स्मरण से समर्पण
भक्ति का
एक अंग है- स्मरण, जिस पर हमने अभी गत दिनों चर्चा की थी | स्मरण से परमात्मा तक
कैसे पहुंचा जा सकता है, इस नई श्रृंखला में हम जानने का प्रयास करेंगे | गीता में
परमात्मा तक पहुँचने के कई मार्ग जैसे कर्म, ज्ञान, ध्यान, भक्ति आदि बतलाये गए
हैं | जितने भी महापुरुष और संत हुए हैं उन्होंने प्रयोग के तौर पर अपने जीवन में
इन सभी मार्गों पर चल कर देखा है और अंत में उनका एक ही सर्वमान्य निष्कर्ष निकला
कि परमात्मा के प्रति समर्पण कर देना ही सबसे उचित है | बिना परमात्मा को समर्पित
हुए कोई सा भी मार्ग उपयोगी सिद्ध नहीं होता है | परमात्मा को समर्पित होने के लिए
उनके स्मरण का बहुत अधिक महत्त्व है | आज से हम इसी विषय पर चिंतन करेंगे |
मनुष्य शरीर
का सबसे महत्वपूर्ण अंग मस्तिष्क अवश्य है, परन्तु शरीर के शेष अंगों की उपयोगिता से इन्कार नहीं किया
जा सकता । इसी प्रकार कर्म,
ध्यान, ज्ञान और भक्ति
की भी शरणागति में भूमिका रहती है। देखा जाये तो मनुष्य का जीवन विविधताओं से भरा
हुआ है | प्रत्येक व्यक्ति
इस संसार में अपने पूर्व मानव जीवन में किये गये कर्मों के अनुसार संस्कार लेकर
आता है और उन्हीं संस्कारों के अनुरुप कर्म करना प्रारम्भ करता है। संस्कार में
पूर्व मानव जीवन के संचित कर्म तथा ज्ञान सम्मिलित होते हैं। व्यक्ति को इस जीवन
में भक्ति इन्हीं संचित कर्मों और ज्ञान के परिणाम स्वरुप शीघ्र ही उपलब्ध हो सकती
है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि जिस प्रकार शरीर के विकास के लिए सभी अंग आवश्यक
हैं, उसी प्रकार
जीवात्मा के उत्थान के लिए भी कर्म सहित सभी साधन आवश्यक हैं।
ज्ञान और
कर्म, दोनों ही आज के समय में युवा की शक्ति बन गया है | भक्ति से वह दूर होता जा
रहा है | वह नहीं जानता कि भक्ति में अथाह शक्ति भी है | उनकी ज्ञान और कर्म की इस
शक्ति को भक्ति में परिवर्तित करना आवश्यक है | परमात्मा के नाम का स्मरण इसके लिए
सर्वोत्तम साधन है | उन्हें सीधे सीधे परमात्मा के प्रति समर्पण कर देने की अवस्था
में ले जाना कठिन है | इसलिए उपयुक्त यही रहेगा कि ज्ञान और कर्म के मार्ग से होते
हुए उन्हें नाम–स्मरण की अवस्था तक लाया जाये | कल हम इसी बात को आगे बढ़ाएंगे |
आधुनिक युग
तेज गति का युग है | प्रत्येक कोई एक प्रकार की दौड़ में लगा हुआ है और इनमें युवा
सबसे अग्रणी है | कर्म और ज्ञान से पैसा और सम्मान पाने की एक प्रकार से होड़ लगी
हुई है | यह प्रवृति मनुष्य के संस्कार में ही चल और बढ़ रही है | जीवन में कर्मों
का प्रारम्भ भले ही पूर्व जन्म के संस्कारों पर निर्भर करते हों, मानुस योनि की यह विशेषता
अवश्य है कि इसमें व्यक्ति जीवन भर कर्म करने के लिए केवल पूर्व जन्म से मिले
संस्कारों पर ही निर्भर नहीं रहता है बल्कि स्वेच्छा से अपने मन और बुद्धि के
अनुसार कर्म करने को स्वतंत्र है और नए संस्कार का निर्माण करता है । इसी कर्म
करने की स्वतंत्रता के कारण ही संसार चक्र गतिमान है। स्वतंत्रता जब स्वछन्दता और
उच्छृंखलता बन जाती है तो मनुष्य पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। यही स्वतंत्रता जब स्वाधीनता
बन जाती है तो फिर वही मनुष्य उत्थान का मार्ग पकड. लेता है। स्वछंद से स्वाधीन
होने का सर्वोत्तम उदाहरण लुटेरे रत्नाकर से बने महर्षि वाल्मिकी का है, जिन्होंने पतन की ओर जा
रहे अपने जीवन को उत्थान के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा दिया था। यह सब कर्म के
साथ-साथ व्यक्ति के ज्ञान और विवेक पर भी निर्भर करता है। पूर्व मानव जीवन से यही
कर्म और ज्ञान संस्कार बन कर नये जीवन को आलोकित कर सकते हैं। जिस समय यह बात
हमारे भीतर गहराई तक पहुंच कर असर कर जायेगी, हम भी अपने जीवन को प्रगति के मार्ग पर ले जा सकेंगे।
प्रगति और पतन की राशि भले ही एक हो, दोनों में दिन-रात का अन्तर है। इस संसार का मोह ही ऐसा है
कि यहां मनुष्य पतन को ही उत्थान मानने लगा है। वह विकास और विनाश में अंतर नहीं
