Wednesday, April 5, 2023

न किञ्चिदपि चिन्तयेत्

  न किञ्चिदपि चिन्तयेत्

जो कुछ भी पढ़ा और संतों के सान्निध्य में रहकर सीखा उस पर मेरे द्वारा बहुत कुछ लिखा जा चुका है । जैसा कि आप जानते है, ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। परमात्मा भी असीम है, ज्ञानपूर्ण है। उनको जानना अगर असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है। उसे श्रम करके नहीं जाना जा सकता। उस तक पहुंचने के लिए तो विश्राम की आवश्यकता है। विश्राम के लिए बाहर भीतर से मौन होना एक मात्र विकल्प है।

       भगवान गीता में कहते हैं -

शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।

आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ।।6.25।।

शनैःशनैः अर्थात् सहसा नहीं क्रम- क्रम से उपरतिको प्राप्त करें। किसके द्वारा, बुद्धि द्वारा। कैसी बुद्धि द्वारा, धैर्य से धारण की हुई अर्थात् धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा। तथा मन को आत्मा में स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है, उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मन को आत्मा में अचल करके अन्य किसी वस्तु का भी चिन्तन न करे। यह योगकी परम श्रेष्ठ विधि है।

      इसी अवस्था की ओर अग्रसर होने के लिए सभी क्रियाओं को त्यागना होगा, लेखन को भी।तभी आगे की यात्रा पर बढ़ा जा सकेगा। इसलिए लेखन से कुछ समय के लिए विश्राम लेना आवश्यक है।

।। हरिः शरणम्।।

 

Tuesday, April 4, 2023

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा 

   स्वकर्म करते हुए व्यक्ति कर्मयोग के माध्यम से परमात्मा तक पहुंच सकता है।इस माध्यम में व्यक्ति के स्वभाव की भूमिका रहती है। दूसरा माध्यम है, ज्ञान का। ज्ञान प्राप्त करने में मनुष्य को स्वयं प्रयास करना पड़ता है और यह प्रयास है, परमात्मा को जानने का। ज्ञान योग में विवेक की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। कर्म और ज्ञान, दोनों ही मार्ग में प्रयास करना पड़ता है। कर्मयोग में स्थूल शरीर के माध्यम से प्रयास होता है जबकि ज्ञानयोग में सूक्ष्म शरीर से।

       उपरोक्त दोनों ही योग अपरा प्रकृति से सम्बंधित है। तीसरा योग है, भक्तियोग। इसमें संसार से अर्थात अपरा प्रकृति से संबंध विच्छेद करने के लिए परमात्मा के सम्मुख होना पड़ता है। इस योग में किसी भी प्रकार के प्रयास की आवश्यकता नहीं है।

      कर्म तो सभी जीव करते हैं परन्तु ज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल मनुष्य ही अधिकारी है। इसी प्रकार भक्ति भी केवल मनुष्य नाम का प्राणी ही कर सकता है। भक्ति से ज्ञान प्राप्त हो जाता है और ज्ञान से भक्ति। दोनों का परिणाम भी एक ही है -आत्मबोध। तभी गोस्वामीजी मानस में लिखते हैं -"भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा"। इसी विषय पर कल से एक नई श्रृंखला प्रारम्भ होने जा रही है।साथ बने रहें।

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा 

             ‘समः सर्वेषु भूतेषु’ लेखमाला को ज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि एक परमात्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा यहां है ही नहीं | यह अद्वैत सिद्धांत है | ज्ञान हो चाहे भक्ति, दोनों का एक ही लक्ष्य है, उस परमात्मा तक पहुँचना, जिससे हम अपने आपको अब तक अलग समझ रहे हैं | स्वरुप तक पहुँचने में मुख्य रूप से जो तीन मार्ग गीता में समझाए गए हैं, वे हैं – कर्म, ज्ञान और भक्ति-योग | मूल स्वरुप तक पहुँचने के बाद ही निश्चित होता है कि आपने उन तीनों में से किस एक साधन को मुख्यता दी है | स्वामीजी के अनुसार तीनों ही अपने आप में स्वतंत्र साधन है | भले ही प्रत्येक साधन अपने आप में स्वतंत्र साधन हो फिर भी तीनों एक दूसरे से सम्बंधित अवश्य ही है और परोक्ष रूप से निर्भर भी |

            कर्म-योग नैष्कर्म्यता की बात करता अवश्य है परन्तु इस अवस्था तक पहुँचने के लिए उसे ज्ञान अथवा भक्ति, दोनों में से किसी एक का साथ मिलना आवश्यक है | इन दोनों में से किसी एक का सहारा लिए बिना किसी का भी निष्काम होना संभव नहीं है | कर्म-योग ही एक मात्र ऐसा साधन है जो कमोबेश किसी दूसरे साधन पर निर्भर है अन्यथा ज्ञान और भक्ति, दोनों ही अपने आप में पूर्ण रूप से स्वतन्त्र साधन है | भक्ति-योग का साधक ज्ञान को भी उपलब्ध हो जाता है और ज्ञान-योग भी व्यक्ति को भक्ति तक ले जा सकता है |

              कोई भी जीव अपने जीवन में कर्म किये बिना रह नहीं सकता | जीव के द्वारा कर्म किए जाने के दो कारण होते हैं – प्रथम कारण, पूर्व जन्म के संस्कार के अनुसार कर्म करना और दूसरा, अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए कर्म करना | बुद्धि प्रत्येक प्राणी में होती है और मनुष्य में तो यह अधिक विकसित अवस्था में होती है | जब व्यक्ति अपनी बुद्धि का उपयोग कर कर्म करना प्रारम्भ करता है, तब वह सकाम कर्म से निष्कामता की ओर जा सकता है | निष्काम कर्म करते हुए वह उस स्वरुप को भी पा सकता है, जिसको पाने के लिए उसे यह मनुष्य जन्म मिला है | इसी कारण से स्वामीजी ने कर्म-योग को भी स्वतन्त्र साधन बताया है |

            कर्म-योग में कर्मों का त्याग नहीं किया जाता बल्कि कर्मों की प्रकृति को परिवर्तित किया जाता है | स्वार्थबुद्धि का त्याग करते हुए निस्वार्थ भाव से प्रत्येक प्राणी के हित में कर्म करना ही कर्म-योग का आधार है | ऐसे कर्म जो बिना किसी परिणाम की चाहना के किये जाते हो अर्थात बिना किसी कामना के कर्म किये जाते हों, वे सभी कर्म निष्काम कर्म कहलाते हैं | ज्ञान-योग और भक्ति-योग में भी कर्म किये जाते हैं, कर्मों का त्याग वहां भी नहीं होता क्योंकि प्रकृति के गुणों के कारण संसार में प्रत्येक प्राणी कर्म करने को विवश है | ज्ञानी और भक्त भी उनसे परे नहीं है परन्तु उनके द्वारा किये जाने वाले कर्म स्वतः ही अकर्म बन जाते हैं अर्थात वे कर्म संचित होते नहीं है और न ही इनका कोई प्रारब्ध बनता है क्योंकि उनके द्वारा किये जाने वाले कर्म बिना किसी कामना और फल की इच्छा से किये जाते हैं | 

               जब ज्ञान और भक्ति, दोनों ही मार्ग परमात्म स्वरुप का साक्षात्कार करा देते हैं, तो फिर उनको अलग अलग नाम से क्यों कहा गया है ? हाँ, यह सत्य है कि दोनों मार्ग पर चलने वाले यात्री एक ही लक्ष्य तक पहुंचते हैं, इसलिए उनमें कोई भेद होता नहीं है फिर भी इन दोनों मार्गों के मोड़ और धरातल में भिन्नता अवश्य है | गोस्वामीजी भी मानस में लिखते हैं –

भगतिहि ग्यानहि नहीं कछु भेदा | 

उभय हरहिं भव संभव खेदा ||7/115/13||

अर्थात ज्ञान और भक्ति में कुछ भी अंतर नहीं है, दोनों का परिणाम समान है | दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हरने वाले हैं | क्लेश भी संसार से बंधन रखने पर उत्पन्न होते हैं।

           फिर वे कौन से कारण है, जिनके कारण ज्ञान और भक्ति को अलग अलग नाम से बतलाया जाता है | दोनों ही मार्ग व्यक्ति को संसार से मुक्त करते हैं | परिणाम स्वरुप मुक्त होने की अवस्था को प्राप्त करने में दोनों साधन समान है परन्तु मुक्ति की अवस्था के पूर्व और मुक्त हो जाने के पश्चात् दोनों में कुछ भिन्नता अवश्य है | एक मार्ग तो सीधा और सरल है – भक्ति; और दूसरा मार्ग कठिन और परिश्रम वाला मार्ग है –ज्ञान | एक में केवल परमात्मा की सत्ता को मानना होता है जिसमें संसार से विमुख हुआ जाता है – भक्ति; और दूसरे में परमात्मा को जानने का प्रयास करते हुए संसार की नश्वरता को स्वीकार करना होता है – ज्ञान | मानस में ज्ञान मार्ग को कृपाण की धार पर चलने के समान बताया गया है, जिससे गिरने में देर नहीं लगती जबकि भक्ति-मार्ग को उसकी तुलना में अधिक सुगम बताया गया है | ऐसे कई सूक्ष्म अंतर मानस में काकभुशुण्डि जी के माध्यम से गोस्वामीजी ने बतलाए है |

           जीवन्मुक्ति की अवस्था के पूर्व रास्ते चाहे कठिन हो अथवा सुगम, लक्ष्य तक दोनों मार्ग ही पहुंचा देते हैं | लक्ष्य तक पहुँचने के कई मार्ग हो सकते हैं और उनमें से किसी भी एक मार्ग, जो हमें स्वयं के लिए उपयुक्त प्रतीत होता हो; का चयन करके हम लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं | दोनों मार्ग समानान्तर चलते हुए भी एक दूसरे से स्थान स्थान पर जुड़ते भी रहते हैं | इस कारण से ज्ञान मार्ग पर चलने वाला भी भक्त हो जाता है और भक्ति मार्ग पर चलने वाला ज्ञानी | मुक्ति के बाद मनुष्य के जीवन में जो परिवर्तन आता है, वही ज्ञान और भक्ति के मुख्य अंतर को स्पष्ट करता है | चलिए ! इसी अंतर को जानने के लिए विवेचन को आगे बढाते हैं |  

          ‘समः सर्वेषु भूतेषु’ लेख माला का निष्कर्ष एकदम स्पष्ट है कि एक परमात्मा ही सर्वत्र है, ठीक उसी प्रकार जैसे बर्फ में जल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | आप बर्फ के टूकडे का कोई सा भी भाग ऐसा नहीं बता सकते जहाँ जल की उपस्थिति न हो | जल से ही बर्फ बनी है फिर भी उसमें जल दिखलाई नहीं पड़ता | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जल ही बर्फ के रूप में परिवर्तित हुआ है | इसी प्रकार परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है परन्तु उनकी उपस्थिति हमें अनुभव में नहीं आती | परमात्मा ही जगत में विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ है |

         परम श्रद्धेय स्वामीजी कहते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता का सार ‘वासुदेव सर्वम्’ है जिसका अर्थ है कि एक वासुदेव के अतिरिक्त कोई दूसरा कहीं पर भी नहीं है | "चलिए ! इस सर्वत्र वासुदेव के होने की बात को भी स्वीकार कर लेते हैं परन्तु इस स्वीकार्यता का परिणाम क्या होगा ?" ऐसा मेरे एक मित्र पूछते हैं | परिणाम जानना है, तो जान लीजिए - इस बात को स्वीकार कर लेते ही हमारी जीवन शैली ही पूर्णरूप से परिवर्तित हो जाएगी, जिसके परिणाम भी आश्चर्य जनक होंगे | जीवन में जिस शांति की हम जन्म-जन्मान्तर से प्रतीक्षा कर रहे थे, वह शांति हमें तत्काल ही उपलब्ध हो जाती है |

              तत्काल ही पूरक प्रश्न सामने आ जाता है कि इस शांति को हम अनुभव किस रूप में कर सकते हैं ? बड़ा ही गूढ़ प्रश्न है, यह | प्रश्न का उत्तर वही जान सकता है, जिसने इस निष्कर्ष को स्वीकार किया है कि सर्वत्र एक परमात्मा ही है | ‘समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्’ का अनुभव होना, आपको समस्त प्राणियों में समान रूप से परमात्मा को देखना सिखा देता है | यह मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन का प्रथम अनुभव होगा | इस अनुभव के बाद इस जीवन में जो अंतिम अनुभव होता है वह है जीवन मुक्त होने का | जीवन्मुक्ति ही वास्तव में मुक्ति है, जो हमें संसार से मुक्त कर वास्तविक स्वरुप के दर्शन कराती है |

              जीवनमुक्त होना ही जब ज्ञान और भक्ति की पराकाष्ठा है तो फिर मुक्ति के बाद इस शरीर के रहने तक आगे की जीवन यात्रा कैसी होगी ? स्मरण रखें, जीवन मुक्त होना मनुष्य के सांसारिक जीवन की यात्रा का अंतिम पड़ाव है | इस स्थान पर पहुंचकर सांसारिक यात्रा समाप्त हो जाती है | फिर शरीर के रहने तक जगत में नाम मात्र की उपस्थिति रहती है और शरीर के छूटते ही आप स्वयं ही परमात्मा हो जाते हैं | इसका अर्थ यह नहीं है कि भौतिक शरीर परमात्मा नहीं है | वह भी परमात्मा है परन्तु वह उसका अविनाशी स्वरुप नहीं है बल्कि नाशवान रूप है | हमारी संस्कृति के रोम रोम में यह बात रची-बसी है तभी तो शवयात्रा को आते देखकर लोग-बाग़ सभी काम छोड़कर खड़े हो जाते है और शव को प्रणाम करते हैं | यह प्रणाम शव को नहीं बल्कि उस परमात्मा को है जोकि उस शव में भी समान रूप से उपस्थित है |

            प्रश्न यह उठता है कि जीवन में मुक्त हो जाने के बाद व्यक्ति आगे किस अवस्था को उपलब्ध होता है ? संतजन कहते हैं कि इस अवस्था तक पहुँचने के लिए तीन योग हैं जोकि गीता में स्पष्ट किये गए हैं – कर्म, ज्ञान और भक्ति-योग | मुक्त होने में इन तीनों योग की अपनी अपनी भूमिका रहती है | इन तीनों का परिणाम परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाना ही कहा गया है अर्थात ‘वासुदेव सर्वम्’ का ज्ञान हो जाना |

           ‘वासुदेव सर्वम्’ का ज्ञान हो जाना ही हमें संसार से मुक्त करता है | हम मुक्त होते हैं संसार से, परमात्मा की माया से, उस उलझन से जिसके कारण अब तक हम संसार के जाल में फंसे पड़े थे | फंसे हम स्वयं अपनी इच्छा से और मुक्त भी हम अपनी इच्छा से होते हैं | कहने का अर्थ है कि मुक्त होने के लिए इच्छा का होना सबसे महत्वपूर्ण है |

              मुक्त हो जाने के पश्चात् व्यक्ति दो अवस्थाओं में से किसी एक अवस्था को उपलब्ध होता है – मौन हो जाने की अवस्था अथवा भक्त हो जाने की अवस्था | दोनों में से कौन सी एक अवस्था को साधक उपलब्ध होता है, यह उसकी प्रकृति पर निर्भर करता है | हाँ, साधक की प्रकृति पर, क्योंकि जब तक शरीर है तब तक प्रकृति का साथ छूट ही नहीं सकता | हमारा स्वभाव ही हमारी प्रकृति है | जीवन मुक्त हो गए तो क्या हुआ ? संसार के बंधन से ही तो मुक्त हुए हैं परन्तु रह रहे तो इसी संसार में ही हैं | जब तक संसार में रह रहे हैं तब तक यहाँ इन दो अवस्थाओं में से किसी एक अवस्था में बने रहना होगा | शरीर छूट जाने के पश्चात् तो इन दोनों अवस्थाओं का भी लोप हो जाना है और उसी सागर में मिल जाना है जिस सागर ने स्वयं को बूँद के रूप में परिवर्तित कर हमें यह आकार दिया है | 

          पहले बात करते हैं, उस प्रथम अवस्था की जो ज्ञान मार्गी को उपलब्ध होती है - मौन की अवस्था, जोकि संसार से मूक हो जाने की अवस्था है | जिस आनंद को वह अब उपलब्ध हुआ है, उसे किस किस को कहे, कैसे कहे और क्यों कहे ? जिसने उस आनंद का रस चख लिया है, केवल वही उस मिठास को जान सकता है | भला केवल कहने से उस मिठास का अनुभव कोई दूसरा कैसे कर सकता है ? जो शर्करा अथवा गुड खाएगा वही तो उसकी मिठास को अनुभव कर पायेगा ! क्यों कहेगा वह सब के पास जाकर ? वह अपनी उपलब्धि पर मौन हो जायेगा, गूंगा बन जायेगा | परमात्मा के प्रेम के रस को केवल अनुभव ही किया जा सकता है, किसी को बतलाया नहीं जा सकता | तभी तो कबीर ने कहा है -

    अकथ कहानी प्रेम की, कहत कही न जाय |

    गूंगे केरी सरकरा, खाय और मुसकाय ||

          मूक हो जाने से अर्थ है – परमात्मा में स्वयं को खो देना | केवल एक परमात्मा उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं | जैसे बूंद समुद्र में जाकर खो गयी हो | नहीं, भला बूँद समुद्र में कैसे खो सकती है ? जिस दिन एक-एक कर प्रत्येक बूँद का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा उस दिन स्वयं समुद्र भी खो जायेगा | बूँद के समुद्र में मिलने से अर्थ है - उस बूँद का ही समुद्र हो जाना |

       बूँद से ही समुद्र का अस्तित्व है और समुद्र के कारण ही बूँद का | तभी कबीर कहते हैं –

       हेरत हेरत हे सखी, रहा कबीर हैराय |

       बूँद समाई समुद्र में, अब कित हेरी जाय ||

      हे सखी ! मुझे समुद्र में बूंद को ढूँढते ढूँढते आश्चर्य हो रहा है कि जब बूँद समुद्र में समा ही गयी तो भला उसको अब ढूँढा ही कैसे जा सकता है ? वास्तव में बूँद समुद्र में केवल समाई ही नहीं है, बल्कि वह स्वयं ही समुद्र हो गयी है | ऐसे में समुद्र में उस बूँद को ढूँढना भला संभव कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार परमात्मा में स्वयं को बूँद की तरह ढूंढते ढूंढते समुद्र में बूँद की तरह एक दिन 'मैं' भी खो जाता है।

        जब कबीर को ज्ञान हुआ कि बूँद समुद्र से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं है बल्कि वह स्वयं ही समुद्र है, तब उन्होने अपने पूर्वलिखित दोहे में संशोधन करते हुए नया दोहा लिखा |

      हेरत हेरत हे सखी रहा कबीर हैराय |

     समुद्र समाया बूँद में, अब कित हेरी जाय ||

     अर्थात सागर की अनन्त गहराइयों में समाई बूँद को ढूंढते ढूंढते मैं तब आश्चर्य से भर गया जब मैंने देखा कि जिस बूँद को मैं ढूंढ रहा था, वह तो स्वयं ही समुद्र है | भावार्थ है कि "मैं" के खोने से ही परमात्मा को पाया जा सकता है। स्वयं में और परमात्मा में तभी तक अंतर बना रहता है, जब तक "मैं" की सत्ता को हम महत्व देते हैं अन्यथा  एक परमात्मा के अतिरिक्त यहां  कुछ भी नहीं है।  

            संसार में रहते हुए हम स्वयं को उस बूँद के समान समझते हैं जोकि समुद्र से स्वयं को अलग मानती है | जिस दिन बूँद को यह ज्ञान हो जाता है कि वह भी समुद्र है, तब संसार उसके लिए गौण हो जाता है | इसी प्रकार संसार भी उसी परमात्मा का भाग है परन्तु संसार का स्वयं को अस्तित्वमान मान लेना ही उसकी भूल है | अस्तित्व एक समुद्र (परमात्मा) का ही है और उसी एक के होने के कारण ही संसार और शरीर (बूँद) का अस्तित्व है | 

        यह ज्ञान की पराकाष्ठा है | इस शिखर को जिसने छू लिया वही निरुत्तर हो गया | फिर न तो कोई प्रश्न रहा और न ही कोई उत्तर | इस अवस्था मैं मौन हो जाने के अतिरिक्त कोई भी विकल्प नहीं रह जाता है | भगवान् बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, उसके बाद वे भी एक बारगी मौन हो गए थे | 

        इस प्रकार के मौन धारण कर लेने के पीछे दो कारण रहते हैं | प्रथम – जिसको आप इतने वर्षों तक ढूंढ रहे थे, खोज रहे थे वह तो आपके स्वयं के भीतर ही था | भीतर भी क्यों कहे आप स्वयं भी वही हो जिसको आप इतने प्रयास करते हुए खोज रहे थे | ऐसा होना आपको विस्मित कर देता है और विस्मय की अवस्था में व्यक्ति मूक हो जाता है, उससे कुछ कहते नहीं बनता | वह तो केवल अपनी प्राप्ति का भीतर ही भीतर आनंद लेता रहता है |

          मौन धारण कर लेने के पीछे दूसरा कारण है – अखंड आनंद की अवस्था को उपलब्ध हो जाना | परमात्मा के प्रेम में व्यक्ति आकंठ डूब जाता है कि फिर वह उस अवस्था से बाहर निकलना ही नहीं चाहता | इस अखंड रस का पान करते रहना ही उसे मूक अवस्था में ले जाता है | वाणी इस परमात्मा के प्रेम के रसास्वादन में बाधा बन सकती है, इसलिए मूक बने रहना ही सर्वोत्तम है |

           संसार में रहते हुए संसार की तरफ से उदासीन हो जाना ही व्यक्ति का मौन हो जाना है | संसार से मौन हो जाना किसी साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं है | आप जीवन में चाहे जितना मौन होने का प्रयास करें, संसार का आकर्षण और उसकी विषमताएं आपको सुगमता से मूक दर्शक नहीं बने रहने देगी | यही कारण है कि राजकुमार गौत्तम संसार की विषमताओं को देखकर राजमहल छोड़ जंगल में चले गए थे | जंगल में जाकर भी अगर संसार का स्मरण बना रहता तो सिद्धार्थ कभी गौत्तम बुद्ध नहीं बन सकते थे | भौतिक संसार से दूर चले जाना और दूर जाकर संसार का ही चिंतन करते रहना महत्वहीन है क्योंकि जो संसार पहले बाहर था वह अब भीतर रहकर अपना काम कर रहा है | संसार जहाँ भी रहेगा उसका आकर्षण छूट ही नहीं सकता | इसलिए आवश्यक है कि भीतर के संसार से मुक्त हुआ जाये, फिर बाहर के संसार का लोप स्वतः ही हो जायेगा ।

             सिद्धार्थ गौत्तम जब तक बुद्धत्व को प्राप्त नहीं हो गए थे तब तक उनको एक दिन के लिए भी अपने राज्य और महल का स्मरण नहीं हुआ था | जब उनको परमज्ञान हो गया तब फिर उनके लिए जगह-जगह भटकते रहने का कोई कारण नहीं रह गया था | उसके पश्चात् वे अपने राज्य में लौट आये थे परन्तु उनका लौटना स्वयं के सुख के लिए न था और न ही परिजनों के आकर्षण के कारण वे वहां लौटे थे | न ही वे राज्य प्राप्त करने के लोभ में लौटे थे और न ही उनका अपनी पत्नी तथा पुत्र के प्रति कोई आसक्तिभाव था जो उन्हें वहां खींच लाया था |

            उनका लौटकर आना और मूक हो जाना, दोनों ही एक दूसरे के अवश्य ही विरोधाभासी प्रतीत हो सकते हैं | वे संसार में लौटे अवश्य थे परन्तु उनके स्वयं के भीतर कोई संसार नहीं था अर्थात वे संसार की ओर से मौन हो चुके थे | भीतर संसार का प्रवेश हो जाना (संसार के प्रति आसक्ति) ही प्रत्येक के दुःख का कारण है | वे संसार की विषमता का महत्वपूर्ण और एकमात्र कारण जान चुके थे कि सुख की कामना ही मनुष्य को दुःख की ओर ले जाती है ।उसका यह दुःख ही संसार को विषम बनाता है | उन्होंने दुःख का कारण खोज लिया था और उसके निवारण का उपाय भी | इतना जान लेने के बाद आप चाहे संसार में रहो अथवा जंगल में, कुछ भी फर्क नहीं पड़ता |

            गौत्तम बुद्ध के लौट आने पर पत्नी यशोधरा ने उनसे पूछा - "क्या आपने जो वहां पाया था यहाँ रहकर नहीं पाया जा सकता था ?" बुद्ध के पास उत्तर अवश्य था | वे यशोधरा की बात से इंकार कैसे कर सकते थे क्योंकि वे जानते थे कि जो सर्वव्यापी है, जिसका कहीं पर भी अभाव नहीं है, उसको प्रत्येक स्थान पर पाया जा सकता है | इसलिए वे पत्नी के इस प्रश्न पर निरुत्तर हो गए | निरुत्तर होने का अर्थ यह नहीं है कि वे अपने मौन को अभिव्यक्ति नहीं दे सकते थे | दे सकते थे, परन्तु जब किसी की कही बात लेशमात्र भी सत्य हो तो निरुत्तर बने रहना ही श्रेष्ठ है | भगवान् बुद्ध अगर उत्तर भी देते तो क्या देते ? आइये ! उसको भी जान लेते हैं |

            संसार से आसक्ति को हटाना है तो आपको कुछ समय के लिए संसार से भिन्न हो जाना होगा क्योंकि संसार से अलग होकर ही संसार को जाना जा सकता है | साथ ही, संसार में रहते हुए उसके विभिन्न आकर्षण आप पर अपना प्रभाव डालते रहेंगे और आप चाह कर भी उससे मुक्त न हो सकेंगे | इसलिए ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है’ की तर्ज पर आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सांसारिक ज्ञान (अज्ञान) से विमुख होना ही पड़ता है | जब अज्ञान मिट जाये और ज्ञान के आलोक को आप भीतर समेट लें, फिर संसार में लौट आना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है, फिर संसार का अन्धकार आपके आलोक के सामने निष्प्रभावी हो जायेगा | फिर आपको वह ज्ञान जो आपने पाया है, मुमुक्षुओं को बाँटना ही चाहिए |

      भगवान् बुद्ध ने दुःख का कारण जान लिया था और उस दुःख के निवारण का उपाय भी | वे संसार के प्रत्येक व्यक्ति का दुःख दूर करना चाहते थे, इसलिए संसार में पुनः लौट आए | यशोधरा ने जब कहा कि अपने पुत्र राहुल को क्या देंगे, अपनी कौन सी विरासत उसे सौंपेंगे, तब उन्होंने बिना एक क्षण की देरी किये तत्काल अपना कटोरा उसे दे दिया | उन्होंने जिस मार्ग पर इतने वर्षों तक चलकर जो कुछ पाया था, अपने पुत्र को भी उसे पाने के लिए उसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे दी | अंततः यशोधरा भी उनके साथ हो ली |

              ‘समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्’ का ज्ञान हो जाने पर मौन हो जाना उचित ही है क्योंकि इस ज्ञान से मन के सभी विकार शांत हो जाते हैं | संसार की उठापठक मन के कारण ही तो होती है | जब मन विकार रहित हो जाता है तो फिर राग-द्वेष जैसे द्वंद्वों का कोई स्थान नहीं रहता | सभी विकारो का तिरोहित हो जाना ही चंचल मन को स्थिर कर देता है | स्थिर मन में फिर किसी विचार के जन्म लेने की सम्भावना ही नहीं रहेगी | जब विचारों की खटपट ही नहीं रहेगी तो मनुष्य अशांत कैसे हो सकता है? वह अशांत हो ही नहीं सकता |

              देखा जाये तो व्यक्ति मन के मौन होने से ही मूक अवस्था को उपलब्ध होता है | केवल बाहर से मौन हो जाए और भीतर मन में खटपट चलती रहे तो ऐसा दिखावे का मौन शांति उपलब्ध नहीं करा सकता |

            वास्तविक ज्ञान हो जाने पर ही व्यक्ति मौन अवस्था को प्राप्त होता है | फिर जीवन भर व्यक्ति मूक बना रहकर संसार की गतिविधियों को निर्विकार भाव से देखता रहता है और भीतर ही भीतर परमात्मा के अनुभव का आनंद लेता रहता है | यही साक्षी होना है। कबीर ने इसी प्रकार के रसास्वादन को गूंगे का गुड कहा है – मौन रहकर आनंद के सागर में उतराते रहना |

        इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति मूक अवस्था को उपलब्ध होकर कर्म नहीं करता | हाँ, कर्म तो प्रकृति के गुणों के कारण होते है और शरीर रहने तक अनवरत होते रहेंगे | मौन की इस अवस्था में भी कर्मों का संसार गतिमान बना रहता है परन्तु अब कर्म बिना किसी फल की इच्छा के और बिना किसी कामना के होते हैं | न तो कर्मों के प्रति आसक्ति रहती है और न ही कोई फल प्राप्त करने की कामना | फिर चाहे कोई रहूगण किसी जड़भरत को अपनी पालकी ढोने के लिए कहार ही क्यों न बना ले | जड़भरत को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उसको सम्मान दे रहा है अथवा कोई उसका अपमान कर रहा है | वह तो प्रत्येक क्षण उस मौन अवस्था का आनंद ले रहा होता है जहाँ तक कोई बिरला ही पहुँच पाता है |

           अभी तक हमने उस अवस्था की चर्चा की जो ज्ञान मार्गी को उपलब्ध होती है – मौन की अवस्था | संसार के प्रति उदासीन भाव, संसार से मुक्ति | अब हम दूसरी तरफ चलते हैं, उस अवस्था की ओर जो भक्ति मार्गी को उपलब्ध होती है – भक्त हो जाने की अवस्था | भक्त का भी संसार के प्रति उदासीन भाव रहता है | भक्त की अवस्था में मनुष्य ज्ञान को उपलब्ध हो जाने पर अनन्त रस को उपलब्ध होता है, जोकि प्रतिदिन बढ़ता रहता है | यह रस परमात्मा के प्रेम के कारण उसे उपलब्ध होता है |

           भक्त सदैव भगवान् की भक्ति में लीन रहता है | उसकी लीला का गान करता रहता है, उसके अप्रतिम सौन्दर्य को निहारता रहता है | कहने का अर्थ है कि प्रेम में आनंद लेने के लिए दो का होना आवश्यक है | ज्ञान में तो केवल एक ही रहता है परन्तु भक्ति में उस एक के ही दो हो जाते हैं | एक तो भगवान और दूसरा भगवान् का भक्त | देखा जाए तो भक्त और भगवान् में कोई अंतर नहीं होता परन्तु अनन्त प्रेम-रस का अनुभव करने के लिए दो की उपस्थिति आवश्यक है | इस अवस्था में जो आनंद मिलता है उस आनंद के रस को अनन्त रस कहा जाता है जो न तो कभी कम होता है और न ही सदैव एक समान ही रहता है बल्कि दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है |

             मनोविज्ञान कहता है कि भक्ति में भक्त भगवान् की कल्पना करता है और जीवन भर अपने इस काल्पनिक संसार में खोया रहता है | ज्ञान की दृष्टि से देखें तो यह कथन सत्य भी प्रतीत होता है | इस बारे में भारतीय दर्शन के अंतर्गत पहले से ही बहुत कुछ लिखा जा चूका है | दोनों ही अपने अपने पक्ष में तर्क देते हैं | उन तर्कों के कारण कई बार विवाद भी पैदा हुए हैं | मनोरोग विशेषज्ञ ऐसी प्रत्येक बात को मनोविज्ञान से जोड़ देते हैं | गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि एक मनोरोगी और कल्पना में खोये व्यक्ति में बहुत अंतर होता है | मनोरोगी अपना मानसिक संतुलन खो देता है जबकि भक्ति में भक्त मनोरोगी जैसा कभी कभी प्रतीत तो हो सकता है परन्तु वह अपना  मानसिक संतुलन कभी भी नहीं खोता |

             भगवान् चाहे कल्पना ही हो परन्तु जीवन में देखें तो कई बार उस कल्पना में छिपी सत्यता दृष्टिगोचर हो ही जाती है | एक कल्पना में अगर वास्तविकता का जरा सा भी आभास होता है तो वह यह सिद्ध करता है कि वह कल्पना के पीछे कोई न कोई सत्य अवश्य है | विज्ञान के क्षेत्र में जितनी भी प्रगति हुई है, वह सब पहले  कल्पना करने के आधार पर ही हुई है | वैज्ञानिक पहले परिकल्पना करता है और फिर उसको सिद्ध करता है | जिस दिन वह कल्पना मूर्त रूप ले लेती है उस दिन वह कल्पना भी वास्तविकता बन जाती है |

           भक्त अपने भगवान् से प्रार्थना करता है और भगवान् तत्क्षण प्रकट हो जाते हैं | आज के युग में कहें तो ऐसा उसे ‘दिन में देखा जाने वाला स्वप्न’ अर्थात दिवास्वप्न कहा जा सकता है | इतिहास गवाह है, जब जब भक्त की तीव्र इच्छा हुई है, भगवान् ने उनको दर्शन देकर कृतार्थ किया है | जिनको परमात्मा के दर्शन हुए हैं उनके कई उदाहरण हमको पढ़ने और सुनने को मिलते हैं | गोस्वामी तुलसीदासजी, मीरां बाई, नरसी मेहता, एकनाथजी महाराज और अभी कुछ समय पूर्व के भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार आदि अनेकों उदाहरण हैं | इसलिए भगवान् की सत्ता को कल्पना मात्र बताकर उनका उपहास नहीं किया जाना चाहिए |

            हम भगवान् के दर्शन नहीं कर पा रहे हैं अथवा उनकी सत्ता का हमें अनुभव नहीं हो रहा है तो कमी हमारे में है न कि भगवान् में | हमारे भीतर कभी उतनी तीव्र उत्कंठा ने जन्म ही नहीं लिया कि भगवान् दर्शन देने को विवश हो जाएं | तीव्र उत्कंठा के अतिरिक्त जो भगवान् को अनुभव करने के लिए आवश्यक है, वह है उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास | अगर भगवान् के प्रति श्रद्धा और विश्वास दृढ हो तो पत्थर में से भी भगवान् प्रकट हो सकते हैं,जैसा कि प्रहलाद के विश्वास ने इसे सिद्ध कर दिखाया था |

            परमात्मा के प्रति श्रद्धा और विश्वास ही हमें उनके प्रति समर्पण करने की ओर ले जाता है | यह समर्पण ही परमात्मा की शरण लेना है | फिर उस एक के आश्रय के अतिरिक्त किसी और के आश्रय की आवश्यकता नहीं रह जाती | तभी शरण हुई कोई कोई मीरां बाई जैसी ही कह सकती है – मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई | आवश्यकता है कि हम उस एक की ही शरण लें और उसकी भक्ति करें | इस प्रकार की भक्ति को अव्यभिचारिणी भक्ति कहा जाता है |

            जिसने एक परमात्मा की शरण ले ली, उसके लिए फिर समस्त संसार महत्वहीन हो जाता है | भले ही भक्त और भगवान् एक ही हों फिर भी भौतिक शरीर के रहते दोनों में कुछ न कुछ दूरी बनी ही रहती है | स्वामीजी कहते भी हैं कि जीव कभी भगवान् नहीं हो सकता | हाँ, यह सत्य है क्योंकि भक्त कभी भगवान् होना ही नहीं चाहता | उनके कहने का अर्थ क्या है यह तो मैं समझ नहीं सका परन्तु जो भी मैंने समझा है वह यह है कि भक्त के भगवान् होते ही उसको मिलने वाला अनन्त रस खो सकता है | इसी के कारण भक्त कभी स्वयं के भगवान् हो जाने की कल्पना तक नहीं करता |

             इतने विस्तृत विवेचन के बाद यह आवश्यक है कि हम ज्ञान और भक्ति का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए एक निश्चित निष्कर्ष पर पहंचें | यह निष्कर्ष हमें यह जानने में सहायक होगा कि हमारे लिए दोनों मार्गों में से कौन सा मार्ग सुगम और श्रेष्ठ होगा | ज्ञान और भक्ति संसार से हमें मुक्त करते हैं परन्तु यह मुक्ति कितनी प्रभावशाली होगी, यह जानना भी महत्वपूर्ण होगा |  

          गोस्वामीजी ने भले ही कह दिया हो कि ज्ञान और भक्ति में कोई अंतर नहीं है परन्तु दोनों से जो अनुभव प्राप्त होता है, उनमें अंतर अवश्य है | दोनों लक्ष्य तक पहुँचाने में एक समान हो सकते है परन्तु यह सत्य है कि भक्ति ज्ञान से विलक्षण है | मेरा कहना है कि ज्ञान को किसी भी प्रकार नकारा नहीं जा सकता परन्तु ज्ञान की उच्चावस्था पाकर भी अगर कोई व्यक्ति भक्त नहीं हो पाता तो उसका ऐसा ज्ञान व्यर्थ है | इसीलिए स्वामीजी कर्म और ज्ञान को साधन मात्र बताते हुए और इन दोनों साधनों पर वरीयता देते हुए भक्ति को साध्य तक बताया है | जब साधन और साध्य में कोई भिन्नता नहीं रह जाए, तो फिर ऐसा साधन अपनाना ही श्रेष्ठ है | कर्म और ज्ञान को साधन ही क्यों बताया गया है, इसके लिए विष्णु पुराण का एक श्लोक उद्धृत करना चाहूँगा | कल इसी श्लोक से प्रारंभ करते हुए चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

          विष्णु पुराण में एक श्लोक आता है -

   तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये |

   आयासायापरं कर्म विद्यSन्या शिल्पनैपुणम् ||1/19/41||

          अर्थात कर्म वह है, जो बंधन में न डाले और विद्या वह है, जो मुक्त कर दे | जो कर्म बंधन में डाले वह कर्म व्यर्थ है और जो विद्या मुक्त न कर सके वह केवल कला-कौशल यानि  बाजीगरी है |

       इस संसार में जन्म लेने के पीछे हमारे पूर्वजन्म के कर्म ही हैं | इस जन्म में भी हम अगर कर्म करते हुए संसार से मुक्त नहीं हो सके तो फिर ऐसे कर्मों को करते रहने का कोई औचित्य नहीं है | इसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करके भी यदि हम संसार के सुख-भोग में लगे रहें तो ऐसा ज्ञान व्यर्थ ही है | कर्म और ज्ञान दोनों में परिश्रम अधिक है | कर्म में स्वार्थ भाव आ ही जाता है, जबकि इसमें सेवाभाव होना चाहिए।स्वार्थ भाव बंधनकारी है जबकि सेवा शांति और मुक्ति का मार्ग है।

              ज्ञानी व्यक्ति में अहंकार पनपने की सम्भावना अधिक रहती है क्योंकि ज्ञान का अहंकार सबसे बड़ा अहंकार है जिससे कोई कोई ज्ञानी ही अछूता रह सकता है | अहंकार हमें संसार के साथ बांधता है।ऐसे अहंकार से वही ज्ञानी परे रह सकता है जो मुक्त होकर भगवान् का भक्त हो गया हो | मुक्त होना तो किसी भी इन दोनों साधनों में से किसी एक साधन से भी संभव हो सकता है परन्तु अगर  परमात्मा का प्रेम पाना है तो फिर भक्ति-मार्ग ही श्रेष्ठ है |

             प्रश्न उठता है कि मुक्त होने की अवस्था तक ज्ञानी भी पहुँचता है और भक्त भी, फिर दोनों में मुख्य अंतर क्या है ? सर्वप्रथम हम बात करते हैं – मुक्ति की | मुक्ति होती है, संसार के बंधन से, और ये बंधन हमने पैदा किये हैं, संसार के व्यक्तियों और पदार्थों में आसक्ति रखकर | जिस दिन इस बात का अनुभव हो जाता है कि संसार के प्रति किसी भी प्रकार की आसक्ति रखना व्यर्थ है, उस दिन हम उससे मुक्त हो जाते हैं | संसार में आसक्ति रखना व्यर्थ है क्योंकि यह परिवर्तनशील है |  परिवर्तनशील कभी भी आनंद नहीं दे सकता | वह व्यक्ति को सुखी दुखी तो कर सकता है परन्तु शांति उपलब्ध नहीं करवा सकता |

          परिवर्तनशील संसार की सत्ता कभी हो नहीं सकती | इस संसार की परिवर्तनशीलता भी एक अविनाशी परमात्मा की सत्ता से ही है | जिस दिन हम इस संसार के पीछे परमात्मा को देखने लगेंगे, उस दिन हमारे लिए यह संसार विलीन हो जायेगा और केवल परमात्मा ही रह जायेंगे | जब सर्वत्र एक वही है, फिर कौन तो आसक्त हो और किसके प्रति आसक्त हो ? जो है वही सब कुछ परमात्मा है | मैं, तुम, यह, वह; सब कुछ परमात्मा | फिर किससे राग करें और किससे द्वेष हो ? न किसी से सुख की चाहना और न किसी को दुःख के लिए दोष देना |

            ज्ञान और भक्ति, दोनों का उद्देश्य एक ही है – सर्वत्र परमात्मा को देखना | इसे ही मुक्ति कहा जाता है | एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ है भी नहीं | मुक्ति से पहले मैं था, तुम थे अर्थात द्वैत और मुक्ति के बाद न मैं, न तुम; केवल एक परमात्मा अर्थात अद्वैत | इस प्रकार मुक्ति का अर्थ है, द्वैत से अद्वैत की यात्रा | ज्ञान और भक्ति दोनों में ही द्वैत से अद्वैत तक जाना होता है | दुःख द्वैत के कारण ही है क्योंकि जहां दो हैं, वहां कामनाएं और अपेक्षाएं होगी ही, कभी मिट नहीं सकती | इन दोनों का होना ही दुःख का एकमात्र कारण है | इसलिए अद्वैत को स्वीकार करने से इन दोनों का ही लोप हो जाता है |

           भक्त की तुलना में ज्ञानी अद्वैत तक शीघ्र पहुंचता है क्योंकि वह अपनी खोज में ज्ञान का सहारा लेता है | ज्ञान में व्यक्ति संसार से विमुख पहले होता है और भगवान् के सम्मुख बाद में | भक्ति में केवल भगवान् को मानना होता है, फिर भगवान् ही उसे द्वैत से अद्वैत की यात्रा करा देते हैं | इस यात्रा के लिए भगवान् में श्रद्धा और विश्वास रखना महत्वपूर्ण है | ज्ञान भी भक्ति के माध्यम से उपलब्ध हो जाता है | इस प्रकार भक्ति में परमात्मा के सम्मुख पहले होना होता है, फिर स्वयं परमात्मा ही उसे संसार से विमुख कर मुक्त कर देते है |

          इस प्रकार तुलनात्मक अध्ययन से निष्कर्ष निकलता है कि ज्ञान और भक्ति, दोनों ही अद्वैत को स्वीकार करते हैं | ज्ञानी अद्वैत को समझकर मौन हो जाता है जबकि भक्त मौन नहीं होता और अगर मौन हो भी जाता है तो समय पाकर वह पुनः भगवान् की भक्ति में लीन हो जाता है | ज्ञान और भक्ति, दोनों में ही मौन की अवस्था आती अवश्य है परन्तु सदैव के लिए मूक बनकर रह जाना एक भक्त के लिए संभव ही नहीं है | भक्त अपने आराध्य का गुणगान करना चाहता है, उससे वार्तालाप करना चाहता है, उनके दर्शन का अभिलाषी होता है, अतः उसके लिए मौन होना संभव ही नहीं है |

            भक्त किसका ? भगवान् का अर्थात अद्वैत से पुनः द्वैत की ओर लौटना | नहीं, भक्त भी अद्वैत को मानता है परन्तु उसको आनंद तभी मिल पाता है जब वह अपने आपको भगवान् से थोडा सा अलग कर लेता है | भक्त अपने साध्य का प्रेम पाना चाहता है जोकि उसे अनन्त रस प्रदान करता है | फिर शरीर रहने तक वह परमात्मा के प्रेम में ही आकंठ डूबा रहना चाहता है | यहाँ आकर यह स्मरण रहे – भक्त का यह द्वैत सांसारिक द्वैत नहीं है जिसमें एक दूसरे के लिए कामनाएं और अपेक्षाएं भरी पड़ी रहती है बल्कि भक्त के इस द्वैत में इन दोनों का कोई स्थान नहीं है |

          भक्त होने का अर्थ है, एक से दो होकर भी उस एक से जुड़े रहना | आपने चना देखा होगा | चने के दो भाग किये जा सकते हैं | भीगे हुए चने को दो भाग में बांटने का प्रयास करेंगे तो पाएंगे कि दोनों भाग एक दूसरे के एकदम समान है और एक दूसरे से अलग होते हुए भी ऊपर मूल स्थान पर एक दूसरे से जुड़े हुए भी हैं | जैसे दर्पण के सामने का बिम्ब (Object) और दर्पण में बना उसका प्रतिबिम्ब (Image) | दर्पण के सामने से बिम्ब के हटते ही प्रतिबिम्ब भी मिट जाता है और केवल बिम्ब ही रह जाता है | कहने का अर्थ है कि भक्त और भगवान् दो होते हुए भी दो नहीं होते बल्कि एक ही हैं | भक्त प्रतिबिम्ब है और परमात्मा बिम्ब है |

           ज्ञानी की परिस्थति एक भक्त की परिस्थिति से भिन्न हो सकती है | ज्ञानी को या तो ज्ञान का अहंकार हो जाता है अथवा वह फिर एकांत में मौन रहते हुए एकाकी हो जाता है | इसीलिए जब आप एक ज्ञानी से मिलते हैं तो प्रायः आप उसमें आकर्षण नहीं पाते जबकि एक भक्त का व्यवहार और प्रेम देखते ही बनता है | आप एक भक्त से तो बार-बार मिलना पसंद करेंगे जबकि ज्ञानी से आप आवश्यकता होने पर ही संपर्क करना चाहेंगे | ज्ञानी और भक्त में इतना सा अंतर ही सिद्ध करता है कि किसी के ज्ञानी होने से अच्छा है, परमात्मा का भक्त हो जाना |

            ज्ञान, परमात्मा को जानने का प्रयास है जबकि भक्ति में जानने का प्रयास किए बिना परमात्मा को केवल मानना होता है |  मानना अर्थात “वासुदेव सर्वम्”,  केवल इसको ही मानना | मैं यह नहीं कह रहा कि कर्म और ज्ञान मार्ग से परमात्मा को जाना या माना नहीं जा सकता | अंततः उनमें भी ‘एक परमात्मा की ही सत्ता है’ यह मानना होता है परन्तु एक लम्बे, उबाऊ और थकाऊ प्रयास के पश्चात् | भक्ति में बिना किसी प्रयास के सीधे सीधे सरल हृदय से, बिना किसी लाग लपेट के परमात्मा को मान लिया जाता है | बिना माने भक्त होना संभव ही नहीं है, चाहे वह कर्म मार्ग हो अथवा ज्ञान मार्ग |  इन दोनों मार्गों का संगम भी अंततः भक्ति-मार्ग पर आकर ही होता है |

         गंगा की तीनो धाराओं का उद्गम हिमालय से होता है | भगीरथी (गंगा), यमुना और सरस्वती तीनों अलग अलग स्रोतों से जन्म लेती है और समुद्र की तरफ चल पड़ती है | प्रयागराज में आकर यमुना और सरस्वती भी अंततः गंगा में आकर मिल जाती है | हम ऐसा समझ सकते हैं कि गंगा भक्ति मार्ग है, यमुना कर्म मार्ग है और सरस्वती ज्ञान मार्ग है |  सभी का उद्देश्य सागर तक पहुँच कर उसमें समाहित होना है, जो कि उन सभी नदियों का मूल स्रोत भी है | कहने का अर्थ है कि जो भी मार्ग अपनाएं, सभी हमें एक ही स्थान पर पहुंचाते हैं और लक्ष्य तक पहुँचने से पहले सभी को भक्ति-मार्ग पर आना ही पड़ता है |

            परमात्मा को प्राप्त करने का अर्थ है, परमात्मा के साथ एक हो जाना अर्थात संसार के सभी बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा के साथ जुड़ जाना | कर्म और ज्ञान मार्ग से चलकर भक्ति-मार्ग पर आकर ही परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है | कर्म और ज्ञान मार्ग से संसार के बंधनों से मुक्त होना सरल नहीं है | सरल मार्ग पर चलकर मुक्त होना है तो भक्ति-मार्ग सर्वश्रेष्ठ मार्ग है | भक्ति सरल इस कारण से है कि इस मार्ग में कुछ करने और जानने का श्रम नहीं करना पड़ता | श्रम उर्जा का व्यय करता है जबकि विश्राम की अवस्था में उर्जा संचित होती है | भक्ति मार्ग विश्राम का मार्ग है अर्थात करने, सोचने, समझने आदि सभी क्रियाओं से सदैव के लिए विश्राम |

                   भक्ति क्या है ? हमारे द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया जो परमात्मा को प्राप्त करने और संसार से मुक्त होने के लिए की जाती है, वह भक्ति कहलाती है | परन्तु यह क्रिया वैसी क्रिया नहीं है जिसमें श्रम करने की आवश्यकता हो | व्यक्ति शिथिल होता है, उर्जा के व्यय से और सर्वाधिक उर्जा का व्यय होता है, सोचने, विचारने से अर्थात मस्तिष्क का अधिक उपयोग करने से | परमात्मा को समर्पण कर देने का नाम ही भक्ति है और जब समर्पण कर दिया जाता है, तो फिर सोचने, विचारने अथवा कुछ करने की भला आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है ?

                    भगवान् श्री कृष्ण ‘मुक्त कौन है’, इसको स्पष्ट करते हुए गीता में कहते हैं –“विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः”(गीता-5/28) अर्थात जो व्यक्ति भय, इच्छा और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है | भय, इच्छाएं और क्रोध, इन तीनों का विलीन होना परमात्मा के प्रति पूर्णरूपेण समर्पण से ही संभव है | भय, इच्छा और क्रोध, ये तीन ही मुक्ति में बाधक हैं |

         "भक्ति से भगवान् श्री कृष्ण साक्षात् उपस्थित हो सकते हैं", इसका अर्थ हुआ कि भगवान् भक्ति से भक्त के वश में हो जाते हैं | आवश्यकता है, परमात्मा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हुआ जाये | अनन्य भक्ति का अर्थ भी यही है कि एक परमात्मा के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई नहीं है | हम भक्ति के नाम पर नाना प्रकार की क्रियाएं तो बहुत करते है परन्तु जब संसार से मुक्ति की बात आती है तो व्यथित हो जाते हैं और भक्ति पर ही दोषारोपण करने लग जाते हैं | अगर मन लगाकर भक्ति न की जाये और केवल क्रियाओं को ही महत्त्व देते रहे तो ऐसी तथाकथित भक्ति भी सारहीन है |

           एक अकेला भक्ति मार्ग भी हमें मुक्त कर सकता है | भक्ति में न तो केवल ज्ञान है और न ही केवल कर्म | भक्ति में तो केवल समर्पण है | समर्पण, परमात्मा के प्रति समर्पण, जिसके बाद न तो कुछ जानना शेष रहता है और न ही करना | समर्पण ही भक्ति का मूल मन्त्र है | समर्पण के बाद न तो आपको संसार की परवाह रहती है और न ही परिवार की चिंता | समस्त भय, आसक्तियां और कामनाएं आकर समर्पण में समाप्त हो जाती है |

           ज्ञान और कर्म मार्ग में शरीर और संसार के साथ सम्बन्ध बना रहता है | शरीर के बिना न तो कर्म किये जा सकते हैं और न ही बुद्धि के अभाव में ज्ञान पाने का प्रयास | न चाहते हुए भी आपके द्वारा किया जाने वाला श्रम आपको शरीर के साथ जोड़े रखता है क्योंकि आप संसार में ही हैं और संसार की ओर ही हैं अर्थात संसार से भिन्न नहीं हुए हैं | संसार से भिन्न हुए बिना स्वरुप को नहीं समझा जा सकता | भक्ति में परमात्मा के सम्मुख होना होता है जो आपको स्वतः ही संसार से विमुख कर देता है | विभिन्न क्रियाओं में न उलझकर केवल एक परमात्मा को ही अपना मानना हमें जीवन की सर्वोच्च अवस्था तक ले जा सकता है और वह सर्वोच्च अवस्था है – जीवन में वह आनंद जो आपको अनन्त रस देने वाला है |

        इस श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण बात निकल कर सामने आई है कि भक्ति- भाव पैदा हुए बिना न तो कर्म योग ही सिद्ध हो सकता है और न ही ज्ञान योग।साथ ही यह भी निष्कर्ष निकल कर सामने आया है कि कर्म योग और ज्ञान योग भक्ति की तरफ शीघ्रता से ले जाने वाले मार्ग हैं। कहने का अर्थ है कि ज्ञान और कर्म भक्ति पर आधारित होने चाहिए और परमात्मा की भक्ति में ज्ञान और कर्म भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसका अर्थ हुआ कि योगी होने के लिए ज्ञान और कर्म से महत्वपूर्ण परमात्मा की भक्ति है।इससे यह सिद्ध होता है कि भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है।

       ज्ञान और कर्म योग से संसार से तो मुक्त हुआ जा सकता है, परंतु परमात्मा को साकार रूप से केवल भक्ति से ही देखा जा सकता है।इसीलिए गीता में भगवान् ने भी भक्ति को ही  सर्वश्रेष्ठ बताया है।

     नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।

    शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।। गीता - 11/53।।

जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, इस प्रकारका (चतुर्भुजरूपवाला) मैं न तो वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ।

      ज्ञान और कर्म,दोनों में भी भक्ति आधार है परंतु परमात्म -दर्शन के लिए अव्यभिचारिणी भक्ति आवश्यक है।एक परमात्मा के अतिरिक्त किसी दूसरे का आश्रय नहीं रखना ही उसके दर्शन करवा सकता है। ऐसी अनन्य भक्ति में परमात्मा आपकी योग-क्षेम की जिम्मेदारी ले लेते हैं और अपने भक्त के सामने प्रकट भी हो जाते हैं। गीता में भगवान कहते हैं -

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।11/54।।

परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन ! इस प्रकार (चतुर्भुजरूपवाला) मैं अनन्यभक्तिसे ही तत्त्वसे जाननेमें, सगुणरूपसे देखनेमें और प्राप्त करनेमें शक्य हूँ।

   इसीलिए संतजन भक्ति को ज्ञान और कर्म से श्रेष्ठ बताते हैं। भक्ति,ज्ञान और कर्मयोग की त्रिवेणी परमात्मा तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होती है,इसमें कोई संदेह नहीं है। भक्ति भाव अर्थात परमात्मा के सम्मुख होने की चाह ही कर्मयोग और ज्ञानयोग का आधार है।इसीलिए भगवान ने गीता में अर्जुन को "मन्मना भव मदभक्तो" कहा है अर्थात मेरा भक्त हो जा। भक्त होते ही ज्ञान और निष्काम कर्म की प्रेरणा होती है और अंततः साधक परमात्मा की शरण हो जाता है ।

                      इस प्रकार इस श्रृंखला में ज्ञान और भक्ति मार्ग पर चलकर संसार से मुक्त होने के विषय पर चिंतन किया गया है | मुक्ति की राह इतनी सुगम नहीं है चाहे पथ कोई सा ही चुना जाय | ज्ञान और भक्ति दोनों में कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है, इसका अनुभव संसार से मुक्त होने के बाद ही होता है | ज्ञान में जितना अधिक परिश्रम है, उतना ही अधिक विश्राम भक्ति में है क्योंकि भक्ति में सारा भार परमात्मा अपने ऊपर ले लेते हैं, जबकि ज्ञान में सारा भार व्यक्ति को न चाहते हुए भी स्वयं को ही ढोना पड़ता है |

               परिश्रम कर संसार से विमुख होना अर्थात संसार के बंधन से मुक्त होना ज़रा कठिन प्रतीत होता है क्योंकि व्यक्ति शरीर के मोह से बाहर निकल नहीं पाता | दूसरी बात, ज्ञान मार्ग से जब सत्य का अनुभव होता है तो व्यक्ति अहंकार से भर उठता है क्योंकि उस अवस्था तक पहुँचने का श्रेय वह स्वयं को देने लगता है | भक्ति में इसके ठीक विपरीत होता है | परमात्मा के सम्मुख होने का अर्थ है संसार से स्वतः ही विमुख हो जाना | ऐसी स्थिति में सत्य को उद्घाटित करने का श्रेय भी परमात्मा को जाता है, न कि स्वयं को | ऐसे में मनुष्य के अहंकारित होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता |

             ज्ञान और भक्ति,इन दोनों में से कौन सा साधन श्रेष्ठ है ? इतने विवेचन से स्पष्ट हो गया है कि दोनों साधनों में लक्ष्य तक पहुँचने में कोई भेद नहीं है परन्तु व्यक्ति को शांति की अवस्था तक पहुँचाने में भक्ति ही श्रेष्ठ है | भक्ति को श्रेष्ठ सिद्ध करने का यह अर्थ नहीं है कि भक्ति की तुलना में ज्ञान गौण है | आधुनिक युग में जहां विज्ञान के कारण सांसारिक शिक्षा और साधनों का बोलबाला बढ़ता जा रहा है, वहां सीधा भक्ति मार्ग पर चले जाना कठिन प्रतीत होता है | व्यक्ति प्रत्येक साधन को विज्ञान और शिक्षा की कठौती पर परखना चाहता है |अच्छी तरह परख कर ही वह अपने विवेकानुसार निर्णय लेता है | इससे उसे ज्ञान मार्ग अधिक उचित प्रतीत होता है |

               ज्ञान मार्ग को वरीयता देकर व्यक्ति परमात्मा को जानने का प्रयास अवश्य करता है परन्तु अथक प्रयास के उपरांत भी मनुष्य को लक्ष्य दूर ही प्रतीत होता है | तत्व-ज्ञान हो जाने के बाद ही मनुष्य की आँखे खुलती है और वह स्वीकार करता है कि एक परमात्मा ही सर्वत्र हैं | अंततः उसे भक्ति मार्ग अपनाकर भगवान् को मानना ही पड़ता है | परमात्मा को मानते ही उसे असीम शांति का अनुभव होता है | असीम शांति ही परमात्मा का प्रेम उपलब्ध करती है जो उसे अनन्त रस के आनंद से सरोबार कर देती है ।

             इस श्रृंखला के चरम पर पहुंचने पर अनुभव हो रहा है कि ज्ञान और भक्ति की तुलना में भक्ति का आनंद असीम है | भक्ति में भक्त और भगवान् में कोई अंतर नहीं रहता जबकि ज्ञान में भक्त ही भगवान् हो जाता है | ज्ञान में द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो जाता है और व्यक्ति सारे संसार में परमात्मा को अनुभव करने लगता है | इस अनुभव में वह स्वयं को भी परमात्मा समझने लगता है | स्वयं का परमात्मा हो जाना, अभिमान का कारण बनता है, जिसके कारण कभी भी मनुष्य अपनी अवस्था से नीचे गिर सकता है |

             भक्ति में साधक संसार से मुक्त होकर द्वैत से अद्वैत की अवस्था का अनुभव तो कर लेता है परन्तु उससे वह संतुष्ट नहीं होता क्योंकि जिस आनंद रस को वह प्राप्त करना चाहता है वह दो में ही मिल सकता है, एक में नहीं | उनमें एक तो आनंद का दाता होता है और दूसरा आनंद का भोक्ता | मुख्य बात यह है कि भक्ति के द्वैत में भी अद्वैत है | भक्त और भगवान् दो प्रतीत होते हुए भी एक स्तर पर जुड़े हुए हैं जिससे उनको भिन्न नहीं कहा जा सकता बल्कि यह कहा जा सकता है कि भक्त और भगवान् अभिन्न है |

            निर्णय आपको करना है कि दोनों में से किस मार्ग को स्वयं के लिए चुनते हैं | कोई सा भी मार्ग सुगम हो अंततः एक ही स्थान पर पहुंचना होता है और वह अवस्था कर्म-योगी हो, ज्ञान-योगी हो चाहे भक्ति-योगी; होगी वह एक भक्त की अवस्था | इसीलिए गोस्वामीजी ने मानस में लिखा है – ‘भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा’ |

प्रस्तुति –डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||