पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष:
प्रत्येक जीव को उसकी देह में भगवान ने अंगों के रूप में कुछ इंद्रियाँ दी है । ये इंद्रियों जीव को संसार का ज्ञान कराती है और साथ ही उस ज्ञान का समुचित उपयोग करते हुए कर्म भी करती है । ज्ञान कराने वाली इंद्रियों को ज्ञानेंद्रियाँ और कर्म करने वाली को कर्मेन्द्रियाँ कहा जाता है । ज्ञानेन्द्रियाँ हमें विषयों का ज्ञान कराती हैं । संसार में शरीर से बाहर पाँच विषय सदैव उपस्थित रहते हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध । प्रत्येक जीव के पास इन विषयों का ज्ञान कराने के लिए कम से कम एक,और अधिक से अधिक पाँच इंद्रियाँ होती है । एक कोशिकीय जीव, अमीबा के पास केवल एक इंद्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) होती है, फिर भी उस एक इंद्रिय से वह पाँचों विषयों का ज्ञान और अनुभव कर लेता है । इस एक इंद्रिय से वह सभी कर्म भी कर लेता है । सर्वोत्तम जीव मनुष्य के पास इन विषयों का ज्ञान और उनका भोग कराने के लिए पाँच ज्ञानेंद्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों के साथ एक मन भी होता है । मन की भूमिका एक निदेशक की भाँति इंद्रियों के संचालन में रहती है ।
पाँच ज्ञानेंद्रियों में एक है - दर्शनेन्द्रिय, जिससे मनुष्य रूप का अनुभव करता है । नेत्र, उस ज्ञानेंद्रिय का अंग है । नेत्रों से जो दृश्य दिखलाई पड़ता है, वह उसकी दृष्टि कहलाती है । समस्त संसार की भौतिक वस्तुओं को इसी दृष्टि से देखा जाता है । प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य के लिए केवल भौतिक दृष्टि ही पर्याप्त है ? भौतिक दृष्टि से देखें तो प्यासे जीव को मरुस्थल में गर्मी की भरी दुपहरी में थोड़ी दूरी पर ही जल का स्रोत दिखलाई पड़ता है । प्यासा हरिण उस जल-स्रोत की ओर दौड़ता तो है परंतु वहां तक कभी भी पहुँच नहीं पाता क्योंकि वहाँ जल होता ही नहीं है, बल्कि जल का आभास होता है । जल के आभास होने को मृग मरीचिका कहा जाता है ।
मनुष्य भी कई बार मृग की भांति ऐसे ही भुलावे में आ जाता है । परंतु उसके भीतर एक ज्ञान-दृष्टि भी होती है, जो जल के आभास को स्पष्टतः देख सकती है । एक पशु और एक मनुष्य की दृष्टि में यही अंतर मनुष्य का पशु से श्रेष्ठ होना सिद्ध करता है । मनुष्य की दृष्टि और उसके चक्षुओं के बारे में और अधिक जानने के लिए हमें गंभीरता से चिंतन करने की आवश्यकता है ।
संसार को देखने के लिए आँखों का होना आवश्यक है । देखना भी दो प्रकार का होता है । एक तो होता है, दृश्य को देखना और दूसरा देखना होता है, किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा क्रिया का गहराई से अवलोकन करना, उसकी वास्तविकता को पहिचानना । सतही तौर पर देखें तो देखने का अर्थ केवल दृश्य को देखने से होता है । हमारा उस दृश्य की वास्तविकता तक पहुँचना तभी संभव होगा जब हम उसको अपनी ज्ञान-दृष्टि से देखेंगे । कई बार स्वचक्षुओं से जो देखा जाता है, वह सत्य के एकदम विपरीत होता है । उदाहरणार्थ मृगतृष्णा को ही लें, जिसे मृग- मरीचिका भी कहा जाता है । मृगतृष्णा को दृश्य रूप में देखें तो दूर कहीं जल की उपस्थिति का भान होता है परंतु उस स्थान तक पहुँचने पर अनुभव होता है कि वहां पर तो जल का नामोनिशान भी नहीं है । जल उस स्थान से उतनी ही दूर और आगे खिसक चुका होता है, जितनी दूर वह पहले से नज़र आ रहा था । प्रश्न उठता है कि क्या इन भौतिक नेत्रों से देखा गया दृश्य भी कभी असत्य हो सकता है ?
इस भौतिक संसार को, जोकि पांच महाभूतों से अस्तित्ववान हुआ है, उसको जानना इतना सरल नहीं है, जितना इसको सरल समझा जाता है । यही कारण है कि इस असत् संसार को ही सत् जानकर जीव इसके जाल में फँसकर अनंत काल तक छटपटाते हुए घूमता रहता है । संसार-चक्र देखने में बड़ा लुभावना और सुखदायी प्रतीत अवश्य होता है परंतु वास्तव में यह दुःखालय है ।
संसार को परमात्मा का आदि अवतार भी कहा जाता है । परमात्मा का आदि अवतार होते हुए भी यह दुःखदायी क्यों है ? देखा जाए तो दुःखदायी इस संसार को हमने ही बनाया है । जब तक हम इस संसार की वास्तविकता को समझ नहीं लेंगे, उससे भलीभाँति परिचित नहीं होंगे, तब तक इससे दुःख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलने वाला ।
