Wednesday, December 29, 2021

यः सदा मुक्त एव सः

 यः सदा मुक्त एव सः 

       भक्ति और मुक्ति एक दूसरे से संबंधित है क्योंकि मुक्त होकर ही भक्त हुआ जा सकता है।भक्त जुड़ता है और मुक्त संबंध विच्छेद करता है। एक भक्त होता है, संसार का और दूसरा भक्त होता है, परमात्मा का। संसार का भक्त जीवन भर सुखी-दुःखी होता रहता है और परमात्मा का भक्त मौज में रहता है। हमें संसार से संबंध विच्छेद करना है और परमात्मा से संबंध जोड़ना है। नहीं, नहीं ! परमात्मा से संबंध तो पहले से ही जुड़ा हुआ है परंतु संसार से संबंध जुड़ जाने के कारण हम परमात्मा से अपने संबंध को विस्मृत कर चुके है। यह बात पुनः स्मृति में तभी आएगी, जब संसार के साथ माने गए संबंध से हम मुक्त होंगे।

     एक मनुष्य के रूप में भले ही हम स्वतंत्र पैदा हुए हों परंतु संसार में आकर हमें बेड़ियाँ पहनने का शौक लग जाता है। बेड़ियाँ चाहे सोने की हो अथवा लोहे की, है तो बांधने के लिए ही न। हमें इन्हीं बेड़ियों से मुक्त होकर स्वयं की खोज करनी है। स्वयं की खोज ही परमात्मा की खोज है।

      कौन है मुक्त ? मुक्ति का परिणाम क्या है ?इनको जानने का प्रयास करंगे, "यः सदा मुक्त एव सः" में।

          आत्मबोध के लिए प्रयत्नरत व्यक्ति जानता है कि उस परमात्मा को कैसे प्राप्त किया जा सकता है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह दूर से दूर भी है और निकट से भी निकट है | संसार की आसक्तियों में आकण्ठ डूबे मनुष्य के लिए परमात्मा दूर से भी दूर है और जिसने संसार से असंग होते हुए उससे निवृति ले ली है उसके लिए परमात्मा निकट से भी निकट है | 

        परमात्मा की प्राप्ति उस प्रकार की प्राप्ति नहीं है जैसे किसी प्रकार के पदार्थ अथवा वस्तु को प्राप्त किया जाता है | परमात्मा की प्राप्ति से अर्थ है, जिस अज्ञान का बोझ हम अपने सिर पर उठाए आज तक भटक रहे हैं उस अज्ञान को छोड़कर ज्ञान को प्राप्त होना | हमें जब भी किसी वस्तु को प्राप्त करना होता है तो पूर्व में पकड़ी हुई वस्तु को छोड़ना पड़ता है | बिना किसी को छोड़े कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता, यह सार्वभौमिक सत्य है | इसी प्रकार परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भी संसार को छोड़ना पड़ता है | संसार को छोड़े बिना परमात्मा का प्राप्त होना असंभव है | संसार को पकड़कर रखना हमारा अज्ञान है और परमात्मा को पकड़ रखना ज्ञान है |

           हमारे जितने भी शास्त्र हैं, वे सब इस बात पर एक मत है कि बिना मुक्ति के परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती | ब्रह्म-सूत्र में एक सूत्र है – “मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात्” (1/3/2) अर्थात उस प्रेमस्वरूप भगवान् को मुक्त पुरुषों के लिए ही प्रातव्य बताया गया है | मुक्त किससे होना है ? जिस बंधन में हम बंधे हुए हैं, उस बंधन से हमें मुक्त होना है | वह बंधन जिसमें हम बन्ध गए हैं, वह है हमारे द्वारा निर्मित संसार |

       प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही स्वाभाविक रूप से मुक्त ही पैदा होता है परन्तु इस संसार में आकर इन्द्रिय-विषयों के भोगों में आकंठ डूबकर इस प्रकार बन्ध जाता है कि जीवनभर उनसे मुक्त नहीं हो पाता | तभी तो अष्टावक्र मुनि जनकजी को कहते हैं कि ‘मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज’ (अष्टावक्र गीता-1/2) यदि तू मुक्ति को चाहता है तो विषयों को विष के समान जानकर इनको छोड़ दे ।

              संसार के साथ बंधने में इन्द्रिय-विषय की भूमिका ही महत्वपूर्ण है | मुक्त पैदा हुआ मनुष्य इस संसार रुपी वियावान में भटकता ही इसीलिए है कि वह जीवन भर विषय-भोग प्राप्त करने में ही उलझा हुआ रहता है | विषय भोगों से आज तक कोई तृप्त नहीं हुआ है | अपने पुत्र पूरु से उसकी युवावस्था को प्राप्त करके भी राजा ययाति भोगों से संतुष्ट न हो सका, ऐसे में आपकी और मेरी तो बिसात ही क्या है ?

                 राजा ययाति दैत्यों के गुरु शुक्राचार्यजी के दामाद और देवयानी के पति थे | शुक्राचार्य जी दानवराज वृषपर्वा के पुरोहित थे | वृषपर्वा की एक पुत्री थी, शर्मिष्ठा | शर्मिष्ठा और गुरुपुत्री के मध्य अहंकारवश उपजे वैमनस्य-भाव के कारण दानव-राजकन्या शर्मिष्ठा को विवाह उपरांत देवयानी के साथ एक दासी के रूप में उसके ससुराल जाना पड़ा | थोड़े दिनों बाद देवयानी ने एक पुत्र को जन्म दिया | उचित अवसर जानकर शर्मिष्ठा ने ययाति से एकांत में सहवास की कामना की जिसे राजा ने स्वीकार कर लिया | इस प्रकार कामपिपासु ययाति से देवयानी से दो पुत्र और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हुए | बहुत समय बीत जाने के उपरांत जब देवयानी को पता चला कि शर्मिष्ठा के तीनों पुत्र भी ययाति से ही उत्पन्न हुए हैं तब उसे बहुत दुःख हुआ और ययाति पर बड़ा क्रोध आया ।

                 शर्मिष्ठा और ययाति के सम्बन्ध की जानकारी मिलते ही देवयानी रुष्ट होकर तत्काल ही ययाति को छोड़कर अपने पिता के पास चली गयी | देवयानी से सारा वृतांत जानकर शुक्राचार्य को बड़ा क्रोध आया | उन्होंने राजा ययाति को तुरंत ही वृद्ध हो जाने का श्राप दे डाला |

              राजा ययाति ने शुक्राचार्य जी को समझाया कि इस शाप से केवल मेरा ही नहीं आपकी पुत्री का भी अहित ही होगा | ययाति ने शुक्राचार्य जी से बहुत आग्रह किया कि वे अपना शाप लौटा लें परन्तु एक ब्राह्मण के मुख से निकले वचन कभी असत्य नहीं हो सकते थे | शाप के प्रभाव से उसी समय ययाति को वृद्धावस्था ने घेर लिया और वे कुरूप हो गए |

        ययाति के बहुत अनुनय विनय करने पर शुक्राचार्य जी ने कह दिया कि ‘मेरे द्वारा दिया शाप तो वापिस नहीं हो सकता परन्तु इस शाप से बच निकलने की एक व्यवस्था मैं तुम्हें दे रहा हूँ | अगर कोई युवा व्यक्ति तुम्हारी वृद्धावस्था को स्वयं के लिए अपनी इच्छा से स्वीकार कर ले और तुम्हें अपनी युवावस्था दे दे, तो तुम पूर्व अवस्था को उपलब्ध हो सकते हो ।

        राजा ययाति राजमहल लौटे, उनके साथ देवयानी भी लौट आयी | राजा ने एक-एक कर अपने सभी पुत्रों से उनकी युवावस्था को स्वयं की वृद्धावस्था से बदलने का अनुरोध किया | एक-एक कर सभी पुत्रों ने इसके लिए स्पष्ट रूप से मना कर दिया | केवल सबसे छोटे पुत्र पूरु ( शर्मिष्ठा से उत्पन्न हुआ पुत्र) ने उनके इस आग्रह को सहर्ष अपना कर्तव्य मानते हुए स्वीकार किया और अपनी युवावस्था अपने पिताजी को देकर बदले में उनसे वृद्धावस्था ले ली | युवा होने के बाद कई वर्षों तक ययाति ने स्त्री-सुख का भोग किया |

         परिवर्तन सभी के जीवन में एक न एक दिन अवश्य ही आता है और ऐसा ही परिवर्तन ययाति के जीवन में भी आया | ऐसे परिवर्तन को जीवन का turning point कहा जाता है | जो व्यक्ति इस परिवर्तन को समझ जाता है, वह तो इस संसार चक्र से बाहर निकलने का प्रयास कर लेता है और जिसने इस परिवर्तन को अनदेखा किया, वह संसार चक्र में अनन्त काल तक घूमता रहता है | राजा ययाति ने अपने जीवन में आये इस परिवर्तन को समझा |

        राजा ययाति के मस्तिष्क में विचार आया कि मैं भी कैसा पतित व्यक्ति हूँ जो केवल शारीरिक सुख के लिए अधःपतन को प्राप्त हो गया हूँ | आज जब मेरे पुत्र को युवावस्था की आवश्यकता है तब मैंने उसको वृद्ध बनाकर उसके स्थान पर स्वयं सुख भोगने में लगा हुआ हूँ | इतने वर्षों तक भोग भोगने के बाद भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है, इसका अर्थ यही है कि विषय-भोगों से कभी भी तृप्त नहीं हुआ जा सकता | विषयों को लगातार भोगते रहने से भी भोगवासना कभी शांत नहीं हो सकती बल्कि जैसे घी की आहुति देने से आग और अधिक भड़क उठती है वैसे ही भोगवासनाएं भोगों से और अधिक प्रबल हो उठती है | विषयों की तृष्णा ही दु:खों का उद्गम स्थान है |

         विचारों में आया यह परिवर्तन ययाति को एक नई दिशा दे गया क्योंकि उसने इन विचारों की उपेक्षा नहीं की थी | तत्काल ही उसने अपने पुत्र पूरु को राजभवन बुलाया और उसकी युवावस्था लौटा दी | स्वयं वृद्ध होकर सर्वप्रथम पूरु को राज्य दिया और फिर देवयानी को साथ में लेकर साधना हेतु वन के लिए राजभवन से प्रस्थान कर गए |

        इस प्रकार राजा ययाति के प्रसंग से स्पष्ट होता है कि कोई भी इन्द्रिय-विषय किसी को जीवन भर मिलता रहे तो भी तृप्त नहीं कर सकता | इसलिए जितनी शीघ्रता से विषयों को त्याग दिया जाये उतना ही जीवन के लिए लाभदायक है |

        कल एक मित्र से बात हो रही थी | कह रहे थे कि ‘स्त्री के कारण ही जीवन दु:खमय बना हुआ है | स्त्री को ही घर परिवार के लिए बहुत कुछ चाहिए | पुरुष को किसी भी चीज की आवश्यकता कभी नहीं होती |’ मैंने उनको बड़ी शालीनता के साथ समझाया कि भले ही एक पुरुष को जीवन में कुछ भी नहीं चाहिए, फिर भी उसे एक स्त्री अवश्य ही चाहिए | इस प्रकार पुरुष की जीवन में बस एक ही कामना होती है और वह कामना है एक स्त्री को पाने की | पुरुष ने ही स्त्री की कामना की थी और संसार चक्र में फंस जाने पर अब उसी स्त्री को दोष दे रहा है, क्या ऐसा करना उचित है ? कदापि नहीं | इसमें भला स्त्री का क्या अपराध है ?

           आपने स्त्री की कामना करके उसे पत्नी बनाकर अपने संसार को बनाया है |  इसके लिए आप ही दोषी हैं | या तो आपके मन में एक स्त्री को पाने की कामना ही नहीं उठती तो अच्छा होता और फिर भी कामनावश आपने स्त्री को पत्नी के रूप में पा भी लिया तो विषयों से निवृत्त होना आपका काम है, पत्नी का नहीं | इसमें पत्नी की भूमिका केवल आपका साथ देने तक ही सीमित है, अतः स्त्री को जीवन में कभी भी दोष न दें |

         मुक्ति के लिए न तो स्त्री बाधा है और न ही उसके कारण बना आपका संसार | मुक्ति के लिए एक तो स्वयं का प्रयास काम आएगा और दूसरा आपकी पत्नी का इस कार्य में सहयोग | इसलिए मन में मुक्ति का विचार आते ही राजा ययाति की तरह विषय-भोगों से निवृति पा लें | भोगों से निवृति तो आप नहीं ले पा रहे हैं और उलटे दोष स्त्री को दे रहे हैं | आपने स्त्री के माध्यम से संसार बनाया है, फिर इस संसार में आसक्त भी आप ही हुए हैं अतः इस संसार से आपको ही मुक्त होना है | इस संसार से निवृत होना आपका कार्य है, इसमें आपकी ही दृढ़ता काम आएगी |

              बात चल रही थी कि मुक्त व्यक्ति के लिए ही परमात्मा प्रातव्य है | मुक्ति और भक्ति, ये दो शब्द अध्यात्म में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं | भक्ति का अर्थ है, जुड़ना (attachment) और मुक्ति का अर्थ है, अलग हो जाना (separation) यानि जिससे जुडाव है उससे स्वतंत्रता पा लेना | एक आध्यात्मिक चिन्तक, जिससे जुडाव है (संसार) उससे तो मुक्त होता है और जिससे दुराव है (परमात्मा) उससे जाकर जुड़ता है | मनुष्य का जुडाव रहता है, संसार से | अतः मुक्त हो जाने का अर्थ है संसार से अलग होकर स्वतन्त्र हो जाना | मनुष्य का संसार से जुडाव उसे परमात्मा से दूर बनाये रखता है | संसार से अलग होकर परमात्मा के साथ जुड़ना ही मुक्ति से भक्ति की तरफ जाना है |

           संसार से विमुख होने का अर्थ संसार से द्वेष रखना कदापि नहीं है बल्कि संसार की गतिविधियों में जो आपकी रुचि है उससे स्वयं को अलग रखते हुए परमात्मा के सम्मुख होना है | संसार से भिन्न होकर ही संसार को जाना जा सकता है | परमात्मा को जानने के लिए उनसे अभिन्न होना पड़ता है ।

        आप जिसके सम्मुख होते हैं, स्वतः ही उसके विपरीत से विमुख हो जाते हैं | अगर हम पूर्व दिशा के सम्मुख हैं तो स्वतः ही पश्चिम दिशा से विमुख होते हैं | परमात्मा के सम्मुख होने का अर्थ है संसार से विमुख हो जाना; ज्ञान के सम्मुख होने का अर्थ है अज्ञान से विमुख होना और इसी प्रकार प्रकाश की ओर उन्मुख होने का अर्थ है अँधेरे से दूर होना | इसीलिए कहा गया है कि मुक्त पुरुष के लिए ही परमात्मा प्राप्तव्य है | परमात्मा को प्राप्त करने का अर्थ है-जो प्राप्त है, उसका त्याग करना | अतः कहा जा सकता है कि संसार के त्याग में ही परमात्मा की प्राप्ति छिपी है | “अतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः” (भागवत-10/14/28) अर्थात संसार के त्याग में ही परमात्मा की खोज निहित है |

             संसार में आसक्ति रखना बंधन है और संसार में रहते हुए अनासक्त होकर जीना ही उससे मुक्ति है | संसार की आसक्ति हमें बंधन में कैसे डालती है ? यह जान लेना भी आवश्यक है | जब तक हम इस बात को स्पष्ट रूप से जान नहीं लेंगे तब तक मुक्ति की राह नहीं पकड़ सकते | भला, मुक्त हुए बिना परमात्मा से हमारी दूरी कैसे मिटेगी ?

                प्रायः हममें से प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा की भक्ति की बात करता है परन्तु संसार से मुक्ति की बात आती है, तब सब यही कहते हैं कि हम तो मुक्त ही हैं | परन्तु सच्चाई यह है कि हममें से कोई भी संसार से सही मायने में मुक्त नहीं है | मेरी बात कुछ कटु लग सकती है परन्तु जब तक दर्पण में प्रतिबिम्ब देखा नहीं जायेगा तब तक हमें अपनी वास्तविकता का अनुभव नहीं होगा | आइये, यही जानने का प्रयास करते हैं कि संसार की आसक्ति में डूबे हुए व्यक्ति की पहचान कैसे कर सकते हैं ? यह सूत्र केवल स्वयं को पहिचानने के लिए है, किसी अन्य को इन के आधार पर पहिचानने का प्रयास न करें, यह जानते हुए कि हम सभी एक नाव में बैठे हुए इस असार संसार सागर में विचरण कर रहे हैं | हम सब की एक सी ही यात्रा हैं |

              आध्यात्मिक प्रगति के बारे में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को दूसरे से भिन्न समझता है | जबकि वास्तविकता यह है कि केवल प्रतिमा की पूजा और पाठ आदि करने को ही हम महत्वपूर्ण मान बैठे हैं | इस संसार से आसक्ति किसी की भी नहीं छूट रही है | जब तक संसार की आसक्तियों से से मुक्ति नहीं मिल जाती तब तक आध्यात्मिक प्रगति शून्य ही कही जाएगी |

          जो व्यक्ति भयग्रस्त है, मान लीजिये वह अभी भी संसार में आसक्त है | भय का मुख्य कारण है-‘जो मिला है वह कहीं खो न जाये’| वास्तव में जीवन में जो कुछ भी मिला है वह संसार और शरीर से किसी भी मायने में भिन्न नहीं है | संसार और शरीर दोनों ही क्षर है इसका अर्थ हुआ कि जो मिला है उसकी स्थिति भी सदैव एक समान नहीं रह सकती | जब क्षरण होना ही उसकी नियति है, तो उसका खो जाना भी निश्चित है | तो फिर खोने का भय क्यों ? सांसारिक पदार्थ एक न एक दिन समाप्त होने है, उनका एक से दूसरे प्रारूप में परिवर्तित होना प्राकृतिक नियम है | हमारा शरीर भी उस नियम से परे नहीं है |

          यह शरीर और इस शरीर से सम्बंधित सभी विषय-भोग, परिवार-जन, धन-सम्पति, भवन आदि सभी क्षरण के गुण लिए हुए है | उसमें आसक्ति रखना ही हमारे भय के मूल में है | जब तक हम भयग्रस्त हैं तब तक हम मुक्त नहीं हुए है, यह बिलकुल स्पष्ट है | इस संसार का संग करते हुए हम भय से कभी भी मुक्त नहीं हो सकते और भय से मुक्त हुए बिना परमात्मा की ओर यात्रा नहीं हो सकती |

        श्री मद्भागवत महापुराण में राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति का वृतांत आता है | वृद्धावस्था की दहलीज पर दोनों खड़े हैं और सन्तान न होने के कारण वे अपने आपको दुखी मान रहे हैं | तभी ऋषि अंगिरा और नारदजी का आगमन होता है | राजा उन्हें अपने दुःख का कारण बतलाते हैं | ऋषि अंगिरा और नारदजी के बहुत समझाने पर भी वे जिद्द करते हैं कि एक बार पुत्र हो जाये तो हम अवश्य ही सुखी हो जायेंगे | आखिर दोनों उन्हें इस चेतावनी के साथ पुत्र होने का आशीर्वाद देते हैं कि यह पुत्र तुम को सुख और दुःख दोनों ही देगा |

       समय पाकर रानी कृतद्युति पुत्रवती होती है | राजा चित्रकेतु बड़ा प्रसन्न होता है | दिन-रात राजा और रानी, पुत्र को लाड़-प्यार करने में ही लगे रहते हैं | इन दोनों का सुखी होना अन्य रानियों से देखा नहीं जाता | द्वेष-भाव से अन्य रानियां मिलकर राजपुत्र को विष दे देती है, जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है | राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति पुत्र शोक में रो-रो कर पागल हो जाते हैं | चेतना लौटते ही पुत्र के शव को सीने से लगाकर फिर से विलाप करने लगते हैं | तभी ऋषि अंगिरा और नारद मुनि वहां पहुँच जाते हैं |  

          ऋषि अंगिरा और नारद मुनि, राजा और रानी को विविध प्रकार से समझाते है कि ‘राजन ! हमने तो पहले ही कहा था कि यह पुत्र तुम्हें हर्ष और शोक, दोनों को ही देने वाला होगा परन्तु तुम माने नहीं और पुत्र प्राप्ति की अपनी जिद्द पर अड़े रहे | अब पुत्र के चले जाने से दुखी क्यों हो रहे हो ?’

           मनुष्य की यही नियति है कि वह जीवन भर आसक्ति के कारण सुखी दुखी होता रहता है | राजा और रानी, दोनों जिद्द करते हैं कि एक बार हमारे पुत्र से हमारी बात करा दीजिये | अंततः नारदजी द्वारा राजपुत्र की जीवात्मा को बुलाया जाता है | जीवात्मा को देखते ही राजा चित्रकेतु कहते हैं-‘पुत्र तुम कहाँ चले गए हो ? तुम्हारी मां तुम्हारे जाने से दुखी है | लौट आओ, हमारे पास |’ जीवात्मा उत्तर देते हुए कहती है-‘कौन पुत्र ? किसका पुत्र ? मुझे अपनी सांसारिक यात्रा में अब तक न जाने कितने मां बाप मिल चुके हैं | अब जहाँ मैं पहुँच गया हूँ वहां के मां-बाप मुझे देखकर प्रसन्न है और मैं भी उनके वहां प्रसन्न हूँ | मैं अब पुनः आपके यहाँ लौट नहीं सकता, प्रकृति का यही नियम है |’ इतना कहकर राजपुत्र की जीवात्मा अन्तरिक्ष में खो गयी |

            विलाप करते राजा-रानी को ऋषि अंगिरा और नारदजी ने विविध प्रकार से समझाते हुए ज्ञान दिया, तब जाकर दोनों पुत्र-शोक से मुक्त हो सके | ज्ञान होते ही राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति ने राजमहल का त्याग कर दिया और परमात्मा की प्राप्ति के लिए साधना करने वन की ओर चल दिए |

              इस प्रकार ययाति प्रसंग से निकला सूत्र तो कहता है कि अगर हम मुक्ति चाहते हैं तो हमें विषयों का त्याग कर देना चाहिए तथा चित्रकेतु-नारद-अंगिरा संवाद से यह निष्कर्ष निकलता है कि इच्छा रखना ही हमें बंधन में डालता है, मुक्त नहीं होने देता |

       सबसे महत्वपूर्ण बात है कि आसक्ति ही दुःख और भय का मूल कारण है | आसक्ति के कारण ही मन में विविध इच्छाएं और कामनाएं जन्म लेती है | जब कामना पूर्ति हो जाती है तो परिणाम में प्राप्त हुए के खो जाने का भय सताता है | कामना पूर्ण न हो तो दुःख और क्रोध पैदा होता है | कामना ही राग और द्वेष की जनक है | जो प्राप्त हुआ है, उसमें तो राग उत्पन्न हो जाता है और जिस कारण से प्राप्त नहीं हो सका है उस कारण के प्रति द्वेष |

         गीताजी के 16 वें अध्याय में दैवी सम्पदा का वर्णन आता है | जिसमें बताया गया है कि दैवी सम्पति मुक्ति के लिए है | हमें अपने जीवन में दैवी सम्पदा से युक्त होना चाहिए जिससे मुक्त हो सकें |

          दैवी सम्पदाएँ हैं- भय का सर्वथा अभाव, अंतःकरण की शुद्धि, योग में दृढ स्थिति,सात्विक दान, इन्द्रिय-दमन,यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्यपालन के लिए कष्ट सहना, शरीर-मन-वाणी की सरलता, अहिंसा, सत्य बोलना, क्रोध न करना, राग-द्वेष का न होना, चुगली न करना, सभी प्राणियों के प्रति दया भाव रखना, विषयों में आसक्त न होना, अकर्तव्य में लज्जा भाव, कोमल ह्रदय, चपलता का अभाव,तेज,क्षमा,धैर्य,शरीर की शुद्धि,वैर भाव का न होना, मान-सम्मान न चाहना आदि | इसके विपरीत आसुरी संपदाओं का वर्णन करते हुए भगवान् स्पष्ट करते हैं कि दंभ करना, घमंड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेकी होना आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण है |

      हमें दैवी सम्पदा से युक्त होना है, तभी संसार से मुक्त हो सकते हैं |

              मुक्त कौन है ? इसको स्पष्ट करते हुए भगवान् गीता के पांचवें अध्याय के 28 वें श्लोक में कहते हैं-

    यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:       |

     विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः || 

अर्थात जिसकी इन्द्रियां,मन और बुद्धि जीती हुई है, जो मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है |

       इन्द्रियां विषय-भोग को प्राप्त करने का कार्य करती है और मन उन विषय-भोगों को प्राप्त करने की इच्छा करता है जिसमें बुद्धि उसकी सहयोगी बनती है | इसलिए सबसे महत्वपूर्ण बात हुई; मन, बुद्धि को जीतना जिससे इन्द्रियाँ विषयों की ओर न दौड़े | ऐसा होना केवल तभी संभव है जब भीतर मोक्ष की कामना हो | परमात्मा के सम्मुख और संसार से विमुख होने से ही इन सबको जीता जा सकता है | मन, बुद्धि और इन्द्रियों को जीत लेने का परिणाम होता है-इच्छा, भय और क्रोध का न होना | जिस व्यक्ति के जीवन में इच्छा, भय और क्रोध का अभाव है वह सदैव मुक्त ही है | ऐसा मुक्त व्यक्ति ही परमात्मा प्राप्ति का अधिकारी होता है |

         संसार से मुक्त होने के लिए क्या करना होगा | भगवान् श्री कृष्ण गीता में कहते हैं –‘असंगशस्त्रेण दृढेण छित्वा’ (15/3) अर्थात दृढ मूलों वाले संसार रुपी वृक्ष को असंग रूप शस्त्र से काट दें | असंग का अर्थ है संसार का संग न करें | संसार के संग से तात्पर्य है, संसार में आसक्ति न रखें | हमारी आसक्ति या तो विषय-भोगों में होती है अथवा संसार के पदार्थों और विभिन्न शरीरों में, जिन्हें हम अपना परिवार कहते हैं | परिवार के सदस्य हमें वैसे ही इस जीवन में मिलते हैं, जैसे प्यासे व्यक्ति विभिन्न मार्गों से चलते हुए एक प्याऊ पर आकर कुछ समय के लिए मिल-बैठ जाते हैं | प्यास से मुक्त होते ही सभी अपने अपने रास्ते चल देते है |

       जब हम सब अपनी-अपनी यात्रा पर गतिमान है तो फिर राह में मिलने वालों से लगाव क्यों ? यह लगाव रखना ही बंधन है | इस प्रकार के लगाव से मुक्ति पा लेना ही संसार से  असंग हो जाना है | संसार से असंग होना ही मुक्ति है |

      भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि असंगता ही वह शस्त्र है जिससे सांसारिक बंधन काटे जा सकते हैं | संसार के बंधन काट डालने के उपरांत ही परमात्मा की खोज प्रारम्भ होती है, बंधन के रहते नहीं | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि संसार नित्य निवृत है, इसलिए इसको नित्य होना मान लेने की भावना का त्याग करना होता है और परमात्मा नित्य प्राप्त है, इसलिए उनकी खोज करनी होती है | ‘ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्’ (गीता-15/4) अर्थात असंग शस्त्र से संसार की दृढ मूल वाले वृक्ष को काटकर फिर परमात्मा की खोज करनी चाहिए |

             संसार में राग रखना ही बंधन है | संसार के प्रति राग को मिटा डालना ही मुक्ति है | बिना संसार से मुक्त हुए भगवान् से भक्त नहीं हो सकते | अतः भक्ति के लिए संसार से मुक्त होना आवश्यक है | यही परमात्मा तक पहुँचने का एक मात्र रास्ता है | जीवन में संसार से अनासक्त हो जाना ही हमें आत्म-बोध की ओर ले जा सकता है, जहाँ पहुंचकर हम स्वयं ही परमात्मा हो जाते है |

         गीता कहती है कि जो मान और मोह से रहित हो गए हैं, जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य निरंतर परमात्मा में लगे हुए है, जो सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गए हैं, जो सुख-दुःख नामक द्वंद्वों से मुक्त हो गए हैं वे ही वास्तव में संसार से असंग हुए हैं | इनमें से किसी भी व्यक्ति में एक भी विकार है तो समझ लें कि वह अभी भी बंधन में है, मुक्त नहीं हुआ है |

         जिसमें एक भी ऐसा विकार नहीं है वही मुक्त है | “गच्छन्ति अमूढ़ा: पदम् अव्ययं तत् (गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्-गीता-15/5) अर्थात ऐसे मुक्त हुए ज्ञानी व्यक्ति ही उस अविनाशी पद को प्राप्त करने के लिए गतिमान होते हैं | कहने का अर्थ है कि संसार से असंग होने के लक्षण जो कि ऊपर बतलाये गए हैं, परमात्मा केवल ऐसे पुरुषों के लिए ही प्राप्तव्य है | अतः हमें जो यह मनुष्य जीवन मिला है उसकी उपयोगिता तभी है जब हम संसार में आसक्त न रहें और परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास करें।

                     सिकंदर के जीवन का एक वृतांत है | जब सिकंदर अपने विश्व-विजय अभियान पर निकला था तब निकलने से पहले वह अपनी मां से आशीर्वाद लेने उनके पास गया था | उसने मां से पूछा कि जब मैं विश्व-विजय अभियान से लौटूं तो तुम्हारे लिए क्या लेकर आऊँ ? मां ने कहा कि अगर ला सकते हो तो भारत देश से एक संत को लेकर आना | सिकंदर ने सोचा कि एक संत को हिंदुस्तान से ले कर आना कौन सी बड़ी बात है? उसे तो मैं बड़ी आसानी से ले आऊंगा |

            परन्तु सिकंदर की सोच ही गलत थी | संत अपनी मर्जी का मालिक होता है, किसी का गुलाम नहीं | इसीलिए वह सदैव भयमुक्त रहता है |

       जब सिकंदर अपनी हिंदुस्तान यात्रा से वापिस लौटने लगा तो उसको अपनी मां का कहा स्मरण हो आया | उसने तत्काल ही किसी संत की खोज में निकल पड़ने की सोची | इस विचार को अपने सैन्य साथियों के साथ बाँटते हुए वह एक संत की खोज में निकल पड़ा | उसके  साथियों ने सुरक्षा के लिए साथ चलने का कहा परन्तु उसने यह जान कर उन्हें रोक दिया कि भला एक संत को लाने में सेना की क्या आवश्यकता है ?

