Saturday, December 14, 2024

सत्संग - असंग होने का मार्ग

 सत्संग - असंग होने का मार्ग  

           प्रत्येक प्राणी अपने जीवन में किसी न किसी का संग चाहता है । संग ही जीव के बंधन का कारण है । संग का जैसा चरित्र होता है, संगी का चरित्र भी उसी प्रकार का हो जाता है । कहावत है - “ख़रबूज़े को देखकर ख़रबूज़ा रंग बदलता है”, उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में भी संग का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता ।

       अपनी प्रकृति के अनुसार संग या तो कुसंग हो सकता है अथवा सत्संग । कुसंग से मनुष्य का पतन होता है और सत्संग से उत्थान । संग जीव के स्वभाव को भी बदल डालने की क्षमता रखता है । मनुष्य को अपने जीवन में कुसंग करना चाहिए अथवा सत्संग, बहुत कुछ उसकी बुद्धि पर निर्भर करता है । इसलिए मनुष्य को अपनी बुद्धि के अनुसार संग का चुनाव करना चाहिए ।

           कुसंग संसार से मुक्त नहीं होने देता जबकि सत्संग मुक्ति के द्वार खोलता है । प्रत्येक प्रकार का संग मुक्ति में बाधक है क्योंकि वह बँधनकारी होता है । सत्संग बाँधने वाला होने के बाद भी मनुष्य को मुक्ति की राह दिखलाता है । सत्संग ही हमें संसार से असंग करता है और यह असंगता ही मुक्त हो जाना है । मुक्ति की दिशा में ले जाने वाला सत्संग मिलना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है । परमात्मा की असीम कृपा से जिसका भाग्य बड़ा प्रबल है, उसी को ही अच्छा सत्संग मिलता है । भगवान स्वयं मानस में कह रहे हैं - 

          “बड़े भाग पाइब सतसंगा । बिनहि प्रयास होहिं भव भंगा ।। मानस - 7/33/8 ।।” 

           श्रुति कहती है - “असंगो अयं पुरुष: इति श्रूते” अर्थात् यह पुरुष अर्थात् जीवात्मा असंग है । इसकी संसार से असंगता वैसी है जैसी कमल-पत्र की कीचड़ से । जब पुरूष किसी शरीर का अधिग्रहण कर लेता है तब वह संसार के प्रति आकर्षित होकर उसके साथ एकता कर लेता है । यह एकता वास्तव में छद्म है क्योंकि एकता दो समान तत्वों के मध्य होती है, दो विपरीत तत्वों के बीच नहीं । शरीर और संसार दोनों प्रकृति के अंग होने से परिवर्तनशील और विनाशशील है जबकि पुरुष और परमात्मा दोनों ही अपरिवर्तनशील और अविनाशी है । इसलिए पुरुष की एकता परमात्मा के साथ है, न कि संसार और शरीर के साथ । शरीर के साथ पुरुष द्वारा अपनी एकता मान लेना ही उसे असंग होने नहीं देता ।

             जब पुरुष; शरीर और संसार का संग कर लेता है तब उसका पुनः असंग हो पाना बड़ा कठिन है । यह सत्य है कि संसार भगवान का आदि अवतार है परंतु संसार की सक्रियता उसको विनाशशील बना देती है अर्थात् उसका प्रतिपल परिवर्तित होना निश्चित है । यही कारण है कि परमात्मा का आदि अवतार होने पर भी संसार को सत् नहीं कहा जा सकता । परमात्मा के अपने अंश, पुरुष द्वारा उसका संग कर लेने से पुरुष का व्यवहार भी संसार की तरह हो जाता है । पुरुष को संसार का संग त्यागना होगा क्योंकि मूलतः वह असंग ही है । उसको स्वयं के असंग होने का भान तभी होगा जब उसे सत्संग मिले । सत्संग अर्थात् चित्त का आत्मा के स्वर में स्वर मिलाकर संगत करना । 

           परमात्मा असंग है और हमें (पुरुष को) संसार से असंग होना है । कैसे ? प्रश्न का उत्तर पाने के लिए सर्वप्रथम सृष्टि-सृजन के कारण को जानते हुए इस यात्रा पर आगे बढ़ते हैं । रास्ते में मिलने वाला सत्संग ही इस यात्रा का मुख्य पड़ाव है, जहां से असंग होने की राह निकलती है ।

              परमात्मा ने इस जगत् की रचना की । जगत् स्वयं से अलग नहीं बनाया बल्कि वे स्वयं ही जगत् बने हैं । रचनाकार स्वयं ही रचना बन गया, इसीलिए शास्त्रों में इस जगत् को परमात्मा का आदि अवतार भी कहा गया है । भगवान को जगत् बनने का विचार क्यों आया ? क्योंकि - ‘एकाकी न रमते’ । भगवान एक हैं, अकेला क्या प्रेम करे, किससे प्रेम करे, कैसे आनंदित हों और किसको आनंद दे ? ‘बहु स्यां प्रजायेय’ (छान्दोग्य उपनिषद् - 6/2/3) अर्थात् मैं अनेक रूपों में प्रकट हो जाऊँ । इस प्रकार जगत् के रूप में वे प्रकट हुए और उनके प्रकट होने का कारण बना - प्रेम और आनन्द का आदान-प्रदान करना । प्रेम करने और आनन्द प्राप्त करने के लिए कम से कम दो का होना आवश्यक है, जिससे वे एक दूसरे का संग करते हुए प्रेम कर सके, एक दूसरे को आनन्द दे सके । 

                जगत् के रूप में अवतरित होने के लिए परमात्मा अपने एक अंश में अक्रिय से सक्रिय होना प्रारम्भ हुए । सक्रिय होते ही उनमें गति का प्रादुर्भाव हुआ । गति होने के कारण वे जगत् कहलाए । जगत् अर्थात् जो सदैव गतिमान रहता है । जगत् बनकर परमात्मा सक्रिय हुए अवश्य परंतु उनकी अपने शेष अंश की अक्रियता में कोई कमी नहीं आई । परमात्मा का सक्रिय अंश जगत् कहलाया और अक्रिय परमात्मा जगत्-पिता । जगत् की सक्रियता का कारण उसमें निरन्तर चलने वाली विभिन्न क्रियाएँ हैं । उन क्रियाओं से ही आगे बढ़ते हुए धीरे धीरे पदार्थ का निर्माण हुआ । ‘क्रिया से पदार्थ और पदार्थ में क्रिया’ - यही इस जगत् का सत्य है । 

              परमात्मा के एक अंश में जगत् की सक्रियता और शेष अंश में अक्रियता । जगत् में अकेले पदार्थ से प्रेम और आनन्द प्राप्ति का उद्देश्य पूर्ण कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता क्योंकि पदार्थ अचेतन है । पदार्थ को प्रेमानंद का अनुभव नहीं हो सकता, अनुभव के लिए उसका चेतन होना आवश्यक है । सक्रियता का अनुभव अक्रियता के बिना नहीं हो सकता जैसे गतिमान की भ्रमण क्रिया अर्थात् उसकी दशा और दिशा का ज्ञान बिना किसी स्थिर द्रष्टा के होना असंभव है । 

          पदार्थ में क्रिया होने के कारण वह सतत सक्रियता के कारण परिवर्तनशील हो गया । परिवर्तन होना अर्थात् अंततः विनाश की ओर जाना । पदार्थ परिवर्तनशील होने के साथ साथ विनाशशील भी है । इस प्रकार जगत् में हो रही क्रिया से बने सभी पदार्थ निर्जीव अर्थात् अचेतन कहलाए । अचेतन में चेतना का अभाव है । सक्रिय तत्व और चेतन तत्व, दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं । क्रियाएँ अचेतन में होती है, जबकि चैतन्य में क्रिया का अभाव है ।

          पदार्थ सक्रिय है क्योंकि उसमें क्रियाएँ हो रही हैं परंतु वह चेतन नहीं है क्योंकि पदार्थ को अपने भीतर चल रही क्रियाओं का ज्ञान नहीं है । चेतनता के अभाव के कारण किसी अजीव (पदार्थ) से न तो प्रेम का आदान-प्रदान हो सकता है और न ही आनन्द का । हाँ, पदार्थ (अचेतन) से किसी चेतन द्वारा कहने भर को एक पक्षीय प्रेम अवश्य किया जा सकता है परंतु वह वास्तव में प्रेम नहीं होता क्योंकि उस प्रेम से चेतन को आनंद नहीं मिल सकता । आनन्द के लिए तो उभयपक्षीय प्रेम होना आवश्यक है ।             

           प्रेम और आनन्द की प्राप्ति के लिए सक्रिय पदार्थ में जब अक्रिय परमात्मा अपने अंश रूप में प्रवेश करते हैं तब जाकर निर्जीव पदार्थ सजीव हो उठता है । अचेतन में चेतन का प्रवेश होना, इस जगत् में होने वाली सबसे बड़ी घटना है । 

                  सजीव पहले अचर रूप में थे अर्थात् एक ही स्थान पर स्थिर (स्थावर) रहते हैं, बिलकुल निर्जीव पदार्थ की तरह परंतु निर्जीव प्रतीत होते हुए भी वे चेतन हैं, सजीव है । उदाहरण - पेड़ पौधे । परमात्मा को फिर भी इनसे प्रेम और आनन्द की अनुभूति नहीं हुई । फिर उन्होंने जंगम अर्थात् चर सजीव की रचना की, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने को सक्षम था । इस प्रकार यह चराचर जगत अस्तित्व में आया जिसमें सजीव भी हैं और निर्जीव भी । सजीव पदार्थ अर्थात् चेतन को प्राणी कहा जाता है जिसके अंतर्गत हम मनुष्य भी हैं ।

         इस अवस्था तक आते-आते परमात्मा पदार्थ (अचेतन) और उसमें स्थित अंश (चेतन), इन दो भागों में विभक्त हो गए । यह विभाजन केवल समझाने की दृष्टि से है, मूलतः तो सब कुछ एक परमात्मा ही है । सजीव का पदार्थ अर्थात् जगत् अंश शरीर कहलाता है और उसमें स्थित परमात्मा का अंश आत्मा । जगत् असत् है और आत्मा सत् । जगत् असत् इसलिए है क्योंकि वह सदैव परिवर्तित होता रहता है । वह जैसा आज है, कल वैसा नहीं रहेगा । आत्मा सत् है, क्योंकि वह ऐसे किसी भी परिवर्तन होने से परे है अर्थात् उसमें न तो परिवर्तन आता है और न ही उसका विनाश ही हो सकता है । अविनाशी ही विनाशशील का साक्षी है ।

        सजीव अर्थात् चेतन में भी दो प्रकार के प्राणी आते हैं । पहली प्रकार के वे प्राणी हैं जिनमें बुद्धि तो होती है, परन्तु वह बुद्धि सीमित होती है । उनकी बुद्धि आहार करने, निद्रा लेने, भय में डूबे रहने और मैथुन कर संतति देने तक ही सीमित है । ऐसे प्राणी विवेकहीन होते हैं । प्रायः सभी प्राणी इस श्रेणी में आते हैं, केवल कुछ मनुष्यों को छोड़कर । ऐसे सजीव प्राणियों को ‘अचेतन चेतन’ कहा जाता है अर्थात् चेतन होते हुए भी वे लगभग अचेतन की अवस्था में रहकर जीवन बिताते हैं । शास्त्र और संतों ने ऐसी प्राणियों को ‘भोग योनि’ के अन्तर्गत रखा है । ऐसे प्राणी अपने शारीरिक सुख तक ही सीमित रहते हैं और पूर्व मानव जीवन में बने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगते हैं । प्रेम और आनन्द से उनका दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता ।

            दूसरे प्रकार के सजीव (चेतन) प्राणी वे हैं जिनकी बुद्धि बहुत अधिक विकसित है । उस बुद्धि में विवेक जाग्रत होने की प्रबल संभावना रहती है, जिससे जीव को प्रेम और आनन्द उपलब्ध हो सकता है । सन्तों और शास्त्रों ने ऐसे प्राणियों को भोग योनि के साथ साथ कर्म (योग) योनि में भी रखा है । इस प्रकार के सजीव प्राणियों को ‘स्व-चेतन’ कहा गया है । सभी जीवों में मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है, जिसे इस श्रेणी के अंतर्गत रखा गया है । मनुष्य अपने विवेक का सदुपयोग कर प्रेम और आनन्द को उपलब्ध हो सकता है, जिसके लिए ही परमात्मा ने जगत् रूप धारण किया है । इस प्रकार प्रेम और आनन्द प्राप्त कर मनुष्य स्वयं ही परमात्म अवस्था को प्राप्त हो सकता है ।

         सजीव अर्थात् चेतन तत्व ही प्रेम और आनन्द की अनुभूति कर सकता है क्योंकि उसमें सत् (परमात्मा) स्वयं स्थित है । सत् के कारण ही चेतन, प्रेम और आनन्द का अधिकारी है अन्यथा असत् तो चेतन है ही नहीं, उसे भला इन दोनों का अनुभव कैसे होगा ? प्रश्न उठता है कि क्या केवल अचेतन और चेतन, निर्जीव और सजीव, पदार्थ और प्राणी की रचना करके ही प्रेम और आनंद प्राप्त हो सकता है ? नहीं, क्योंकि जब तक इनमें से किन्हीं दो का अर्थात् चेतन का चेतन से या चेतन का अचेतन से संयोग नहीं होगा, तब तक न तो प्रेम किया जा सकता है और न ही आनंद की प्राप्ति हो सकती है । ऐसे किसी भी संयोग को संग या संगति करना कहा जाता हैं ।

           जहां संग होगा, वहीं प्रेम होगा और जहां प्रेम होगा वहीं आनंद मिलेगा । प्रत्येक संग में प्रेम और आनंद की अनुभूति होगी ही, यह आवश्यक नहीं है क्योंकि इनकी अनुभूति होना संग के प्रकार (कुसंग अथवा सत्संग) पर निर्भर करता है ।

              अचेतन का अचेतन से संग होने पर उनमें आपसी क्रिया होते हुए कोई नया पदार्थ तो बन सकता है परंतु संग से जो प्रेम और आनंद मिलना चाहिए, वह उन दोनों में से किसी को नहीं मिल सकता क्योंकि यह सर्वथा उदासीन संग है । यही कारण है कि प्रत्येक अचेतन पदार्थ (निर्जीव) प्रेम और आनन्द से दूर है । निर्जीव एक दूसरे के संग रहते हुए भी अनंत काल तक एक दूसरे से अपरिचित बने रहते हैं । एक पहाड़ असंख्य पत्थरों से बना होता है परंतु फिर भी उसके एक पत्थर दूसरे पत्थर से परिचय नहीं कर पाते । परिचय करने के लिए पत्थर जैसे पदार्थ को भी सजीव होना पड़ेगा । 

           निर्जीव चाहे बरसों आपस में संग रहते आए हों, उनको प्रेम और आनन्द की अनुभूति नहीं हो सकती क्योंकि संग के दोनों पक्ष अचेतन हैं । सजीव एक दूसरे का संग करते हुए एक दूसरे से परिचित होते हैं क्योंकि वे चेतन हैं । यह आपसी परिचय ही उनके लिए प्रेम और आनन्द के द्वार खोलता है ।

            मूल बात यह है कि संग करने का अनुभव सजीव को ही होता है, निर्जीव को तो संग रहने का अनुभव तक नहीं होता । सजीव जब निर्जीव अर्थात् पदार्थ का संग कर लेता है तो वह एक पक्षीय संग होता है, उभयपक्षीय नहीं । एक पक्षीय संग में सजीव अर्थात् चेतन, निर्जीव पदार्थ को प्रेम तो कर सकता है परंतु वह प्रेम न होकर आसक्ति होती है जिसके प्रत्युत्तर में उसे प्रेम और आनंद मिलने के स्थान पर केवल सुख अथवा दुःख की अनुभूति ही होती है । यह प्रेम अस्थाई होता है और उससे मिलने वाला आनन्द केवल मात्र एक अल्पकालिक छद्म सुख ही होता है । पदार्थ से किए जाने वाले प्रेम से मिलने वाला सुख एक न एक दिन दुःख में अवश्य ही परिवर्तित होगा क्योंकि पदार्थ सदैव न तो आपके साथ रह सकता है और न ही सदा एकसा रह सकता है । जो पदार्थ आपको मिला है वह एक दिन आपसे बिछुड़ेगा ही, यह निश्चित है । अतः पदार्थ से किया जाने वाला प्रेम, वास्तव में प्रेम न होकर उस पदार्थ में हमारी आसक्ति है और ऐसी आसक्ति कुछ समय के लिए छद्म सुख अवश्य देती है परंतु अंत में यह सुख, दुःख में परिवर्तित हो जाता है ।

               इतने विवेचन से दो बातें स्पष्ट रूप से निकल कर सामने आई है - प्रथम, पदार्थ का संग पदार्थ के साथ होते हुए भी उनमें आपस में प्रेम नहीं हो सकता क्योंकि वे संग रहते हुए भी सदैव असंग बने रहते हैं । द्वितीय - पदार्थ का संग सजीव (चेतन) कर सकता है परंतु उसकी परिणति दुःख के रूप में ही होती है क्योंकि पदार्थ का संग कभी भी स्थाई नहीं रह सकता । इन दो संभावनाओं से अलग, एक तीसरी संभावना भी बनती है । वह संभावना है - चेतन का चेतन के साथ संग । इस प्रकार के संग की अनुभूति द्विपक्षीय होती है । ऐसे संग में प्रेम का अनुभव होने और आनन्द प्राप्त करने की क्षमता होती है । इस प्रकार का संग एक प्राणी ही दूसरे प्राणी के साथ कर सकता है । ऐसा संग ही एक दूसरे को प्रेम और आनन्द से सरोबार कर सकता है ।

              आज सजीव ही सजीव का संग कर रहा है, फिर भी वह प्रेम और आनन्द से कोसों दूर बना हुआ है । आख़िर इसका क्या कारण है ? जब तक उस कारण की गहराई तक नहीं पहुँचेंगे, तब तक प्रेम और आनन्द का अनुभव तो होना दूर, उनको परिभाषित तक नहीं कर पायेंगे । समस्या यह है कि प्रत्येक सजीव दूसरे सजीव के शरीर (पदार्थ अंश) का संग करता है, आत्मा का संग नहीं करता । शरीर से किए जाने वाले संग से उत्पन्न होने वाली वासना और ममता को हम प्रेम का नाम दे देते हैं और उससे प्राप्त हुए क्षणिक सुख को आनन्द कह देते हैं, परंतु ये वास्तविक प्रेम और आनन्द नहीं है । वास्तविक प्रेम और आनन्द का अनुभव तो कोई विरला ही कर सकता है । इनका अनुभव जिस प्रकार के संग से हो सकता है, उस संग का नाम ही सत्संग है ।

               मूल चर्चा है मनुष्य के जीवन की । चेतन प्राणी मनुष्य अन्य प्राणियों की तरह चेतन होते हुए भी जन्म तो ‘स्व-अचेतन’ (self-unconscious) के रूप में ही लेता है परंतु वह ‘स्व-चेतन’ (self-conscious) की अवस्था तक अपनी बुद्धि के माध्यम से पहुँच सकता है । इस अवस्था तक पहुँचने के लिए उसके जीवन में संग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । वह संग किसका करता है अर्थात् वह संग कुसंग है अथवा सत्संग है, इसको जानना बड़ा महत्वपूर्ण है । जिस प्रकार का उसका संग है, उसी अनुसार उसकी अवस्था बन जाती है । सत्संग उसे स्व-चेतन की अवस्था तक पहुँचा सकता है अन्यथा कुसंग में पड़कर वह सदैव के लिए स्व-अचेतन ही बना रह सकता है । संग ही उसका भावी जन्म और जीवन (पुनर्जन्म) निश्चित करता है ।

            चेतन होकर भी मनुष्य अपने जीवन को दो प्रकार से जीता है - या तो स्व- अचेतन चेतन होकर अथवा स्व-चेतन चेतन होकर । ‘स्व-अचेतन चेतन’ होकर जीने वाले मनुष्य और पशु में सींग-पूँछ को छोड़कर और कोई विशेष अंतर नहीं होता । पशु की तरह ऐसे मनुष्य भी आहार, निद्रा, भय और मैथुन में रत रहते हुए अपना मनुष्य जन्म खो देते हैं । दूसरे प्रकार के मनुष्य ‘स्व-चेतन चेतन’ की अवस्था प्राप्त कर अपने विवेक का सदुपयोग कर आत्म-बोध की अवस्था तक पहुँच जाते हैं । चेतन मनुष्य को ‘स्व-अचेतन’ होकर जीना है अथवा ‘स्व-चेतन’ होकर, यह उसके संग पर निर्भर करता है । कुसंग पाकर वह स्व-अचेतन होकर जीता है और सत्संग पाकर वह स्व-चेतन होकर ।

              मनुष्य की दो श्रेणियों के बारे में स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं कि पहली प्रकार के तो वे मनुष्य हैं, जो भौतिक रूप से तो जाग्रत अवस्था में है परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से सोए हुए हैं । ऐसे मनुष्य सांसारिक भोगों में आकण्ठ डूबे हुए हैं । इस लेख में ऐसे मनुष्यों को ‘स्व-अचेतन चेतन’ कहा गया है । दूसरी प्रकार के वे मनुष्य हैं जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से जाग्रत हैं । ऐसे मनुष्य संसार में रहते हुए भी संसार से मुक्त हैं । जिस प्रकार कमल-पुष्प दल और कमल-पत्र जल में रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होते ऐसे ही इस प्रकार के मनुष्य संसार में रहते हुए भी संसार में लिप्त नहीं होते । इस लेख में ऐसे मनुष्यों को ‘स्व-चेतन चेतन’ कहा गया है ।

        स्व-अचेतन और स्व-चेतन में ‘स्व’ का अर्थ है, स्वयं । मनुष्य स्वयं के कारण ही अचेतन होता है और स्वयं के कारण ही चेतन । स्व-अचेतन भी प्रयास कर स्व-चेतन हो सकता है । जो मनुष्य भौतिक/स्थूल रूप से जाग्रत है परंतु जानबूझकर सोया है अर्थात् सांसारिक गतिविधियों में लिप्त है, वह घोर सांसारिक है । उसे जगाना बड़ा कठिन है । जो मनुष्य स्थूल रूप से जाग्रत है और साथ ही संसार से भी निर्लिप्त है वह आध्यात्मिक रूप से भी जाग्रत है ।

            सोया हुआ व्यक्ति तो वह है, जो संसार के भोग और संग्रह में लगा हुआ है । जो सांसारिक भोग-संग्रह से विमुख है, वास्तव में वही मनुष्य जाग्रत है । सिक्कों की खनक को सुनने वाला जाग्रत होते हुए भी गहरी नींद में है क्योंकि वह परमात्मा से विमुख है । ऐसा मनुष्य चेतन होते हुए भी अचेतन अवस्था में है ।

         परमात्मा की ओर से सोए हुए मनुष्य का संग किसी जाग्रत के साथ हो जाए तो ऐसा मनुष्य भी गहरी नींद से जाग खड़ा होता है । महत्वपूर्ण है कि मनुष्य अपने जीवन में किसका संग करता है ? जो संग स्व-अचेतन चेतन को स्व-चेतन चेतन कर सकता है, वही संग सत्संग है । कुसंग मिल जाए तो स्व-चेतन भी स्व-अचेतन हो जाता है ।

           जो सदैव और संपूर्ण रूप से जाग्रत है, उसे सांसारिक गतिविधियों से कोई प्रयोजन नहीं रहता । इस बात को स्पष्ट करते हुए गीता में भगवान कहते हैं -

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: ।। 2/69 ।।

          संपूर्ण प्राणियों की जो रात होती है, उसमें संयमी पुरुष जागता है । जिस समय सभी प्राणी जागते हैं, वह समय तत्वज्ञ मुनि की दृष्टि में रात है ।

             दिन भर सांसारिक गतिविधियों में व्यस्त रहकर रात को भौतिक रूप से जब संसारी सो जाता है, ऐसी रात में भी सदैव जाग्रत रहने वाला मनुष्य (नींद में) सोते हुए भी चौकन्ना रहता है अर्थात् स्वप्न में भी वह संसार में नहीं उलझता । जब दिन में सांसारिक गतिविधियाँ, जिसमें प्रत्येक प्राणी स्थूल रूप से जाग्रत होकर भाग लेता है, आध्यात्मिक रूप से जाग्रत मनुष्य के लिए वह दिन भी रात्रि के समान है अर्थात् वह संसार की गतिविधियों में कोई रुचि नहीं लेता ।

         इतने विवेचन से स्पष्ट है कि चेतन मनुष्य की भी दो प्रकार की श्रेणियाँ है । प्रथम जिसमें मनुष्य चेतन होकर भी अचेतन की अवस्था में रहता है । ऐसे मनुष्यों को ‘स्व-अचेतन’ कहा जाता है । दूसरी श्रेणी में वे चेतन मनुष्य हैं जो ‘स्व-चेतन’ की अवस्था में रहते हैं । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के दैवासुर सम्पदा विभाग योग नामक अध्याय में विस्तार से इन दोनों का वर्णन किया है ।