संसार को देखने के लिए दो दृष्टियाँ होती है । दृष्टि का होने का अर्थ केवल भौतिक संसार के दृश्य को देखना नहीं है । इसलिए संसार को देखने के लिए दो प्रकार की दृष्टियों का होना आवश्यक है । मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों के पास तो केवल एक ही प्रकार की दृष्टि होती है परंतु परमात्मा ने मनुष्य को दो दृष्टियाँ उपलब्ध कराई है । मनुष्य के अतिरिक्त सभी प्राणी संसार को केवल भोग- दृष्टि से देखते हैं । इसी कारण से अन्य प्राणियों को भोग योनि कहा गया है । भोग- दृष्टि के लिए केवल स्वचक्षु पर्याप्त हैं ।
मनुष्य संसार को भोग-दृष्टि के साथ- साथ योग-दृष्टि से भी देख सकता है । योग-दृष्टि से देखने के लिए ज्ञान-चक्षु की आवश्यकता होती है । इस प्रकार स्पष्ट है कि मनुष्य के पास संसार को देखने के लिए दो प्रकार के चक्षु सदैव रहते है - स्वचक्षु और ज्ञानचक्षु । इन दो प्रकार के चक्षुओं के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार के चक्षु और होते हैं, जिनसे देखने की दृष्टि मनुष्य को किसी महापुरुष अथवा परमात्मा की कृपा से ही मिलती है । इन्हें दिव्य-चक्षु कहा जाता है ।
महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व महर्षि वेदव्यास महाराज ने दिव्यचक्षु संजय को दिए थे, जिससे देखकर वे धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर में बैठकर कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध का जीवित वृतांत सुना रहे थे । दिव्य- चक्षु भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाने से पूर्व दिए थे, जिससे दिव्य-दृष्टि पाकर वे भगवान के विश्वरूप का दर्शन कर सके थे । दिव्य-चक्षु प्रत्येक मनुष्य के भीतर नहीं रहते बल्कि इन्हें परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है । जहां तक ज्ञान-चक्षु की बात है, वे तो सभी मनुष्यों के भीतर उपस्थित हैं, केवल आवश्यकता है, उनको सक्रिय करने की । ज्ञान-चक्षु ही हमें संसार की वास्तविकता से परिचय करा सकते हैं । स्व-चक्षु तो सभी जीवों में होते ही हैं, जिनको चर्म-चक्षु भी कहा जाता है ।
स्वचक्षुओं का सम्बन्ध भौतिकता से होता है । असत् संसार की असत् वस्तुओं को चर्म-चक्षुओं के माध्यम से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । स्थूल शरीर के आवश्यक अंगों में एक अंग ये चर्मचक्षु (स्वचक्षु) हैं । स्वचक्षु हमारे शरीर की पाँच ज्ञानेंद्रियों में से एक इंद्रिय है । इसका विषय रूप है । रूप के मनमोहक दृश्य को दिखाते हुए यह जीव को उस दृश्य की ओर आकर्षित करती है । आकर्षण के वशीभूत होकर जीव रूप की ओर खींचा चला जाता है । आकर्षण के कारण वह उस रूप के प्रति आसक्त होकर उसको पाने की इच्छा करने लगता है ।
अपनी इस इच्छा को पूरा करने के लिए जीव कर्म करने को विवश होता है । जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक कर्म का फल मिलना अवश्यंभावी है । कर्म का परिणाम हमें सुख उपलब्ध अवश्य कराता है लेकिन यह सुख अधिक दिनों तक टिकता नहीं है । सुख का जीवन से इस प्रकार चले जाना मनुष्य को दुःखी कर देता है । सुख के दशक भी पल भर में बीतते नज़र आते हैं परंतु दुःख की दो घड़ियाँ भी मनुष्य को सदियों जैसी प्रतीत होती है । वैसे देखा जाए तो सुख-दुःख संसार में है ही नहीं, केवल मनुष्य की मानसिक दशा के कारण उसे कोई परिस्थिति सुखी करती है और कोई दुखी । मनुष्य सुखी पहले होता है और फिर दुःखी । प्रश्न उठता है कि इस प्रकार मिले उसके दुःख का कारण क्या है ?
स्वामीजी कहते हैं कि मनुष्य के दुःख का कारण सुख भोग की इच्छा है । सुख भोग की इच्छा भी क्या कभी दुःख का कारण बन सकती है ? स्वामीजी स्पष्ट करते हैं कि जो चाहा गया वह मिलता नहीं, जो मिलता है वह भाता नहीं है और जो भाता है, वह टिकता नहीं - मनुष्य के दुःख के यही तीन मुख्य कारण है । सुख भोग की इच्छा ही उसे दुःख के द्वार तक ले जाती है । इच्छाओं का त्याग ही मनुष्य के इस दुःख को मिटा सकता है । दुःख का चले जाना ही मनुष्य को सुख का अनुभव कराता है ।
सुख-दुःख का एक दूसरे के पीछे आना-जाना सतत चलता रहता है । मनुष्य सुख पाकर भी सुख को पूर्णतया भोग नहीं पाता क्योंकि मन में दुःख आने की आहट वह सदैव अनुभव करता रहता है । वह जानता है कि जो सुख उसे मिल रहा है, उसके बीत जाने पर दुःख का आना अवश्यंभावी है । उसका इस प्रकार जानना यह संकेत अवश्य ही करता है कि भोगदृष्टि के अतिरिक्त एक अन्य दृष्टि भी उसके भीतर है । इस संकेत को कोई बिरला ही समझ सकता है । यह संकेत मनुष्य के भीतर उपस्थित ज्ञानदृष्टि की ओर होता है । संकेत को समझकर जिसके ज्ञान नेत्र खुल जाते हैं, वह पल भर में ही संसार चक्र से मुक्त हो सकता है । सुखकी कामना ही उसके बंधन का एक मात्र कारण है, अन्यथा वह तो सदैव मुक्त ही है ।
मुख्य प्रश्न यह है कि ज्ञान चक्षुओं की ओर हमारी दृष्टि क्यों नहीं जाती ? मनुष्य एक विवेकी प्राणी है । विवेक का जाग्रत होना ज्ञान चक्षुओं के खुलने पर निर्भर करता है । ज्ञानचक्षु खुलने का उम्र, वर्ण, जाति, लिंग, परिस्थिति आदि से तनिक भी सम्बन्ध नहीं है । प्रायः लोग अपनी अवस्था, परिस्थिति आदि को ज्ञानदृष्टि न होने के लिए ज़िम्मेवार मानते हैं । इस तर्क में जरा सा भी दम नहीं है । हम सब इस संसार की भौतिकता में इतने अधिक आसक्त हैं हो गए हैं कि स्वचक्षुओं से देखे जाने वाले दृश्य के घेरे से बाहर निकल नहीं पा रहे हैं । जब तक हम स्वयं को असत् दृश्य के चक्र से बाहर नहीं निकालेंगे तब तक ज्ञान की ओर हमारी दृष्टि नहीं जा सकती । स्पष्ट शब्दों में कहूँ - वास्तव में हम जानबूझकर भौतिकता के चक्र से बाहर निकलना ही नहीं चाहते । संसार का आकर्षण अपने भीतर में छद्म सुख को समेटे हुए है, जो मनुष्य को बार-बार आश्वस्त करता है कि भविष्य में सुख मिलेगा । देह का अंत आते आते मनुष्य के लिए जीवन में सुख का आना मात्र मृग मरीचिका बनकर रह जाता है ।
यदा-कदा जब जीवन में विपरीत परिस्थिति अर्थात् प्रतिकूल परिस्थिति से दो- चार होना पड़ता है, तब कुछ समय के लिए ऐसा प्रतीत अवश्य होता है जैसे कि भीतर ज्ञानोदय हो रहा है । इसे मनुष्य जीवन की विडम्बना ही कहा जा सकता है कि प्रतिकूल परिस्थिति के दूर होते ही उसका पुनः अज्ञान के संसार में लौटना निश्चित हो जाता है । मनुष्य जीवन भर इसी उधेड़बुन में लगा रहता है कि ऐसा हो जाए तो फिर ज्ञान की ओर दृष्टि करूँगा, वैसा हो जाए तो परमात्मा की ओर चलूँगा परंतु दुर्भाग्यवश ऐसा-वैसा होना उसके जीवन में कभी सम्भव नहीं हो पाता ।
यह संसार मृग मरीचिका के अतिरिक कुछ भी नहीं है । यहाँ प्यासे को जल होने का आभास अवश्य होता है परंतु उसे जल मिलता नहीं है । जल मिले बिना प्यास बुझे तो कैसे बुझे ? प्यास बुझने के स्थान पर बढ़ती ही जाती है । जल के छायाचित्र (photo) को देखने से भला कभी किसी की प्यास बुझी है ? इस संसार में अपनी प्यास बुझाने के लिए, जिधर जल होने का आभास हो रहा है, उससे विपरीत दिशा की ओर चलना पड़ता है । संसार से सुख मिलना संभव ही नहीं है । सुख पाने के लिए संसार की दिशा से विपरीत दिशा पकड़नी होगी और यह विपरीत दिशा आपको परमात्मा तक ले जाती है, जोकि स्वयं ज्ञान स्वरूप हैं ।
लेख के प्रारम्भ में हमने तीन प्रकार के चक्षुओं की चर्चा की है । चर्म चक्षु, ज्ञान चक्षु और दिव्य चक्षु । तीनों ही प्रकार के नेत्रों से देखा जा सकता है । बस, केवल देखने की गुणवत्ता (quality) का अन्तर है । दृष्टि का यह गुणात्मक (qualitative) अंतर ही मनुष्य को भटकने से रोक सकता है । इसलिए भौतिक दृष्टि का उपयोग करते समय यदि साथ में ज्ञान दृष्टि को भी उपयोग में ले लिया जाय तो जीवन आनन्दमय हो सकता है । ज्ञान दृष्टि को उपयोग में लेना, केवल मनुष्य के अधिकार क्षेत्र में है अन्य जीवों के नहीं ।
मनुष्य में चर्मचक्षु का विकास गर्भावस्था में होता है और शिशुरूप से जन्म लेने के थोड़े दिनों बाद वह संसार को भली-भाँति देखने लगता है । पाँच भौतिक तत्वों में से एक, अग्नि इस ज्ञानेंद्रिय का प्रतिनिधित्व करती है और इसका विषय है, रूप और अधिदैव है, सूर्य । जो कुछ भी भौतिक जगत् में घटित हो रहा है, उसको दृश्य रूप से देखने का यह एक यंत्र है । इसीलिए इसको (नेत्र को) देखने का साधन अर्थात् करण कहा जाता है । मनुष्य को उससे देखने की शक्ति अधिदैव अर्थात् सूर्य के माध्यम से मिलती अवश्य है परंतु यह शक्ति स्वयं सूर्य की भी नहीं है । सूर्य के माध्यम से देखने की जो शक्ति हमें मिलती है वह सूर्य का प्रकाश है । प्रकाश के अभाव में नेत्रों के होते हुए भी संसार को देख पाना संभव नहीं होता । दृश्य को न तो नेत्र देख सकते हैं और न ही सूर्य । देखने की शक्ति जिसके पास है, वह इन दोनों (नेत्र और सूर्य) के माध्यम से दृश्य को देखता है । ऐसा शक्तिमान एक परमात्मा के अतिरिक अन्य कौन हो सकता है ?
मनुष्य में दूसरी प्रकार के चक्षु होते हैं - ज्ञान चक्षु । भौतिक रूप से वे शरीर में एक अंग के रूप में कहीं पर भी दृष्टिगत नहीं है । बुद्धि को ज्ञान का केंद्र माना जाता है, इसी बुद्धि में ज्ञान चक्षु का होना कहा जाता है । चर्म चक्षुओं की तरह इनका अस्तित्व नहीं है बल्कि सूक्ष्म रूप से इनका अस्तित्व होता है । दृश्य रूप से यह जगत् को स्वचक्षुओं की भाँति नहीं देख सकते परंतु जगत् का अनुभव कर सकते हैं । ज्ञान चक्षुओं का यह सांसारिक अनुभव चर्म चक्षुओं के दृश्य, रूप-दर्शन से सर्वथा भिन्न होता है । ज्ञान चक्षु से देखने की शक्ति सीधे ज्ञान स्वरूप (परमात्मा) के पास ही होती है । जब तक ज्ञान स्वरूप (परमात्मा) के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर लिया जाता तब तक ज्ञानचक्षु जाग्रत नहीं हो सकते ।
ज्ञानस्वरूप परमात्मा हैं । आप स्वयं इस भौतिक शरीर में परमात्मा के रूप में स्थित हैं परंतु शरीर और संसार के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने के करण आप अपने मूल स्वरूप को विस्मृत कर बैठे हैं । परमात्मा की कृपा से आप जब ज्ञान प्राप्त करने को उद्यत होंगे तभी ज्ञानचक्षु सक्रिय होंगे । योग्य गुरु का उपलब्ध हो जाना ही ज्ञान तक पहुँचने का सर्वोत्तम माध्यम है । यही कारण है कि ज्ञानप्राप्ति के लिए गुरु के सान्निध्य और सत्संग को महत्वपूर्ण माना गया है ।
चलिए ! ज्ञान की इसी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए श्रीमदभगवद्गीता के एक श्लोक का विवेचन करते हैं ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं -
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।। गीता-15/10।।
शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को, इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानी जन नहीं जानते, केवल ज्ञान रूप नेत्रों वाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्व से जानते हैं ।
“ विमूढ़ा नानुपश्यन्ति” अर्थात् अज्ञानी जन नहीं जानते । अज्ञानीज़न किस बात को नहीं जानते ? पूर्व में हमने एक लेख में अज्ञान की परिभाषा जानी थी । अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है बल्कि ज्ञान को पूर्ण और सही रूप से आत्मसात नहीं करना है अर्थात् अधूरे ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है । यह शरीर, जो कि संसार की ही तरह एक पदार्थ है, उसमें कोई न कोई क्रिया सतत चलती रहती है । इस क्रिया के कारण ही शरीर की अवस्थाएं परिवर्तित होती हैं । जैसे मैं बालक था, मैं युवा था, मैं प्रोढ था, मैं वृद्ध हो गया हूँ आदि सब शरीर की अवस्थाएँ ही है, जो हमें अनुभव में आती है । यह अवस्था परिवर्तन केवल शरीर में होता है, स्वयं में नहीं परन्तु स्वयं यह परिवर्तन अपने आप में होना मान लेता है । शरीर में सतत होने वाले परिवर्तन को जो “मैं” देख रहा है अर्थात् परिवर्तन को जो अनुभव करता है, वह “मैं” कभी बदलता नहीं है । अगर यह “मैं” भी बदलने वाला होता तो फिर शरीर में होने वाला परिवर्तन उस “मैं” के अनुभव में कैसे आ सकता है ? अर्थात् अनुभव में नहीं आ सकता । “मैं” का शरीर के साथ तादात्म्य होने के कारण वह शरीर को बदलता देखकर स्वयं को भी परिवर्तित होता देखने लगता है । यही उसका अज्ञान है ।
शरीर में स्थित होकर वह “मैं” उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है और विषयों को भोगता रहता है । जब शरीर वृद्ध हो जाता है, तब शारीरिक क्रियाएं मंद पड़ने लगती है और मनुष्य वर्तमान जीवन में अपनी कामनाऐं पूरी होने को संभव नहीं पाता । शरीर के सक्रिय रहते हुए वह जिन विषयों को भोगता रहता है, उम्र की इस ढलान पर आकर उन सबको भोगना संभव नहीं होता । विषयों को भोगना जब संभव नहीं होता तब उसे इस ऊर्जा विहीन होते जा रहे शरीर को छोड़ना पड़ता है । विवशतावश छोड़े गए शरीर के तत्काल बाद ही उसे किसी दूसरे नए शरीर की प्राप्ति हो जाती है । इस प्रकार शरीर में स्थित रहते हुए, विषयों को भोगते हुए और शरीर को छोड़कर जाते हुए - इन तीनों स्थितियों को जो अनुभव करता है, वह “मैं” है । इसी “मैं” को शरीरी, देही अथवा आत्मा नाम से कहा जाता है ।
इस प्रकार शरीर और आत्मा के अन्तर को अल्प रूप से स्पष्ट किया गया है । हमारे शरीर की तुलना में हमारी आत्मा को जानना अधिक महत्वपूर्ण है । हम आत्मा है, शरीर नहीं । इस बात को अज्ञानी जन नहीं जानते क्योंकि वे स्वयं को शरीर ही मानने लगे हैं । शरीर का सुख-दुःख, शरीर की अवस्थाएं और उसमें आने वाली अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि सब वह स्वयं में होना मानता है । जबकि वास्तविकता यह है कि इनमें से कोई भी “मैं” (स्वयं) तक नहीं पहुँच सकता ।
सुख-दुःख में सुखी-दुखी होना तब तक ही संभव होता है, जब तक हम संसार के साथ संलग्न रहते हैं । मूल पत्र जब अपने साथ कोई पत्रावली संलग्न कर लेता है, इसका अर्थ यह नहीं होता कि मूल पत्र खो जाता है । संलग्न पत्रावली मूल पत्र को स्पष्ट करने के लिए होती है परंतु संलग्न होने से वह मूल पत्र नहीं हो जाती । इसी प्रकार आत्मा के साथ संसार और शरीर के संलग्न होने का अर्थ यह नहीं है कि शरीर ही आत्मा हो गयी है । दुर्भाग्यवश विमूढ़ इस वास्तविकता को जान नहीं पाता । शरीर, आत्मा को जानने अर्थात् आत्मज्ञान की अवस्था तक पहुंचने का साधन मात्र है । यह बात जिस दिन हमारे समझ में आ जाएगी, संसार से हमारा स्वतः ही सम्बन्ध विच्छेद हो जाएगा ।
संसार में रचे बसे मनुष्य को सांसारिक ज्ञान मोहित कर लेता है । वह शरीर के सुख को स्वयं का सुख समझ लेता है । सांसारिक ज्ञान उसकी इस बात को सत्यता का छद्म आवरण प्रदान करता है । यही कारण है कि ऐसे मनुष्य जीवन भर भोग और संग्रह में लगे रहते हैं । अज्ञानी मनुष्य “एतावदिति निश्चिता:” (गीता-16/11) अर्थात् जो कुछ है, वह इतना ही है, ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं । इस बात को वे अपनी बुद्धि की इतनी अधिक गहराई में बिठा लेते हैं कि शास्त्र और संत की बातों का भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । जब तक वे स्वयं को जानने के लिए उत्सुक नहीं होंगे, तब तक अनन्त काल तक विभिन्न शरीरों की यात्राएं करते रहेंगे ।
शरीर और संसार प्रकृति के अंश है और आत्मा परमात्मा का अंश है । इसका अर्थ यह कदापि न लें कि प्रकृति और परमात्मा, एक दूसरे से भिन्न हैं । प्रकृति के जनक भी परमात्मा हैं और आत्मा के भी । प्रकृति क्रियाशील है और परमात्मा अक्रिय । परमात्मा को अक्रिय कहने से यह अर्थ नहीं है कि वे कुछ भी नहीं करते बल्कि अक्रिय कहने से अर्थ है कि वे स्वयं प्रकृति को सक्रिय कर उसके माध्यम से विभिन्न क्रियाएं करवाते है । इससे स्पष्ट है कि क्रियाएं केवल प्रकृति में होती हैं, परमात्मा में नहीं । परमात्मा स्वयं कहते हैं - “शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते” (गीता-13/31) अर्थात् शरीर में रहता हुआ भी मैं न तो कुछ करता हूँ और न ही किसी कर्म में लिप्त होता हूँ ।
शरीर में स्थित शरीरी/देही/आत्मा, वास्तव में परमात्मा ही है । शरीर प्रकृति हुई और आत्मा हुई परमात्मा । शरीर क्रियाशील है और आत्मा अक्रिय । शरीर की क्रियाशीलता को जब हम अपनी क्रियाशीलता मान लेते हैं, तब दोनों के मध्य का भेद समाप्त हो जाता है और हम स्वयं को ही शरीर होना मान लेते हैं । “अहंकार विमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते” (गीता-3/27), अपने अहंकार के कारण ही मनुष्य “मैं कर्ता हूँ”, ऐसा मान लेता है । वास्तव में सभी क्रियाएं प्रकृति में होती है । जब मनुष्य स्वयं को इन क्रियाओं का कर्ता मान लेता है, तब ये सब क्रियाएँ उसके कर्म कहलाती हैं ।
शरीर में स्थित आत्मा और मन, दोनों संयुक्त रूप से जीवात्मा कहलाते हैं । जीवात्मा ही कामनाओं के वशीभूत होकर शरीर में हो रही क्रियाओं की कर्ता बन जाती है । कर्ता बनकर किए जाने वाले कर्मों का परिणाम मिलना अवश्यंभावी है । कर्म की कर्ता जब जीवात्मा है तो फिर उस कर्म के परिणाम की भोक्ता भी जीवात्मा को बनना पड़ता है । शरीर को मिलने वाले सुख-दुःख, इन्हीं कर्मों का परिणाम होता है । स्वामीजी कहते हैं कि यह सुख-दुःख की इच्छा ही मनुष्य के बंधन का कारण है । बंधन में मनुष्य स्वयं बंधा है अन्यथा तो वह मुक्त ही है । बंधन कृति-साध्य है जबकि मुक्ति स्वतः सिद्ध है । स्वामीजी ने स्पष्ट किया है कि मुक्ति होती नहीं है, वह तो स्वतः सिद्ध है, जबकि बंधन होता है । वास्तव में देखा जाए तो बंधन है ही नहीं । संसार की चाहना करके ही हम बंध जाते हैं ।
कामना के कारण जीव संसार से बंधता है । संसार से बंधकर इस शरीर में रहते हुए वह सुख-दुःख भोगता है । जब शरीर ऊर्जा विहीन हो जाता है और उससे कामना पूर्ति की तनिक सी भी संभावना नज़र नहीं आती तब यह जीवात्मा उस शरीर को छोड़ दूसरे नए शरीर तक की यात्रा करती है । इस शरीर में रहते हुए, इस शरीर में रहकर विभिन्न विषय-भोग भोगते हुए और वृद्ध शरीर को छोड़कर जाते हुए गुणों से युक्त इस जीवात्मा के मूल स्वरूप को विमूढ़ मनुष्य नहीं जानते । मूढ़ मनुष्य इसलिए नहीं जानता क्योंकि उसके पास केवल स्वचक्षु (चर्मचक्षु) ही हैं । स्वचक्षु संसार को देख सकते हैं, शरीर को देख सकते हैं परंतु स्वरूप को नहीं देख सकते । स्वयं को (स्वरूप को) देखने के लिए शरीर के चक्षुओं को छोड़ भीतर के चक्षुओं को जाग्रत करना होगा, क्योंकि वे ही आपको ज्ञानदृष्टि प्रदान करते हैं ।
“विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष:” अर्थात् जिसको (जीवात्मा के स्वरूप को) विमूढ़ मनुष्य नहीं जानते उसको ज्ञानचक्षु से युक्त मनुष्य जान सकता है । हमने अभी तक जो विवेचन किया है, उससे स्पष्ट है कि स्वचक्षु (चर्मचक्षु) असत् है और असत् से केवल असत् को ही देखा और जाना जा सकता है । स्वचक्षु असत् है और संसार भी असत् है । एक असत् दूसरे असत् को देखकर उसमें मोहित हो जाता है । संसार का यह मोह मनुष्य को वास्तविकता से दूर ले जाता है । जब तक संसार की वास्तविकता से परिचित नहीं होंगे, तब तक स्वरूप की ओर दृष्टि नहीं जा पाएगी । विमूढ़ मनुष्य केवल नेत्रों से असत् को देख रहा है (पश्यंति) परंतु वह जिसको नहीं जान पा रहा है (नानुपश्यन्ति) वह सत् है । सत् को जानने के लिए ज्ञानचक्षु की आवश्यकता होती है । ज्ञान के माध्यम से ही ज्ञानस्वरूप को जाना जासकता है ।(पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष:) ।
शरीर और उसमें हो रही क्रियाओं से बाहर निकल कर, स्वयं को उन से दूर करके देखें तो अनुभव होता है कि वास्तव में हम कुछ भी नहीं करते हैं । इसीलिए कहा जाता है कि शरीर को जानना है तो शरीर से बाहर अर्थात् दूर यानि शरीर से भिन्न होकर देखें । हमारे द्वारा कुछ नहीं करने का अर्थ है कि हम भले ही अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए इन्हीं क्रियाओं को अपने द्वारा किया जानेवाला कर्म मान लें परंतु वास्तव में शरीर में क्रियाएं प्रकृति के गुणों के कारण स्वतः ही हो रही है । हम शरीर में होने वाली क्रियाओं के होने को अपने द्वारा कर्म “करना” कहते अवश्य हैं परंतु वास्तव में स्वयं के स्तर पर कुछ करते नहीं हैं क्योंकि क्रियाएं “करना” के अन्तर्गत नहीं है बल्कि “होना” के अन्तर्गत है । यही आत्मज्ञान है ।
स्वामीजी कहते हैं कि सर्वप्रथम हमें इस “करना” को “होना” में परिवर्तित करना होगा । इसका अर्थ है कर्म को करना न मानें बल्कि क्रियाओं को प्रकृति के गुणों के द्वारा होना मानें । आध्यात्मिक पथ की यह कठिन साधना है क्योंकि मनुष्य का अहंकार “करना” को “होना” में बदलने ही नहीं देता । करने को होने में परिवर्तित करने के लिए ही ज्ञानचक्षुओं की आवश्यकता होती है ।
“करना” में प्रकृति के पदार्थ और क्रिया को मेरी, मेरे लिए और मेरे द्वारा होना मानते हैं जबकि “होने” में हम स्वयं को प्रकृति से अलग कर लेते हैं । इसे ही संसार से सम्बन्ध विच्छेद करना कहते हैं । हमें स्वयं का ज्ञान तभी होगा जब हम जो हमारा नहीं है उससे सर्वथा अपने आप को अलग कर लेंगे । हम शरीर नहीं है बल्कि शरीर प्रकृति के पदार्थों से बना है । यह शरीर भी हमें हमारे कर्मों के कारण ही मिला है । जिस दिन हमारे सभी कर्म समाप्त हो जाएंगे, हम इस शरीर को भी छोड़ देंगे और आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाएंगे । यदि कर्म नष्ट नहीं होंगे तो इस शरीर की क्रियाएं धीरे धीरे मद्धम पड़ने लगेगी और यह शरीर तो छूट जाएगा परंतु फिर से एक नया शरीर मिलेगा ।
कर्म स्वयं के लिए नहीं करेंगे तो आवागमन के चक्र से बाहर निकल जाएंगे । ऐसा होना तभी संभव होगा, जब हम संसार को केवल स्वचक्षुओं से नहीं देखेंगे बल्कि साथ ही साथ ज्ञानचक्षुओं का भी उपयोग करेंगे । ज्ञान दृष्टि हमें संसार की वास्तविकता से परिचित कराती है । संसार और शरीर में रहते हुए, विषय भोग भोगते हुए और शरीर को छोड़कर जाते हुए को देखकर उसकी (संसार की) वास्तविकता का परिचय पा लेना ही वास्तव में जानना है । संसार की वास्तविकता को जानना ही “पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष:” है।
संसार और शरीर में सारे कार्य किसी के द्वारा किए नहीं जाते बल्कि प्रकृति के गुणों की उपस्थिति मात्र से संपन्न होते हैं । ये सब प्रकृति में होने वाली क्रियाएं मात्र हैं । शरीर के द्वारा संपन्न होने वाली ये क्रियाएं हैं - सुनना, देखना, स्पर्श का अनुभव करना, स्वाद का अनुभव होना और गन्ध को सूंघना । इन समस्त क्रियाओं में शरीर के भीतर उपस्थित मन की भूमिका आ जाती है, तब ये क्रियाएं ही कर्म बन जाती हैं । हम स्वयं शरीर से भिन्न हैं परंतु मन का आश्रय ले इन विषयों को भोगने लगते हैं । विषय-भोग उन विषयों के प्रति हमें आसक्त कर देता है, जिसके कारण बार बार उन्हीं विषयों को भोगने की कामना पैदा हो जाती है ।
विषय-भोग की कामना ही हमारे पतन का कारण बनती है । पतन कैसे ? हम अविनाशी हैं परन्तु कामनाओं के वशीभूत होकर बार-बार इस संसार में विभिन्न शरीर प्राप्त करते रहते हैं और हमारी यह यात्रा एक अंतहीन यात्रा बनकर रह जाती है । इस मनुष्य शरीर को प्राप्त कर हमें एक दुर्लभ अवसर मिला है कि उस अविनाशी स्वरूप को प्राप्त कर लें जिस अविनाशी के अंश हम हैं । परंतु शरीर के साथ बना तादात्म्य हमें इनसे मुक्त होने के स्थान पर और अधिक मज़बूती के साथ इनके साथ बांध लेता है । स्पष्ट है कि बंधन का मूल कारण हमारे द्वारा प्रकृति के गुणों के साथ संबंध बना लेना है ।
हम प्रकृति के गुणों के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं, तब प्रकृति में हो रही क्रियाओं को कर्म बनाकर स्वयं उसके कर्ता बन बैठते हैं । यह “करना” है । जब हम इन गुणों से परे चले जाते हैं, तब प्रकृति की क्रियाएं “करना” से “होना” में बदल जाती है । “करने” में मुख्यता स्वयं की कही जाती है, जोकि सत्य नहीं है क्योंकि “मैं” परमात्मा का अंश होने से अक्रिय है । “होने” में मुख्यता प्रकृति की रहती है, यह कथन सत्य है क्योंकि प्रकृति क्रियाशील है, उसमें प्रत्येक प्रकार की क्रिया होना संभव है ।
“करना” को “होना” में परिवर्तित कर लेना इतना सरल भी नहीं है । हमें संसार का सुख भी चाहिए और स्वरूप तक भी पहुंचना है, दोनों एक साथ होना संभव नहीं है । एक उत्तर दिशा है तो दूसरी दक्षिण । दोनों दिशाओं में एक साथ चलना असंभव है । साधना रत रहते हुए संसार के सुख को चाहना भी विमूढ़ता है । यही कारण है कि शास्त्र पढ़ते, सत्संग करते और साधन करते हुए भी हम भोग और संग्रह अर्थात् संसार से स्वयं को भिन्न अनुभव नहीं करते । केवल विवेक (ज्ञानचक्षु) का सदुपयोग ही इन दोनों (शरीर और स्वरूप) के अंतर को स्पष्ट करते हुए “करने” को “होने” में बदल सकता है । शरीर में रहते हुए जो “करना” होता है, वही स्वरूप में स्थित होते ही “होना” में परिवर्तित हो जाता है । विवेक के माध्यम से हमें मुख्य रूप से यही “जानना” है ।
जिनके ज्ञानचक्षु जाग्रत हो गए हैं, वे ज्ञानदृष्टि रखते हैं । ज्ञानदृष्टि से ही “करने” से “होने” की स्वीकार्यता होती है । ज्ञान की बस इतनी सी ही यात्रा नहीं होती है । स्वामीजी कहते हैं कि “होने” को स्वीकार करके ही संतुष्ट नहीं होना है । यह “होना” तो आध्यात्मिक पथ का एक पड़ाव मात्र है । लक्ष्य तो “है” को जानना है । “होना” जिस “है” के कारण होता है, उस “है” तक पहुँचना ही स्वरूप को जानना है । वह “है” ही पुरुषोत्तम है, उसी को परमात्मा कहा जाता है ।
ज्ञान जब उच्चावस्था को छू लेता है, तब “करना”, “होना” आदि सब का लोप हो जाता है और केवल “है” की सत्ता रह जाती है । प्रकृति और जीवात्मा का जो मूल स्रोत है, वह “है” ही है । जब ज्ञान “है” तक पहुंचता है, तब इस प्राप्त किए हुए ज्ञान का लोप भी विज्ञानमय परमात्मा में हो जाता है । फिर प्रकृति, पुरुष आदि के मध्य भेद मिट जाता है । शरीर, संसार आदि सब परमात्मा हो जाते हैं । सर्वत्र केवल एक परमात्मा की सत्ता ही रह जाती है फिर उस “है” के अतिरिक्त यहाँ कोई अन्य नहीं रहता । गीता में इसे “वासुदेव:सर्वम्” कहा गया है ।
वैसे “वासुदेव: सर्वम् “ अर्थात् सब कुछ परमात्मा ही है, इसका अर्थ है कि शरीर भी परमात्मा है परंतु उसमें जब तक क्रियाशीलता रहती है तब तक वह अक्रिय परमात्मा नहीं हो सकता । उसकी क्रियाशीलता मनुष्य के विश्राम की अवस्था प्राप्त करने पर ही समाप्त हो सकती है, उससे पूर्व नहीं । कहने का अर्थ है कि हमें अक्रिय होना है अर्थात् अपने लिए कुछ भी नहीं करना है । स्वामीजी कहते हैं कि अपने लिए करना ही बंधन है । ‘अपने लिए करना’ में कर्ताभाव और कृत्तत्वाभिमान रहता है, जबकि संसार की सेवा करने में ये दोनों ही नहीं रहते । इन दोनों से मुक्त होना ही कर्मबन्धन से मुक्त होना है ।
स्वामीजी एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहते हैं । वे कहते हैं कि स्वयं के लिए करना, बंधन है । संसार की सेवा करना, कर्मयोग है । प्रकृति के लिए करना ज्ञानयोग है और परमात्मा के लिए करना भक्तियोग है । स्वामीजी कहते हैं कि लेना ही लेना जड़ता है और देना चिन्मयता है । इनमें सबसे महत्वपूर्ण बात है - त्याग । संसार से मुक्त होना है तो जो कुछ संसार से लिया है, वह संसार को लौटा दें और नया लेना बंद कर दें । इस प्रकार संसार के लिए त्याग करना कर्मयोग हुआ । प्रकृति से लिया प्रकृति को दे देना, ज्ञानयोग हुआ और सब कुछ ईश्वर को दे दें तो यह भक्तियोग हुआ । इस प्रकार सब-कुछ त्यागकर संसार से मुक्त होंगे और स्वरूप तक पहुँच जाएंगे ।
संसार की सेवा करना कर्मयोग है । असत् का निषेध करना अर्थात् संसार को सच्चा न मानना ज्ञान योग है । परमात्मा को श्रद्धा और विश्वासपूर्वक सच्चा मानना भक्तियोग है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि संसार के लिए करना ज्ञान योग है, जानना ज्ञान योग है और परमात्मा को मानना भक्तियोग है । भक्तियोग में मानकर जानना होता है जबकि ज्ञानयोग में जानकर मानना होता है ।
ज्ञानदृष्टि से देखने में निषेध मुख्य है । संसार का निषेध करते ही स्वरूप तक पहुंचना हो जाता है । स्वरूप तक पहुंचने के लिए “नहीं” को हटाना पड़ता है । अगर “नहीं” को नहीं हटा सकते तो “है” का प्रकट होना असंभव है । ज्ञान का अर्थ यही है कि जो असत् है, उसको जान लेना । असत् को जान लेने के उपरांत जो ज्ञानदृष्टि में आता है, वह सब सत् है । यह संसार स्वचक्षुओं की दृष्टि में सत् अवश्य दिखलाई पड़ता है परंतु वह परिवर्तनशील होने के कारण असत् ही है । हमारी आसक्ति असत् को भी सत् जैसा दिखलाती है । आसक्ति हटते ही असत् संसार का लोप हो जाता है और शेष सत् रह जाता है । कहने का अर्थ है कि फिर यह संसार भी परमात्म स्वरूप हो जाता है और हम “स्व” में स्थित हो जाते हैं ।
इस प्रकार विवेचन के अंत में पहुँचकर स्पष्ट होता है कि स्वचक्षुओं से जो कुछ भी दिखलाई पड़ता है, वह सब कुछ असत् है । असत् की दृष्टि के पकड़ में असत् ही आ सकता है, सत् नहीं । ज्ञानदृष्टि से जब संसार को जाना जाता है, तब समझ में आता है कि सदैव बदलाव की अवस्था में अस्थिर रहने वाला, एक क्षण के लिए भी सत् नहीं हो सकता । सत् कभी भी बदलता नहीं है इसलिए उसका अभाव नहीं है और संसार प्रतिपल बदल रहा है, अतः उसका भाव नहीं है । स्वामीजी कहते हैं कि संसार के भाव में भी अभाव है और उसके अभाव में भी अभाव है, जबकि सत् का कभी अभाव हो ही नहीं सकता । गीता में कहा गया है - “ नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः” ।
इस प्रकार जो यात्रा “करना” से शुरू होती है, वह ज्ञान के माध्यम से “होना” होते हुए भक्ति में परिवर्तित होकर “है” तक पहुँच जाती है । “है” ही परमात्मा है । इस बात को अज्ञानीजन नहीं समझ पाते क्योंकि उनकी दृष्टि में दृश्यमान संसार ही एकमात्र सत्य है । ज्ञानदृष्टि रखने वाला ही संसार को सही रूप से देख और समझ सकता है । शरीर की ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से जो कुछ भी सुना, स्पर्श होता, देखा, चखा और सूंघा जाता है और कर्मेन्द्रियों से करना, बोलना,चलना आदि या फिर शरीर में रहना, उससे भोग भोगना और अंत में शरीर को छोड़ देना, इतना सब कुछ असत् शरीर के माध्यम से होता अवश्य है परंतु मूल रूप से इन सबका अनुभव होने के पीछे परमात्मा की ही महत्वपूर्ण भूमिका रहती है । जिस दिन ऐसा ज्ञान हो जाता है, तब सर्वत्र परमात्मा ही दिखलाई देने लगते हैं और संसार का लोप हो जाता है । संसार के लोप होने का अर्थ संसार के प्रति आसक्ति का लोप होना है । फिर संसार में रहते हुए भी हम उसकी प्रत्येक प्रकार की परिवर्तनशीलता से अप्रभावित बने रहते हैं ।
पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष: -17
भौतिक दृष्टि की पहुँच भौतिकता तक ही सीमित है । ज्ञान दृष्टि की पहुँच ज्ञान तक सीमित है । दिव्य दृष्टि की क्षमता असीम है । असीम तक असीम ही पहुँच सकता है, ससीम नहीं । भौतिकता में रमने के लिए स्वचक्षु ही पर्याप्त है । भौतिकता का अर्थ है, असत तक सीमित रह जाना । असत, असत के साथ को ही पसंद करता है । यही कारण है कि इस शरीर को ही स्वयं का होना मान लेने वाले मनुष्य को भौतिक दृष्टि ही रस प्रदान करती है । इसी दृष्टि के कारण वह भौतिकता के जाल में उलझा रह कर संसार के आवागमन-चक्र से बाहर निकल नहीं पाता । स्वचक्षु से दिखलाई पड़ने वाला दृश्य भौतिक है, जोकि सदैव परिवर्तनीय है । परिवर्तित होने का अर्थ है, स्थायित्व का अभाव । जो परिवर्तनशील है, वह सत् कैसे हो सकता है ? इसीलिए स्वचक्षु की भौतिक दृष्टि असत् है । अभी अभी देखा गया दृश्य अगले ही क्षण परिवर्तित हो जाता है अथवा जो दृश्य देखा गया है, वह दृष्टि उसकी उचित व्याख्या नहीं कर सकती । जैसे मृगमरीचिका में जल का दिखना या फिर रस्सी में साँप को देखना ।
संसार के आवागमन के चक्र को तोड़ने के लिए विवेक को जाग्रत करना होता है । विवेक के जागरण से मनुष्य को संसार की वास्तविकता स्पष्टतः दिखलाई पड़ने लगती है । फिर मृगमरीचिका में जल का अभाव दृष्टिगत होता है और रस्सी में साँप दिखलाई नहीं पड़ता । ऐसा देखना ज्ञानदृष्टि से ही संभव है । बुद्धि में विवेक छिपा रहता है । उस विवेक को जागृत करने में संसार के दुःख की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है । इसीलिए कहा जाता है कि व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग कर ज्ञानदृष्टि विकसित कर सकता है । ज्ञानचक्षु के खुलते ही संसार की भौतिकता का लोप हो जाता है और शेष जो रहता है, वही परमात्मा है । संसार के लोप होने का अर्थ यह नहीं है कि संसार नष्ट हो जाता है बल्कि उसका अर्थ है कि संसार से आसक्ति हटते ही वह भी परमात्मा हो जाता है ।
सार-संक्षेप
इस लेख में किए गए विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य इस संसार का सर्वोत्तम जीव है । मनुष्य को बनाने के पीछे परमात्मा की यही भावना थी कि वह स्वयं अपने स्वरूप को देख सके । स्वरूप को देखने के लिए केवल भौतिक चक्षु ही पर्याप्त नहीं होते । भौतिक चक्षु जिन्हें स्वचक्षु भी कहा जाता है, केवल संसार के लुभावने दृश्य को देखने के लिए ही होते हैं । इन चक्षुओं के होने का कारण मनुष्य को विषय भोग कराना है । परंतु मनुष्य जीवन केवल विषय भोग भोगने के लिए ही नहीं मिला है । विषयभोग से ऊपर उठते हुए उसे स्वयं के स्वरूप तक की यात्रा करनी है । इस यात्रा में आगे प्रगति करने के लिए उसके स्वचक्षु पर्याप्त नहीं है ।
मूढ़ मनुष्य स्वचक्षु से देखे गए दृश्य में ही आसक्त होकर रह जाता है और वह अपने वास्तविक स्वरूप को देखने से वंचित रह जाता है । जो मनुष्य अपने स्वरूप तक नहीं पहुँच पाता वह इस संसार के आवागमन चक्र से मुक्त नहीं हो पाता । स्वचक्षु केवल बाह्य दृष्टि प्रदान करते हैं । बाह्य दृष्टि केवल भौतिकता के दर्शन ही करवा सकती है, उसके माध्यम से हम अपने स्वरूप तक नहीं पहुँच सकते ।
जो दृष्टि स्वरूप तक पहुँचती है, उसे ज्ञान दृष्टि कहा जाता है । ज्ञान दृष्टि रखने वाले के पास ज्ञान चक्षु होते हैं । ऐसे व्यक्ति जीवन में किसी भी परिस्थिति से विचलित नहीं होते क्योंकि वे जानते हैं कि कोई भी परिस्थिति स्थाई नहीं है । विमूढ़ मनुष्य ऐसे ज्ञान की अवस्था तक पहुँच ही नहीं पाते । बुद्धि में छिपे विवेक को उपयोगी बनाना ही मनुष्य जीवन का ध्येय है । विवेक ही हमारी दृष्टि को भौतिकता के आकर्षक दृश्य से दूर हटा कर परमात्मा की ओर ले जाता है । विवेक अर्थात् ज्ञान चक्षुओं से देखें तो अनुभव होता है कि संसार के आकर्षण में न फँसकर सर्वत्र एक परमात्मा को देखना ही स्वयं से साक्षात्कार कर लेना है अर्थात् स्वरूप को देख लेना है । “पश्यंति ज्ञान चक्षुष:” कहने का अर्थ भी यही है ।
।। हरिः शरणम् ।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
No comments:
Post a Comment