Friday, December 15, 2023

उपनिषद

   उपनिषद

       सनातन धर्म की विशेषता है कि यह कभी भी एक निश्चित परम्परा का अनुगामी होने की बात नहीं करता। लकीर का फकीर होना अपनी बुद्धि को कुंठित कर लेना है । जिस संप्रदाय में बैठकर शास्त्रों पर कभी चर्चा नहीं हो सकती, शास्त्रार्थ नहीं हो सकता, प्रश्न -प्रतिप्रश्न नहीं हो सकते, भविष्य में वह संप्रदाय कट्टर हो जाता है। अन्ततः यह कट्टरता अन्य संप्रदायों के साथ साथ उस संप्रदाय के लिए भी घातक सिद्ध होती है। 

       जब तक धर्म-शास्त्रों पर चर्चा नहीं होगी, तब तक उसका सही अर्थ हमारे समझ में नहीं आ सकता। खुले मस्तिष्क से सनातन धर्म-शास्त्रों पर सहस्राब्दियों से चर्चा होती आई है और अभी भी यह प्रवाह चल रहा है। वेद जिस भाषा (वैदिक संस्कृत ) में लिखे गए है, उन्हें पढ़कर उनका अर्थ निकाल लेना आज के युग में असंभव सा होता जा रहा है। 

      हमारे पूर्वजों ने एक साथ बैठकर वेदों पर चर्चाएं की है, जो आज हमारे सामने उपनिषद के रूप में संकलित है । योग्य गुरु के निर्देशन में उपनिषदों का अध्ययन कर अज्ञेय को कुछ सीमा तक जाना भी जा सकता है। न जानने से कुछ जान लेना महत्त्वपूर्ण है लेकिन यह जानना सही रुप से होना चाहिए अन्यथा अधूरा ज्ञान कभी-कभी अज्ञान से भी अधिक खतरनाक सिद्ध होता है। अधूरा ज्ञान, बहुत जान लेने का अर्थात् ज्ञानी हो जाने का अहंकार पैदा करता है, जो मनुष्य के पतन का कारण बनता है। 

। । हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल 

Thursday, December 14, 2023

अहं भक्तपराधीनो(अम्बरीष-चरित्र)

 अहं भक्तपराधीनो

          सारा ज्ञान तब तक व्यर्थ है, जब तक हमें परमात्मा की भक्ति में प्रवेश नहीं मिलता । भक्ति से भगवान भक्त के अधीन हो जाते हैं । भगवान भागवतजी में स्वयं कह रहे हैं -  

           अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।

           साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय: ।। भागवत - 9/4/63 ।।

        भगवान कहते हैं कि मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ । मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है । मेरे सीधे-सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथों में कर रखा है । भक्तजन मुझसे प्रेम करते हैं और मैं उनसे ।

           संसार के सारे बन्धन स्वार्थ के हैं । लेन-देन का स्वार्थ-भाव रख भगवान को वश में नहीं किया जा सकता । भगवान तो प्रेम के भूखे हैं और प्रेम से ही वे भक्त के वश में होते हैं ।

             मयि निर्बद्धहृदया: साधव: समदर्शना: । भागवत -9/4/66 ।

     मेरे साथ अपने हृदय को प्रेम-बन्धन से बाँध रखने वाले समदर्शी साधुजन भक्ति के द्वारा मुझे अपने वश में कर लेते हैं ।

        जब ज्ञानी के हृदय में प्रेम का अंकुर फूटता है, तब उसके हृदय में संसार न रहकर केवल एक परमात्मा का ही वास रह जाता है । यह अवस्था ऐसी है, जब परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य का आश्रय नहीं रहता । फिर भगवान स्वयं भक्त की सेवा में तत्पर रहते हैं ।

         साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।

         मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ।। भागवत - 9/4/68 ।।

     मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तों का हृदय मैं स्वयं हूँ । वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता ।

          भक्त होकर प्रेम से भगवान को वश में कर लेना ही इस मानव जीवन का उद्देश्य है । 

         श्रीमद्भागवत महापुराण के नवम स्कन्ध के चौथे और पाँचवें अध्याय में भक्त अम्बरीष के चरित्र का वर्णन आता है । भगवान का अनन्य भक्त कैसा होता है ? यह जानना हो तो अम्बरीष के चरित्र में प्रवेश करना होगा । एक बहुत बड़े राज्य का स्वामी होते हुए भी जिस प्रकार राज्य संचालन के साथ साथ उन्होंने भक्ति का उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह अनुकरणीय है । 

        राजा अम्बरीष मनु की दूसरी पीढ़ी के महान सम्राट हुए हैं । वेदाध्ययन कर उन्होंने ज्ञान की उच्चतम अवस्था को तो छुआ ही, साथ ही उस ज्ञान को भक्ति में परिवर्तित कर भक्तों की श्रेणी में भी उच्च स्थान बना लिया । भक्ति में किस प्रकार भगवान की सेवा की जाती है, यह हमें अम्बरीष से सीखना चाहिए । 

         आज के युग में समय के अभाव का सभी रोना रोते हुए धन का संचय करने में रत हैं । ऐसे लोग भगवान की पूजा, सेवा और भक्ति के लिए भी दूसरों पर निर्भर हैं । अम्बरीष राजा होते हुए भी अपनी सभी इंद्रियों से भगवान की दास्य भाव से स्वयं सेवा करते थे । एकादशी के व्रत के समापन पर पधारे ब्राह्मण ऋषि द्वारा अनुचित रूप से दिए गए शाप से वे तनिक भी विचलित नहीं हुए । जीवन में आई किसी भी परिस्थिति से जो विचलित नहीं होते, भगवान स्वयं उनकी रक्षा करते हैं ।

              अम्बरीष की रक्षा भी भगवान के सुदर्शन चक्र ने की थी । दुर्वासाजी के क्रोध से उत्पन्न कृत्या राक्षसी का जो हाल हुआ, उससे डर कर ब्राह्मण देवता भाग छूटे । परन्तु भक्त की रक्षा के लिए नियुक्त सुदर्शन चक्र भला कहाँ रुकने वाला था । अंततः भगवान के निर्देशानुसार दुर्वासाजी को आकर भक्त से क्षमा माँगनी ही पड़ी, तब जाकर सुदर्शन चक्र शांत हुआ ।

        चलिए ! ऐसे महान भक्त राजा अम्बरीष के चरित्र में प्रवेश करते हैं । इस लेख से हम दास्य-भक्ति को सही रुप से समझ सकेंगे । प्रयास करें कि हम भी ऐसी भक्ति के प्रति दृढ़ बनें ।

        वैवस्त मनु का पुत्र, नभग । नभग के पुत्र हुए नाभाग । नाभाग ने दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन किया । जब वे घर लौटे तब उन्हें पता चला कि उनके भाइयों ने मिलकर पैतृक संपति का विभाजन कर लिया है । विभाजन के अनुसार संपति के नाम पर उन्हें केवल पिता नभग को ही दिया गया क्योंकि नाभाग के लौटने से पूर्व ही सब भाइयों ने सारी सम्पति आपस में बाँट ली थी । नाभाग बड़े ही विद्वान थे । पिता के बहुत समझाने पर भी उन्होंने अपने भाइयों से सम्पति के बारे में किसी प्रकार का कोई विवाद नहीं किया ।

             एक दिन पिता ने नाभाग को बताया कि पास में ही कई ब्राह्मण यज्ञ कर रहे हैं । वे यज्ञ के छठे दिन एक भूल करेंगे । तुम जाकर उनको उनकी भूल का ज्ञान कराना । यज्ञ समापन के पश्चात् वे स्वर्ग जाते समय तुम्हें यज्ञ का शेष धन दे देंगे । नाभाग ने ऐसा ही किया और इस प्रकार उन्हें यज्ञ का शेष धन मिल भी गया । वह उन ब्राह्मणों से धन ग्रहण कर ही रहा था कि तभी उत्तर दिशा से काले रंग का एक पुरुष वहाँ आया । उसने यज्ञ के शेष भाग पर अपना अधिकार जताया । नाभाग ने बहुत कहा कि यज्ञ ऋषियों ने उसे यह धन दिया है परन्तु उस पुरुष ने इस प्रकार धन को ग्रहण करने को अनुचित बताया । 