         इस संसार में दो ही प्रकार के मनुष्य हैं - दैव और असुर । दैव वे चेतन मनुष्य हैं जो अपने विवेक का सदुपयोग करते हुए ‘स्व-चेतन’ की अवस्था में हैं । असुर वे चेतन मनुष्य हैं जो अपने विवेक का अनादर करते हुए ‘स्व-अचेतन’ बने हुए हैं । स्व-चेतन मनुष्य का संग प्रायः दूसरे स्व-चेतन मनुष्य के साथ ही होता है जिससे उसके भीतर सदैव दैव सम्पदा विकसित होती रहती है । स्व-अचेतन मनुष्य सदैव कुसंग ही करता है जिसके कारण उसमें आसुरी संपदा विकसित होती है जो उसके पतन का कारण बनती है । शारीरिक रूप से दोनों ही प्रकार के मनुष्यों में कोई विशेष अंतर नज़र नहीं आता परंतु आचार-व्यवहार के स्तर पर इनको आप सुगमता से पहिचान सकते हैं ।

         भगवान ने गीता के 16 वें अध्याय में दैवी एवं आसुरी संपदा वाले व्यक्तियों के लक्षणों का विस्तार से वर्णन किया है । मनुष्य का संग ही उसे दैव की श्रेणी में भी रख सकता है और असुर की श्रेणी में भी । इसलिए मनुष्य को अपने विवेक का सही उपयोग करते हुए संग का चुनाव करना चाहिए । सत्संग आपमें दैवी संपदा की वृद्धि करता है और कुसंग आसुरी संपदा की ।

             संग के मूल में कामना है । बिना किसी कामना के संग हो ही नहीं सकता । आप रेल में यात्रा कर रहे हैं । उसमें कई यात्रियों का संग स्वतः ही मिल जाता है । यह उदासीन संग है । इस संग में कामना केवल यात्रा करना है । दूसरा संग होता है किसी विशेष वस्तु अथवा व्यक्ति के साथ । ऐसे संग में स्वयं को सुख मिलने की कामना होती है । यह अशुभ कामना है । तीसरा संग होता है, प्रेम और आनन्द मिलने की कामना से । इसमें सत् का सत् के साथ संग होता है । इसमें कामना केवल उस परम तक पहुँचने की होती है । इसे शुभ कामना कहा जाता है । 

             मनुष्य के जीवन में संग या तो कुसंग होता है अथवा सत्संग होता है । संग नाम है उस बंधन का, जिसमें एक जीव दूसरे जीव के साथ बंधता है । एक संग तो वह होता है, जिसमें कामनापूर्ति के लिए मनुष्य एक दूसरे के साथ बंधते हैं । यह बंधन मनुष्य को संसार के साथ बाँधने वाला होता है । दूसरा बंधन वह होता है, जिसे मनुष्य संसार से अपनी मुक्ति के लिए स्वीकार करता है अर्थात् वह संग जो मुक्ति के लिए किया जाता है, ऐसा संग बंधन प्रतीत होते हुए भी बंधन नहीं है । इस संग का नाम ही सत्संग है । सत्संग नाम है उस संग का, जिसमें हम एक दूसरे के साथ बंधे बिना अर्थात् असंग रहकर उस प्रेम और आनन्द को अनुभव कर सकते हैं जिसके लिए परमात्मा संसार के रूप में अवतरित हुए हैं । सत्संग केवल उन्हीं के लिए बंधन है, जो सत्संग से सीख न लेकर सुख लेते हैं । सत्संग से अगर जीवन में परिवर्तन नहीं आता तो ऐसा सत्संग बंधन है ।

          जन्म-जन्मांतर से हम संसार बियाबान में भटकते हुए उससे बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ रहे हैं । रास्ता मिलेगा, सत्संग से । परंतु दुर्भाग्य से सत्संग करने के साथ ही साथ हम संसार का कुसंग नहीं छोड़ पा रहे हैं । बंधे हुए तो हम पहले से ही है, तभी तो सत्संग में केवल उपस्थिति दर्ज कराने आते हैं । सत्संग में संत के प्रवचन करते समय हमारा मन तो बाहर कहीं का कहीं भटकता रहता है, केवल स्थूल शरीर वहाँ बैठा रहता है । इस प्रकार सत्संग करने का कोई लाभ नहीं है । ऐसा सत्संग भी बंधन में डालने वाला हो जाता है । जब तक हमारी जड़ता में तनिक सा भी परिवर्तन आता दिखलाई नहीं पड़ता, तब तक सत्संग बंधन है । मनोयोग से किए सत्संग का प्रभाव तो तत्काल होता है । फिर बार-बार सत्संग करने की आवश्यकता नहीं होती । एक दृष्टांत के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ ।

           एक गाँव की पुलिस वहां कई दिन से हो रही चोरियों के कारण परेशान थी । उस पर चोरी करने वाले को पकड़ने का पूरा दबाव था । एक बार एक चोर उसी गाँव के किसी घर में भरी दुपहर चोरी कर रहा था । चोरी का माल लेकर वह घर से बाहर निकला ही था कि पुलिस की नज़र उस पर पड़ गई । पुलिस को देखकर चोर भागने लगा । रास्ते में सुनसान स्थान देखकर उसने माल को वहीं यह सोचकर फेंक दिया कि पुलिस अब पीछा नहीं करेगी । पुलिस को माल से कोई मतलब नहीं था, उसे तो चोर को पकड़ना था । चोर आगे और पुलिस पीछे । पुलिस से बचने का चोर को कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था । तभी उसकी दृष्टि गाँव के ही एक मंदिर पर पड़ी, जहां किसी संत का सत्संग हो रहा था । चोर उस मंदिर में घुस कर वहाँ हो रहे सत्संग को सुन रहे लोगों के बीच जाकर बैठ गया और मनोयोग से प्रवचन सुनने लगा ।        

             चोर बैठा है श्रोताओं के बीच, पूरे ध्यान से प्रवचन सुन रहा है क्योंकि पुलिस की नज़रों से बचने का यही एक मात्र उपाय है । संत कह रहे हैं - “इस संसार में चोरी करने से बड़ा कोई पाप नहीं है । चोरी के अपराध में चोर को कोई सजा मिले अथवा नहीं, ऊपर वाला निश्चित ही उसका न्याय करेगा । मनुष्य चोरी करता है, अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए । सोचिए ! पशु-पक्षियों का पेट कौन भरता है ? जो उनका भरता है, वही हमारा भी भरता है । फिर चोरी क्यों करते हैं ? चोरी करना महापाप है । जिस दिन हम इस पाप से मुक्ति पा लेंगे, उसी दिन से आपके भरण-पोषण की ज़िम्मेवारी परमात्मा की हो जाएगी ।” संत बोले जा रहे थे, चोर मन लगाकर उनको सुन रहा था । पुलिस मंदिर परिसर में आई लेकिन श्रोताओं के मध्य बैठे चोर को पहचान न सकी और लौट गई ।

          चोर ने उसी समय चोरी छोड़ने का संकल्प कर लिया । संत के प्रवचन समाप्त होने से पूर्व ही चोर वहाँ से उठा और उस गाँव को छोड़ दिया । 

        कई वर्ष बीत गए । एक दिन वही चोर, जो अब साधु बन चुका था, उसी गाँव से होकर आगे जा रहा था । उसने देखा कि मंदिर के पास बहुत भीड़ है । वह किसी से पूछ बैठा -“यहाँ क्या हो रहा है ?” उत्तर मिला - “सत्संग चल रहा है ।” उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि अभी तक सत्संग चल रहा है । अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए किसी से पूछा तो उत्तर मिला कि यहाँ तो कई वर्षों से प्रतिदिन सत्संग होता ही है । साधु (चोर) को बड़ा आश्चर्य हुआ कि सत्संग करने का लाभ तो तत्काल मिल जाता है, फिर यह कैसा सत्संग है, जो अभी भी करना पड़ रहा है ?

            उस साधु (चोर) का सोचना सही था । जब तक हम सत्संग को गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक उसे सही मायने में सत्संग नहीं कहा जा सकता । सत्संग थोड़े समय के लिए भी मिल जाए तो भी बहुत लाभकारी होता है, बस सत्संग मनोयोग से हो, यह आवश्यक है । कबीर ने कहा भी है -

       एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से पुनि आध ।

       कबीरा संगत साधु की, कटे कोटि अपराध ।।

              कुसंग तो स्वरूप से ही बँधनकारी है परंतु सत्संग से केवल सुख लेना भी बांधने वाला हो सकता है । है न बड़े आश्चर्य की बात ! इसका अर्थ यह नहीं है कि सत्संग करें ही नहीं । थोड़ी देर के सत्संग से भी लाभ मिलता है । कम से कम उतने समय तक तो व्यक्ति का कुसंग से दूर रहना हो जाता है । प्रतिदिन अल्प समय के लिए ही सही, ऐसा सत्संग दीर्घकाल तक करने से कभी न कभी तो जीवन में परिवर्तन आएगा ही । कठोर लोहे को तोड़ने के लिए उस पर हथौड़े से चोट मारी जाती है । अंतिम चोट से लोहा टूट कर बिखर जाता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि पूर्व में मारी गई सभी चोटें अनुपयोगी थी । प्रत्येक चोट के साथ लोहे का भीतर से टूटना चल रहा था । हाँ, अंतिम चोट ने अवश्य ही उसको खण्ड-खण्ड कर दिया था । 

           इसी प्रकार कई जन्मों की जड़ता एक बार में समाप्त नहीं होती । महत्वपूर्ण है, सत्संग को गंभीरता से लेना । जितने समय के लिए ही सत्संग करें, उसमें डूब जाएँ । इसके लिए आवश्यक है कि हम स्वयं को परिवर्तित करने के लिए दृढ़ संकल्प हों । बिना लक्ष्य के प्रति दृढ़ता रखे कोई भी सत्संग कल्याण नहीं कर सकता ।

            संग किसका, किसके साथ और कैसे होता है ? ज़रा उस ओर भी दृष्टि डाल लेते हैं । एक संग होता है - पदार्थ और पदार्थ के बीच, जिसमें दोनों एक साथ रहते हुए भी अनंतकाल तक अपरिचित बने रहते हैं । यह असत् के साथ असत् का संग है । इसमें दोनों में से न तो कोई किसी को प्रेम करता और न ही कोई किसी को दुःख देता है, आनन्द का अनुभव होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । दूसरा संग होता है - कुसंग । यह दो प्रकार का होता है । सजीव (चेतन) का निर्जीव पदार्थ (अचेतन) के साथ और सजीव (चेतन) का सजीव पदार्थ (शरीर) के साथ । सजीव का निर्जीव पदार्थ के साथ संग का उदाहरण है - धन, ज़मीन, भवन आदि में आसक्त होना, उनमें ममता रखना । सजीव का सजीव पदार्थ (शरीर) का संग करने का अर्थ है, सजीव के शरीर (पदार्थ) में आसक्त होकर उसमें सुख खोजना । इसके उदाहरण है - पत्नी, पुत्र, माता-पिता, बंधु, मित्र और परिवार में ममता रखना ।

            कुसंग चाहे किसी प्रकार का हो, उसमें दोनों ही पक्षों को दुःख के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता । इसीलिए गोस्वामीजी ने कहा है - 

      ‘को न कुसंगति पाइ नसाई । रहइ न नीच मते चतुराई ।।

             संसार में ऐसा कौन है, जो कुसंग पाकर नष्ट नहीं होता ? इसलिए मनुष्य को सदैव कुसंग से बचना चाहिए । कुसंग ही मनुष्य के बंधन का कारण है क्योंकि कुसंग के कारण ही कामना, आसक्ति और ममता पैदा होते हैं । इसलिए कुसंग सदैव ही त्याज्य है ।

           स्वामीजी की पुस्तक ‘भगवन्नाम’ में कुसंग के त्याग की बात कही गई है । वे कहते हैं - “कुसंग का त्याग करो । कुसंग क्या है ? यह धन हमारा है, सम्पत्ति हमारी है - यह कुसंग है । जो धनके लोभी हैं, भोगोंके कामी हैं, उनका संग कुसंग है । जो परमात्मा से विमुख हैं, उनका संग महान् कुसंग है । जो कुसमाज है, उनसे बचो । नहीं तो महाराज ! थोड़ा-सा कुसंग भी आपकी वृत्तियों को बदल देगा, एकदम भगवान् से विमुख कर देगा । लोग कहते हैं कि भगवद्-भजन में इतनी ताकत नहीं, जो कुसंग पर इतना असर कर जाय । वह ताकत कुसंग में भी नहीं है भाई, प्रत्युत अपने भीतर में अनेक तरह के जो विरुद्ध संस्कार पड़े हुए हैं, वे भगवद्-भजन के विरुद्ध संस्कार पड़े हैं । वे संस्कार कुसंग से उभर जाते हैं, जग जाते हैं । इस वास्ते कुसंग का बड़ा असर पड़ता है । 

           आप भजन करोगे तो वे सब संस्कार नष्ट हो जाएंगे, फिर - *'बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ।” कभी किसी कारणसे कोई सज्जन कुसंग में पड़ भी जायँ तो जैसे साँप की मणि होती है, उसको जहर नहीं लगता । वह तो जहर के ऊपर रखने से जहर का शोषण कर लेती है, पर वह खुद जहरीली नहीं होगी । इसी तरह से आप भजन में तल्लीन हो जाओगे, तदाकार हो जाओगे तो फिर आपका मन नहीं बदलेगा, आपके ऊपर कुसंग का असर नहीं पड़ेगा । कारण कि आपके अन्तःकरण में भगवत्-सम्बन्धी संस्कार दृढ़ हो गये, प्रत्युत कुसंग पर आपका असर पड़ेगा, भजन का असर पड़ेगा । कुसंग की शक्ति बढ़े, उससे पहले ही सावधान रहो ।”

            स्वामीजी ने कुसंग के बारे में बिलकुल सत्य कहा है । मनुष्य जीवन कुसंग से ही सर्वाधिक प्रभावित होता है क्योंकि कुसंग बड़ी तेज़ी से सांसारिक विषयों में रुचि पैदा करता है । विषयों के प्रति बढ़ती रुचि का कारण है - शारीरिक सुख के प्रति मनुष्य का आसक्ति भाव । किसी के प्रति आसक्त होना जीवन में विषमता पैदा करता है । इस विषमता के कारण मनुष्य का एक न एक दिन पतन होना निश्चित है । कहने का अर्थ है कि कुसंग मनुष्य को दुर्गति की ओर ले जाता है जबकि सत्संग प्रगति/सद्गति की ओर । 

              “दुर्गति और प्रगति” इन दोनों में ‘गति’ शब्द बड़े महत्व का है । गति एक सदिश इकाई (vector unit) है, जिसमें मात्रा/परिमाण के साथ दिशा भी होती है । एक ही स्थिति में बने रहने की अवस्था को भौतिक विज्ञान में जड़ता (Inertia) कहा गया है । गति के तीन नियम हैं, जिनमें पहला नियम ‘जड़त्व का नियम’ कहलाता है । जड़त्व का नियम कहता है - “अगर कोई वस्तु स्थिर है तो वह स्थिर ही रहेगी और कोई वस्तु जिस दिशा में गतिमान है वह उसी दिशा में तब तक गति करती रहेगी, जब तक उस पर कोई बाह्य बल न लगाया जाय ।” 

          बाह्य बल लगाने से स्थिर वस्तु को गति मिल जाती है और गतिमान वस्तु की या तो दिशा बदल जाती है अथवा दशा बदलकर वह स्थिर हो जाती है । जड़त्व के नियम से निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक प्रकार की जड़ता को तोड़ने के लिए बाह्य बल की आवश्यकता होती ही है ।

           वस्तु स्थिर है तो भी उसमें जड़ता है और गतिमान है तो भी उसमें जड़ता है । जड़ता का अर्थ है, एक ही स्थिति में बने रहना । यह जड़ता तीन प्रकार की होती है - स्थितिज जड़ता (Inertia of rest), गतिज जड़ता (Inertia of motion) और दिशा की जड़ता (Inertia of Direction) । प्रत्येक प्रकार की जड़ता को तोड़ने के लिए बाह्य बल की आवश्यकता होती है । व्यावहारिक और सामाजिक जीवन में इसको संगति अर्थात् संग करना कहा जाता है । यह संग अर्थात् संगति ही है जो गति का परिमाण, दिशा और दशा बदलने में बाह्य बल का कार्य करता है ।

           आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो जड़ता के सम्बन्ध में भौतिकी (Physics) की बात सही है । जड़ता एक ही स्थिति में बने रहने को कहते हैं । इस जड़ता की स्थिति से व्यक्ति तभी बाहर निकल सकता है, जब उसे किसी का संग मिले । संग अगर सही मिला तो उसके जीवन में प्रगति होगी अन्यथा सांसारिक संग में भटकाव के अतिरिक्त कुछ मिलने वाला नहीं है, जो अंततः उसे पतन की ओर ले जाने वाला ही सिद्ध होगा । 

             शरीर के सुख के लिए संसार के पदार्थों पर निर्भर रहना मानव की सबसे बड़ी भूल है । वह इन पदार्थों को प्राप्त करने के लिए दौड़ता रहता है । इस प्रकार की दौड़ भी जड़ता है । इस जड़ता को समाप्त करने के लिए सत्संग आवश्यक है । सत्संग संसार और उसके पदार्थों का संग छुड़ाकर असंग कर देता है । असंग होते ही जड़ता टूट जाती है और सांसारिक दौड़ समाप्त हो जाती है ।

      संग का प्रभाव कभी भी और किसी पर भी हो सकता है परंतु विकसित होते मस्तिष्क, विकसित होती बुद्धि पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है । बाल्यकाल से जिसको अच्छा संग मिल जाता है, उसकी प्रगति की दिशा निःसंदेह प्रशंसनीय होती है । कुसंग पाकर बच्चे कम आयु में ग़लत राह पकड़ कर भटक भी जाते हैं । 

                   संग के बारे में श्रीरामचारितमानस में तुलसी लिखते हैं -

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । 

कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ।।1/7/9।।

                अर्थात् धूल उर्ध्वगामी वायु का संग पाकर आकाश तक पहुँच जाती है । वही धूल अधोगामी जल का संग पाकर कीचड़ बन जाती है । धूल एक ही है परंतु उसके द्वारा किए जाने वाले संग भिन्न भिन्न है । जैसा संग होता है, उसी प्रकार की गति होती है ।

            जीवन में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी का संग अवश्य ही करता है क्योंकि अकेलेपन का जीवन उसे नीरस और बोझिल लगता है । हाँ, सत्संग से जीवन में असंगता आती है, जो मनुष्य को बोझिल नहीं लगती क्योंकि संसार से असंग वही होता है, जो परमात्मा का संग चाहता है । आत्मा का परमात्मा से संग सत् का सत् से संग है । ऐसे संग में दोनों मिलकर एक हो जाते हैं, वह एक परमात्मा ही है । परमात्मा का संग कभी उबाऊ नहीं होता, वे प्रेम और आनंद के सागर जो हैं । 

           जैसा संग होता है, उसका वैसा प्रभाव मनुष्य की बुद्धि पर अवश्य पड़ता है । कहावत भी है कि संग से व्यक्ति का रंग भले ही न बदले, अक़्ल अवश्य ही परिवर्तित हो जाती है । हाँ, व्यक्ति की बुद्धि अगर अधिक प्रभावी हो तो व्यक्ति सोच-समझकर संग करता है । तुलसी ने कहा भी है - 

     “सठ सुधरिहिं सतसंगति पाई । 

     पारस परस कुधात सुहाई ।।” मानस - 1/3/9।।

     अर्थात् दुष्ट भी सत्संग पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है ।

             व्यक्ति के जीवन में विवेक का बड़ा महत्व है । प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि में विवेक छिपा रहता है । विवेक के प्रकट होने पर व्यक्ति की सोचने-समझने की क्षमता का विकास होता है । विवेक ही सही संग का चुनाव करता है । सामान्यतः मन की गति सुख की ओर रहती है क्योंकि मन की गति अधोगामी है जबकि विवेक की गति उर्ध्वगामी है । सुख इंद्रियों का विषय है जोकि अचेतन है । आनन्द, विवेक अर्थात् चित् (चैतन्य) का विषय है । आनन्द का अनुभव केवल चेतन ही कर सकता है । यह व्यक्ति की क्षमता पर निर्भर करता है कि वह किसका दास है - इंद्रियों का या फिर विवेक का ।

          शारीरिक सुख की चाहना रखने वाला इंद्रियों का दास है जबकि प्रेम और आनन्द की चाह रखने वाला सदैव अपने विवेक का आदर करता है । विषयों में आसक्त इंद्रियाँ व्यक्ति की जड़ता को बढ़ाती है जबकि विवेक विषयासक्ति से इंद्रियों को मुक्त करता है । आसक्ति दुर्गति की नींव है । जीवन में प्रगति करनी है तो विवेक का सदुपयोग करते हुए अनासक्त होना ही होगा ।

          मन में बार-बार एक ही प्रश्न उठता है कि जीवन में संग करना क्यों आवश्यक है ? एक एकाकी और उदासीन जीवन किसी को पसन्द नहीं है । उदासीन जीवन नीरस होता है । आप अकेले एक कमरे में बन्द हो जाएँ तो आपको कैसा लगेगा ? आपका न तो समय बीत पाएगा और न ही मन स्थिर रह पाएगा । आप एक ही स्थिति में रहने को विवश होंगे । एक ही स्थिति में बने रहना ही जड़ता है। इस विवशता से बाहर निकलने के लिए व्यक्ति को किसी न किसी का साथ चाहिए । आधुनिक युग में समय काटने के लिए व्यक्ति या तो टेलीविज़न देखता है अथवा मोबाइल पर सोशल मीडिया पर सक्रिय रहता है । यह भी एक प्रकार की जड़ता हुई क्योंकि इसमें व्यक्ति का समय तो कट रहा है परन्तु एक ही स्थिति में रहते हुए वह उससे मुक्त नहीं हो पा रहा है ।

              मनुष्य सामाजिक और पारिवारिक जीवन को तभी स्वीकार करता है, जब उसके जीवन में रस का अभाव हो । वह सुख की कामना में परिवार और समाज का संग लेता है । ऐसा संग कुसंग भी हो सकता है । कुसंग मनुष्य की कामना को और अधिक बढ़ाता है । जब कामी व्यक्ति का संग मिल जाता है, तो व्यक्ति पतन की राह पर चला जाता है । कामना से कर्म होते हैं जिनकी सफलता से मनुष्य को सुख मिलता है । ऐसा होने पर कहने भर को तो वह प्रेम और आनन्द की अवस्था में मग्न है परंतु वास्तव में वह स्वार्थ और वासना के दलदल में फँसा हुआ है । जहां प्रेम होता है वहाँ स्वार्थ और वासना का कोई स्थान नहीं है । क्षणिक शारीरिक सुख को आनन्द मान लेना सबसे बड़ी मानवीय भूल है ।

      अयोध्या में भगवान श्री राम का राज्याभिषेक होना निश्चित हुआ । माँ शारदा ने कैकेयी की दासी मंथरा की बुद्धि फेरकर उसे मोहग्रस्त कर दिया । मोहग्रस्त हुई मंथरा अवध की शोभा को नहीं पचा पा रही है । क्यों ? क्योंकि एक राजमाता की दासी होने और राजपरिवार के किसी अन्य सदस्य की दासी होने में बड़ा अन्तर होता है । उसने सोच लिया कि यदि दासी बनकर रहना ही नियति में लिखा है, तो क्यों न राजमाता की दासी होकर रहा जाय । बस, मंथरा की इसी कामना ने एक ही रात में उस राजपरिवार को हिला कर रख दिया, जिस राज परिवार में स्वयं परमात्मा अवतरित हुए हैं । इसी कामी मंथरा के संग ने कैकेयी जैसी बुद्धिमति की बुद्धि को भी परिवर्तित कर दिया था ।   

                 संग ही वह बाह्य बल है जो या तो जड़ता को बढ़ाता है या वह जड़ता से मुक्त कर देता है । संग बुद्धि की दिशा को परिवर्तित करता है । आपका संग कैसा है, उसी अनुसार बुद्धि में परिवर्तन आता है । संग से बुद्धि की जड़ता की दिशा और दशा दोनों बदल जाती है । कुसंग में व्यक्ति विवेकहीन हो जाता है फिर बुद्धि पर दूसरा कोई बल प्रभाव नहीं डाल सकता । कुसंग व्यक्ति को सर्वाधिक आकर्षित करता है क्योंकि उसमें आपको अपना स्वार्थ सिद्ध होता नज़र आता है । आपका स्वार्थ है कि आप जैसा चाहते हैं, वैसा हो जाय । कैकेयी के भीतर राजमाता होने की थोड़ी बहुत कामना शायद पूर्व में भी कभी रही होगी, तभी वह कामना मंथरा के कुसंग से सतह पर आ गई और उसने दशरथ से पहला वर भरत का राज्याभिषेक करने का माँगा, राम के वनवास का नहीं ।