        हिमालय की गुफाओं में खोजते-खोजते सिकंदर को आखिर एक संत मिल ही गए | घोड़े पर बैठा सिकंदर और जमीं पर अधलेटा नंगधडंग एक संत | घोड़े पर बैठे-बैठे सिकंदर बोला-‘तुम्हें मेरे साथ यूनान चलना होगा |’ संत ने कहा कि ‘हम कहीं जाते-आते नहीं है।हमने भटकना छोड़ दिया है’ | सिकंदर ने कहा – ‘यह तलवार  देखते हो न | मैं चाहूँ तो इसके एक ही झटके में तुम्हारा सिर धड़ से अलग हो जायेगा |’ संत ने कहा –‘किसको तलवार का भय दिखा रहे हो ? जिस प्रकार तुम मेरा सिर धरती पर गिरते देखोगे उसी प्रकार मैं भी उसे गिरते देखूंगा |’

          सिकंदर की आँखों में आँखे डालकर भारत का एक संत बात कर रहा है | उसे तनिक भी भय नहीं है कि सामने मन में विश्व विजय की कामना लिए एक सम्राट खड़ा है | भारत का यह संत मुक्त है, सभी प्रकार की इच्छाओं से, भय से, क्रोध से | जबकि सिकंदर की इच्छाओं का कोई ओर-छोर नहीं है | संत की बात सुनते ही सिकंदर का क्रोध जैसे पिघल गया | आज वह एक साधारण से दिखने वाले संत से परास्त हो गया | हिम्मत कर उसने संत से पूछा - ‘आप कौन है ?’ संत ने कहा –‘अहम् ब्रह्मास्मि |’

        संत के ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ कहते ही सिकंदर चौंका | एक नंगधडंग संत भूमि पर पड़ा है, जिसके पास कुछ भी नहीं है और वह निर्भय होकर कह रहा है कि मैं ब्रह्म हूँ | सिकंदर की मुमुक्षा बढ़ी | वह और अधिक जानने को आतुर हुआ | घोड़े पर से नीचे उतरा | तलवार को अलग रखते हुए संत के सामने घुटनों के बल बैठकर नत मस्तक हो गया | आज उसे समझ में आ रहा था कि मां ने जो वस्तु मुझसे मांगी है, जिसको मैं एक साधारण सी बात मान रहा था, वह संसार की समस्त धन-दौलत से भी न खरीदे जा सकने वाली वस्तु है।वह वस्तु इतनी असाधारण है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता |

           सिर उठाकर सिकंदर ने बड़ी ही मधुर वाणी में संत से पूछा - ‘अगर आप ब्रह्म है तो फिर मैं कौन हूँ ?’ संत ने उत्तर दिया –‘तत्त्वमसि’ (तत् त्वं असि) अर्थात तुम भी वही हो |’ सुनकर सिकंदर की आँखें फटी की फटी रह गयी | वह सोचने लगा - ‘मैं भी ब्रह्म हूँ | मैंने अभी तक यह जाना ही नहीं था | संत के सानिध्य ने आज ही मुझे इस बात का ज्ञान कराया है |”  आज सिकंदर अपने को संसार का सबसे सौभाग्यशाली व्यक्ति समझ रहा था जो उसे  एक संत का सानिध्य मिला | सत्य है-अँधेरे को भगाने के लिए प्रकाश की एक छोटी से किरण ही पर्याप्त है |

            सिकंदर से इससे आगे कुछ भी पूछते न बना | उसने संत को प्रणाम किया और अपनी तलवार उठाकर घोड़े पर बैठ गया और भारी मन से वहां से निकल गया | उसके लिए अभी भी बहुत कुछ जानना शेष था परन्तु उसके साथी उसकी सुरक्षा को लेकर चिंतित हो रहे होंगे, यह जानकर वह अधिक न रूक सका | एक संत के अल्प समय के लिए मिले सानिध्य ने उसको कितना परिवर्तित कर दिया, इसको जान लेने की हमारी उत्सुकता नहीं है | हमें तो संत की बात महत्वपूर्ण लगी |

       एक दृष्टि संत के व्यवहार पर डालेंगे तो पाएंगे कि ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ कहना तभी संभव हो सकता है, जब व्यक्ति मुक्त हो | समस्त आसक्तियो से मुक्त होते ही संसार से मुक्त हो जाता है और फिर वह स्वयं ही ब्रह्म हो जाता है | इसलिए जीवन में भय मुक्त हों, क्रोध मुक्त हों और इच्छा रहित हों | तीनों आपस में सम्बंधित है | केवल इनसे मुक्त होने के लिए मन, बुद्धि और इन्द्रियों पर दृढ़ता से नियंत्रण करना होगा | तभी हम मुक्त कहे जा सकते हैं और उस अवस्था को एक दिन उपलब्ध हो जायेंगे जब हम भी कह सकेंगे –“अहम् ब्रह्मास्मि |”

प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||


         


 


            


 


           


        


             


Friday, December 3, 2021

नाथ आजु मैं काह न पावा...

 नाथ आजु मैं काह न पावा...

        अभी कुछ दिनों पूर्व की बात है, मैं अपने मित्रों के साथ बैठा चर्चा कर रहा था | अनायास ही एक मित्र ने कहा कि “आप जब भी चर्चा करते हैं, तब गीता अथवा उपनिषद की बात अधिक करते हैं, राम-चरित्र से सम्बंधित उदाहरण बहुत ही कम देते हैं | क्या आपको गोस्वामीजी की रामचरितमानस पसंद नहीं है ?” मैंने कहा कि ऐसी बात नहीं है, राम-चरित्र के समान कोई दूसरा मर्यादित चरित्र नहीं है | इतना कहकर मैंने चर्चा का विषय बदल दिया और उनकी रुचि को देखते हुए श्री रामचरितमानस पर बात करने लगा |

           मित्र द्वारा अनायास दागे गए इस प्रश्न ने मुझे कुछ सोचने को विवश कर दिया | ऐसा नहीं है कि गोस्वामीजी की रामचरितमानस ने मुझे प्रभावित नहीं किया है | जीवन में सर्वप्रथम जिस ग्रन्थ से प्रेरणा मिली वह गोस्वामीजी का यही ग्रन्थ था | बात उन दिनों की है जब मैं सातवीं कक्षा में अध्ययनरत था | उस समय की हिंदी की पुस्तक में एक पाठ होता था- “केवट का भाग्य” | उस समय की समझ के अनुसार उस पाठ ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया | हालाँकि उस समय की सोच-समझ ने रामचरितमानस के इस प्रसंग के मर्म को इतना स्पष्ट रूप से मैं समझ नहीं सका था जितना बाद में संतों के मुख से सुनने से यह स्पष्ट हुआ है |

          श्री रामचरित मानस में केवट-प्रसंग मात्र तीन दोहों के अंतर्गत आई चौपाइयों तक ही सिमटा हुआ है | इतना कम स्थान मिलने के उपरांत भी यह प्रसंग बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है | वाल्मीकि रामायण और अध्यात्म रामायण में केवट प्रसंग है ही नहीं | इन दोनों ग्रंथों में गंगा पार जाने के लिए केवल मल्लाहों और निषादराज गुह के द्वारा ही नाव का सञ्चालन करना बताया गया है | श्री रामचरितमानस में जिस ढंग से गोस्वामीजी ने इस प्रसंग को भावपूर्ण बनाया है, वह भले ही उनकी एक कल्पना मात्र हो परन्तु है वह बहुत ही उच्च कोटि की | यथार्थ के मूर्त रूप लेने के पीछे कल्पना का ही हाथ होता है | प्रत्येक महत्वपूर्ण खोज का आधार कोई न कोई कल्पना ही होती है | कल्पना से ही इस संसार का निर्माण हुआ है और कल्पना से ही जीवन को आनंदित बनाया जा सकता है | मनुष्य अपने जीवन में अगर कल्पना ही नहीं करे तो उसका जीवन नीरस ही बना रहता है | जीवन की सरसता का राज़ कल्पना में ही छिपा रहता है | इसी कल्पना ने गोस्वामीजी के केवट का अस्तित्व न होते हुए भी उसे जीवंत बना दिया है |

         त्रेतायुग में गंगा के किनारे तुलसी का वह केवट रहता था अथवा नहीं, हमारे चिंतन का यह विषय नहीं होना चाहिए | चिंतन का विषय होना चाहिए कि केवट ने अपने जीवन में ऐसा क्या कार्य किया जिसके कारण वह अमर हो गया | केवट नाम के चरित्र को जानना और समझना इतना सरल नहीं है | केवट को समझने के लिए हमें स्वयं को केवट बनना होगा | इसी केवट प्रसंग की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए त्रेता युग से पूर्व आपको सतयुग में लिए चलता हूँ |

          सतयुग में एक बार क्षीर सागर में भगवान् श्री हरिः शेष शैया पर विश्राम कर रहे थे | श्रीजी उनके चरणों की सेवा में रत थी | भगवान् की शैया बने थे शेषजी महाराज जोकि अभी श्री हरिः के शारीरिक स्पर्श का सुख लेने में मग्न है | तभी वहां एक कछुआ आता है जोकि श्री हरिः के चरणों का स्पर्श पाने को आतुर है | वह चरणों का स्पर्श करने के लिए शेष शैया पर चढने का बार-बार प्रयास करता है | शेषजी को इस बात का आभास हो जाता है और वे अपनी पूंछ फटकारने के साथ-साथ फुंफकार भी रहे हैं | तुरंत ही कछुआ दूर हट जाता है और पुन: अवसर मिलने की प्रतीक्षा करता है | इस बार अनुकूल समय जानकार फिर कछुआ श्री हरिः की ओर बढ़ता है | शेषजी फिर चरण स्पर्श का उसका प्रयास विफल कर देते हैं |

          श्री हरिः तो जन जन के मन की बात जानते हैं फिर भला एक छोटे से कछुए के मन की बात उनसे कैसे छिपी रह सकती है ? भगवान् समझ गए कि कछुआ चरण स्पर्श को व्याकुल है | वे शयन करते हुए जरा सी करवट लेते हैं और अपना एक पाँव शेष शैया से थोडा सा बाहर निकाल देते हैं, जिससे कछुआ उसे आसानी से स्पर्श कर सके | कछुआ भगवान् का संकेत समझ जाता है | वह एक बार फिर से प्रयास करता है | इस बार श्रीजी सजग हैं | ज्योंही वह उनके चरणों को स्पर्श करने वाला होता है कि लक्ष्मीजी की दृष्टि उस पर पड़ जाती है | लक्ष्मीजी अपने हाथ को झटककर कछुए को दूर भगा देती है और श्रीहरिः के पाँव उठाकर वापिस शैया पर कर देती है |

        थोड़े समय उपरांत भगवान् फिर दूसरी करवट लेते हैं और उधर के पाँव को शैया से थोडा बाहर निकाल देते है | कछुआ एक बार पुनः प्रयास करता है परन्तु इस बार भी वह लक्ष्मीजी की दृष्टि से बच न सका | लक्ष्मीजी ने फिर उस कछुए को चरणों का स्पर्श करने से वंचित कर दिया | इस प्रकार कई प्रयास करने के उपरांत भी कछुआ श्री हरिः के चरणों तक अपनी पहुँच न बना सका |

            उसी समय श्रीहरिः नींद से जाग जाते है और चारों ओर अपनी दृष्टि घुमाते हैं | एक दृष्टि कछुए पर डालते हैं और फिर शेषजी तथा लक्ष्मीजी की ओर देखकर हंस पड़ते हैं | भगवान् को जगा हुआ जानकार कछुआ समुद्र के जल में एक गहरी डूबकी लगाता है और सब की दृष्टि से ओझल हो जाता है | श्रीजी और शेषजी भगवान् के हंसने का कारण जानने का प्रयास करते हैं परन्तु जान नहीं पाते और पुनः पूर्व की भांति उनकी सेवा में लग जाते हैं |

            भगवान् की उस समय की हंसी के पीछे कोई न कोई कारण तो अवश्य ही रहा होगा | क्या रहा होगा, उसको या तो केवल वे स्वयं जानते हैं अथवा कोई उनको जानने वाला ही जान सकता है | हंसने का अर्थ होता है, किसी बात को सुनकर अथवा देखकर आनंदित होना | संसार की आसक्तियों में आकंठ डूबा हुआ व्यक्ति भगवान् की लीला का आनंद नहीं उठा सकता जबकि इस संसार को भगवान् ने लीला करते हुए उससे आनंद लेने के लिए ही बनाया है | जब भगवान् को किसी लीला में अतिशय आनंद की अनुभूति होती है तब अनायास ही उनको हंसी आ जाती है |

           प्रभु तो जानते हैं कि कछुआ मेरे चरण का स्पर्श पाकर मुक्त होना चाहता है परन्तु मुक्ति इतनी सरल भी तो नहीं है | मुक्ति के लिए उसे अभी और तपस्या करने की आवश्यकता है | कछुआ भगवान् का भक्त है, वह इस बात को समझ जाता है और तप में लीन हो जाता है |

           प्रत्येक युग में परमात्मा को अवतार लेकर इस धरा पर आना पड़ता है | उनके अनन्य भक्त उनके अवतार लेने की प्रतीक्षा करते हैं | सतयुग का वह कछुआ भी त्रेतायुग में गंगातट पर बैठा उनके आने की प्रतीक्षा कर रहा है |

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ||” (गीता-4/7)

अर्थात जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने आप को प्रकट करता हूँ |

        इसी बात को मानस में गोस्वामीजी इस प्रकार लिखते हैं-

   जब जब होइ धर्म कै हानी |

   बाढहिं असुर अधम अभिमानी |

   तब तब प्रभु धरि बिबिध शरीरा | 

हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ||(1/121/6-8)

         इसी आधार पर त्रेता युग में भगवान् का अवतरण श्री राम के रूप में हुआ | गोस्वामीजी लिखते हैं-‘राम जन्म के हेतु अनेका’ (मानस-1/122/2) केवल एक कारण से ही श्री राम का जन्म नहीं हुआ बल्कि इस जन्म के पीछे अनेक कारण रहे हैं। परमात्मा के अवतार लेने के पीछे कई कारण होते हैं परन्तु मुख्य कारण अधर्म की वृद्धि को रोककर धर्म का उत्थान करना होता है | एक साधारण व्यक्ति भी जब इस संसार में जन्म लेता है, उसके जन्म लेने के भी अनेक कारण होते हैं | पूर्व मानव जन्म में रही अनेकों कामनाएं, ममता आदि उसको इस संसार में बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र में घुमाती रहती है परन्तु नया जन्म पाकर भी वह इस वास्तविकता को समझ नहीं पाता | परमात्मा के साथ ऐसी बात नहीं है | वे जब भी इस संसार में अवतरित होते हैं, उन्हें अपने आने का उद्देश्य स्पष्ट होता है | अपने उद्देश्य के अनुरूप ही वे यहाँ पर लीला करते हैं और उद्देश्य पूर्ण होते ही अपनी लीला को समेटकर पुनः लौट जाते हैं |

           राम के जन्म लेने का मुख्य उद्देश्य भले ही धर्म की हानि को रोककर उसका उत्थान करना रहा होगा परन्तु सांसारिक लीला में वे अपने भक्तों का भी पूरा ध्यान रखते हैं, ऐसे में वे भला उस कछुए को कैसे भूल सकते हैं जिसने सतयुग में उनके चरण स्पर्श करने का विफल प्रयास किया था | उनकी लीला को सुनने और देखने में आनंद की अनुभूति होती है | लीला भी मानवोचित हो, तभी लीला का महत्व है | नाटक अगर नाटक ही प्रतीत हो तो फिर दर्शक पर वह नाटक अपना प्रभाव नहीं छोड़ पायेगा | नाटक में वास्तविकता प्रतीत हो, तभी उसमें आनंद आता है अन्यथा नहीं | देखा जाये तो भगवान् के लिए क्या संभव नहीं है अर्थात उनके लिए सब कुछ संभव है | भगवान् चाहते तो अल्प समय में ही रावण कुम्भकरण का आसानी से वध कर सकते थे परन्तु ऐसा करना एक मानव के रूप में उनके लिए उचित नहीं होता | भगवान् साधारण मनुष्य के रूप में आये हैं, तो उनके लिए साधारण मनुष्य का सा ही व्यवहार करना ही उचित होगा | मनुष्य जैसा व्यवहार करना ही उनकी लीला करना कहलाता है |

          लीला की पटकथा स्वयं भगवान् ही लिखते हैं अर्थात लेखक भी भगवान् और रंगकर्मी के रूप में भी भगवान् | इसी लीला की पटकथा के अनुसार भगवान् का जन्म राम के रूप में हुआ | उसकी लीला को पूर्णता प्रदान करने के लिए कई पात्र इस संसार में जन्म ले चुके हैं उनमें से एक वह कछुआ भी है | त्रेता में वही कच्छप, केवट बनकर गंगा किनारे प्रभु के आने की प्रतीक्षा कर रहा है | केवट जानता है कि मेरे प्रभु अपने चरणों का आश्रय प्रदान करने एक दिन अवश्य गंगा किनारे आयेंगे | भगवान् के आने की प्रतीक्षा केवल केवट ही नहीं कर रहा था, उसके अतिरिक्त भी अनेकों ऋषि-मुनि, अहिल्या, जनक सुता जानकी, भक्त हनुमान, सुग्रीव, शबरी, जटायु आदि ही नहीं, रावण सहित अनेकों राक्षस भी उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं |

            भगवान् राम रूप में अवतरित हुए | अहिल्या का उद्धार करते हुए जानकीजी का वरण किया | राजतिलक होने ही वाला था कि सब कुछ परिवर्तित हो गया | भगवान् कहते हैं कि ‘मम माया संभव संसारा’ मेरी माया से यह संसार बना है और सब कुछ इस संसार में होना संभव है | लोगों की प्रतीक्षा रंग लाई और भगवान् राजभवन छोड़कर वनयात्रा पर निकल पड़े | अनेकों नदियाँ पार करनी पड़ी | उनसे कैसे पार हुए, पता नहीं परन्तु गंगा को पार करने के लिए उन्हें नाव की आवश्यकता आ पड़ी क्योंकि कोई उनकी यहाँ प्रतीक्षा कर रहा है | लक्ष्मण को आदेश दिया गया - ‘नाव की व्यवस्था करो’| गंगा की अथाह जलधारा और लम्बा-चौड़ा पाट | किनारे पर नाव भी केवल एक और वह भी उसी केवट की | केवट आने में देरी कर रहा है और उधर जानकीजी पार जाने को उतावली हो रही है | भगवान् श्रीराम भी धैर्य के साथ केवट के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं | भगवान् भीतर ही भीतर जानते हैं कि देरी क्यों हो रही है ?

             ‘कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना’- केवट कहता है कि प्रभु ! मैं आपके मर्म को जानता हूँ | केवट भगवान् का कौन सा मर्म (भेद) जान गया है जो नाव लाने में इतनी देर लगा रहा है ? वह मन ही मन कह रहा है- “मैं जानता हूँ प्रभु कि आप नदी एक क्षण के भीतर पार कर सकते हैं, नाव की आपको कोई आवश्यकता नहीं है | आप यह बात जानते हैं कि मैं आपके चरण-स्पर्श करने को युगों युगों से लालायित हूँ | आप इस बार मेरी यह कामना पूरी करने जा रहे हैं, इसीलिए आप नाव से नदी पार करा देने का मुझसे अनुग्रह कर केवल अभिनय कर रहे हैं | इस क्षण की मैंने पूरे एक युग तक प्रतीक्षा की है | अब बारी मेरी है | मैं भी आपको कुछ समय के लिए प्रतीक्षा करवाऊंगा |” भक्त की महिमा विचित्र है | संसार में केवल प्रभु का भक्त ही प्रभु के मन की बात समझ सकता है | भगवान् भी भक्त के प्रेम के इतने अधिक भूखे रहते हैं कि वे भक्त के लिए धैर्य धारण कर लम्बी प्रतीक्षा भी कर सकते हैं |

            अंततः सभी की प्रतीक्षा समाप्त होती है और नाव लेकर केवट आ जाता है | भगवान्, सीता और लक्षमण को साथ लेकर नाव में चढने वाले ही होते हैं कि केवट उन्हें रोक देता है | अभी भी कुछ और समय के लिए उसे भगवान् का सानिध्य चाहिए | कहता है – ‘अभी ठहरिये प्रभु ! आपके चरणों की रज की विशेषता मैंने सुनी है | आपने एक पत्थर को अपने चरणों से जरा सा क्या छुआ कि वह एक मुनि की पत्नी (गौत्तम ऋषि की पत्नी अहिल्या) बन गयी | एक पत्थर को छूते ही जब शिला भी नारी के रूप में परिवर्तित हो जाती है तो ऐसे में भला, उसके सामने मेरी इस लकड़ी से बनी नाव की बिसात ही क्या है ? मेरी नाव का तो न जाने क्या होगा ? गौत्तम ऋषि के पास तो उस समय उनकी पत्नी नहीं थी, इसलिए उनके लिए तो ऐसा होना उचित ही था परन्तु मेरे पास तो पहले से ही एक पत्नी है | कल को मेरी नाव भी आपके चरण रज का स्पर्श पाकर नारी बन गयी तो मेरा क्या होगा ? दो-दो पत्नियां एक साथ रख पाने की स्थिति में मैं नहीं हूँ |’

           भगवान् कहते हैं-“केवट ! ऐसा नहीं होगा | तू व्यर्थ की ही चिंता करता है | देखो, जानकीजी नदी पार करने को उतावली हो रही है और लखन भी क्षुब्ध हो रहा है |’ केवट कहने लगा – ‘प्रभु ! मान लिया. मेरी नाव नारी नहीं बनेगी | परन्तु क्या पता आपके पैरों की धूल का स्पर्श पाते ही यह नष्ट हो जाये | मैं एक गरीब मल्लाह हूँ | मेरी आजीविका, मेरे परिवार का भरण-पोषण केवल इसी एक नाव पर आश्रित है | मैं एक नाव खेने के अतिरिक्त अन्य कोई काम भी करना नहीं जानता | ऐसे में भला मेरे द्वारा अपने परिवार का पालन-पोषण करना कैसे संभव होगा ? आपके चरणों की रज मिल जाये, बस इतना ही मेरे लिए पर्याप्त है | आपके चरणों के आश्रय से मेरा और मेरे परिवार का कल्याण हो जायेगा |’

             इस प्रकार भगवान् और भक्त के मध्य भावपूर्ण वार्तालाप चल रहा है | केवट इतना कहकर यहीं पर नहीं रूका, वह आगे कह रहा है –‘हाँ, एक बात और | आप केवल मुझे अपने पैरों को धोने की आज्ञा दें, इसके अतिरिक्त मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए | मैं आपको गंगाजी के उस पार ले जाने की कोई मजदूरी भी आपसे नहीं लूँगा | मुझे आप और आपके पिताजी की सौगंध, जो मैं थोडा सा भी झूठ कहूँ तो, मैं सब सत्य कह रहा हूँ | मुझे अब लक्षमण के बाण का भी भय नहीं है | प्रभु ! वह अवसर चला गया जब मैं आपके द्वार पर आया था और शेषजी की फुंफकार से डरकर आपके चरण स्पर्श करने से वंचित रह गया था | आज आप मेरे द्वार पर आये हैं, वह भी अपनी इच्छा से | अब मैं उस प्रतीक्षा के एक एक क्षण का हिसाब लूँगा | आज भगवान् आये हैं, इस भक्त का उद्धार करने | अब भला मुझे किस बात का भय सता सकता है | प्रभु ! आप चाहे जो कीजिये, यह अवसर अब मैं व्यर्थ ही जाने नहीं दूंगा | नहीं, नहीं मैं आपको बिना आपके पाँव धोये इस नाव की सवारी नहीं करने दूंगा |’

           केवट के वचन प्रेम से सने हुए और अटपटे होते हुए भी बिलकुल स्पष्ट थे | वह अपनी भाषा में भाव विभोर होकर अपने प्रभु से वार्तालाप कर रहा था | केवट की बातें सुनकर भगवान् श्री राम, सीता और लक्षमण की ओर देखकर उसी प्रकार हंस दिए जैसे सतयुग में कछुए के प्रयास को विफल होते देखकर श्रीजी और शेषजी की तरफ देखकर हँसे थे | मानो प्रभु कह रहे हों कि मैं मेरे भक्त के वश में हूँ | रास्ते की कोई भी बाधा इतनी बड़ी और कठिन कभी भी नहीं हो सकती जोकि किसी भक्त का प्रभु से मिलन रोक सके | लक्ष्मण और सीताजी के चहरे के भाव बता रहे थे कि वे अब गंगा पार जाने के लिए और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकते | राम ने उनके ह्रदय की बात जान ली और केवट को मुस्कुराते हुए कहा – ‘केवट, तुम वही कार्य करो, जिससे तुम्हारी नाव सुरक्षित रह सके | त्वरित गति से जाओ और गंगाजी का जल लाकर उससे मेरे पाँव धो लो |’

      जासु नाम सुमिरत एक बारा |

       उतरहिं नर भवसिंधु अपारा |

      सोइ कृपालु केवटहि निहोरा | 

      जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ||

             सतयुग में एक दिन कछुआ चरण स्पर्श करना चाहता था, आज त्रेता में केवट के रूप में वह प्रभु के सामने खड़ा है | वामन अवतार लेकर जिस प्रभु ने राजा बलि से तीन पैर भूमि मांगी थी और बलि ने अपने गुरु की बात न मानते हुए उसे देने का संकल्प कर लिया था, उस समय प्रभु ने पूरे जगत को केवल दो पैरों से नाप लिया था, क्या उस प्रभु के लिए एक नदी को अपने बल से पार कर पाना संभव नहीं था ? भगवान् के लिए कुछ भी असंभव नहीं है | परन्तु यहाँ मामला भक्त और भगवान् के मध्य का है | भगवान् आज भक्त को कृतार्थ करने आये हैं | सतयुग के उस कछुए की तपस्या अब त्रेता में जाकर रंग लाई है | सदा सेवक स्वामी के अधीन होता है परन्तु आज स्वामी सेवक के अधीन हो रहा है | ऐसे में भला स्वामी अपनी शक्ति का प्रदर्शन क्यों कर करेंगे ? सब कुछ भगवान् की इच्छा से ही तो हो रहा है |

          गीता में भगवान् कहते हैं कि अगर अन्तकाल में भी कोई व्यक्ति मेरे नाम का स्मरण एक बार भी कर लेता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है | अजामिल ने अंत समय में एक बार ‘नारायण-नारायण’ कहा और संसार सागर से पार हो गए | क्या ऐसे उद्धारक भगवान् को गंगाजी को पार करने के लिए नाव और उसको खेने वाले की आवश्यकता रही होगी ? यह सत्य बात है कि सब कुछ भगवान् के अधीन है | वे जैसा चाहते हैं, वैसा ही हो जाता है | परन्तु यहाँ साधारण स्थिति की बात नहीं है | यहाँ भक्त और भगवान् के आपसी सम्बन्ध की बात है | तभी तो भगवान् को भक्त से अनुनय विनय करनी पड़ रही है और इस लीला का भगवान् के साथ-साथ भक्त भी पूरा आनंद ले रहा है | भक्त भी जानता कि भगवान् सर्व समर्थ हैं | यहाँ भक्त भी अपने अभिनय को भगवान् की लीला में पूर्ण दक्षता के साथ निभा रहा है |

          भगवान् ने बहुत सी नदियाँ अपने वन गमन की अवधि में पार की होगी | आज गंगा मैया को उनकी लीला देखने का पुनीत अवसर मिला है | चरण धोवन से पूर्व भगवान् के पैरों के नख देखकर गंगा भी आनन्दित है | आनंदित क्यों न हो, आखिर उसका उद्गम भी तो इन्हीं चरणों से हुआ है | आश्चर्य की बात नहीं है क्या कि परमात्मा के चरण देखकर एक नदी भी हर्षित हो सकती है | ऐसा तभी होता है जब भगवान् भक्त के वश में हो जाते है | आज से पूर्व भी करोड़ों अरबों नाविकों ने गंगा के ऊपर नाव चलाई होगी परन्तु भगवान् को पार ले जाने वाला कोई कोई ही केवट होता है अन्यथा तो केवल भगवान् ही संसार सागर से पार करने वाले एक मात्र नाविक हैं | भगवान् का नाम लेकर भव सागर को पार करने वाले भक्त आज भगवान् को सांसारिक नदी को पार कराने में अपना अहोभाग्य समझ रहे हैं | प्रभु की लीला विचित्र है | इसको समझना केवल भक्त के वश में ही है |

          भगवान् श्रीराम की आज्ञा पाते ही केवट प्रसन्न हो गया | तत्काल ही वह हर्षित मन से उठा और पानी की कठौती भर लाया | बड़े आनंद के साथ वह धीरे-धीरे भगवान् के पाँव धोने लगा | कहाँ तो स्वर्ग के देवता तक भगवान् के दर्शन को लालायित रहते है और यहाँ तो साक्षात् परमेश्वर के चरण को एक साधारण नाविक केवट अपने हाथों में लेकर बड़े प्रेम से धो रहा है | देवता भी प्रभु की ऐसी लीला देखकर हर्षित हुए बिना नहीं रह सके | देवता आपस में बात करते हुए कह रहे हैं कि केवट ने पूर्वजन्म में कोई बड़ा भारी पुण्य किया है, जिसका लाभ उसे आज मिल रहा है | अपने जीवन में जो भी कार्य आप परमात्मा का कार्य मान कर करते हैं, उसका पुण्यलाभ आपको कभी न कभी अवश्य ही मिलता है  | केवट ने अपने पूर्व जीवन कछुए के रूप में परमात्मा के चरणों की कामना की थी, आज उसके वे ही कर्म परिपक्व हुए है | आज उसी कामना के कारण प्रभु का सानिध्य उसे मिल पाया है |

      पाँव धोते धोते केवट के समक्ष एक बड़ी समस्या आ खड़ी हुयी | वह एक पैर धोकर जमीन पर रखता और दूसरा पैर धोने लगता कि पहले पैर पर गंगारज चिपक जाती | फिर वह पहले वाले पैर को धोता तो दूसरे पैर के रज लग जाती | भगवान् समझ गए कि इस बहाने तो यह केवट जीवन भर मेरे पैर छोड़ने का नाम ही नहीं लेगा | अंततः उन्हें कहना ही  पड़ा कि केवट तुम यह क्या कर रहे हो ? केवट बोला कि ‘प्रभु जब मैं एक पैर धोकर दूसरा पैर धोने लगता हूँ तब धोये हुए पैर से धूल फिर चिपक जाती है | मैं क्या करूँ प्रभु ? प्रभु, आप ऐसा कीजिये कि आपका एक पैर धुलते ही उसे मेरे एक हाथ पर रख दीजिये | फिर दूसरा पैर इस जल भरी कठौती में रख दीजिये | दूसरे पैर के धुलते ही वह पैर मेरे दूसरे हाथ पर रख दीजिये | इस प्रकार आप के दोनों पैर मेरे हाथों में होंगे तो धुल से सनने का प्रश्न ही नहीं उठेगा |’ प्रभु हंसकर बोले – ‘भला, दोनों पांव बिना किसी सहारे के कोई एक साथ कैसे ऊपर उठा कर रख सकता है ?’ केवट भी बड़ा चतुर निकला, बोला-‘ ऐसा कीजिये प्रभु, आप अपने दूसरे पैर को कठौती में रखते समय मेरे सिर पर अपने दोनों हाथ रख दीजिये | ऐसा करने से मैं भी निर्भय हो जाऊंगा और आपके गिरने का भय भी नहीं रहेगा |’ भगवान् की लीला भी कैसी कैसी होती है ? भक्त को भगवान् का ही एक मात्र सहारा होता है और आज भगवान् एक भक्त का सहारा ले रहे हैं |

           भगवान् मन ही मन अपने भक्त की चतुरता पर मुस्कुरा रहे हैं | भक्त केवल चरण-स्पर्श से ही संतुष्ट नहीं होता है, साथ ही वह अपने सिर पर भी भगवान् का हाथ चाहता है | सत्य भी है कि एक भगवान् के अतिरिक्त भक्त का कोई दूसरा आश्रय होता भी तो नहीं है और न ही भक्त अन्य किसी का आश्रय लेना चाहता है | भगवान् भला क्या करते ? लक्ष्मण और सीताजी की ओर देख मुस्कुराते हुए केवट के चाहे अनुसार करते रहे | केवट की समस्या फिर भी समाप्त नहीं हुई | प्रभु के दोनों पाँव तो पखार दिए परन्तु अब अगर फिर से उन्हें जमीन पर रखेगा तो वे धुल से पुनः सन जायेंगे | बड़ा ही सुन्दर दृश्य है | आप भी इस भावपूर्ण दृश्य का आनंद लीजिये | आज भक्त के पूरे वश में भगवान् हो गए हैं | केवट के दोनों हाथों में भगवान् के दोनों पैर है और केवट के सिर पर भगवान् के दोनों हाथ | स्थिति ऐसी है कि उस समय केवट जो चाहे वह भगवान् के साथ कर सकता है | तत्काल ही वह खड़ा हुआ और उसने भगवान् को अपनी गोद में उठा लिया और धीरे-धीरे चलता हुआ उन्हें नाव में ले जाकर बिठा दिया | केवट की सारी समस्या एक क्षण में ही दूर हो गयी |

        नाव में भगवान् को बिठाकर केवट लौटा और कठौती के जल (चरणामृत) का सर्वप्रथम स्वयं ने पान किया, फिर परिवार के समस्त सदस्यों को भी पान कराया और साथ ही साथ अपने समस्त पूर्वजों तथा पितरों को भी पान कराया | ऐसा करके वह तुरंत ही नाव पर लौट आया | जब तक लौटता तब तक लखन और जनकसुता भी नाव पर चढ़ चुके थे और गुह उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे | केवट के आते ही निषादराज गुह भी उसके साथ ही नाव पर चढ़े | प्रमुदित मन से केवट नाव खेते हुए प्रभु को गंगाजी के उस पार ले गया | प्रभु की लीला देखिये ! आज एक भक्त ने भगवान् को नदी के पार कर दिया | भगवान् आज भक्त के ऋणी हो गए | अब भगवान् की जिम्मेवारी, समय आने पर वे ही भक्त को संसार सागर के पार ले जायेंगे |

           गंगा के दूसरे किनारे पहुंचते ही भगवान् श्रीराम के साथ सीताजी, लखन और निषादराज भी नाव से उतरे | केवट ने नाव को गंगा किनारे बांधा, नाव से नीचे उतरा और जमीन पर दण्डवत लेटकर प्रभु को प्रणाम किया | चाह कर भी वह उठ नहीं पा रहा था | आज केवट का ह्रदय गद्गद् हो रहा था | उसके दोनों नयनों से सतत नीर बहे जा रहा था | वह एकटक प्रभु को ही देखे जा रहा था | एक प्रभु के अतिरिक्त उसे कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ रहा था | अनन्य भक्ति वही होती है जिसमें एक भगवान् के अतिरिक्त सब कुछ खो जाये |

            केवट जानता था कि साक्षात् परमात्मा कुछ क्षणों पश्चात् उसकी दृष्टि से ओझल होने जा रहे हैं | तभी भगवान् श्री राम के मन में विचार आया कि मेरे पास इसे देने के लिए कुछ भी नहीं है, मैं इसको उतराई में आखिर दूं क्या ? जगत जननी जानकीजी प्रभु के मन की बात तत्काल ही समझ गयी | उन्होंने अंगुली से अपनी मुद्रिका उतारी और केवट को उतराई देने के लिए प्रभु को सौंप दी | प्रभु उतराई के रूप में वह अंगूठी केवट को देने लगे |

             भगवान् ने जब मुद्रिका को केवट की ओर किया तो केवट भाव-विह्वल हो गया और कहने लगा –“नाथ आजु मैं काह न पावा |’ हे मेरे प्रभु ! मुझे आज क्या नहीं मिला ? अर्थात आज मुझे सब कुछ मिल गया | मैंने जीवनभर नाव से लोगों को पार उतारकर बहुत मजदूरी/आमदनी की है | आज की मजदूरी मुझे आत्मरूप से संतुष्ट करने वाली है | एक भक्त के जीवन में संतोष से बढकर कोई कमाई नहीं हो सकती | जीवन में जिस कार्य से संतुष्टि मिलती है, उसकी तुलना मिलने वाली धन राशि से कभी भी नहीं हो सकती | फिर भी आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मेरा एक आग्रह स्वीकार करें | आप वनवास से जब भी अयोध्या को लौटें, मेरी नाव से ही इस गंगा नदी को पार करें | उस समय आप जो कुछ भी मुझे देंगे, मैं आपका प्रसाद मानकर प्रफुल्लित मन से उसे स्वीकार कर लूँगा परन्तु आज मैं आपसे उतराई के रूप में कुछ भी नहीं लूँगा | आज मेरे जीवन के सभी विकार दूर हो गए हैं, मेरी सभी व्याधियां मिट गयी है और सभी दुःख दूर हो गए हैं | अभी तो मैं आपसे केवल आपकी भक्ति का वरदान चाहता हूँ, अन्य कुछ भी नहीं | हाँ, लौटते समय अपने भक्त को दर्शन देते हुए कृतार्थ अवश्य कीजिएगा |’

            श्रीराम ने बहुत आग्रह किया परन्तु केवट ने मुद्रिका लेने से स्पष्ट मना कर दिया | केवट परमात्मा के समक्ष उनके पैरों में लोटने लगा | प्रभु ने बड़े प्रेम से उसे उठाकर केवट को अपने ह्रदय से लगाया और उसे निर्मल भक्ति का वरदान दिया | भगवान् ने लखन जानकी सहित गंगा स्नान किया | फिर केवट से विदा लेकर भगवान् तो अपनी वनयात्रा पर आगे निकल गए और केवट दु:खी मन से उन्हें निहारता हुआ अश्रुपात करने लगा | आज उसने बहुत आग्रह करने के उपरांत भी किसी और व्यक्ति को नाव में बैठाकर नदी पार नहीं कराई | भारी मन से अकेला ही नाव खेता हुआ पुनः इस पार लौट आया |

       गोस्वामी श्री तुलसीदासजी महाराज ने केवट प्रसंग का बहुत ही सुन्दर प्रस्तुतीकरण मानस में किया है | भगवान् को गंगा नदी को पार करा देने के बाद उनका यह प्रसंग यहीं  समाप्त हो जाता है | एक भक्त का भगवान् के प्रति प्रेम का बहुत ही सुन्दर चरित्र गोस्वामीजी ने गढा है | केवट निम्न और दलित वर्ग के अंतर्गत आते हैं | तुलसीदासजी के समय जाति व्यवस्था अपने चरम पर थी | उस समय उच्च और निम्न वर्ग के बीच वैमनस्य भाव बढ़ता ही जा रहा था | शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने केवट का चरित्र गढ़ा था जिससे दो वर्गों के बीच की खाई को कुछ सीमा तक पाटा जा सके | श्री राम के समकालीन आदिकवि वाल्मीकिजी थे | उनकी रामायण में केवट नाम का कोई चरित्र ही नहीं है | उनकी रामायण में निषादराज गुह ही अन्य नाविकों के साथ नाव का सञ्चालन करते हुए प्रभु को गंगा पार ले जाना बताया गया है |

      गोस्वामीजी ने तो केवट प्रसंग को एक सीमा तक स्पष्ट करके छोड़ दिया | राम के वन में आगे गमन करने के बाद पीछे से केवट के साथ क्या हुआ ? आइये ! यह भी जान लेते हैं | श्री राम के बाद केवट ने नाव में सवारी बिठाना तक बंद कर दिया | दिन-रात वह केवल राम-राम की रट लगाये रखता था | दिन भर यही कहता रहता था कि मेरे प्रभु राम, वापिस लौटेंगे तो मेरे पास अवश्य आयेंगे | परिवार वाले एक एक कर उसका साथ छोड़ते गए क्योंकि केवट उनका भरण-पोषण करने में विफल हो रहा था | आखिर कब तक उसकी पत्नी और बच्चे उससे इस बात की अपेक्षा रखते | परिवारजन अपनी उदरपूर्ति के लिए यहाँ-वहां जहाँ पर भी उन्हें कुछ काम मिलता, कार्य करने लगे | केवट तो दिन-रात बस केवल एक ही रट लगाये रहता – ‘मेरे राम आयेंगे.... मेरे राम आयेंगे’ | भक्त की एक विशेषता होती है, वह परमात्मा की प्रतीक्षा अनन्त काल तक कर सकता है | उसकी परमात्मा पर बहुत अधिक श्रद्धा होती है | वह जानता है कि एक न एक दिन उसे परमात्मा अवश्य ही मिलेंगे | केवट उन्हीं भक्तों में से एक है |

         चौदह वर्ष बीत चले थे | श्रीराम ने रावण का वध भी कर दिया | जानकीजी लंका से वापिस उनके पास आ गयी | सभी जगह यह बात फ़ैल गयी कि भगवान् श्रीराम अयोध्या लौट रहे हैं | किसी को पता नहीं था कि वे अयोध्या किस मार्ग से और किस साधन से लौटेंगे | केवट के कानों में भी अपने प्रभु के अयोध्या लौटने की भनक पड़ी | वह प्रफुल्लित हो उठा | ‘मेरे राम आ रहे हैं, मेरे राम आ रहे हैं’, कहते हुए नाचने लगा | उसने बड़े प्रेम से अपनी नाव को ताज़ा फूलों से सजाया और अपने प्रभु के आने की बाट जोहने लगा |

          इधर राम को अयोध्या लौटने की जल्दी थी | वे जानते थे कि यदि अयोध्या लौटने में चौदह वर्ष से एक दिन भी ऊपर निकल गया तो भरत अपनी देह त्याग देगा | वे पुष्पक विमान लेकर त्वरित गति से अयोध्या के लिए निकल पड़े | केवट की आस अधूरी रह गयी | उसको पता नहीं था कि भगवान् श्री राम उसके पास अब नहीं आ पायेंगे | वह तो अभी भी रट लगाये जा रहा था कि मेरे राम आ रहे हैं, मेरे प्रभु आ रहे हैं | तभी उसके कानों ने किसी के बोल सुने कि राम अयोध्या लौट आये हैं | भक्त का मन भगवान् के विरह में व्याकुल हो गया | पूरी रात वह रोता रहा |

       भोर हो चली थी | सभी नाविक अपनी अपनी नावें सम्हाल रहे थे | एक नाविक ने केवट की नाव की ओर ध्यान दिया | प्रभु की प्रतीक्षा में सजी हुई नाव में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं हो रही थी | नाविक उस नाव के थोडा निकट गया | देखा कि केवट की मृत देह उस सजी हुई नाव में पड़ी है | भक्त केवट के प्राण पखेरू न जाने रात को किस समय उड़कर अयोध्या में भगवान् श्री राम के पास पहुंच गए | शैया पर सोये श्री राम अचानक नींद से जाग कर उठ बैठे | स्वप्न नहीं, सत्य था यह | केवट उनका विरह सहन नहीं कर सका था | आज उनको केवट की बहुत याद आ रही थी | सहसा उनके मुख से निकल पड़ा –‘भक्त केवट; मैं अयोध्या लौटते हुए रास्ते में रूककर तुम्हारा ऋण नहीं चूका सका |’

       तभी वहां उपस्थित केवट की आत्मा बोल पड़ी- ‘नहीं प्रभु ! ऐसा न कहिये | मैं आपका दास हूँ, सेवक हूँ | मुझे केवल आपकी भक्ति ही चाहिए और कुछ भी नहीं | आज मुझे संसार की सारी सम्पति मिल गयी है |’ भक्त कहता रहा और भगवान् ने उसे स्वयं में लीन कर लिया |

   धन्य है केवट का जीवन, जिसने भगवान् को भी भक्त के समक्ष नतमस्तक कर दिया | सत्य है केवट का यह कहना कि “नाथ आजु मैं काह न पावा |”

                  लेख के प्रारम्भ में जो कछुआ प्रभु के चरण छूने का प्रयास कर रहा है, वह पूर्व मानव जन्म की कोई योगभ्रष्ट आत्मा है | योगभ्रष्ट वही व्यक्ति होता है जो जीवन में परमात्मा की तरफ चलने का प्रयास तो करता है परन्तु सांसारिक भोगों के आकर्षण से एक बार मुक्त होकर भी पुनः उनमें जाकर उलझ जाता है | उलझने का कारण होता है, जीवन की सुरक्षा का भय होना | प्रायः हम देखते हैं कि जीवन में परमात्मा की ओर उन्मुख होने के बाद भी जीवन यापन के लिए हम संग्रह के लिए उद्यत रहते हैं | संग्रह का कारण है भय | परमात्मा पर पूर्णतः विश्वास न होना ही इस भय का जनक है | ऐसा ही व्यक्ति अपने मार्ग से भटक जाता है और पीठ पर जीवन सुरक्षा का भय लादे कछुए के रूप में अवतरित होता है |

       कछुआ सागर में इसी प्रकार घूमता रहता है जैसे संसार सागर में हम विचरण करते हैं | परन्तु पूर्वजन्म में योगभ्रष्ट हुआ वह व्यक्ति कछुए का रूप प्राप्त कर भी भगवान् को भूला नहीं है | वह परमात्मा के चरणों का स्पर्श पाने को आतुर है परन्तु भयमुक्त अभी भी नहीं है | तभी तो वह शेषजी की फुंफकार और पूंछ की फटकार से तथा लक्ष्मीजी के हाथ के झटकने से भी डर जाता है | अपने पैरों को शेषशैया से नीचे करते हुए भगवान् तो चाहते हैं कि कछुआ मेरी शरण ले ले परन्तु जब तक वह स्वयं भयमुक्त नहीं होगा तब तक परमात्मा से उसकी दूरी बनी रहेगी | भयमुक्त होने के लिए वह तपस्या करता है और केवट के रूप में त्रेता में जन्म लेता है | इस बार उसकी तपस्या सफल हुई है |

           इसी प्रकार हमारे जीवन में  कभी कभी परमात्मा की स्मृति मन में उठती है तो परमात्मा को पाने के लिए उनकी तरफ चल पड़ते हैं | प्रभु के सम्मुख होना और उनसे विमुख हो जाना, दोनों ही अवस्था हमारे जीवन में भी बार-बार आती रहती है | हमें सांसारिक भोग भी चाहिए और जीवन सुरक्षा के लिए संग्रह भी | इसी प्रकार हम संसार भंवर में उलझते हुए डूबते उतराते रहते हैं |

              जीवन की विपरीत परिस्थितियां हमें परमात्मा की ओर जाने को उद्यत करती है | परन्तु फिर सांसारिक सुख अर्थात भोग और संग्रह अपना प्रभाव दिखलाते हैं और हम एक झटके से परमात्मा से विमुख हो जाते हैं | गोस्वामीजी के जीवन में भी तो यही हुआ था | ज्ञानी होते हुए भी तुलसीदासजी सांसारिक भोगों में आकंठ डूबे हुए थे | पत्नी के उलाहना भरे वचनों से बनी विपरीत परिस्थति ने उन्हें परमात्मा की ओर उन्मुख कर दिया | फिर वे किसी भी प्रकार के सांसारिक भोग और भय से विचलित नहीं हुये | अंततः वे केवट बन गए और परमात्मा के चरणों का आश्रय उन्हें मिल ही गया |

            केवट प्रसंग का भाव यही है कि संसार सागर में विचरण करते हुए परमात्मा की ओर चलें | साथ ही ध्यान में रखें कि भोग और संग्रह के आकर्षण से स्वयं को दूर रखें |  भोग और संग्रह के आकर्षण से मुक्त रहने की अवस्था ही जीवन्मुक्ति की अवस्था है | फिर परमात्मा स्वयं चलकर आपके द्वार तक आयेंगे | हमारे जीवन की विडम्बना है कि हम स्वयं को इन विकारों से मुक्त नहीं कर पाते और अपने जीवन में इन्हीं के अभाव से होने वाली काल्पनिक दुर्दशा से डरकर कछुए की तरह परमात्मा से दूर चले जाते हैं | कछुए ने तपस्या की थी, इन विकारों से भयमुक्त रहने के लिए | तभी केवट बनकर लखन और जानकीजी से भी वह भयभीत नहीं हुआ और परमात्मा के चरण पकड़ते हुए उनका वरदहस्त प्राप्त किया | अंततः परमात्मा ने उसे सायुज्य मुक्ति प्रदान की | तभी केवट ने कहा है –

 “नाथ आजु मैं काह न पावा | मिटे दोष दुख दारिद दावा ||”

प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||