         अंततः यह निर्णय हुआ कि नाभाग स्वयं जाकर अपने पिता से ही इस बात का निर्णय कराए । पिता नभग ने निर्णय दिया कि एक बार दक्ष प्रजापति के यज्ञ में ऋषियों ने निश्चय किया था कि यज्ञ के शेष भाग पर केवल रूद्रदेव का अधिकार होगा । अतः नभग ने अपने पुत्र को कहा कि यह शेष धन तुम उस पुरुष को सौंप दो क्योंकि इस धन पर पुरुषरूप धारण किए रूद्रदेव का ही अधिकार है । पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर नाभाग ने ख़ुशी ख़ुशी शेष धन उस पुरुष को दे दिया । 

       रुद्रदेव इस बात से बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने नाभाग को सनातन ब्रह्मतत्व का उपदेश दिया और साथ ही यज्ञ का शेष धन भी । उन्हीं भगवान शंकर की कृपा से नाभाग के घर भक्त अंबरीष का जन्म हुआ । 

           नाभाग पुत्र अम्बरीष भगवान के बड़े प्रेमी और उदार धर्मात्मा थे । अंबरीष मर्यादा भक्ति के आचार्य है । नाथद्वारा (राजस्थान) में विराजमान द्वारिकानाथ राजा अंबरीष के सेव्य ठाकुरजी है । अंबरीष राजा की संपत्ति भोग के लिए नहीं बल्कि भक्ति के लिए थी । अंबरीष  राजा की निष्ठा थी कि स्त्री और संपत्ति भोग के लिए नहीं, भक्ति के लिए होती है । उसी निष्ठा के कारण आज तक जो ब्रह्मशाप किसी के द्वारा रोका नहीं जा सका था, वह शाप अम्बरीष को स्पर्श तक नहीं कर सका । 

       अंबरीष = अंबर+ईश । अंबर अर्थात आकाश और ईश अर्थात ईश्वर । आकाश शरीर के अंदर भी है और बाहर भी है । जिसके अंदर और बाहर सभी स्थान पर ईश्वर है,वही अंबरीष है । "वासुदेव: सर्वम्" अर्थात् चारों ओर जिसे परमात्मा दिखाई दे, वही अंबरीष है ।  

      राजा अम्बरीष भगवान श्रीहरि के परम भक्त थे। वे पृथ्वी के सातों द्वीप, अचल सम्पत्ति और अतुल ऐश्वर्य के शासक होने पर भी इन्हें स्वप्नतुल्य समझते थे क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर मनुष्य घोर नरक में जाता है, वह केवल चार दिन की चाँदनी है।

      राजा अम्बरीष का भगवान श्रीकृष्ण में और उनके प्रेमी साधुओं में परम प्रेम था। उन्होंने अपने मन को श्रीकृष्ण के चरणों में, वाणी को भगवान के गुणों का गान करने में, हाथों को श्रीहरि के मन्दिर मार्जन में और अपने कानों को भगवान् की मंगलमयी कथा के श्रवण में लगा रखा था। उन्होंने अपने नेत्रों को श्रीहरि के विग्रह व मन्दिरों के दर्शन में, नासिका को उनके चरणकमलों पर चढ़ी तुलसीजी की दिव्य गन्ध में और जिह्वा (रसना) को भगवान के प्रति अर्पित नैवेद्य प्रसाद में संलग्न कर दिया था ।

         राजा अम्बरीष के पैर भगवान् के क्षेत्र आदि की पैदल यात्रा करने में ही लगे रहते और वे सिर से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की वन्दना किया करते थे। इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान् के प्रति, उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वरुप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार वे इस पृथ्वी का शासन करते थे।

        उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान् की आराधना की थी। उनकी प्रजा महात्माओं के द्वारा गाये हुए भगवान् के उत्तम चरित्रों का बहुत सम्मान करती। किसी समय बड़े प्रेम से श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती। इस प्रकार उनके राज्य के मनुष्य देवताओं के अत्यन्त प्रिय, स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करते थे । राजा अम्बरीष की अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनकी रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियों को भयभीत करनेवाला एवं भगवद्भक्तों की रक्षा करनेवाला है।

          ज्ञानमार्ग में इन्द्रिय रूपी द्वार बंद रखने पड़ते है । भक्ति मार्ग में सभी इंद्रियाँ भगवान के चरणों में लगानी पड़ती है । भगवान के चरणों में भक्त अपनी इन्द्रियाँ अर्पित करता है अर्थात् भक्त अपनी सारी इन्द्रियों का भगवान से विवाह कर देता है। भगवान ऋषिकेश (ऋषिक+ईश) इन्द्रियों के स्वामी है। अंबरीष राजा महान भक्त और मर्यादा भक्ति के आचार्य थे। वे अपने शरीर की प्रत्येक इन्द्रिय से भगवान की भक्ति करते है । 

           उनका मन भगवान के चरणों में,वाणी भगवद गुण-वर्णन में,हाथ हरि मंदिर की सफाई में,पाँव प्रभु के मंदिर-क्षेत्र में पदयात्रा के लिए, कान भगवान की उत्तम कथाओं के श्रवण में तथा दोनों नेत्र मुकुंद भगवान की मूर्तियों के दर्शन में व्यस्त रहते थे। मस्तक से वे श्रीकृष्ण को वंदन करते रहते थे। भगवान की सेवा में जो व्यक्ति अपना शरीर लगा देता है, उसका देहाभिमान कम होता है। 

       भक्तिमार्ग में धन और तन मुख्य नहीं है पर मन मुख्य  है । इसलिए अंबरीष महाराज कहते है- ‘मेरा मन सदा श्रीकृष्ण के चरण-कमल में लगा रहे’ । परमात्मा की सेवा में मन मुख्य है। सेवा का अर्थ है- सेव्य (श्रीकृष्ण) में मन को पिरोये रखना। सेवा का सम्बन्ध मन से है । शरीर से जो क्रिया की जाए, उन में यदि मन का सहकार नहीं होगा तो वह सेवा व्यर्थ होगी । 

       सेवा का आरम्भ मन से होता है। मन सूक्ष्म है, वह एक साथ जगत और ईश्वर के साथ सम्बन्ध नहीं रख सकता । मन को मनाओगे तो ही वह मानेगा, किसी दूसरे के उपदेश से नहीं । तुम स्वयं अपने मन को समझाओगे तो असर होगा । अपने मन को भला कोई दूसरा कैसे समझा सकता है ?

      राजा अंबरीष के इष्टदेव द्वारिकानाथ हैं, राजा होने पर भी स्वयं सेवा-पूजा करते हैं ।  घर में अनेक सेवक होने पर भी कहते हैं - ‘मैं तो ठाकुरजी का दास हूँ । उनकी सेवा स्वयं मुझे ही करनी चाहिए’ ।  दास्य-भाव में सेवा मुख्य है ।  भागवत कहती है - राजा अंबरीष  स्वयं ठाकुरजी के मंदिर की सफाई करते थे, भगवान के दर्शन के लिए वे नंगे पाँव जाते थे । राजा अंबरीष  सदा भगवान की सेवा में लीन रहते थे इसलिए भगवान को उसके राज्य की चिंता हुई । उन्होंने सुदर्शन चक्र को राज्य की रक्षा के लिए भेजा । 

                   संसार के कई कार्य अपने कर्मचारी, परिवार के सदस्य, मित्र अथवा अन्य किसी से भी करवाए जा सकते हैं परंतु चार काम व्यक्ति को स्वयं ही करने पड़ते हैं- भोजन, विवाह, ठाकुरजी की सेवा और मृत्यु । पेट उसी का भरता है, जो स्वयं भोजन करे । जो भोजन और सेवा स्वयं करता है, फल उसे ही मिलता है। विवाह  भी स्वयं को करना पड़ता है, तभी उसका वंश आगे बढ़ता है । दूसरे पंडित/पुजारी से कर्मकाण्ड आदि करवा सकते हैं परंतु भजन और भक्ति स्वयं के द्वारा की हुई ही फलदायी होगी । मरना भी स्वयं को पड़ता है, आपके स्थान पर कोई अन्य नहीं मर सकता । कहावत भी है कि स्वयं के मरने पर ही स्वर्ग मिलता है ।