           कुसंग का अर्थ है, असत् का संग । असत् तो शरीर और संसार है और सत् शरीर में स्थित आत्मा है । जब शरीर में स्थित आत्मा की उपेक्षा कर दी जाती है, तभी कुसंग प्रभावी होता है । प्रारंभ में मंथरा के द्वारा विभिन्न प्रकार से समझाने पर भी कैकेयी विचलित नहीं हुई क्योंकि तब तक वह अपने भीतर (आत्मा) की आवाज़ सुन रही थी । परंतु जब मंथरा ने कैकेयी के मर्म भाग पर प्रहार किया अर्थात् भरत को लेकर कुछ कहा तब उसने सत् (आत्मा) को ठुकरा दिया और असत् के संग हो ली । कुसंग आत्मा की आवाज़ को दबा देता है और अंततः व्यक्ति असत् के संग हो लेता है ।

           सत्संग, कुसंग के ठीक विपरीत है । इसमें व्यक्ति का संग सत् के साथ होता है । चित्त का आत्मा के स्वर में स्वर मिलाकर संगत करना ही सत्संग है । सत्संग में आवाज़ सत् की होती है और सुनने वाला भी सत् ही होता है । सत् की वाणी असत् तक पहुँच ही नहीं सकती । शरीर-रूप से भले ही दोनों ही असत् हो परंतु वक्ता और श्रोता दोनों के लिए सत् ही महत्वपूर्ण है । एक सत् को पा चुका है, एक सत् को पाना चाहता है, तभी दोनों का सत्संग होता है । जब वक्ता असत् हो और श्रोता भी असत् हो तो दिखने में सत्संग भले ही हो रहा हो परंतु तब वह वाणी इतनी प्रभावशाली नहीं होती । यही कारण है कि आज चारों ओर सत्संग हो रहे हैं परंतु उनका प्रभाव दृष्टिगोचर कहीं नहीं हो रहा है ।

             लंकिनी नाम की राक्षसी का हनुमानज़ी से थोड़े समय के लिए ही वार्तालाप होता है । लंकिनी कहती है - “ब्रह्माजी जब लंका बनाकर वापस जा रहे थे तब जाते-जाते उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम एक बन्दर के प्रहार से जब विकल हो जाओ, तब समझ जाना कि अब लंका का विनाश होना सुनिश्चित है । इस बात से मेरे मन में विश्वास हो गया कि भगवान के दूत का मुझे स्पर्श होगा । मेरा बड़ा भाग्य है जो भगवान श्रीराम के दूत के दर्शन हुए ।” लंकिनी जैसा विश्वास हमें हो जाए तो एक सत्संग से ही हमारा कल्याण हो जाएगा ।

               हनुमानजी जैसे राम-भक्त के संग से लंकिनी इतनी प्रभावित होती है कि वह सत्संग से मिले सुख का वर्णन करने लगती है । प्रारम्भ में लंकिनी राक्षसी के शरीर (असत्) का संग हनुमानज़ी (सत्) के साथ था परन्तु मुष्टि प्रहार के बाद लंकिनी की आत्मा (सत्) का संग सत् (रामभक्त हनुमान) के साथ हो गया । तभी वह सत्संग प्रभावी हो पाया ।

                   तुलसी मानस में लिखते हैं -

         तात स्वर्ग अपबर्ग सुख, धरिअ तुला एक अंग ।

         तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सतसंग ।। सुंदरकांड - 4 ।।

                  लंकिनी कह रही है कि हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सुखों को तराज़ू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर उस दूसरे पलड़े में रखे गए सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव अर्थात् क्षण मात्र के सत्संग से होता है ।

             ज्ञान की बातें हर किसी के मुख से सुनना ही केवल सत्संग नहीं है । सत्संग वही है जिससे व्यक्ति की जड़ता को ऐसी नई दिशा मिलती हो, जो उसकी अध्यात्म-पथ पर प्रगति करा दे । प्रत्येक प्रकार की जड़ता को तोड़ने के लिए किसी बाह्य बल की आवश्यकता पड़ती है । सत्संग ही वह बाह्य बल है, जो बिना किसी प्रयास के जड़ता समाप्त कर मुक्ति की राह खोल देता है । 

           संतों का संग इसी प्रकार का सत्संग है क्योंकि संत सत् की उस अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं, जहां पर हर कोई पहुँचने की इच्छा रखता है । सत्संग के बारे में भगवान स्वयं कहते हैं कि जो बड़े भाग्यशाली होते हैं, उन्हें ही संतों का संग अर्थात् सत्संग मिलता है । मानस में गोस्वामीजी लिखते हैं -

        बड़े भाग पाइब सतसंगा । बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा ।। उत्तरकांड -33/8।।

              बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिना किसी प्रयास के जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है ।

        सत्संग का मिलना बड़ा मुश्किल है । जिसका प्रारब्ध बड़ा प्रबल है, उसी को वास्तविक सत्संग उपलब्ध होता है । पहले तो मानव शरीर मिलना असंभव है । परमात्मा अगर कृपा करके मनुष्य शरीर दे भी देते हैं तो सत्संग का मिलना कठिन है । कठिन इसलिए क्योंकि संसार में आकर जीव इंद्रियों का दास बनकर सुख-भोग में लग जाता है । 

                संसार में आकर शरीर के सुख के लिए इंद्रियों को विषयों की ओर खुला छोड़ देना ही घातक है । इंद्रियों का नियंत्रण मन के पास है और मन चंचल होता है । मन संसार से सुख चाहता है । असत् संसार का संग ही कुसंग है । परमात्मा से प्रेम करना ही सत्संग है क्योंकि एक वे ही सत् हैं । असत् संसार में आकर असत् का संग करना कुसंग है । असत् शरीर में रहते हुए अपनी आत्मा को सदैव जाग्रत रखना आपको सत्संग उपलब्ध करा सकता है अन्यथा संसार के बियाबान में उलझ कर शरीर का ही नाश करना है । फिर यह मानुष देह कब मिलेगी, कहा नहीं जा सकता ।

             जन्म-मृत्यु का चक्र क्या है ? इस संसार में बार-बार नए-नए शरीर लेकर आना ही जन्म-मृत्यु चक्र है । सत्संग हमें हमारे मूल स्वरूप तक पहुँचने में सहायता करता है । मूल स्वरूप तक पहुँचने पर संसार में लौटना नहीं होता । कुसंग सांसारिक सुख में प्रवृत्त करता है, जबकि सत्संग संसार से निवृत्त करते हुए आत्मिक सुख अर्थात् आनंद की अनुभूति कराता है । सांसारिक सुख कामना के अधीन है जबकि आनंद प्रत्येक प्रकार की कामना के छूट जाने पर उपलब्ध होता है । सत्संग व्यक्ति को आत्म-अनात्म का ज्ञान कराता है । इस प्रकार का ज्ञान हो जाने से व्यक्ति संसार के प्रत्येक जीव को पहले स्वयं में और फिर स्वयं सहित सभी जीवों को परमात्मा में देखता है ।

          सबमें परमात्मा है, इसका अर्थ है कि एक परमात्मा ही है । ऐसा स्वीकार करने वाले किन्हीं दो का संग ही सत्संग हो जाता है । इस प्रकार सत् का जो संग सत् के साथ होता है, उससे प्रेम उत्पन्न होता है अर्थात् परमात्मा से प्रेम । परमात्मा से प्रेम होना ही व्यक्ति को आनंद की अवस्था तक ले जाता है । परमात्मा ही सत् है, वे ही चैतन्य है और आनंदघन भी । इसीलिए उनको सच्चिदानन्दघन कहा जाता है । 

            प्रारंभ में प्रेम और आनंद की कामना अवश्य रहती है परंतु सत्संग से धीरे-धीरे प्रत्येक कामना मिट जाती है । संग में कम से कम दो का साथ होता है परंतु आत्म-ज्ञान होते ही केवल एक ही बच रहता है और वह है सत् । सत्संग का परिणाम - संग मिट गया और सत् शेष रहा । प्रेम की पराकाष्ठा में दो मिट जाते हैं और केवल एक बच रहता है । दोनों का संग इतना प्रगाढ़ होता है कि दो के स्थान पर एक ही प्रतीत होता है । जो एक बच रहता है, वह सांसारिक सुख न होकर आनंद का सागर होता है । परमात्मा का एक से अनेक होने का उद्देश्य इसी प्रेम और आनंद को प्राप्त करने का था । 

         प्रेम जब अनंत हो गया, रोम-रोम संत हो गया ।

         बदन बन गया देवालय, मन महंत हो गया ।।

        प्रेम तो अनंत है क्योंकि वह असीम है । प्रेम से कोई कभी अघाता नहीं है । जिसने प्रेम किया है, उसने ही प्रेम पाया है, वही व्यक्ति संत कहलाने का अधिकारी है । देह, मन आदि सब प्रेम-पात्र के हो जाते हैं, स्वयं के लिए कुछ भी नहीं बचता क्योंकि फिर स्वयं ही स्वयं का नहीं रहता ।

              प्रेम में न तो प्रेमी रहता है और न ही प्रेम-पात्र, दोनों ही खो जाते हैं, दोनों एक दूसरे में समा जाते हैं । राधा कृष्ण हो जाता है और कृष्ण राधा हो जाती है । एक दूसरे में समा जाने से अर्थ अचेतनता से नहीं है बल्कि चैतन्य हो जाने और परम आनंद की अवस्था से है । फिर कौन तो ढूँढे, किसको ढूँढे और कहाँ ढूँढे ? प्रेम की सर्वोच्च अवस्था ही सत् है, वह चैतन्य है और वही परम आनंद है अर्थात् वह सच्चिदानंदघन परमात्मा है । 

                जब सब कुछ परमात्मा ही है, तो किसमें तो राग हो और किससे द्वेष ? जब सब कुछ वही है, मुझ में भी, तुझ में भी, तो इसका अर्थ है कि फिर ‘मैं’ ही ‘मैं’ से प्रेम करता है । फिर जो सुख प्राप्त होगा वह आत्यंतिक और इन्द्रियातीत सुख होगा । ऐसा सुख आनंद कहलाता है । जब सब कुछ वही है, तो फिर सुख-दुःख कहीं है ही नहीं, हो सकते ही नहीं । कामना, सुख-दुःख आदि तो ‘मेरा-तेरा’ में है । प्रेम तथा आनंद रूप तो केवल एक वही है । 

                 यह ज्ञान सत्संग से ही मिलता है । सनकादि ऋषि भगवान श्रीराम से मिलने अयोध्या जाते है, तब उनसे मिलकर भगवान बड़े प्रसन्न होते हैं । इस सम्बन्ध में तुलसीदास जी मानस में लिखते हैं -

        संत संग अपबर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।

        कहहिं संत कबि कोबिद, श्रुति पुरान सद्-ग्रंथ ।।      

                           - उत्तरकाण्ड -33 

     संत का संग मोक्ष (भव बंधन से छूटने) का और कामी का संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का मार्ग है । संत, कवि और पण्डित तथा वेद, पुराण आदि सद्-ग्रंथ ऐसा कहते हैं ।

            बार-बार मन में एक ही प्रश्न उठता है कि जीवन में संग क्यों आवश्यक है ? संसार का कोई भी प्राणी अकेला नहीं रह सकता, यह सार्वभौमिक सत्य है । अकेले को कभी प्रेम उपलब्ध नहीं होता और न ही उसको आनंद की अनुभूति हो सकती है । प्रेम और आनंद प्राप्त करने के लिए कम से कम दो का होना आवश्यक है । केवल दो का होना ही आवश्यक नहीं है बल्कि दोनों का एक साथ होना आवश्यक है । दो के एक साथ होने से ही एक दूसरे से प्रेम कर सकते हैं, जिससे दोनों को ही आनंद की प्राप्ति होती है ।

             परमात्मा का अंश रूप से प्रकृति और पुरुष के रूप में रूपांतरित होने का लक्ष्य भी प्रेम और आनंद की एक समान अनुभूति करना है । परंतु दुर्भाग्यवश मनुष्य के रूप में पुरुष एक समान के इस उद्देश्य से विचलित होकर स्वार्थी हो गया है । अपने निजी स्वार्थ के कारण वह न तो प्रेम कर सका और न ही आनंद को उपलब्ध हो सका ।

          पुरुष को प्रकृति वह सब कुछ उपलब्ध करवाती है, जिसमें अगर वह आसक्त न हो तो वह प्रकृति को प्रेम करते हुए आनंद की अनुभूति कर सकता है । प्रकृति और पुरुष के आपसी प्रेम में अंततः दोनों खो जाते हैं और केवल परमात्मा शेष रह जाते हैं, प्रेम और आनंद के साथ । परंतु हुआ क्या ? जिस पुरुष को मनुष्य के माध्यम से प्रकृति से प्रेम करना था, उससे वह प्रेम के स्थान पर वासना कर बैठा, उससे सुख चाहने लगा । सुख लेने के लिए वह प्रकृति को ही छलने लगा । इस प्रकार एक पक्षीय प्रेम होने से उसे छद्म सुख तो अवश्य मिला परंतु आनंद की अवस्था तक पहुँचने में वह विफल रहा ।

                  श्रीकृष्ण (पुरूष) के रूप में स्वयं परमात्मा ही अवतरित हुए । उन्होंने प्रकृति को अपने आनंद और प्रेम के लिये राधाजी की रचना की । इसीलिए राधाजी (श्रीजी) को भगवान की आह्लादिनी शक्ति भी कहा जाता है । आह्लादिनी शक्ति अर्थात् भगवान से प्रेम कर आनंद देने वाली शक्ति । श्रीजी ने भगवान से और भगवान ने श्रीजी से निस्वार्थ प्रेम किया जिससे दोनों ही आनंदित हुए । प्रेम असीम और कालातीत है । प्रेम करने वाला कभी नहीं कहता कि मैं तुम्हें इतनी सीमा तक, इतनी तीव्रता से और इतने समय तक प्रेम करूँगा । जहां प्रेम को समय और सीमा में बांध दिया जाता है तब वह वास्तविक प्रेम नहीं रहता बल्कि वासना बनकर रह जाता है ।

              श्रीकृष्ण (परमात्मा का मनुष्य शरीर के रूप में अवतार) की तरह हम भी मनुष्य हैं और उसी परमात्मा के अंश है । प्रेम करने के लिए हमारे पास भी श्रीजी (प्रकृति) हैं । हमें भी उससे असीम प्रेम मिलता है । हमें भी उससे प्रेम करना चाहिए । परंतु हमारा प्रेम तो स्वार्थ के वशीभूत हो गया जो एक निश्चित समय और सीमा में बंधा हुआ है । इसे प्रेम नहीं कहा जा सकता । यह प्रेम नहीं है, यह तो आपसी लेन-देन हुआ, एक प्रकार का व्यापार हुआ । व्यापार में सब कुछ निश्चित होता है । जहां एक दूसरे से लेना और देना समाप्त हुआ कि प्रेम तिरोहित । व्यापार में प्रेम कहाँ होता है ? व्यापार में तो एक दूसरे से अपेक्षा/कामना रखना होता है ।

        अपेक्षा ही ऐसे कथित प्रेम के मूल में है । जहां अपेक्षाएं टूटती है, वहाँ ऐसा छद्म प्रेम भी समाप्त हो जाता है । जब तक एक दूसरे से अपेक्षाएं समाप्त नहीं होगी तब तक वास्तविक प्रेम और आनंद से दूरी बनी रहेगी और हम जीवन में सुखी-दुःखी होते रहेंगे । 

              प्रश्न उठता है कि वास्तविक प्रेम तक पहुँचने के लिए क्या कोई उपाय है ? हाँ, है - सत्संग ही वह उपाय है । जीवन में प्रेम की शून्यता ही मनुष्य को सुखी-दुःखी करती है । प्रेम में गहराई तक डूबने के लिए व्यक्ति को ज्ञान होना आवश्यक है । बुद्धि में ज्ञान का जागरण होना ही विवेक है । विवेक का जाग्रत होना केवल सत्संग से ही संभव है । सत्संग बिना प्रभु-कृपा के मिलना संभव नहीं है । प्रभु-कृपा उसी पर होती है, जो परमात्मा में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखता हो । जिसमें इनका नितांत अभाव है उसको सत्संग मिलना असंभव है ।

                मानस में तुलसी लिखते हैं - 

 ‘बिनु सतसंग बिबेक न होई । 

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।’ बालकाण्ड - 3/7।।

            आज दिखावे के रूप में सभी श्रद्धावान बने हुए है । जब तक श्रद्धा भीतर अंतर्मन की गहराई से जुड़ी नहीं होगी, तब तक प्रभु-कृपा नहीं हो सकती । स्वामीजी इस सम्बन्ध में एक दोहा प्रायः कहते रहते हैं -

   कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान ।

   घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ।।

        परमात्मा में आंशिक श्रद्धा रखना और साथ-साथ संसार में विश्वास रखना ही ‘कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता’ है, जिसका परिणाम है कि जीवन में कभी भी विवेक उदय नहीं होता । जीवन में सदैव एक प्रकार की संशयात्मक अवस्था बनी रहती है । इस अवस्था से उबरने के लिए आवश्यक है कि सत्संग करें । सत्संग से परमात्मा में श्रद्धा दृढ़ होगी । ऐसी दृढ़ता सत्संग को आत्मसात् करने में सहायक होगी ।

              सत्संग को जब तक बुद्धि तक नहीं पहुँचाया जाएगा, तब तक विवेक का प्रकट होना असंभव है । संतों का सानिध्य लेकर व्यक्ति उनकी बातों को सुनता तो है परंतु या तो उन्हें अपने लिए नहीं मानता या फिर उन्हें जीवन में उतारता नहीं है । जब तक ज्ञान केवल शब्दों तक सीमित रहता है, तब तक उसे विवेक नहीं कहा जा सकता । ज्ञान विवेक में तभी परिवर्तित होता है जब उस ज्ञान को आचरण में लाया जाता है । विज्ञान विषय के विद्यार्थी के लिए प्रयोगशाला में जाकर अपने हाथों से उस ज्ञान का प्रयोग कर अनुभव प्राप्त करना आवश्यक होता है । सैद्धांतिक ज्ञान को जब तक प्रायोगिक ज्ञान में परिवर्तित नहीं किया जाता तब तक वह ज्ञान केवल शास्त्रों में शब्दों के रूप में ही बना रह जाता है, विवेक कभी नहीं बन पाता ।

         इस प्रकार स्पष्ट है कि शास्त्रीय ज्ञान को उपयोगी बनाकर उसको जीवन-भर काम में लेना ही ‘विवेक का सदुपयोग’ करना है । विवेक का सदुपयोग ही परमात्मा से प्रेम कराता है । विवेक से ही सारे सांसारिक भ्रम मिट जाते हैं । मानस में गोस्वामीजी लिखते हैं -

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा । 

तब रघुनाथ चरन अनुरागा ।। अयोध्याकांड - 93/5 ।।

         परमात्मा से चली कहानी प्रेम और आनंद प्राप्त करते हुए परमात्मा तक ही पहुँच जाती है । इस पूरी यात्रा को सुगमता से संपन्न करने में संग की भूमिका महत्वपूर्ण है । संग अगर ‘कुसंग’ है तो मनुष्य यहीं चौरासी के चक्कर में घूमता रहेगा । सत्संग ही उसे इस आवागमन के चक्र से मुक्त करा सकता है ।

          इतने विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य के जीवन में संग बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । कुसंग उसे प्रेम और आनंद के अनुभव से वंचित रखता है । सत्संग ही उसे प्रेम और आनंद की अवस्था तक ले जा सकता है । कुसंग तो इस संसार में बड़ी सुगमता से हो जाता है परंतु सत्संग का होना बड़ा मुश्किल है क्योंकि कुसंग में सत्संग की तुलना में अधिक आकर्षण है । इसीलिए कहा जाता है कि सत्संग किसी भाग्यवान को ही मिलता है । सत्संग जब मिल जाता है, तब उसको पचाना मुश्किल है और जिसने पचाना सीख लिया वह फिर संसार में फँसकर सुखी-दुःखी नहीं होता बल्कि आनंद को उपलब्ध हो जाता है ।

          सत्संग पर चर्चा को थोड़ा आगे बढ़ाते हैं । सत्संग भी दो प्रकार का होता है - बाह्य और आंतरिक । बाह्य सत्संग के अन्तर्गत शास्त्र चिंतन और सत्पुरुषों का संग किया जाता है जबकि आंतरिक सत्संग में आत्मा का परमात्मा के साथ संग होता है । इसको ईश्वर-दर्शन भी कहा जाता है । 

            बाह्य सत्संग आवश्यक है क्योंकि इसी से व्यक्ति के काम, क्रोध आदि विकार समाप्त होते हैं । अन्यायपूर्ण तरीक़े से धन कमाने की कामना का नाश होता है । दीन-हीन की सेवा करने की प्रवृति बढ़ती है तथा बुरे विचारों से मुक्ति मिलती है । कहने का अर्थ है कि बाह्य सत्संग से जीवन पवित्र और निर्मल बनता है ।

           बाह्य सत्संग से आंतरिक सत्संग की भूमिका तैयार होती है । बाह्य सत्संग से मन निर्मल होता है । निर्मल मन से अहम् के मूल स्वरूप तक पहुँचा जाता है फिर सीधे परमात्मा का संग मिल जाता है । परमात्मा से प्रेम और ईश्वर-दर्शन ही आंतरिक सत्संग है ।

            आंतरिक सत्संग में परमात्मा से प्रेम सर्वोच्च अवस्था तक पहुँच जाता है । प्रेम की पराकाष्ठा में दो रहते ही नहीं है, केवल एक बचता है । जो एक रहता है, वही परमात्मा है । पुरुष और प्रकृति, प्रेम और आनंद से सराबोर होकर परमात्मा हो जाते हैं । कबीर कहते हैं -

         जब ‘मैं’ था तब हरि नहीं, अब हरि है ‘मैं’ नाहीं ।

         प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाही ।।

           जब तक अहम् के वास्तविक स्वरूप को नहीं जाना जाता तब तक व्यक्ति का अहंकार नहीं जाता । अहंकार ही छद्म अहम् है, जो आत्मा को परमात्मा से भिन्न होने की मान्यता को दृढ़ता प्रदान करता है । इसका कारण है, शरीर को ही सब कुछ मान लेना । सत्संग से व्यक्ति का छद्म अहम् समाप्त हो जाता है और वह अपने मूल स्वरूप को जान लेता है । इसे ही ‘मैं’ का नहीं होना/रहना कहते हैं । जब तक ‘मैं’ है तब तक परमात्मा से प्रेम नहीं हो सकता । ‘मैं’ के समाप्त होते ही परमात्मा का अनुभव हो जाता है फिर व्यक्ति का संसार से प्रेम परमात्मा पर स्थानांतरित हो जाता है । इस प्रकार परमात्मा और स्वयं में भिन्नता तत्काल ही समाप्त हो जाती है और प्रेम अपनी सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।

        जब दोनों ही एक दूसरे से अथाह प्रेम करते हैं, तो ऐसे प्रेम में न तो प्रेम पाने वाला रहता है और न ही प्रेम करने वाला, दोनों ही एक दूसरे में खो जाते हैं । दोनों के मध्य का अंतर समाप्त हो जाता है और केवल एक ही बच रहता है, वही परमात्मा है । परमात्मा का ऐसा अनुभव हो जाना ही ईश्वर-दर्शन है ।

            इस प्रकार हमने सत्संग विषय पर विस्तार से चर्चा की है । चर्चा से जो मुख्य बात निकल कर सामने आई है उससे पता चलता है कि सत्संग मिलना कितना दुर्लभ है अर्थात् बहुत ही दुर्लभ है । संग तो जीवन में प्रत्येक जीव को मिलता ही है परंतु इस संग की श्रेणी कौन सी है और इस संग का परिणाम क्या होगा, यह जानना महत्वपूर्ण है । कुसंग तो स्वरूप से ही त्याज्य है । सांसारिक पदार्थों, विषयों और व्यक्तियों का संग जीव को आवागमन में डाले रखता है । आवागमन से मुक्ति पाने के लिए सत्संग आवश्यक है और बिना हरि-कृपा के जीव को सत्संग नहीं मिल सकता । हरि-कृपा भी किसी किसी पर ही होती है, इसीलिए सत्संग प्राप्ति को दुर्लभ कहा गया है ।

       विवेक चूड़ामणि में आदि शंकराचार्य महाराज कहते हैं -

दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् ।

मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रय: ।। विवेक चूड़ामणि - 3 ।।

      अर्थात् भगवत् कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महापुरुषों का संग - ये तीनों ही दुर्लभ हैं ।