कर पा रहा है। जब तक इन दोनों के मध्य अंतर को हम समझ नहीं पाएंगे, तब तक इस संसार से हमारा
आवागमन नहीं मिट सकेगा। आवागमन मिटाने के लिए हमें अपने द्वारा निर्मित इस संसार
से मोह और आत्मीयता को त्यागना होगा और अध्यात्म की राह पकड़नी होगी। आज के भ्रमित
युवाओं को स्वयं ही इस बात को जानना और समझना होगा तभी वे सही मार्ग पर चल पाएंगे |
अध्यात्म क्या है ? संसार से अलग हटकर स्वयं को
जानने का नाम ही अध्यात्म है। अध्यात्म की गहराई में उतरने से पहले हमें समझना
होगा कि हमें स्वयं के बारे में कौन जना सकता है ? जीवन का उत्थान क्या है और पतन क्या है ? स्वयं को जान लेने का
क्या अर्थ है ? स्वयं को जानने
(आत्म-ज्ञान) का मार्ग कौन सा है ? आत्म-ज्ञान का परिणाम क्या होगा ? आइए, हम इन सभी प्रश्नों के
उत्तर खोजने का प्रयास करते हैं।
हम स्वयं के
द्वारा ही स्वयं को जान सकते हैं, कोई दूसरा व्यक्ति हमें केवल निर्देशित कर सकता
है, जना नहीं सकता | स्वयं को जान जाना ही जीवन में उत्थान है | सांसारिक पदार्थों
के बारे में जान लेना अपर्याप्त है | स्वयं को न जानकर संसार में उलझ कर रह जाना
ही पतन है | स्वयं को जान लेना ही परमात्मा को जान लेना है | परमात्मा का मार्ग ही
आत्म-ज्ञान का मार्ग है | यही आत्म-ज्ञान है, आत्म-बोध है, परमात्मा को प्राप्त कर
लेना है | मुक्ति भी यही है | आत्म-ज्ञान का परिणाम स्वयं ही परमात्मा हो जाना है |
इस भौतिक
संसार में छोटे से छोटे कण से लेकर दूर स्थित तारों और नक्षत्रों का ज्ञान हममें
से प्रत्येक को है। विडम्बना तो यह है कि हममें से स्वयं का ज्ञान किसी को भी नहीं
है। जिस दिन स्वयं का ज्ञान हो जाएगा, उस दिन हम विस्मित होकर रह जाएंगे। सतही तौर पर हम सभी
जानते हैं कि कौन हैं हम, परन्तु सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। संसार
का आकर्षण हमें अपने साथ इस प्रकार बांधे रखता है कि वह हमें स्वयं को देखने, जानने और समझने का अवसर
ही नहीं देता। आखिर यह संसार है कहां ? प्रायः हम लोग सम्पूर्ण विश्व को ही बांधने वाला संसार
समझते हैं और इसमें आकंठ डूबे रहते हुए भी इसी का मान-मर्दन करने में लगे हुए हैं।
वास्तविकता यह है कि सम्पूर्ण विश्व तो परमात्मा निर्मित है, अतः आलोच्य हो ही नहीं
सकता | इसीलिए समस्त विश्व को अपना परिवार मानकर (वसुधैव कुटुम्बकम्) उसी के
अनुरुप व्यवहार करना तो अध्यात्म की ओर चलने के लिए प्रथम कदम माना जाता है।
आत्म-ज्ञान के लिए प्रारम्भ इसी भावना के साथ होता है कि हम “वासुदेव सर्वम्” का भाव
रखते हुए संसार में स्थित सभी में एक परमात्मा के ही दर्शन करें। सम्पूर्ण संसार
के प्रति यह भावना स्वयं में उत्पन्न करना ही सबसे अधिक मुश्किल है। इसका कारण है
कि सम्पूर्ण विश्व से हम स्व-निर्मित संसार को एकदम अलग मानते हैं।
इतने
बड़े जगत में हमारा अपना संसार कहाँ है ? हमारा अपना संसार है- यह शरीर, परिवार व परिजन, हमारे द्वारा किए जाने वाले विषय-भोग, इकट्ठी की गयी धन-संपदा, अर्जित किया हुआ मान-सम्मान आदि में हमारी
ममता और आसक्ति। इसी आसक्ति के कारण विभिन्न प्रकार की कामनाएं और इच्छाएं हमारे भीतर
मन में जन्म लेती रहती हैं। इन इच्छाओं को पूरा करने के लिए हम स्वार्थपूर्ण
व्यवहार करने लगते हैं। हमारा यह व्यवहार हमें शेष विश्व से अलग-थलग कर देता है और
हम अपने लिए एक अलग संसार का निर्माण कर उसमें सिमट कर रह जाते | इस प्रकार स्वयं
के द्वारा निर्मित यह संसार हमें अपने साथ बांध लेता है और हम हैं कि अपने स्वार्थ
के लिए उसके साथ बंध भी जाते हैं। हमारे द्वारा बनाये गये इस संसार में आसक्ति, कामना, कर्म, विषय-भोग, फिर भोगों में आसक्ति और
कामनाओं का अधिक विस्तार,
इस प्रकार यह
दुष्चक्र कभी टूट नहीं पाता और मनुष्य जीवन भर इससे बाहर निकल नहीं पाता। हैं। इससे
अधिक मनुष्य जीवन की क्या विडंबना हो सकती है कि एक अपरिमेय व्यक्तित्व अपना संसार
बनाकर मापे जाने की स्थिति में परिवर्तित हो जाता है |
यह