राजा अम्बरीष का दिव्य एकादशी व्रत 

      एक बार उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिए एक वर्ष तक द्वादशी प्रधान एकादशी-व्रत करने का नियम ग्रहण किया । पुराणों में एकादशी के व्रत की बहुत प्रशंसा की गई है। एकादशी का व्रत सर्व-व्रत में श्रेष्ठ है । भगवान की आराधना के लिए मनुष्य भागवत व्रत करे तो सुखी होता है । वैसे आधुनिक विज्ञान के अनुसार महीने में एक या दो बार उपवास करने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है । 

         एकादशी का व्रत तीन दिन का बताया गया है । दशमी के दिन एक बार भोजन करे, हो सके तो दूध और चावल का आहार करें । एकादशी के दिन हो सके तो निर्जला व्रत करें, ऐसा न हो सके तो दूध या फल का आहार करें, ऐसा करने से व्रत का फल मिलेगा । व्रत करने का विचार दृढ होगा तो भगवान शक्ति देंगे और सहायता भी करेंगे ।  सत्यनारायण की कथा में लकड़हारे की बात आती है, जिसने अपने पास पैसे न होते हुए भी सत्यनारायण की पूजा एवं व्रत का संकल्प लिया और परमात्मा ने उसका संकल्प पूरा किया ।

         एकादशी के दिन घर में अन्न न पकाया तो क्या हुआ, कहीं उसका दर्शन तक न किया जाये । कहा जाता है कि इस दिन अन्न में सभी पापों का वास होता है। रात को एक-दो घंटे भजन करें । इस दिन पंढरपुर के विठ्ठलनाथ भी नहीं सोते। पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन - इन सभी ग्यारह को प्रभु में लगाये रखना ही एकादशी है । आजकल तो लोग एकादशी के दिन ग्यारह रसों को भोगते है और उसे किसी उत्सव का लघुरूप बना लेते है। ऐसा नहीं करना चाहिए, इससे एकादशी का फल नहीं मिलता ।  उपवास = उप+वास ।  उप का अर्थ है समीप और वास का अर्थ है, रहना । इस प्रकार  उपवास का अर्थ हुआ- प्रभु के समीप रहना, यही है सच्ची एकादशी । एकादशी के दिन परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य का चिंतन होना ही नहीं चाहिए । इस दिन मन सहित सभी इंद्रियों को एक परमात्मा की सेवा में ही लगा देना चाहिए ।

      द्वादशी के दिन एक बार भोजन करें। ब्राह्मण की सेवा के बाद प्रसाद ग्रहण करें । द्वादशी के दिन दो बार भोजन करने से एकादशी का व्रत  भंग होता है। विधिपूर्वक उपवास करने से पाप जलते है और तन-मन शुद्ध होते है। यदि विधिपूर्वक किया न जा सके तो मर्यादानुसार अन्नाहार का त्याग करके फलाहार करें । यह व्रत आरोग्य की दृष्टि से भी आवश्यक है ।

                 एक वर्ष तक के एकादशी व्रत की समाप्ति होने पर अम्बरीष ने कार्तिक महीने में तीन रात का उपवास किया और एक दिन यमुनाजी में स्नान करके भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की । तत्पश्चात् पहले ब्राह्मणों को स्वादिष्ट और अत्यन्त गुणकारी भोजन कराकर उन लागों के घर साठ करोड़ गौएं सुसज्जित करके भेज दीं । जब ब्राह्मणों को सब कुछ मिल चुका, तब राजा ने उन लोगों से आज्ञा लेकर व्रत का पारण करने की तैयारी की । उसी समय शाप और वरदान, दोनों ही देने में समर्थ स्वयं दुर्वासाजी उनके यहाँ अतिथि के रूप में पधारे ।

       राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से उनके चरणों में प्रणाम करके भोजन के लिए प्रार्थना की। दुर्वासाजी ने राजा अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत होने के लिए वे नदी तट पर चले गये । वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुना के पवित्र जल में स्नान करने लगे ।

             दुर्वासाजी यमुना जल में प्रवेश कर परमात्मा का ध्यान करते हुए मग्न हो गए । समय का उन्हें भान ही न रहा । वे ठहरे ब्राह्मण । जब भूख लगी, तब जाकर उन्हें राजा अम्बरीष के आमन्त्रण की स्मृति हुई । वे तत्काल ही यमुना जल से बाहर आए और राजमहल की ओर बढ़ चले ।