           इस जगत् में चौरासी लाख योनियां है, इसमें भटकते हुए अंततः जीव को हरि-कृपा से मनुष्य का शरीर मिलता है । सभी जीव-शरीरों में मनुष्य का शरीर ही उच्च कोटि का है क्योंकि उसमें विवेक है । इतने अच्छे शरीर को पाकर भी मनुष्य चौरासी के चक्कर में फिर चला जाता है, यही तो उसका दुर्भाग्य है ।

            आदि शंकराचार्य महाराज कहते हैं कि मनुष्य शरीर का मिलना सबसे बड़ी ईश्वर-कृपा है । इस शरीर का सदुपयोग करते हुए मनुष्य आवागमन से मुक्त हो सकता है । मुक्त होने के लिए उसमें मुक्ति की इच्छा पैदा होना (मुमुक्षा) आवश्यक है । मुमुक्षुत्व ही मनुष्य को सत्संग की ओर जाने को प्रेरित करता है । बिना मुमुक्षा के मनुष्य जीवन व्यर्थ ही चला जाता है । भगवत्-कृपा से ही मनुष्य को अपनी मुमुक्षा से सत्-पुरुषों का संग मिलता है । इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा की कृपा के बिना सत्संग उपलब्ध नहीं होता । 

        मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व और महापुरुष संश्रय की त्रिवेणी में डुबकी लगाने में परमात्म-कृपा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । परमात्म-कृपा बिना स्व-कृपा के नहीं हो सकती । स्व-कृपा से अर्थ है, जीव द्वारा परमात्म प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयास । प्रयास से अर्थ है, अपनी क्षमता का सर्वाधिक उपयोग परमात्म-प्राप्ति के लिए करना । यह प्रयास ही जीव के प्रारब्ध अर्थात् भाग्य का निर्माण करता है । स्व-कृपा से बने इस भाग्य के कारण ही जीव पर परमात्म-कृपा होती है ।

         जीव को परमात्म-कृपा से मनुष्य शरीर मिलता है । इस शरीर को पाकर मनुष्य को स्व-कृपा करनी होगी, जिससे उसमें मुमुक्षुत्व पैदा हो । स्व-कृपा से आशय है कि सांसारिक क्रियाकलापों में अनावश्यक न उलझना । मुमुक्षुत्व से उसे महान पुरुषों, महात्माओं का सानिध्य प्राप्त होगा । इस प्रकार मिला सत्संग ही मनुष्य को ज्ञान उपलब्ध कराता है । इस प्राप्त हुए ज्ञान से मनुष्य संसार, शरीर, व्यक्ति और पदार्थ का संग छोड़ परमात्मा की ओर उन्मुख होगा ।

      सत्संग का परिणाम - सत्संग हमें असंग करता है । मनुष्य शारीरिक और सांसारिक सुख के लिए विभिन्न पदार्थों और व्यक्तियों का संग कर लेता है, उनमें आसक्त हो जाता है । ऐसे सभी संग व्यक्ति को बंधन में डालने वाले हैं क्योंकि सुख की आशा में वह इन्हें छोड़ भी नहीं सकता । गाहे-बगाहे अगर सुख मिल भी गया तो वह टिकता नहीं है । थोड़े समय के लिए कभी टिक भी गया तो वही सुख अपर्याप्त लगने लगता है । ये सभी बातें सुख की कामना पूरी होने तक मनुष्य को संसार के साथ बांधे रखती है और वह चाहा गया सुख जीवन में कभी मिलता नहीं है । इसी कारण से मनुष्य जीवन भर दुःखी बना रहता है । 

              जब व्यक्ति संतों का संग करता है तब उसका विवेक जाग्रत होता है । विवेक का आदर करने से व्यक्ति को ज्ञान होता है कि संसार और उसके पदार्थ सभी परिवर्तनशील और विनाश की ओर ले जाने वाले हैं । इस ज्ञान को आचरण में लाने से संसार के पदार्थों और व्यक्तियों से असंग हुआ जा सकता है । सत्संग ही एक मात्र ऐसा साधन है जिससे असंगता को उपलब्ध हुआ जा सकता ही ।

         असंग होने का अर्थ है, प्रत्येक प्रकार के संग से दूर हो जाना । फिर व्यक्ति स्वयं की आत्मा में ही रमण करता है । इसी को मूक सत्संग/मौन साधना कहते हैं अर्थात् आत्मा का परमात्मा के साथ संग, जिससे मनुष्य प्रेम करता भी है और प्रेम पाता भी है तथा आनंद को भी उपलब्ध हो जाता है । असंगता ही सहज अवस्था है जिसको प्राप्त कर मनुष्य स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । मनुष्य जीवन का यही तो उद्देश्य है ।

       श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान कहते हैं -

न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च ।

न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा ।।

व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमा: ।

यथावरुन्धे सत्संग: सर्वसंगापहो हि माम् ।। भागवत - 11/12/1-2 ।।

        भगवान कहते हैं कि जगत् में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है । यही कारण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है, वैसा साधन न तो योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय । तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता । कहाँ तक कहूँ - व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्संग के समान मुझे वश में करनेमें समर्थ नहीं है ।

         “सत्संगलब्धया भक्त्या मयि मां स उपासिता ।

          स वै मे दर्शितं सद्भिरंजसा विन्दते पदम् ।।” भागवत - 11/11/25 ।।

     भगवान कहते हैं - भक्ति की प्राप्ति सत्संग से होती है; जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है, वह मेरी उपासना करता है, मेरे सान्निध्य का अनुभव करता है । इस प्रकार उसका अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतों के उपदेशों के अनुसार बताए हुए मेरे परम पद को अर्थात् अपने वास्तविक स्वरूप को सहज ही प्राप्त हो जाता है ।

         स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि सत्संग करे और जीवन न बदले, यह हो ही नहीं सकता । सत्संग करने से जीवन और स्वभाव बदलेगा ही, पक्की बात है । ऐसा सत्संग करके भी जीवन न बदले तो फिर बदलेगा भी नहीं, चाहे कहीं चले जाओ ।

        स्वामीजी कहना चाहते हैं कि संतों का सान्निध्य पाकर भी यदि आप उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते तो आपमें कोई परिवर्तन नहीं आ सकता । जिस संत का सानिध्य लेते हैं, उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए । इसके साथ ही उनकी कही बातों को ध्यान से सुनते हुए उन पर मनन करना चाहिए । एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने से सत्संग का तनिक भी प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होगा । 

         संत का आचरण भी उनके द्वारा कही गई बातों के अनुसार हो, ऐसे सन्त का संग ही प्रभावी होता है । आज के समय में एक आदर्श संत का मिलना बड़ा मुश्किल है । इसलिए संग करने से पूर्व यह भलीभाँति जाँच लेना आवश्यक है कि जिनका संग किया जा रहा है, वह आपके लिए सत्संग सिद्ध होगा अथवा कुसंग । 

         वास्तविक सत्संग मिलना बड़ा मुश्किल है । जिसके भाग्य में होगा, परमात्मा की कृपा से तभी उसे सत्संग मिलेगा । इसी बात की मानस में भगवान श्रीराम ने सनकादि ऋषियों के आगमन पर उनसे भेंट करते हुए कहा है -

“ बड़े भाग पाइब सतसंगा”

सार-संक्षेप 

             प्रत्येक जीव जिसने चाहे किसी भी शरीर के रुप में जन्म लिया हो, वह अकेला नहीं रह सकता, उसे किसी न किसी का संग लेना ही पड़ता है । जीवन में संग की आवश्यकता प्रेम और आनंद की प्राप्ति के लिए है । सांसारिक सुख के लिए किया जाने वाला संग प्रायः दुःख देने वाला सिद्ध होता है । विषयासक्ति रखते हुए किए जाने वाला संग कुसंग ही है । जो संग प्रेम और आनंद उपलब्ध करवाता है, वास्तव में वही सत्संग है । सत्संग आपके भाग्य के कारण परमात्म-कृपा से ही मिलता है । 

      जीवन में सत्संग क्यों आवश्यक है ? मानस में तुलसी कहते हैं -

  बिनु सतसंग न हरि कथा, तेहि बिनु मोह न भाग ।

      मोह गएँ बिनु राम पद, होइ न दृढ़ अनुराग ।। उत्तराकाण्ड-61।।

          सत्संग के बिना भगवान की कथा सुनने को नहीं मिलती । बिना हरि-कथा के सांसारिक मोह नहीं जा सकता । सांसारिक मोह संसार के प्रति राग को बनाए रखता है । इस राग को परमात्मा के प्रति अनुराग में बदलने के लिए मोह का त्याग आवश्यक है । मोह के गए बिना परमात्मा के प्रति प्रेम जाग्रत नहीं हो सकता । परमात्मा से प्रेम करना ही भक्ति है ।

           भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी । 

           बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ।। उत्तराकाण्ड - 45/5 ।।

             परमात्मा के प्रति प्रेम को अनुराग कहा जाता है । अनुराग ही भक्ति है । भक्ति के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं है । बिना सत्संग के भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । सत्संग बड़े भाग्यशाली को ही मिलता है । तभी भगवान स्वयं कहते हैं - 

   बड़े भाग पाइब सतसंगा । 

  बिनहि प्रयास होहिं भव भंगा ।। मानस - 7/33/8 ।।

बड़े भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिना किसी परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है ।

           सभी को सत्संग मिले । जिस संग को पाकर हम संसार से असंग हो सकें, प्रेम और आनंद की अवस्था तक पहुँच सकें, वही वास्तव में सत्संग है ।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Friday, November 1, 2024

नेति - नेति

 नेति-नेति

          श्रीमद्भगवद्गीता के स्वाध्याय ने सत्, असत् और उससे परे के बारे में कुछ उलझन की स्थिति पैदा कर दी थी । गीता कहीं पर भी उलझाती नहीं है बल्कि हमारा अज्ञान (अधूरा ज्ञान) ही हमें उलझा देता है ।

      गीता में भगवान कहते हैं कि सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं हूँ (अध्याय 9) । भगवान के विराट स्वरूप को देखकर अर्जुन भी कह देते हैं कि सत् भी आप है, असत् भी आप हैं और इन दोनों से परे जो कुछ भी हैं वे भी आप ही हैं (अध्याय-11) । फिर भगवान स्वयं कहते हैं कि मुझे न तो सत् कहा जा सकता है और न ही असत् । (अध्याय-13)। ऐसे में शंका उठना स्वाभाविक है कि आख़िर भगवान हैं क्या ?

           एक परमात्मा ही सब कुछ है, वे वर्णनातीत हैं, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । ऋषियों ने उन्हें ज्ञेय बताते हुए साथ ही साथ “नेति-नेति” भी कहा है अर्थात् ‘न इति - न इति’, वे इतने ही नहीं है, इतने से नहीं है । कारण कि वे ससीम नहीं है, बल्कि असीम है । उनका वर्णन नहीं किया जा सकता ।

             स्वामीजी कहते हैं कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ’ इस बात को स्वीकार करें । ऐसे में प्रश्न उठता है कि मैं शरीर नहीं हूँ तो फिर “मैं” कौन हूँ? इस प्रश्न का उत्तर कोई कोई मुमुक्षु ही जानने का प्रयास करता है । मनुष्य देह के रहते-रहते इस प्रश्न का उत्तर खोज लेने से तत्काल ही व्यक्ति विदेह हो जाता है । शरीर को ही “मैं” समझ लेना जीवन की सबसे बड़ी भूल है । शरीर को ही स्वयं का होना मान लेना, केवल इसीलिए सम्भव होता है क्योंकि पूर्वजन्म के संस्कार के कारण प्रत्येक व्यक्ति इस शरीर से सुख चाहता है । इन संस्कारों के अनुरूप ही मनुष्य जीवन का प्रारम्भ होता है । संस्कार के अनुरूप ही मनुष्य का स्वभाव बनता है । अपने मानव जीवन में वह नए संस्कार निर्मित करता है, जिससे उसका स्वभाव परिवर्तित होता है और देह समाप्ति पर इन संस्कारों को अपने साथ लेकर दूसरी देह में चला जाता है । उसे फिर से मानव शरीर के मिलने की प्रतीक्षा में बहुत काल तक विभिन्न देहों में भ्रमण करना पड़ सकता है ।

           इन सब बातों को जानने वाला कौन है ? जो यह सब सही सही जानता है वही “मैं” है । इतना कुछ जानते हुए भी जो केवल शरीर को ही सब कुछ मानता है, वास्तव में वह कुछ नहीं जानता । ऐसा न जानने वाला वह भी “मैं” ही हूँ । फ़र्क़ केवल ‘हूँ’ और ‘है’ का है । ‘हूँ’ से ‘है’ की यात्रा पूरी कर लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है ।

          ‘हूँ’ और ‘है’, इन दो शब्दों को देखें तो इनके मध्य की यात्रा बड़ी सुगम प्रतीत होती है परन्तु इतनी सुगम भी नहीं है, जितनी दिखलाई देती है । कई मानव-जन्म लेने पड़ते है, इस यात्रा को पूरी करने के लिए क्योंकि शरीर को अपने से भिन्न मानना जीवन में सबसे कठिन कार्य है । 

           यह यात्रा अति सुगम भी हो सकती है । इसके लिए हमें अपने जीवन में संस्कारों से मुक्ति पानी है । पूर्वजन्म से आए संस्कारों को तो समाप्त करना है और नए संस्कार बनाने नहीं है । यह यात्रा केवल उनके लिए ही सुगम है, जो जीतेजी संस्कारों से मुक्ति पा चुके हैं । संस्कारों से मुक्त होने का अर्थ है, संसार से मुक्त हो जाना । फिर शरीर का होना अथवा न होना, रहना अथवा न रहना कोई मायने नहीं रखता । यह अवस्था जीवन्मुक्त हो जाने की अवस्था है, विदेह हो जाने की अवस्था है ।

           यदि शरीर अलग है और ‘मैं’ उससे भिन्न है, तो फिर यह ‘मैं’ इस शरीर में क्या कर रहा है ? वास्तव में ‘मैं’ कुछ भी नहीं करता है, जो कुछ भी करता है, वह शरीर ही करता है । परन्तु शरीर भी कुछ नहीं कर पाता यदि उसमें ‘मैं’ नहीं हो । कहने का अर्थ है कि ‘मैं’ भले ही अक्रिय हो, परंतु उसकी उपस्थिति में ही शरीर सक्रिय हो सकता है अन्यथा वह निष्क्रिय हो जाता है । आधुनिक विज्ञान की भाषा में इसे उत्प्रेरक (Activator) कहा जाता है । ‘मैं’ की अक्रियता के माध्यम से ही शरीर में जीवन व्यक्त होता है ।

         निष्क्रिय शरीर में केवल इंद्रियों से क्रियाएँ नहीं होती, परन्तु एक पदार्थ होने के कारण उसके भीतर क्रियाएँ सतत चलती रहती है, तभी तो कुछ समय बाद शरीर भी विखंडित हो जाता है । शरीर का पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो जाना ही व्यक्ति की मृत्यु कहलाती है । शरीर का समाप्त हो जाने का अर्थ यह नहीं है कि जीवन समाप्त हो गया । जीवन तो फिर भी चलता रहता है, केवल शरीर बदलते जाते हैं । केवल शरीर की सक्रियता ही जीवन नहीं है बल्कि उसके साथ आ जुड़े ‘मैं’ की अक्रियता ही वास्तविक जीवन है ।

          मेरे एक मित्र कहते हैं कि यह सक्रिय-अक्रिय, मृत्यु के बाद भी जीवन होना इत्यादि का क्या गड़बड़झाला है ? यह गड़बड़झाला केवल उनके लिए है, जो जीवन को एक ही शरीर तक सीमित माने बैठे हैं । जीवन एक शरीर के जन्म-मरण तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह जीवन अनेक जन्मों की शृंखला है । केवल शरीर का ही जन्म-मरण होता है, ‘मैं’ का नहीं । जो केवल एक ही शरीर को ही जीवन मानते हैं, उनकी दृष्टि में ‘मैं’ मरता है परंतु उनका ऐसा देखना सही नहीं है ।

           कबीर ने कहा भी है -

                     ‘मन’ मरा न ‘ममता’ मरी, मर मर गए शरीर ।

                      आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर ।।

मन, ममता, आशा और तृष्णा नहीं मरते बल्कि केवल शरीर ही मरता है । जब तक केवल शरीर का मरना ही चलता रहेगा तब तक हम संसार में नए-नए शरीर लेकर आते रहेंगे, उसी एक मन के साथ ।

       कबीर ने कहा है कि हमारा मन, ममता, आशा और तृष्णा नहीं मरते हैं बल्कि केवल शरीर मरता है । यही कारण है कि हम शरीर पर शरीर लेते जा रहे हैं क्योंकि हम मन को नहीं मार पा रहे हैं । जब हम शरीर को ही अपना होना मान लेते हैं तब हम उसी को “मैं” कहने लगते हैं, वास्तव में वह छद्म “मैं” है । यह “मैं” हमारा शरीर होने का अहंकार है । जब शरीर और संसार से विमुख हो जाते है और परमात्मा की ओर उन्मुख हो जाते है तब जिसे हम “मैं” कहते हैं वह वास्तविक “मैं” है । ये दोनों “मैं” वास्तव में एक ही है, केवल दृष्टि का अंतर है । संसार की ओर दृष्टि रहेगी तो वह “मैं” हमारा अहंकार होगा और परमात्मा की ओर दृष्टि रखेंगे तो वही “मैं” हमारा स्वरूप होगा ।

              इसका अर्थ है कि ‘मैं’ ‘हूँ’ भी है और ‘है’ भी है। इस पहेली को सरल करने के लिए आगे इस लेख में ‘मैं’ के स्थान पर संस्कृत शब्द ‘अहम्’ का उपयोग करेंगे । ’अहम्’ से ‘हूँ’ और ‘है’, दोनों स्पष्ट हो जाएँगे । शरीर को अपना मानना छद्म अहम् है । वास्तविक अहम् का शरीर के साथ प्रत्यक्षतः कोई सम्बन्ध नहीं है । शरीर को हम अपना तभी मानते हैं, जब उससे हमारा स्वार्थ सिद्ध हो रहा हो । शरीर से हमारा केवल एक ही स्वार्थ रहता है - सुख प्राप्त करना । अकेला शरीर हमें सुख नहीं दे सकता । उससे सुख प्राप्त करने के लिए हमें दूसरे शरीरों की भी आवश्यकता होती है । वह शरीर किसी जीव का भी हो सकता है और निर्जीव का भी । निर्जीव को हम पदार्थ कह देते हैं और सजीव को प्राणी । गंभीरता से अवलोकन करें तो पाएँगे कि प्रत्येक जीव का शरीर भी एक पदार्थ ही है ।

       जीव के शरीर और निर्जीव के शरीर में केवल अहम् का ही तो अंतर है । अहम् अगर पदार्थ में प्रवेश पा ले तो वह पदार्थ सजीव हो उठता है अन्यथा वह निर्जीव ही बना रहता है । इसीलिए सजीव पदार्थ (शरीर) का “मैं” होता है जबकि निर्जीव का “मैं” होता ही नहीं है । पत्थर कभी भी नहीं कहता कि मैं पत्थर हूँ जबकि शरीर कहता है कि यह मैं हूँ । ऐसा केवल अहम् की अनुपस्थिति अथवा उपस्थिति के कारण ही होना संभव है ।

          पदार्थ के निर्जीव होने का अर्थ यह नहीं है कि उसमें सक्रियता नहीं है । अहम् की उपस्थिति के कारण सक्रियता सजीव के भीतर और बाहर, दोनों ओर दिखलाई पड़ती है जबकि निर्जीव के भीतर अहम् नहीं होने के कारण उसकी सक्रियता बाहर स्पष्ट रूप से दिखलाई नहीं पड़ती । पदार्थ की सक्रियता उसके भीतर सतत चलते रहने वाली क्रियाओं से संभव होती है । ये क्रियाएं पदार्थ के प्राकृतिक गुणों के कारण होती है ।

          प्रकृति के तीन गुण हैं (सत्व, रज और तम), जोकि प्रत्येक पदार्थ में भी रहते हैं । इन गुणों के कारण पदार्थ में होने वाली क्रियाओं से उसकी आंतरिक सक्रियता सदैव बनी रहती है । निर्जीव के भीतर हो रही क्रियाएँ इतनी धीमी गति से होती हैं कि बाहर से उनमें अक्रियता दिखाई देती है परंतु वास्तव में वे अक्रिय नहीं हैं । शरीर चाहे सजीव हो अथवा निर्जीव, उनमें क्रियाओं का लगातार चलना जारी रहता है । इन क्रियाओं के कारण दोनों ही प्रकार के शरीरों (सजीव और निर्जीव) में समय के साथ-साथ परिवर्तन होते रहते हैं । 

           निर्जीव में होने वाले परिवर्तन को सजीव देख सकता है क्योंकि सजीव में ऐसा अनुभव करने की क्षमता उसके पास अहम् के कारण है । परिवर्तन को अनुभव वही कर सकता है, जो अपरिवर्तनशील हो । इसका अर्थ है कि सजीव में आने वाले परिवर्तन को जो अनुभव करता है, वह स्वयं भी अपरिवर्तनशील है । और जो कभी भी बदलता नहीं है, सदैव अपरिवर्तित रहता है, वह है - अहम् । यह अहम् जब शरीर को ही स्वयं का होना मान लेता है, तब वह छद्म (अशुद्ध) अहम् हो जाता है । जो व्यक्ति शरीर में आ रहे परिवर्तन को स्वयं में परिवर्तन होना मानता है, जो शरीर के मरने को अपनी मृत्यु मानता है, वह अपने छद्म अहम् के कारण ऐसा मानता है ।

             छद्म अहम् को असत् कहा जाता है जबकि मूल अहम् सत् है । वैसे अहम् एक ही है, और वह असत न होकर सत् है । वास्तव में अहम् तब तक असत् है, अशुद्ध है जब तक उसने शरीर को अपना आवरण बना रखा है । अहम् के शुद्ध होने का अर्थ है, उसका जीवात्मा में विलीन हो जाना । ऐसा अहम् सत् है । सत् अहम् जब प्रकृति के पदार्थों के साथ संलग्न होकर उनके प्रति आत्मीयता प्रदर्शित करने लगता है तब वह असत् अहम् की श्रेणी में आ जाता है । हम दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं परन्तु उस प्रतिबिम्ब को ही “मैं” मान लेने का अर्थ है असत् को ही अहम् मान लेना । वास्तविक “मैं” तो दर्पण के बाहर है, उसके भीतर नहीं । दर्पण के भीतर जो “मैं” दिखलाई पड़ता है, वह “मैं” शुद्ध नहीं होकर अशुद्ध “मैं” है क्योंकि वह “मैं” न होकर उस “मैं” का प्रतिबिम्ब है ।

             जब तक हम मूल अहम् को नहीं जानेंगे तब तक परमात्मा तक नहीं पहुँच पाएंगे । अशुद्ध अहम् को शुद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि मूल रूप से अहम् शुद्ध ही है, उसके अशुद्ध होने का कारण तो शरीर के साथ एकता कर लेना है । शरीर और संसार में आसक्त अहम् को वहाँ से निवृत करना है, उनसे विमुख करना है । ऐसा होते ही मूल अहम् स्पष्ट हो जाएगा ।

          प्रश्न उठता है कि अशुद्ध अहम् को शुद्ध अहम् के रूप में कैसे जाना जा सकता है ? स्वामीजी ने इसके लिए तीन उपाय बताए है -

प्रथम - अहम् को बदल देना ।

द्वितीय - अहम् को मिटा देना ।

तृतीय - अहम् को शुद्ध करना ।

         अहम् को कैसे बदला जा सकता है ? इसके लिए यह मानें कि मैं शरीर नहीं हूँ । अगर मैं शरीर नहीं हूँ तो फिर क्या हूँ ? मैं शरीर से भिन्न चेतन हूँ, जोकि शरीर को देख सकता हूँ, उसमें आ रहे परिवर्तन को अनुभव कर सकता हूँ । इसे अहम् को बदलना भी कहते हैं । यह भक्ति-योग है । जब व्यक्ति की अहंता बदल जाती है, तब उसका मूल अहम् स्पष्ट होकर जानने में आ जाता है । बस, करना कुछ भी नहीं है, केवल “मैं भगवान का हूँ” यह मानना है ।

             दूसरा उपाय जो मूल अहम् को जानने का है, वह है - छद्म (अशुद्ध) अहम् को मिटा डालना । अशुद्ध अहम् को मिटा डालना बड़ा मुश्किल है । जब तक यह शरीर और संसार है, तब तक कुछ न कुछ आसक्ति उनके प्रति बनी ही रहती है । स्वामीजी कहते हैं कि जब यह मान ही लिया कि मैं शरीर नहीं हूँ तो अब यह माने कि शरीर मेरा नहीं है । शरीर मेरा नहीं है इसका अर्थ हुआ कि फिर जिसको मैं मेरा मान रहा हूँ वह मुझसे भिन्न है । फिर यह शरीर क्या है ? शरीर तो आत्मा का पहनावा मात्र है जैसे व्यक्ति अलग है और उसकी पोशाक अलग है । अशुद्ध अहम् ने शरीर को अपना मान लिया है । ज्ञान हो जाने पर इस “ मैं” (अशुद्ध अहम्) की व्यक्ति के जीवन में कोई भूमिका ही नहीं रहेगी । फिर व्यक्ति यही कहेगा कि जिसे मैं “मेरा” कह रहा था, उसे “मेरा” कहना मेरी भूल थी ।

              भूल को जब स्वीकार कर लिया जाता है और वही भूल दोहराई नहीं जाती है तब वास्तविकता स्वतः ही प्रकट हो जाती है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि भूल वास्तविकता में विलीन हो जाती है । यह ज्ञान-योग है । इसमें वास्तविकता का ज्ञान होते ही छद्म अहम् आस-पास कहीं भी नज़र नहीं आता । इसी को अशुद्ध अहम् को मिटा डालना कहते हैं ।

            अशुद्ध अहम् पहले शुद्ध अहम् में परिवर्तित होता है और फिर यह शुद्ध अहम् परा प्रकृति में विलीन हो जाता है । अहम् के विलीन होते ही परमात्मा का द्वार खुल जाता है । ज्ञान मार्ग से ऐसा होना सम्भव है । केवल अशुद्ध अहम् को ही मिटाया जा सकता है, मूल अहम् को नहीं मिटाया जा सकता । 

               अशुद्ध अहम् को मिटा डालने के लिए भीतर के "मैं" का मिटना ज़रूरी है । एक दृष्टांत के माध्यम से बात को आगे बढ़ाते हैं । एक बार सुकरात समुद्र तट पर टहल रहे थे, उनकी नजर तट पर खड़े एक रोते बच्चे पर पड़ी । वे उसके पास गए और प्यार से बच्चे के सिर पर हाथ फेरकर पूछा तुम क्यों रो रहे हो ?

             लड़के ने कहा- 'आप ये जो मेरे हाथ में प्याला देख रहे हैं न, मैं उसमें इस समुद्र को भरना चाहता हूँ, पर यह समुद्र मेरे प्याले में समाता ही नहीं है । सुकरात ठहरे दार्शनिक, बच्चे की बात सुनकर वे गहरे विषाद में चले गये और बच्चे के साथ स्वयं भी रोने लगे । सुकरात को रोते देखकर बच्चा चुप हो गया । अब पूछने की बारी बच्चे की थी । 

          बच्चा कहने लगा- ' आप भी मेरी तरह रोने लगे । क्या आपके प्याले में भी समुद्र नहीं समा रहा है ? पर आपका प्याला कहाँ है ?' सुकरात ने जवाब दिया - ' बच्चे ! तुम छोटे से प्याले में समुद्र भरना चाहते हो, और मैं अपनी छोटी सी बुद्धि में परमात्मा के बारे में सारी जानकारी भरना चाहता हूँ । आज तुमने मुझे सिखा दिया कि समुद्र प्याले में नहीं समा सकता है, इतने दिन मैं व्यर्थ ही बेचैन रहा ।' 

         यह सुनकर बच्चे ने प्याले को दूर समुद्र में फेंक दिया और बोला- "हे सागर, अगर तू मेरे प्याले में नहीं समा सकता तो क्या हुआ, मेरा प्याला तो तुममें समा सकता है ।” समुद्र में प्याले के डूबते ही बच्चा उछल पड़ा - “ लो मेरा प्याला समुद्र में समा गया । अब समुद्र में प्याला है और प्याले में समुद्र ।”

           बच्चे ने समुद्र से कहा कि अगर तुम मेरे प्याले में नहीं समा सकते तो कोई बात नहीं, मेरा प्याला तो तुझमें समा सकता है । इतना सुनना था कि सुकरात बच्चे के पैरों में गिर पड़े और बोले,"आज बहुत कीमती सूत्र मेरे हाथ लगा है । हे परमात्मा ! आप तो सारा का सारा मुझ में नहीं समा सकते पर मैं तो सारा का सारा आपमें समा सकता हूँ ।

         ईश्वर की खोज में भटकते सुकरात को ज्ञान देना था तो भगवान् उस बालक में समा गए । सुकरात का सारा अहंकार ध्वस्त हो गया । उनका “मैं” एक झटके में विलीन हो गया । जिस सुकरात से मिलने के लिए सम्राट तक समय लेते थे, वह सुकरात एक बच्चे के चरणों में दण्डवत होकर लोट गए ।

               सारांश यह है कि ईश्वर जब आपको अपनी शरण में लेते हैं तब आपके अंदर का "मैं" सबसे पहले मिटता है या यूँ कहें जब आपके अंदर का "मैं" मिटता है तभी ईश्वर की कृपा होती है । मनुष्य का “मैं” ही अशुद्ध अहम् है, जिसकी दृष्टि संसार पर जमी है । उसे अपनी क्षमता पर छद्म विश्वास है जो उसके अहंकार का पोषक बनता है । अहंकार के टूटते ही अहम् गल जाता है और आत्म-बोध की दिशा स्पष्ट हो जाती है ।

         सुकरात में परमात्मा को जानने का अहंकार था । परमात्मा ज्ञेय अवश्य है परन्तु बुद्धि की इतनी क्षमता नहीं है कि उसके माध्यम से हम उन्हें जान सके । उनको तो केवल अनुभव ही किया जा सकता है जिसके लिए सबसे पहले अहम् का मिटना आवश्यक है ।

          स्वामीजी ने जो तीसरा उपाय मूल अहम् तक पहुँचने का बताया है, वह है - अहम् को शुद्ध करना । जिस प्रकार हमने पहले स्वीकार किया कि मैं शरीर नहीं हूँ और फिर स्वीकार किया कि शरीर मेरा नहीं है, उसी प्रकार स्वीकार करना है कि शरीर मेरे लिए नहीं है । शरीर मेरे लिए नहीं है तो फिर यह किसके लिए है ? शरीर संसार का है और उसी की सेवा के लिए है । हमें शरीर मिला है पूर्व जन्म के प्रारब्ध कर्मों के कारण । वे प्रारब्ध कर्म फल देकर ही नष्ट हो सकते हैं । जो कुछ लिया है, इसी संसार से लिया है । अतः संसार से लिया सब कुछ संसार को ही लौटा देना है ।

                 स्वामीजी ने अहम् को शुद्ध करने के लिए भी तीन बातें कही है - पहली - शरीर सहित कुछ भी मेरा नहीं है । दूसरी - मुझे कुछ नहीं चाहिए । तीसरी - मुझे अपने लिए कुछ नहीं करना है । शरीर सहित कुछ भी मेरा नहीं है, यह ज्ञान योग की बात है । इस बात को स्वीकार करने से मनुष्य की दृष्टि में शरीर गौण हो जाता है । शरीर के गौण होते ही दूसरी बात फलित होती है कि मुझे कुछ नहीं चाहिए । मनुष्य अपने लिए जो कुछ भी चाहता है, उसके पीछे शरीर के प्रति आसक्ति ही मुख्य कारण है । जब शरीर ही मेरा नहीं है तो फिर मुझे अपने लिए क्या चाहिए ? कुछ नहीं ।

              ‘शरीर सहित कुछ भी मेरा नहीं है’ से 'मुझे कुछ भी नहीं चाहिए’, फलित होता है । मुझे कुछ भी नहीं चाहिए तो फिर मुझे अपने लिए कुछ करने की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है ? इस प्रकार अंततः ‘मुझे अपने लिए कुछ भी नहीं करना है’, यह भी फलित हो जाता है । 

            मनुष्य अपने जीवन में कर्म किए बिना नहीं रह सकता, यह सत्य है । जब मनुष्य को अपने लिए कुछ भी नहीं करना है तो फिर वह कर्म किसके लिए करेगा ? वह कर्म संसार की सेवा के लिए करेगा । अतः हमें वर्तमान जन्म के जीवन में यही ध्यान रखना है कि अपने स्वार्थ के लिए कोई कर्म न करें, स्वयं के सुख के लिए कोई कर्म न करें । दूसरों को सुख कैसे मिले, उसके सुख का माध्यम हमें बनना है । ध्यान यही रखना है कि ऐसे कर्मों के करने में हमारी कोई कामना न हो । कामना रखेंगे तो फिर से कर्म-बंधन होगा और संसार के अंतहीन आवागमन से मुक्त नहीं हो पाएँगे । कहने का अर्थ है कि निष्काम कर्म करते हुए सबकी सेवा करें । सेवा से ही अशुद्ध अहम् विलीन होकर शुद्ध अहम् प्रकट होगा ।

              संसार में आकर मनुष्य जो भी कर्म करता है, वे सब शरीर को सुख देने के लिए ही करता है । शरीर मेरा नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए और मुझे अपने लिए कुछ भी नहीं करना है, ये तीनों बातें मान लेने से स्वयं के लिए कर्म होंगे ही नहीं । मनुष्य कर्म-बंधन में तभी पड़ता है, जब कर्म स्वयं के लिए किए जाते हैं, अन्य कर्म तो बाँधने वाले होते भी नहीं हैं । 

        इस प्रकार स्पष्ट होता है कि अशुद्ध अहम् की असत् के प्रति आसक्ति रहती है और शुद्ध अहम् संसार से विमुख होकर सत् की ओर प्रगति कराता है । इस मूल अहम् के प्रकट होते ही व्यक्ति को आत्मा का ज्ञान हो जाता है । शरीर के छूटने पर यह अहम् मूल परा प्रकृति में विलीन हो जाता है जोकि सत् है । सत् से भी परे क्या है ? असत्, सत् और इनसे परे, इन तीनों को जानने पर ही परमात्मा का अनुभव होगा । ध्यान रखें, उनका केवल अनुभव ही होगा, उन्हें जाना नहीं जा सकेगा ।

            स्वामीजी ने जो तीन बातें मानने के लिए कही है (मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिए नहीं है) इनको कहने/मानने वाला कौन है ? हमारा आत्मा तो परमात्मा का अंश है, वह तो कुछ करता नहीं है और न ही किसी कार्य में लिप्त होता है । इन तीनों बातों को जो स्वीकार करता है वह हमारा अहम् है । अहम् में भी केवल शुद्ध अहम् यह बात मान सकता है अन्यथा अशुद्ध अहम् के तो संसार और शरीर से विमुख होने का प्रश्न ही नहीं उठता । यही कारण है कि जीवन में सबसे पहले अशुद्ध अहम् का शुद्ध होना आगे की प्रगति के लिए आवश्यक है ।    

            अहम् को शुद्ध करना, मिटा डालना अथवा बदल देना व्यक्ति के स्वभाव और बौद्धिक स्तर पर निर्भर करता है । अहम् को शुद्ध करना कर्म का विषय है जबकि अहम् को मिटाना ज्ञान का । अहम् को शरीर के रहते मिटाना असंभव सा है । इन दोनों की तुलना में अहम् को बदलना कहीं अधिक सुगम है । हमें केवल अपनी दृष्टि में परिवर्तन लाना है । हम जो स्वयं को संसार और शरीर का मान रहें है, उसके स्थान पर परमात्मा का होना मानना है । इस प्रकार अहंता परिवर्तित होते ही संसार से आसक्ति छूट जाती है ।

               कन्या को विवाह से पूर्व अपने पिता का घर ही अपना घर लगता है । जब उसका विवाह हो जाता है, तत्काल ही अपने पति के घर को अपना घर समझने लगती है । फिर पिता के घर की प्रत्येक वस्तु उसके लिए पराई हो जाती है । जब एक कन्या पाणिग्रहण करते ही सुगमता से यह बात स्वीकार कर सकती है तो आत्म-बोध चाहने वाले के लिए भी ऐसा करना असम्भव नहीं है ।

अहम् प्रारम्भ से ही शुद्ध होता है । अहम् में अशुद्धता आती है आसक्ति के कारण । आसक्त अहम् सत् की सत्ता के स्थान पर असत् की सत्ता मानता है क्योंकि उसकी दृष्टि में जो दिखने में आता है वही सत्य है । अहम् ही शरीर के आकार के साथ तादात्म्य स्थापित करता है, जिसके कारण उसको अहंकार नाम मिला है । जब शरीर से तादात्म्य मिट जाता है तब अहंकार दो में विभाजित हो जाता है - अहम् और आकार । इस प्रकार के विभाजन में शरीर (आकार) अलग और अहम् अलग हो जाते हैं । इस अवस्था तक पहुँचने के लिए भगवान ने तीन मार्ग (कर्म, ज्ञान और भक्ति) बतलाए हैं ।

                तीनों मार्ग अलग-अलग भले ही प्रतीत हो रहे हो, अंततः तीनों ही अहम् को परा प्रकृति में विलीन करते हैं । जब तक शरीर रहता है, तब तक अहम् परा के साथ एकाकार नहीं होता बल्कि एकाकार होने के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से तैयार अवश्य ही कर लेता है । शुद्ध अहम् सत् है उसके आत्मा (सत्) में लीन होते ही असत् (संसार) की सत्ता मिट जाती है और केवल सत् की सत्ता रह जाती है । परंतु सत् से ऊपर भी एक मूल सत्ता है, जिसमें आत्मा के लीन होने पर वापिस संसार में लौटना नहीं होता ।

               गीता के पन्द्रहवें अध्याय में अपरा को क्षर पुरुष, परा को अक्षर पुरुष और इन दोनों से जो परे हैं उसको उत्तम पुरुष नाम से संबोधित किया है । उत्तम पुरुष ही वह परम सत्ता है, जिसका केवल अनुभव ही किया जा सकता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

                  आइए ! अब दूसरे कोण से इस विषय पर आगे बढ़ते हैं । परमात्मा का व्यक्त हो जाना प्रकृति कहलाता है और उसका अव्यक्त बने रहना पुरुष । अव्यक्त (पुरुष) के बिना व्यक्त (प्रकृति) की सत्ता हो ही नहीं सकती । अव्यक्त ही व्यक्त होता है और यह व्यक्त भी एक दिन पुनः अव्यक्त में लीन हो जाता है । प्रकृति को भी एक दिन परमात्मा में लीन होना पड़ता है । प्रकृति और पुरुष, दोनों से भी जो परे हैं, उसे परम पुरुष अथवा उत्तम पुरुष कहा जाता है । प्रकृति जब पूर्ण क्रियाशील हो जाती है, तब माया कहलाती है । प्रकृति भी दो प्रकार की है - परा और अपरा । परा प्रकृति को विद्या माया कहा जाता है और अपरा को अविद्या माया । अपरा प्रकृति संसार और शरीर के रूप में व्यक्त होती है । परा प्रकृति जीवात्मा है । प्रकृति परमात्मा की अध्यक्षता में सक्रिय होकर जगत् का सृजन करती है, जिसमें सभी चर-अचर जीव आ जाते हैं ।

            इस प्रकार स्पष्ट है कि परमात्मा अर्थात् परम/उत्तम पुरुष से पुरुष और प्रकृति और फिर प्रकृति से संसार का सृजन होता है । प्रकृति को सक्रिय के सापेक्ष अक्रिय कहा अवश्य जाता हैं परंतु अक्रिय प्रतीत हो रही प्रकृति में भी सूक्ष्म क्रियाएं सदैव चलती रहती है । प्रकृति अक्रिय तब प्रतीत होती है, जब उसमें सृष्टि लीन हो जाती है । जैसे हम नींद लेते हैं, तब अक्रिय प्रतीत होते हैं परंतु इस अवस्था में भी शरीर के क्षरण होने की सूक्ष्म क्रिया उसके भीतर ही भीतर चलती रहती है ।

        पूर्व में जिसको अहम् कहकर संबोधित किया गया है, वह पुरुष ही है । यह शुद्ध अहम् है । जब शुद्ध अहम् अपरा प्रकृति (माया) का संग कर लेता है, तब वह अशुद्ध अहम् प्रतीत होता है । शरीर से असंग (detach) होते ही वह पुनः शुद्ध प्रतीत होने लगता है । वास्तव में अहम् अशुद्ध हो ही नहीं सकता क्योंकि अहम् सत् है । सत् अहम् ही असत् प्रतीत होता है । अहम् के असत् से सत् होते ही यह परा प्रकृति अर्थात् आत्मा में विलीन हो जाता है । आत्मा में विलीन होने से अर्थ है अहम् को अपने स्वयं के आत्मा होने का ज्ञान हो जाना ।

          मनुष्य के शरीर में रहते हुए ही पुरुष इस सत्य तक पहुँच सकता है, किसी अन्य शरीर में रहते हुए नहीं । शरीर भी दो प्रकार के होते हैं - स्थूल और सूक्ष्म शरीर । एक तीसरा शरीर जिसे कारण शरीर कहा जाता है, वह हमारे संस्कार है । संस्कारों से निर्मित हुआ कारण शरीर ही हमें भावी जन्म के लिए नए शरीर की ओर ले जाता है । निद्रा की अवस्था में जब स्थूल शरीर लगभग निष्क्रिय हो जाता है तब सूक्ष्म शरीर (मन आदि) अशुद्ध अहम् के साथ अविद्या में लीन हो जाता है । अविद्या से लौटने पर स्थूल शरीर पुनः सक्रिय हो उठता है । इस अवधि में मनुष्य को संसार के बारे में कुछ भी अनुभव नहीं होता । उसे केवल अच्छी और गहरी नींद का ही अनुभव होता है । ऐसा अनुभव मूल अहम् को ही होता है । 

           जब मनुष्य को ज्ञान होना प्रारम्भ होता है तब वह अविद्या माया से विद्या माया में प्रवेश करता है । ‘ज्ञान प्रारम्भ होना’ समझाने की दृष्टि से कहा गया है अन्यथा ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि ज्ञान हमारे भीतर पहले से ही रहता है केवल माया से अच्छादित होने के कारण वह प्रकट नहीं होता । 

             विद्या माया पूर्ण ज्ञान की अवस्था तो नहीं है फिर भी आत्म-बोध (परमात्मा) तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त अवश्य करती है । विद्या माया हमें आत्म-अनात्म का ज्ञान अवश्य करवा देती है । हम जब तक ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था तक नहीं पहुँचेंगे तब तक अहम् का अस्तित्व बना रहेगा । अशुद्ध अहम् तो अविद्या से विद्या में प्रवेश करते ही मूल यानि शुद्ध अहम् में लीन हो जाता है । शुद्ध अहम् ही अपने मूल स्वरूप (परमात्मा) तक पहुँच सकता है ।

           इस बात को समुद्र और उसकी लहर के उदाहरण से समझा जा सकता है । जैसे समुद्र की लहर अशुद्ध अहम् है और समुद्र शुद्ध अहम् । जब तक लहर समुद्र में लीन नहीं होगी तब तक वह समुद्र का अंश होते हुए भी समुद्र नहीं है । लहर के गिरते ही वह समुद्र हो जाती है । इसी प्रकार बूँद भी समुद्र का अंश है परन्तु वह समुद्र नहीं है । समुद्र की एक बूँद अथवा उसकी एक लहर को समुद्र नहीं कहा जा सकता बल्कि उसे समुद्र की लहर ही कहा जाता है । लहर को समुद्र होने के लिए उसे समुद्र में ही लीन होना पड़ता है । लहर में भी जल है और समुद्र में भी जल है । गहराई से देखें तो लहर और समुद्र, दोनों का मूल तत्व जल ही हुआ । इसी प्रकार पुरुष/अहम्/आत्मा को तब तक परमात्मा नहीं कहा जा सकता जब तक कि अहम् मूल प्रकृति में लीन नहीं हो जाता । अहम् के लीन होते ही आत्मा भी परमात्मा हो जाता है, जैसे लहर के गिरते ही लहर समुद्र हो जाती है और इस प्रकार हम इनके मूल तत्व जल तक पहुँच जाते हैं ।

                लहर और समुद्र दोनों में से समुद्र की सत्ता तो प्रतीत होती है परन्तु लहर की नहीं । लहर समुद्र से ही उठती है और उसी में गिर जाती है । यह प्रक्रिया बार-बार होती मिटती रहती है । इस परिवर्तनशीलता के कारण ही लहर की सत्ता स्वीकार्य नहीं होती बल्कि सागर की ही सत्ता प्रतीत होती है । इसी प्रकार शरीर और संसार दिखते अवश्य है परन्तु उनमें हो रहे परिवर्तन उनकी स्वतंत्र सत्ता होने पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं । शरीर की सक्रियता का कारण उसमें उपस्थित जीवात्मा के कारण है जैसे लहर का उठना-गिरना समुद्र के कारण है । इसलिए सत्ता लहर (शरीर) की न होकर समुद्र (आत्मा) की मानी गई है ।

                  जीवात्मा की अनुपस्थिति में शरीर भी निष्क्रिय होकर नष्ट हो जाता है परन्तु शरीर के मरते ही अकेली जीवात्मा की स्थिति भी व्यक्त से अव्यक्त की हो जाती है । अव्यक्त पर साधारण दृष्टि भला कैसे जा सकती है ? उसकी सत्ता की प्रतीति तो तभी होगी, जब उसे कोई दूसरा शरीर मिल जाए । शरीर और जीवात्मा का अनवरत संयोग-वियोग जिस सत्ता का अनुभव कराता है, वास्तव में वह परमात्मा की सत्ता है । जैसे समुद्र की सत्ता होने की प्रतीति लहर के उठने- गिरने से होती है परन्तु दोनों के संयोग का अनुभव जल के कारण ही संभव होता है । जल है तो समुद्र है और लहर भी है । समुद्र और लहर दोनों में जल है अतः सत्तावान जल हुआ । इसी प्रकार शरीर और जीवात्मा की सत्ता भी उस परम पर टिकी है, जिसका अनुभव ही किया जा सकता है, वर्णन नहीं ।

          समुद्र और लहर के माध्यम से केवल जल की ओर संकेत भर किया गया है । वैसे यह एक उदाहरण भर है अन्यथा तो जल असत् तत्व है और असत् से सत् तक नहीं पहुँचा जा सकता । अतः इसे केवल समझाने की दृष्टि से एक उदाहरण के रूप में लें और लक्ष्य परमात्मा का ही रखें ।

            लहर के समुद्र में समाते ही लहर की सत्ता समाप्त हो जाती है । इसी प्रकार जब कोई बूँद समुद्र में गिरती है, तो बूँद की सत्ता समाप्त हो जाती है । फिर बूँद आपको समुद्र में ढूँढे भी नहीं मिलेगी । कबीर हैरान हो जाते हैं, इस प्रकार बूँद को समुद्र में खोते देखकर । वे कहते हैं -

      हेरत हेरत हे सखि, रहा कबीर हेराय ।

      बूँद समायी समुद्र में, अब क़ित हेरी जाय ।।

         अर्थात् हे सखि ! बूँद को समुद्र में समाते हुए, उसमें खोते देखकर मैं हैरान रह गया । मेरी हैरानी तो तब और बढ़ गई, जब ढूँढते ढूँढते उस बूँद को समुद्र में मैं ढूँढ नहीं सका ।

           समुद्र की अथाह जलराशि में एक बूँद को ढूँढना कोरी मूर्खता ही कही जा सकती । बूँद, लहर और समुद्र तीनों एक ही जल के रूप है । जल है तो बूँद है, बूँद है तो समुद्र है और समुद्र है तो लहर है । तीनों एक ही जल के रूप है, हमने तो केवल विभिन्न आकार देखकर उनके अलग अलग नाम दे दिए हैं । हमारी भौतिक दृष्टि आकार को देखने की अभ्यस्त है। केवल आकार को देखकर ही हम उसकी क्षमता और निर्बलता का आकलन करने लगते हैं । परन्तु हम भूल जाते हैं कि इन आकारों के मूल में भी कोई तत्व है जो उनमें आपसी एकता सिद्ध करता है । जब तक उस मूल की ओर दृष्टि नहीं जाएगी तब तक पूरे जीवन भटकते रहेंगे, तत्व तक नहीं पहुँच पाएँगे । 

           कबीर की परेशानी ने, उनकी हैरानी ने उन्हें सोचने के लिए विवश कर दिया कि समुद्र और बूँद में ऐसी कौन सी समानता है, जिसके कारण समुद्र में बूँद को ढूँढना असम्भव कर दिया । प्रत्येक कार्य असम्भव तब तक है जब तक हमारी दृष्टि स्थूलता की सीमा का अतिक्रमण नहीं कर जाती, उस सीमा के बंधन को तोड़कर उससे पार नहीं चली जाती । स्वामीजी ने इसको ललक (तीव्र इच्छा) कहा है । स्वामीजी कहते हैं कि आत्म-बोध होना, तत्व तक पहुँचना आपकी प्रबल इच्छा के अधीन है । इच्छा के अभाव में तो आप संसार की कोई तुच्छ वस्तु तक प्राप्त नहीं कर सकते, फिर यहाँ तो तत्व-प्राप्ति की बात हो रही है । प्रबल इच्छा के कारण कबीर को भी अंततः तत्व-बोध हो गया । फिर जो उन्होंने अपना नया कथन कहा वह इस प्रकार है - 

           हेरत हेरत हे सखि, रहा कबीर हेराय ।

           समुद्र समाया बूँद में, अब कित हेरी जाय ।।

हे सखि ! समुद्र बूँद में ही तो समाया हुआ है । जब बूंद ही समुद्र है तो फिर वह बूँद कहाँ रही, वह तो खोकर स्वयं ही समुद्र हो गई है । अब उस बूँद को मैं कहां ढूंढू ? बूंद के समुद्र होते ही बूंद खो गई है। उस बूंद को ढूँढते ढूँढते यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया हूं कि इतने दिन मैं व्यर्थ ही दोनों को एक दूसरे से भिन्न मान रहा था । एक बूँद में ही तो पूरा समुद्र समाया हुआ है । बिना बूँद के सागर का अस्तित्व है ही कहाँ ?

           समुद्र को जानना हो तो उसे जल की एक बूँद से भी जाना जा सकता है । कई बूँदों का संगठित रूप ही तो समुद्र है फिर समुद्र में जाकर बूँद को ढूँढने से क्या प्रयोजन ? इसी प्रकार केवल मूल अहम् (आत्मा) को जान लें, बूँद की तरह वह भी तो अपने सागर (परमात्मा) का अंश है ।

         संसार और शरीर असत् है क्योंकि इनके क्रियाशील प्रकृति के अन्तर्गत होने के कारण इनमें निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं । परमपुरुष (परमात्मा) अक्रिय हैं, अतः इनको सत् कहा जाता है । जगत् से लेकर शरीर तक सभी मूल प्रकृति से परमात्मा की अध्यक्षता में सृजित हुए हैं । सक्रिय होने के कारण इस प्रकृति और संसार को असत् कहा गया है और परमात्मा को सत् । ऐसा कहना भी केवल सापेक्षता की दृष्टि से है अन्यथा तो सब कुछ एक परमात्मा ही है । इसी बात को भगवान ने गीता में इस प्रकार स्पष्ट किया है -

                तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णम्युत्सृजामि च ।

                अमृतं चैव मृत्युष्च सदसच्चाहमर्जुन।। गीता - 9/19।।

       अर्थात् हे अर्जुन ! मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, मैं ही जल को ग्रहण करता हूँ और उसे वर्षा के रूप में बरसा देता हूँ । अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।

             सूर्य का सृजन परमात्मा की प्रकृति से ही हुआ है । सूर्य सक्रिय है । भगवान कहते हैं कि सूर्य बनकर मैं ही तपता हूँ । अक्रियता-सक्रियता को ध्यान में रखते हुए देखें तो परमात्मा तो सत् हैं और सूर्य असत् । सूर्य की सक्रियता से उत्पन्न होने वाले ताप से जल वाष्प में परिवर्तित होकर सूर्य रश्मियों द्वारा ग्रहण किया जाता है । वही वाष्प बादल बनकर जल के रूप में पृथ्वी पर बरसती है । ये सब कार्य प्रकृति के माध्यम से परोक्ष रूप से परमात्मा ही कर रहे हैं । इस पूरे प्रकरण में (सूर्य के तपने से लेकर जल बरसाने तक) परमात्मा की भूमिका रहती है । इसीलिए भगवान ने कहा है कि सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं हूँ ।  


           असत् का अस्तित्व भी तभी तक है, जब तक सत् की अपेक्षा से सक्रिय-अक्रिय को स्पष्ट करना हो । जब असत् का अस्तित्व ही सत् पर टिका हो तो असत् स्वतन्त्र कहाँ हुआ ? जब असत् स्वतंत्र नहीं है तो फिर सब कुछ सत् ही हुआ । परंतु परमात्मा सत् है, ऐसा कहने से उसकी सापेक्षता में असत् की स्वीकार्यता हो ही जाती है । दोनों के मध्य उत्पन्न हुए भेद को समाप्त करने के लिए ही श्रीकृष्ण ने कहा है कि अमृत-मृत्यु और सत्-असत् भी मैं ही हूँ ।

       सत्-असत् से भी आगे बढ़कर अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के बारे में कहा है -

                       क़स्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् 

                            गरियसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।

                       अनन्त देवेश जगन्निवास 

                             त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ।। गीता -11/37 ।।

            हे महात्मन् ! गुरुओं के भी गुरु और ब्रह्मा के भी आदिकर्ता आपके लिए सिद्धगण नमस्कार क्यों नहीं करे ? क्योंकि हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप अक्षर स्वरूप हैं; आप सत् भी हैं, असत् भी हैं और इनसे पर जो कुछ भी है, वह आप ही हैं ।

            परमात्मा अक्षर स्वरूप हैं । इस संसार में क्षर और अक्षर - ये दो ही प्रकार के पुरुष हैं । क्षर वह पुरुष है जोकि नाशवान है, जिसमें प्रतिक्षण कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है । संपूर्ण प्राणियों के शरीर क्षर कहे गए हैं । दूसरी प्रकार का पुरुष अक्षर है अर्थात् वह अविनाशी है, जिसमें किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता । अक्षर पुरुष हमारी जीवात्मा है जोकि क्षर शरीर में रहते हुए उस शरीर में हो रहे परिवर्तन को अनुभव करती है ।

          प्रश्न उठता है कि क्षर पुरुष में हो रहे सतत परिवर्तन अंततः उसको कहाँ ले जाते हैं ? शरीर का हो रहा क्षरण शरीर का तो नाश कर देता है परन्तु जिन तत्वों से यह शरीर बना है, उन तत्वों का नाश नहीं होता । उन पाँच भौतिक तत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) का नाश नहीं होता क्योंकि ये सभी मूल प्रकृति के तत्व हैं । यह प्रकृति इन तत्वों का पुनः संयोजन कर एक नए शरीर का निर्माण कर देती है । इससे निष्कर्ष निकलता है कि क्षर शरीर है, क्षर पदार्थ हैं परंतु प्रकृति के तत्व क्षर नहीं हैं । ये सभी तत्व तो अपनी मूल प्रकृति के साथ ही परम में लीन होते हैं ।

         स्वर्ण से विभिन्न प्रकार के आभूषण बनाए जाते हैं । आभूषण नाशवान हैं । जब चाहें आभूषण को गलाकर उसके मूल तत्व स्वर्ण को प्राप्त किया जा सकता है । स्वर्ण तत्व वैसे का वैसा ही रहता है , वह बदलता नहीं है केवल आभूषण बन जाने पर वह बदलता प्रतीत होता है ।

         स्वर्ण-आभूषण हमारा शरीर है और स्वर्ण हमारी जीवात्मा । आभूषण परिवर्तनशील है परंतु स्वर्ण में कोई परिवर्तन नहीं होता । शरीर में हो रहे परिवर्तन से शरीर नष्ट हो जाता है परंतु उस शरीर में स्थित जीवात्मा शरीर के साथ नहीं मरता । जिसमें परिवर्तन होते हैं वही सब कुछ करता है । प्रकृति में परिवर्तन होते हैं, वही सब कुछ करती है । जो अपरिवर्तनीय है, भला वह क्या कुछ कर सकता है ? गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही बात समझाते हुए कह रहे हैं -

            वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।

            कथं स पुरूष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।। 2/21।।

अर्थात् हे पृथानन्दन ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्म रहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ?

              उपरोक्त श्लोक में भगवान ने जीवात्मा को शरीरी कहा है । शरीर की अपेक्षा से इसे शरीरी कहा गया है । शरीर विनाशशील है, इसके सापेक्ष इसे अविनाशी कहा गया है । शरीर अनित्य है, इसकी अपेक्षा से जीवात्मा को नित्य कहा गया है । शरीर जन्मता-मरता है, इसकी अपेक्षा से शरीरी को जन्म रहित कहा गया है । इसी प्रकार शरीर का सतत क्षय अर्थात् व्यय होता रहता है, जीवात्मा को व्यय की अपेक्षा से अव्यय बताया गया है । कहने का अर्थ है कि जो भी शब्द उस परमात्मा को जनाने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं सब सापेक्षता के कारण है अन्यथा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, वे स्वयं वर्णनातीत हैं ।

            असत् कहने भर को असत् है, परंतु असत् ‘नहीं’ है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । पत्थर से बनी दीवार हमें दिखलाई पड़ती है, ऐसी स्पष्ट दिखलाई देने वाली वस्तु को ‘नहीं होना’ कैसे कहा जा सकता है ? यदि ‘दीवार नहीं है’ ऐसा मानते हैं, तो जरा अपना सिर उस पर दे मारें । सिर फूट जाएगा और रक्त-धार बहने लग जाएगी । क्या अब भी आप कहेंगे कि यह दीवार असत् है, ‘नहीं’ है ? कम से कम कहने वाले को तो यह ज्ञान होना आवश्यक है कि दीवार के होते हुए भी इसको ‘नहीं’ होना कहने के पीछे क्या कारण है ?

          दीवार जो आज है, कल यह दीवार वैसी नहीं रहेगी । कुछ समय पश्चात्, शायद दस-बीस अथवा पचास वर्ष बाद वह दीवार रहेगी भी नहीं । जो आज है तथा कल नहीं होगी, उसका आज होना भी वास्तव में ‘नहीं होना’ ही है । इसी कारण से दीवार को असत् कहा गया है । वह प्रतिपल नष्ट होती जा रही है । जब इसका स्थायी भाव ही नहीं है तो फिर परिवर्तित होती जा रही वस्तु का कोई नाम भी कहाँ तक और कितने दिन तक टिका रहेगा ? यह दीवार भी कुछ वर्षों बाद गिर कर मलबा हो जाएगी । क्या उस मलबे को दीवार कहा जा सकता है ? नहीं, मलबा दीवार का है अवश्य, पर वह दीवार नहीं है ।

            उस मलबे से पत्थर आदि निकाल कर, फिर से व्यवस्थित तरीक़े से एक नई दीवार बनाई जा सकती है परंतु वह पूर्व वाली दीवार नहीं होगी । नई बनी दीवार भी समय के साथ एक दिन मलबा बन जाएगी और उससे फिर किसी और प्रकार की दीवार बना दी जायेगी । फिर वह दीवार भी ‘होते’ हुए भी ‘नहीं’ ही कहलाएगी क्योंकि उसको भी एक दिन नष्ट होना है । दीवार की भाँति ही प्राणियों के शरीर और उनका संसार हैं । 

             सभी प्राणियों के शरीर पाँच भौतिक तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि,गगन,वायु) से बने हैं । सभी शरीरों के इस जगत् में रहने की अपनी अपनी अवधि है । जगत् बना है, कुछ काल के लिए । उसकी भी रहने की अपनी अवधि है, यह भी एक दिन विलीन हो जाएगा । शरीर के नष्ट होने से जगत् नष्ट नहीं होता क्योंकि जगत् के रहने की अवधि शरीर से कहीं बहुत अधिक है । अवधि अधिक होने का अर्थ यह नहीं है कि जगत् नष्ट नहीं होगा । यह भी एक दिन नाश को प्राप्त होगा और अपने मूल स्रोत में विलीन हो जाएगा । फिर समय पाकर पुनः इसकी रचना होगी और ऐसी ही प्रक्रिया निश्चित समय बाद दोहराई जाएगी ।

             शरीर के नाश का अर्थ यह नहीं है कि पाँच तत्व नष्ट हो जाते हैं । वे नष्ट नहीं होते । पाँचो भौतिक तत्व जगत् के अंश हैं, वे जगत् के विलीन होने पर ही विलीन होंगे और सृष्टि के पुनः सृजन पर सर्वप्रथम प्रकट हो जाएँगे । शरीर के मरते ही उसका विखंडन प्रारंभ हो जाता है और उसके अंतिम संस्कार के साथ ही पाँचो तत्व भी जगत् के तत्वों के साथ एकाकार हो जाते हैं । 

           समय पाकर उन्हीं तत्वों से फिर प्राणी के एक नए शरीर का निर्माण होता है और संबंधित जीवात्मा उसमें प्रवेश करती है । जीवात्मा के प्रवेश करते ही यह शरीर सक्रिय हो जाता है और इस प्रकार नए शरीर के साथ जीवन-यात्रा आगे बढ़ती है । पुनर्ज़न्म के मूल में प्रकृति की यही क्रिया है, जो इस जगत् के रहने तक बार-बार दोहराई जाती है ।

            अभी हमने शरीर के बार-बार मिटने-बनने की प्रक्रिया पर अल्प रूप से विचार किया । प्रश्न उठता है कि शरीर जिस स्थान पर मिटता है, पाँच तत्व उसी स्थान पर गिरते हैं । उन पाँचों तत्वों से ही एक नए शरीर का निर्माण होता है और उस नए शरीर में प्रायः वही संबंधित जीवात्मा प्रवेश करती है, ऐसा क्यों होता है ?

           जीवात्मा ने पूर्व में जिस शरीर को धारण किया था, उस शरीर के साथ बने तादात्म्य ने उसके मन में कई कामनाएँ पैदा की होगी, कई वस्तुओं, व्यक्तियों के प्रति आसक्ति, ममता रही होगी, कइयों से लेन-देन किया होगा । उनमें कुछ कामनाएँ अधूरी भी रही होंगी, कुछ लेन-देन भी शेष रहा होगा, उन कामनाओं को पूरा करने के लिए और जिनमें ममता और आसक्ति रही होगी, उनसे मिलने के लिए उसी स्थान पर जीवात्मा को नए शरीर की आवश्यकता रहती है । यही कारण है कि पुनर्जन्म प्रायः उसी स्थान के आस-पास होता है, जहां उसकी कामना, ममता, आसक्ति आदि और कुछ लेन-देन शेष रह गया हो ।

           इस बात को समझने के लिए एक सेठ का दृष्टांत लेते हैं । सेठजी वृद्ध हो चले थे परन्तु व्यापार, धन में प्रबल आसक्त थे । पुत्र मोह और पौत्र में गाढ ममता से अभी तक छूट नहीं पाए थे । बहुत चाहते थे कि शरीर त्यागने पर वैकुण्ठ मिले, पर …… । एक दिन एक संत का उनके यहाँ आना हुआ । सन्त से उन्होंने अपनी यह इच्छा बताई । सन्त सहर्ष उनको साथ ले जाने को तैयार भी हो गए । परंतु यह क्या ? सेठजी ने तत्काल साथ जाने से मना कर दिया । अभी तो व्यापार लड़के को सम्हलाना है, पौत्र छोटा है, उसका भी ध्यान रखना है । सेठजी ने अगली बार साथ चलने की हामी भर दी ।

               सन्त तो चले गए । वे तो रमते जोगी हैं, आज यहाँ तो कल वहाँ । कई वर्षों बाद फिर उसी स्थान पर उनका आगमन हुआ । सन्तजी को सेठ का स्मरण हो आया । सोचा, चलो अब तो सेठ साथ चलेंगे ही । पहुँच गए उनकी कोठी पर । पता चला कि वे तो दिवंगत हो गए । सन्त ने ध्यान लगाया । अरे ! सेठ ने तो बकरे के रूप में पुनर्जन्म लिया है । सन्त तुरंत ही बकरे के पास पहुँच गए और बोले - ‘ सेठजी ! अब तो चलें ।’ बकरा बना सेठ बोला - ‘ अजी अभी कहाँ ? लड़का जब दुकान बंद कर रात को घर चला जाता है, तब पीछे से कहीं कोई ताला न तोड़ ले । इसलिए रात भर दुकान के आगे बैठकर इसकी रखवाली करता हूँ । जब लड़का किसी चौकीदार की व्यवस्था कर लेगा, तब आपके साथ अवश्य चलूँगा ।’

             सेठ की बात सुन मुस्कुराते हुए सन्त वहाँ से आगे चले गए । वे जानते थे कि सेठ इस जन्म में ही क्या, अगले कई जन्मों तक मुक्त नहीं होगा । इस प्रकार फिर से कई वर्ष बीत गए । सन्त तो अनवरत यात्रा पर गतिमान थे, एक जगह नहीं ठहरते थे । संयोगवश एक बार फिर से सेठ के गाँव आना हुआ । पहुँच गए, सेठ की उसी दुकान पर जहां सेठ बकरा बने चौकीदारी कर रहे थे । परन्तु यहाँ तो बकरा है ही नहीं ।

            सन्त ने ध्यान लगाया, सेठ किस शरीर में है, पता तो चले । बकरा बने सेठ तो मर गए । अब वे कहाँ होंगे ? अरे ! सेठ तो यह रहे, घर की नाली का कीड़ा बने हुए । तुरन्त दुकान से उठे, पहुँच गए घर से निकलने वाली नाली के पास । कीड़ा भी देखते ही सन्त को पहचान गया । सन्त बोले - ‘सेठजी, अब तो चलें ।’

          नाली का कीड़ा बने सेठ ने सन्त की बात का कोई उत्तर नहीं दिया । सन्त फिर से बोले - ‘सेठजी, अब तो चलें ।’ कीड़ा क्रोध से फड़फड़ाया, बोला - ‘आपको जाना है तो जाइए, मैं तो यहाँ सुखी हूँ । देख रहे हो न, भीतर मेरा पोता नहा रहा है । उसका नहाया हुआ जल मेरे शरीर को छू रहा है । मैं उसके स्पर्श से रोमांचित हूँ । ऐसा सुख भला स्वर्ग में भी कहाँ मिलेगा ? आप जाइए, मुझे कहीं नहीं जाना है ।’


               सन्त ने अपने जीवन में सेठ को तीन शरीरों के रहते समझाया परंतु सेठ को बात समझ में नहीं आई । जब मनुष्य शरीर में रहते हुए व्यक्ति को समझ नहीं आती तो दूसरे प्राणियों के शरीर में रहते तो समझ में आने का कोई प्रश्न ही नहीं है । अब सेठ को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, फिर से मानव शरीर मिलने की जोकि सब जन्मों के अन्त में जाकर मिलना है, तब तक चौरासी लाख शरीरों की यात्रा करनी होगी । अभी तो पूर्व मानव जन्म की कामना, ममता और आसक्ति के स्थान पर ही बार-बार चक्कर लगाना पड़ेगा, न जाने तब तक कितने वर्ष/युग बीत जाएँगे ।

           सेठ ने जो कुछ किया, वही तो असत् है । मनुष्य की विडम्बना है कि वह स्वयं सत् होते हुए भी असत् में आसक्त होकर उसी को सत् मान बैठा है । असत् को सत्ता हमने ही दी है । सत्ता देने वाले असत् के पास असत् को सत्ता देने का अधिकार ही नहीं है । दीवार का सत् दिखना तभी स्वीकार्य है, जब उसे चर्म चक्षुओं से न देखकर ज्ञान चक्षुओं से देखा जाए । वास्तव में सत्ता केवल सत् की ही है, चाहे वह हमें असत् के रूप में दिखलाई पड़ रहा हो ।

         सत् परमात्मा और असत् संसार, ये दोनों तो परमात्मा ही हैं परंतु इन दोनों से परे जो कुछ है वह भी परमात्मा है । गंभीरता से चिंतन करें तो अनुभव होगा कि सर्वत्र एक परमात्मा की सत्ता के अतिरिक्त किसी अन्य की सत्ता है ही नहीं । सत्, असत् और इन दोनों से परे कहा जाना केवल सापेक्षता ही दृष्टि से है । यदि हम प्रकृति को असत् मानते हैं तो इसका विलोम सत् भी है, ऐसा मानना होगा । जब सत् भी है, असत् भी है तो फिर इन दोनों अर्थात् सत् और असत् से परे भी कुछ हो सकता है । जो भी भेद है, वह असत् में है । असत् की सत्ता को अस्वीकार करते ही केवल सत् शेष रह जाता है और जब केवल एक सत् ही है तो उसको सत् कहना भी उचित नहीं है । फिर जो कुछ असत् है, जो कुछ सत् है और उससे परे भी जो कुछ है, वे सब एक परमात्मा ही हैं, उनके अतिरिक्त कोई है ही नहीं ।

           असत्-सत् और उससे परे के समाप्त होते ही जो शेष रहता है, वह “है” है । जो “है” है, वही जीवन है । जीवन “है” में है, “नहीं” में नहीं । उसको “है” कहना भी केवल उसका वर्णन करने के उद्देश्य से है जिससे उस एक की ओर लक्ष्य किया जा सके । स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने कहा है कि जब तत्व का वर्णन किया जाता है तब अगर दृष्टि वर्णन पर रहेगी तो तत्व खो जाएगा, केवल शब्द ही पकड़ में आएंगे और अगर उसके वर्णन में दृष्टि लक्ष्य पर रहेगी तो वर्णन अपने आप खो जाएगा और केवल तत्व पकड़ में आ जाएगा ।

                परमात्मा वर्णनातीत है, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । वर्णन करेंगे और दृष्टि केवल शब्दों पर रखेंगे तो प्राप्ति के रूप में हमारे हाथ में कोरे शब्द रह जाएंगे । शब्दों का महत्व तभी तक है जब तक दृष्टि केवल लक्ष्य पर रहती है, मात्र शब्दों पर नहीं । इसलिए दृष्टि तत्व पर रहेगी तो उसको जनाने के लिए किए गए वर्णन से वर्णनातीत का अनुभव हो ही जाएगा ।

         स्वामीजी कहते हैं - “तत्व वास्तव में अनुभवरूप है क्योंकि अनुभव कभी अननुभव (विस्मृत) नहीं होता । वर्णनातीत का वर्णन आपकी स्मृति लौटा सकता है परंतु यह स्मृति कभी भी विस्मृत हो सकती है । स्मृति की विस्मृति हो सकती है परंतु अनुभव की विस्मृति न होकर उससे विमुखता होती है ।” गीता-ज्ञान के समापन पर अर्जुन द्वारा जिसको “स्मृति: लब्धा” कहा गया है वह वास्तव में “है” से हुई विमुखता का पुनः सम्मुखता में परिवर्तित हो जाना है । परमात्मा की विमुखता से पुनः उनका अनुभव हो जाना ही अधिक महत्वपूर्ण है ।

            इतने विवेचन से स्पष्ट है कि असत् की अपेक्षा से उसे सत् कहा गया है । समझाने की दृष्टि से ऐसा कहना आवश्यक है । भगवान ने स्वयं गीता में कहा है - नास्तो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: (गीता -2/16) अर्थात् असत् की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है । असत् को सत्ता सत् के कारण मिली है, इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता । बाह्य दृष्टि से देखने पर हमें असत् की सत्ता दिखलाई पड़ती है क्योंकि असत् नेत्रों से असत् भी सत् ही प्रतीत होता है ।

             अपरा प्रकृति का अंश यह शरीर है । जीवात्मा जोकि परा प्रकृति है, अपरा के साथ तादात्म्य स्थापित कर उसमें मोहित हो जाती है । मोहित जीवात्मा ही शरीर को स्वयं होना मान लेती है । यह परमात्मा से विमुखता है । ज्ञान पुनः परमात्मा का अनुभव कराते हुए हमें संसार और शरीर से विमुख कर देता है । संसार और शरीर से विमुख हो जाना ही परमात्मा के सम्मुख होकर उनका अनुभव कर लेना है । 

                  मोह से मुक्त होते ही वास्तविक सत्ता का ज्ञान हो जाता है और सत् प्रकट हो जाता है । संसार को जानने के लिए संसार से दूर होना आवश्यक है । शरीर की विभिन्न अवस्थाओं जैसे बाल्य, युवा, प्रोढ आदि में शरीर का रूप, रंग तक बदल जाता है । शरीर में हो रहे इन परिवर्तनों को देखने वाला कभी नहीं बदलता तभी तो उसको शरीर में हो रहे बदलावों का अनुभव होता है । इस बात पर गंभीरता से चिंतन करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि हम शरीर नहीं हैं बल्कि उससे भिन्न हैं । इस बात को आत्मसात् करते ही शरीर और संसार से मोह समाप्त हो जाता है ।   

                 हम क्रियाओं में इतने उलझे होते हुए भी आत्म-बोध को उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं । क्रियाएँ असत् के कारण होती हैं । इसका अर्थ है कि हम सब सत् को असत् के माध्यम से जानने का प्रयास कर रहे हैं । जबकि वास्तविकता यह है कि असत् से सत् का अनुभव हो ही नहीं सकता । असत् से स्वयं को अलग कर लेने पर ही शरीर की सत्ता खो सकती है और शेष केवल एक सत् की सत्ता रह जाती है । असत् की अपेक्षा से उसे सत् कहा जाता है अन्यथा न तो कहीं सत् है और न ही असत् ।

       गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यही बात समझाते हुए कह रहे हैं -

                ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।

                अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।। गीता-13/12।।

अर्थात् जो ज्ञेय है, उस परमात्मतत्व को मैं अच्छी प्रकार से कहूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है । वह ज्ञेय-तत्व अनादि और परम ब्रह्म है । उसको न तो सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है ।

        परमात्मा ज्ञेय हैं परंतु इसको उस प्रकार नहीं जाना जा सकता जैसे सांसारिक भौतिक वस्तुओं को जाना जाता है । भौतिक वस्तुएँ असत् है, उनको तो असत् अर्थात् इंद्रियों और शरीर के माध्यम से जाना जा सकता है परंतु सत् को तो केवल अनुभव ही किया जा सकता है । सत् का अनुभव होने पर सत् भी खो जाता है । फिर उसको केवल “है” ही कहा जा सकता है । “है” भी केवल वर्णन करने के लिए उस ओर किए जाने वाला संकेत मात्र है अन्यथा उसका कोई वर्णन नहीं हो सकता । न वह असत् है और न ही सत् । वह वर्णनातीत है इसलिए उसका केवल अनुभव ही हो सकता है, उसके बारे में न तो कहा जा सकता है और न ही कुछ लिखा जा सकता है । कहना और लिखना, केवल परमात्मा की ओर संकेत करने के लिए ही है । 

             मैंने सुना है कि जापान में किसी स्थान पर एक मंदिर है, जिसको अंगुली वाला मंदिर कहा जाता है । उस मंदिर में एक हाथ के पंजे की मूर्ति लगी हुई है । हाथ की तीन अंगुलिया और अंगूठा तो हथेली से लगे हुए हैं और केवल तर्जनी अंगुली सीधी है जो ऊपर की ओर संकेत कर रही है । यह अंगुली उस ओर संकेत कर रही है जिधर देखने पर स्थूल दृष्टि को कुछ भी दिखाई नहीं देता, सिवाय खुले आसमान के ।

           अंगुली संकेत करती है उस ओर, जिधर सत्तावान के उपस्थित होने की कल्पना की जाती है । वह सत्तावान ही “है” है, ऐसा कहा जाता है । उसको जाना नहीं जा सकता, न ही उसका वर्णन किया जा सकता है । हाँ, उसका अनुभव अवश्य ही किया जा सकता है । उसके अनुभव के लिए असत्, सत् आदि सभी नामों से ऊपर उठना होगा । उसको न तो सत् कहा जा सकता है और न ही असत् । जो सत् और असत् से भी परे है, जिसका कोई नाम नहीं है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता उसकी ओर तो केवल संकेत ही किया जा सकता है जैसा कि हाथ वाले मंदिर में अंगुली के माध्यम से किया गया है ।

          “है” के अनुभव के लिए उस अंगुली की पूजा करने से कुछ भी नहीं होना है । हाथ की संकेत करती अंगुली हमारे शास्त्र आदि ही तो है, जिनसे हमने उसको जानने का प्रयास किया है । उस “है” के अनुभव के लिए अंगुली को पीछे छोड़ अर्थात् शास्त्रीय ज्ञान को पीछे छोड़ आगे बढ़ना होगा । आगे बढ़ने के लिए चुप होना होगा । चुप होने से अर्थ है, बाहर भीतर से शान्त, कुछ भी और किसी का भी चिन्तन नहीं । फिर जो अनुभव होगा वह अनुभव अतीन्द्रिय होगा ।

           जैसे अंगुली से जिस दिशा की ओर संकेत किया जाता है उस ओर दृष्टि जाने पर ही हम लक्ष्य को जान सकते हैं । दृष्टि को केवल उस अंगुली पर रखने से तो अंगुली ही दिखाई देगी, लक्ष्य नहीं । लक्ष्य की ओर संकेत करती अंगुली ही लेखन और प्रवचन है अर्थात् वे परमात्मा की ओर मात्र संकेत करते हैं । लिखने से, बोलने से अच्छा लेखक और वक्ता हुआ जा सकता है, लेख पढ़कर, प्रवचन सुनकर अच्छा पाठक और अच्छा श्रोता हुआ जा सकता है परंतु लक्ष्य तक तभी पहुँचा जा सकता है, जब दृष्टि लेख-लेखक; प्रवचन-वक्ता पर न अटककर केवल लक्ष्य पर ही टिकी रहे ।

           लक्ष्य पर दृष्टि टिकाए रखना ही परमात्मा के सम्मुख होना है । फिर लेख-लेखक, प्रवचन-वक्ता खो जाते हैं और परमात्मा (लक्ष्य) का अनुभव हो जाता है । उसका अनुभव होते ही शब्द खो जाते हैं और वाणी/ लेखनी शांत हो जाती है । यह मौन की अवस्था है, जिसमें सब कुछ पाकर भी उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । स्वामीजी ने इसको चुप साधन कहा है । मौन होकर बैठने पर न तो कोई विचार होता है और न ही किसी का चिंतन । तभी भगवान ने अर्जुन को स्पष्ट किया है कि उसको न तो सत् कहा जा सकता है और न ही असत् ।

             “वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:”(गीता-7/19) अर्थात् ‘सब कुछ वासुदेव ही है’, ऐसा जान लेने वाला वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है । “वासुदेव” तक पहुँच जाने वाला क्या तो बोले और क्या लिखे ? इसलिए वह मौन हो जाता है ।

          हमारे शास्त्र और सन्त ही वह अंगुली है जो लक्ष्य की ओर संकेत करती है । प्रश्न उठता है कि शास्त्र हमें परमात्मा का मार्ग दिखलाते है, उसको जानने की ओर अग्रसर करते हैं फिर हमें उस परम के अनुभव के लिए शास्त्रों को छोड़ना क्यों आवश्यक है ? हमारे शास्त्रों में अथाह ज्ञान भरा पड़ा है । उनको पढ़कर हम ज्ञानी बन सकते हैं, अच्छे वक्ता और लेखक बन सकते हैं परंतु जीवन का जो लक्ष्य है उस तक पहुँचने से दूर ही रह जाते हैं । शास्त्रीय ज्ञान मोह को पैदा करता है और यही मोह सब कुछ जानने का अहंकार पैदा करता है । अहंकार हमें असत् से (शरीर और संसार से) मुक्त नहीं होने देता ।

            यह अहंकार ही अहम् है जिसके विलीन हुए बिना हम परमात्मा का अनुभव नहीं कर सकते । शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान ही तो “नेति-नेति” कहता है अर्थात् वह इतना ही नहीं है । इस ‘इतने ही नहीं है’ को स्वीकार करते ही व्यक्ति शास्त्रों की ओर से चुप होकर शान्त हो जाता है । यही चुप-साधन अर्थात् मौन-साधना है । इस अवस्था को उपलब्ध होने पर शास्त्रीय-ज्ञान का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।

         स्वयं भगवान ने गीता में कहा है -

               यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।

               तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: ।। 2/46 ।।

         अर्थात् सब ओर से परिपूर्ण महान जलाशय मिलने पर छोटे गड्ढों में भरे जल में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, शास्त्रों को तत्त्व से जानने वाले ब्रह्मज्ञानी का संपूर्ण वेदों से उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता ।


            जब व्यक्ति अध्यात्म की सर्वोच्च अवस्था तक पहुँच जाता है, तब उसे अनुभव होता है कि इतना प्रयास जो उसने इस अवस्था तक पहुँचने के लिए किया वह अधिक उपयोगी नहीं है । ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या वेद और शास्त्र पढ़ने इतने महत्वपूर्ण नहीं है ? ऐसा नहीं है कि शास्त्रों का अध्ययन महत्वपूर्ण नहीं है । अध्ययन से आत्म-बोध की जो मुमुक्षा पैदा होती है, वही आत्म-बोध का मार्ग भी दिखलाती है । ज्ञान जो शास्त्रों से मिलता है, वही ज्ञान अनुभव कराता है कि परमात्मा को जाना नहीं जा सकता ।

                “परमात्मा है” और हम उसके ही अंश है, ऐसा ज्ञान कराने में शास्त्रों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता । परन्तु केवल शास्त्र को ही पकड़ कर बैठ जाना आध्यात्मिक प्रगति को रोक देता है । इसलिए शास्त्रों में जो ज्ञान है, उसे आत्मसात् कर आगे बढ़ना आवश्यक है, नहीं तो ये शास्त्र भी एक दिन बोझ बनकर रह जाते हैं । स्वामीजी ने ‘साधक-संजीवनी’ हमारे हाथ में दी है परंतु केवल उसे हाथ में थामे रहने से आत्म-बोध नहीं होने वाला । उसमें संकलित ज्ञान को आचरण में लाने से ही हम उस परमात्मा का अनुभव कर सकते है, जिसकी ओर संकेत करते हुए यह ग्रन्थ लिखा गया है । स्वामीजी के द्वारा कहे गए शब्दों को ही नहीं पकड़ना है बल्कि जिस लक्ष्य को लेकर ये शब्द कहे गए है, उनसे ऊपर उठकर लक्ष्य को पकड़ना है ।

             शास्त्रों को पकड़कर बैठ जाना भी जड़ता है, प्रगति में बाधा है । शास्त्र से तभी तक प्रयोजन रहता है, जब तक आत्म-बोध की दिशा का ज्ञान नहीं हो जाता । दिशा का ज्ञान होते ही शास्त्रों को भी छोड़ना पड़ता है । शास्त्रों को पीछे छोड़े बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता । आगे बढ़ने से ही उस परम का अनुभव होगा जिसकी ओर संकेत करने के लिए शास्त्रों की रचना की गई है ।

           श्रीमद्भागवत महापुराण का सार चार श्लोकों में सिमटा है, जो स्वयं भगवान द्वारा कहे गए हैं । इसे चतुःश्लोकी भागवत भी कहा जाता है । इन चार श्लोकों में परमात्मा स्वयं ने अपना वर्णन किया है । अवर्णनीय का वर्णन करना या तो परमात्मा से ही संभव है या उनके परम भक्तों से । ब्रह्माजी भगवद्धाम जाते हैं तब भगवान उन्हें सृष्टि रचना की आज्ञा देते हैं ।

     ब्रह्माजी कहते हैं कि भगवन् ! आप समस्त प्राणियों के अंतःकरण में साक्षीरूप से विराजमान रहते हैं । आप अपने अप्रतिहत (निर्बाध) ज्ञान से यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ ? आप कृपा करके मुझ याचक की यह माँग पूरी कीजिए कि मैं रूपरहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों को जान सकूँ । आप मायापति है , अपनी माया का आश्रय लेकर इस जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करने के लिए अपने आपको ही अनेक रूपों में प्रकट कर क्रीड़ा करते हैं । आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि मैं सजग रहकर सावधानीपूर्वक आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ और सृष्टि की रचना करते समय भी कर्तापन आदि के अभिमान से बंध नहीं जाऊँ ।

          आगे ब्रह्माजी कहते हैं कि प्रभो ! आपने एक मित्र के समान हाथ पकड़ कर मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है । अतः जब मैं आपकी इस सेवा / ‘सृष्टि-रचना’ में लगूँ और सावधानी से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ।

      ब्रह्माजी के आग्रह पर भगवान ने उन्हें जो ज्ञान दिया वह भागवतजी के दूसरे स्कन्ध के नवें अध्याय के चार श्लोकों में समाहित है । इन्हीं चार श्लोकों को चतु:श्लोकी भागवत कहा जाता है ।

             भगवान सृष्टि रचना की आज्ञा देते हुए ब्रह्माजी को कह रहे हैं कि मैं तपस्या से ही सृष्टि की रचना करता हूँ, तपस्या से ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और तपस्या से ही इसे अपने में लीन कर लेता हूँ । तुम उस समय सृष्टिरचना कर्म करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे, इसी से मैंने तुम्हें तपस्या करने की आज्ञा दी थी । 

         सृष्टिरचना से ब्रह्माजी को कहीं कृतत्वाभिमान न हो जाए इसलिए भागवतजी के दूसरे स्कन्ध के नवें अध्याय में ब्रह्माजी को भगवान उपदेश देते हुए कहते हैं -

         अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् ।

         पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ।। (1)

          “सृष्टि से पूर्व केवल मैं-ही-मैं था । मेरे अतिरिक्त न स्थूल था, न सूक्ष्म और न ही दोनों का कारण अज्ञान । जहां सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं हूँ; और जो कुछ शेष रहेगा, वह भी मैं हूँ ।” (भागवत -2/9/32) 

               सृष्टि का प्रारम्भ कब हुआ, वैज्ञानिक इसे करोड़ों वर्ष पूर्व हुआ बताते हैं । चाहे जब से सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ हो, भगवान कहते हैं कि उससे पहले भी मैं था । सृष्टि रचना के बाद जो भी स्थूल-सूक्ष्म दृष्टिगत है, वह हमारे अज्ञान के कारण है अन्यथा एक भगवान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । जहां सृष्टि नहीं है, वहाँ भी भगवान है और भगवान ही सृष्टि रूप से प्रतीत हो रहे हैं । सृष्टि के विलीन हो जाने पर जो शेष रहेगा, वह भी वही होंगे । 

         सृष्टि में जो कुछ भी हमें प्रतीत हो रहा है, वह हमारी भेद-दृष्टि के कारण है । इस भेद-दृष्टि का कारण हमारा अज्ञान है । भगवान कह रहे हैं कि मेरे अतिरिक्त न कोई स्थूल है, न कोई सूक्ष्म और न ही इन दोनों का कारण अज्ञान । जो स्थूल और सूक्ष्म का भेद हम करते हैं, वह अज्ञान के कारण करते हैं, अन्यथा सृष्टि में ऐसा भेद कहीं नहीं है । कहने का अर्थ है सृष्टि के आदि से भी पूर्व भगवान थे और सृष्टि के पश्चात् भी भगवान ही रहेंगे । भगवान के अतिरिक्त जो कुछ भी प्रतीत हो रहा है, वह हमारे अज्ञान के कारण हो रहा है । 

    ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।

    तद्विद्यादात्मानो मायां यथाऽऽभासो यथा तम: ।। (2)

             “ सत्य के रूप में जो प्रतीत हो रहा है, अथवा नहीं प्रतीत हो रहा है, वह सब मेरी माया के कारण हो रहा है । वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चंद्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अन्यथा विद्यमान होने पर भी आकाश-मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझनी चाहिए ।” (भागवत -2/9/33 ) 

              जैसे एक आँख पर अंगुली से थोड़ा दबाव डालें तो आकाश में एक चंद्रमा के अतिरिक्त एक और चंद्रमा दिखलाई पड़ता है, जबकि वास्तव में चंद्रमा एक ही है । इसी प्रकार राहु ग्रह की आसमान में प्रतीति नहीं होती जबकि राहु विद्यमान है । भगवान कहते हैं कि दो चंद्रमा न होते हुए भी जो दो होने की प्रतीति होती है, वह मेरी माया है और विद्यमान होने पर जिस राहु की प्रतीति होनी चाहिए थी, उसकी प्रतीति न होना भी मेरी माया है । 

             जो आँखों से दिखलाई पड़ता है, उसको सत्य होना स्वीकार करना पड़ता है परंतु जो दिखलाई नहीं पड़ता, उसको असत्य कहना भी हमारा अज्ञान है । न होते हुए भी प्रतीति होना अथवा होते हुए भी प्रतीत न होना, केवल भगवान की माया ही समझना चाहिए । माया में उलझना इसीलिए होता है क्योंकि जो हमारी दृष्टि की पकड़ में है, उसको तो सत्य समझ लेते हैं और जो दृष्टि के बाहर है उसे असत्य । न कोई सत् है, न असत्; सब कुछ परमात्मा ही है, ऐसा स्वीकार कर लेना ही ज्ञान है ।

            यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।

            प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ।। (3)

           जैसे प्राणियों के पञ्चभूत रचित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पञ्चमहाभूत उन शरीरों के कार्यरूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारणरूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किए हुए हूँ और आत्मदृष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ । (भागवत -2/9/34 ) 

          सृष्टि के रचनाकार ने स्वयं से बाहर जाकर किसी मी रचना नहीं की है । रचनाकार स्वयं ही रचना बना है, केवल भ्रमवश हमें उसका अपनी रचना में प्रवेश करना दिखलाई पड़ता है ।

         प्रत्येक जीव का शरीर पञ्चभूत निर्मित है । वे पाँच महाभूत सूक्ष्म रूप से इस शरीर में प्रवेश करते हैं । लेकिन वे प्रवेश नहीं भी करते क्योंकि पहले से ही वे इस शरीर के कारण रूप से उसमें उपस्थित हैं । इसी प्रकार भगवान स्वयं आत्मा रूप से शरीर में प्रवेश करते हैं और नहीं भी करते क्योंकि सृष्टि का निर्माण उन्होंने स्वयं में किया है, किसी अन्य सामग्री से नहीं । कहने का अर्थ है कि वे ही स्थूल शरीर हैं, वे ही सूक्ष्म शरीर है और उस शरीर के कारण भी वे ही हैं । जीवात्मा भी वे ही हैं । कहने का अर्थ है कि वे ही सब कुछ हैं, फिर चाहे उनको शरीर में प्रवेश किया मानो अथवा उनका शरीर में प्रवेश न करना मानो ।  

      एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मन: ।

      अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ।। (4)

       यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं - इस प्रकार निषेध की पद्धति से और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है - इस अन्वयकी पद्धति से यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित है , वे ही वास्तविक तत्व है । जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है ।” (भागवत - 2/9/35)

                ऋषियों ने सब कुछ समझकर “नेति-नेति” कहा है अर्थात् वे इतने ही नहीं है या यह ब्रह्म नहीं है, यह ब्रह्म नहीं है । उन्हीं ऋषियों ने स्वीकार किया है कि सर्वत्र और सब समय एक परमात्मा ही है, दूसरा कोई नहीं । 

            किसी पक्ष को समग्र रूप से जानना हो तो सकारात्मक और नकारात्मक, दो दृष्टि रखकर जाना जा सकता है । नकारात्मक पद्धति को निषेध विधि कहा जाता है और सकारात्मक पद्धति को अन्वयकी विधि । “यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं” यह निषेध विधि है । परमात्मा असीम है, उनको एक सीमा में बाँधने का अर्थ है कि अभी भी हम उनको जानने से बहुत दूर हैं । जिसने परमात्मा को सत् कहा है, उसने असत् को परमात्मा नहीं माना है । निषेध की पद्धति कहती है कि न तो परमात्मा सत् है और न ही असत् । ( न सत्तन्नासदुच्यते - गीता- 13/12) ।

         अन्वयकी पद्धति सकारात्मक विधि है । परमात्मा असीम है, उसका न कोई आदि है और न ही अन्त । सृष्टि का प्रारंभ और अन्त है, परमात्मा का नहीं । परमात्मा स्वयं सृष्टि बने हैं । सृष्टि का आदि-अन्त है, सृष्टि परिवर्तनशील है, इसलिए इसे असत् कहा गया है । परमात्मा को सृष्टि के असत् होने के सापेक्ष सत् कहा जाता है । वास्तव में देखा जाए तो असत् और सत्, दोनों ही परमात्मा हैं । ( सदसच्चाहमर्जुन - गीता - 9/19) 

       असत् और सत्, दोनों ही परमात्मा है, तो इन दोनों से परे कौन है ? वे भी परमात्मा हैं । इससे सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान ही सर्वत्र और सर्वदा है । वे ही वास्तविक तत्व हैं । जो आत्मा और परमात्मा को तत्त्व से जानना चाहते हैं, वे इतना ही जान लें । उनके लिए इतना जान लेना ही पर्याप्त है । तभी अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप दर्शन कर कहा है - “त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्” (गीता -11/27) 

                   इतने विवेचन से स्पष्ट है परमात्मा स्वयं ही सृष्टि रूप में व्यक्त हुए हैं । व्यक्त को हम असत् कह देते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्त में परिवर्तन होना नियम है जबकि अव्यक्त जिसे हम सत् कहते हैं, वह अपरिवर्तनशील है । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जो अव्यक्त है, वह सत् है और जो अव्यक्त सत् के रूप में व्यक्त हो गया वह असत् है । इससे स्पष्ट होता है कि असत् संसार और शरीर की स्वतंत्र सत्ता नहीं है । असत् की सत्ता सत् के कारण है । सत् के असत् से दूर होते ही असत् खो जाता है और शेष केवल सत् रह जाता है क्योंकि सत् के अभाव में असत् की सत्ता नहीं रहती । अकेले सत् को सत् कहना भी उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि फ़िर उसके सापेक्ष असत् को भी मानना पड़ता है । असत् की अस्वीकार्यता होते ही सत् के स्थान पर भी केवल तत्व रह जाता है । 


           स्वर्ण से बने आभूषण में हमें कड़ा, कण्ठी, अंगूठी आदि दिखाई देते हैं परन्तु उसको गलाने पर केवल एक स्वर्ण तत्व ही शेष रह जाता है उसी प्रकार शरीर भले ही भिन्न-भिन्न प्रतीत हो रहे हों, सबकी सत्ता एक परमात्म-तत्व के कारण ही है । एक परमात्म-तत्व पर ही दृष्टि रखेंगे तो फिर उसको न तो सत् कहा जा सकता है और न ही असत् । न तो सत् है, न ही असत्, केवल एक तत्व ही है, जिसे “है” कहा जा सकता है । यह “है” ही वह तत्व है, जिसका कोई भी वर्णन नहीं किया जा सकता । वह वास्तव में अवर्णनीय है ।

             वर्णन असत् का करेंगे तो केवल असत् को ही जान पाएंगे । सत् को असत् के माध्यम से जानने का प्रयास करना व्यर्थ हैं । हाँ, असत् के माध्यम से वर्णन करते हुए दृष्टि सत् पर रखेंगे, तो सत्-असत् दोनों ही खो जाएंगे और शेष रहेगा वह मूल तत्व “है” ही होगा । अतः वर्णनातीत के वर्णन में शब्दों को नहीं पकड़ना है, बल्कि शब्दों के माध्यम से “है” तक पहुँचना है ।

         भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं - 

मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।। गीता - 7/7 ।।

    हे धनंजय ! मेरे सिवाय इस जगत् का दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है । जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागों में पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह संपूर्ण जगत् मुझ में ही ओतप्रोत है ।

             एक लम्बा सूत का धागा लें, उसी धागे की गाँठें लगाते हुए एक माला बना लें । दिखने मे वह एक माला प्रतीत होगी । गंभीरता से अवलोकन करेंगे तो उसमें धागा और मणियाँ पिरोई प्रतीत होगी । अपनी दृष्टि को और सूक्ष्म करेंगे तो देखेंगे कि धागा और मणियाँ, सूत से ही बनी है । फिर उस माला को चाहे जब देख लो, एक सूत के अतिरिक्त कुछ भी नज़र नहीं आयेगा । इस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर पहले तो माला खो जाएगी और फिर मणियाँ और धागा भी खो जाएँगे । अंत में केवल सूत ही दिखलाई देगा ।  

          इसी माला की तरह यह संसार है, जिसमें विभिन्न चर-अचर, सजीव-निर्जीव, प्रतीत-अप्रतीत आदि सब मणियाँ हैं । सबके मूल में एक परमात्मा (सूत) है । जितनी भी प्रतीति हो रही है अथवा नहीं भी हो रही है, उन सबका कारण एक परमात्मा ही है, उसके अतिरिक्त कोई अन्य किंचितमात्र भी नहीं है । संपूर्ण जगत् में एक परमात्मा के अलावा कोई दूसरा नहीं है । स्वामीजी कहते हैं कि संपूर्ण संसार में एक सूई की नोक जितनी भी जगह ऐसी नहीं है, जहां परमात्मा न हों ।

                 भगवान ने समझाने की दृष्टि से जो उदाहरण दिया है वह असत् से सत् की ओर संकेत मात्र है । माला, मणियाँ, धागा तो असत् है ही, सूत भी असत् है । सूत से आगे बढ़ें तो कपास का पौधा और पौधे से कपास का बीज और फिर बीज से कपास का पौधा, फिर रूई, धागा, मणियाँ और माला - इस प्रकार एक अंतहीन शृंखला से हमारा सामना हो जाता है । कहने का अर्थ है कि असत् से असत् संसार-चक्र को ही समझा जा सकता है, सत् को नहीं । असत् से तो सत् की ओर मात्र संकेत ही किया जा सकता है ।

            इसी प्रकार परमात्मा की ओर लेखन, प्रवचन के माध्यम से सत् का वर्णन करते हुए उसकी ओर संकेत ही किया जा सकता है । वर्णन करते हुए इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि श्रोता/पाठक केवल शब्दों को पकड़ कर ही न बैठ जाए बल्कि शब्दों के अन्तर्हित संदेश के मर्म को समझें अन्यथा वह शब्दों के मायाजाल में ही उलझकर रह सकता है । आज संसार में यही हो रहा है, सब शब्दों को लिए घूम रहे हैं । लेखक शब्दों को आकर्षक रूप देकर पाठक को परोस रहा है, कथाकार शब्दों को बेच रहा है और श्रोता शब्दों को ख़रीदकर उनकी जुगाली कर रहा है ।

         शब्द रस प्रदान करते हैं और श्रोता उस रस का सेवन करते हुए सुख अनुभव कर रहा है । स्वामीजी ने इसको ‘सत्संग का सुख’ लेना कहा है । शब्द-रस के सेवन से थोड़े समय बाद रस चूक जाता है और फिर जीवन से वे शब्द भी निकल लेते हैं । जब तक जीवन में उन शब्दों में छिपे संकेत को समझकर आगे नहीं बढ़ेंगे तब तक सभी शब्द अर्थहीन हैं । गुरु द्वारा कहे गए शब्दों का निहितार्थ समझने से ही सत् की ओर दृष्टि जाएगी और शब्द ही ब्रह्म समान हो जाएँगे ।

              लेख का मूल विषय है कि क्या परमात्मा सत् भी हैं और असत् भी हैं (गीता - 9/19), या परमात्मा सत् भी हैं, असत् भी हैं और इन दोनों से परे भी हैं (गीता-11/37) अथवा क्या परमात्मा दोनों ही नहीं हैं (गीता-13/12) ? परमात्मा को जानना क्यों इतना कठिन है ? परमात्मा को जानना तब तक कठिन है, जब तक इन्हें हम अपनी बुद्धि के माध्यम से इन्हें जानने का प्रयास करते हैं । इस लेख में पूर्व में भी स्पष्ट किया गया है कि असत् से सत् को नहीं जाना जा सकता क्योंकि असत् ससीम है, बुद्धि ससीम है और सत् असीम है, परमात्मा असीम है ।

           परमात्मा को जानने के प्रयास में ही कभी उसको सत् कहा जाता है, कभी असत्, कभी इनसे परे भी और कभी असत्-सत् दोनों ही नहीं । जब एक परमात्मा से ही पूरी सृष्टि का आविर्भाव हुआ है तो परमात्मा उसके प्रत्येक अवयव में उपस्थित है, किसी भी स्थान को उनसे विहीन नहीं कहा जा सकता । साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना है कि सृष्टि के केवल एक अवयव को देखकर यह भी नहीं कहा जा सकता कि परमात्मा इतने से ही हैं । वह भी परमात्मा है परंतु परमात्मा केवल इतने से भी नहीं है । तभी ऋषियों ने इसको नेति-नेति कहा है ।

          असीम को एक सीमा में नहीं बांधा जा सकता । परमात्मा स्वयं ही सृष्टि बने हैं और सृष्टि का विस्तार कहाँ तक है, वैज्ञानिक अभी तक उसकी सीमा निर्धारित नहीं कर पा रहे हैं । कभी कर भी नहीं पाएंगे क्योंकि जब भी वे सृष्टि की सीमा निश्चित करने वाले होते हैं कि उस सीमा से परे कोई एक अवयव नज़र आ जाता है । अभी गत दिनों ही पृथ्वी से 5 करोड़ प्रकाश वर्ष दूर एक नए तारे को खोजा गया है । 

              अंधों का एक गाँव था । वहाँ के सभी मनुष्य अंधे थे, कोई एक आध ऐसा था जिसको कुछ-कुछ दिखलाई पड़ता था । कोई बीमारी रही होगी वहाँ । कुछ समय पहले तक, जब स्वास्थ्य सेवाओं को व्यापक रूप में विस्तार नहीं मिला था तब भी कई गाँव ऐसे होते थे जहां के निवासियों को रात में ही क्या दिन में भी देखने में मुश्किल होती थी । ऐसे ही कोई गाँव में एक दिन हाथी आ गया ।

           हाथी आ क्या गया था, साधुओं की एक टोली उस हाथी को लेकर वहाँ आ गई थी । हाथी पालतू था । गाँव के व्यक्ति हाथी के बारे में जानते नहीं थे । बड़ी संख्या में वहाँ के निवासी कोतुहलवश चौपाल में आ गये । सबने हाथी को चारों ओर से घेर लिया और अपने हाथ से उसको टटोलने लगे । किसी का हाथ उसकी पूँछ पर था,कोई उसके पैरों को टटोल रहा था, कोई उसकी बल खाती सूंड के साथ हाथ को इधर उधर कर रहा था । कहने का अर्थ है कि सभी अपने-अपने विवेक अनुसार हाथी को अनुभव कर रहे थे ।

           सायंकाल वहाँ का एक निवासी जिसकी आँखें ठीक थी, गाँव लौटा । प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभव के आधार पर हाथी का वर्णन कर उसको सुना रहा था । कोई हाथी को खंभे (पाँव) जैसा कह रहा था, कोई पतली डोर (पूँछ) के समान बता रहा था । एक ने तो उसको झूले की तरह बता दिया क्योंकि उसने हाथी की सूंड़ का अनुभव किया था । क्या केवल पांव हाथी है या पूँछ हाथी है या केवल उसकी सूँड़ हाथी है ? नहीं सभी अवयव मिलकर हाथी है, कोई अकेला एक अवयव हाथी नहीं हो सकता ।

             हाथी एक, परंतु उसके वर्णन में भिन्नता क्योंकि उसको टटोलने वाले सभी अंधे थे । अंधा अर्थात् अज्ञानी । अज्ञानी कभी असीमता की बात नहीं करता, समग्रता की बात नहीं करता क्योंकि वह अल्प ज्ञान यानि अधूरे ज्ञान पर ही अटक जाता है । कहावत है - 'अध जल गगरी छलकत जाय' । घड़े में थोड़ा सा जल डाल दें और फिर उसको लेकर चलें तो घड़े में से जल छलककर बाहर गिरने लगता है । अज्ञानी की यही स्थिति है । अपने को ज्ञानी समझकर अधूरे ज्ञान को इधर उधर बाँटता रहता है ।

           घड़े को जब पूर्णरूपेण जल से भर दिया जाता है, तब उसको सिर पर रखकर कोसों दूर बिना जल को छलकाए ले जाया जा सकता है, उससे एक बूँद भी बाहर नहीं गिरती । यह ज्ञानी की स्थिति है । ज्ञानी सब कुछ जानकार मौन हो जाता है, क्योंकि उसको ज्ञान हो जाता है कि परमात्मा अगम है । न परमात्मा असत् तक सीमित है और न ही उनको केवल सत् ही कहा जा सकता है । उनके वर्णन के लिए प्रयोग में लिए जाने वाले सभी शब्द एक दूसरे की सापेक्षता से कहे जाते हैं । उन शब्दों को पढ़-सुनकर भ्रमित नहीं होना है । सत्य बात तो यह है कि वे अवर्णनीय हैं ।

          अवर्णनीय का वर्णन केवल शब्दों के माध्यम से उनकी अगमता को समझाने का प्रयास भर है । शब्दों की सीमा में उलझते हुए परमात्मा को ससीम मान लेना केवल अज्ञानता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । उनकी असीमता ही उनको अगम बनाती है ।

           परमात्मा को जब तक समग्र रूप से नहीं जाना जाएगा, तब तक ससीम मानते हुए उनका विभिन्न रूपों में वर्णन किया जाएगा । परमात्मा की समग्रता को पकड़ पाना बुद्धि की बात नहीं है । जिस दिन समग्र रूप से समझ लिया जाएगा तो फिर शब्दों के माध्यम से उनका वर्णन करना असंभव हो जाएगा । प्रत्येक शब्द उनकी विशालता के सामने बौना है । यही कारण है कि अध्यात्म की सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचकर साधक मौन हो जाता है, चुप्पी साध लेता है ।

       परमात्मा को असत् संसार के सापेक्ष सत् कहा गया है अन्यथा यह नहीं कहा जा सकता कि असत् परमात्मा नहीं है । असत् भी परमात्मा है क्योंकि वे अपने आनन्द के लिए स्वयं ही असत् बने हैं । असत् भी परमात्मा है, इसका अर्थ यह नहीं है कि परमात्मा असत् तक ही सीमित है । सीमित दृष्टि रखने वाले असत् को ही परमात्मा मान इतिश्री कर लेते हैं तभी तो साधारण व्यक्ति मूर्ति पूजा करते हुए मंदिर से बाहर नहीं निकल पा रहा है । परमात्मा मंदिर तक ही सीमित नहीं है, वे तो संसार के कण-कण में व्याप्त है ।

            परमात्मा सत् हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे केवल सत् तक ही सीमित है । वे न तो असत् तक सीमित है और न ही सत् तक, इसका अर्थ है कि वे सत्-असत् , इन दो तक ही सीमित नहीं है । इन दोनों से परे भी वे हैं । अतः जब वे ही असत् हैं, सत् हैं और इन दोनों से परे भी हैं, इसका अर्थ हुआ कि केवल एक वे ही हैं, उनके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं । फिर उनको असत्, सत् कहना भी अर्थहीन हैं । उनको सत् और असत्, नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनकी व्यापकता को स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक शब्द अर्थहीन है ।

         इतने विवेचन से स्पष्ट है कि एक परमात्मा ही सर्वत्र है, सर्वदा है । संसार के प्रत्येक जीव में परमात्मा है । परम सत्ता एक, नाम रूप अनेक । केवल अपने आनंद के लिए भगवान ने विभिन्न रूप धरे हैं । पासे बनकर वे ही जुआ खेलने वाले बन गए हैं । जुए में हारते भी वही हैं, जीतते भी वही हैं । जब सब कुछ वही हैं तो ऐसा कहना भी अनुचित जान पड़ता है कि कोई जुआ भी है, कोई हारता अथवा जीतता भी है । एक “है” के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । अतः “यह भी है, यह भी है” अथवा “यह नहीं, यह नहीं” कहने में कोई सार नहीं है । केवल एक “ है” ही है । उसी “है” को सबमें देखना है ।

         मूर्ति की पूजा करते हुए उसमें परमात्मा को देखना सही है परंतु केवल मूर्ति ही परमात्मा है, ऐसा देखना सही नहीं है । सभी जीवों में और मूर्ति में समान रूप से परमात्मा को देखना सही देखना है । मूर्ति पत्थर से बनी है, जोकि निर्जीव है । उसमें की गई प्राण-प्रतिष्ठा हमारे भाव को दृढ़ता प्रदान करती है कि इसमें भी सजीव की तरह परमेश्वर है ।

            भागवत जी में भगवान ने कहा है - 

          अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थित: सदा ।

          तमवज्ञाय मां मर्त्य: कुरुतेऽर्चाविडम्बनम् ।। भागवत - 3/29/21 ।।

     अर्थात् मैं आत्मारूप से सभी जीवों में स्थित हूँ, इसलिए जो लोग मुझ सर्वभूत स्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वाँग मात्र है ।

            प्राण-प्रतिष्ठा के बाद पत्थर की मूर्ति को भगवान मान कर उसकी पूजा करते हैं और संसार के जीवों से राग-द्वेष का भाव रखते हैं तो ऐसी मूर्ति-पूजा को भगवान ने आडंबर कहा है । पड़ौस का भाई भूखा है और भगवान की मूर्ति को छप्पन भोग लगाया जा रहा है, ऐसे भोग को परमेश्वर कदापि स्वीकार नहीं करते । उनकी दृष्टि में यह सब दिखावा मात्र है । ऐसी ईश्वरीय पूजा स्वाँग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । 

           भगवान ऐसी पूजा के बारे में कहते हैं कि -

           यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।।

          हित्वार्चां भजते मौढ़्याद्भस्मन्येव जुहोति स: ।। भागवत -3/29/22 ।।

       मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूँ, ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है ।

            बिना अग्नि के हवन कुण्ड में डाली जा रही सामग्री से यज्ञ संपन्न नहीं होता । यज्ञ के लिए तो प्रत्येक प्राणी को परमात्म-स्वरूप देखते हुए उनकी सेवा करनी होती है । आपने उन प्राणियों की तो उपेक्षा कर दी और केवल मूर्ति के पूजन में लगे हुए हो, ऐसी पूजा निष्फल है । प्रतिमा में तभी ईश्वर को देखा जा सकता है, जब सभी चराचर जीवों में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव हो । जिस दिन ऐसा होने लग जाएगा, उसी दिन सबका परमात्म-प्रतिमा पूजन सफल हो जाएगा ।

            सनातन धर्म में परमात्मा की उपासना करने के विभिन्न तरीक़े हैं । निराकार मानकर भी उनकी उपासना की जाती है और साकार समझकर मूर्ति पूजा भी की जाती है । आदिकाल से संत बताते आए हैं कि साकार और निराकार में कोई भेद नहीं है । ‘केवल मेरी पूजा पद्धति ही श्रेष्ठ है’, ऐसा कहना भी अनुचित है । निराकार को मानने वाले प्रायः साकार पूजा विधि का उपहास उड़ाते हैं । न तो परमात्मा साकार तक सीमित है और न ही वे केवल निराकार हैं । वे निराकार से साकार रूप कभी भी धारण कर सकते हैं । निर्गुण निराकार अपने आनंद के लिए ही सगुण साकार रूप में प्रकट होते हैं । इसलिए निराकार-साकार, निर्गुण-सगुण के द्वन्द्व में उलझने वाला ही अपनी राह से भटकता है ।

         साकार का एक निश्चित आकार है, जिसके कारण व्यक्ति उसमें अटक सकता है । अटका तभी जाता है, जब पकड़ने को कोई आकार मिल जाए और साकार में वह आकार है । यही कारण है कि मूर्ति-पूजा करने वाले मंदिर की मूर्ति पर ही रुक जाते हैं, आगे की यात्रा नहीं करते । निराकार में पकड़ने को कुछ भी नहीं है, अतः उसमें अटकने का डर तो नहीं है परंतु राह से भटकने का डर अवश्य है । ज्ञानी व्यक्ति निराकार को महत्वपूर्ण मानता है जिससे उसके पास पकड़ने को केवल अपना शरीर ही रहता है । शरीर को न छोड़ पाने के कारण (देहासक्ति) अर्थात् शरीर में आसक्त रहने के कारण वह अपनी राह से भटक सकता है । 

        इसलिए सर्वोत्तम मार्ग है - सबमें और सर्वत्र परमात्मा को देखना, जैसे कि एकनाथजी महाराज देखते थे । फिर न तो कहीं अटकने का डर है और न ही भटकने का ।

              कहा जाता है कि यदि गंगोत्री के गंगा-जल से रामेश्वरम् में भगवान का अभिषेक किया जाय तो शंकर भगवान शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं । सदियों से यह परम्परा चली आ रही है । प्रत्येक सनातनी की अपने जीवन में यही इच्छा होती है कि वह उत्तराखण्ड जाकर गंगा-जल लाए और रामेश्वरम् जाकर उस जल से शंकर भगवान का अभिषेक करे । 


                  एकनाथजी महाराज को कौन नहीं जानता । वे भगवान के परम भक्त हुए हैं । एक बार एकनाथजी महाराज साधु-संतों के साथ हिमालय से गंगा-जल लेकर रामेश्वरम् जा रहे थे । उस समय आवागमन के द्रुतगामी साधन थे नहीं, अतः सभी पैदल ही जा रहे थे । सभी संतों ने देखा कि रास्ते में एक गधा नीमबेहोशी की अवस्था में पड़ा तड़फ़ रहा है । ऐसा प्रतीत होता था कि असहनीय गर्मी में प्यास के कारण वह व्याकुल है । प्रत्येक के पास मात्र एक-एक लोटा जल ही तो था । किसी ने उस गधे को जल पिलाना उचित नहीं समझा क्योंकि सब सोच रहे थे अगर इतना सा जल इस गधे को पिला देंगे तो फिर शंकर का अभिषेक किससे करेंगे ?

          एकनाथजी से गधे की व्याकुलता देखी नहीं गई । वे उसे जल पिलाने को तैयार हो गए । एकनाथजी को उनके साथियों ने गधे को जल पिलाने से मना किया और यात्रा पर आगे बढ़ गए । फिर भी एकनाथजी महाराज ने जलपात्र को खोला और गधे को सारा जल पिला दिया । कहते हैं कि जल पीते ही गधे के स्थान पर शंकर भगवान प्रकट हो गए । उन्होंने एकनाथजी को गले लगा लिया और बोले - “पुत्र ! तेरा जलाभिषेक स्वीकार करता हूँ ।” 

        एकनाथजी महाराज ने सबमें परमात्मा को देखा, इसलिए गधे में भी उन्हें शंकर दिखलाई पड़े । अन्य साथी संत केवल रामेश्वरम् में भगवान को देख रहे थे । भगवान केवल रामेश्वरम् तक ही सीमित है, यह मानना सही नहीं है । भगवान तो सर्वव्यापी है । वे प्रत्येक काल में और प्रत्येक स्थान पर हैं । हमें मंदिरों में भगवान को देखकर वहाँ से भी बाहर निकलना होगा क्योंकि केवल मंदिर तक ही भगवान का क्षेत्र सीमित नहीं है । प्रत्येक जीव-निर्जीव का शरीर भी भगवान का मंदिर है । जहां तक दृष्टि जाती है या नहीं भी जाती, सर्वत्र उसकी उपस्थिति है । जहां तक हमारी सोच जाती है, उससे भी आगे भगवान हैं । अतः केवल मंदिर में ही उसे देखकर वहीं पर रूकना नहीं है । स्वामीजी कहते हैं -

             “यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं होई।

              ताँ के परे अगम है सोई॥”

           भगवान को एक सीमित क्षेत्र में देखना सही नहीं है । “यह नहीं, यह नहीं” कहने का अर्थ है कि मंदिर में भगवान को देखना हाथी के एक अवयव को देखने के समान है क्योंकि केवल एक पैर/ पूँछ को जान लेना ही हाथी को जानना नहीं है । इसलिए जहां भी परमात्मा को देखें, उसका वर्णन करने से पहले विचार करें कि “यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं होई” । तो फिर परमात्मा कैसा है ? जैसा कि कहा गया है - “ ताँ के परे अगम है सोई” अर्थात् जहां जहां परमात्मा को देखते हैं उससे भी परे, उससे भी आगे, जिसको हम जान नहीं सकते, जिसका हम वर्णन नहीं कर सकते, वही परमात्मा है ।

            मनुष्य की सबसे बड़ी कमी है कि वह जिसको जानना चाहता है, उसको अपनी बुद्धि के बल से ही जानना चाहता है । बुद्धि की भी एक सीमा है । जहां से मनुष्य को बुद्धि विरासत में मिली है, वह प्रकृति है । अभी तक बुद्धि से प्रकृति की सीमा भी जानी नहीं जा सकी है फिर परमात्मा को जानना तो दूर की कोड़ी है । प्रकृति ने इस जगत् को बनाया, मनुष्य ने इसी जगत् में अलग से अपना एक संसार बसा लिया । संसार में आसक्ति रखकर भी वह अपने रचे संसार के रहस्यों को भी अभी तक जान पाने में असफल रहा है । अगर वह इस क्षेत्र में जरा सा भी सफल हो जाता तो दुःखी नहीं होता । इसीलिए संसार को दुखालय कहा जाता है । संसार को जानने के लिए संसार से अनासक्त होना पड़ता है, उससे दूर होना पड़ता है । दूर होते ही संसार की वास्तविकता प्रकट हो जाती है ।

          स्वरचित संसार टिका है, आपके स्वार्थ पर । केवल आपके ही स्वार्थ पर नहीं बल्कि प्रत्येक सांसारिक प्राणी के स्वार्थ पर । जब आप संसार से अपना स्वार्थपना छोड़ देते हैं अर्थात् संसार से स्वयं को अलग कर लेते हैं, तब प्रत्येक सांसारिक प्राणी को चोट पहुँचती है । फिर देखिए ! वह प्राणी आपसे सांसारिक सम्बन्ध कैसे निभाता है ? सभी सांसारिक सम्बन्ध स्वार्थ पर ही तो टिके है, स्वार्थ पूरा होने की संभावना समाप्त हुई नहीं कि सम्बन्ध समाप्त हुआ । जब तक हम स्वार्थवश संसार से जुड़े हैं, तब तक उसकी वास्तविकता को जान पाना असम्भव है । संसार से दूर होते ही, उससे भिन्न होते ही संसार को जान लेंगे ।

         प्रश्न है कि संसार को तो इस प्रकार जाना जा सकता है परन्तु परमात्मा को जानने के लिए क्या करना होगा ? चलिए ! लेख को समापन की ओर ले जाते हुए इस प्रश्न पर भी विचार कर लेते हैं ।

          परमात्मा को जानने के लिए संसार से सम्बन्ध समाप्त कर लेना ही पर्याप्त है । स्वामीजी कहते हैं कि संसार से भिन्न होकर संसार को जाना जा सकता है और परमात्मा से अभिन्न होकर परमात्मा को । संसार से भिन्न हो जाना ही परमात्मा से अभिन्न होना है । इस ब्रह्मांड में दो ही मुख्य हैं - एक तो प्रकृति और दूसरा पुरुष । प्रकृति से विमुख पुरुष परमात्मा के सम्मुख स्वतः ही हो जाता है । प्रकृति से दूर होकर प्रकृति का वर्णन किया जा सकता है क्योंकि प्रकृति को जानने का साधन स्वयं प्रकृति ने ही आपको दिया है । प्रकृति के दिए साधन से परमात्मा को जाना नहीं जा सकता क्योंकि ये साधन ससीम का वर्णन करने के लिए हैं, असीम का वर्णन करने के लिए नहीं ।

         मनुष्य के नेत्रों की भी एक सीमा है, उससे दूर वह नहीं देख सकती । इसी प्रकार बुद्धि की भी एक सीमा है, वह कल्पना भी केवल उसी की कर सकती है, जिसको उसने अपनी ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से जीवन में कम से कम एक बार अनुभव किया है । आपने पक्षियों को आसमान में उड़ते देखा है, ऐसे में आप कल्पना भी किसी पक्षी की ही कर सकते हैं उससे भिन्न किसी ‘न देखी, न सुनी’ वस्तु/ जीव की कल्पना नहीं कर सकते ।

             परमात्मा का अनुभव अतीन्द्रिय अनुभव है, उसका वर्णन करने को वाणी भी मौन हो जाती है । परमात्मा की कल्पना करते हुए उसका जो भी वर्णन किया जा सकता है, वह हमारे देखे, सुने, छुए, सूंघे अथवा स्वाद के अनुभव पर आधारित होता है । परन्तु क्या परमात्मा इतने से हैं ? नहीं ! परमात्मा इतने से और ऐसे नहीं हो सकते । वे जैसे हैं, वैसे हैं, कैसे भी हैं - कल्पनातीत हैं । इसीलिए उनके बारे में कहा गया है - “ यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं होई” अर्थात् नेति-नेति ।

सार-संक्षेप 

                      “वासुदेव सर्वम्” अर्थात् सब कुछ और सब जगह एक परमात्मा ही है । जब एक परमात्मा ही है तो “सर्वम्” कहने का भी कोई औचित्य नहीं है । कल, आज और कल, सत्, असत् और इन दोनों से परे, जहां तक दृष्टि जाती है अथवा नहीं भी जाती सर्वत्र और सर्वदा एक परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । उसको टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट कर देखना सही देखना नहीं है । अलग-अलग रूपों में देखते हुए किसी एक को परमात्मा मान लेने तक का आग्रह ही मनुष्य की बुद्धि में समा सकता है परंतु विवेकवान की दृष्टि में परमात्मा केवल इतने से ही नहीं है । जितनी दूर दृष्टि जाती है, जितनी सीमा तक आपने उस असीम को माना है, वह सब व्यर्थ है क्योंकि भौतिक दृष्टि उनको देखने में सक्षम नहीं है और न ही उनको किसी एक सीमा में बांधा जा सकता है ।

                 उनका जो भी वर्णन किया जाता है, वह उस मूल को जानने की तरफ़ संकेत मात्र है । भरसक प्रयास करने के उपरांत भी उनको जानना संभव नहीं है और न ही कोई वाणी अथवा लेखनी ऐसी है, जो उसका समग्र रूप से वर्णन कर सके । जितना भी उनका वर्णन किया गया है, वह उनके एक छोटे से अंश का ही किया जा सका है, संपूर्ण का नहीं । ज्ञानी व्यक्ति के लिए यह वर्णन संकेत मात्र है, जिससे वह उन्हें उसी प्रकार जान सकता है जैसे जल की एक बूँद से समुद्र को जाना जाता है । फिर भी एक बूँद के वर्णन से समुद्र का वर्णन नहीं हो सकता । आत्मा, परमात्मा का अंश अवश्य है, परंतु वह परमात्मा तभी हो सकती है जब वह स्वयं अपने मूल स्रोत में समा जाए, अपने आपको परमात्मा में विलीन कर दे । जिस दिन ऐसा हो जाएगा, परमात्मा का वर्णन करने के लिए वाणी और लेखनी दोनों ही मौन हो जायेंगी क्योंकि परमात्मा अगम है, असीम है उनका वर्णन नहीं किया जा सकता ।

              इसीलिए संतजन कहते हैं कि -   

                 “यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं होई । 

                             ताँके परे अगम है सोई ।।”

               “नेति - नेति”

         परमात्मा ज्ञेय अवश्य है परन्तु साथ ही अगम भी है अर्थात् वर्णनातीत है । उस असीम और अगम का वर्णन करने में लेखनी भी असमर्थ है । लेखनी की भी वर्णन करने की एक सीमा होती है ।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।