संसार बन्धनकारी है और स्वयं को जानने के लिए इस संसार के बन्धन से बाहर निकलना
आवश्यक है। बाहर निकलना कठिन अवश्य है परन्तु असंभव नहीं है | केवल दृढ इच्छा
शक्ति वाला व्यक्ति ही इससे बाहर निकलकर असंभव को संभव बना सकता है | हमें स्वयं
का ज्ञान कैसे हो सकेगा, अब यह प्रश्न
हमारे सामने है। सर्वप्रथम तो हमें यह समझना होगा कि क्या हम स्वयं आत्म-ज्ञान के
लिए तैयार हैं ? मेरे मित्र सदैव
मुझसे पूछते हैं कि स्वयं को जानने के लिए भी क्या किसी प्रकार की कोई तैयारी भी
करनी पड़ती है ? ’बिल्कुल करनी पड़ती है’, प्रत्येक बार उनको मेरा
यही उत्तर होता है। हम अपने संसार में इतने अधिक उलझे हुए हैं कि हमें इस बात का जरा
सा भी एहसास नहीं है कि इस मनुष्य जीवन का क्या उद्देश्य होना चाहिए? जिस संसार से बंध कर हम
सुख का अभी अनुभव कर रहे हैं, देखा जाये तो वास्तव में वहां दुःख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जब तक हम
इस बात को पूर्ण रुप से समझ नहीं लेंगे, तब तक संसार-चक्र से बाहर निकल पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि
असंभव है।
प्रायः
लोग बाग़ इस संसार को दुःखालय मानने की बात से असहमति जताते हैं और कहते हैं कि जब
संसार परमात्मा की ही एक कृति है, तो फिर यह मनुष्य के लिए दुखदाई कैसे हो सकता है ? उनका कहना एकदम सत्य है। कारण
कि उनको स्व-निर्मित संसार से सुख का एक छद्म आभास होता है और साथ ही साथ अधिक सुख
मिलने की अपेक्षा भी रहती है | मैंने कभी नहीं कहा कि यह संसार परमात्मा की कृति
नहीं है। इस संसार को दुःखालय अथवा सुखालय बनाना तो मनुष्य के हाथ में है। हमारी
कामनाएं, इच्छाएं तथा विषय
भोगों के प्रति आसक्ति ही इस संसार को दुःखालय बना देती है। जैसे कुत्ता सूखी
हड्डी चबाता है तो उसके मुख की झिल्ली टूट जाती है और वहां से रक्त स्राव प्रारभ
हो जाता है | कुत्ता समझता है कि यह रक्त-रस उसे उस हड्डी से मिल रहा है जबकि
वास्तविकता इससे भिन्न है |
मनुष्य
अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय श्रम करके छद्म सुख की चाह में व्यर्थ ही गँवा देता
है | सभी विषय-भोग और आसक्तियां कुत्ते को मिली उस सूखी हड्डी के समान है जो आपका
ही शोषण कर रही होती है | मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि वह स्वयं के
मनुष्य होने का उद्देश्य समय रहते समझ नहीं पाता है। एक बार उद्देश्य समझ लेने के
पश्चात् यह संसार ही उसे सुखालय लगने लगेगा क्योंकि तब आप कामनाओं और भोगों में
आसक्ति से परे जा चुके होंगे | यह संसार ही मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है और यही
उत्थान की ओर। अपने जीवन को उत्थान की ओर ले जाना है, तो फिर आसक्ति और भोगों का
त्याग कर अनासक्त होना होगा।
मनुष्य को अपने जीवन का उद्देश्य तभी समझ
में आ सकता है, जब उसे स्वयं का
ज्ञान हो जाए। स्वयं को जान लेना ही आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाना है। आत्म-ज्ञान
के लिए जो प्रक्रिया है, वही प्रक्रिया
परमात्मा को प्राप्त करने की है। आत्म-ज्ञान हो जाने का अर्थ है, स्वयं का परमात्मा हो
जाना।
संत महापुरुष सदैव परमात्मा को प्राप्त करने का
मार्ग ही बतलाते हैं, जिससे मनुष्य को
आत्म-ज्ञान हो जाये। प्रश्न यही पैदा होता है कि सीधे आत्म-ज्ञान का मार्ग भी तो
बतलाया जा सकता है। हां, सीधे भी बताया जा
सकता है परन्तु आत्म-ज्ञान का सीधा मार्ग बतलाने के बाद भी वह मार्ग आज तक
प्रभावकारी सिद्ध नहीं हो सका है। इसका कारण है कि संसार में कोई भी मनुष्य ऐसा
नहीं है, जो स्पष्ट रुप से
यह कह सके कि उसे किसी प्रकार का कोई ज्ञान नहीं है। इस संसार में एक से बढकर एक
ज्ञानी भरे पडे. हैं। यहाँ किसी व्यक्ति को आप जरा अज्ञानी कहकर तो देखिए, आपको इस बात का अनुभव भी हो
जाएगा। अतः किसी को अज्ञानी कहकर आत्म-ज्ञान कराने का प्रयास कदापि न कीजिए | उसे इस बात का अनुभव
कराइए कि इतने कर्म और इतना ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भी आपके जीवन में
रिक्तता क्यों है ?