           इधर द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीष ने धर्म-संकट में पड़कर ब्राह्मणों के साथ परामर्श किया । राजा अम्बरीष ने कहा- ‘ब्राह्मण देवताओं ! ब्राह्मण को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना, दोनों ही दोष हैं। इसलिए इस समय जैसा करने से मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये।’ तब ब्राह्मणों के साथ विचार करके उन्होंने कहा- ‘ब्राह्मणों ! श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है तथा भोजन नहीं करना भी है । इसलिए इस समय केवल जल से पारण किये लेता हूँ ।’  ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीष ने जल पी लिया और फिर दुर्वासाजी के आने की बाट देखने लगे ।

            दुर्वासाजी आवश्यक कर्मों से निवृत होकर यमुनातट से लौट आये । जब राजा अम्बरीष आगे बढ़कर उनका अभिनन्दन कर रहे थे तभी दुर्वासाजी ने अनुमान लगाते हुए समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है । उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे । भूखा ब्राह्मण मानसिक संतुलन शीघ्र खो देता है । वे क्रोध से थर-थर काँपने लगे । उन्होंने हाथ जोड़कर सामने खड़े अम्बरीष से डाँटकर कहा – ‘अहो ! देखो तो सही, यह कितना क्रूर है । यह धन के मद में मतवाला हो रहा है । यह कैसी विष्णु भक्ति है इसकी ? भगवान् की भक्ति तो इसे छू तक नहीं गयी और यह अपने आप को को बड़ा समर्थ मानता है । आज इसने धर्म का उल्लघंन करके बड़ा अन्याय किया है । मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही इसने खा लिया है । अच्छा देख, तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ ।’

            यों कहते-कहते वे क्रोध से जल उठे । उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीष को मार डालने के लिए एक राक्षसी (कृत्या) उत्पन्न की । तत्काल ही वह राक्षसी आग के समान जलती हुई, हाथ में तलवार लेकर राजा अम्बरीष पर टूट पड़ी ।

              परमपुरुष परमात्मा ने अपने सेवक की रक्षा के लिये पहले से ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था । जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँप को भस्म कर देती है, वैसे ही चक्र ने दूर्वासा जी की कृत्या को जलाकर ढ़ेर कर दिया । जब दुर्वासा जी ने देखा कि मेरी बनाई हुई कृत्या तो जल कर राख हो रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये सब कुछ छोड़कर भाग निकले ।

        जैसे ऊँची-ऊँची लपटों वाला दावानल साँप के पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान् का चक्र तो दुर्वासाजी के पीछे लग गया है । तब दुर्वासाजी दिशा, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचे के लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्ग तक में गये, परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्य तेज-वाले सुदर्शन चक्र को अपने पीछे लगा देखा । जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला तब तो वे और अधिक डर गये । अपने प्राण बचाने के लिये वे देवशिरोमणि ब्रह्माजी के पास गये और बोले- ‘ब्रह्माजी ! आप स्वयम्भू हैं । भगवान् के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये‘।

          ब्रह्माजी ने कहा- ‘दुर्वासा जी ! मैं, शंकरजी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर आदि सब, जिनके बनाए नियमों में बंधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हम लोग संसार का हित करते हैं, उनके भक्त के द्रोही को बचाने में हम समर्थ नहीं हैं।’ जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार दुर्वासा को निराश कर दिया, तब भगवान के चक्र से संतप्त होकर वे कैलासवासी भगवान् शंकर की शरण में गए ।

         शंकर जी ने कहा- ‘दुर्वासाजी ! जिनसे पैदा हुए अनेकों ब्रह्माण्डों में हमारे जैसे हजारों चक्कर काटते हैं यह चक्र उन्हीं विश्वेश्वर का शस्त्र है । यह हम लोगों के लिए भी असह्य है । तुम उन्हीं की शरण में जाओ, वे भगवान ही तुम्हारा मंगल करेंगे ।’

              सब ओर से निराश होकर दुर्वासाजी श्रीहरि भगवान के परमधाम वैकुण्ठ की तरफ भागे । दुर्वासाजी भगवान के चक्र की आग से जल रहे थे । वे भगवान के चरणों में गिर पड़े । उन्होंने कहा-‘हे अच्युत ! हे अनन्त ! आप सन्तों के एकमात्र इच्छित हैं । प्रभो ! सम्पूर्ण जगत के जीवनदाता !! मैं आपका अपराधी हूँ । आप मेरी रक्षा कीजिए । आपका परम प्रभाव न जानने के कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्त का अपराध किया है ।  प्रभो ! आप मुझे बचाईए ।’

       श्री भगवान ने कहा - ‘दुर्वासाजी ! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ । अहं भक्त पराधीनो । मुझमें तनिक भी स्वतंन्त्रता नहीं है । जो भक्त; स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक आदि सबको छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें त्यागने का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ ? इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणों के लिये तपस्या और विद्या परम कल्याण के साधन हैं परन्तु यदि ब्राह्मण उदण्ड और अन्यायी हो जाय तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं । जो वैष्णव अनन्य भाव से मेरी सेवा करके मुझे अपना सर्वस्व अर्पण करता है, उसे मै अपना सर्वस्व का दान करता हूँ, मै भक्ताधीन हूँ ,मेरा चक्र इस समय राजा अंबरीष की आज्ञा के अधीन है ।’

               भगवान दुर्वासाजी को कह रहे हैं - ‘महाराज, तप और विद्या अति उत्तम है। फिर भी यदि उसे विनय-विवेक का सहारा न हो तो व्यर्थ ही है । आप तपस्वी है और आपके पास प्रबल शक्ति भी है, पर आपने उसका दुरुपयोग किया । आप जरा सोचें - क्या अंबरीष ने कोई अपराध किया था ? उनकी कोई भूल थी क्या ? उसने व्रत का पालन करने के लिए ही मात्र जलपान ही तो किया था, फिर भी आप उस पर क्रोधित हुए ।’ 

        भगवान आगे कहते हैं - ‘दुर्वासाजी ! सुनिए, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ । जिसका अनिष्ट करने से आपको इस विपत्ति में आना पड़ा है, आप उसी के पास जाइए । उनसे क्षमा माँगिए, तब जाकर आपको शान्ति मिलेगी । यदि भक्त राजा अंबरीष आपको क्षमा कर देंगे, तभी इस सुदर्शन चक्र की गति रुकेगी ।’ 

         सुदर्शन चक्र की ज्वाला से जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीष के पास आए और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजा के पैर पकड़ लिये । दुर्वासाजी की यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़ने से लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान् के चक्र की स्तुति करने लगे ।

       अम्बरीष ने कहा- ‘प्रभो सुदर्शन ! आप अग्निस्वरूप हैं । भगवान् के प्यारे, हजार दाँतवाले चक्र देव ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ । समस्त अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट कर देने वाले एवं पृथ्वी के रक्षक ! आप इस ब्राह्मण की रक्षा कीजिए । आप कृपा करके हमारे कुल के भाग्योदय के लिये दुर्वासाजी का कल्याण कीजिए । हमारे ऊपर यह आपका महान अनुग्रह होगा । यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्म का पालन किया हो, यदि हमारे वंश के लोग ब्राह्मणों  को ही अपना आराध्य देव समझते रहे हों, तो दुर्वासाजी की जलन मिट जाय । भगवान् समस्त गुणों के एक मात्र आश्रय स्थल हैं । यदि मैंने समस्त प्राणियों के आत्मा के रूप में उन्हें देखा हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो दुर्वासा जी के हृदय की सारी जलन मिट जाय ।’

      जब राजा अम्बरीष ने दुर्वासा जी को सब ओर से जलाने वाले भगवान् के सुदर्शन चक्र की इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थना से चक्र शान्त हो गया । जब दुर्वासा चक्र की आग से मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीष को अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे । 

              दुर्वासा जी ने कहा - ‘धन्य है ! आज मैंने भगवान् के प्रेमी भक्तों का महत्त्व देखा । राजन् ! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं । महाराज अम्बरीष ! आपका हृदय करुणा भाव से परिपूर्ण है । आपने मेरे ऊपर महान अनुग्रह किया है । अहो, आपने मेरे अपराध भुलाकर मेरी रक्षा की है । क्षमा माँगने वाले से क्षमा करने वाला श्रेष्ठ होता है । मैं, एक ब्राह्मण होते हुए भी अपने आचरण को भूल गया था । आपने आज सिद्ध कर दिया कि भक्त भगवान से भी बड़ा होता है ।’

       जब से दुर्वासा जी चक्र से जीवन रक्षा के लिए भाग रहे थे तबसे राजा अम्बरीष ने भोजन नहीं किया था । वे दुर्वासाजी के लौटने की बाट देख रहे थे । अब तो दुर्वासाजी उनके समक्ष शांत-भाव से खड़े हैं । उन्होंने दुर्वासाजी के चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया । दुर्वासा जी राजा अम्बरीष की सेवा से बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर आकाशमार्ग से प्रस्थान किया ।

       जब सुदर्शन चक्र से भयभीत होकर दुर्वासाजी भाग रहे थे, तबसे लेकर उनके लौटने तक एक वर्ष का समय बीत गया था । इतने दिनों तक राजा अम्बरीष उनके दर्शन की आकांक्षा से केवल जल पीकर रहे । दुर्वासा जी के जाने के बाद, उनके भोजन से बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्न को राजा ने सपरिवार ग्रहण किया ।

कुछ वर्ष बीतने पर राजा अम्बरीष ने अपने ही समान भक्त पुत्रों पर राज्य का भार छोड़ दिया और स्वयं वन में चले गए । वहाँ वे बड़ी धीरता के साथ आत्मस्वरूप भगवान् में अपना मन लगाकर गुणों के प्रवाहरूपी संसार से मुक्त हो गए ।

          अंबरीष की कथा में भी एक रहस्य है ।  अंबरीष शुद्ध भक्ति स्वरुप है । अतः चरित्र के आरम्भ में सभी इन्द्रियों की भक्ति बताई गई है ।अंबरीष का चरित्र एक भक्त का चरित्र है ।  भक्ति-मार्ग में दुर्वासा (दुर्वासना) बाधा उपस्थित करती है । “मै बड़ा हूँ और बाकी सब छोटे है”, ऐसी दुर्भावना दुर्वासना है । “मै दूसरो को सुख दूँगा” - यह  सदवासना है । सदवासना से भक्ति बढ़ती है,  दुर्वासना से भक्ति का नाश होता है । 

         मन में लेने की इच्छा दुर्वासना है और मन में देने की उपासना, सदवासना । भक्ति में अहं आये तो समझो, दुर्वासना आई है । अभिमान से क्रोध उत्पन्न होता है, और क्रोध से कृत्या - (कर्कश वाणी) - उत्पन्न होती है ।  

          कर्कश वाणी - कृत्या भक्ति को मारने जाती है तब ज्ञानरूपी सुदर्शन चक्र भक्ति को बचाने आता है । ज्ञान कृत्या को विनिष्ट करता है । यदि भक्ति शुद्ध हो तो कर्कशा वाणी उसका कुछ भी नहीं कर सकती । 

भक्ति की रक्षा सुदर्शन चक्र अर्थात ज्ञान करता है । 

            सभी में श्रीकृष्ण का दर्शन ही सुदर्शन है, भक्ति शुद्ध होगी तो ज्ञान-वैराग्य दौड़ते हुए आएँगे । भक्ति माँ है । ज्ञान और वैराग्य बच्चे है । जहाँ  माँ (शुद्ध भक्ति) होती है, वहाँ बच्चे (ज्ञान और वैराग्य) दौड़ते हुए आते है । 

जो सभी में समता-समभाव रखे - वही ज्ञानी है ।

सब में ईश्वर है - ऐसा ज्ञान सच्चा ज्ञान है । 

ईश्वर के स्वरुप में ज्ञान के बिना भक्ति नहीं आती, इसलिए भक्ति में ज्ञान जरुरी है । 

विषय के प्रति जब तक वैराग्य उत्पन्न नहीं होता तब तक भक्ति नहीं हो सकती । 

भक्ति सिद्ध हुई कि सभी शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त हो गया ।

      इसी के साथ अम्बरीष-चरित्र पर इस लेखमाला का समापन होता है । दास्य-भक्ति की प्रेरणा देने वाले इस लेख के अंत तक साथ बने रहने के लिये आप सबका हृदय से आभार ।

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल