जाती है ।
राजा जनक मिथिला नरेश थे । अध्यात्म में उनकी रुचि का इसी बात से पता चलता है कि उनके दरबार में संतों का बड़ा सम्मान था । वे समय-समय पर संतों से मार्गदर्शन लिया करते थे । राजकार्य करते हुए भी वे सत्संग का लाभ लेते रहते थे । उनके जीवन को “विदेह” की अवस्था तक पहुँचाने में अष्टावक्र मुनि का महत्वपूर्ण योगदान था । अष्टावक्र का गर्भावस्था में बुद्धि का इतना विकास हो गया था कि वह अपने पिता कहोड को भी कई बार मंत्रों के ग़लत उच्चारण पर टोक दिया करते थे, जिसके परिणाम में उन्हें शारीरिक वक्रता का श्राप तक झेलना पड़ा था ।
अष्टावक्र के पिता कहोड भी कोई कम ज्ञानी नहीं थे । उद्दालक जैसे महान ऋषि से उन्होंने ब्रह्म विद्या प्राप्त की थी । कहोड की विद्वता से प्रसन्न होकर उद्दालक मुनि ने अपनी पुत्री सुजाता का विवाह उनके साथ कर दिया था । विवाह के उपरान्त कहोड दंपति उद्दालक के आश्रम में ही रहते हुए छात्रों को शिक्षा देने लगे थे । सुजाता भी कम विद्वान नहीं थी । दो महान विद्वजनों की संतान भी विद्वान हो तो भला इसमें आश्चर्य क्या करना ? अष्टावक्र अपने पिता के नाम तक से परिचित नहीं था । वह अपने नाना उद्दालक को ही पिता समझ रहा था । बहुत ज़िद्द करने पर सुजाता ने उसे बताया कि उसके पिता कहोड हैं, जो कुछ धनप्राप्ति की आशा से राजा जनक के पास गए थे । वे आज तक लौटे नहीं हैं । यह जानकर अष्टावक्र ने मिथिला के राजदरबार में जाने का निश्चय किया ।
अष्टावक्र ने जनक के दरबार में जब प्रथम बार प्रवेश किया, तब विद्वान सभा में उनके वक्र शरीर को देखकर उनकी हंसी उड़ाई गई । तब अष्टावक्र ने जनक की सभा को चर्मकारों की सभा तक कह दिया था । जो शरीर की चाम को ही देखकर व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण कर लेता है, वह भला चर्मकार के अतिरिक्त और कौन हो सकता है ? अष्टावक्र के पिता कहोड भी पूर्व में कभी जनक की सभा में आए थे और राज दरबार के विद्वान बंदी से शास्त्रार्थ में पराजित हो चुके थे । आज अष्टावक्र अपने पिता की खोज में जनक के राज़दरबार तक पहुँचे हैं । जनक अष्टावक्र द्वारा कही गयी बातों से प्रभावित होते हैं, परंतु यह सब बंदी को अच्छा नहीं लगता । अंततः बंदी से शास्त्रार्थ होता है जिसमें बंदी पराजित होते हैं । बंदी से अपने पिता का पता लगाकर अष्टावक्र उनको मुक्त करा लेते हैं और अपने साथ लेकर आश्रम लौट आते हैं ।
बंदी की अष्टावक्र से हुई पराजय ने राजा जनक को कुछ सोचने को विवश कर दिया । वे अभी तक उस ज्ञान से वंचित थे जो संसृति से उनकी निवृत्ति करा सकता हो । अष्टावक्र में उनको वह क्षमता नज़र आई । उन्होंने अष्टावक्र के आश्रम में जाकर कई दिनों तक सत्संग किया । वह ज्ञान “अष्टावक्र गीता” के नाम से अभी भी हमारा मार्गदर्शन कर रहा है ।
अष्टावक्र-गीता में दो व्यक्तियों के मध्य संवाद है, मुमुक्षु और ब्रह्मज्ञानी के मध्य संवाद । मुमुक्षु है, राजा जनक और ब्रह्मज्ञानी है, अष्टावक्र मुनि ।अष्टावक्र-गीता में वह ज्ञान समाहित है, जिसको पकड़ मिथिला नरेश जनक संसार और शरीर की आसक्ति से मुक्त होकर विदेह हो गए थे । संसार और शरीर की आसक्ति ही व्यक्ति के दुःख की जनक है । इस दुःखालय संसार के चक्र को ही शास्त्रों में संसृति कहा गया है । राजा जनक की संसृति से निवृत्ति कैसे हुई ? उस पर दृष्टि डालने हेतु आइए ! कुछ समय के लिए अष्टावक्र-गीता में प्रवेश करते हैं ।
राजा जनक अष्टावक्र मुनि से प्रश्न करते हैं -
कथं ज्ञानवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति ।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रूहि मम प्रभो ।। अ. गीता - 1/1 ।।
अष्टावक्र मुनि से जनकजी प्रश्न कर रहे हैं कि कोई ज्ञान को कैसे प्राप्त होता है, उसकी कैसे मुक्ति होती है और किसी के द्वारा वैराग्य को कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?
राजा जनक के ये तीन प्रश्न बड़े महत्वपूर्ण हैं । इन प्रश्नों की महत्त्वता हमारे लिए भी कम नहीं है । ज्ञान से ही वैराग्य को उपलब्ध हुआ जा सकता है और वैराग्य ही मुक्ति के द्वार खोलता है । ज्ञान से ही परमात्मा के अस्तित्व पर विश्वास दृढ़ होता है । ज्ञान ही भक्ति को पुष्ट करता है । प्रश्न यह उठता है कि ज्ञान को कैसे उपलब्ध हुआ जा सकता है ? जिस दिन किसी ब्रह्मज्ञानी का हमारे जीवन में प्रवेश होता है और हमारी बुद्धि उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान को ग्रहण करने योग्य होती है, तभी ऐसा होना संभव हो पाता है अन्यथा नहीं ।
राजा जनक का प्रश्न उचित था । राज्य का संचालन करते हुए जो विषमताएँ किसी शासक के भीतर प्रवेश कर सकती है उनको बाहर निकालकर जीवन में समता का प्रवेश कराना आवश्यक होता है । एक शासक के लिए प्रजा में सभी अपने होते हैं, अतः उनके जीवन में अपने-पराये का भेद कदापि नहीं होना चाहिए । किसी अपराध की सज़ा जो आम नागरिक के लिए होती है, वही सज़ा शाही परिवार के सदस्य को भी उसी अपराध के लिए मिलनी चाहिए ।
जीवन में वैराग्य आवश्यक है । वैराग्य का अर्थ है, प्रत्येक प्रकार के राग-द्वेष से परे । राग-द्वेष से ऊपर उठने के लिए ज्ञान होना आवश्यक है । ज्ञान उन बातों का होना चाहिए जो व्यक्ति में राग-द्वेष उत्पन्न करते हैं । हमारा राग उन वस्तुओं और व्यक्तियों में होता है, जिनसे हमें सुख मिल रहा हो अथवा सुख मिलने की आशा हो । जिससे सुख मिलने में बाधा उत्पन्न होती हो अथवा होने की संभावना हो, उनसे हमारा स्वाभाविक द्वेष होता है । ज्ञान देना प्रारंभ करते ही अष्टावक्र मुनि जनक को स्पष्ट कर देते हैं कि विषय-भोग ही जीवन में संसार से मुक्ति में बाधक हैं । अष्टावक्रजी राजा जनक को कह रहे हैं -
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज ।
क्षमार्जवदयातोषंसत्यं पियूषवद्भज ।। अ. गीता - 1/2 ।।
अगर तू मुक्ति को चाहता है तो विषयों को विष के समान त्याग दे और क्षमा, सरलता, दया, संतोष और सत्य का अमृत के सदृश सेवन कर ।
विषयों को विष के समान छोड़ देना, हर किसी के वश में नहीं है । जब तक विषय का संपर्क इंद्रिय के साथ नहीं होता तब तक यह अनुभव ही नहीं होता कि वह हमारे लिए विष है अथवा अमृत । विषय और इंद्रिय के प्रथम संयोग से जो सुख अनुभव में आता है, उसी को जीवन का आनंद समझ लेना मनुष्य का सबसे बड़ा भ्रम है । कुत्ता जब सूखी हड्डी चबाता है तब वह समझता है कि उसे वह रस उस हड्डी से मिल रहा है । वास्तव में वह रस सूखी हड्डी को ज़ोर-ज़ोर से और लगातार चबाते रहने से, मसूड़ों के छिल जाने से निकल रहा रक्त होता है ।
यही मनुष्य का हाल है । वास्तव में देखा जाए तो किसी भी विषय में कोई रस नहीं है । विषय-रस जो भोग प्रदान करते हैं, वे शनैः-शनैः व्यक्ति के शरीर का क्षरण ही करते हैं । यह बात जब तक हमारे समझ में आती है, तब तक न तो जीवन में कुछ करने के लिए हमारे पास समय बचता है और न ही शक्ति । ऐसे में भला हमारी इस संसृति से निवृत्ति कब और कैसे हो ?
“वैराग्य-शतक” में राजा भृर्तहरि कहते हैं -
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता:
तपो न तप्तं वयमेव तप्ता: ।
कालो न यातो वयमेव याता:
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा: ।। भृर्तहरि शतक -7 ।।
अर्थात् भोगों को हमने नहीं भोगा बल्कि भोगों ने हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की बल्कि हम स्वयं तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं ही काल कलवित हो गए । इतने के बाद भी तृष्णा जीर्ण नहीं हुई बल्कि हम स्वयं ही जीर्ण हो गए ।
असुरों के गुरु शुक्राचार्य के दामाद राजा ययाति ने भले ही शर्मिष्ठा पुत्र पूरु से उसकी युवावस्था ले ली हो, फिर भी वे देवयानी को भोगने से कहाँ संतुष्ट हो पाए थे ? ये वही ययाति हैं जिनके पुत्र यदु के नाम से यदुवंश चला है, जिसमें आगे जाकर भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था । ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ था । विवाह के उपरांत असुर राजकुमारी शर्मिष्ठा को देवयानी अपने साथ दासी के रूप में लेकर आयी थी ।
परंतु वाह रे मनुष्य ! तू भला कब एक ही स्त्री से संतुष्ट हुआ है ? तुम्हें तो प्रत्येक स्त्री विशिष्ट नज़र आती है और तुम्हारा मन उसको भोगने को मचल उठता है । ययाति ने देवयानी के साथ-साथ शर्मिष्ठा को भी भोगा । जब इसका पता शुक्राचार्य को लगा तो उन्होंने ययाति को तत्काल ही वृद्ध हो जाने का श्राप दे दिया । ययाति ने शुक्राचार्य से बहुत अनुनय-विनय की कि इस श्राप से आपकी पुत्री देवयानी का ही अहित है, तब असुर गुरु ने किसी युवा से युवावस्था लेकर शापमुक्त होने का कह दिया । ययाति यहाँ आकर संभल जाते तब भी ठीक था परंतु वे समझे नहीं । अपने पुत्रों के पास जाकर उनसे युवावस्था देने की याचना करने लगे । एक-एक कर सभी ने मना कर दिया । आख़िर में उनके और शर्मिष्ठा के पुत्र पुरु ने उनसे वृद्धावस्था लेकर अपनी युवावस्था दे दी ।
यह विषय-भोग ही मनुष्य को अतृप्त बनाए रखते हैं जिसके फलस्वरूप अनंत कामनाएँ पैदा होती है । संसार में एक भी जीव ऐसा नहीं मिलेगा, जिसके जीवन में उसकी समस्त कामनाएँ पूरी हो गयी हों । न तो ययाति की कामनाएँ उनके जीवन में पूरी हुई और न ही भृर्तहरि की । हम भी उनसे भिन्न नहीं है । भृर्तहरि को तो यह बात शीघ्र ही समझ में आ गई जबकि ययाति को भोगों से अतृप्ति के बने रहने पर जाकर समझ में आया । हमारे कब समझ में आएगी, कहा नहीं जा सकता । संसृति से निवृत्ति न हो पाने के मूल में विषय-भोग ही हैं । अष्टावक्र-गीता के प्रारंभ में ही अष्टावक्र राजा जनक को विषयों को विष के समान छोड़ देने की बात कह रहे हैं ।
राजा जनक और अष्टावक्र मुनि के मध्य संवाद बहुत लंबा है, उसको संदर्भ के रूप में फिर कभी लेंगे । मुख्य बात जो इनके मध्य हुए संवाद से निकल कर आती है वह यही है कि इस शरीर और संसार की आसक्ति मनुष्य को भोग और संग्रह में लगा देती है जिससे उसकी संसृति से निवृत्ति नहीं हो पाती । सत्य, शरीर और संसार से बहुत ऊपर है । संसार को छोड़ने के लिए देह की आसक्ति छोड़नी होगी और जनकजी की तरह कहना होगा -
नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी ।
कैवल्यमिव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम् ।। अ.गीता - 11/6 ।।
अर्थात् मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर भी मेरा नहीं है, ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वही पुरुष कैवल्य को प्राप्त होकर कृत अकृत कर्म का स्मरण नहीं करता ।
राजा जनक तो सत्य और असत्य जानने के जंजाल से मुक्त होकर जीते जी ही "विदेह" हो गए, परन्तु यह मनुष्य न तो सत्य को और न ही असत्य को आज तक समझ पाया है । यही सत-असत का द्वंद्व उसे निर्द्वंद्व नहीं होने दे रहा है | आज जिसे हम सत्य कह रहे हैं, जरा गंभीरता के साथ विचार कीजिये, क्या वास्तव में वही सत्य है ?
असत् संसार को सत्य मानना और जानना मात्र सांसारिकता और स्वप्न के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । आध्यात्मिकता के लिए इन शब्दों के कोई मायने नहीं है । जिस दिन हमें संसार के स्वप्न मात्र होने का अनुभव हो जाएगा, तत्क्षण ही हमारी संसृति से निवृत्ति हो जाएगी ।
यह स्वप्न जिस दिन टूट जाएगा वह व्यक्ति की जाग्रत अवस्था होगी । नींद से जागना जाग्रत होना नहीं है बल्कि संसार रूपी स्वप्न से परिचित हो जाना ही जाग्रति है । अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना स्वप्न है और ज्ञान के प्रकाश में रस्सी के साँप होने का भ्रम मिट जाना जागरण है । ज्ञान के आलोक में इस भ्रम के मिट जाने पर हैरानी होती है यह जानकर कि इतने दिनों तक हम व्यर्थ ही भ्रम में जी रहे थे । भगवान शंकर गिरिजा को मानस में यही कह रहे हैं -
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ।।
ज़ेहि जानें जग जाइ हेराई । जागें जथा सपन भ्रम जाई ।। मानस - बालकाण्ड-112/1-2।।
स्वप्न की तरह ही हम इस संसार के प्रति मोहित होकर अज्ञान में जी रहे है । अज्ञान के कारण ही हम अहंता, ममता के दलदल में आकंठ फँसे पड़े है । धन-जन की तनिक सी प्राप्ति-क्षति हमें सुखी-दुःखी कर रही है । मानस में शंकर भगवान कह रहे हैं कि सुन गिरिजे ! सपने में सिर कटने से हम रोने लगते हैं परंतु हमारा यह दुःख तभी दूर होता है जब हम नींद से जाग जाते हैं । परंतु जीवन में जागरण का होना परमात्मा की कृपा से ही संभव होता है । परमात्मा की कृपा से ही सद्गुरू का सानिध्य और सत्संग मिलता है और अनुभवी और शास्त्रज्ञ गुरु ही शास्त्रों की सही व्याख्या करते हुए आपके जीवन की दशा और दिशा दोनों को बदल देता है ।
जागरण के बिना जीवन की वास्तविकता का अनुभव होना असंभव है । असत्य को सत्य समझ लेना ही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना है । भगवान शंकर मानस में पार्वतीजी को कह रहे हैं -
जौं सपनें सिर काटै कोई । बिनु जागें न दूरि दुख होई ।।
जासु कृपां अस भ्रम मिट जाई । गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ।। मानस -बालकाण्ड -118/2-3।।
परमात्मा की कृपा से हमें शास्त्र और संत मिल जाते हैं । उन्हीं से हमें संसार-चक्र से निवृत्ति के लिए उचित मार्गदर्शन मिलता है । परन्तु सबसे महत्वपूर्ण है, हमारी मुक्ति के लिए इच्छा होना । हमारी इच्छा के अभाव में संत और शास्त्र भी हमारी कोई सहायता नहीं कर सकते ।
स्वामीजी कहते हैं कि संसार-चक्र से मुक्ति हमारी इच्छा के अधीन है । जब तक हम अपने लक्ष्य के प्रति गम्भीर नहीं होंगे, उसके प्रति हमारी तीव्र लगन नहीं होगी तब तक यह संसार ही हमें सत्य प्रतीत होता रहेगा । संसार को सपना मान लेना ही सुख-दुःख के चक्र से बाहर निकलने के लिए हमारा प्रथम कदम होगा ।
इसी प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण में संसार को स्वप्न की भाँति बताते हुए कपिल भगवान अपनी माँ देवहूति को कह रहे हैं -
अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ।। भागवत -3/27/4।।
जिस प्रकार स्वप्न में भय-शोक आदि का कोई कारण न होने पर भी स्वप्न के पदार्थों में आस्था हो जाने के कारण दुःख उठाना पड़ता है, उसी प्रकार भय-शोक, अहं-मम एवं जन्म-मरण आदिरूप संसार की कोई सत्ता न होने पर भी अविद्यावश विषयों का चिंतन करते रहने से जीव का संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता ।
मनुष्य के जीवन की यही वास्तविकता है कि वह परमात्मा में आस्था छोड़ संसार के पदार्थों में आस्था रखता है । इस आस्था के कारण वह संसार में आसक्त होकर अहंता-ममता में पड़कर सुखी-दुःखी होता रहता है । जीवनभर कामनाओं के दुष्चक्र में फँसकर संसार-चक्र से कभी निवृत्त नहीं हो पाता । इस संसृति से निवृत्त होने के लिए उसे अपनी बुद्धि में विवेक जाग्रत करना होगा । सांसारिक बुद्धि को परमात्मा की ओर मोड़ना होगा क्योंकि सभी बुद्धियों के एक मात्र दृष्टा वे ही हैं । सांसारिक बुद्धि को परमात्मा की ओर ले जाने में सत्संग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है ।
स्वप्न को देखते हुए हम सुखी-दुःखी होते रहते हैं परंतु जब स्वप्न टूटता है, तब वास्तविकता का ज्ञान होता है । फिर हम स्वप्न में देखे जाने वाले दुःख से दुःखी नहीं होते । हम जानते है कि स्वप्न का वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है ।इसे विडम्बना ही कहा जा सकता है कि फिर भी हम संसार को ही वास्तविक समझ लेते हैं । जो परिवर्तनशील है, जो प्रतिपल बदल रहा है, जो आज है वह कल नहीं रहेगा, इतना सब जानते हुए भी संसार को सत्य समझ लेना हमारा अज्ञान ही है । इस अज्ञान के कारण ही हमें संसार के सत्य होने का भ्रम हो गया है । इस भ्रम से बाहर तभी निकला जा सकता है, जब हमें ज्ञान हो जाये । ज्ञान तभी हो पाएगा, जब बुद्धि का उपयोग कर उसके भीतर सोये विवेक को जाग्रत किया जायेगा । इसके लिए ज्ञानी संतजनों का सान्निध्य मिलना आवश्यक है ।
बुद्धि का भी सदुपयोग मनुष्य कहाँ कर पाता है । संसार में जीवनयापन के रास्ते बड़े कठिन और टेढ़े-मेढ़े हैं । मनुष्य उनमें उलझकर बुद्धि का दुरुपयोग करने लगता है । बुद्धि का दुरुपयोग उसकी संसार से निवृत्ति में बाधक बन जाता है । बुद्धि में सोये हुए विवेक को जगाना ही बुद्धि का सदुपयोग करना है ।
परमात्मा की ओर बुद्धि लगाने को ही विवेक का जाग्रत होना कहते हैं । मानस में गोस्वामीजी लिखते हैं -
बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा । तब रघुनाथ चरन अनुरागा ।।
सत्संग बिना परमात्मा की कृपा के नहीं मिलता । आज के समय में कुसंग चाहे अनचाहे सभी जगह मिल जाता है परंतु सत्संग मिलना अत्यंत दुर्लभ है । सही सत्संग से ही बुद्धि में विवेक का अभ्युदय हो सकता है । विवेक से हमें आत्म-अनात्म का ज्ञान होता है । विवेक का सदुपयोग करते हुए हमें संसार से भिन्न होना होगा, तभी आत्म-अनात्म का ज्ञान होगा । संसार से भिन्न होने का अर्थ है संसार की नश्वरता को समझकर उसको अपना न मानना । संसार कभी अपना था ही नहीं, इसको अपना मान लेना ही हमारी सबसे बड़ी भूल है ।
एक आकार (शरीर) में आकर स्वयं को उस आकार तक ही सीमित मान लेना, कहाँ तक उचित है ? शरीर का एक निश्चित आकार है, संसार की एक निश्चित सीमा है जबकि हम स्वयं निराकार और असीम हैं । यह सत्य जब समझ में आ जाता है, संसार को अपना मानना स्वतः ही बंद हो जाएगा । संसार को अपना न मानने से अहंता, ममता, कामना और स्पृहा, इन सबसे मुक्त हुआ जा सकता है । इनसे मुक्त होना ही संसृति से निवृत्ति है ।
अतः बुद्धि को परमात्मा में लगायें अन्यथा सांसारिक बुद्धि व्यक्ति को स्वप्नवत् संसार में सुखी-दुखी करती रहेगी और संसृति से निवृत्ति लेना असंभव हो जाएगा । बुद्धि को परमात्मा में लगाना तब तक मुश्किल है, जब तक संसार हमें अच्छा लगता रहेगा । संसार भ्रम के अतिरिक्त, एक स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं है । इसे भ्रम अथवा स्वप्न मान लेना, आज के युग में असंभव है क्योंकि जो दिखता है उसे असत्य कैसे मानें ? तभी तो संसृति से निवृत्ति नहीं हो पा रही है ।
।। हरिः शरणम् ।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल