Wednesday, December 29, 2021

यः सदा मुक्त एव सः

 यः सदा मुक्त एव सः 

       भक्ति और मुक्ति एक दूसरे से संबंधित है क्योंकि मुक्त होकर ही भक्त हुआ जा सकता है।भक्त जुड़ता है और मुक्त संबंध विच्छेद करता है। एक भक्त होता है, संसार का और दूसरा भक्त होता है, परमात्मा का। संसार का भक्त जीवन भर सुखी-दुःखी होता रहता है और परमात्मा का भक्त मौज में रहता है। हमें संसार से संबंध विच्छेद करना है और परमात्मा से संबंध जोड़ना है। नहीं, नहीं ! परमात्मा से संबंध तो पहले से ही जुड़ा हुआ है परंतु संसार से संबंध जुड़ जाने के कारण हम परमात्मा से अपने संबंध को विस्मृत कर चुके है। यह बात पुनः स्मृति में तभी आएगी, जब संसार के साथ माने गए संबंध से हम मुक्त होंगे।

     एक मनुष्य के रूप में भले ही हम स्वतंत्र पैदा हुए हों परंतु संसार में आकर हमें बेड़ियाँ पहनने का शौक लग जाता है। बेड़ियाँ चाहे सोने की हो अथवा लोहे की, है तो बांधने के लिए ही न। हमें इन्हीं बेड़ियों से मुक्त होकर स्वयं की खोज करनी है। स्वयं की खोज ही परमात्मा की खोज है।

      कौन है मुक्त ? मुक्ति का परिणाम क्या है ?इनको जानने का प्रयास करंगे, "यः सदा मुक्त एव सः" में।

          आत्मबोध के लिए प्रयत्नरत व्यक्ति जानता है कि उस परमात्मा को कैसे प्राप्त किया जा सकता है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह दूर से दूर भी है और निकट से भी निकट है | संसार की आसक्तियों में आकण्ठ डूबे मनुष्य के लिए परमात्मा दूर से भी दूर है और जिसने संसार से असंग होते हुए उससे निवृति ले ली है उसके लिए परमात्मा निकट से भी निकट है | 

        परमात्मा की प्राप्ति उस प्रकार की प्राप्ति नहीं है जैसे किसी प्रकार के पदार्थ अथवा वस्तु को प्राप्त किया जाता है | परमात्मा की प्राप्ति से अर्थ है, जिस अज्ञान का बोझ हम अपने सिर पर उठाए आज तक भटक रहे हैं उस अज्ञान को छोड़कर ज्ञान को प्राप्त होना | हमें जब भी किसी वस्तु को प्राप्त करना होता है तो पूर्व में पकड़ी हुई वस्तु को छोड़ना पड़ता है | बिना किसी को छोड़े कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता, यह सार्वभौमिक सत्य है | इसी प्रकार परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भी संसार को छोड़ना पड़ता है | संसार को छोड़े बिना परमात्मा का प्राप्त होना असंभव है | संसार को पकड़कर रखना हमारा अज्ञान है और परमात्मा को पकड़ रखना ज्ञान है |

           हमारे जितने भी शास्त्र हैं, वे सब इस बात पर एक मत है कि बिना मुक्ति के परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती | ब्रह्म-सूत्र में एक सूत्र है – “मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात्” (1/3/2) अर्थात उस प्रेमस्वरूप भगवान् को मुक्त पुरुषों के लिए ही प्रातव्य बताया गया है | मुक्त किससे होना है ? जिस बंधन में हम बंधे हुए हैं, उस बंधन से हमें मुक्त होना है | वह बंधन जिसमें हम बन्ध गए हैं, वह है हमारे द्वारा निर्मित संसार |

       प्रत्येक मनुष्य जन्म से ही स्वाभाविक रूप से मुक्त ही पैदा होता है परन्तु इस संसार में आकर इन्द्रिय-विषयों के भोगों में आकंठ डूबकर इस प्रकार बन्ध जाता है कि जीवनभर उनसे मुक्त नहीं हो पाता | तभी तो अष्टावक्र मुनि जनकजी को कहते हैं कि ‘मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज’ (अष्टावक्र गीता-1/2) यदि तू मुक्ति को चाहता है तो विषयों को विष के समान जानकर इनको छोड़ दे ।

              संसार के साथ बंधने में इन्द्रिय-विषय की भूमिका ही महत्वपूर्ण है | मुक्त पैदा हुआ मनुष्य इस संसार रुपी वियावान में भटकता ही इसीलिए है कि वह जीवन भर विषय-भोग प्राप्त करने में ही उलझा हुआ रहता है | विषय भोगों से आज तक कोई तृप्त नहीं हुआ है | अपने पुत्र पूरु से उसकी युवावस्था को प्राप्त करके भी राजा ययाति भोगों से संतुष्ट न हो सका, ऐसे में आपकी और मेरी तो बिसात ही क्या है ?

                 राजा ययाति दैत्यों के गुरु शुक्राचार्यजी के दामाद और देवयानी के पति थे | शुक्राचार्य जी दानवराज वृषपर्वा के पुरोहित थे | वृषपर्वा की एक पुत्री थी, शर्मिष्ठा | शर्मिष्ठा और गुरुपुत्री के मध्य अहंकारवश उपजे वैमनस्य-भाव के कारण दानव-राजकन्या शर्मिष्ठा को विवाह उपरांत देवयानी के साथ एक दासी के रूप में उसके ससुराल जाना पड़ा | थोड़े दिनों बाद देवयानी ने एक पुत्र को जन्म दिया | उचित अवसर जानकर शर्मिष्ठा ने ययाति से एकांत में सहवास की कामना की जिसे राजा ने स्वीकार कर लिया | इस प्रकार कामपिपासु ययाति से देवयानी से दो पुत्र और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हुए | बहुत समय बीत जाने के उपरांत जब देवयानी को पता चला कि शर्मिष्ठा के तीनों पुत्र भी ययाति से ही उत्पन्न हुए हैं तब उसे बहुत दुःख हुआ और ययाति पर बड़ा क्रोध आया ।

                 शर्मिष्ठा और ययाति के सम्बन्ध की जानकारी मिलते ही देवयानी रुष्ट होकर तत्काल ही ययाति को छोड़कर अपने पिता के पास चली गयी | देवयानी से सारा वृतांत जानकर शुक्राचार्य को बड़ा क्रोध आया | उन्होंने राजा ययाति को तुरंत ही वृद्ध हो जाने का श्राप दे डाला |

              राजा ययाति ने शुक्राचार्य जी को समझाया कि इस शाप से केवल मेरा ही नहीं आपकी पुत्री का भी अहित ही होगा | ययाति ने शुक्राचार्य जी से बहुत आग्रह किया कि वे अपना शाप लौटा लें परन्तु एक ब्राह्मण के मुख से निकले वचन कभी असत्य नहीं हो सकते थे | शाप के प्रभाव से उसी समय ययाति को वृद्धावस्था ने घेर लिया और वे कुरूप हो गए |

        ययाति के बहुत अनुनय विनय करने पर शुक्राचार्य जी ने कह दिया कि ‘मेरे द्वारा दिया शाप तो वापिस नहीं हो सकता परन्तु इस शाप से बच निकलने की एक व्यवस्था मैं तुम्हें दे रहा हूँ | अगर कोई युवा व्यक्ति तुम्हारी वृद्धावस्था को स्वयं के लिए अपनी इच्छा से स्वीकार कर ले और तुम्हें अपनी युवावस्था दे दे, तो तुम पूर्व अवस्था को उपलब्ध हो सकते हो ।

        राजा ययाति राजमहल लौटे, उनके साथ देवयानी भी लौट आयी | राजा ने एक-एक कर अपने सभी पुत्रों से उनकी युवावस्था को स्वयं की वृद्धावस्था से बदलने का अनुरोध किया | एक-एक कर सभी पुत्रों ने इसके लिए स्पष्ट रूप से मना कर दिया | केवल सबसे छोटे पुत्र पूरु ( शर्मिष्ठा से उत्पन्न हुआ पुत्र) ने उनके इस आग्रह को सहर्ष अपना कर्तव्य मानते हुए स्वीकार किया और अपनी युवावस्था अपने पिताजी को देकर बदले में उनसे वृद्धावस्था ले ली | युवा होने के बाद कई वर्षों तक ययाति ने स्त्री-सुख का भोग किया |

         परिवर्तन सभी के जीवन में एक न एक दिन अवश्य ही आता है और ऐसा ही परिवर्तन ययाति के जीवन में भी आया | ऐसे परिवर्तन को जीवन का turning point कहा जाता है | जो व्यक्ति इस परिवर्तन को समझ जाता है, वह तो इस संसार चक्र से बाहर निकलने का प्रयास कर लेता है और जिसने इस परिवर्तन को अनदेखा किया, वह संसार चक्र में अनन्त काल तक घूमता रहता है | राजा ययाति ने अपने जीवन में आये इस परिवर्तन को समझा |

        राजा ययाति के मस्तिष्क में विचार आया कि मैं भी कैसा पतित व्यक्ति हूँ जो केवल शारीरिक सुख के लिए अधःपतन को प्राप्त हो गया हूँ | आज जब मेरे पुत्र को युवावस्था की आवश्यकता है तब मैंने उसको वृद्ध बनाकर उसके स्थान पर स्वयं सुख भोगने में लगा हुआ हूँ | इतने वर्षों तक भोग भोगने के बाद भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है, इसका अर्थ यही है कि विषय-भोगों से कभी भी तृप्त नहीं हुआ जा सकता | विषयों को लगातार भोगते रहने से भी भोगवासना कभी शांत नहीं हो सकती बल्कि जैसे घी की आहुति देने से आग और अधिक भड़क उठती है वैसे ही भोगवासनाएं भोगों से और अधिक प्रबल हो उठती है | विषयों की तृष्णा ही दु:खों का उद्गम स्थान है |

         विचारों में आया यह परिवर्तन ययाति को एक नई दिशा दे गया क्योंकि उसने इन विचारों की उपेक्षा नहीं की थी | तत्काल ही उसने अपने पुत्र पूरु को राजभवन बुलाया और उसकी युवावस्था लौटा दी | स्वयं वृद्ध होकर सर्वप्रथम पूरु को राज्य दिया और फिर देवयानी को साथ में लेकर साधना हेतु वन के लिए राजभवन से प्रस्थान कर गए |

        इस प्रकार राजा ययाति के प्रसंग से स्पष्ट होता है कि कोई भी इन्द्रिय-विषय किसी को जीवन भर मिलता रहे तो भी तृप्त नहीं कर सकता | इसलिए जितनी शीघ्रता से विषयों को त्याग दिया जाये उतना ही जीवन के लिए लाभदायक है |

        कल एक मित्र से बात हो रही थी | कह रहे थे कि ‘स्त्री के कारण ही जीवन दु:खमय बना हुआ है | स्त्री को ही घर परिवार के लिए बहुत कुछ चाहिए | पुरुष को किसी भी चीज की आवश्यकता कभी नहीं होती |’ मैंने उनको बड़ी शालीनता के साथ समझाया कि भले ही एक पुरुष को जीवन में कुछ भी नहीं चाहिए, फिर भी उसे एक स्त्री अवश्य ही चाहिए | इस प्रकार पुरुष की जीवन में बस एक ही कामना होती है और वह कामना है एक स्त्री को पाने की | पुरुष ने ही स्त्री की कामना की थी और संसार चक्र में फंस जाने पर अब उसी स्त्री को दोष दे रहा है, क्या ऐसा करना उचित है ? कदापि नहीं | इसमें भला स्त्री का क्या अपराध है ?

           आपने स्त्री की कामना करके उसे पत्नी बनाकर अपने संसार को बनाया है |  इसके लिए आप ही दोषी हैं | या तो आपके मन में एक स्त्री को पाने की कामना ही नहीं उठती तो अच्छा होता और फिर भी कामनावश आपने स्त्री को पत्नी के रूप में पा भी लिया तो विषयों से निवृत्त होना आपका काम है, पत्नी का नहीं | इसमें पत्नी की भूमिका केवल आपका साथ देने तक ही सीमित है, अतः स्त्री को जीवन में कभी भी दोष न दें |

         मुक्ति के लिए न तो स्त्री बाधा है और न ही उसके कारण बना आपका संसार | मुक्ति के लिए एक तो स्वयं का प्रयास काम आएगा और दूसरा आपकी पत्नी का इस कार्य में सहयोग | इसलिए मन में मुक्ति का विचार आते ही राजा ययाति की तरह विषय-भोगों से निवृति पा लें | भोगों से निवृति तो आप नहीं ले पा रहे हैं और उलटे दोष स्त्री को दे रहे हैं | आपने स्त्री के माध्यम से संसार बनाया है, फिर इस संसार में आसक्त भी आप ही हुए हैं अतः इस संसार से आपको ही मुक्त होना है | इस संसार से निवृत होना आपका कार्य है, इसमें आपकी ही दृढ़ता काम आएगी |

              बात चल रही थी कि मुक्त व्यक्ति के लिए ही परमात्मा प्रातव्य है | मुक्ति और भक्ति, ये दो शब्द अध्यात्म में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं | भक्ति का अर्थ है, जुड़ना (attachment) और मुक्ति का अर्थ है, अलग हो जाना (separation) यानि जिससे जुडाव है उससे स्वतंत्रता पा लेना | एक आध्यात्मिक चिन्तक, जिससे जुडाव है (संसार) उससे तो मुक्त होता है और जिससे दुराव है (परमात्मा) उससे जाकर जुड़ता है | मनुष्य का जुडाव रहता है, संसार से | अतः मुक्त हो जाने का अर्थ है संसार से अलग होकर स्वतन्त्र हो जाना | मनुष्य का संसार से जुडाव उसे परमात्मा से दूर बनाये रखता है | संसार से अलग होकर परमात्मा के साथ जुड़ना ही मुक्ति से भक्ति की तरफ जाना है |

           संसार से विमुख होने का अर्थ संसार से द्वेष रखना कदापि नहीं है बल्कि संसार की गतिविधियों में जो आपकी रुचि है उससे स्वयं को अलग रखते हुए परमात्मा के सम्मुख होना है | संसार से भिन्न होकर ही संसार को जाना जा सकता है | परमात्मा को जानने के लिए उनसे अभिन्न होना पड़ता है ।

        आप जिसके सम्मुख होते हैं, स्वतः ही उसके विपरीत से विमुख हो जाते हैं | अगर हम पूर्व दिशा के सम्मुख हैं तो स्वतः ही पश्चिम दिशा से विमुख होते हैं | परमात्मा के सम्मुख होने का अर्थ है संसार से विमुख हो जाना; ज्ञान के सम्मुख होने का अर्थ है अज्ञान से विमुख होना और इसी प्रकार प्रकाश की ओर उन्मुख होने का अर्थ है अँधेरे से दूर होना | इसीलिए कहा गया है कि मुक्त पुरुष के लिए ही परमात्मा प्राप्तव्य है | परमात्मा को प्राप्त करने का अर्थ है-जो प्राप्त है, उसका त्याग करना | अतः कहा जा सकता है कि संसार के त्याग में ही परमात्मा की प्राप्ति छिपी है | “अतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः” (भागवत-10/14/28) अर्थात संसार के त्याग में ही परमात्मा की खोज निहित है |

             संसार में आसक्ति रखना बंधन है और संसार में रहते हुए अनासक्त होकर जीना ही उससे मुक्ति है | संसार की आसक्ति हमें बंधन में कैसे डालती है ? यह जान लेना भी आवश्यक है | जब तक हम इस बात को स्पष्ट रूप से जान नहीं लेंगे तब तक मुक्ति की राह नहीं पकड़ सकते | भला, मुक्त हुए बिना परमात्मा से हमारी दूरी कैसे मिटेगी ?

                प्रायः हममें से प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा की भक्ति की बात करता है परन्तु संसार से मुक्ति की बात आती है, तब सब यही कहते हैं कि हम तो मुक्त ही हैं | परन्तु सच्चाई यह है कि हममें से कोई भी संसार से सही मायने में मुक्त नहीं है | मेरी बात कुछ कटु लग सकती है परन्तु जब तक दर्पण में प्रतिबिम्ब देखा नहीं जायेगा तब तक हमें अपनी वास्तविकता का अनुभव नहीं होगा | आइये, यही जानने का प्रयास करते हैं कि संसार की आसक्ति में डूबे हुए व्यक्ति की पहचान कैसे कर सकते हैं ? यह सूत्र केवल स्वयं को पहिचानने के लिए है, किसी अन्य को इन के आधार पर पहिचानने का प्रयास न करें, यह जानते हुए कि हम सभी एक नाव में बैठे हुए इस असार संसार सागर में विचरण कर रहे हैं | हम सब की एक सी ही यात्रा हैं |

              आध्यात्मिक प्रगति के बारे में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को दूसरे से भिन्न समझता है | जबकि वास्तविकता यह है कि केवल प्रतिमा की पूजा और पाठ आदि करने को ही हम महत्वपूर्ण मान बैठे हैं | इस संसार से आसक्ति किसी की भी नहीं छूट रही है | जब तक संसार की आसक्तियों से से मुक्ति नहीं मिल जाती तब तक आध्यात्मिक प्रगति शून्य ही कही जाएगी |

          जो व्यक्ति भयग्रस्त है, मान लीजिये वह अभी भी संसार में आसक्त है | भय का मुख्य कारण है-‘जो मिला है वह कहीं खो न जाये’| वास्तव में जीवन में जो कुछ भी मिला है वह संसार और शरीर से किसी भी मायने में भिन्न नहीं है | संसार और शरीर दोनों ही क्षर है इसका अर्थ हुआ कि जो मिला है उसकी स्थिति भी सदैव एक समान नहीं रह सकती | जब क्षरण होना ही उसकी नियति है, तो उसका खो जाना भी निश्चित है | तो फिर खोने का भय क्यों ? सांसारिक पदार्थ एक न एक दिन समाप्त होने है, उनका एक से दूसरे प्रारूप में परिवर्तित होना प्राकृतिक नियम है | हमारा शरीर भी उस नियम से परे नहीं है |

          यह शरीर और इस शरीर से सम्बंधित सभी विषय-भोग, परिवार-जन, धन-सम्पति, भवन आदि सभी क्षरण के गुण लिए हुए है | उसमें आसक्ति रखना ही हमारे भय के मूल में है | जब तक हम भयग्रस्त हैं तब तक हम मुक्त नहीं हुए है, यह बिलकुल स्पष्ट है | इस संसार का संग करते हुए हम भय से कभी भी मुक्त नहीं हो सकते और भय से मुक्त हुए बिना परमात्मा की ओर यात्रा नहीं हो सकती |

        श्री मद्भागवत महापुराण में राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति का वृतांत आता है | वृद्धावस्था की दहलीज पर दोनों खड़े हैं और सन्तान न होने के कारण वे अपने आपको दुखी मान रहे हैं | तभी ऋषि अंगिरा और नारदजी का आगमन होता है | राजा उन्हें अपने दुःख का कारण बतलाते हैं | ऋषि अंगिरा और नारदजी के बहुत समझाने पर भी वे जिद्द करते हैं कि एक बार पुत्र हो जाये तो हम अवश्य ही सुखी हो जायेंगे | आखिर दोनों उन्हें इस चेतावनी के साथ पुत्र होने का आशीर्वाद देते हैं कि यह पुत्र तुम को सुख और दुःख दोनों ही देगा |

       समय पाकर रानी कृतद्युति पुत्रवती होती है | राजा चित्रकेतु बड़ा प्रसन्न होता है | दिन-रात राजा और रानी, पुत्र को लाड़-प्यार करने में ही लगे रहते हैं | इन दोनों का सुखी होना अन्य रानियों से देखा नहीं जाता | द्वेष-भाव से अन्य रानियां मिलकर राजपुत्र को विष दे देती है, जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है | राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति पुत्र शोक में रो-रो कर पागल हो जाते हैं | चेतना लौटते ही पुत्र के शव को सीने से लगाकर फिर से विलाप करने लगते हैं | तभी ऋषि अंगिरा और नारद मुनि वहां पहुँच जाते हैं |  

          ऋषि अंगिरा और नारद मुनि, राजा और रानी को विविध प्रकार से समझाते है कि ‘राजन ! हमने तो पहले ही कहा था कि यह पुत्र तुम्हें हर्ष और शोक, दोनों को ही देने वाला होगा परन्तु तुम माने नहीं और पुत्र प्राप्ति की अपनी जिद्द पर अड़े रहे | अब पुत्र के चले जाने से दुखी क्यों हो रहे हो ?’

           मनुष्य की यही नियति है कि वह जीवन भर आसक्ति के कारण सुखी दुखी होता रहता है | राजा और रानी, दोनों जिद्द करते हैं कि एक बार हमारे पुत्र से हमारी बात करा दीजिये | अंततः नारदजी द्वारा राजपुत्र की जीवात्मा को बुलाया जाता है | जीवात्मा को देखते ही राजा चित्रकेतु कहते हैं-‘पुत्र तुम कहाँ चले गए हो ? तुम्हारी मां तुम्हारे जाने से दुखी है | लौट आओ, हमारे पास |’ जीवात्मा उत्तर देते हुए कहती है-‘कौन पुत्र ? किसका पुत्र ? मुझे अपनी सांसारिक यात्रा में अब तक न जाने कितने मां बाप मिल चुके हैं | अब जहाँ मैं पहुँच गया हूँ वहां के मां-बाप मुझे देखकर प्रसन्न है और मैं भी उनके वहां प्रसन्न हूँ | मैं अब पुनः आपके यहाँ लौट नहीं सकता, प्रकृति का यही नियम है |’ इतना कहकर राजपुत्र की जीवात्मा अन्तरिक्ष में खो गयी |

            विलाप करते राजा-रानी को ऋषि अंगिरा और नारदजी ने विविध प्रकार से समझाते हुए ज्ञान दिया, तब जाकर दोनों पुत्र-शोक से मुक्त हो सके | ज्ञान होते ही राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति ने राजमहल का त्याग कर दिया और परमात्मा की प्राप्ति के लिए साधना करने वन की ओर चल दिए |

              इस प्रकार ययाति प्रसंग से निकला सूत्र तो कहता है कि अगर हम मुक्ति चाहते हैं तो हमें विषयों का त्याग कर देना चाहिए तथा चित्रकेतु-नारद-अंगिरा संवाद से यह निष्कर्ष निकलता है कि इच्छा रखना ही हमें बंधन में डालता है, मुक्त नहीं होने देता |

       सबसे महत्वपूर्ण बात है कि आसक्ति ही दुःख और भय का मूल कारण है | आसक्ति के कारण ही मन में विविध इच्छाएं और कामनाएं जन्म लेती है | जब कामना पूर्ति हो जाती है तो परिणाम में प्राप्त हुए के खो जाने का भय सताता है | कामना पूर्ण न हो तो दुःख और क्रोध पैदा होता है | कामना ही राग और द्वेष की जनक है | जो प्राप्त हुआ है, उसमें तो राग उत्पन्न हो जाता है और जिस कारण से प्राप्त नहीं हो सका है उस कारण के प्रति द्वेष |

         गीताजी के 16 वें अध्याय में दैवी सम्पदा का वर्णन आता है | जिसमें बताया गया है कि दैवी सम्पति मुक्ति के लिए है | हमें अपने जीवन में दैवी सम्पदा से युक्त होना चाहिए जिससे मुक्त हो सकें |

          दैवी सम्पदाएँ हैं- भय का सर्वथा अभाव, अंतःकरण की शुद्धि, योग में दृढ स्थिति,सात्विक दान, इन्द्रिय-दमन,यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्यपालन के लिए कष्ट सहना, शरीर-मन-वाणी की सरलता, अहिंसा, सत्य बोलना, क्रोध न करना, राग-द्वेष का न होना, चुगली न करना, सभी प्राणियों के प्रति दया भाव रखना, विषयों में आसक्त न होना, अकर्तव्य में लज्जा भाव, कोमल ह्रदय, चपलता का अभाव,तेज,क्षमा,धैर्य,शरीर की शुद्धि,वैर भाव का न होना, मान-सम्मान न चाहना आदि | इसके विपरीत आसुरी संपदाओं का वर्णन करते हुए भगवान् स्पष्ट करते हैं कि दंभ करना, घमंड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेकी होना आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण है |

      हमें दैवी सम्पदा से युक्त होना है, तभी संसार से मुक्त हो सकते हैं |

              मुक्त कौन है ? इसको स्पष्ट करते हुए भगवान् गीता के पांचवें अध्याय के 28 वें श्लोक में कहते हैं-

    यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:       |

     विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः || 

अर्थात जिसकी इन्द्रियां,मन और बुद्धि जीती हुई है, जो मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है |

       इन्द्रियां विषय-भोग को प्राप्त करने का कार्य करती है और मन उन विषय-भोगों को प्राप्त करने की इच्छा करता है जिसमें बुद्धि उसकी सहयोगी बनती है | इसलिए सबसे महत्वपूर्ण बात हुई; मन, बुद्धि को जीतना जिससे इन्द्रियाँ विषयों की ओर न दौड़े | ऐसा होना केवल तभी संभव है जब भीतर मोक्ष की कामना हो | परमात्मा के सम्मुख और संसार से विमुख होने से ही इन सबको जीता जा सकता है | मन, बुद्धि और इन्द्रियों को जीत लेने का परिणाम होता है-इच्छा, भय और क्रोध का न होना | जिस व्यक्ति के जीवन में इच्छा, भय और क्रोध का अभाव है वह सदैव मुक्त ही है | ऐसा मुक्त व्यक्ति ही परमात्मा प्राप्ति का अधिकारी होता है |

         संसार से मुक्त होने के लिए क्या करना होगा | भगवान् श्री कृष्ण गीता में कहते हैं –‘असंगशस्त्रेण दृढेण छित्वा’ (15/3) अर्थात दृढ मूलों वाले संसार रुपी वृक्ष को असंग रूप शस्त्र से काट दें | असंग का अर्थ है संसार का संग न करें | संसार के संग से तात्पर्य है, संसार में आसक्ति न रखें | हमारी आसक्ति या तो विषय-भोगों में होती है अथवा संसार के पदार्थों और विभिन्न शरीरों में, जिन्हें हम अपना परिवार कहते हैं | परिवार के सदस्य हमें वैसे ही इस जीवन में मिलते हैं, जैसे प्यासे व्यक्ति विभिन्न मार्गों से चलते हुए एक प्याऊ पर आकर कुछ समय के लिए मिल-बैठ जाते हैं | प्यास से मुक्त होते ही सभी अपने अपने रास्ते चल देते है |

       जब हम सब अपनी-अपनी यात्रा पर गतिमान है तो फिर राह में मिलने वालों से लगाव क्यों ? यह लगाव रखना ही बंधन है | इस प्रकार के लगाव से मुक्ति पा लेना ही संसार से  असंग हो जाना है | संसार से असंग होना ही मुक्ति है |

      भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि असंगता ही वह शस्त्र है जिससे सांसारिक बंधन काटे जा सकते हैं | संसार के बंधन काट डालने के उपरांत ही परमात्मा की खोज प्रारम्भ होती है, बंधन के रहते नहीं | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि संसार नित्य निवृत है, इसलिए इसको नित्य होना मान लेने की भावना का त्याग करना होता है और परमात्मा नित्य प्राप्त है, इसलिए उनकी खोज करनी होती है | ‘ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्’ (गीता-15/4) अर्थात असंग शस्त्र से संसार की दृढ मूल वाले वृक्ष को काटकर फिर परमात्मा की खोज करनी चाहिए |

             संसार में राग रखना ही बंधन है | संसार के प्रति राग को मिटा डालना ही मुक्ति है | बिना संसार से मुक्त हुए भगवान् से भक्त नहीं हो सकते | अतः भक्ति के लिए संसार से मुक्त होना आवश्यक है | यही परमात्मा तक पहुँचने का एक मात्र रास्ता है | जीवन में संसार से अनासक्त हो जाना ही हमें आत्म-बोध की ओर ले जा सकता है, जहाँ पहुंचकर हम स्वयं ही परमात्मा हो जाते है |

         गीता कहती है कि जो मान और मोह से रहित हो गए हैं, जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य निरंतर परमात्मा में लगे हुए है, जो सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गए हैं, जो सुख-दुःख नामक द्वंद्वों से मुक्त हो गए हैं वे ही वास्तव में संसार से असंग हुए हैं | इनमें से किसी भी व्यक्ति में एक भी विकार है तो समझ लें कि वह अभी भी बंधन में है, मुक्त नहीं हुआ है |

         जिसमें एक भी ऐसा विकार नहीं है वही मुक्त है | “गच्छन्ति अमूढ़ा: पदम् अव्ययं तत् (गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्-गीता-15/5) अर्थात ऐसे मुक्त हुए ज्ञानी व्यक्ति ही उस अविनाशी पद को प्राप्त करने के लिए गतिमान होते हैं | कहने का अर्थ है कि संसार से असंग होने के लक्षण जो कि ऊपर बतलाये गए हैं, परमात्मा केवल ऐसे पुरुषों के लिए ही प्राप्तव्य है | अतः हमें जो यह मनुष्य जीवन मिला है उसकी उपयोगिता तभी है जब हम संसार में आसक्त न रहें और परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास करें।

                     सिकंदर के जीवन का एक वृतांत है | जब सिकंदर अपने विश्व-विजय अभियान पर निकला था तब निकलने से पहले वह अपनी मां से आशीर्वाद लेने उनके पास गया था | उसने मां से पूछा कि जब मैं विश्व-विजय अभियान से लौटूं तो तुम्हारे लिए क्या लेकर आऊँ ? मां ने कहा कि अगर ला सकते हो तो भारत देश से एक संत को लेकर आना | सिकंदर ने सोचा कि एक संत को हिंदुस्तान से ले कर आना कौन सी बड़ी बात है? उसे तो मैं बड़ी आसानी से ले आऊंगा |

            परन्तु सिकंदर की सोच ही गलत थी | संत अपनी मर्जी का मालिक होता है, किसी का गुलाम नहीं | इसीलिए वह सदैव भयमुक्त रहता है |

       जब सिकंदर अपनी हिंदुस्तान यात्रा से वापिस लौटने लगा तो उसको अपनी मां का कहा स्मरण हो आया | उसने तत्काल ही किसी संत की खोज में निकल पड़ने की सोची | इस विचार को अपने सैन्य साथियों के साथ बाँटते हुए वह एक संत की खोज में निकल पड़ा | उसके  साथियों ने सुरक्षा के लिए साथ चलने का कहा परन्तु उसने यह जान कर उन्हें रोक दिया कि भला एक संत को लाने में सेना की क्या आवश्यकता है ?

        हिमालय की गुफाओं में खोजते-खोजते सिकंदर को आखिर एक संत मिल ही गए | घोड़े पर बैठा सिकंदर और जमीं पर अधलेटा नंगधडंग एक संत | घोड़े पर बैठे-बैठे सिकंदर बोला-‘तुम्हें मेरे साथ यूनान चलना होगा |’ संत ने कहा कि ‘हम कहीं जाते-आते नहीं है।हमने भटकना छोड़ दिया है’ | सिकंदर ने कहा – ‘यह तलवार  देखते हो न | मैं चाहूँ तो इसके एक ही झटके में तुम्हारा सिर धड़ से अलग हो जायेगा |’ संत ने कहा –‘किसको तलवार का भय दिखा रहे हो ? जिस प्रकार तुम मेरा सिर धरती पर गिरते देखोगे उसी प्रकार मैं भी उसे गिरते देखूंगा |’

          सिकंदर की आँखों में आँखे डालकर भारत का एक संत बात कर रहा है | उसे तनिक भी भय नहीं है कि सामने मन में विश्व विजय की कामना लिए एक सम्राट खड़ा है | भारत का यह संत मुक्त है, सभी प्रकार की इच्छाओं से, भय से, क्रोध से | जबकि सिकंदर की इच्छाओं का कोई ओर-छोर नहीं है | संत की बात सुनते ही सिकंदर का क्रोध जैसे पिघल गया | आज वह एक साधारण से दिखने वाले संत से परास्त हो गया | हिम्मत कर उसने संत से पूछा - ‘आप कौन है ?’ संत ने कहा –‘अहम् ब्रह्मास्मि |’

        संत के ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ कहते ही सिकंदर चौंका | एक नंगधडंग संत भूमि पर पड़ा है, जिसके पास कुछ भी नहीं है और वह निर्भय होकर कह रहा है कि मैं ब्रह्म हूँ | सिकंदर की मुमुक्षा बढ़ी | वह और अधिक जानने को आतुर हुआ | घोड़े पर से नीचे उतरा | तलवार को अलग रखते हुए संत के सामने घुटनों के बल बैठकर नत मस्तक हो गया | आज उसे समझ में आ रहा था कि मां ने जो वस्तु मुझसे मांगी है, जिसको मैं एक साधारण सी बात मान रहा था, वह संसार की समस्त धन-दौलत से भी न खरीदे जा सकने वाली वस्तु है।वह वस्तु इतनी असाधारण है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता |

           सिर उठाकर सिकंदर ने बड़ी ही मधुर वाणी में संत से पूछा - ‘अगर आप ब्रह्म है तो फिर मैं कौन हूँ ?’ संत ने उत्तर दिया –‘तत्त्वमसि’ (तत् त्वं असि) अर्थात तुम भी वही हो |’ सुनकर सिकंदर की आँखें फटी की फटी रह गयी | वह सोचने लगा - ‘मैं भी ब्रह्म हूँ | मैंने अभी तक यह जाना ही नहीं था | संत के सानिध्य ने आज ही मुझे इस बात का ज्ञान कराया है |”  आज सिकंदर अपने को संसार का सबसे सौभाग्यशाली व्यक्ति समझ रहा था जो उसे  एक संत का सानिध्य मिला | सत्य है-अँधेरे को भगाने के लिए प्रकाश की एक छोटी से किरण ही पर्याप्त है |

            सिकंदर से इससे आगे कुछ भी पूछते न बना | उसने संत को प्रणाम किया और अपनी तलवार उठाकर घोड़े पर बैठ गया और भारी मन से वहां से निकल गया | उसके लिए अभी भी बहुत कुछ जानना शेष था परन्तु उसके साथी उसकी सुरक्षा को लेकर चिंतित हो रहे होंगे, यह जानकर वह अधिक न रूक सका | एक संत के अल्प समय के लिए मिले सानिध्य ने उसको कितना परिवर्तित कर दिया, इसको जान लेने की हमारी उत्सुकता नहीं है | हमें तो संत की बात महत्वपूर्ण लगी |

       एक दृष्टि संत के व्यवहार पर डालेंगे तो पाएंगे कि ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ कहना तभी संभव हो सकता है, जब व्यक्ति मुक्त हो | समस्त आसक्तियो से मुक्त होते ही संसार से मुक्त हो जाता है और फिर वह स्वयं ही ब्रह्म हो जाता है | इसलिए जीवन में भय मुक्त हों, क्रोध मुक्त हों और इच्छा रहित हों | तीनों आपस में सम्बंधित है | केवल इनसे मुक्त होने के लिए मन, बुद्धि और इन्द्रियों पर दृढ़ता से नियंत्रण करना होगा | तभी हम मुक्त कहे जा सकते हैं और उस अवस्था को एक दिन उपलब्ध हो जायेंगे जब हम भी कह सकेंगे –“अहम् ब्रह्मास्मि |”

प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||


         


 


            


 


           


        


             


Friday, December 3, 2021

नाथ आजु मैं काह न पावा...

 नाथ आजु मैं काह न पावा...

        अभी कुछ दिनों पूर्व की बात है, मैं अपने मित्रों के साथ बैठा चर्चा कर रहा था | अनायास ही एक मित्र ने कहा कि “आप जब भी चर्चा करते हैं, तब गीता अथवा उपनिषद की बात अधिक करते हैं, राम-चरित्र से सम्बंधित उदाहरण बहुत ही कम देते हैं | क्या आपको गोस्वामीजी की रामचरितमानस पसंद नहीं है ?” मैंने कहा कि ऐसी बात नहीं है, राम-चरित्र के समान कोई दूसरा मर्यादित चरित्र नहीं है | इतना कहकर मैंने चर्चा का विषय बदल दिया और उनकी रुचि को देखते हुए श्री रामचरितमानस पर बात करने लगा |

           मित्र द्वारा अनायास दागे गए इस प्रश्न ने मुझे कुछ सोचने को विवश कर दिया | ऐसा नहीं है कि गोस्वामीजी की रामचरितमानस ने मुझे प्रभावित नहीं किया है | जीवन में सर्वप्रथम जिस ग्रन्थ से प्रेरणा मिली वह गोस्वामीजी का यही ग्रन्थ था | बात उन दिनों की है जब मैं सातवीं कक्षा में अध्ययनरत था | उस समय की हिंदी की पुस्तक में एक पाठ होता था- “केवट का भाग्य” | उस समय की समझ के अनुसार उस पाठ ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया | हालाँकि उस समय की सोच-समझ ने रामचरितमानस के इस प्रसंग के मर्म को इतना स्पष्ट रूप से मैं समझ नहीं सका था जितना बाद में संतों के मुख से सुनने से यह स्पष्ट हुआ है |

          श्री रामचरित मानस में केवट-प्रसंग मात्र तीन दोहों के अंतर्गत आई चौपाइयों तक ही सिमटा हुआ है | इतना कम स्थान मिलने के उपरांत भी यह प्रसंग बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है | वाल्मीकि रामायण और अध्यात्म रामायण में केवट प्रसंग है ही नहीं | इन दोनों ग्रंथों में गंगा पार जाने के लिए केवल मल्लाहों और निषादराज गुह के द्वारा ही नाव का सञ्चालन करना बताया गया है | श्री रामचरितमानस में जिस ढंग से गोस्वामीजी ने इस प्रसंग को भावपूर्ण बनाया है, वह भले ही उनकी एक कल्पना मात्र हो परन्तु है वह बहुत ही उच्च कोटि की | यथार्थ के मूर्त रूप लेने के पीछे कल्पना का ही हाथ होता है | प्रत्येक महत्वपूर्ण खोज का आधार कोई न कोई कल्पना ही होती है | कल्पना से ही इस संसार का निर्माण हुआ है और कल्पना से ही जीवन को आनंदित बनाया जा सकता है | मनुष्य अपने जीवन में अगर कल्पना ही नहीं करे तो उसका जीवन नीरस ही बना रहता है | जीवन की सरसता का राज़ कल्पना में ही छिपा रहता है | इसी कल्पना ने गोस्वामीजी के केवट का अस्तित्व न होते हुए भी उसे जीवंत बना दिया है |

         त्रेतायुग में गंगा के किनारे तुलसी का वह केवट रहता था अथवा नहीं, हमारे चिंतन का यह विषय नहीं होना चाहिए | चिंतन का विषय होना चाहिए कि केवट ने अपने जीवन में ऐसा क्या कार्य किया जिसके कारण वह अमर हो गया | केवट नाम के चरित्र को जानना और समझना इतना सरल नहीं है | केवट को समझने के लिए हमें स्वयं को केवट बनना होगा | इसी केवट प्रसंग की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए त्रेता युग से पूर्व आपको सतयुग में लिए चलता हूँ |

          सतयुग में एक बार क्षीर सागर में भगवान् श्री हरिः शेष शैया पर विश्राम कर रहे थे | श्रीजी उनके चरणों की सेवा में रत थी | भगवान् की शैया बने थे शेषजी महाराज जोकि अभी श्री हरिः के शारीरिक स्पर्श का सुख लेने में मग्न है | तभी वहां एक कछुआ आता है जोकि श्री हरिः के चरणों का स्पर्श पाने को आतुर है | वह चरणों का स्पर्श करने के लिए शेष शैया पर चढने का बार-बार प्रयास करता है | शेषजी को इस बात का आभास हो जाता है और वे अपनी पूंछ फटकारने के साथ-साथ फुंफकार भी रहे हैं | तुरंत ही कछुआ दूर हट जाता है और पुन: अवसर मिलने की प्रतीक्षा करता है | इस बार अनुकूल समय जानकार फिर कछुआ श्री हरिः की ओर बढ़ता है | शेषजी फिर चरण स्पर्श का उसका प्रयास विफल कर देते हैं |

          श्री हरिः तो जन जन के मन की बात जानते हैं फिर भला एक छोटे से कछुए के मन की बात उनसे कैसे छिपी रह सकती है ? भगवान् समझ गए कि कछुआ चरण स्पर्श को व्याकुल है | वे शयन करते हुए जरा सी करवट लेते हैं और अपना एक पाँव शेष शैया से थोडा सा बाहर निकाल देते हैं, जिससे कछुआ उसे आसानी से स्पर्श कर सके | कछुआ भगवान् का संकेत समझ जाता है | वह एक बार फिर से प्रयास करता है | इस बार श्रीजी सजग हैं | ज्योंही वह उनके चरणों को स्पर्श करने वाला होता है कि लक्ष्मीजी की दृष्टि उस पर पड़ जाती है | लक्ष्मीजी अपने हाथ को झटककर कछुए को दूर भगा देती है और श्रीहरिः के पाँव उठाकर वापिस शैया पर कर देती है |

        थोड़े समय उपरांत भगवान् फिर दूसरी करवट लेते हैं और उधर के पाँव को शैया से थोडा बाहर निकाल देते है | कछुआ एक बार पुनः प्रयास करता है परन्तु इस बार भी वह लक्ष्मीजी की दृष्टि से बच न सका | लक्ष्मीजी ने फिर उस कछुए को चरणों का स्पर्श करने से वंचित कर दिया | इस प्रकार कई प्रयास करने के उपरांत भी कछुआ श्री हरिः के चरणों तक अपनी पहुँच न बना सका |

            उसी समय श्रीहरिः नींद से जाग जाते है और चारों ओर अपनी दृष्टि घुमाते हैं | एक दृष्टि कछुए पर डालते हैं और फिर शेषजी तथा लक्ष्मीजी की ओर देखकर हंस पड़ते हैं | भगवान् को जगा हुआ जानकार कछुआ समुद्र के जल में एक गहरी डूबकी लगाता है और सब की दृष्टि से ओझल हो जाता है | श्रीजी और शेषजी भगवान् के हंसने का कारण जानने का प्रयास करते हैं परन्तु जान नहीं पाते और पुनः पूर्व की भांति उनकी सेवा में लग जाते हैं |

            भगवान् की उस समय की हंसी के पीछे कोई न कोई कारण तो अवश्य ही रहा होगा | क्या रहा होगा, उसको या तो केवल वे स्वयं जानते हैं अथवा कोई उनको जानने वाला ही जान सकता है | हंसने का अर्थ होता है, किसी बात को सुनकर अथवा देखकर आनंदित होना | संसार की आसक्तियों में आकंठ डूबा हुआ व्यक्ति भगवान् की लीला का आनंद नहीं उठा सकता जबकि इस संसार को भगवान् ने लीला करते हुए उससे आनंद लेने के लिए ही बनाया है | जब भगवान् को किसी लीला में अतिशय आनंद की अनुभूति होती है तब अनायास ही उनको हंसी आ जाती है |

           प्रभु तो जानते हैं कि कछुआ मेरे चरण का स्पर्श पाकर मुक्त होना चाहता है परन्तु मुक्ति इतनी सरल भी तो नहीं है | मुक्ति के लिए उसे अभी और तपस्या करने की आवश्यकता है | कछुआ भगवान् का भक्त है, वह इस बात को समझ जाता है और तप में लीन हो जाता है |

           प्रत्येक युग में परमात्मा को अवतार लेकर इस धरा पर आना पड़ता है | उनके अनन्य भक्त उनके अवतार लेने की प्रतीक्षा करते हैं | सतयुग का वह कछुआ भी त्रेतायुग में गंगातट पर बैठा उनके आने की प्रतीक्षा कर रहा है |

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ||” (गीता-4/7)

अर्थात जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने आप को प्रकट करता हूँ |

        इसी बात को मानस में गोस्वामीजी इस प्रकार लिखते हैं-

   जब जब होइ धर्म कै हानी |

   बाढहिं असुर अधम अभिमानी |

   तब तब प्रभु धरि बिबिध शरीरा | 

हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ||(1/121/6-8)

         इसी आधार पर त्रेता युग में भगवान् का अवतरण श्री राम के रूप में हुआ | गोस्वामीजी लिखते हैं-‘राम जन्म के हेतु अनेका’ (मानस-1/122/2) केवल एक कारण से ही श्री राम का जन्म नहीं हुआ बल्कि इस जन्म के पीछे अनेक कारण रहे हैं। परमात्मा के अवतार लेने के पीछे कई कारण होते हैं परन्तु मुख्य कारण अधर्म की वृद्धि को रोककर धर्म का उत्थान करना होता है | एक साधारण व्यक्ति भी जब इस संसार में जन्म लेता है, उसके जन्म लेने के भी अनेक कारण होते हैं | पूर्व मानव जन्म में रही अनेकों कामनाएं, ममता आदि उसको इस संसार में बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र में घुमाती रहती है परन्तु नया जन्म पाकर भी वह इस वास्तविकता को समझ नहीं पाता | परमात्मा के साथ ऐसी बात नहीं है | वे जब भी इस संसार में अवतरित होते हैं, उन्हें अपने आने का उद्देश्य स्पष्ट होता है | अपने उद्देश्य के अनुरूप ही वे यहाँ पर लीला करते हैं और उद्देश्य पूर्ण होते ही अपनी लीला को समेटकर पुनः लौट जाते हैं |

           राम के जन्म लेने का मुख्य उद्देश्य भले ही धर्म की हानि को रोककर उसका उत्थान करना रहा होगा परन्तु सांसारिक लीला में वे अपने भक्तों का भी पूरा ध्यान रखते हैं, ऐसे में वे भला उस कछुए को कैसे भूल सकते हैं जिसने सतयुग में उनके चरण स्पर्श करने का विफल प्रयास किया था | उनकी लीला को सुनने और देखने में आनंद की अनुभूति होती है | लीला भी मानवोचित हो, तभी लीला का महत्व है | नाटक अगर नाटक ही प्रतीत हो तो फिर दर्शक पर वह नाटक अपना प्रभाव नहीं छोड़ पायेगा | नाटक में वास्तविकता प्रतीत हो, तभी उसमें आनंद आता है अन्यथा नहीं | देखा जाये तो भगवान् के लिए क्या संभव नहीं है अर्थात उनके लिए सब कुछ संभव है | भगवान् चाहते तो अल्प समय में ही रावण कुम्भकरण का आसानी से वध कर सकते थे परन्तु ऐसा करना एक मानव के रूप में उनके लिए उचित नहीं होता | भगवान् साधारण मनुष्य के रूप में आये हैं, तो उनके लिए साधारण मनुष्य का सा ही व्यवहार करना ही उचित होगा | मनुष्य जैसा व्यवहार करना ही उनकी लीला करना कहलाता है |

          लीला की पटकथा स्वयं भगवान् ही लिखते हैं अर्थात लेखक भी भगवान् और रंगकर्मी के रूप में भी भगवान् | इसी लीला की पटकथा के अनुसार भगवान् का जन्म राम के रूप में हुआ | उसकी लीला को पूर्णता प्रदान करने के लिए कई पात्र इस संसार में जन्म ले चुके हैं उनमें से एक वह कछुआ भी है | त्रेता में वही कच्छप, केवट बनकर गंगा किनारे प्रभु के आने की प्रतीक्षा कर रहा है | केवट जानता है कि मेरे प्रभु अपने चरणों का आश्रय प्रदान करने एक दिन अवश्य गंगा किनारे आयेंगे | भगवान् के आने की प्रतीक्षा केवल केवट ही नहीं कर रहा था, उसके अतिरिक्त भी अनेकों ऋषि-मुनि, अहिल्या, जनक सुता जानकी, भक्त हनुमान, सुग्रीव, शबरी, जटायु आदि ही नहीं, रावण सहित अनेकों राक्षस भी उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं |

            भगवान् राम रूप में अवतरित हुए | अहिल्या का उद्धार करते हुए जानकीजी का वरण किया | राजतिलक होने ही वाला था कि सब कुछ परिवर्तित हो गया | भगवान् कहते हैं कि ‘मम माया संभव संसारा’ मेरी माया से यह संसार बना है और सब कुछ इस संसार में होना संभव है | लोगों की प्रतीक्षा रंग लाई और भगवान् राजभवन छोड़कर वनयात्रा पर निकल पड़े | अनेकों नदियाँ पार करनी पड़ी | उनसे कैसे पार हुए, पता नहीं परन्तु गंगा को पार करने के लिए उन्हें नाव की आवश्यकता आ पड़ी क्योंकि कोई उनकी यहाँ प्रतीक्षा कर रहा है | लक्ष्मण को आदेश दिया गया - ‘नाव की व्यवस्था करो’| गंगा की अथाह जलधारा और लम्बा-चौड़ा पाट | किनारे पर नाव भी केवल एक और वह भी उसी केवट की | केवट आने में देरी कर रहा है और उधर जानकीजी पार जाने को उतावली हो रही है | भगवान् श्रीराम भी धैर्य के साथ केवट के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं | भगवान् भीतर ही भीतर जानते हैं कि देरी क्यों हो रही है ?

             ‘कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना’- केवट कहता है कि प्रभु ! मैं आपके मर्म को जानता हूँ | केवट भगवान् का कौन सा मर्म (भेद) जान गया है जो नाव लाने में इतनी देर लगा रहा है ? वह मन ही मन कह रहा है- “मैं जानता हूँ प्रभु कि आप नदी एक क्षण के भीतर पार कर सकते हैं, नाव की आपको कोई आवश्यकता नहीं है | आप यह बात जानते हैं कि मैं आपके चरण-स्पर्श करने को युगों युगों से लालायित हूँ | आप इस बार मेरी यह कामना पूरी करने जा रहे हैं, इसीलिए आप नाव से नदी पार करा देने का मुझसे अनुग्रह कर केवल अभिनय कर रहे हैं | इस क्षण की मैंने पूरे एक युग तक प्रतीक्षा की है | अब बारी मेरी है | मैं भी आपको कुछ समय के लिए प्रतीक्षा करवाऊंगा |” भक्त की महिमा विचित्र है | संसार में केवल प्रभु का भक्त ही प्रभु के मन की बात समझ सकता है | भगवान् भी भक्त के प्रेम के इतने अधिक भूखे रहते हैं कि वे भक्त के लिए धैर्य धारण कर लम्बी प्रतीक्षा भी कर सकते हैं |

            अंततः सभी की प्रतीक्षा समाप्त होती है और नाव लेकर केवट आ जाता है | भगवान्, सीता और लक्षमण को साथ लेकर नाव में चढने वाले ही होते हैं कि केवट उन्हें रोक देता है | अभी भी कुछ और समय के लिए उसे भगवान् का सानिध्य चाहिए | कहता है – ‘अभी ठहरिये प्रभु ! आपके चरणों की रज की विशेषता मैंने सुनी है | आपने एक पत्थर को अपने चरणों से जरा सा क्या छुआ कि वह एक मुनि की पत्नी (गौत्तम ऋषि की पत्नी अहिल्या) बन गयी | एक पत्थर को छूते ही जब शिला भी नारी के रूप में परिवर्तित हो जाती है तो ऐसे में भला, उसके सामने मेरी इस लकड़ी से बनी नाव की बिसात ही क्या है ? मेरी नाव का तो न जाने क्या होगा ? गौत्तम ऋषि के पास तो उस समय उनकी पत्नी नहीं थी, इसलिए उनके लिए तो ऐसा होना उचित ही था परन्तु मेरे पास तो पहले से ही एक पत्नी है | कल को मेरी नाव भी आपके चरण रज का स्पर्श पाकर नारी बन गयी तो मेरा क्या होगा ? दो-दो पत्नियां एक साथ रख पाने की स्थिति में मैं नहीं हूँ |’

           भगवान् कहते हैं-“केवट ! ऐसा नहीं होगा | तू व्यर्थ की ही चिंता करता है | देखो, जानकीजी नदी पार करने को उतावली हो रही है और लखन भी क्षुब्ध हो रहा है |’ केवट कहने लगा – ‘प्रभु ! मान लिया. मेरी नाव नारी नहीं बनेगी | परन्तु क्या पता आपके पैरों की धूल का स्पर्श पाते ही यह नष्ट हो जाये | मैं एक गरीब मल्लाह हूँ | मेरी आजीविका, मेरे परिवार का भरण-पोषण केवल इसी एक नाव पर आश्रित है | मैं एक नाव खेने के अतिरिक्त अन्य कोई काम भी करना नहीं जानता | ऐसे में भला मेरे द्वारा अपने परिवार का पालन-पोषण करना कैसे संभव होगा ? आपके चरणों की रज मिल जाये, बस इतना ही मेरे लिए पर्याप्त है | आपके चरणों के आश्रय से मेरा और मेरे परिवार का कल्याण हो जायेगा |’

             इस प्रकार भगवान् और भक्त के मध्य भावपूर्ण वार्तालाप चल रहा है | केवट इतना कहकर यहीं पर नहीं रूका, वह आगे कह रहा है –‘हाँ, एक बात और | आप केवल मुझे अपने पैरों को धोने की आज्ञा दें, इसके अतिरिक्त मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए | मैं आपको गंगाजी के उस पार ले जाने की कोई मजदूरी भी आपसे नहीं लूँगा | मुझे आप और आपके पिताजी की सौगंध, जो मैं थोडा सा भी झूठ कहूँ तो, मैं सब सत्य कह रहा हूँ | मुझे अब लक्षमण के बाण का भी भय नहीं है | प्रभु ! वह अवसर चला गया जब मैं आपके द्वार पर आया था और शेषजी की फुंफकार से डरकर आपके चरण स्पर्श करने से वंचित रह गया था | आज आप मेरे द्वार पर आये हैं, वह भी अपनी इच्छा से | अब मैं उस प्रतीक्षा के एक एक क्षण का हिसाब लूँगा | आज भगवान् आये हैं, इस भक्त का उद्धार करने | अब भला मुझे किस बात का भय सता सकता है | प्रभु ! आप चाहे जो कीजिये, यह अवसर अब मैं व्यर्थ ही जाने नहीं दूंगा | नहीं, नहीं मैं आपको बिना आपके पाँव धोये इस नाव की सवारी नहीं करने दूंगा |’

           केवट के वचन प्रेम से सने हुए और अटपटे होते हुए भी बिलकुल स्पष्ट थे | वह अपनी भाषा में भाव विभोर होकर अपने प्रभु से वार्तालाप कर रहा था | केवट की बातें सुनकर भगवान् श्री राम, सीता और लक्षमण की ओर देखकर उसी प्रकार हंस दिए जैसे सतयुग में कछुए के प्रयास को विफल होते देखकर श्रीजी और शेषजी की तरफ देखकर हँसे थे | मानो प्रभु कह रहे हों कि मैं मेरे भक्त के वश में हूँ | रास्ते की कोई भी बाधा इतनी बड़ी और कठिन कभी भी नहीं हो सकती जोकि किसी भक्त का प्रभु से मिलन रोक सके | लक्ष्मण और सीताजी के चहरे के भाव बता रहे थे कि वे अब गंगा पार जाने के लिए और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकते | राम ने उनके ह्रदय की बात जान ली और केवट को मुस्कुराते हुए कहा – ‘केवट, तुम वही कार्य करो, जिससे तुम्हारी नाव सुरक्षित रह सके | त्वरित गति से जाओ और गंगाजी का जल लाकर उससे मेरे पाँव धो लो |’

      जासु नाम सुमिरत एक बारा |

       उतरहिं नर भवसिंधु अपारा |

      सोइ कृपालु केवटहि निहोरा | 

      जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ||

             सतयुग में एक दिन कछुआ चरण स्पर्श करना चाहता था, आज त्रेता में केवट के रूप में वह प्रभु के सामने खड़ा है | वामन अवतार लेकर जिस प्रभु ने राजा बलि से तीन पैर भूमि मांगी थी और बलि ने अपने गुरु की बात न मानते हुए उसे देने का संकल्प कर लिया था, उस समय प्रभु ने पूरे जगत को केवल दो पैरों से नाप लिया था, क्या उस प्रभु के लिए एक नदी को अपने बल से पार कर पाना संभव नहीं था ? भगवान् के लिए कुछ भी असंभव नहीं है | परन्तु यहाँ मामला भक्त और भगवान् के मध्य का है | भगवान् आज भक्त को कृतार्थ करने आये हैं | सतयुग के उस कछुए की तपस्या अब त्रेता में जाकर रंग लाई है | सदा सेवक स्वामी के अधीन होता है परन्तु आज स्वामी सेवक के अधीन हो रहा है | ऐसे में भला स्वामी अपनी शक्ति का प्रदर्शन क्यों कर करेंगे ? सब कुछ भगवान् की इच्छा से ही तो हो रहा है |

          गीता में भगवान् कहते हैं कि अगर अन्तकाल में भी कोई व्यक्ति मेरे नाम का स्मरण एक बार भी कर लेता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है | अजामिल ने अंत समय में एक बार ‘नारायण-नारायण’ कहा और संसार सागर से पार हो गए | क्या ऐसे उद्धारक भगवान् को गंगाजी को पार करने के लिए नाव और उसको खेने वाले की आवश्यकता रही होगी ? यह सत्य बात है कि सब कुछ भगवान् के अधीन है | वे जैसा चाहते हैं, वैसा ही हो जाता है | परन्तु यहाँ साधारण स्थिति की बात नहीं है | यहाँ भक्त और भगवान् के आपसी सम्बन्ध की बात है | तभी तो भगवान् को भक्त से अनुनय विनय करनी पड़ रही है और इस लीला का भगवान् के साथ-साथ भक्त भी पूरा आनंद ले रहा है | भक्त भी जानता कि भगवान् सर्व समर्थ हैं | यहाँ भक्त भी अपने अभिनय को भगवान् की लीला में पूर्ण दक्षता के साथ निभा रहा है |

          भगवान् ने बहुत सी नदियाँ अपने वन गमन की अवधि में पार की होगी | आज गंगा मैया को उनकी लीला देखने का पुनीत अवसर मिला है | चरण धोवन से पूर्व भगवान् के पैरों के नख देखकर गंगा भी आनन्दित है | आनंदित क्यों न हो, आखिर उसका उद्गम भी तो इन्हीं चरणों से हुआ है | आश्चर्य की बात नहीं है क्या कि परमात्मा के चरण देखकर एक नदी भी हर्षित हो सकती है | ऐसा तभी होता है जब भगवान् भक्त के वश में हो जाते है | आज से पूर्व भी करोड़ों अरबों नाविकों ने गंगा के ऊपर नाव चलाई होगी परन्तु भगवान् को पार ले जाने वाला कोई कोई ही केवट होता है अन्यथा तो केवल भगवान् ही संसार सागर से पार करने वाले एक मात्र नाविक हैं | भगवान् का नाम लेकर भव सागर को पार करने वाले भक्त आज भगवान् को सांसारिक नदी को पार कराने में अपना अहोभाग्य समझ रहे हैं | प्रभु की लीला विचित्र है | इसको समझना केवल भक्त के वश में ही है |

          भगवान् श्रीराम की आज्ञा पाते ही केवट प्रसन्न हो गया | तत्काल ही वह हर्षित मन से उठा और पानी की कठौती भर लाया | बड़े आनंद के साथ वह धीरे-धीरे भगवान् के पाँव धोने लगा | कहाँ तो स्वर्ग के देवता तक भगवान् के दर्शन को लालायित रहते है और यहाँ तो साक्षात् परमेश्वर के चरण को एक साधारण नाविक केवट अपने हाथों में लेकर बड़े प्रेम से धो रहा है | देवता भी प्रभु की ऐसी लीला देखकर हर्षित हुए बिना नहीं रह सके | देवता आपस में बात करते हुए कह रहे हैं कि केवट ने पूर्वजन्म में कोई बड़ा भारी पुण्य किया है, जिसका लाभ उसे आज मिल रहा है | अपने जीवन में जो भी कार्य आप परमात्मा का कार्य मान कर करते हैं, उसका पुण्यलाभ आपको कभी न कभी अवश्य ही मिलता है  | केवट ने अपने पूर्व जीवन कछुए के रूप में परमात्मा के चरणों की कामना की थी, आज उसके वे ही कर्म परिपक्व हुए है | आज उसी कामना के कारण प्रभु का सानिध्य उसे मिल पाया है |

      पाँव धोते धोते केवट के समक्ष एक बड़ी समस्या आ खड़ी हुयी | वह एक पैर धोकर जमीन पर रखता और दूसरा पैर धोने लगता कि पहले पैर पर गंगारज चिपक जाती | फिर वह पहले वाले पैर को धोता तो दूसरे पैर के रज लग जाती | भगवान् समझ गए कि इस बहाने तो यह केवट जीवन भर मेरे पैर छोड़ने का नाम ही नहीं लेगा | अंततः उन्हें कहना ही  पड़ा कि केवट तुम यह क्या कर रहे हो ? केवट बोला कि ‘प्रभु जब मैं एक पैर धोकर दूसरा पैर धोने लगता हूँ तब धोये हुए पैर से धूल फिर चिपक जाती है | मैं क्या करूँ प्रभु ? प्रभु, आप ऐसा कीजिये कि आपका एक पैर धुलते ही उसे मेरे एक हाथ पर रख दीजिये | फिर दूसरा पैर इस जल भरी कठौती में रख दीजिये | दूसरे पैर के धुलते ही वह पैर मेरे दूसरे हाथ पर रख दीजिये | इस प्रकार आप के दोनों पैर मेरे हाथों में होंगे तो धुल से सनने का प्रश्न ही नहीं उठेगा |’ प्रभु हंसकर बोले – ‘भला, दोनों पांव बिना किसी सहारे के कोई एक साथ कैसे ऊपर उठा कर रख सकता है ?’ केवट भी बड़ा चतुर निकला, बोला-‘ ऐसा कीजिये प्रभु, आप अपने दूसरे पैर को कठौती में रखते समय मेरे सिर पर अपने दोनों हाथ रख दीजिये | ऐसा करने से मैं भी निर्भय हो जाऊंगा और आपके गिरने का भय भी नहीं रहेगा |’ भगवान् की लीला भी कैसी कैसी होती है ? भक्त को भगवान् का ही एक मात्र सहारा होता है और आज भगवान् एक भक्त का सहारा ले रहे हैं |

           भगवान् मन ही मन अपने भक्त की चतुरता पर मुस्कुरा रहे हैं | भक्त केवल चरण-स्पर्श से ही संतुष्ट नहीं होता है, साथ ही वह अपने सिर पर भी भगवान् का हाथ चाहता है | सत्य भी है कि एक भगवान् के अतिरिक्त भक्त का कोई दूसरा आश्रय होता भी तो नहीं है और न ही भक्त अन्य किसी का आश्रय लेना चाहता है | भगवान् भला क्या करते ? लक्ष्मण और सीताजी की ओर देख मुस्कुराते हुए केवट के चाहे अनुसार करते रहे | केवट की समस्या फिर भी समाप्त नहीं हुई | प्रभु के दोनों पाँव तो पखार दिए परन्तु अब अगर फिर से उन्हें जमीन पर रखेगा तो वे धुल से पुनः सन जायेंगे | बड़ा ही सुन्दर दृश्य है | आप भी इस भावपूर्ण दृश्य का आनंद लीजिये | आज भक्त के पूरे वश में भगवान् हो गए हैं | केवट के दोनों हाथों में भगवान् के दोनों पैर है और केवट के सिर पर भगवान् के दोनों हाथ | स्थिति ऐसी है कि उस समय केवट जो चाहे वह भगवान् के साथ कर सकता है | तत्काल ही वह खड़ा हुआ और उसने भगवान् को अपनी गोद में उठा लिया और धीरे-धीरे चलता हुआ उन्हें नाव में ले जाकर बिठा दिया | केवट की सारी समस्या एक क्षण में ही दूर हो गयी |

        नाव में भगवान् को बिठाकर केवट लौटा और कठौती के जल (चरणामृत) का सर्वप्रथम स्वयं ने पान किया, फिर परिवार के समस्त सदस्यों को भी पान कराया और साथ ही साथ अपने समस्त पूर्वजों तथा पितरों को भी पान कराया | ऐसा करके वह तुरंत ही नाव पर लौट आया | जब तक लौटता तब तक लखन और जनकसुता भी नाव पर चढ़ चुके थे और गुह उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे | केवट के आते ही निषादराज गुह भी उसके साथ ही नाव पर चढ़े | प्रमुदित मन से केवट नाव खेते हुए प्रभु को गंगाजी के उस पार ले गया | प्रभु की लीला देखिये ! आज एक भक्त ने भगवान् को नदी के पार कर दिया | भगवान् आज भक्त के ऋणी हो गए | अब भगवान् की जिम्मेवारी, समय आने पर वे ही भक्त को संसार सागर के पार ले जायेंगे |

           गंगा के दूसरे किनारे पहुंचते ही भगवान् श्रीराम के साथ सीताजी, लखन और निषादराज भी नाव से उतरे | केवट ने नाव को गंगा किनारे बांधा, नाव से नीचे उतरा और जमीन पर दण्डवत लेटकर प्रभु को प्रणाम किया | चाह कर भी वह उठ नहीं पा रहा था | आज केवट का ह्रदय गद्गद् हो रहा था | उसके दोनों नयनों से सतत नीर बहे जा रहा था | वह एकटक प्रभु को ही देखे जा रहा था | एक प्रभु के अतिरिक्त उसे कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ रहा था | अनन्य भक्ति वही होती है जिसमें एक भगवान् के अतिरिक्त सब कुछ खो जाये |

            केवट जानता था कि साक्षात् परमात्मा कुछ क्षणों पश्चात् उसकी दृष्टि से ओझल होने जा रहे हैं | तभी भगवान् श्री राम के मन में विचार आया कि मेरे पास इसे देने के लिए कुछ भी नहीं है, मैं इसको उतराई में आखिर दूं क्या ? जगत जननी जानकीजी प्रभु के मन की बात तत्काल ही समझ गयी | उन्होंने अंगुली से अपनी मुद्रिका उतारी और केवट को उतराई देने के लिए प्रभु को सौंप दी | प्रभु उतराई के रूप में वह अंगूठी केवट को देने लगे |

             भगवान् ने जब मुद्रिका को केवट की ओर किया तो केवट भाव-विह्वल हो गया और कहने लगा –“नाथ आजु मैं काह न पावा |’ हे मेरे प्रभु ! मुझे आज क्या नहीं मिला ? अर्थात आज मुझे सब कुछ मिल गया | मैंने जीवनभर नाव से लोगों को पार उतारकर बहुत मजदूरी/आमदनी की है | आज की मजदूरी मुझे आत्मरूप से संतुष्ट करने वाली है | एक भक्त के जीवन में संतोष से बढकर कोई कमाई नहीं हो सकती | जीवन में जिस कार्य से संतुष्टि मिलती है, उसकी तुलना मिलने वाली धन राशि से कभी भी नहीं हो सकती | फिर भी आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मेरा एक आग्रह स्वीकार करें | आप वनवास से जब भी अयोध्या को लौटें, मेरी नाव से ही इस गंगा नदी को पार करें | उस समय आप जो कुछ भी मुझे देंगे, मैं आपका प्रसाद मानकर प्रफुल्लित मन से उसे स्वीकार कर लूँगा परन्तु आज मैं आपसे उतराई के रूप में कुछ भी नहीं लूँगा | आज मेरे जीवन के सभी विकार दूर हो गए हैं, मेरी सभी व्याधियां मिट गयी है और सभी दुःख दूर हो गए हैं | अभी तो मैं आपसे केवल आपकी भक्ति का वरदान चाहता हूँ, अन्य कुछ भी नहीं | हाँ, लौटते समय अपने भक्त को दर्शन देते हुए कृतार्थ अवश्य कीजिएगा |’

            श्रीराम ने बहुत आग्रह किया परन्तु केवट ने मुद्रिका लेने से स्पष्ट मना कर दिया | केवट परमात्मा के समक्ष उनके पैरों में लोटने लगा | प्रभु ने बड़े प्रेम से उसे उठाकर केवट को अपने ह्रदय से लगाया और उसे निर्मल भक्ति का वरदान दिया | भगवान् ने लखन जानकी सहित गंगा स्नान किया | फिर केवट से विदा लेकर भगवान् तो अपनी वनयात्रा पर आगे निकल गए और केवट दु:खी मन से उन्हें निहारता हुआ अश्रुपात करने लगा | आज उसने बहुत आग्रह करने के उपरांत भी किसी और व्यक्ति को नाव में बैठाकर नदी पार नहीं कराई | भारी मन से अकेला ही नाव खेता हुआ पुनः इस पार लौट आया |

       गोस्वामी श्री तुलसीदासजी महाराज ने केवट प्रसंग का बहुत ही सुन्दर प्रस्तुतीकरण मानस में किया है | भगवान् को गंगा नदी को पार करा देने के बाद उनका यह प्रसंग यहीं  समाप्त हो जाता है | एक भक्त का भगवान् के प्रति प्रेम का बहुत ही सुन्दर चरित्र गोस्वामीजी ने गढा है | केवट निम्न और दलित वर्ग के अंतर्गत आते हैं | तुलसीदासजी के समय जाति व्यवस्था अपने चरम पर थी | उस समय उच्च और निम्न वर्ग के बीच वैमनस्य भाव बढ़ता ही जा रहा था | शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने केवट का चरित्र गढ़ा था जिससे दो वर्गों के बीच की खाई को कुछ सीमा तक पाटा जा सके | श्री राम के समकालीन आदिकवि वाल्मीकिजी थे | उनकी रामायण में केवट नाम का कोई चरित्र ही नहीं है | उनकी रामायण में निषादराज गुह ही अन्य नाविकों के साथ नाव का सञ्चालन करते हुए प्रभु को गंगा पार ले जाना बताया गया है |

      गोस्वामीजी ने तो केवट प्रसंग को एक सीमा तक स्पष्ट करके छोड़ दिया | राम के वन में आगे गमन करने के बाद पीछे से केवट के साथ क्या हुआ ? आइये ! यह भी जान लेते हैं | श्री राम के बाद केवट ने नाव में सवारी बिठाना तक बंद कर दिया | दिन-रात वह केवल राम-राम की रट लगाये रखता था | दिन भर यही कहता रहता था कि मेरे प्रभु राम, वापिस लौटेंगे तो मेरे पास अवश्य आयेंगे | परिवार वाले एक एक कर उसका साथ छोड़ते गए क्योंकि केवट उनका भरण-पोषण करने में विफल हो रहा था | आखिर कब तक उसकी पत्नी और बच्चे उससे इस बात की अपेक्षा रखते | परिवारजन अपनी उदरपूर्ति के लिए यहाँ-वहां जहाँ पर भी उन्हें कुछ काम मिलता, कार्य करने लगे | केवट तो दिन-रात बस केवल एक ही रट लगाये रहता – ‘मेरे राम आयेंगे.... मेरे राम आयेंगे’ | भक्त की एक विशेषता होती है, वह परमात्मा की प्रतीक्षा अनन्त काल तक कर सकता है | उसकी परमात्मा पर बहुत अधिक श्रद्धा होती है | वह जानता है कि एक न एक दिन उसे परमात्मा अवश्य ही मिलेंगे | केवट उन्हीं भक्तों में से एक है |

         चौदह वर्ष बीत चले थे | श्रीराम ने रावण का वध भी कर दिया | जानकीजी लंका से वापिस उनके पास आ गयी | सभी जगह यह बात फ़ैल गयी कि भगवान् श्रीराम अयोध्या लौट रहे हैं | किसी को पता नहीं था कि वे अयोध्या किस मार्ग से और किस साधन से लौटेंगे | केवट के कानों में भी अपने प्रभु के अयोध्या लौटने की भनक पड़ी | वह प्रफुल्लित हो उठा | ‘मेरे राम आ रहे हैं, मेरे राम आ रहे हैं’, कहते हुए नाचने लगा | उसने बड़े प्रेम से अपनी नाव को ताज़ा फूलों से सजाया और अपने प्रभु के आने की बाट जोहने लगा |

          इधर राम को अयोध्या लौटने की जल्दी थी | वे जानते थे कि यदि अयोध्या लौटने में चौदह वर्ष से एक दिन भी ऊपर निकल गया तो भरत अपनी देह त्याग देगा | वे पुष्पक विमान लेकर त्वरित गति से अयोध्या के लिए निकल पड़े | केवट की आस अधूरी रह गयी | उसको पता नहीं था कि भगवान् श्री राम उसके पास अब नहीं आ पायेंगे | वह तो अभी भी रट लगाये जा रहा था कि मेरे राम आ रहे हैं, मेरे प्रभु आ रहे हैं | तभी उसके कानों ने किसी के बोल सुने कि राम अयोध्या लौट आये हैं | भक्त का मन भगवान् के विरह में व्याकुल हो गया | पूरी रात वह रोता रहा |

       भोर हो चली थी | सभी नाविक अपनी अपनी नावें सम्हाल रहे थे | एक नाविक ने केवट की नाव की ओर ध्यान दिया | प्रभु की प्रतीक्षा में सजी हुई नाव में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं हो रही थी | नाविक उस नाव के थोडा निकट गया | देखा कि केवट की मृत देह उस सजी हुई नाव में पड़ी है | भक्त केवट के प्राण पखेरू न जाने रात को किस समय उड़कर अयोध्या में भगवान् श्री राम के पास पहुंच गए | शैया पर सोये श्री राम अचानक नींद से जाग कर उठ बैठे | स्वप्न नहीं, सत्य था यह | केवट उनका विरह सहन नहीं कर सका था | आज उनको केवट की बहुत याद आ रही थी | सहसा उनके मुख से निकल पड़ा –‘भक्त केवट; मैं अयोध्या लौटते हुए रास्ते में रूककर तुम्हारा ऋण नहीं चूका सका |’

       तभी वहां उपस्थित केवट की आत्मा बोल पड़ी- ‘नहीं प्रभु ! ऐसा न कहिये | मैं आपका दास हूँ, सेवक हूँ | मुझे केवल आपकी भक्ति ही चाहिए और कुछ भी नहीं | आज मुझे संसार की सारी सम्पति मिल गयी है |’ भक्त कहता रहा और भगवान् ने उसे स्वयं में लीन कर लिया |

   धन्य है केवट का जीवन, जिसने भगवान् को भी भक्त के समक्ष नतमस्तक कर दिया | सत्य है केवट का यह कहना कि “नाथ आजु मैं काह न पावा |”

                  लेख के प्रारम्भ में जो कछुआ प्रभु के चरण छूने का प्रयास कर रहा है, वह पूर्व मानव जन्म की कोई योगभ्रष्ट आत्मा है | योगभ्रष्ट वही व्यक्ति होता है जो जीवन में परमात्मा की तरफ चलने का प्रयास तो करता है परन्तु सांसारिक भोगों के आकर्षण से एक बार मुक्त होकर भी पुनः उनमें जाकर उलझ जाता है | उलझने का कारण होता है, जीवन की सुरक्षा का भय होना | प्रायः हम देखते हैं कि जीवन में परमात्मा की ओर उन्मुख होने के बाद भी जीवन यापन के लिए हम संग्रह के लिए उद्यत रहते हैं | संग्रह का कारण है भय | परमात्मा पर पूर्णतः विश्वास न होना ही इस भय का जनक है | ऐसा ही व्यक्ति अपने मार्ग से भटक जाता है और पीठ पर जीवन सुरक्षा का भय लादे कछुए के रूप में अवतरित होता है |

       कछुआ सागर में इसी प्रकार घूमता रहता है जैसे संसार सागर में हम विचरण करते हैं | परन्तु पूर्वजन्म में योगभ्रष्ट हुआ वह व्यक्ति कछुए का रूप प्राप्त कर भी भगवान् को भूला नहीं है | वह परमात्मा के चरणों का स्पर्श पाने को आतुर है परन्तु भयमुक्त अभी भी नहीं है | तभी तो वह शेषजी की फुंफकार और पूंछ की फटकार से तथा लक्ष्मीजी के हाथ के झटकने से भी डर जाता है | अपने पैरों को शेषशैया से नीचे करते हुए भगवान् तो चाहते हैं कि कछुआ मेरी शरण ले ले परन्तु जब तक वह स्वयं भयमुक्त नहीं होगा तब तक परमात्मा से उसकी दूरी बनी रहेगी | भयमुक्त होने के लिए वह तपस्या करता है और केवट के रूप में त्रेता में जन्म लेता है | इस बार उसकी तपस्या सफल हुई है |

           इसी प्रकार हमारे जीवन में  कभी कभी परमात्मा की स्मृति मन में उठती है तो परमात्मा को पाने के लिए उनकी तरफ चल पड़ते हैं | प्रभु के सम्मुख होना और उनसे विमुख हो जाना, दोनों ही अवस्था हमारे जीवन में भी बार-बार आती रहती है | हमें सांसारिक भोग भी चाहिए और जीवन सुरक्षा के लिए संग्रह भी | इसी प्रकार हम संसार भंवर में उलझते हुए डूबते उतराते रहते हैं |

              जीवन की विपरीत परिस्थितियां हमें परमात्मा की ओर जाने को उद्यत करती है | परन्तु फिर सांसारिक सुख अर्थात भोग और संग्रह अपना प्रभाव दिखलाते हैं और हम एक झटके से परमात्मा से विमुख हो जाते हैं | गोस्वामीजी के जीवन में भी तो यही हुआ था | ज्ञानी होते हुए भी तुलसीदासजी सांसारिक भोगों में आकंठ डूबे हुए थे | पत्नी के उलाहना भरे वचनों से बनी विपरीत परिस्थति ने उन्हें परमात्मा की ओर उन्मुख कर दिया | फिर वे किसी भी प्रकार के सांसारिक भोग और भय से विचलित नहीं हुये | अंततः वे केवट बन गए और परमात्मा के चरणों का आश्रय उन्हें मिल ही गया |

            केवट प्रसंग का भाव यही है कि संसार सागर में विचरण करते हुए परमात्मा की ओर चलें | साथ ही ध्यान में रखें कि भोग और संग्रह के आकर्षण से स्वयं को दूर रखें |  भोग और संग्रह के आकर्षण से मुक्त रहने की अवस्था ही जीवन्मुक्ति की अवस्था है | फिर परमात्मा स्वयं चलकर आपके द्वार तक आयेंगे | हमारे जीवन की विडम्बना है कि हम स्वयं को इन विकारों से मुक्त नहीं कर पाते और अपने जीवन में इन्हीं के अभाव से होने वाली काल्पनिक दुर्दशा से डरकर कछुए की तरह परमात्मा से दूर चले जाते हैं | कछुए ने तपस्या की थी, इन विकारों से भयमुक्त रहने के लिए | तभी केवट बनकर लखन और जानकीजी से भी वह भयभीत नहीं हुआ और परमात्मा के चरण पकड़ते हुए उनका वरदहस्त प्राप्त किया | अंततः परमात्मा ने उसे सायुज्य मुक्ति प्रदान की | तभी केवट ने कहा है –

 “नाथ आजु मैं काह न पावा | मिटे दोष दुख दारिद दावा ||”

प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||    


         




        


Monday, November 15, 2021

स्वभाव से स्वरूप की ओर

 स्वभाव से स्वरुप की ओर 

      अध्यात्म में तीन शब्द महत्वपूर्ण हैं – पर, स्व और परम | ‘पर’ शब्द जगत (अपरा प्रकृति/क्षर पुरुष) के लिए उपयोग में लिए जाता है जबकि ‘स्व’ स्वयं (परा प्रकृति/अक्षर पुरुष) के लिए और ‘परम’ परमात्मा (पुरुषोत्तम) के लिए | ‘स्व’ का अस्तित्व तभी तक है जब तक हमारा ‘भाव’ स्वयं की इच्छानुसार कुछ बनने का रहता है | यह भाव ही हमारा स्वभाव कहलाता है | जब हम अपने स्वभाव को परमभाव की ओर ले जाते हैं तब ‘स्व’ मिट जाता है और हम ‘परम’ को उपलब्ध हो जाते हैं | स्वभाव हमारा व्यक्तिगत (व्यष्टि) होता है जबकि ‘परमभाव’ समष्टि का है | ‘परमभाव’ से हम सभी प्राणी समान है परन्तु स्वभाव से सब भिन्न भिन्न हैं |

         ‘पर’ (संसार) में आसक्ति से स्वभाव बनता है और समस्त आसक्तियों के मिटते ही स्वभाव परमभाव में परिवर्तित हो जाता है और मनुष्य अपने स्वरुप में स्थित हो जाता है | ‘पर’ से ‘स्व’ में स्थित हो जाना, स्वरूप को जानने के लिए आवश्यक है | ‘स्व’ में स्थित व्यक्ति ही सही मायने में ‘स्वस्थ’ होता है | शारीरिक स्वस्थता और मानसिक स्वस्थता में अंतर है | शारीरिक रूप से स्वस्थ मनुष्य सांसारिक कार्य में तो निपुण हो सकता है परन्तु केवल मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही अध्यात्म की ओर जाने का प्रयास कर सकता है | यहाँ ‘स्वस्थ’ शब्द का अर्थ मानसिक रूप से स्वस्थ रहने से है |

       “अध्यात्म” किसे कहते हैं ? स्वयं को जानने का नाम ही अध्यात्म है | अध्यात्म ही हमें स्वरुप तक पहुंचा सकता है | अध्यात्म के रास्ते सर्वप्रथम व्यक्ति अपने स्वभाव को जानता है और फिर स्वाभावानुसार स्व-धर्म का पालन करते हुए कर्म करता है | इन्हीं कर्मों के माध्यम से वह अपने पूर्व संचित कर्मों (प्रारब्ध) को नष्ट करता है और स्वरुप की ओर चलता है |

            बहुत ही रोचक विषय है यह | कल से इस विषय पर थोडा विस्तार से चिंतन प्रारम्भ करते हैं | चलिए ! साथ-साथ चलते हैं – “स्वभाव से स्वरुप की ओर” | 

        प्रारम्भ एक कहानी से करते हैं | एक सिंह का शावक जन्म लेते ही अपनी मां से बिछुड़ गया | भूख से बिलबिला रहे शावक पर जंगल में भेड़ों को चरा रहे एक गडरिये की दृष्टि पड़ी | उसने अपने हाथों से उस भूखे शावक को पकड़ कर एक भेड़ के थनों से लगाया | दूध की जरा सी मात्रा शरीर में जाते ही शावक सक्रिय हो गया | लगातार दूध मिलते रहने से धीरे-धीरे शावक बड़ा होने लगा | अब तो सिंह शावक उन भेड़ों के झुण्ड में ही रहने लगा | जिधर गडरिया भेड़ों को हांक ले जाता, सिंह शावक भी उनके साथ हो लेता | जिस भेड़ का वह दूध पीता था, उस एक भेड़ को ही वह अपनी मां मानने लगा | दूध पीता, भेड़ों के छोटे छोटे बच्चों के साथ उछलकूद करता और मस्त रहता |

          धीरे धीरे समय बीतता गया | अब सिंह शावक भी बड़ा हो गया | भेड़ों के साथ रहते रहते वह भी उन्हीं की तरह दिन भर मिमियाता रहता | एक दिन एक युवा सिंह शिकार की तलाश में जंगल में भटक रहा था | सहसा उसे भेड़ों का वह झुण्ड दिखलाई पड़ा | उसने शिकार के लिए उस झुण्ड पर हमला कर दिया और उसी एक भेड़ को झुंड से अलग कर दिया जिसका दूध वह सिंह शावक पिया करता था | अपनी धाय मां को अलग थलग पड़े देखकर सिंह शावक भी उसके पीछे पीछे मिमियाता हुआ झुण्ड से अलग हो लिया | युवा शेर भय से मिमियाती उस भेड़ का शिकार करने ही वाला था कि उसकी दृष्टि साथ दौड़ते हुए मिमियाते हुए सिंह शावक पर पड़ी | युवा सिंह को भेड़ बने शावक को देख आश्चर्य हुआ | उसने भेड़ का पीछा करना छोड़ दिया और शावक की ओर बढ़ चला |

       युवा सिंह को अपनी ओर बढ़ते देखकर सिंह शावक जोर-जोर से मिमियाने लगा | युवा सिंह ने उस शावक को भेड़ से अलग कर लिया और उसे घेर कर अपने साथ ले जाने लगा | भय से मिमियाते हुए वह शावक अपनी धाय मां की ओर देखता और करूण पुकार करता हुआ सिंह के साथ चल रहा था | रास्ते में वह युवा शेर उसको बार बार मिमियाना बंद करने के लिए कहता, डांटता परन्तु उस शावक पर इस बात को कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था | सिंह ने उसे बहुत समझाया कि तू एक शेर का बच्चा है, जोर से दहाड़ परन्तु शावक है कि स्वयं को अभी भी भेड़ का बच्चा ही समझ रहा है | दहाड़, सिंह की आवाज़ होती है और मिमियाना भेड़ की |

        अपनी कही बात का असर न होते देखकर सिंह उसे एक कुएं के पास ले जाता है और भीतर झांकने को कहता है | शावक ने जब उस सिंह के साथ कुएं में झाँका तब उसे जल में दोनों की परछाई दिखलाई पड़ी | उसे आश्चर्य हुआ कि दोनों का चेहरा मोहरा एक ही प्रकार का है | अब वह शावक कभी जल में अपनी परछाई देखता और कभी उस सिंह के चेहरे की ओर | अब धीरे धीरे उसके समझ में आने लगा था कि वह इतने दिनों तक भेड़ों के झुण्ड में रहते रहते लगभग भेड़ ही हो चला था | आज उसे अपने वास्तविक स्वरूप के दर्शन हुए हैं | शावक को उहांपोह में देखकर युवा सिंह ने एक जोरदार दहाड़ लगाई | सिंह को दहाड़ते देखकर शावक को भी जोश आया | उसने भी दहाड़ लगाई | वह समझ गया था कि अब तक जो वह स्वयं को एक भेड़ समझता रहा था वह उसके जीवन की बहुत बड़ी भूल थी, वह तो जन्म से ही सिंह है | उसने युवा सिंह के साथ लम्बी दौड़ लगाई और क्षुधा शांत करने के लिए शिकार की खोज में निकल पड़ा |

           हमारे जीवन में और उस सिंह शावक के जीवन में तनिक समानता ढूँढने का प्रयास कीजिये | जरा सा भी भिन्न नहीं है, दोनों का जीवन | हम भी भेड़ों के झुण्ड रुपी इस संसार में स्वयं को एक भेड़ समझते हुए भटक रहे हैं | जिस दिन हमारे को समझाने के लिए एक सच्चा गुरु मिलेगा तभी हम समझ पाएंगे कि हम वास्तव में क्या हैं ? गुरु भी हमारे में से ही कोई एक होगा जिसने अपना वास्तविक स्वरुप जान लिया है | गुरु हमें हमारा परिचय हमारे वास्तविक स्वरुप से कराएगा क्योंकि गुरु उस युवा सिंह की तरह स्वयं का वास्तविक स्वरुप जानता है | जानते तो हम भी थे अपना वास्तविक स्वरुप, परन्तु संसार के झुण्ड में शामिल होकर उसे भूला बैठे हैं | जो स्वरुप अभी हमारा है वह सांसारिक स्वरुप है | सांसारिक स्वरूप को स्वभाव कहा जाता है | हमें इस मनुष्य जीवन में सांसारिक स्वरुप से वास्तविक स्वरुप तक की यात्रा करनी है | इस यात्रा को हम अपने स्वभाव से स्वरुप की यात्रा कह सकते हैं और 'स्व' से 'परम' की यात्रा भी कह सकते हैं |

             हम 'परम' से आये हैं, ऐसा कहना भी अनुचित है | नहीं, हम परम से आये नहीं हैं बल्कि हम परम ही हैं | हम क्यों भूल गए अपने परम होने को ? इसी विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाएंगे और ‘स्व’ को छोड़कर ‘परम’ तक पहुँचने का मार्ग तलाश करने का प्रयास करेंगे |

         शावक और सिंह की कहानी बताने से तात्पर्य है कि सिंह ‘स्वरुप’ है और शावक ‘स्वभाव’ है | शावक भेड़ों के संग रहते रहते एक प्रकार से भेड़ बनकर ही रह गया था जबकि वह भेड़ न होकर सिंह था | उसका सिंह होना भेड़ की छाया तले दबकर रह गया था | इसी प्रकार संसार का संग हमारे स्वरुप को ढक लेता है | हम संसार के प्रभाव में आकर अपना एक अलग ही व्यक्तित्व गढ़ लेते हैं | हमारे व्यक्तित्व के अनुरूप ही हमारा स्वभाव बन जाता है | स्वरुप मूल तत्व है जबकि स्वभाव व्यक्तित्व | इस प्रकार व्यक्तित्व के तले हमारा स्वरुप दब कर रह गया है | हमें व्यक्तित्व के खोल से बाहर निकलना है जिससे वास्तविक स्वरुप प्रकट हो सके | हमें स्वभाव को इस प्रकार परिवर्तित करना है कि जीवन से समस्त अवांछित हट जाये और केवल स्वरुप ही शेष रह जाये |

              स्व को परम होना नहीं है बल्कि यह स्व ही परम है, इस बात को पुनः स्मृति में लाना है | इसके लिए कुछ करना नहीं है बल्कि जो कुछ कर रहे हैं अथवा कुछ बनने का प्रयास कर रहे हैं, उनका त्याग करना है | यह ठीक उसी प्रकार से है जैसे मूर्तिकार मूर्ति को पत्थर से उसके अवांछित भाग को हटाकर निकाल लेता है | देखने में तो आता है कि मूर्तिकार मूर्ति को गढ़ता है परन्तु यह सत्य नहीं है | वह केवल पत्थर के अवांछित भाग को हटाता है और मूर्ति स्वतः ही प्रकट हो जाती है | मूर्ति प्रत्येक पत्थर में पहले से ही विद्यमान है उसी प्रकार स्व में परम भी पहले से ही है केवल जिस अवांछित को हमने ओढ़ रखा है, केवल उस भाग को हमें हटाना है | इसलिए हमें कुछ भी बनना नहीं है बल्कि जो बने हुए हैं उसमें से अवांछित का त्याग करना है | फिर हम जो होंगे वही हमारा वास्तविक स्वरुप होगा |

             हमारे स्वभाव में ही 'स्व' छिपा है फिर भी हम उसे पहिचान नहीं पा रहे हैं | स्वभाव में जो ‘भाव’ अंश है, वह एक मात्र कारण है उसका, जोकि हम बने बैठे हैं | हमारा स्वभाव ही हमें स्वरूप का ज्ञान नहीं होने देता क्योंकि अपने स्वभाव को परिवर्तित करते हुए स्वयं जैसा बनना चाहते हैं, उसी ओर की यात्रा हम प्रारम्भ कर देते हैं और अपने स्वरुप से दूर होते चले जाते हैं | जीवन में कुछ न कुछ बनना ही हमारे बिगड़ने का कारण बनता है और हम अपने वास्तविक स्वरुप से धीरे-धीरे दूर होते चले जाते हैं | स्वरूप को जानने के लिए कुछ बनने की आवश्यकता नहीं है बल्कि जो हम बने हुए हैं उससे अलग हो जाने की आवश्यकता है | बनने का प्रयास हमारे स्वभाव को बिगाड़ देता है जबकि अपने मूल स्वभाव के अनुसार जीना ही हमें स्वरुप को जानने की ओर ले जा सकता है |

         गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि “स्वभावोSध्यात्ममुच्यते” अर्थात स्वभाव को ही अध्यात्म कहा जाता हैं | अध्यात्म नाम है, स्वयं को जानने का अर्थात अपने स्वरुप तक पहुँचना | इससे स्पष्ट है कि स्वरुप तक पहुँचने के लिए हमें सर्वप्रथम अपने मूल स्वभाव को जानना होगा और फिर स्वभाव से स्वरुप तक कैसे पहुँच सकते है, इस बात का ज्ञान करना होगा | प्रत्येक मनुष्य एक निश्चित स्वभाव लेकर पैदा होता है और उस स्वभाव के अनुसार अपना जीवन प्रारम्भ करता है | फिर कहाँ गड़बड़ हो जाती है कि वह स्वरुप तक नहीं पहुँच पाता और मनुष्य जीवन व्यर्थ गंवाते हुए 84 में भटकता रहता है ?

         गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-

       यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |

         तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ||8/6||

   हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उसी भाव को ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदैव उसी भाव से भावित रहा है |

           भाव दो प्रकार के होते हैं – स्वभाव तथा परमभाव | स्वभाव का अर्थ है, मनुष्य जो वर्तमान में है वह अपने वैचारिक भाव के अनुसार है अर्थात उसने अपने स्वयं के होने की जो कल्पना की थी वह उसी भाव के अनुसार वर्तमान में है | परमभाव का अर्थ है, वास्तविक स्वरुप, जोकि सच्चिदानंद है अर्थात परमब्रह्म परमात्मा | यहाँ मनुष्य के स्वभाव में भाव का अर्थ है, मनुष्य का अस्तित्व (Existence) यानि उसकी प्रकृति | भाव अर्थात जैसा व्यक्ति बनना/होना चाहता है | इस भाव के अनुसार ही नए मानव जीवन में उसका स्वभाव बनता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य जन्म के साथ ही अपना स्वभाव इस संसार में लेकर आता है | अतः सर्वप्रथम हमें यह जानना आवश्यक है कि हमारा स्वभाव बनता कैसे है ? हमारे कर्म, आचरण, कामना, विचार आदि ही हमारा स्वभाव बनाते हैं और फिर यही स्वभाव हमारे द्वारा भविष्य में किये जाने वाले कर्म निश्चित करता है | कहने का अर्थ है कि नए जीवन में मनुष्य पूर्व जन्म से मिले स्वभाव के अनुसार कर्म करना प्रारम्भ करता है | कर्मों के प्रति आसक्ति उसे फिर नए कर्म करने को प्रेरित करती है | नए कर्म उस जीवन में परिपक्व होकर फल दे दे तब तो ठीक है अन्यथा यही कर्म संचित होकर नए जीवन में मनुष्य के स्वाभावानुसार परिपक्व होते हैं और फल देते हैं | कर्मों के प्रति उसकी आसक्ति अथवा विरक्ति वर्तमान जीवन में उसके संस्कार बनाती है | जब समय आने पर मनुष्य देह छूटती है तब उन्हीं संस्कारों के अनुसार उसका कारण शरीर बनता है |

          कारण शरीर के अनुसार उसका पुनर्जन्म होता है और इस प्रकार पूर्व जीवन का  संस्कार ही नए जीवन में उसका स्वभाव बन जाता है | बनते बिगड़ते संस्कार जन्म दर जन्म उसका स्वभाव बनाते और बिगाड़ते रहते हैं | प्रत्येक मनुष्य जीवन में उसको अवसर मिलता है कि वह अपने मूल स्वभाव को पहिचान कर उसके अनुसार जीवन जीते हुए स्वरूप तक पहुँच जाए परन्तु वह स्वाभाविक जीवन जीना छोड़ कृत्रिम जीवन जीना प्रारम्भ कर देता है और इस प्रकार यह कृत्रिम जीवन उसे स्वरूप तक नहीं पहुँचने देता | कृत्रिम जीवन ऊसका स्वभाव परिवर्तित तो कर सकता है परन्तु उसे स्वरुप तक पहुँचने में कोई सहायता नहीं कर सकता | स्वभाव आपको आवागमन से मुक्त तभी होने देता है जब आप अपने भाव अर्थात अपनी प्रकृति को परमात्मा की ओर लगा दें |

            मनुष्य जीवन भर या तो किसी के प्रभाव में जीता है अथवा किसी के अभाव में | प्रभाव और अभाव उसे अपने मूल स्वभाव के अनुसार जीने नहीं देते | जब तक वह अपने स्वभाव में नहीं जीएगा तब तक उसे ‘स्व’ का ज्ञान नहीं हो सकेगा | मनुष्य के जीवन में प्रभाव और अभाव होता है सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तिओं का | संसार, अभाव का ही दूसरा नाम है, यहाँ अभाव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इस प्रकार अभाव और प्रभाव से मनुष्य जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता, ऐसे में भला उसको अपने स्वाभावानुसार जीवन जीने का अवसर ही कब और कैसे मिल सकता है ? वह जीवन भर ‘स्वरूप’ को स्वयं से बाहर ही खोजने में लगा रहेगा, उसे वास्तव में पता ही नहीं चल पायेगा कि ‘स्व’ की उपस्थिति तो उसके स्वभाव के भीतर पहले से ही है | इसलिए प्रत्येक अभाव व प्रभाव से बाहर निकलकर स्वभाव में जीना ही स्वरुप तक ले जा सकता है, अन्य कोई साधन स्वरुप तक पहुँचने का नहीं है |

         स्वभाव और स्वरुप में क्या अंतर है ? ठीक है, स्वभाव स्वरूप को प्रकट नहीं होने देता परन्तु प्रकट क्यों नहीं होने देता ? दोनों में अंतर नाम मात्र का है | स्वरूप पर प्रकृति के गुणों का आवरण जब चढ़ जाता है तब वह स्वभाव बनकर स्वरुप को प्रकट नहीं होने देता | चलिए ! इसी बात को जानने का प्रयास करते हैं |

              शरीर प्रकृति की देन है, इस कारण से शरीर में प्रकृति के तीनों गुण उपस्थित रहते हैं | शरीर में प्रकृति अपने तीनों गुण डालती है क्योंकि कोई भी कर्म बिना गुण के संपन्न नहीं हो सकता | गुणों के कारण ही मनुष्य अपने जीवन में कर्म करना प्रारम्भ करता है | शरीर में ये तीन गुण रहते कहाँ है ? मुख्य रूप से ये गुण स्वभाव के अनुरूप और उसी के साथ शरीर में रहते हैं | स्वभाव परिवर्तन के साथ गुणों की प्रधानता भी परिवर्तित होती रहती है | नए जीवन में शरीर के साथ स्वभाव आया है और स्वभाव के लिए साथ में गुण भी आवश्यक हैं | इसीलिए मनुष्य के स्वभाव को उसकी प्रकृति भी कहा जाता है | स्वभाव के कारण शरीर में उपस्थित गुण ही मनुष्य का आचरण निश्चित करते हैं | अगर पूर्वजन्म के अनुसार इस जन्म में स्वभाव अच्छा मिला है तो सत्व गुण की प्रधानता शरीर में रहेगी और उसी के अनुसार व्यक्ति का आचरण होगा |

       स्वभाव ही मनुष्य के गुण निर्धारित करता है और उसी के अनुसार मनुष्य को नए जन्म में परिवार मिलता है | प्रत्येक परिवार का एक वर्ण होता है | वर्ण चार प्रकार के होते हैं | ये चार वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र | भगवान् गीता में इन चारों वर्णों को सृजित करने के बारे में कहते हैं - “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | ||गीता-4/13||” अर्थात मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के अनुसार चारों वर्णों की रचना की गयी है | जिस वर्ण वाले परिवार में मनुष्य जन्म लेता है, उसका स्वभाव भी उसी वर्ण के अनुसार होता है | जिस व्यक्ति को अपने स्वभाव के अनुसार जो वर्ण मिला है उस व्यक्ति का उसी वर्ण का धर्म, स्व-धर्म भी होता है और उसे अपने जीवन में उसी धर्म के अनुसार आचरण करना चाहिए | इसी बात को भगवान् 18 वें अध्याय में स्पष्ट करते हैं-

     ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप |

   कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवेर्गुणैः ||गीता-18/41||

अर्थात हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गए हैं |

       इस प्रकार स्पष्ट है कि मनुष्य का वर्ण स्वाभावानुसार ही निश्चित होता है और उसे अपने जीवन में उसी स्वभाव के अनुसार कर्म करने चाहिए | यही उस वर्ण का धर्म है | इसी धर्म के अनुसार कर्म करने से वह ‘स्व’ को जानने के निकट पहुँच सकता है इसीलिए इसे स्व-धर्म कहा जाता है | स्व-धर्म के अनुसार स्व-कर्म होते हैं और अंततः स्व-कर्म ही मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरूप तक ले जाते हैं |-

            गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं-

       श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |

     स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ||गीता-18/47||

अर्थात अच्छी तरह अनुष्ठान किये हुए परधर्म से गुण रहित स्वधर्म श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्व-धर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता |

            हमने पूर्वजन्म में जैसे फल की कामना की थी उसी अनुसार कर्म भी किये थे | दुर्भाग्यवश वे कर्म उस जीवन में परिपक्व होकर फल नहीं दे पाए थे | वे कर्म ही संचित होकर संस्कार के रूप में पुनर्जन्म का कारण बने और उन्हीं के अनुसार हमें नया मनुष्य जीवन मिला है | जिस भी वर्ण में हमें यह जन्म मिला है, उसकी कामना हमने अपने पूर्व मानव जीवन में की थी | अतः आवश्यक है कि हम इस जीवन में अपने वर्ण के धर्म के अनुसार कर्म करें और अपने प्रारब्ध का फल भोगें | स्व-धर्म के अनुसार कर्म करने से ही हम अपने प्रारब्ध से मुक्त होकर स्वरुप तक पहुँच सकेंगे | अगर हम पर-धर्म के अनुसार कर्म करने लगेंगे तो हमारा प्रारब्ध कभी भी समाप्त नहीं हो सकेगा और हम स्वरुप तक भी नहीं पहुँच सकेंगे | पर-धर्म के अनुसार कर्म करने वाला पाप को प्राप्त होता है, ऐसा कहने का अर्थ है कि फिर हम आवागमन से कभी भी मुक्त नहीं हो सकेंगे |

        वर्ण व्यवस्था के अनुसार एक वर्ण में स्थित व्यक्ति को दूसरा वर्ण अधिक गुणों वाला और उच्च प्रतीत होता है और अपना वर्ण कम गुणों वाला और निम्न | ऐसा समझकर व्यक्ति दूसरे वर्ण के कर्म करने लग जाता है | ऐसा करना उसके लिए किसी भी प्रकार हितकर नहीं हो सकता | कौए को सदैव अपनी चाल के अनुसार ही चलना चाहिए | उसे कभी भी हंस की चाल चलने का प्रयास नहीं करना चाहिए | इस प्रकार पर-धर्म के अनुसार चलने वाला जीवन भर भय से मुक्त नहीं हो सकता | भयग्रस्त व्यक्ति सदैव ही अपने स्वरुप को जानने से कोसों दूर खड़ा रह जाता है |

             जिस प्रकार भगवान् ने वर्णों की रचना की है उसी प्रकार चार आश्रम भी उन्हीं के बनाये हुए हैं | चार आश्रम हैं- ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम | मनुष्य की आयु एक सौ वर्ष की मानी गयी है | इस आयु को समान रूप से चार भागों में विभाजित कर चार आश्रम बनाये गए हैं | जन्म से लेकर 25 वर्ष तक की आयु को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा गया है | 26 से 50 वर्ष तक की अवस्था गृहस्थ आश्रम की है | 51 से 75 वर्ष की उम्र वानप्रस्थ आश्रम कहलाती है और 75 वर्ष से अधिक की आयु संन्यास की अवस्था होती है | प्रत्येक आश्रम का अपना अपना धर्म होता है | मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आयु को देखकर अपना आश्रम निश्चित कर उसके धर्म के अनुसार ही आचरण और कर्म करे |

      श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कंध के 17 वें अध्याय में भगवान् ने वर्णाश्रम-धर्म का निरूपण किया है | वर्ण और आश्रम व्यवस्था की उत्पत्ति को स्पष्ट करते हुए भगवान् कहते हैं-

     विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरुपादजा:|

  वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणा: ||

   गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम |

वक्षः स्थानाद् वने वासो न्यासः शीर्षणि संस्थितः ||भागवत-11/17/13-14||

           भगवान्, उद्धवजी को कह रहे हैं कि विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है | वह विराट् पुरुष मैं ही हूँ | मेरे उदर स्थल से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्मचर्याश्रम, वक्षःस्थल से वानप्रस्थाश्रम और मस्तक से संन्यासाश्रम की उत्पत्ति हुई है |

     इसी अध्याय में आगे भगवान् ने प्रत्येक वर्ण और आश्रम के धर्म विस्तार से बताएं हैं | आधुनिक युग में कोई भी व्यक्ति अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार धर्म का आचरण करते हुए कर्म नहीं कर रहा है | यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वरुप को जानने से वंचित है | इसी युग में संत रैदास हुए हैं जोकि मीरां बाई के गुरु थे | उन्होंने अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार धर्म निभाया और स्वरुप को उपलब्ध हुए | तभी तो कहा जाता है – “मन चंगा तो कठौती में गंगा” | स्व-धर्म के अनुसार कर्म करते हुए उन्होंने चमड़े को भिगोने वाली कठौती में भी मां गंगा को आने को विवश कर दिया था | यह है स्वभाव के अनुसार धर्म पर चलते हुए कर्म करते रहने का परिणाम | 

         इतने विवेचन से स्पष्ट है कि स्व-धर्म के अनुसार कर्म न करके पर-धर्म के अनुसार कर्म करने वाला सदैव भय-ग्रस्त रहता है क्योंकि ऐसा करना उसके स्वभाव के एकदम विपरीत है | भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-   

     श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |

     स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ||गीता-3/35||

      अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है | अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण करता है जबकि दूसरों का धर्म भय को देने वाला है | 

         प्रत्येक प्राणी का स्वभाव अलग अलग होता है | अपने स्वभाव के अनुसार ही प्रत्येक प्राणी कर्म करता है | मनुष्य को यह स्वतंत्रता है कि वह अपने स्वभाव अनुसार निर्धारित किये गए कर्मों के अतिरिक्त भी कर्म कर सकता है, अन्य जीवों को ऐसी स्वतंत्रता नहीं है | मनुष्य अपने स्वभाव को नए कर्म करके परिवर्तित भी कर सकता है | स्वभाव में यह परिवर्तन आपके उत्थान का कारण बन सकता है और पतन का कारण भी | साथ ही यह भी सत्य है कि स्वाभाविक कर्म को न करना लगभग असंभव है क्योंकि स्वभावानुसार कर्म करके ही पूर्व जन्म के संचित कर्म को परिपक्व किया जा सकता है अन्यथा नहीं |

       भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि –

 स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |

 कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोSपि तत् || गीता-18/60||

    अर्थात हे कुन्तीनन्दन ! अपने स्वभावजन्य कर्म से बंधा हुआ तू मोह के कारण जिस युद्ध को नहीं करना चाहता, उसको तू (क्षात्र-प्रकृति के) परवश होकर करेगा |

       अर्जुन को कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में युद्ध प्रारम्भ होने से पहले मोह हो गया था और वह युद्ध नहीं करना चाहता था | तब भगवान् ने कहा कि तू कितना ही चाह ले कि युद्ध नहीं करूँगा परन्तु तेरी प्रकृति जोकि तेरा स्वभाव ही है तुझे युद्ध करने को विवश कर देगा |

             गीता में भगवान् स्पष्ट कर देते हैं कि प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के परवश होकर ही कर्म करता है अर्थात प्रत्येक मनुष्य कर्म करने को विवश है | मनुष्य को अपने पूर्वजन्म से मिले स्वभाव के कारण कर्म करना, उसके लिए संचित कर्म को परिपक्व करने के लिए आवश्यक है | जब तक संचित कर्मों का प्रभाव समाप्त नहीं हो जाता तब तक प्रकृति के गुणों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता | यह अवस्था गुणातीत अवस्था कहलाती है | गुणातीत हो जाने पर ही स्वरूप प्रकट होता है | गुणों के आवरण के कारण ही तो स्वरुप, स्वभाव बन जाता है | स्वभाव ही हमारा धर्म निश्चित करता है और इसी धर्म का जीवन में पालन करना आवश्यक है |

   स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि |

   धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोSन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ||2/31||

अर्थात अपने क्षात्र धर्म को देखकर भी विचलित नहीं होना चाहिए; क्योंकि धर्ममय युद्ध से बढकर एक क्षत्रिय के लिए दूसरा कोई कल्याणकारी कर्म नहीं है |

                    स्वाभानुसार कर्म न करना जीवन में पतन का कारण बनता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य का स्वभाव ही उसका धर्म निश्चित करता है और जो मनुष्य इस धर्म के अनुसार कर्म करता है वह धर्म उसका स्व-धर्म कहलाता है | स्व-धर्म ही आपको स्वरुप तक ले जा सकता है | जो व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करने से दूर भागता है वह बार बार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है क्योंकि उसने अपने संचित कर्मों का फल प्राप्त कर उनको नष्ट नहीं किया है |

        जो कर्म हम अपने जीवन में ‘स्व’ को जानने की इच्छा से करते हैं वे स्व-कर्म कहलाते हैं और जो कर्म हम अपने स्वभावानुसार करते हैं वे कर्म स्व-धर्म कहलाते हैं | हमें कर्म स्व-धर्म के अनुसार करने हैं जिससे परमात्मा की कृपा से मिले इस एक मनुष्य जीवन में ही हम अपने स्वरुप को प्राप्त कर लेने की अवस्था तक पहंच जाएँ |  

   गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-

       स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः |

      स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ||18/45||

      अर्थात अपने अपने कर्म में प्रीतिपूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक सिद्धि को प्राप्त कर लेता है | अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है, उसको तू मुझसे सुन |

       भगवान् ने गीता में कह दिया है कि अपने अपने कर्म में प्रीतिपूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक सिद्धि अर्थात स्वरुप तक पहुँच जाता है | कैसे पहुँच जाता है, उसको स्पष्ट करते हुए भगवान् कहते हैं कि –

           यतः प्रवृतिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |

    स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ||18/46||

अर्थात जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की प्रवृति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है |

            परमात्मा का पूजन अपने कर्म (स्व-कर्म) के द्वारा करें | कौन से परमात्मा का पूजन ? उस परमात्मा का जिसने यह संसार रचा है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है अर्थात वासुदेवः सर्वम् | इसका अर्थ यह है कि जो भी प्राणी आपकी दृष्टि में आता है उसको परमात्मा मानकर उसका पूजन करें अर्थात नि:स्वार्थ भाव से प्रत्येक प्राणी की सेवा करें | नि:स्वार्थ भाव से सेवा कर्म करना ही स्व-कर्म है और परमात्मा का पूजन भी | अपने स्वार्थ से किये जाने वाले कर्म आप करते अवश्य हैं परन्तु वे कर्म आपको अपने स्वरुप तक न ले जाकर 84 लाख योनियों में भटकने की ओर धकेल ले जाते हैं | ऐसे कर्म स्व-कर्म नहीं हो सकते क्योंकि ये स्व-धर्म के अनुसार नहीं किये जा रहे हैं | ऐसे समस्त कर्म त्याज्य हैं |

         निःस्वार्थ भाव से किये जाने वाले कर्म में भी अगर आसक्ति हो गयी तो फिर वे भी आपको अपने स्वरुप से दूर कर देंगे | देखा जाये तो कर्म में भाव मुख्य है | स्वार्थ भाव पतन की ओर ले जाता है और निःस्वार्थ भाव स्वरुप तक | इसलिए निःस्वार्थ भाव से किये जाने वाले कर्म ही स्व-कर्म है, जिनको करते हुए मनुष्य सम्यक सिद्धि अर्थात अपने स्वरुप को प्राप्त कर लेता है |

           भगवान् का पूजन हम जब निःस्वार्थ भाव से कर्म करते हुए करते हैं तब हम परमात्मा के अति निकट होते हैं | परमात्मा सच्चिदानंद स्वरुप हैं और हमारा स्वरुप भी चिदानंद है | प्रत्येक प्राणी में परमात्मा का दर्शन करते हुए उसकी सेवा में लगे रहना ही स्व-कर्म है और निःस्वार्थ भाव से किये जाने वाला प्रत्येक कर्म हमें अपने स्वरुप तक पहुँचने में सहायक होता है |

         यहाँ आकर प्रश्न उठता है कि निःस्वार्थ सेवा स्व-कर्म है और स्व-धर्म भी व्यक्ति का कर्तव्य कर्म है तो फिर स्व-धर्म में और स्व-कर्म में क्या अंतर है ? नाम मात्र का अंतर है, दोनों में | स्व-धर्म विशाल शब्द है जोकि अपने भीतर स्व-कर्म को समेटे हुए है | स्व-धर्म ही तब स्व-कर्म बन जाता है, जब उस कर्म में किसी प्रकार की आसक्ति और स्वार्थ नहीं होता | यह सत्य है कि स्वभाव मनुष्य का धर्म निश्चित करता है और उसका स्व-धर्म उसके कर्म निश्चित करता है | अतः आवश्यक है कि जीवन में मनुष्य स्व-धर्म के अनुसार कर्म करे और कर्मों के प्रति आसक्त न हो | आसक्ति और स्वार्थ रहित होकर स्व-धर्म के अनुसार किये जाने वाले कर्म ही स्व-कर्म है और हम स्व-कर्म करके प्रत्येक प्राणी को परमात्मा मानकर सेवा के माध्यम से उसका पूजन करते हैं | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि स्वभाव से सम्बंधित स्व-धर्म के अनुसार कर्म करते हुए स्वरुप तक पहुंचा जा सकता है |

         स्वभाव के अनुसार कर्म करते हुए मनुष्य को यह भ्रम हो जाता है कि ये कर्म परमात्मा करते हैं | नहीं, परमात्मा न तो कोई कर्म करते हैं, न ही आपको उन कर्मों का कोई फल देते हैं और न ही आपको कर्म करने को प्रेरित करते हैं | गीता में इस बात को स्पष्ट करते हुए भगवान् कहते हैं –

     न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः |

      न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते || गीता-5/14||

    अर्थात परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न ही कर्मफल के साथ संयोग की रचना करते हैं; केवल मनुष्य का स्वभाव ही सब कुछ कर रहा है |

         ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज इस श्लोक (गीता-5/14) की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि कर्तापन, कर्म और कर्मफल के साथ संयोग करना जीव का काम है, न कि परमात्मा का | अतः इन सब का त्याग भी जीव को करना है | जीव ही अज्ञानवश प्रकृति (स्वभाव) के साथ सम्बन्ध जोड़ कर कर्मों का कर्ता बनता है और कर्मफल के साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दु:खी होता रहता है |

       इससे स्पष्ट है कि जो कर्म हम अपने स्वभाव के अनुसार कर रहे हैं उन कर्मों का हमें कर्ता नहीं बनना है और न ही कर्मफल मिलने पर उस फल व कर्म में आसक्त होना है | स्वभाव को धर्म मानते हुए कर्म कर पूर्वजन्म के प्रारब्ध से मुक्त होकर स्वरुप तक पहुँचना ही हमें अपने जीवन का एक मात्र उद्देश्य रखना चाहिए |

        जैसा कि मैंने पूर्व में बताया है कि स्वभाव के अनुसार कर्म करने के लिए प्रकृति के तीन गुणों की उपस्थिति आवश्यक है | बिना गुणों के कर्म हो नहीं सकते | इसीलिए प्रत्येक मनुष्य के शरीर में प्रकृति के तीनों गुण उपस्थित होते हैं | स्वभाव से स्वरुप तक पहुँचने के लिए इन गुणों से परे चला जाना आवश्यक है | इस अवस्था को गुणातीत अवस्था कहा जाता है | गुणों से परे चले जाना कोई हंसी-खेल नहीं है | केवल मनुष्य नाम का यह जीव ही है जो गुणातीत होने का प्रयास कर सकता है, अन्य जीव तो इस योग्य भी नहीं है | गीता में भगवान् कहते हैं-

 त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |

 निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||2/45||

   वेद तीनों गुणों के कार्य का वर्णन करने वाले हैं | हे अर्जुन ! तू तीनों गुणों से रहित हो जा, राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित हो जा, निरंतर नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित हो जा, योगक्षेम की चाहना भी मत कर और परमात्म परायण हो जा |

        फिर योग-क्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) कैसे होगा ? भगवान् श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (9/22) अर्थात उनका योग-क्षेम मैं वहन करता हूँ | लगभग ऐसी ही बात भागवत में भी भगवान् कहते हैं –‘ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान् बिभर्म्यहम् | (10/46/4) अर्थात मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिए लौकिक और पारलौकिक धर्मों को छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं करता हूँ |

            तीनों गुणों से रहित होने से आशय है सकाम कर्म का त्याग कर केवल निष्काम कर्म करना | निष्काम भाव से कर्म करने वाला ही गुणातीत अवस्था को उपलब्ध हो सकता है | स्वभाव में छिपे ‘स्व’ को प्रकट करने के लिए ‘भाव’ को उससे अलग करना होगा | प्रायः सांसारिक ‘भाव’ ही हमें सकाम कर्म की ओर ले जा सकता है | संसार के विषय ही मनुष्य की कर्मों में आसक्ति का एक बड़ा कारण है | यह आसक्ति ही उसे सकाम कर्म करने को प्रेरित करती है | विषयों में आसक्ति मन में कामना पैदा करती है और फिर यही कामना व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के कर्म करने को प्रेरित करती है | सकाम भाव का त्याग कर देने से ही स्वरुप को जान लेना संभव है अन्यथा नहीं | केवल एक परमात्मा को ही अपना मानकर उसमें स्थित हो कर कर्म करते रहना ही स्वरुप तक पहुँचने के लिए पर्याप्त है | जब व्यक्ति निर्द्वंद्व अवस्था को उपलब्ध हो जाता है तब उसके मन में न तो कोई कामना रहती है और न ही उसकी किसी विषय में रुचि | इस अवस्था को उपलब्ध हुआ व्यक्ति अपने स्वभाव से गुणों को मुक्त कर देता है और ‘स्व’ को जानते हुए स्वरुप तक पहुँच जाता है |

         स्वभाव से स्वरुप तक पहुंचना कर्म-योग है | गीता में स्वभाव को ही अध्यात्म कहा गया है | जीवन में अगर हम स्वभाव का विज्ञान समझ लें तो धर्म और कर्म का विज्ञान भी समझ में आ जायेगा | ‘स्वभाव को ही अध्यात्म कहते है’, ऐसा कहने का अर्थ है कि जीव का वास्तविक स्वरुप भी उसका स्वभाव ही है | जैसे प्रत्येक पत्थर में भगवान् है | जिस कारण से यह मनुष्य शरीर मिला है और जिस प्रकृति (स्वभाव) को हम उपलब्ध हुए हैं उसमें से अवांछित भाग का त्याग करना है | ऐसा करने से ‘स्व’ स्वतः ही प्रकट हो जायेगा | जैसे पत्थर के अवांछित भाग को हटाकर भगवान् की मूर्ति निकाल ली जाती है | स्वभाव में अवांछित भाग है, हमारा कर्मों के प्रति आसक्त होना, हमारा कर्ता भाव, कर्मफल की कामना,राग-द्वेष जैसे विकार इत्यादि | ऐसा सब स्वभाव के साथ आए प्रकृति के तीन गुणों के कारण होता है | अपने स्वभाव के अनुसार जीवन जीना और इन अवांछित तत्वों को त्याग कर गुणों से अतीत हो जाना स्वयं के स्वरुप को जान लेना है |

         गीता का तानाबाना स्व-धर्म/स्व-कर्म के चारों ओर बुना गया है | इसी कारण से गीता को कर्म-योग का ग्रन्थ कहा जाता है | जहां प्रथम अध्याय में अर्जुन धर्म को लेकर भ्रमित प्रतीत होता है, उसके उसी भ्रम को केंद्र में रखते हुए भगवान् श्री कृष्ण उसका मोह विभिन्न प्रकार से दूर करने का प्रयास करते हैं | उसमें एक मार्ग कर्म-योग का भी है, जिसको भगवान् ने गीता में विस्तार से स्पष्ट भी किया है | अर्जुन क्षत्रिय था क्योंकि  क्षत्रिय वर्ण में पैदा होने के कारण उसका क्षत्रिय स्वभाव ही था | जन्म-जात स्वभाव के अनुसार ही धर्म को अपनाकर उसे कर्म करने चाहिए थे | वह अपने सगे-सम्बन्धियों को युद्धभूमि में आपस में मरते-मारते हुए देखना नहीं चाहता था | यह सोचकर वह स्व-धर्म तथा स्व-कर्म से विमुख होने जा रहा था |

         श्री कृष्ण ने उसके क्षत्रिय स्वभाव को पुनः स्मृति में लाने का प्रयास किया परन्तु वह मोहवश वास्तविक ज्ञान को समझ नहीं पा रहा था | अंततः भगवान् को कहना ही पड़ा-

   सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |

   अहं तव सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः || गीता-18|66||

     तू सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जा | मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा |

       भगवान् श्री कृष्ण ने कह तो दिया कि सभी धर्मों को छोड़कर एक मेरी शरण में आ जा, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, तो क्या महाभारत का युद्ध भगवान् ने लड़ा था ? नहीं, भगवान् कोई कर्म न तो करते हैं और न ही किसी कर्म में लिप्त होते हैं | युद्ध तो अर्जुन ने ही लड़ा था और वह भी अपने स्वभाव के अनुसार, उस युद्ध को स्व-धर्म मानते हुए | उसका स्वभाव उसे युद्ध करने को विवश कर देता परन्तु युद्ध में वह अपने सगे-सम्बन्धियों का हत्यारा बनकर पाप का भागी नहीं बनना चाहता था | यह उसका केवल अज्ञान था | जीवन में स्वभाव के अनुसार मिले स्व-धर्म का पालन करना ही आवश्यक है | स्व-धर्म के पालन के लिए कर्म करने आवश्यक हैं परन्तु उन कर्मों का आश्रय न लेकर केवल परमात्मा का आश्रय लेकर कर्म करें तो फिर हम सभी प्रकार के पाप से मुक्त रहते हैं | भगवद-आश्रय में रहते हुए मनुष्य निःस्वार्थ भाव और मनोयोग से कर्म करते हुए कर्म के साथ बंधता नहीं है और ‘न बंधा हुआ’ मनुष्य सदैव मुक्त ही है |

           स्वभाव से स्वरूप तक पहुँचने के लिए स्व-धर्म का पालन करते हुए कर्म करने आवश्यक है | स्व-धर्म को स्मृति में बनाये रखना आवश्यक है अन्यथा हमारी भी वही स्थिति हो जाएगी जैसी युद्धभूमि में अर्जुन की हुई थी | अर्जुन को तो श्री कृष्ण जैसे गुरु का सत्संग मिल गया था | इसलिए हमें भी जीवन में सत्संग लेते रहना चाहिए | सत्संग के साथ स्वाध्याय (शास्त्रों का अध्ययन) भी आपकी स्मृति को बनाये रखने में सहायक होता है | परमात्मा का नित्य स्मरण करते हुए निःस्वार्थ भाव से कर्म (सेवा) करते रहें, स्वरुप से दूर नहीं होंगे | भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा भी है-

     अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |

     यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||8/5||

    जो मनुष्य अन्तकाल में भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर त्यागता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है |

       अन्तकाल अभी और इसी समय है क्योंकि हमारे शरीर की कोशिकाएं प्रतिपल मर रही है और इसी प्रकार यह शरीर भी एक दिन अचानक मर जायेगा | परिवार वाले प्रतीक्षा करते रह जायेंगे और यह हंस अकेला ही उड़ जायेगा | अतः परमात्मा का स्मरण प्रत्येक क्षण करते रहें | सत्संग, स्वाध्याय, सुमिरन और सेवा में समस्त योग आ जाते है | इसलिए स्वभाव में ‘स्व’ के साथ मिले ‘भाव’ को परिमार्जित करते हुए उसका लोप कर दें | ‘भाव’ मन के भीतर रहता है, मन को परमात्मा में मिला देने से सांसारिक ‘भाव’ का स्वतः ही लोप हो जाता है | साथ ही परमात्मा का स्मरण करते हुए स्व-धर्म के अनुसार कर्म करते रहें आप तत्काल ही स्वरुप को प्राप्त कर लेंगे ।

           कर्म से शरणागति की ओर जाना स्वभाव से स्वरुप तक की यात्रा है | आप चाहे कर्म-योग को उचित मानें अथवा ज्ञान-योग को श्रेष्ठ मानें, स्वरुप का ज्ञान आपको भक्ति की सर्वोच्च अवस्था शरणागति को प्राप्त करने से सहज ही हो जाता है | हम मनुष्य हैं | हम न जाने कितनी योनियों में भ्रमण करते हुए मनुष्य की अवस्था को प्राप्त हुए हैं | यह भी निश्चित है कि हम अपना एक स्वभाव लेकर इस संसार में आये हैं | मनुष्य जीवन हमारे लिए एक सुअवसर है, जिसमें हम स्वभाव के अनुसार स्व-धर्म का पालन करते हुए स्वरुप तक पहुँच सकते है | इसके लिए हमें पूर्व मानव जीवन के कर्मों का फल भोगते हुए नए कर्मों और कामनाओं का और बोझ नहीं ढोना है | यह अवांछनीय बोझ ही हमें नए जन्मों की ओर धकेल देता है | इसलिए आवश्यक है कि स्व-धर्म का पालन करते हुए भगवद-आश्रय में रहते हुए कर्म कर स्वरुप तक पहुँच जाएँ | तभी इस मनुष्य जीवन की सार्थकता है।    

सार संक्षेप-

           स्वभाव से स्वरुप तक पहुँचने के लिए आवश्यक है कि स्वयं के भाव में परिवर्तन किया जाये | भाव क्या है ? भाव आपके विचार हैं जो स्पष्ट करते हैं कि आप जो है उससे अलग होकर कुछ नया होना चाहते हैं ? स्व के साथ इस भाव के जुड़ जाने से आपका स्वभाव बनता है | उसी स्वभाव के अनुसार जीवन में व्यक्ति का आचरण होता है | सांसारिक भाव के कारण व्यक्ति के अभिव्यक्त होने के विविध प्रकार के आयाम हो जाते है | सांसारिक अभिव्यक्ति आपको अपने स्वरुप से दूर ले जाती है | जो नाटकीयता आप अपने जीवन में वास्तविक रुप पर ओढ़ लेते हैं वह आपको अपने स्वरूप से दूर कर देती है |

         सांसारिक जीवन की विषमता से थककर जब आपका स्वभाव अपने स्वरूप को जानने को उत्सुक होता है तब वह परिवर्तित होकर नाटकीयता से दूर कर देता है और व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है | सांसारिक विषमता को जानना और उससे दूर होजाना सर्वप्रथम आपके स्वभाव को परिवर्तित करता है और यह परिवर्तित स्वभाव आपको स्वरूप तक ले जाता है |

        आपका स्वभाव क्षर है, आपका स्वरूप अक्षर है और जो स्वरूप से भी परे है वह स्व है अर्थात परमात्मा | स्वभाव मनुष्य अपने जन्म के साथ ले कर आता है | फिर उसी स्वभाव के अनुसार अगर वह जीवन में स्व-धर्म निभाता रहे तो पूर्व जन्म के सभी संस्कार मिट जाते हैं और व्यक्ति स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है | इसके लिए आवश्यक है कि इस जन्म में स्वयं के भाव को सांसारिक गतिशीलता के अनुसार न बदलें बल्कि आत्मबोध के लिए परिवर्तित कर दें | फिर स्वरूप से स्व तक पहुँचाना सुगम हो जाता है |

         स्वधर्म और स्वकर्म से स्वरूप और अंततः स्व को जान लेना ही आध्यात्मिक यात्रा की सफलता है और मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी | मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम अपने शरीर के रहते स्व तक पहुँच जाएँ |

प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

 


 


 


Friday, October 8, 2021

जीवन-सूत्र-भाग-3

       सत्य क्या है ? सत्य को विविध प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है | अष्टावक्र महाराज द्वारा कहे गए इस श्लोक (अ.गीता-1/2) के अनुसार सत्य से अर्थ है कि विषयों को भोगने से जिस सुख की अनुभूति आपको होती है वह सही मायने में सुख न होकर छद्म सुख है | वास्तविक सुख तो विषयों से दूर रहने में है | सत्य से दूर ले जाती है, विषयों के प्रति आसक्ति | हमें विषयों से क्षणिक सुख मिलता है | विषयों से दूर रहने से आशय है - विषयों में आसक्ति न रखना | इन्द्रियों द्वारा विषयों का अनुभव होना सत्य है परन्तु विषयों से सुख मिलेगा ही, यह हमारा भ्रम है | सत्य और भ्रम में अंतर यही है कि आप विषयों के प्रति अनासक्त रहेंगे तो वह सत्य है और उनमें आसक्त हो जायेंगे तो यह भ्रम है |

          सत्य की ओर अग्रसर होने से आपके जीवन में मुक्ति का रास्ता खुल जाता है | सत्ता केवल एक ही होती है और वह है सत्य की सत्ता | सत्य भी केवल एक होता है, अनेक नहीं | दूसरी बात, माया चाहे कितनी ही प्रबल हो सत्य को कभी पराजित नहीं कर सकती | मूल बात तक पहुँचने के लिए आइये ! भागवतजी का एक श्लोक लेते हैं -   

  एवं सृष्टानि भूतानि प्रविष्टः पञ्चधातुभि |

  एकधा दशधाSSत्मानं विभजञ्जुषते गुणान् || भागवत-11/3/4||

      पञ्च भूतों से बने प्राणी के शरीर में परमात्मा ने अंतर्यामी रूप से प्रवेश किया और स्वयं को ही पहले मन के रूप में और फिर दस इन्द्रियों के रूप में विभक्त किया और उन्हीं के द्वारा जीव को विषयों का भोग कराने लगे |

        यह श्लोक कहता है कि सब कुछ और सर्वत्र केवल एक परमात्मा ही है | यही वास्तविकता है संसार की, परन्तु हम इस सत्य से विमुख हो चुके हैं | सत्य एक ही है- परमात्मा, जो हमारे भीतर ही नहीं प्रत्येक प्राणी के भीतर अंतर्यामी के रूप में उपस्थित हैं | यही परमात्मा पांच भौतिक तत्व भी बने हुए है जिससे यह शरीर बना है | इन्द्रियाँ भी इनके प्रकाश से प्रकाशित होती हैं जिनसे हमें विषय भोग प्राप्त होते हैं | इन्द्रियों के माध्यम से ही परमात्मा इन विषयों का हमें भोग करवाते हैं |

            हम केवल मिले हुए भोग का आनंद लेते रहें, उनमें आसक्त नहीं हों, वहां तक तो सब कुछ उचित है | परन्तु हम तो विषयों को ग्रहण कर उनके भोगों में आसक्त होकर और अधिक भोगों की कामना करने लग जाते हैं | कामना ही नहीं, हम इन कामनाओं को पूर्ण करने के लिए स्वयं कर्ता भी बन जाते हैं | इस प्रकार कर्ता भी हम बन गए और भोक्ता भी हम हो गए | अपने वास्तविक स्वरुप के अनुसार हम न तो कर्ता हैं और न ही कर्म में लिप्त होते है- ‘न करोति न लिप्यते’ (गीता-13/31) | भोगों की कामना कर्म कराती है और कर्म स्वयं के द्वारा किया जाना ‘करोति’ है और विषयों का संग करना भोगों में ‘लिप्यते’ अर्थात लिप्त हो जाना है | “न करोति न लिप्यते” ही हमारा वास्तविक स्वरुप है, फिर भी हम अपने द्वारा करना मानते हुए विभिन्न विषय-भोग प्राप्त करते हैं और उनमें लिप्त हो जाते हैं | यह हमारा भ्रम है, यह सत्य नहीं है | इस प्रकार स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि हम अपना वास्तविक स्वरुप विस्मृत कर बैठे हैं |

           हम “न करोति न लिप्यते” हैं फिर हम स्वयं के स्वरुप को क्यों भूल जाते हैं ? अंतर्यामी के रूप में हमारे शरीर में स्वयं परमात्मा हैं | गीता भी कहती है- ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देश्यSर्जुन तिष्ठति (18/61) | फिर भी हम सब स्वयं को शरीर मानते हैं और इस भ्रम से भ्रमित होकर संसार में विभिन्न शरीरों में भटक रहे हैं | शरीर के भीतर जो बैठा है, वह कभी बदलता नहीं है, प्रत्येक बार केवल शरीर ही बदलता है | जो हमारे भीतर बैठा है वही हमारा वास्तविक स्वरुप है | सत्य तो यह है कि हम अपने वास्तविक स्वरुप से परिचय करना चाहते ही नहीं हैं | हम शरीर को ही अपना स्वरुप समझते हैं | शरीर माया द्वारा ही निर्मित है और इस माया के कारण ही हम भ्रमित हो गए हैं | इस बात को स्पष्ट करते हुए भागवत कहती है -

    गुणैर्गुणान् स भुन्जान आत्मप्रद्योतितै: प्रभुः |

     मन्यमान इदं सृष्टमत्मानमिह सज्जते || भागवत-11/3/5||

                 वह देहाभिमानी जीव अंतर्यामी के द्वारा प्रकाशित इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भोग तो करता है परन्तु साथ ही इन पञ्च महाभूतों से निर्मित शरीर को आत्मा- अपना स्वरूप मानकर उसी में आसक्त हो जाता है | यही भगवान् की माया है |

          शरीर को अपना मानकर ‘न करोति न लिप्यते’ को भूल जाते हैं और माया के वशीभूत होकर विभिन्न योनियों में भ्रमण करते रहते हैं | इस शरीर से जब प्राण बाहर निकल जाते हैं, तब क्या इसमें स्थित ज्ञानेन्द्रियों से किसी विषय का ज्ञान हो सकता है ? क्या फिर इस शरीर की कर्मेन्द्रियों से कर्म किये जा सकते हैं ? क्या इस मृत शरीर से फिर विभिन्न विषय-भोग भोगे जा सकते हैं ? उत्तर मिलेगा – नहीं, नहीं और नहीं |

              इतना सब कुछ जानते हुए भी हम भ्रम में ही जी रहे हैं | क्यों सत्य की ओर जाने का प्रयास नहीं करते हैं ? सत्य का अनुभव जिस दिन हमें हो जायेगा, उस दिन से हमारे लिए इस संसार की अहमियत शून्य हो जाएगी | हम संसार में रहते हुए भी संसार से अलग (विमुख) हो जायेंगे | संसार के प्रति हमारा यह तटस्थ भाव हमें सत्य के दर्शन करा देगा |

      आज की शिक्षा रोज़गारोन्मुखी है | उस शिक्षा से हम अपना और परिवार का पेट तो भर सकते हैं परन्तु यह शिक्षा सत्य का ज्ञान नहीं करा सकती | हमारी विडंबना यह है कि उदरपूर्ति की शिक्षा को ही ज्ञान समझ बैठे हैं | शिक्षा हमें सांसारिक ज्ञान कराती है इसलिए यह अविद्या है | शिक्षा को ज्ञान मान लेने के कारण शास्त्रों में समाहित ज्ञान और गुरु से मिले ज्ञान को धारण करने में हमें असुविधा होती है |

            सत्य यह है कि परमात्मा और आत्मा एक ही है | शरीर में प्रवेश करते ही यह जीवात्मा कहलाती है | वैसे देखा जाये तो आत्मा; मन, प्राण और वाक् की समष्टि है और इनको क्रमशः प्रज्ञात्मा, प्राणात्मा और भूतात्मा कहा जाता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि इसे आत्मा के नाम से कहना भी अनुपयुक्त है | केवल एक परमात्मा ही सब कुछ और सर्वत्र व्याप्त हैं, ऐसा कहा जाना ही उचित जान पड़ता है |

    श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्री कृष्ण भी कहते हैं –

     बहुनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |

     वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || 7/19 ||

        बहुत जन्मों के अंतिम जन्म में अर्थात मनुष्य जीवन में “सब कुछ परमात्मा ही है” - इस प्रकार जानकर जो ज्ञानी मेरी शरण होता है, वैसा महात्मा मिलना अत्यंत दुर्लभ है |

           “वासुदेवः सर्वम्” का अर्थ है सब जगह एक परमात्मा ही है, कोई अन्य है ही नहीं | इस बात को जान और मान कर अनुभव कर लेना ही सत्य को जानना है | सैद्धान्तिक रूप से कहना और अनुभव करना दोनों अलग अलग हैं | गीता के प्रारम्भ में ही भगवान् ने कह दिया था – “नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः” (2/16) अर्थात असत की सत्ता नहीं है और सत का अभाव नहीं है | इसी बात को पुष्ट करता है – “वासुदेवः सर्वम्” कहना | कहने का अर्थ है कि सब जगह केवल एक परमात्मा की ही सत्ता है | सत्ता केवल एक की ही होती है, दो की नहीं |

         सृष्टि की रचना इसी एक से ही प्रारम्भ होती है | जहां जहां और जितना जितना इसका विस्तार होता है, सभी में और सब स्थानों पर इस एक की ही समान रूप से उपस्थिति रहती है | ब्रह्माण्ड में कौन सा स्थान है जहाँ इसकी उपस्थिति नहीं है | विज्ञान भी यही बात कहता है | दोनों में कहीं किसी प्रकार की मत भिन्नता नहीं है | एक के मन में कामना हुयी कि मैं एक से अनेक होना चाहता हूँ -”एकोSहं बहुस्याम्” | एक से अनेक होने के लिए माया का निर्माण उसी के भीतर हुआ है, अलग से उससे बाहर नहीं | ‘एकोSहं’ सूक्ष्म है जबकि ‘बहुस्याम्’ स्थूल | हम स्थूल में रहते हुए एक को कैसे जान सकेंगे ? इसके लिए हमें स्थूल से अलग होना होगा | यही कारण है कि ‘बहुस्याम्’ की अवस्था में रहते हुए ‘एकोSहं’ का अनुभव होना सहज नहीं है | एक असीम है, उसको ससीम होना है | ससीम होने के लिए माया का होना आवश्यक है | माया दो प्रकार की- विद्या और अविद्या | विद्या ब्रह्म है और अविद्या कर्म | विद्या सदैव एकरूप रहता है जबकि अविद्या प्रतिपल बदलता रहता है |      

       पुरुष अर्धेन्द्र है, पूर्णता के लिए उसे माया का साथ चाहिए | माया के संपर्क में आने से पूर्व, पुरुष की ऋत संज्ञा होती है | माया का साथ मिलते ही वह पूर्णत्व को प्राप्त होता है | ऋत को जो कि असीम है, माया उसे ससीम कर देती है | इस प्रकार हम क्षर सृष्टि के अंग बन गए हैं | स्थूल अवस्था तक आते-आते हम भूल जाते हैं कि हमारे भीतर सूक्ष्म और कारण शरीर भी है | कारण शरीर ही क्यों; उससे बढकर वह एक जो है, वह भी हमारे भीतर है | उसके भीतर होने के कारण ही हमारा मन सब ओर देखता है |

        स्थूल रूप से आँखें देखने के उपकरण मात्र है जबकि सूक्ष्म मन दृश्य को देखने वाला है | मन प्रकाशित होता है, उस एक परम पुरुष के कारण | यहाँ तक कि मन में उठ रही इच्छाएं तक भी उस एक के अधीन हैं | दुर्भाग्यवश हम इन सबका कारण स्थूल शरीर को ही मानने लगते हैं | साथ ही इस स्थूल शरीर को ही स्वयं का होना मानने लगे हैं | यहीं से हमारे जीवन में सुख-दुःख की यात्रा का प्रारम्भ होता है, मैं और मेरा की भावना का पदार्पण होता है | हमारी दृष्टि भीतर गहराई में उस केंद्र की ओर जाती ही नहीं है जहां वह अकेला बैठा होते हुए भी केंद्र से परिधि की ओर स्वयं ही विस्तारित हुआ है | परम पुरुष से पुरुष और माया बना और फिर स्थूल देह तक विस्तृत हुआ | अभी भी उस परम का विस्तार हो रहा है और तब तक होता रहेगा जब तक वापसी की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं हो जाती |       

गीता में भगवान् श्री कृष्ण कह रहे हैं –

      गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् |

      प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ||9/18||

       परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, साक्षी, सबका वास स्थान, सबका हितकारी, सबकी उत्पत्ति और प्रलय का कारण, स्थिति का आधार, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ |

               सोचिये ! अब उस एक के अतिरिक्त अन्य के लिए कहाँ और कौन सा स्थान रह गया है ? इस एक के कारण ही सबका अस्तित्व होना संभव हुआ है | हम तो भ्रमवश इस संसार में भटक रहे हैं, इस संसार का कारण स्वयं को अर्थात स्थूल को मानते हुए | प्रभु की माया ने हमें भ्रमित कर रखा है | जब तक हम ऋत (जिसकी कोई परिधि और केंद्र नहीं हो) थे तब तक आनंद में थे | जब से माया का साथ मिला है. भ्रमित हो गए हैं और इसी संसार में भटक रहे हैं | मनुष्य के द्वारा भ्रमित होना एक साधारण बात है परन्तु भ्रम को ही सत्य स्वीकार लेना उसका दुर्भाग्य है |

                 परमात्मा के द्वारा माया का प्रपंच रचा ही इसलिए गया है कि वह स्वयं को देख सके जैसे दर्पण में अपना चेहरा देखा जाता है | मनुष्य को भी इसलिए बनाया  गया है कि परमात्मा उसमें स्वयं को देख सके | मनुष्य भी दर्पण में बना उसी परमात्मा का प्रतिबिम्ब मात्र है | उस प्रतिबिम्ब (मनुष्य) की प्रत्येक गतिविधि उस मूल (परमात्मा) बिम्ब के हाथ में है | प्रतिबिम्ब स्वयं गति करना चाहता है,ऐसा चाहने से उसमें गति भी होती है परन्तु वह गति उस एक मूल के कारण होती है जो कि दर्पण के बाहर है और इधर प्रतिबिम्ब (मनुष्य) समझ बैठता है कि गति वह स्वयं कर रहा है | प्रतिबिम्ब को समझना होगा कि वह केवल उतना ही नहीं है जितना कि वह दर्पण में दिखलाई पड़ रहा है | जैसे ही दर्पण के सामने से मूल बिम्ब हटता है, प्रतिबिम्ब भी दर्पण से हट जाता है | इससे सिद्ध होता है कि दर्पण के भीतर न होकर दर्पण के बाहर है हमारा वास्तविक स्वरुप | हम दर्पण में दिखलाई पड़ने वाले प्रतिबिम्ब को ही अपना वास्तविक स्वरुप समझकर झूठे ही सुखी-दु:खी हो रहे हैं |

           मनुष्य जीवन की यही वास्तविकता है | दर्पण में बने प्रतिबिम्ब को मूल बिम्ब की दृष्टि से देखते हुए आनंद लें, प्रतिबिम्ब के संसार में उलझे नहीं | दर्पण से दूर हो जाओ और प्रतिबिम्ब को भूल जाओ, तभी आपको अपने वास्तविक स्वरुप के दर्शन होंगे | संसार ही वह दर्पण है | उत्तल दर्पण होगा तो उसमें हम छोटे से दिखलाई देंगे और अवतल होगा तो अपने आकार से बहुत ही बड़े | अगर दर्पण समतल हुआ तो दायाँ भाग बाँयां दिखलाई पड़ेगा और बाँयां भाग दाहिना | प्रतिबिम्ब कभी सत्य नहीं हो सकता क्योंकि दर्पण कभी भी सत्य दिखला ही नहीं सकता | ऐसा ही इस संसार के साथ है | संसार असीम को एक सीमा में बान्ध देता है।  हम असीम हैं | सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण आदि के प्रतिबिम्ब दर्पण की योग्यता के अनुसार (संसार के अनुसार) बनते बिगड़ते रहेंगे, हमें इनसे तनिक भी विचलित नहीं होना है क्योंकि हम दर्पण की सीमा के बाहर हैं |

       जगत के रंगमंच पर एक परमात्मा ही विभिन्न पात्रों की भूमिकाएं निभा रहे हैं | रंगमंच का पर्दा भी वही है, दर्शक भी वही है और अभिनेता भी वही एक ही है | कहीं कोई अन्य नहीं है, यही सत्य है | हमारा ही भ्रम है कि हम नायक-खलनायक को अलग अलग समझते हैं और दर्शकों को अलग | जीवन में आने वाले सुख-दुःख भी वही है, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां भी वही पैदा करता है | रंगमंच पर खेला जा रहा नाटक पटाक्षेप के साथ समाप्त हो सकता है परन्तु वह एक फिर भी बना रहता है | वह कभी अदृश्य नहीं होता, बस केवल हमें भ्रमवश नज़र नहीं आता | भ्रम का आवरण हटते ही सर्वत्र एक वही दृष्टिगत होगा, यही सत्य है |

      श्री मद्भागवत महापुराण के एकादश स्कंध में भगवान् दत्तात्रेयजी के गुरुओं की कथा आती है जिसमें उन्होंने अपने 24 गुरुओं के बारे में बताया है | इनमें से उनकी एक गुरु है-मकड़ी | मकड़ी को गुरु मानते हुए उन्होंने शिक्षा ली है, उसके सम्बन्ध में एक श्लोक यहाँ उद्घृत कर रहा हूँ -  

           यथोर्णनाभिर्हृदयादूरपूर्णां सन्तत्य वक्त्रतः |

           तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ||11/9/21||

            जैसे मकड़ी अपने ह्रदय से मुंह के द्वारा जाला फैलती है, उसी जाले में विहार करती है और फिर उसे ही निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत को अपने से उत्पन्न करते हैं, उसी में जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने में ही लीन कर लेते हैं |

             इस श्लोक के माध्यम से स्पष्ट हो जाता है कि इस ब्रह्मांड में एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई है ही नहीं | यहाँ तक कि प्रत्येक चर-अचर, चेतन-अचेतन, बाहर भीतर, ऊपर नीचे चहुँ ओर केवल उसी एक की सत्ता है | सब स्थानों पर उसकी उपस्थिति है | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि केवल एक वही है | श्री रामचरितमानस में गोस्वामीजी बड़े ही मधुर शब्दों के माध्यम से यही बात कह रहे हैं-

     देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं | कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ||1/185/6||

       उस एक परम को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना असंभव है क्योंकि शब्द भी उन्हीं की देन हैं | जो सबका मूल है, उस मूल की व्याख्या कितनी ही कर ली जाये, उसे स्पष्ट नहीं किया जा सकता | इसीलिए बृहदारण्यक उपनिषद कहती है -

           पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्त् पूर्णमुदच्यते |

          पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||

    जगत का उत्पादक परमात्मा पूर्ण है, जगत भी पूर्ण है | उस पूर्ण से ही यह पूर्ण निकला है | पूर्ण से पूर्ण निकालने के बाद भी जो शेष बचता है, वह भी पूर्ण है | कहने का अर्थ है कि जगत के विस्तार का कारण ब्रह्म ही है और चौरासी लाख योनियों का बीज भी ब्रह्म ही है | सत्य भी यही है और ज्ञान भी यही है | इसी को जान लेना इस मनुष्य जीवन में आवश्यक है |

          सत्य को जान लेने के पश्चात् हमारे सामने स्वयं की स्थिति भी स्पष्ट हो जाती है | हम वही सत्य हैं जो एक मात्र इस जगत का आधार है | सत्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इस एक सत्य के कारण ही हम आपस में एक दूसरे से सम्बंधित है अर्थात हमारे में और किसी अन्य में कोई भेद नहीं है, सब एक ही हैं | शास्त्र कहते हैं कि जो समष्टि में है, वही व्यष्टि में भी है | एक दूसरे से सम्बंधित होने के बाद भी इस सत्य को माया के आवरण के कारण न समझकर स्वयं को अलग और अन्य को स्वयं से अलग समझ रहे हैं | इसी भ्रम के कारण संसार के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं |

        बीज से पेड़ बनता है | जब पेड़ बड़ा हो जाता है, तब क्या बीज मर जाता है ? नहीं, बीज कभी भी नहीं मरता | बीज की देह मिट गयी है परन्तु उसका ह्रदय पेड़ में धडक रहा है | केवल बीज की स्थूल देह मिटी है, पुनः बीज के रूप में नयी देह पाने के लिए | इस प्रकार इस संसार का, इस जगत का आवागमन का अटूट चक्र चलता रहता है |

                माया के कारण हम इस संसार में उलझकर आवागमन के चक्कर से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं | इस शरीर को छोड़ते हैं क्योंकि यह जर्जर हो चूका है, यह शरीर अब किसी काम का नहीं है | शरीर का अंत समय आ गया है फिर भी हमारी कामनाएं पूर्ण होनी शेष है | नया शरीर उन्हीं कामनाओं को पूर्ण करने के लिए मिला है | कामनाओं के कारण ही हम दूसरी देह के साथ सत्य का सम्बन्ध भूला बैठे हैं और राग-द्वेष, अपना-पराया, मैं-मेरा आदि के चक्कर में पड़ गए हैं | माया के कारण आपसी सम्बन्ध का स्वरुप बदल गया है और एकत्व के स्थान पर भिन्नता आ गयी है | यही भिन्नता संसार के चक्र में हमें उन्हीं लोगों से विभिन्न जन्मों में बार-बार मिलाती बिछुडाती रहती है | पुनर्जन्म इसी सिद्धांत पर आधारित है |

              हम पुनर्जन्म के सिद्धांत को समझ नहीं पा रहे हैं | प्रत्येक जीव को एक जन्म का लेन-देन दूसरे जन्म में समायोजित करना ही पड़ता है | नया जीवन इस समायोजन को समझ नहीं पा रहा है और सुखी-दुखी होता रहता है | वास्तव में शरीर ही हमारे सुख-दुःख का आधार है | अतः माया की दृष्टि का परित्याग कर वास्तविक दृष्टि को जाग्रत करना होगा तभी इस संसार से पार जाया जा सकता है, अन्यथा नहीं |

            भगवान् और भगवान् की  माया के बारे में इतने लम्बे विवेचन के बाद मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरुप को जानने और समझने में सहायता मिलेगी | एक बार उस ओर का संकेत मिलने के बाद ही उधर की यात्रा प्रारम्भ होगी | इतने विवेचन से जो सूत्र निकल कर आये हैं उन पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं |   

1.स्व-निर्मित संसार से मुक्त होना तभी संभव होगा जब हम अपने संसार की वास्तविकता को समझ लेंगे |

2.सत्य को जाने बिना हम संसार के माया जाल से बाहर नहीं आ सकते |

3.सत्य केवल एक परमात्मा ही है | परमात्मा के अतिरिक्त इस स्थूल शरीर की इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ भी हम देखते हैं, समझते हैं अथवा जानते-मानते हैं, सब माया अर्थात भ्रम है |

             आप जीवन में कितना ही ज्ञान प्राप्त कर लें वास्तव में वह ज्ञान तब तक व्यर्थ है जब तक कि उसको आचरण में न लाया जाये | हमने अपना संसार बनाया है क्योंकि हम विषयों में आसक्त हैं | विषयासक्ति न हो तो संसार भी न हो | इस कारण से बने संसार में कामनाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है क्योंकि विषयासक्ति कामना पैदा करेगी ही और कामना पैदा होगी तो उनको पूरी करने के लिए काम्य-कर्मों को करना पड़ेगा | ऐसे ही कर्म हमें संसार चक्र से बाहर नहीं निकलने देते | कारण कि जीवन में सभी कामनाएं कभी भी पूरी नहीं होती क्योंकि कामनाओं का अंत नहीं है | एक कामना पूर्ण हो रही होती है कि उसी समय नई कामना जन्म ले रही होती है | पुनर्जन्म के मूल में यही अपूर्ण कामनाएं अपनी भूमिका निभाती है |

             संसार के विस्तार और उस विस्तार में उलझने का कारण हमारी कामनाएं ही है | अगर इस संसार को सीमित करना है तो हमें अपनी कामनाओं को सीमित करना होगा | कामनाओं को सीमित करके अंततः उन्हें समाप्ति की ओर ले जाना ही इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य है | ‘मैं चाहता हूँ, वैसा हो जाये’ इसी का नाम कामना है | ‘परमात्मा चाहे वैसा ही हो’, यह मुक्ति की राह है |

         प्रश्न उठता है कि आत्म-बोध की भी तो कामना होती है | अगर इस कामना को भी समाप्त कर दिया जाये तो फिर हमारा कल्याण कैसे होगा ?  सत्य है, कल्याण नहीं हो सकता क्योंकि कामना मन में रहेगी तो संसार भी रहेगा | ऐसे में भला हम मुक्त कैसे हो पाएंगे ?

           सांसारिक कामनाओं से अच्छी है, परमात्मा को पाने की कामना करना | इस कामना के रहते हुए भी हम परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते | अंततः परमात्मा को पाने की इस कामना को भी त्यागना होगा, तभी हम उस परम अवस्था को उपलब्ध होंगे अन्यथा नहीं | एक भी कामना अगर मन में रहती है तो मन का अस्तित्व रहेगा | मन अमन तभी हो सकता है जब वह कामना रहित हो | कामना रहित मन ही परमात्मा है क्योंकि मन के अमन होते ही माया का आवरण गिर जाता है और हम उस परम अवस्था तक पहुँच जाते हैं | स्मरण रहे, परमात्मा को पाने की कामना नहीं होती बल्कि परमात्मा को पाना हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकता है |

          आइये ! अब स्व-निर्मित संसार को मन से निकालने का रास्ता ढूंढें और इस आवागमन के चक्र से बाहर निकलने का प्रयास करें |

              संसार में जानने योग्य क्या है कि जिसको जानने से हम संसार से बाहर निकलने की यात्रा प्रारम्भ कर सकते हैं | संसार को जगत भी कहा जाता है | जगत का अर्थ है, जो निरंतर गति कर रहा हो | संसार में सतत परिवर्तन होते रहते हैं, इसी कारण से इसे जगत कहा जाता है | इस जगत को जानने के लिए इसकी दो बाते बड़ी महत्वपूर्ण हैं -

एक-इस संसार में सब कुछ सत ही है, सत के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है |

दो-जगत में जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है तथा जो दृष्टिगत नहीं है, सब एक दूसरे से सम्बंधित है |

               इन दो बातों को थोडा विस्तार से जान लेना आवश्यक है | इन दोनों में भी पहली वाली बात बड़ी महत्वपूर्ण है | दोनों में से कोई सी एक बात भी हमारे भीतर पूर्णरूपेण स्पष्ट हो जाती है, तो दूसरी स्वतः स्पष्ट है | इन्हें जीवन में अपने आचरण में उतार लेने पर फिर संसार कहीं नहीं रहता केवल एक परमात्मा ही रहता है |

        इस संसार में सब कुछ सत है, सत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इस बात को भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के प्रारम्भ में ही कह दिया है | अर्जुन ने उस समय उसको ग्रहण किया अथवा नहीं, कहा नहीं जा सकता क्योंकि मोहग्रस्त व्यक्ति को कोई बात शीघ्र ही समझ में भी तो नहीं आती | अर्जुन की सी अवस्था हमारी भी है | हम तो अर्जुन से भी अधिक मोह में पड़े हैं | उसको तो केवल युद्ध जैसी विपरीत परिस्थिति में मोह हुआ था, यहाँ तो प्रत्येक परिस्थिति में अज्ञान हमारा पीछा करता है |

             ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता-2/16) अर्थात असत की तो सत्ता नहीं है और सत का कहीं अभाव नहीं है | संसार में दो विभाग हैं- जड़ और चेतन, जिनको माया और पुरुष कहा जाता है | भौतिक स्थूल शरीर के चक्षुओं से दिखलाई पड़ने वाली प्रत्येक वस्तु/पदार्थ सब जड़ है, माया है और माया मिथ्या/असत है | जैसा कि मैंने पूर्व में भी कहा है कि क्रियाशील प्रकृति का नाम ही माया है | जहाँ क्रिया है वहां परिवर्तन होना अवश्यम्भावी है | देखा जाये तो पदार्थ अथवा वस्तु नाम की भी कोई चीज है ही नहीं | जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है वह सब क्रिया ही क्रिया है । क्रिया जब दिखलाई पड़ने की अवस्था को प्राप्त होती है तब उसे पदार्थ कहा जाता है | क्रियाएं ही पदार्थ को बनाती और बिगाड़ती रहती है | आज जो पदार्थ है कल वह पदार्थ वैसा नहीं रहेगा | उस पदार्थ के प्रत्येक स्तर पर चल रही सतत क्रिया उसको धीरे-धीरे परिवर्तित करती रहेगी | आधुनिक विज्ञान, पदार्थों में हो रही क्रियाओं के आधार पर उस पदार्थ का अर्ध-जीवन काल (Half life) निर्धारितकरते हैं | विज्ञान भी कहता है कि एक दिन समय पाकर वह पदार्थ भी परिवर्तित होकर दूसरा रूप ग्रहण कर लेगा | इसी बात को शताब्दियों से हमारे सनातन शास्त्र भी कहते आ रहे हैं |

         यह जगत स्पंदन (Vibrations) का ही परिणाम है | स्पंदित होना ही चैतन्य होने का प्रमाण है | स्पंदन से क्रियारूप विभिन्न तत्वों का निर्माण हुआ और अंततः द्रव्यों (पदार्थों) का | वाद्य यंत्रों को जब हम स्पंदित करते हैं तब उनसे सुर निकलते हैं | स्पंदन सुर के जनक हैं | सुर ही प्रकृति के गुण कहलाते हैं | हम सत हैं और केवल सत ही स्पंदित हो सकता है।बिना सत की उपस्थिति के अकेला पदार्थ स्पंदन पैदा नहीं कर सकता | शरीर भी तो एक पदार्थ ही तो है | ध्यान रखें – स्पंदन (Vibrations) और क्रिया (Action) में बहुत अंतर है | स्पंदन से सुर (गुण) का परिणाम पद (क्रिया) है |  शरीर में जो आत्म-तत्व है वही सत है | शरीर में आत्म-तत्व के कारण स्पंदन होता है और फिर उससे सुर अर्थात गुण और गुणों से क्रिया होती है | शरीर में हो रही क्रियाएं ही कर्म कहलाती हैं | आत्म-तत्व की अनुपस्थिति में न तो कोई स्पंदन होगा और न ही क्रिया | इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्पंदन के कारण क्रिया होती है और निरंतर हो रहे स्पंदन से क्रिया फिर विस्तार को प्राप्त होती है | इस प्रकार स्पंदन का अर्थ हुआ, सत के द्वारा किसी क्रिया को विस्तार देना |

           स्पंदन से सुर पैदा होते हैं जैसे सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि | ये सात सुर हैं | प्रत्येक सुर का अपना एक गुण होता है और फिर इन गुणों के आधार पर क्रिया होकर तत्व (Element) बनता है | संगीत में स्पंदन से सुर और फिर सुर से पद बनते हैं।इसी प्रकार सृष्टि के सृजन में जब ये पद एक निश्चित अर्थ ले लेते हैं तब ये पद ही पदार्थ बन जाते हैं। विज्ञान ने अभी तक खोजे गए सभी तत्वों को उनके गुण-धर्म के आधार पर सात समूहों में बांटा है | गुणों का परिणाम क्रिया है और क्रिया का परिणाम तत्व है | विभिन्न तत्वों का योग पदार्थ बनाता है | आणविक संख्या के अनुसार आठवें क्रम में ठीक वैसा ही तत्व आ जाता है, जैसा कि प्रथम स्थान पर आने वाला तत्व गुण-धर्म रखता है | सुर में भी जो प्रथम स्थान पर है, आठवें स्थान पर वैसे ही गुण धर्म वाला सुर आ जाता है | जैसे सरगम का पहला सुर है ‘सा’ और आठवाँ सुर भी पुनः ‘सा’ ही होगा | ये सातों गुण पदार्थ में आते आते आपस में संयुक्त होकर तीन ही रह जाते हैं | पदार्थ के तीन गुण हैं- विद्युतीय, भौतिक और रासायनिक जिन्हें क्रमशः सात्विक, राजसिक और तामसिक गुण कहा जाता है | इसी प्रकार सूर्य में सतत हो रहे स्पंदन से प्रकाश उत्पन्न होता है उस प्रकाश में भी तरंग दैर्ध्य (wave length) के अनुसार सात रंग होते हैं – बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल | ये सातों रंग भी संयुक्त होकर प्रकाश को रंगहीन कर देते हैं | जब इस प्रकाश को प्रिज्म से गुजरा जाता है तो फिर यह पुनः सात रंगों में विभाजित हो जाता है | उर्जा सूर्य से इन प्रकाश की किरणों पर सवार होकर ही हमारी धरा तक पहुँचती है | केवल पृथ्वी तक ही क्यों ? सूर्य की उर्जा तो सम्पूर्ण सौरमंडल में सर्वत्र पहुँच रही है ।

           स्पंदन प्रारम्भ होने में उर्जा की भूमिका महत्वपूर्ण है | कहने का अर्थ है कि बिना उर्जा के स्पंदन होना भी संभव नहीं है | कहने का अर्थ है कि सब कुछ उर्जा का रूप परिवर्तन मात्र है | स्पंदन का परिणाम सुर (गुण) है और गुणों का परिणाम क्रिया है | स्पंदन में स्थितिज उर्जा (Potential Energy) गतिज उर्जा (Kinetic Energy) में परिवर्तित होती है और उस गतिज उर्जा से जगत का निर्माण होता है | प्रकृति अक्रिय है, वह जब क्रियाशील होती है तब माया का और उससे फिर जगत का निर्माण होता है | जगत का अर्थ ही है- जो गति कर रहा हो | जगत सत से आता अवश्य है परन्तु असत है क्योंकि एक न एक दिन उसे पुनः सत की ओर लौटना है | असत को सत की ओर तो अंततः लौटना ही है परन्तु उसके लौटने से पहले वह मनुष्य के मस्तिष्क को भ्रमित करता रहता है और वह असत को सत समझने लगता है | असत के पीछे भी तो सत की सत्ता है | इसीलिए कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड में सत के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है | सत्ता केवल सत की ही है | असत को सत कहना अनुचित नहीं है, अनुचित है - असत की सत्ता होना मान लेना |

         असत की सत्ता मान लेने का दुष्परिणाम ही है कि हम इसमें आसक्त होकर स्वयं में हो रही क्रियाओं को अपने द्वारा किये जाने वाले कर्म मान लेते हैं | हमारा शरीर एक द्रव्य (पदार्थ) ही तो है और अगर यह पदार्थ है तो इसमें क्रियाएं तो होगी ही | क्रियाएं न हो तो शरीर कभी भी बुढा नहीं होगा और न ही यह कभी मरेगा | क्रियाएं ही शरीर को गर्भावस्था से वृद्धावस्था तक ले जाती है | ऐसे में शरीर का अस्तित्व कहाँ रहा, उसमें केवल क्रियाएं ही क्रियाएं तो चल रही है | हम उन क्रियाओं में आसक्त हो गए हैं | यह आसक्ति हमें बार-बार विभिन्न गर्भाशयों की यात्रा कराती रहती है |

           अपनी कृति “भज गोविन्दम्” में आदि शंकराचार्यजी महाराज कहते हैं-

'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं |

इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाSपारे पाहि मुरारे ||’21||

      इन क्रियाओं के वशीभूत होकर शरीर (पदार्थ) को ही हम सब कुछ समझ लेते हैं और इसी आसक्ति के कारण हमें बार बार जन्म लेना और मरना पड़ता है | उन क्रियाओं के कारण ही तो हमें अपने शरीर में सुख-दुःख का अनुभव होता है | यह संसार दु:खालय है, इससे बाहर निकलना बड़ा ही कठिन है | केवल एक गोविन्द, जिसने इस जगत की रचना की है, जगत का सृजन किया है, वही आपको इस जगत से मुक्ति दिला सकता है | इसलिए क्रियाओं पर ध्यान ने दें, उनमें आसक्त न हो | केवल गोविन्द को भजो, जोकि सत है वही आपको असत से मुक्ति दिला सकता है |

            अब प्रश्न उठता है कि जब असत की सत्ता ही नहीं है फिर उससे मुक्ति की बात कहाँ से आ गयी ? सही सोचा है आपने | असत की सत्ता नहीं है, बल्कि इसके पीछे सत की ही सत्ता कार्य करती है | असत को सत्ता दी है हमने, इसमें आसक्त होकर | इसका अर्थ है कि असत के पीछे भी हमारी ही सत्ता है | हाँ, सही है असत के पीछे भी हमारी ही सत्ता है क्योंकि हम स्वयं सत है | परन्तु हम स्वयं को सत कब से मानने लगे ? हम तो स्वयं को असत (शरीर) ही तो मान रहे हैं | अगर हम वास्तव में जानते कि माया असत है, तो फिर केवल मायापति के प्रति ही प्रेम रखते, इस संसार, शरीर और सम्बन्धियों तथा धन, सम्पति आदि से प्रेम नहीं करते क्योंकि ये सब पदार्थ (द्रव्य) से अधिक कुछ भी नहीं है | संसार से प्रेम करना मोह है, अज्ञान है | परन्तु हमने तो इसके ठीक विपरीत कार्य किया है | मायापति को तो भूला दिया है और माया के साथ हो लिए हैं |

            इतने विवेचन से स्पष्ट हो गया होगा कि सत्ता केवल एक ही है, शेष जो भी कुछ दृष्टिगत है वह अस्तित्व लिए हुए दिखलाई भले ही पड़ता हो परन्तु वास्तव में वह अस्तित्वहीन है, केवल भ्रम है | उस असत के पीछे भी सत की ही सत्ता कार्य करती है | सत जिस समय चाहेगा असत को अपने में समेट लेगा | इससे यह अनुभव हो जाना चाहिए कि एक सत के अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है | असत की सत्ता मान लेने से सब अलग अलग नज़र आते हैं | जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है, उसे सत की लीला समझें | लीला और सत्य में अंतर होता है, लीला माया है | लीला में कठपुतलियाँ मंच पर नाचती अवश्य हैं परन्तु वे असत ही रहेंगी | सत तो वह सूत्रधार ही होगा जोकि इन कठपुतलियों को अपनी अँगुलियों के स्पंदन के बल से नचा रहा है | जिस समय हमारी दृष्टि कठपुतलियों से हटकर सूत्रधार पर स्थानान्तरित होकर, उसी पर जाकर टिक जाएगी तब हमें भी सर्वत्र सत ही दिखलाई देगा, असत कहीं भी नज़र नहीं आएगा | यहाँ तक कि कठपुतली, मंच और सूत्रधार सब एक रूप हो जायेंगे, सच्चिदानंद रूप - “चिदानंद रूपः शिवोSहम् शिवोSहम् |

      अब आते हैं, जगत को जानने की दूसरी महत्वपूर्ण बात पर | जगत में जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है तथा जो दृष्टिगत नहीं भी है, सब आपस में एक दूसरे से सम्बंधित है | हम जानते हैं कि एक सत्य के अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है, फिर भी सबको अलग अलग देखते हैं | भले ही माया के कारण सब अलग अलग दृष्टिगत हो रहे हों, वास्तव में सब एक ही हैं | सबको अलग अलग देखते हुए भी सभी एक दूसरे से सम्बंधित हैं, ऐसा स्वीकार कर लेना ही उचित है | इस संसार में आज जो अशांति फैली हुई है, उसका एक मात्र कारण है कि हम सभी आपस में एक दूसरे से जो सम्बन्ध है उसको स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं |

          महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ इस ब्रह्मांड में जो कुछ अणु में है वही विराट में भी है | जो समष्टि में है वही व्यष्टि में भी है | दोनों में कहीं कोई विषमता नहीं है | अणु परमाणुओं के योग से बनता है | एक परमाणु की संरचना और विराट की संरचना समान है | इस प्रकार परमाणु को इस विराट की इकाई कहा जा सकता है | परमाणु के केंद्र में केन्द्रक होता है जिसमें धनात्मक आवेश वाले प्रोटोन रहते हैं | एक से अधिक प्रोटोन के साथ रहने से समान आवेश के कारण उनके बीच प्रतिकर्षण होने की सदैव संभावना बनी रहती है | उनके मध्य प्रतिकर्षण न हो इसलिए उनको आपस में एक साथ बांधे रखने के लिए बिना किसी आवेश वाले कण (न्यूट्रॉन) रहते हैं | केन्द्रक के चारों ओर ऋणात्मक आवेश वाले इलेक्ट्रोन अपनी निश्चित कक्षाओं में परिभ्रमण करते रहते हैं | यही बात हमारे सौरमंडल पर भी लागू है | सौरमंडल के केंद्र में सूर्य है और चारों ओर अपने निश्चित परिभ्रमण पथ पर नौ ग्रह चक्कर लगाते रहते हैं |

           यह इस बात का प्रमाण है कि ब्रह्मांड में सभी एक समान है और एक दूसरे से सम्बंधित भी है | आपस में सम्बंधित और एक समान होने के कारण एक के भीतर हुआ किसी भी प्रकार का परिवर्तन दूसरे को कमोबेश प्रभावित अवश्य ही करता है | एक दूसरे से सम्बंधित होने वाली बात को आधुनिक विज्ञान के आधार पर समझाने का यह एक छोटा सा प्रयास भर था | आइये ! अब इसी बात को सनातन शास्त्रों के आधार पर स्पष्ट करते हैं |

         पूर्व में हमने “वासुदेव सर्वम्” पर विस्तृत चर्चा की थी | सनातन शास्त्र इस बात को हजारों वर्ष पूर्व से ही कह रहे हैं कि परमात्मा विराट में भी है और अत्यंत सूक्ष्म में भी है | इकाई भी वही और विराट भी वही | एक वही है तो फिर ये विभिन्न रूप; चर-अचर, चेतन-जड़ आदि क्यों दिखलाई पड़ रहे हैं ? संत महात्माओं ने जल में तैरते घड़ों के दृष्टान्त से इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है | जल के विशाल स्रोत जैसे समुद्र में विभिन्न रंग और आकार के, कई घड़े तैर रहे हों तो सभी बाहर से तो भिन्न भिन्न नज़र आयेंगे परन्तु सभी के भीतर जल एक ही प्रकार का होगा | ज्यों ही घड़ा टूटता है, घड़े के भीतर का जल बाहर के जल में मिल जाता है और फिर अंतर करना असंभव हो जाता है कि इसमें घड़े के भीतर का और घड़े के बाहर का जल कौन सा है ? घड़े के शरीर का महत्त्व एक दूसरे से सम्बंधित होने में, नहीं है बल्कि महत्त्व है जल का, जोकि सब घड़ों में एक सा ही है |

         दूसरा दृष्टान्त संतजन घटाकाश, मठाकाश, महाकाश का देते हैं | घड़े के आकाश और एक मठ के आकाश में कोई अंतर नहीं है | सभी में आकाश परिपूर्ण रूप से व्याप्त है | घड़े के टूटने पर भी आकाश परिपूर्ण है और घड़े के रहते उसमें भी वह परिपूर्ण है | घट अथवा मठ में आसक्ति होने से वे आकाश में आये परिवर्तन से प्रभावित होंगे, आसक्ति नहीं होगी तो प्रभावित नहीं होंगे | जैसे आकाश में वायु जब मिट्टी को चारों ओर फैला देती है तो मठ के आकाश में भी वही मिट्टी प्रवेश कर जाती है और घड़े का आकाश भी मिट्टी से अछूता नहीं रहता | आकाश एक है, भले ही घड़े और मठ अलग अलग हों | आकाश में आने वाला अल्प और क्षणिक परिवर्तन भी दोनों में समान रूप से दृष्टिगोचर होता है | घड़ा मठ की तुलना में छोटा अवश्य है परन्तु ऐसा नहीं हो सकता कि वह अप्रभावित रहे | अगर घट और मठ का आकश स्वयं को घटाकाश और मठाकाश के रूप में अलग न मानें वे ऐसे परिवर्तन से प्रभावित कतई नहीं होंगे जैसे आकाश (महाकाश) ऐसे परिवर्तन से सदैव ही अप्रभावित रहता है |

          इन दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि महत्त्व आकाश अथवा जल का है, घड़े के आकार और रंग का नहीं और न ही घड़े और मठ के आकार का है | एक दूसरे से सम्बंधित होने का कारण जल अथवा आकाश है, घट और मठ नहीं।

        “वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः” (गीता-7/19) कहने का अर्थ यही है कि सर्वत्र एक परमात्मा ही है, इसको स्वीकार करने वाला महात्मा अत्यंत दुर्लभ है | जो इस बात को स्वीकार कर लेगा वह प्रत्येक प्रकार के प्रभाव से अप्रभावित रहता है | प्रभावित होता है, हमारा शरीर परन्तु हम शरीर तो नहीं है | हम भी वही हैं और हमारा स्वरुप भी वही है-सच्चिदानंद स्वरुप | गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को इसी बात को आकाश का दृष्टान्त देते हुए समझाते हैं-

       यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते |

       सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ||13/32||

    जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यंत सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होता |

          घड़े और आकाश के दृष्टान्त की शरीर और आत्मा से तुलना करें तो पाएंगे कि शरीर में अहम् भाव रखने वाला ही प्रभावित होता है स्वयं को आत्मा अर्थात चेतन समझने वाला सदैव ही अप्रभावित रहता है | स्वयं के शरीर में अहम् भाव (देहाभिमान) नहीं रहे तो सबकी आत्मा एक ही है और प्रत्येक शरीर में स्थित होने के आधार पर देखें तो आत्मा ही परमात्मा का अंश है अर्थात हमारा स्वरुप भी वही है जो परमात्मा का है | बूँद के जल और जल के विशाल भण्डार के जल में कोई अंतर नहीं है, जो अंशी में है वही अंश में भी है | इस प्रकार हम एक दूसरे से सम्बंधित हुए अथवा नहीं | चेतन के स्तर पर हम एक दूसरे से सम्बंधित हैं परन्तु स्थूल शरीर के स्तर पर भिन्न भिन्न दिखलाई पड़ते हैं | अगर हमारी आसक्ति स्थूल के स्तर पर है तो निश्चित ही हम एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते | प्रभाव शरीर पर पड़ता है चेतन पर नहीं इसलिए शरीर में आसक्ति रहते अप्रभावित रहना संभव नहीं है |

          एक दूसरे से सम्बंधित हैं तभी तो संत कहते हैं कि सभी के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए क्योंकि जो व्यवहार आपको उचित नहीं लगता, निश्चित ही वैसा व्यवहार करना सामने वाले के लिए भी अनुचित होगा | इस बात को ध्यान में रखेंगे तो जीवन सुखमय और शांति पूर्वक चलता रहेगा | जब तक हम शरीर को देखते हुए स्वयं को अलग और दूसरे प्राणियों को अलग मानते रहेंगे तो निश्चित ही हम जीवन में सुखी-दुखी होते रहेंगे और ऐसा जीवन कभी भी शांत जीवन नहीं हो सकता |

       गीता को धार्मिक ग्रन्थ कहा जाता है क्योंकि यह ग्रन्थ अपने कर्तव्य-कर्म के बारे में हमारी समस्त भ्रांतियां दूर करता है | गीता कहती है-

     सहयज्ञा: प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः |

     अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोSस्त्विष्टकामधुक् ||

      देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः |

       परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ||3/10-11||

     प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदिकाल में कर्तव्यकर्मों के विधानसहित प्रजा (मनुष्य आदि) की रचना करके कहा कि तुम लोग इस कर्तव्य के द्वारा सबकी वृद्धि करो और यह कर्तव्य-कर्म रुपी यज्ञ तुम लोगों को कर्म सामग्री प्रदान करने वाला हो | कर्तव्य कर्मों के द्वारा तुम लोग देवताओं को उन्नत करो और वे देवता लोग तुम लोगों को उन्नत करें | इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे |

        हम एक दूसरे से सम्बंधित हैं, इसलिए आपस में हमें कैसे रहना चाहिए, उपरोक्त दोनों श्लोक इसी बात को सपष्ट करते हैं | प्रकृति भी जीवंत हैं और मनुष्य भी | हम आज आधुनिकता के चक्रव्यूह में फंसकर प्रकृति के साथ जो व्यवहार कर रहे हैं, वह सर्वथा अनुचित है | प्रकृति का दोहन जिस प्रकार कर रहे हैं, उससे प्रकृति निश्चित रूप से प्रभावित हो रही है | प्रकृति प्रभावित होगी तो हम भी प्रभावित होंगे | जंगल काटे जा रहे हैं और निरीह पशुओं का वध अंधाधुंध किया जा रहा है | मांसाहारी पशुओं को अपना पेट भरने के लिए जंगल में आहार तक नहीं मिल पा रहा है | यही कारण है कि आज जंगली पशु भोजन के लिए बस्तियों का रुख कर रहे हैं | हम केवल प्रकृति से ले ही ले रहे हैं, बदले में उसे पीड़ा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे रहे हैं | इससे प्राकृतिक संतुलन डगमगा रहा है |

            प्रकृति के रूष्ट होने का प्रमाण इससे अधिक क्या मिलेगा कि नित नई बीमारियाँ हमारे सामने आ रही है और मानवता उसका दंश झेल रही है | नदियाँ सूखती जा रही है क्योंकि बढ़ते तापमान से ग्लेशियर पिघल रहे हैं | वर्षा धीरे धीरे कम होती जा रही है, जल का संकट आसन्न दिखाई दे रहा है फिर भी हम सुधर नहीं रहे हैं | आपस में उन्नति करने की बात धर्म-ग्रंथों में दब कर रह गयी है | इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को समय रहते स्वयं में सुधार लाना होगा और आपस में प्रत्येक जीव की उन्नति में सहयोग देना होगा |

         प्रकृति को भी स्वयं के अनुसार रहने का अधिकार है | उसके अधिकार को चुनौती देना स्वयं के जीवन को दांव पर लगाना है | अतः प्रकृति को यथावत बनाये रखना हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक है | इसके लिए हमारी सनातन संस्कृति में देवताओं की कल्पना की गयी है और वांछित भोग प्राप्त करने के लिए उनकी पूजा अर्चना का विधान किया गया है | इन देवताओं की पूजा करते हुए हम प्रकृति का संरक्षण कर सकते हैं | दुर्भाग्यवश हमने अपनी संस्कृति तक को उपहास का पात्र बना डाला है, जिसका परिणाम हमें भुगतना पड़ रहा है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण इस बात को स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि -         

    इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः |

    तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ||3/12||

          यज्ञ से पुष्ट हुए देवता भी तुम लोगों को बिना मांगे ही कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक सामग्री देते रहेंगे | इस प्रकार उन देवताओं की दी हुई सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है |

         सांसारिक जीवन में तीन प्रकार की प्रकृति के व्यक्ति रहते हैं – पहली प्रकृति के व्यक्ति केवल देने ही देने में विश्वास रखते हैं, बदले में जो कुछ भी मिल जाये उसी में संतोष धारण कर लेते हैं अर्थात देना और पाना (Give and get) | दूसरी प्रकृति के व्यक्ति का भाव रहता है, देना और लेना (Give and take) | तीसरी प्रकार की प्रकृति के व्यक्तियों का भाव रहता है, देना कुछ भी नहीं बल्कि केवल लेना ही लेना (Only take) | पहली प्रकृति के व्यक्ति प्रकृति को केवल देता ही देता है बदले में लेने की भावना नहीं रखता बल्कि जो कुछ प्राप्त हो जाये उसी में संतुष्ट रहता है | ऐसे व्यक्तियों की आज के समय बहुत आवश्यकता है, जिससे क्षतिग्रस्त हुई प्रकृति में सुधार किया जा सके | दूसरी प्रकृति के लोग देते भी हैं और प्रकृति से लेते भी हैं | ऐसे व्यक्ति प्राकृतिक संतुलन में विश्वास रखते हैं | तीसरी प्रकृति के लोग अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति से केवल लेते ही रहते हैं, बदले में देते कुछ भी नहीं | ऐसे व्यक्ति इस प्रकृति का क्षरण करने में ही रत है, इनको स्वयं में सुधार करना होगा |

         लम्बे विवेचन के बाद यह स्पष्ट है कि हम एक दूसरे से इतने घनिष्ट रूप से सम्बंधित हैं कि कहीं भी किसी के साथ कोई छोटी सी भी अप्रत्याशित घटना घटित होती है तो केवल उसकी चीत्कार ही हम तक नहीं पहुंचेगी बल्कि उसकी पीड़ा भी हम तक पहुंच जाएगी और ऐसे में हम भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे | वैज्ञानिकों का मत है कि 84 लाख योनियों के जीवों का आपस में एक दूसरे के जीवन से इतना गहरा सम्बन्ध है कि एक दूसरे के जीवन के लिए प्रत्येक प्रकार के जीव का जीवित रहना आवश्यक है | भागवत में भी कहा गया है – ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ | छोटे से नज़र आने वाले कीट (Arthropodes) इस जगत में सर्वाधिक आबादी वाले प्राणी हैं | वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर इन कीटों का अस्तित्व इस पृथ्वी से समाप्त हो गया तो समझ लें कि फिर इस धरा पर मनुष्य का अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा | कहा जाता है कि एक छोटा सा जीव, मधुमक्खी अगर झाड़-झंखाड़ में फंसकर अपने पंख फडफडाती है तो उससे भी हमारा जीवन  प्रभावित होता है | हमारा जीवन एक छोटी सी मधुमक्खी पर भी इतना अधिक निर्भर हो सकता है ! है न आश्चर्य की बात | ज़रा आँख मूँद कर चिंतन कीजिये, आपको मेरी इस बात में सत्यता नज़र आएगी | फिर भी हम समझते नहीं हैं और एक प्रकार की बेहोशी में जीवन जीते हुए न जाने कितने जीवों के साथ दिन-रात अत्याचार करते रहते हैं |

        अभी तक हुए विवेचन से फिर कुछ सूत्र स्पष्ट हुए हैं, जिन्हें आपके समक्ष व्यक्त करना चाहूँगा |

1.संसार की कामना, कामना है जबकि परमात्मा को पाने की कामना अर्थात आत्म-बोध की कामना कामना न होकर हमारे जीवन की आवश्यकता है |

2. कामना का अर्थ है-‘मैं चाहूँ, वैसा हो जाये |’ इससे बचना होगा |’परमात्मा चाहते हैं, वैसा ही हो’ इस बात को स्वीकार करना होगा |

3.'संसार में सत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है', यह बात को स्वीकार कर लेने से ही आत्म-बोध का मार्ग खुलता है |

4.हम सभी के शरीर प्रकृति के अंतर्गत हैं और सभी में परमात्मा स्वयं अंतर्यामी के रूप में विराजमान है | अतः एक दूसरे के उत्थान में रुचि लें और प्रकृति का संतुलन बनाने का प्रयास करें अन्यथा हम सभी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे |

       इस प्रकार हमने अभी तक जीवन के कुछ महत्वपूर्ण सूत्रों पर चर्चा की है | जीवन में इन सूत्रों पर चलना, उनको आचरण में लाना आवश्यक है | सभी सूत्र कर्म और ज्ञान-योग से सम्बंधित है | कर्म-योग 'कर्म' के आश्रय लेने की बात करता है जबकि ज्ञान-योग 'स्व' के आश्रय पर आधारित है | दोनों ही योग में कुछ न कुछ करना पड़ता है | केवल भगवद्- आश्रय ही एक मात्र ऐसा आश्रय है, जिसमें केवल भगवान् की शरण लेना होता है, करना कुछ भी नहीं होता | आइये ! अब इसी आश्रय तक पहुँचने का प्रयास करते हैं, कुछ और सूत्र जानकर |

       इतने लम्बे विवेचन से एक बात तो पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है कि क्रिया और पदार्थ में आसक्त व्यक्ति अब तक आवागमन से मुक्त नहीं हो पा रहा है जबकि जीवन का उद्देश्य अपने मूल स्थान पर लौटना है | जब ब्रह्माण्ड में सत के अतिरिक्त कोई दूसरा है ही नहीं तो फिर हम पदार्थ और क्रियाओं का आश्रय ले ही क्यों ? भले ही पदार्थ और क्रिया की पृष्ठभूमि में साक्षात् सच्चिदानंद परमात्मा ही क्यों न हो फिर भी ये असत ही हैं क्योंकि प्रत्येक क्रिया और पदार्थ का परिवर्तित होना शाश्वत सत्य है | परिवर्तनशीलता के कारण उसका क्षरण हो रहा है इसलिए वह सत नहीं हो सकता, वह असत ही रहेगा | यही कारण है कि असत का आश्रय हमें विभिन्न योनियों में भटकाता है, मुक्त नहीं होने देता | असत का आश्रय हमें सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि द्वंद्वों में उलझा देता है | इनसे मुक्त होना आवश्यक है | मुक्ति के लिए केवल एक परमात्मा का आश्रय लेना ही आवश्यक हो जाता है |

          भगवद्-आश्रय सीधा सीधा मार्ग है परन्तु परमात्मा का आश्रय लेना ही जीवन में सबसे कठिन कार्य है | कठिन इसलिए है कि हम जीवन के प्रारम्भ से ही क्रिया में विश्वास रखते आये हैं, सदैव कुछ न कुछ करते रहने में ही विश्वास रखते हैं | इसलिए जब तक हमें इस बात का ज्ञान नहीं हो जाता कि करना हमारे वश में हो सकता है, पाना नहीं; तब तक परमात्मा का आश्रय लेना संभव नहीं होता | ज्ञान किस बात का होना चाहिए ? हमें इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि जीवन में हमारा कुछ करना और बनना ही हमें परमात्मा से दूर कर देता है क्योंकि कुछ करने और कुछ बनने के पीछे हमारी आसक्ति और कामनाओं का हाथ रहता है | परमात्मा का आश्रय लेने से कामनाओं का नाश शीघ्र ही हो जाता है |

       शरीर भी एक पदार्थ है अतः इसमें क्रियाओं का होना स्वाभाविक है | क्रिया से मुक्ति के लिए जो कुछ करना है, वह हमें करना ही चाहिए क्योंकि इस आधुनिक युग में सीधे सीधे परमत्मा के आश्रय को स्वीकार करना लगभग असंभव सा हो गया है | हाँ, सब कुछ करके भी जब अनुभव होता है कि कुछ करना आवश्यक ही नहीं था, तब परमात्मा का आश्रय शीघ्र ही स्वीकार कर लिया जाता है |          जीवन है, इसलिए शरीर से क्रियाएं होंगी ही | हमें क्रियाओं के होने अथवा कर्म करने में विशेष रूप से दो बातों (सूत्रों) का ध्यान रखना है | इन सूत्रों का ध्यान हम तभी रख पाएंगे जब प्रत्येक क्रिया का ज्ञान हमें हो | यहाँ आकर कर्म-योग और ज्ञान-योग मिल जाते हैं | दोनों के समावेश से ही भक्ति-योग का मार्ग प्रशस्त होता है और व्यक्ति पराश्रय (कर्म) और स्व का आश्रय (ज्ञान) छोड़कर भगवद आश्रय स्वीकार करने को उद्यत होता है | फिर भगवद्-आश्रय ही उसके लिए मुक्ति के द्वार खोलता है | 

       गीता में भगवान् श्री कृष्ण भक्ति-योग अध्याय में कहते हैं –

 श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते |        ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ||12/12||

                  अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल की इच्छा का त्याग श्रेष्ठ है क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति की प्राप्ति हो जाती है |

      अभ्यास, ज्ञान और ध्यान में कुछ न कुछ करना होता है जबकि सर्वोत्तम बात है ‘कर्मफल की इच्छा का त्याग’ जिसमें कुछ भी करना नहीं पड़ता बल्कि छोड़ना पड़ता है | कर्म फल की इच्छा का त्याग केवल परमात्मा का आश्रय लेने से ही हो सकता है | कर्म-योग और ज्ञान योग में अभ्यास करना पड़ता है | ये दोनों मार्ग परिश्रम के मार्ग हैं | भक्ति-योग में सब कामनाओं को त्यागना होता है | इसलिए भक्ति मार्ग में विश्राम है |

        अभ्यास किस बात का करना है ? ज्ञान की बात सदैव स्मृति में रहे, इस बात का अभ्यास करना है | ज्ञान शास्त्रों और सन्तो से मिलता है | अगर इस ज्ञान को विस्मृत कर दिया जाय तो फिर ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं रहता | ज्ञान हमें सदैव ध्यान (स्मृति) में रहे इसका निरंतर अभ्यास करना है | अभ्यास करने से ज्ञान स्वतः ही श्रेष्ठ हो जाता है और ज्ञान से ध्यान तब श्रेष्ठ हो जाता है, जब उस ज्ञान को ध्यान के माध्यम से एकाग्रचित्त होकर स्मृति में बनाये रखा जाता है | एकाग्रचित्त होने पर स्वतः ही संसार से ध्यान हटकर परमात्मा की ओर हो जायेगा | परमात्मा का ध्यान करते ही सभी कर्म और कामनाएँ महत्वहीन हो जाते हैं | इसीलिए कामना का त्याग इन सभी से श्रेष्ठ कहा गया है | इसके लिए हमें केवल कर्मफल की इच्छाओं का त्याग करना है | कर्मफल की इच्छा ही कामना उत्पन्न करती है | कर्म करना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है, अनुचित है मन में फल की इच्छा (कामना) रखते हुए कर्म करना | जीवन में प्रत्येक इच्छा बंधन है और इच्छा के त्याग में मुक्ति |  

          वे दो महत्वपूर्ण सूत्र जिनको जीवन में कर्म करते समय सदैव ध्यान में रखना आवश्यक है, वे हैं –

1.शरीर की क्रियाओं को कर्म बनाते हुए यह बात सदैव ध्यान में रखें कि संसार में रहते हुए भी हमें उसमें उलझना नहीं है | 

2.जीवन में कर्म का कभी भी आश्रय न लें क्योंकि हम न तो कर्ता हैं और न ही भोक्ता |

       उपरोक्त दोनों सूत्र ज्ञान-और कर्म-योग के अंतर्गत आ जाते हैं | महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दोनों सूत्रों की जीवन में पालना हो जाये तो हम पराश्रय छोड़ कर भगवद्-आश्रय ग्रहण कर सकते हैं | आइये ! दोनों ही बातों पर कुछ चिंतन करते हैं | कहने को तो दोनों ही बातें सुगम प्रतीत होती हैं परन्तु इनका पालन करना तभी संभव है, जब हम ज्ञान को ध्यान में रखते हुए त्याग की ओर बढ़ें क्योंकि परमात्मा त्याग से ही मिलते हैं | सर्वप्रथम पहली महत्वपूर्ण बात को स्पष्ट करते हैं | संसार हमें अपने में उलझाता नहीं है बल्कि हम संसार में स्वयं ही उलझ जाते हैं | नाव पानी में रहे तो नाव हमें नदी के पार ले जा सकती है परन्तु नाव में पानी आ जाये तो वही नाव बीच में ही डूबा भी देती है | हम संसार में रहें तो उस संसार से पार हुआ जा सकता है परन्तु हमारे भीतर अगर संसार समा गया हो तो फिर डूबना निश्चित है |

            संसार में रहते हुए संसार में उलझने से बचने के लिए चलिए, दत्तात्रेय जी के एक गुरु का उदाहरण लेते हैं | दत्तात्रेय जी के 24 गुरुओं में एक गुरु है, मकड़ी | मकड़ी स्वयं को केंद्र में रखते हुए अपने चारों ओर एक जाला बुनती है, उदरपूर्ति हेतु किसी शिकार को उसमें फंसाने के लिए | उसके बनाये जाल में कीड़े आकर फंस जाते हैं परन्तु मकड़ी स्वयं नहीं फंसती | मकड़ी निर्भय होकर अपने ही बुने जाल में विचरण करती रहती है, उसमें थोड़े से समय के लिए भी नहीं उलझती | जब भी कोई कीड़ा अथवा शिकार उसके जाल को छूता भी है, तो तुरंत ही वह उसमे उलझ जाता है | अथक प्रयास करने के बाद भी वह उससे बाहर निकल नहीं पाता | जब शिकार उस जाल से बाहर निकलने का प्रयास कर कर थक जाता है तब मकड़ी अपने बुने जाल पर चलते हुए आती है और उसके शरीर में अपनी लार को डाल कर घायल कर देती है | शिकार को घायल कर पुनः जाल के केंद्र पर जाकर बैठ जाती है और इंतजार करती है, शिकार के मरने का | शिकार के मरते ही वह फिर उसी जाल पर चलती हुयी शिकार तक पहुँचती है और उसके भीतर का सारा रस चूस कर कीड़े के खोल को अपने जाल से मुक्त कर देती है और पुनः जाल के केंद्र पर जाकर किसी अन्य शिकार के फंसने का इन्तजार करने लगती है | जो तकनीक मकड़ी काम में लेती है, वही तकनीक हमें भी अपने जीवन में काम में लेनी है, जिससे हम भी संसार में रहते हुए उसमें फंसे नहीं | वह कौन सी तकनीक है, जिससे मकड़ी जाल में विचरण करते हुए भी उसमें नहीं फंसती ?

         मकड़ी कौन सी तकनीक का उपयोग करती है, उस जाल को बनाने में, जिसमें शिकार तो फंस जाता है परन्तु स्वयं नहीं फंसती ? वैज्ञानिकों ने उसकी जाला बुनने की प्रक्रिया और तकनीक का सूक्ष्मता से अध्ययन किया है | मकड़ी दो प्रकार के जाले एक साथ बुनती है, दोनों जाल एक दूसरे से सटे हुए और समानांतर होते हुए भी आपस में एक निश्चित दूरी बनाये रखते हैं | इन दोनों जालों को अलग अलग साधारण दृष्टि देखना से संभव नहीं है, केवल सूक्ष्मदर्शी के माध्यम से ही उनको स्पष्ट रूप से अलग अलग देखा जा सकता है |

         दोनों जाल एक दूसरे से लगभग सटे हुए से रहते हैं | पहला जाल, जिसमें शिकार फंसता है, मकड़ी उसमें चिपचिपा पदार्थ लगा देती है और दूसरे जाल को अपने आवागमन के लिए रूखा ही बनाये रखती है | किसी शिकार के चिपचिपे जाल में फंसते ही मकड़ी रूखे जाल के धागों पर चलती हुयी उस तक पहुँचती है, जिससे वह उसमें नहीं फंसती | लेकिन दोनों जाल के सटे रहने से एक सम्भावना यह भी बनती है कि मकड़ी का कोई पैर भूलवश कभी चिपचिपे धागे से भी छू सकता है | फंसने से बचने के लिए परमात्मा ने उसके पैर गद्दीदार बनाये है, इससे उसके पैर जाल से चिपक नहीं सकते | इस प्रकार दोनों ही परिस्थतियों में वह अपने द्वारा बुने गए जाल में कभी भी फंस नहीं सकती |

          यह है वह पहली तकनीक जिससे हमें शिक्षा मिलती है कि मकड़ी जाल में फंसने से जिस प्रकार बच जाती है, उसी प्रकार हमें भी संसार में उलझने से बचना है | दूसरा ज्ञान जो मकड़ी से मिलता है वह है कि जाले का निर्माण मकड़ी स्वयं के मुख की लार से करती है और फिर उसी जाले के कमजोर हो जाने पर स्वयं ही उसे समेट कर उदरस्थ कर लेती है | इस प्रकार स्वयं के द्वारा निर्मित जाल को वह स्वयं ही मिटा डालती है | दोनों ही तकनीक मनुष्य के लिए इस संसार में रहते हुए उपयोगी है | मनुष्य अपने संसार का निर्माण तो कर लेता है और फिर उसमें उलझ जाता है | संसार का निर्माण करना और उसमें उलझकर उसे समेट नहीं पाने को मनुष्य जीवन की विडम्बना ही कहा जा सकता है |

        मकड़ी के जीवन से प्रेरणा लेकर मनुष्य उसकी तकनीक का जीवन में उपयोग कर ले तो संसार में फंसने से बच सकता है | यह तकनीक हम अपने जीवन में कैसे उपयोग में ले सकते हैं ? चलिए ! इसी विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाते हैं |

       एक प्रसिद्ध कहावत है – “Man always born free but every where in chains”. अर्थात मनुष्य सदैव स्वतंत्र ही पैदा होता है परंतु वह सर्वत्र जंजीरों से घिरा रहता है | जंजीरों से घिरा रहता है, इसलिए उसके बंधने/फंसने की सम्भावना भी सदैव बनी रहती है | गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने से इन जंजीरों में जकडे जाने की सम्भावनाएँ प्रबल हो जाती है | इसका अर्थ यह कदापि न लें कि बिना गृहस्थ जीवन के आदमी जीवन में मुक्त ही रहता है | बंधन तो मन का खेल है और मन तो किसी भी अवस्था में कभी भी चंचल हो सकता है | हाँ, यह सत्य है कि मन के गृहस्थ जीवन में चंचल होने की प्रबल  सम्भावना रहती है |

        स्वयं के संसार का निर्माण करने में भी गृहस्थ जीवन की भूमिका रहती है | स्व-निर्मित संसार ही उस जाल का निर्माण करता है, जिसमें मनुष्य फंसता है | इसीलिए इस सांसारिक जाल को मक्कड़-जाल भी कहा जाता है | इस स्वयं के बुने हुए जाल में अपनी कामनाओं को पूरी करने के प्रयास में हम स्वयं जाकर फंसते हैं, एकदम मकड़ी के शिकार की तरह | जब संसार के जाल में आकंठ डूबने लगते हैं तब इससे बचने का विचार आता है परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | सांसारिक कामनाओं को बढ़ने से रोकना ही इसका एक मात्र उपाय है | इसके लिए हमें सांसारिक जाल के समानांतर एक जाल और बुनना होगा जिसके धागों पर चलकर हम संसार में विचरण करते हुए भी संसार-जाल में उलझने से बच सकते हैं और परमात्मा तक पहुँच सकते हैं | इस प्रकार दो जाल हुए, एक तो संसार का और दूसरा अध्यात्म का, दोनों जाल एक दूसरे के सामानांतर | इस प्रकार हम  संसार के जाल के मध्य रहते हुए भी अध्यात्म के जाल पर विचरण करते हुए संसार में उलझने से बच जायेंगे | कहने का अर्थ है कि संसार के जाल के मध्य रहते हुए संसार के काम करते रहें परन्तु मन का विचरण केवल अध्यात्म के जाल पर ही हो, संसार के जाल पर नहीं; इस बात का सदैव ध्यान रखें | संसार का जाल व्यक्ति को फांसता है जबकि अध्यात्म का जाल (मार्ग) उसे सदैव मुक्त रखता है |

          अपना संसार बनाकर उस संसार में रहने को हम विवश हैं क्योंकि यह शरीर और इससे आसक्त होकर बनाया गया संसार हमें प्रारब्ध को भोगने के लिए ही मिला है | अपना संसार बनाकर उसी के माध्यम से ही प्रारब्ध को भोगा जा सकता है, अन्य किसी साधन से नहीं | परमात्मा का सदैव स्मरण करते हुए संसार के माध्यम से अपना प्रारब्ध काटते रहें | प्रारब्ध के कटते ही एक दिन यह शरीर भी चला जायेगा और आप अपने वास्तविक स्वरुप को प्राप्त कर लेंगे और परमात्मा में लीन हो जायेंगे | समस्या जीवन में तभी आती है जब प्रारब्ध से मिले भोग के प्रति आसक्त होकर हम भोगों की कामनाओं को दिन प्रतिदिन बढ़ाते जाते हैं और अपने ही बनाये संसार जाल में फंसकर सुखी दुखी होते रहते हैं |

            इस प्रकार संसार के जाल में फंसने से बचने की पहली तकनीक हुई, समानांतर अध्यात्म में रहने का जाल (स्वयं के विचरण का मार्ग) बना लेना | दूसरी तकनीक है, संसार जाल में रहते हुए भी उसमें न उलझना | मकड़ी भी अपने शिकार को फांसने के लिए बुने जाल से भूल से छू भी जाये तो उसमें नहीं फंसती क्योंकि उसके पैर गद्दीदार होते है | हमें भी संसार के जाल में फंसने से बचने के लिए स्वयं को सशक्त बनाना होगा, मकड़ी के पैरों की तरह | सांसारिक व्यवहार निभाते रहें और परमात्मा का चिंतन भी करते रहें | परमात्मा का चिंतन करते हुए किये जाने वाले सांसारिक कर्म भी अकर्म बन जाते हैं | इस प्रकार यह कर्म-योग का मार्ग हुआ |

         संसार में बंधन पैदा होता है, अज्ञान के कारण, मोह के कारण, संसार में ममता रहने के कारण | हमें संसार की वास्तविकता का ज्ञान जिस दिन हो जायेगा उस दिन हमारा संसार से मोह और उसमें बनी ममता का भी अंत हो जायेगा | संसार में हम स्वयं फंसते हैं क्योंकि यह हमें रूचिकर लगने लगता है | रूचिकर लगने का कारण है, संसार का आकर्षण जो हमें एक प्रकार का सुख प्रदान करता है | यह सुख वास्तविक सुख नहीं होता बल्कि छद्म सुख होता है अर्थात सुख नहीं केवल सुख का आभास मात्र |

        जैसा कि पूर्व में मैंने कहा है कि प्रत्येक सुख की पृष्ठभूमि में दुःख अवश्य ही रहता है | सुख को भोगते हुए एक अवस्था ऐसी आती है जब एक दिन वह दुःख में परिवर्तित हो जाता है | सुख की आसक्ति हमें संसार में बाँध देती है | ज्ञान हमें संसार से मुक्त करता है | जिस दिन हमें अपने जीवन और संसार के परिवर्तनशील होने का ज्ञान हो जायेगा तब स्पष्ट हो जायेगा कि अब तक हम असत के प्रति आसक्त थे जबकि सत कुछ और ही है | सत का ज्ञान होते ही संसार विलीन हो जायेगा और इस संसार को विलीन करेंगे हम स्वयं; ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार से मकड़ी अपने बुने जाल को स्वयं ही समेट लेती है | इस प्रकार यह ज्ञान-योग का मार्ग हुआ |

      इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि संसार में रहते हुए हमें परमात्मा को सदैव याद रखना है | फिर अपने कर्तव्य कर्मों का निर्वहन करते हुए एक दिन संसार से मुक्त हो जाना है | ऐसे में हमें संसार की कोई भी शक्ति बंधन में नहीं जकड सकती | हम मुक्त ही पैदा हुए हैं और संसार जाल से घिरे रहते हुए भी मुक्त रह सकते हैं | यही हमारी जीवन्मुक्त अवस्था है जिसे अपने इसी जीवन में प्रत्येक मनुष्य प्राप्त करना चाहेगा |

             मैंने पूर्व में दो महत्वपूर्ण सूत्र बताये थे जिनको जीवन में कर्म करते समय सदैव ध्यान में रखना आवश्यक है, उनमें से पहले सूत्र, “शरीर की क्रियाओं को कर्म बनाते हुए यह बात सदैव ध्यान में रखें कि संसार में रहते हुए भी हमें उसमें उलझना नहीं है” पर अल्प रूप से चर्चा की है | अब आते हैं दूसरे सूत्र पर | दूसरा सूत्र है-‘जीवन में कर्म का आश्रय न लें क्योंकि हम न तो कर्ता हैं और न ही भोक्ता |’ इस सूत्र को आत्मसात करने में ही अध्यात्म की पूर्णता है अन्यथा नहीं | स्वयं को जानने का नाम अध्यात्म है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण से अर्जुन पूछ रहे हैं, ’किम् अध्यात्म’ (8/1) अर्थात अध्यात्म क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं कि ‘स्वभावोSध्यात्ममुच्येते’ (8/3) अर्थात स्व-भाव यानि जीव को अध्यात्म कहते हैं |इस प्रकार स्पष्ट है कि स्वयं को जान लेने का नाम ही अध्यात्म है |

         पूर्व में यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि स्वरुप की दृष्टि से परमात्मा और जीव में तनिक भी भिन्नता नहीं है | भिन्न बनाती है हमारी मानसिकता, जो संसार में डूबती उतराती रहती है | अथाह जल स्रोत में फैका गया व्यक्ति केवल अपने शरीर को बचाने के लिए ही हाथ-पैर मारता रहता है | इसके अतिरिक्त उसे कुछ भी नहीं सूझता | यही संसार सागर में अवतरित हुए जीव के साथ होता है | अपने शरीर और इससे सम्बंधित संसार के अतिरिक्त उसे कुछ दिखलाई नहीं पड़ता | ऐसे में वह अपना वास्तविक स्वरुप भूला देता है और इस शरीर को ही स्वयं होना मान लेता है | अध्यात्म का मार्ग हमें शरीर से दूर ले जाकर स्वयं से परिचित कराता है और स्व-भाव को उपलब्ध करने में हमारी सहायता करता है | अध्यात्म मार्ग का लक्ष्य आत्म-बोध है |

          संसार में रहते हुए जब शरीर ही हमारे लिए सब कुछ बन जाता है तब हम कर्म-बंधन में फंस जाते हैं | जीवन में हम कर्म करने को विवश हैं, ‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्’ (गीता-3/5) इसलिए कर्मों से पलायन करना संभव ही नहीं है | साथ ही गीता यह भी कहती है कि ‘धूमेनाग्निरिवावृता:’ (18/48) सम्पूर्ण कर्म धुएं से अग्नि की तरह किसी न किसी दोष से युक्त है | अगर कर्म बंधन पैदा करते हैं तो फिर मुक्ति का मार्ग क्या है ?

             गीता कर्म-योग का ग्रन्थ भी है और यही गीता मुक्ति का मार्ग भी दिखलाती है | दोनों बातें विरोधाभासी प्रतीत अवश्य होती है परन्तु विरोधी हैं नहीं | शरीर पदार्थ है और पदार्थ में क्रिया होगी ही | अतः शरीर के रहते जीवन में कर्म करने ही होंगे | हाँ, कर्मों को धर्म अर्थात कर्तव्य कर्म तक सीमित रखना मनुष्य के हाथ में है | गीतोपनिषद का ताना बाना इसी धर्म के चारों ओर बुना गया है | गीता के प्रारम्भ में जब अर्जुन मोह के कारण विषाद को प्राप्त हो जाता है, तब वह धर्म अर्थात अपने कर्तव्य कर्म के बारे में मोहित हो जाता है | इस मोह के कारण ही वह युद्ध में मारे जाने वालों का मारक अर्थात कर्ता नहीं बनना चाहता | उसके विषाद का दूसरा कारण है कि मारने वाले और मरने वाले दोनों ही उसके स्व-निर्मित संसार के सदस्य हैं |

        अपनी इन दोनों बातों को ही वह अपने सखा के समक्ष शास्त्रों के उदाहरण देकर सत्य सिद्ध करने का असफल प्रयास करता है | भगवान् मोहग्रस्त व्यक्ति को तब तक कैसे समझाए जब तक वह ज्ञान के नाम पर अपने भीतर अज्ञान लिए बैठा हो | मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने भीतर के कथित ज्ञान को बाहर निकाल फैंक कर शून्य हो जाना होगा | कथित ज्ञान से शून्य हुआ व्यक्ति ही किसी महापुरुष का शिष्य हो सकता है | ऐसा होने पर ही ज्ञान की धारा गुरु से शिष्य की ओर प्रवाहित हो सकती है, अन्यथा नहीं |

    जब अर्जुन कहता है-‘शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्” (गीता-2/7) कि मैं आपका शिष्य हूँ | मैं आपकी शरण हूँ, कृपया आप मुझे मार्ग दिखाइए | ये शब्द एक मानसिक रूप से थके हुए व्यक्ति के हैं, जो कर्तव्य-कर्म से च्युत हो रहा है | अपने कथित ज्ञान से शून्य होकर एक सखा अपने दूसरे सखा को गुरु स्वीकार कर उनकी शरण होकर शिष्य बन जाता है | ऐसे में ज्ञान की धारा प्रवाहित हुए बिना भला कैसे रह सकती है ? आइये ! इस धारा में हम भी स्वयं को भिगो लें |

         अर्जुन शिष्य बनते ही भगवान् से पूछ रहे हैं –‘पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः’ अर्थात मैं धर्म के विषय में मोहित आपसे पूछता हूँ | अर्जुन क्या पूछ रहे हैं ? अर्जुन व्यक्ति के धर्म के बारे में भगवान् का निश्चित मत पूछ रहे हैं जिसे जानकार वह अपने कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ सके | धर्म का अर्थ है व्यक्ति का कर्तव्य और कर्तव्य को निभाने के लिए कर्म करने आवश्यक है | इस प्रकार धर्म का अर्थ हुआ, कर्तव्य-कर्म | कर्म को कर्ता-भाव से नहीं करने हैं क्योंकि कर्म शरीर से प्रकृति के गुणों के अनुसार होते हैं, इसमें स्वयं मनुष्य की कोई भूमिका नहीं होती | जब मनुष्य कर्मों में अपनी भूमिका मानने लगता है, तभी कर्म-बंधन होता है अन्यथा नहीं | शरीर में आसक्ति के कारण कर्तापन छूटना संभव नहीं है |

          सम्पूर्ण गीता-शास्त्र में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को विविध प्रकार से समझाते हैं कि तुम न तो कर्ता हो और न ही भोक्ता | इसके लिए वे कर्म-योग कहते हैं, फिर ज्ञान-योग को समझाते हैं | भगवान् श्री कृष्ण संसार की रचना, प्रकृति, जीव, कर्म, ज्ञान, भक्ति, क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम, समता, अनासक्ति, देव-असुर सम्पदा आदि विभिन्न प्रकार से उसे समझाने का प्रयास करते हैं | अर्जुन का धर्म उसे फिर भी समझ में नहीं आता | जहां गीता में ज्ञान का प्रारम्भ धर्म शब्द से अर्जुन प्रश्न पूछ कर करते है, उसी धर्म शब्द के साथ भगवान् गीता-ज्ञान का समापन भी करते हैं | वे कहते हैं-

     सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |

   अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||18/66||

   सम्पूर्ण धर्मों (कर्तव्य कर्मों) का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा | मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा | 

       यहाँ भगवान् कर्तव्य-कर्मों को छोड़ने की बात नहीं कह रहे हैं बल्कि कर्मों का आश्रय छोड़कर भगवद-आश्रय लेने की बात कह रहे हैं | भगवद-आश्रय लेकर किये जाने वाले कर्म हमें बान्ध नहीं सकते | केवल यही एक मार्ग है जो अग्नि (कर्मों) को धुएं (दोष) से मुक्त कर सकता है और कर्म को अकर्म बना सकता है |

        पूर्व में भी हमने पाप और पुण्य कर्मों पर चिंतन किया है | गीता में भगवान ने पूर्व में भी कहा है कि जो व्यक्ति सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा के अर्पण करके और आसक्तिरहित होकर कर्म करता है वह कर्मों में लिप्त नहीं होता | ‘लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा’ (गीता-5/10), ऐसा व्यक्ति जल से कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नहीं होता | समस्या कर्मों का आश्रय लेने से ही आती है | कर्मों का आश्रय ही उन कर्मों को पाप और पुण्य कर्मों में विभाजित कर देता है | अनासक्त होकर और परमात्मा के आश्रित रहकर किये जाने वाले कर्मों में न तो कोई पाप कर्म है और न ही कोई पुण्य कर्म | कर्मों को परमात्मा स्वीकार ही नहीं करते क्योंकि वे स्वयं ‘न करोति न लिप्यते‘ हैं |

        नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः |

        अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ||गीता-5/15||

       सर्वव्यापी परमात्मा न तो किसी के पाप कर्म को और न ही शुभ-कर्म को ग्रहण करते हैं | अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है उसी से सभी जीव मोहित हो रहे हैं |

        जीव कर्मों को लेकर मोहित हो रहे हैं तभी तो वे उन्हें पाप और पुण्य कर्मों में विभाजित कर रहे हैं | परमात्मा को आपके कर्मों से कुछ लेना देना नहीं है | वे आपके किसी  भी कर्म को ग्रहण नहीं करते | हाँ, हम मोहित होकर समझ रहे हैं कि शुभ कर्म परमात्मा ग्रहण कर लेते हैं और पाप-कर्म ग्रहण नहीं करते | आपके कर्म आपको ही प्रभावित करते हैं इसमें परमात्मा की कोई भूमिका नहीं है | गोस्वामीजी मानस में कह रहे हैं  –

      कर्म प्रधान विश्व करि राखा | जो जस करिहि सो तस फल चाखा ||

           अज्ञान के कारण हम प्रत्येक कर्म को परमात्मा से जोड़ देते हैं | वास्तव में देखा जाये तो कर्म जिस माध्यम से होते है और जो कर्म करता है, सभी जड़ विभाग के अंतर्गत है | अतः कर्मों से चेतन विभाग का कोई लेना देना नहीं है | इसीलिए गीता के अंत में भगवान् ने अर्जुन को कर्मों का आश्रय छोड़ अपनी शरण में आने का कहा है | परमात्मा का आश्रय ले लेने से कोई भी कर्म फिर पाप-कर्म नहीं रहता क्योंकि तब मनुष्य जड़ विभाग के आश्रय को छोड़ कर चेतन विभाग का आश्रय ले चूका है | भगवद आश्रय से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं |

             मनुष्य को आनंद की अवस्था तक ले जाने में इन सभी जीवन-सूत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है | जीवन–सूत्र आचरण में लाने के लिए है, केवल इनको पढ़ लेने अथवा लिख देने से कोई लाभ होने वाला नहीं है | मनुष्य अपने जीवन की विषमताओं के लिए स्वयं उत्तरदायी है | जैसा कि मैंने पूर्व में कहा है कि न तो कोई पाप कर्म है और न ही कोई पुण्य कर्म है | इसी प्रकार मनुष्य के जीवन में न तो कोई बंधन है और न ही उसे मुक्त होना है | जो बंधा हुआ नहीं है, वह मुक्त तो पहले से ही है | जब कहीं कोई पाप नहीं है, पुण्य नहीं है, बंधन नहीं है और मुक्ति नहीं है, तो फिर क्यों तो कर्म करने के बारे में कोई विचार करें और क्यों ही मुक्त होने की कामना करें ? जो कर्मों को पाप और पुण्य कर्मों में विभाजित करता है वही जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होने की कामना करता है क्योंकि वही मनुष्य कर्मों के साथ बंधा हुआ है | भगवद आश्रय लिए हुए व्यक्ति से पाप-कर्म हो ही नहीं सकते | उसके लिए फिर न तो कहीं पाप है और न ही कोई पुण्य |

         कामना के कारण कर्म होते हैं और कर्म की सफलता अथवा विफलता से राग-द्वेष, लोभ-मोह आदि विकार होते हैं | राग-द्वेष, लोभ-मोह जैसे द्वंद्वात्मक विकारों के कारण ही मनुष्य बंधता है और आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता | गीता के सातवें अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –

        इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत |

        सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ||27||

      इच्छा (राग) और द्वेष से उत्पन्न होने वाले द्वंद्व-मोह से मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसार में मूढ़ता (अज्ञान) को प्राप्त हो रहे हैं | प्राणी का यही अज्ञान उसे आवगमन से मुक्त नहीं होने देता ।

  जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये |

  ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं चाखिलम् ||29|| 

वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जान लेते है ।

       उपरोक्त श्लोक के आधार पर ही हमने इस श्रृंखला में कर्म की, अध्यात्म की और ब्रह्म की विस्तार से चर्चा की है | सब कुछ जान लेने के उपरांत निष्कर्ष क्या निकलता है ? इस ओर भी दृष्टि डालते हुए इस लम्बी श्रृंखला का समापन करते हैं ।

          कर्म, अध्यात्म और ब्रह्म पर विवेचन से हमें क्या अनुभव हुआ ? इस बात को जानने के लिए एक छोटी सी कहानी –

        दीपावली का त्यौहार आ रहा है | अपनी पत्नी के निर्देशानुसार एक व्यक्ति दीपक लेने के लिए अपनी आरामदायक कीमती गाडी में बैठकर कुम्हार के द्वार पहुँचता है | कुम्हार नीम के पेड़ तले मूंज की बनी कठोर खटिया पर बिना कुछ भी बिछाए लेटा हुआ है और मन ही मन कुछ गुनगुना रहा है | वातानुकूलित कार से उतरकर पैदल चलते हुए पसीने से लथपथ हुआ वह कुम्हार के पास जाकर विभिन्न ढेरियों में पड़े दीपक का मूल्य पूछता है | लेटे लेटे ही कुम्हार सबका मूल्य बताता है | व्यक्ति उनमें से कुछ दीपकों का चयन कर मूल्य देकर क्रय कर लेता है |

         दीपक लेकर वह कुम्हार से कुछ वार्तालाप करने लगता है | वार्तालाप का आधार कुम्हार को व्यापार करने की कला से परिचित कराना है | आइये, हम भी उनके वार्तालाप में बिना किसी व्यवधान उत्पन्न किये सम्मिलित हो जाते हैं |

व्यक्ति--“आप इन दीपकों को व्यवस्थित रूप से रखकर और कुछ पोलिश करके रंगीन रूप दे देते तो इस मूल्य से कहीं अधिक मूल्य आपको मिल जाता | आवश्यकता के समय लोग आपसे अधिक मूल्य देकर भी दीपक खरीद लेते |

कुम्हार- इससे क्या होता ?

व्यक्ति-इससे आपकी आय बढ़ जाती और आप स्वचालित यंत्र से दीपक बनाते, जिससे आपके दीपकों का उत्पादन बढ़ जाता और साथ ही आपकी आय भी |

कुम्हार-फिर?

व्यक्ति- फिर आपके पास मेरी तरह गाडी होती, नौकर-चाकर होते, बंगला होता और आप वातानुकूलित कमरे की ठण्डी छाया में बैठकर विश्राम करते |

कुम्हार- इतने पापड़ बेलकर अंततः जब विश्राम ही करना है, तो अभी मैं क्या कर रहा हूँ ? ठंडी छाया में बैठा विश्राम तो मैं अभी भी कर रहा हूँ | महोदय ! जैसा आप बता रहें है, उतना प्रपंच करके तो मैं ठंडी छाया और वातानुकूलित कमरे में बैठकर भी विश्राम नहीं कर पाऊंगा | क्या आप इतना कुछ करके विश्राम की अवस्था को उपलब्ध हो गए हैं ?

       कुम्हार का प्रतिप्रश्न सुनकर वह व्यक्ति निरुत्तर हो गया क्योंकि कुम्हार की बातों में सत्यता थी | कहानी का सारांश यह है कि जब अंततः विश्राम की अवस्था को प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य है तो फिर हम इतना सब कुछ करने और जानने का प्रपंच ही क्यों करें और किसलिए करें ? शरीर है तो कर्म भी होंगे और कर्म तभी अकर्म होंगे जब वे परमात्मा का आश्रय लेकर किये जाए | इस प्रकार करना महत्वपूर्ण नहीं है | ज्ञान वह अंगुली है जो परमात्मा की ओर संकेत भर करती है, परमात्मा तक ले जाती नहीं है | इसलिए जानना भी महत्वपूर्ण नहीं है | हाँ, जानने और करने से एक दिन यह अनुभव अवश्य हो जाता है कि अब समय आ गया है कि इन दोनों का आश्रय छोड़ एक परमात्मा का आश्रय लिया जाय |

      इतने लम्बे विवेचन से कुम्हार की कही बात ही महत्वपूर्ण प्रतीत होती है कि अधिक प्रपंच में पड़ने का कोई लाभ नहीं है | हमारे जीवन के लिए जितने भी सूत्र इस श्रृंखला में निकलकर सामने आये हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण सूत्र न तो स्व-आश्रय है, न पराश्रय है क्योंकि इन दोनों में केवल परिश्रम ही परिश्रम है। एक मात्र महत्वपूर्ण सूत्र है- भगवद-आश्रय,केवल वही हमें विश्राम की अवस्था तक ले जा सकता है | हरिः शरणम्, हरिः शरणम्, हरिः शरणम् .............|

प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||