हाँ,
सभी तथाकथित ज्ञानी बाहर से बड़े ही शांत स्वभाव वाले दिखलाई पड़ते हैं परन्तु भीतर
से वे उतने ही अशांत भी हैं | ज्ञान को उन्होंने भीतर तक उतारकर जिया नहीं है |
ऐसे व्यक्ति यदि ज्ञानी है, कर्मनिष्ठ हैं तो फिर वे अशांत क्यों है ? उन्हें पहले
इस बात का अनुभव कराना आवश्यक है कि जिस ज्ञान को आप ओढ़े घूम रहे हैं, उसको आपने
जिया नहीं है | ज्ञान केवल प्रदर्शन और प्रवचन की वस्तु नहीं है, उसको जीवन में उतारना
पड़ता है, ज्ञान को जीना पड़ता है | जीवन में उतारे बिना ज्ञान शांति को प्राप्त
नहीं करवा सकता | फिर जब वे इस बात से सहमत हो जाये कि हमारा जीवन अशांत है, हमें
शांति चाहिए तब सीधे-सीधे परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग बतलाइए | इस मार्ग के लिए
परमात्मा के नाम-स्मरण से प्रारम्भ कीजिये | नाम–स्मरण से जब थोड़ी शांति मिलेगी तब
उसके जीवन की रिक्तता भी कम होने लगेगी और अन्ततः उसे स्वयं का ज्ञान भी हो जाएगा। तो आइए
! हम भी आत्म-ज्ञान के मार्ग के स्थान पर परमात्मा को पाने के इस मार्ग की ओर चलें, आत्म-ज्ञान तो फिर स्वतः
हो ही जाएगा।
परमात्मा का मार्ग/आत्म-ज्ञान का मार्ग -
परमात्मा
को प्राप्त करने के मार्ग विभिन्न महापुरुषों ने स्व-विवेकानुसार बतलाए हैं। श्री
मद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने इन सभी मार्गों का तुलनात्मक रुप से
विश्लेषण किया है। गीता में भगवान ने जो भी मार्ग बतलाये हैं उनके केंद्र में भले
ही ज्ञान मार्ग हो, अंततः वे भी अर्जुन को शरणागत होने का कह देते हैं | इसका अर्थ
यह नहीं है कि ज्ञान, ध्यान, कर्म आदि अन्य मार्ग महत्वहीन है | शास्त्रों में ‘नेति
नेति’ कहते हुए जिस ओर इंगित किया गया है, वह दिशा ही परमात्मा की ओर जाती है | “यह
भी नहीं, वह भी नहीं” इस बात का अर्थ एक ही है, उस परमात्मा को शब्दों और संकेतों के
माध्यम से नहीं जाना जा सकता |
ज्ञान
अर्जित करने का एक लाभ यह है कि हम कर्म करने में सावधानी बरतने लगते हैं | चूंकि
कर्म ही व्यक्ति को विभिन्न योनियों में भटकाता है इसलिए कर्मों को करने में
सावधानी रखना आवश्यक है | इसी प्रकार ध्यान योग से हमें चंचल मन को नियंत्रित करने
में सहायता मिलती है इसलिए ध्यान-योग भी परिणाम दायक है | फिर भी ये सभी मार्ग
हमें परमात्मा तक जाने की राह अवश्य दिखलाते हैं परन्तु सुगमता से आत्म-ज्ञान नहीं
करा सकते | जब तक आत्म-ज्ञान नहीं हो जाता तब तक परमात्मा की पहिचान भी नहीं हो
पाती | दूसरे शब्दों में कहूँ तो कहा जा सकता है कि आत्म-ज्ञान हो जाना ही
परमात्मा को प्राप्त कर लेना है |
इतने चिंतन
से एक तथ्य बिलकुल स्पष्ट होकर हमारे समक्ष आता है कि आप कितना ही ज्ञान प्राप्त
कर लें, कितने ही कर्म कर लें और चाहे ध्यान अवस्था में कितनी ही ऊंचाई तक पहुँच
जाएँ, एक रिक्तता आपके जीवन में सदैव रहेगी, वह रिक्तता है - परमात्मा का अनुभव न
होना | परमात्मा का अनुभव, बिना आत्म-ज्ञान के नहीं हो सकता और आत्म-ज्ञान
परमात्मा के प्रति समर्पित हुए बिना नहीं हो सकता | दोनों ही बातें एक दूसरे से
सम्बंधित है और एक दूसरे पर निर्भर भी |
ब्रह्मलीन
स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि परमात्मा को प्राप्त करने के जो भी
मार्ग हैं वे सब लौकिक मार्ग है केवल एक भक्ति का मार्ग ही अलौकिक मार्ग है | कर्म,
ज्ञान, ध्यान आदि सभी में कुछ न कुछ करना पड़ता है परन्तु केवल भक्ति ही एक ऐसा मार्ग
है जिसमें कुछ भी नहीं करना पड़ता | आत्म-ज्ञान होना, व्यक्ति का सदैव के लिए
विश्राम की अवस्था में आ जाने का नाम है | जब जीवन भर हम कुछ न कुछ करते ही रहते
हैं तो ऐसे में फिर विश्राम कहाँ ? विश्राम के लिए तो करने के भाव तक का भी त्याग करना
आवश्यक है और सर्वप्रथम परमात्मा को मानना पड़ता है | कहने का अर्थ है कि भक्ति के
बिना आत्म-ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता क्योंकि इसमें कुछ करना नहीं पड़ता | इसलिए
कहा जा सकता है कि भक्ति में ही चिर विश्राम है | भक्ति का प्रारम्भ भले ही कथा और
लीला श्रवण से होता हो परन्तु स्मरण से परमात्मा की ओर आगे चलने का मार्ग पुष्ट
होता है और अंततः परमात्मा के प्रति समर्पण में इसकी परिणिति होती है |
श्रीमद्भागवत महापुराण में भक्त प्रहलाद अपने पिता
हिरण्यकशिपु को भक्ति के नौ भेद बतला रहे हैं-
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् |
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनं ||भगवत-7/5/23||
अर्थात भगवान् की भक्ति के नौ भेद हैं- श्रवण, कीर्तन, रूप-नाम
का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चन, वंदना, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन |
भगवान् की
लीलाओं का श्रवण करने से भक्ति का प्रारम्भ होता है, जो उसके नाम के कीर्तन से
होता हुआ स्मरण तक पहुँचता है | स्मरण का प्रारम्भ उसके रूप और नाम से प्रारम्भ
होता है फिर उनके चरणों की सेवा में परिवर्तित होता है | उस परम की पूजा और अर्चना
करते हुए स्वयं को उनका दास होना कहा जाता है | दास की अवस्था शीघ्र ही सखा भाव
में परिवर्तित हो जाती है | सखा भाव में व्यक्ति परमात्मा को अपना मित्र स्वीकार
करते हुए उनसे अपने सुख-दुःख की प्रत्येक बात को उनके साथ साझा करने लगता है | इसे
ही आत्म-निवेदन कहा जाता है |
भगवान् की लीला कथाओं का श्रवण और नाम संकीर्तन भक्ति की एक प्रारम्भिक
स्थिति है | इसके बाद स्मरण से भक्ति का दृढ होना प्रारम्भ होता है | नाम–स्मरण
भक्ति का आवश्यक अंग है | इस स्थिति में आकर मीरां बाई जैसी महान भक्त भी कहने लगती
है -“मेरो मन राम ही राम रटे” | मन से किया हुआ स्मरण समस्त संसार को भूला देता है
और साधक भगवान् की पूजा अर्चना बड़ी ही तल्लीनता से करता है | पूजा अर्चना करने से समर्पण
की अवस्था का प्रारम्भ होता है जो परमात्मा के चरणों की सेवा, उसकी वंदना, दास्य,
सख्य भाव से होता हुआ आत्म-निवेदन की स्थिति को प्राप्त कर लेता है | इस स्थिति
में आकर मीरां जैसी भक्त अपने भाव प्रकट करते हुए कह उठती है – ‘मेरे तो गिरधर
गोपाल दूजो न कोई“| मीरां बाई की यह अवस्था परमात्मा को पूर्ण समर्पण की अवस्था है
| इसीलिए मीरां बाई को भगवान् का अनन्य-भक्त कहा जाता है | अनन्य यानि पूर्ण
समर्पण अर्थात सब कुछ एक परमात्मा ही अन्य कोई नहीं |
‘स्मरण
से समर्पण’ की यात्रा एक आध्यात्मिक व्यक्ति के जीवन की महत्वपूर्ण यात्रा होती है
| परमात्मा का नाम-स्मरण भले ही प्रारम्भ में जिह्वा के माध्यम से शब्दों के
उच्चारण तक सीमित हो, (जिसे सुमिरन कहा जाता है) परन्तु इससे मन को एकाग्र करने
में बड़ी सहायता मिलती है | हम अपने द्वारा निर्मित संसार में इतने अधिक व्यस्त हो
जाते हैं कि “मैं” कौन हूँ, इसका ज्ञान भी हमें नहीं रहता | हमारा मन हमें स्वय का
परिचय कराने के स्थान पर संसार की ओर ले जाकर उससे परिचय कराता है | संसार से
परिचित होने की कोई कीमत नहीं है जब तक कि उस परिचय से हमारा परमात्मा की ओर चलने
का मार्ग प्रशस्त न हो | नाम-स्मरण से मन का संसार में भटकना धीरे-धीरे कम होता
जाता है और हम स्वयं के भीतर गहरे उतरते हुए स्व-निर्मित संसार से दूर जाते हुए स्वयं
के भीतर की ओर चलने लगते हैं | मन की एकाग्रता हमें हमारे स्वयं के भीतर ले जाती
है और “मैं” कौन हूँ, इसका ज्ञान कराती है | “मैं” का ज्ञान हो जाने पर ही “मैं” और
स्व-निर्मित संसार दोनों की समाप्ति हो जाती है और केवल एक परमात्मा ही शेष रह
जाते हैं | ‘मैं’ और मेरे-पन का लोप हो जाना ही आत्म-बोध हो जाना है | यह पूर्ण समर्पण
की अवस्था है |
सांसारिक भटकाव हमें स्वयं के भीतर प्रवेश ही
नहीं करने देता जिससे स्वयं से परिचित होने का अवसर ही नहीं मिल पाता | सांसारिक
गतिविधियों से दूर होने के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है | मन संसार में भटकता है
और हम मन के पिछलग्गू होकर उसके साथ भटकते रहते हैं | वास्तव में देखा जाये तो मन
को ही हम अपना स्वरुप समझ बैठे हैं और मन को ही “मैं” होना मानते हैं | हमें इस
बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि मन संसार में भटकता है, हम नहीं भटकते | हम तो
स्वयं को मन समझकर उसके भटकने को अपना भटकना मान बैठे हैं | दूसरे शब्दों में कहूँ
तो यह मन ही “मैं” है जबकि हम स्वयं परमात्मा हैं | नाम स्मरण हमें परमात्मा के वास्तविक
स्वरुप का चिंतन कराता है | चिंतन का प्रभाव हमें स्वयं के ऊपर पड़ता परिलक्षित भी होता
है और तब हम अनुभव कर सकते हैं कि हमारा यह संसार मात्र माया है, भ्रम है | इतने
दिन तक हम भ्रम को ही सत्य समझ रहे थे | इस बात का अनुभव होते ही परमात्मा से
प्रेम बढ़ने लगता है |
स्व का
ज्ञान होने से पहले तक हम संसार से प्रेम कर रहे थे | नाम-स्मरण ने हमारे प्रेम की
दिशा को परिवर्तित कर दिया | हमें स्मरण से अनुभव होता है कि जो आनंद परमात्मा से
प्रेम करने में है, वह संसार से प्रेम करने में कहाँ ? संसार से प्रेम करना दुःख
को निमंत्रण देना है | परमात्मा का स्मरण हमें संसार की आसक्ति से मुक्त करता है |
संसार में आसक्ति रखना ही दुःख का कारण है | स्मरण करते हुए जो भी कर्म किये जाते
हैं, उनका हमें फल नहीं मिलता क्योंकि स्मरण की अवधि में किये जाने वाले कर्म आसक्ति
के कारण नहीं किये जाते बल्कि परमात्मा के लिए किये जाते हैं, संसार की सेवा के
लिए किये जाते हैं | इसीलिए भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि तू सदैव मेरा
स्मरण कर और युद्ध भी कर |
इस
प्रकार हमने स्मरण से समर्पण तक की यात्रा के बारे में चिंतन किया | परमात्मा का स्मरण
जब मन का एक मात्र गहन भाव बन जाता है, तभी समर्पण हो सकता है अन्यथा नहीं | केवल ज्ञान–योग
और कर्म-योग से जब व्यक्ति को परमात्मा का अनुभव नहीं होता है तब उसे लगता है कि कि
समस्त ज्ञान और कर्म व्यर्थ है, केवल एक परमात्मा की भक्ति ही सार्थक हैं तब उसकी यात्रा
की दिशा परिवर्तित होती है | जिस दिन ऐसी अवस्था को व्यक्ति प्राप्त होता है, उसी
दिन से परमात्मा का स्मरण प्रारम्भ होता है जो कि ह्रदय और मन की गहराइयों से किया
जाता है | ज्ञान और कर्म मार्ग से भक्ति मार्ग पर आ जाने का कारण यह है कि ज्ञान
और कर्म के सब साधन करके देख लिए, आत्म-ज्ञान नहीं हुआ | अब एक मात्र परमात्मा के
नाम का स्मरण करते हुए उस तक पहुँचने का प्रयास किया जाना शेष बचा है |
ज्ञान और
कर्म मार्ग से आत्म-बोध क्यों नहीं हो सकता ? स्वयं के ज्ञानी होने का तथा कर्मों
में कर्तापन का अहंकार न हो तो आत्म ज्ञान इन दोनों मार्गों से होना भी संभव है |
स्वयं को ज्ञानी मानना और कर्म में कर्ताभाव रखना, इन दोनों से व्यक्ति में अहंकार
पैदा होता है | जब अहंकार टूटता है तभी व्यक्ति का मोह भंग होता है | अहंकार के
गिर जाने पर व्यक्ति सोचता है कि स्वार्थपूर्ति के लिए प्राप्त किये जाने वाला ज्ञान
और किये जाने वाले कर्म दोनों ही व्यर्थ हैं | मोह भंग होते ही व्यक्ति दूसरी राह
की खोज करता है और वह सुगम राह जो उसी मिलती है, वह है नाम-सुमिरन | नाम-सुमिरन से
प्रारम्भ कर वह उसे स्मरण में परिवर्तित करता है और अंत में स्वयं को परमात्मा को
समर्पित कर देता है | ऐसे ज्ञान और कर्म मार्गी साधक को परमात्मा के प्रति समर्पण की
अवस्था तत्काल ही उपलब्ध हो जाती है |
अर्जुन को भी अपनी वीरता और ज्ञान पर अभिमान था |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान, कर्म, ध्यान और स्मरण (भक्ति) मार्ग का
साधन स्पष्ट करने के बाद भी जब देखते हैं कि अर्जुन की दुविधा अभी तक समाप्त नहीं हुई
है तो वे सीधे स्पष्ट रूप से समर्पण की बात पर आ जाते हैं | वे कहते हैं-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामकं शरणं व्रज |
अहं त्वा
सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||गीता-18/66||
अर्थात सम्पूर्ण धर्मों अर्थात कर्तव्य कर्मों को मुझ में
त्यागकर तू केवल मेरी शरण में आ जा | तू शोक मत कर, मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से
मुक्त कर दूंगा |
परमात्मा की शरण में जाना उनके प्रति पूर्णरूपेण
समर्पित हो जाना है | अर्जुन न ज्ञान से संतुष्ट हुआ न कर्म और ध्यान से इसलिए
समर्पण के अतिरिक्त उसके सामने कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था | ज्ञान और कर्म मार्ग
से समर्पण की अवस्था तक पहुँचना एक कठिन और लम्बी यात्रा है | जो इतने कठिन मार्ग
से होकर गुजरना नहीं चाहता वह पहले ही सीधे-सीधे ही परमात्मा को समर्पित हो सकता
है | यह शरणागति का मार्ग है | सबसे सुगम पथ है यह, जहाँ पहुँचने से पहले न कुछ
करना पड़ता है और न ही जानना पड़ता है | इधर एक हम जो कि भीतर ज्ञान लेकर कुछ करने
को आतुर बैठे हैं, वे अभी तक यह भी नहीं जानते कि समर्पण का अर्थ क्या है, मंतव्य क्या
है ? तो चलिए, अब समर्पण की थोड़ी चर्चा कर लेते हैं |
समर्पण –
अपने आपको मन बुद्धि से पूर्णरूपेण किसी को, जिस
पर आपकी पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो, बिना किसी तर्क और संदेह के स्वार्थरहित
होकर सौंप देना ही समर्पण है | एक कन्या विवाह के उपरांत अपना परिवार त्यागकर अपने
पति को ही सब कुछ मानने लग जाती है, यही उस कन्या का अपने पति के प्रति समर्पण है |
पति-पत्नी के जीवन में तर्क, संदेह, कपट आदि का कोई स्थान नहीं होता | तुलसीदासजी रचित
रामचरित मानस में भगवान् श्री राम कहते हैं-
निर्मल मन जन सो
मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा || मानस-5/44/5 ||
बिना किसी
तर्क और संदेह के मन और बुद्धि के साथ स्वयं का परमात्मा को समर्पण ही शरणागति है |
ऐसा समर्पण मीरां बाई ने किया था-“मेरे तो गिरधर गोपाल दूजो न कोई”, राजा जनक ने
अष्टावक्र मुनि के समक्ष किया था, द्रोपदी ने श्री कृष्ण के समक्ष किया था; कहाँ
तक गिनाऊ, एक लम्बी सूची बन सकती है | इनमें से किसी एक ने भी समर्पित होने से
पहले अपनी तर्क बुद्धि का सहारा नहीं लिया | किसी का भी कोई स्वार्थ नहीं था,
समर्पण में | तभी तो मीरां को श्री कृष्ण मिले, राजा जनक को ज्ञान प्राप्त हुआ और
द्रोपदी की लाज बची |
नदी के तेज
प्रवाह में बहते हुए डूबने से बचने के लिए व्यक्ति अपने हाथ-पैर मारता है, बहुत संघर्ष
करता है फिर भी वह डूबने से बच नहीं पाता | जो व्यक्ति डूबने से बचने के लिए संघर्ष
करना छोड़ कर अपने हाथ-पैर ढीले छोड़ कर समर्पण कर देता है, वही किनारे लग सकता है |
उसका जल को समर्पण ही उसे डूबने से बचा लेता है | डूबने से बचने के लिए व्यक्ति को
स्वयं ही नदी हो जाना पड़ता है | इसी प्रकार संसार सागर में डूबने से बचकर पार हो
जाने के लिए ज्ञान और कर्म के माध्यम से संघर्ष करना छोड़ परमात्मा के प्रति
समर्पित होना ही उचित और श्रेष्ठ मार्ग है | यह समर्पण ही हमें आत्म-ज्ञान कराता
है कि इस “मैं” को परमात्मा में मिला दो, दोनों अलग अलग न होकर एक ही हैं |
समर्पण
सदैव भीतर से होता है, अंतर्मन से होता है | समर्पण केवल बाहर बाहर का यानि केवल
दिखावे का हो नहीं सकता | अगर कोई बाहर से उपरी तौर पर समर्पण करता है, तो यह उसका
अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए किया गया दिखावा मात्र है, समर्पण नहीं है | जिसके
समक्ष समर्पण किया गया है वह और जिसने समर्पण किया है, दोनों एक हो जाते हैं | आप
कहेंगे कि हम तो अपने गुरु के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हैं और गुरु बाहर दिखाई भी
पड़ रहे है अर्थात गुरु अलग है और हम अलग | जब तक शिष्य पूर्ण रूप से गुरु को
समर्पित नहीं होगा, तब तक गुरु बाहर ही हैं और बाहर ही रहेंगे | अगर समर्पण के बाद
भी गुरु बाहर रहता है तो हमारे समर्पण में ही कोई कमी है अन्यथा समर्पण होते ही तो
गुरु भी भीतर प्रवेश कर ज्ञान रूप में दिखलाई पड़ने लगता है | यही कारण है कि गुरु
को परमात्मा कहा गया है | कबीर कहते भी हैं –
गुरु गोविन्द
दोउ खड़े, काकू लागे पांय |
बलिहारी गुरु
आपने, गोविन्द दियो बताय ||
ज्ञान देने
के लिए गुरु ज्ञान बनकर आपके भीतर प्रवेश कर जाते हैं और भीतर पहले से ही परमात्मा
भी हैं | इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति के बाद गुरु और आप दोनों ही परमात्मा हो जाते
हो | यही गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण का परिणाम है |
इसी
प्रकार समर्पण प्रेम का आधार भी है | बाहर बाहर का प्रेम करना प्रेम नहीं है, वह
वासना है | प्रेम तो भीतर की घटना है, जिसमें प्रेमी कैसा भी व्यवहार करे प्रेम
कभी मिट नहीं सकता | पूर्ण समर्पण का भाव ही प्रेम को भीतर प्रस्फुटित करता है |
गुरु जब परमात्मा का ज्ञान उपलब्ध कराता है तब सारा संसार ही परमात्मामय हो जाता
है | फिर भीतर जो प्रेम का झरना बहना प्रारम्भ होता है, वह अनवरत बहता रहता है |
ऐसी
अवस्था में समर्पण होते ही भीतर स्मरण प्रारम्भ हो जाता है अर्थात पहले समर्पण,
फिर स्मरण | जब आप परमात्मा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाते हो तब आपके भीतर
उसका अनवरत स्मरण चलता रहता है | स्मरण अर्थात कभी भी विस्मृत न होने देना | ऐसी
अवस्था में भीतर दिन रात उस परमात्मा के नाम का स्मरण चलता रहता है | उठे तो राम
सोये तो राम, चले तो राम, बैठे तो राम, खाए तो राम, बस केवल राम ही राम, राम के
अतिरिक्त और कुछ भी नहीं | सारा संसार ही राममय हो जाता है | ऐसी स्थिति में भय
नाम की कोई चीज नहीं रह जाती | जहाँ राम है वहां भय कहाँ ? भय मुक्त हो जाना ही,
शांति की प्राप्ति करवाता है | पहले समर्पण और बाद में सतत स्मरण, यह सर्वाधिक
सुगम मार्ग है |
हरिः
शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा समर्पण के बारे
में एक बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त देते हैं | वे कहते हैं कि हमें अपने जीवन में बिल्ली
के बच्चे की तरह व्यवहार करना चाहिए | बिल्ली का बच्चा जिस प्रकार पूर्ण रूप से
अपनी मां पर निर्भर रहता है, स्वयं की ओर से किसी भी प्रकार का प्रयास नहीं करता
वैसे ही हमें भी परमात्मा पर पूर्ण विश्वास रखते हुए स्वयं को पूर्ण रूप से उन्हें
समर्पित कर देना चाहिए | बिल्ली के बच्चे का बिल्ली पूरा ध्यान रखती है क्योंकि
उसने सब कुछ अपनी मां पर छोड़ रखा है | एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए वह
कुछ नहीं करता | उसकी मां ही उसे मुंह में दबाकर, उसे बिना किसी प्रकार की हानि
पहुंचाए उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर सुरक्षित ले जाती है | कुछ भी हो, वह तो
केवल अपनी मां को समर्पित हुए दिन रात उसी का स्मरण करता रहता है | यह बिल्ली के
बच्चे वाला मार्ग ऐसा है, जिसमें पहले समर्पण है और फिर सतत स्मरण |
आचार्यजी
इसके बाद दूसरा उदाहरण बन्दर के बच्चे का देते हैं, जिसमें पहले स्मरण है और बाद
में समर्पण | बन्दर का बच्चा अपनी मां को कभी भी विस्मृत नहीं करता | वह सदैव मां
के पास रहते हुए खेलता रहता है | जब मां उससे दूर जाने लगती है तब वह दौड़ कर मां
की छाती से चिपट जाता है और कसकर उसे पकड़ लेता है | इस स्थिति में बन्दर के बच्चे को
स्वयं पर भरोसा है अतः मां उसकी चिंता कम करती है क्योंकि वह जानती है कि बच्चा
स्वयं ही उसे ढूंढ लेगा | बन्दर के बच्चे के लिए मां का स्मरण पहले है और समर्पण
बाद में |
बिल्ली
और बन्दर के बच्चे के उदाहरण से स्पष्ट है कि समर्पण का भाव दोनों ही बच्चों में
है | बिल्ली का बच्चा प्रारम्भ से ही समर्पित है और बैठे बैठे केवल मां का स्मरण
करता रहता है जबकि बन्दर के बच्चे को स्वयं के कर्म और ज्ञान पर विश्वास है | वह
मां का स्मरण तो सदैव करता है परन्तु समर्पण की अवस्था को बाद में प्राप्त होता है
|
हमारा
शरीर पदार्थ है जिससे नाम सुमिरन की क्रिया की जाती है | नाम-सुमिरन स्मरण में
बदलता है, जब यही सुमिरन भीतर की गहराइयों में अपनी जड़ें जमा लेता है | फिर जिसके
नाम का सुमिरन किया जाता है, वह स्मरण में बदल कर कभी विस्मृत नहीं होता | सुमिरन
की क्रिया स्मरण होकर भाव बन जाती है | धीरे-धीरे स्मरण की प्रगाढ़ता इतनी अधिक बढ़
जाती है कि जिसका स्मरण चल रहा होता है, हम उसी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो
जाते हैं | समर्पण ही हमारे जीवन का उद्देश्य है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि पदार्थ
(शरीर) से क्रिया (नाम-सुमिरन) का महत्व अधिक है | क्रिया से भाव अर्थात स्मरण अधिक
महत्वपूर्ण है | परन्तु जीवन का उद्देश्य अर्थात परमात्मा के शरणागत हो जाना सबसे
महत्वपूर्ण है | समर्पण के बाद न तो किसी प्रकार की क्रिया/कर्म करने की आवश्यकता
है और न ही किसी प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने की | तभी कबीर ने कहा है –
जप तप
संयम साधना, सब सुमिरण के मांहि |
कहे कबीर सुनो
भइ साधो, सुमिरण सम कछु नाहिं ||
जप, तप, संयम,
साधना आदि सभी कर्म और ज्ञान मार्ग से सम्बन्ध रखते हैं | कबीर अनपढ़ जुलाहे थे | कहने
को तो उनके गुरु रामानंद थे परन्तु वास्तविकता है कि उन्होने कहीं से भी विधिपूर्वक किसी भी प्रकार का ज्ञान
प्राप्त नहीं किया और जो कुछ ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ वह सब परमात्मा के प्रति
पूर्ण समर्पित होने से ही हुआ | स्वाभाविक कर्म करते हुए स्मरण उनके भीतर सदैव
चलता रहता था तभी तो उनकी वाणी से ज्ञान की बातें झरने लगी थी | अतः कहा जा सकता
है कि परमात्मा के प्रति समर्पण कभी निष्फल नहीं होता |
सारांश
यह है कि स्मरण और समर्पण दोनों एक दूसरे से सम्बंधित है | कैसे भी हो, स्मरण से पहले
अथवा बाद में, अंततः समर्पण होता ही है | भक्ति की पराकाष्ठा समर्पण ही है चाहे आप
ज्ञान मार्ग से पहुँचो अथवा कर्म मार्ग से या ध्यान मार्ग से | इस श्रृंखला को
समाप्त करते हुए अंत में मैं केवल दो ही शब्द कहना चाहूँगा, जैसे कि सदैव ही कहता
हूँ - “हरिः शरणम्“, सदैव हरि की शरण में रहो और उसका स्मरण करते रहो |
प्रायः सभी
सन्तो ने ज्ञान और कर्म मार्ग पर भक्ति मार्ग को वरीयता दी है, कारण चाहे जो कुछ
भी रहा हो | ज्ञान, ध्यान, कर्म, सहज आदि मार्गों पर चलने से मुक्ति को उपलब्ध हुआ
जा सकता है अथवा नहीं, कह नहीं सकते, परन्तु यह सत्य है कि केवल अकेली भक्ति से
मुक्ति को अवश्य प्राप्त किया जा सकता है |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||