Tuesday, August 25, 2020

स्मरण से समर्पण

स्मरण से समर्पण  

          भक्ति का एक अंग है- स्मरण, जिस पर हमने अभी गत दिनों चर्चा की थी | स्मरण से परमात्मा तक कैसे पहुंचा जा सकता है, इस नई श्रृंखला में हम जानने का प्रयास करेंगे | गीता में परमात्मा तक पहुँचने के कई मार्ग जैसे कर्म, ज्ञान, ध्यान, भक्ति आदि बतलाये गए हैं | जितने भी महापुरुष और संत हुए हैं उन्होंने प्रयोग के तौर पर अपने जीवन में इन सभी मार्गों पर चल कर देखा है और अंत में उनका एक ही सर्वमान्य निष्कर्ष निकला कि परमात्मा के प्रति समर्पण कर देना ही सबसे उचित है | बिना परमात्मा को समर्पित हुए कोई सा भी मार्ग उपयोगी सिद्ध नहीं होता है | परमात्मा को समर्पित होने के लिए उनके स्मरण का बहुत अधिक महत्त्व है | आज से हम इसी विषय पर चिंतन करेंगे |

       मनुष्य शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग मस्तिष्क अवश्य है, परन्तु शरीर के शेष अंगों की उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार कर्म, ध्यान, ज्ञान और भक्ति की भी शरणागति में भूमिका रहती है। देखा जाये तो मनुष्य का जीवन विविधताओं से भरा हुआ है | प्रत्येक व्यक्ति इस संसार में अपने पूर्व मानव जीवन में किये गये कर्मों के अनुसार संस्कार लेकर आता है और उन्हीं संस्कारों के अनुरुप कर्म करना प्रारम्भ करता है। संस्कार में पूर्व मानव जीवन के संचित कर्म तथा ज्ञान सम्मिलित होते हैं। व्यक्ति को इस जीवन में भक्ति इन्हीं संचित कर्मों और ज्ञान के परिणाम स्वरुप शीघ्र ही उपलब्ध हो सकती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि जिस प्रकार शरीर के विकास के लिए सभी अंग आवश्यक हैं, उसी प्रकार जीवात्मा के उत्थान के लिए भी कर्म सहित सभी साधन आवश्यक हैं।

          ज्ञान और कर्म, दोनों ही आज के समय में युवा की शक्ति बन गया है | भक्ति से वह दूर होता जा रहा है | वह नहीं जानता कि भक्ति में अथाह शक्ति भी है | उनकी ज्ञान और कर्म की इस शक्ति को भक्ति में परिवर्तित करना आवश्यक है | परमात्मा के नाम का स्मरण इसके लिए सर्वोत्तम साधन है | उन्हें सीधे सीधे परमात्मा के प्रति समर्पण कर देने की अवस्था में ले जाना कठिन है | इसलिए उपयुक्त यही रहेगा कि ज्ञान और कर्म के मार्ग से होते हुए उन्हें नाम–स्मरण की अवस्था तक लाया जाये | कल हम इसी बात को आगे बढ़ाएंगे |  

         आधुनिक युग तेज गति का युग है | प्रत्येक कोई एक प्रकार की दौड़ में लगा हुआ है और इनमें युवा सबसे अग्रणी है | कर्म और ज्ञान से पैसा और सम्मान पाने की एक प्रकार से होड़ लगी हुई है | यह प्रवृति मनुष्य के संस्कार में ही चल और बढ़ रही है | जीवन में कर्मों का प्रारम्भ भले ही पूर्व जन्म के संस्कारों पर निर्भर करते हों, मानुस योनि की यह विशेषता अवश्य है कि इसमें व्यक्ति जीवन भर कर्म करने के लिए केवल पूर्व जन्म से मिले संस्कारों पर ही निर्भर नहीं रहता है बल्कि स्वेच्छा से अपने मन और बुद्धि के अनुसार कर्म करने को स्वतंत्र है और नए संस्कार का निर्माण करता है । इसी कर्म करने की स्वतंत्रता के कारण ही संसार चक्र गतिमान है। स्वतंत्रता जब स्वछन्दता और उच्छृंखलता बन जाती है तो मनुष्य पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। यही स्वतंत्रता जब स्वाधीनता बन जाती है तो फिर वही मनुष्य उत्थान का मार्ग पकड. लेता है। स्वछंद से स्वाधीन होने का सर्वोत्तम उदाहरण लुटेरे रत्नाकर से बने महर्षि वाल्मिकी का है, जिन्होंने पतन की ओर जा रहे अपने जीवन को उत्थान के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा दिया था। यह सब कर्म के साथ-साथ व्यक्ति के ज्ञान और विवेक पर भी निर्भर करता है। पूर्व मानव जीवन से यही कर्म और ज्ञान संस्कार बन कर नये जीवन को आलोकित कर सकते हैं। जिस समय यह बात हमारे भीतर गहराई तक पहुंच कर असर कर जायेगी, हम भी अपने जीवन को प्रगति के मार्ग पर ले जा सकेंगे।

                  प्रगति और पतन की राशि भले ही एक हो, दोनों में दिन-रात का अन्तर है। इस संसार का मोह ही ऐसा है कि यहां मनुष्य पतन को ही उत्थान मानने लगा है। वह विकास और विनाश में अंतर नहीं कर पा रहा है। जब तक इन दोनों के मध्य अंतर को हम समझ नहीं पाएंगे, तब तक इस संसार से हमारा आवागमन नहीं मिट सकेगा। आवागमन मिटाने के लिए हमें अपने द्वारा निर्मित इस संसार से मोह और आत्मीयता को त्यागना होगा और अध्यात्म की राह पकड़नी होगी। आज के भ्रमित युवाओं को स्वयं ही इस बात को जानना और समझना होगा तभी वे सही मार्ग पर चल पाएंगे |

           अध्यात्म क्या है ? संसार से अलग हटकर स्वयं को जानने का नाम ही अध्यात्म है। अध्यात्म की गहराई में उतरने से पहले हमें समझना होगा कि हमें स्वयं के बारे में कौन जना सकता है ? जीवन का उत्थान क्या है और पतन क्या है ? स्वयं को जान लेने का क्या अर्थ है ? स्वयं को जानने (आत्म-ज्ञान) का मार्ग कौन सा है ? आत्म-ज्ञान का परिणाम क्या होगा ? आइए, हम इन सभी प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करते हैं।

      हम स्वयं के द्वारा ही स्वयं को जान सकते हैं, कोई दूसरा व्यक्ति हमें केवल निर्देशित कर सकता है, जना नहीं सकता | स्वयं को जान जाना ही जीवन में उत्थान है | सांसारिक पदार्थों के बारे में जान लेना अपर्याप्त है | स्वयं को न जानकर संसार में उलझ कर रह जाना ही पतन है | स्वयं को जान लेना ही परमात्मा को जान लेना है | परमात्मा का मार्ग ही आत्म-ज्ञान का मार्ग है | यही आत्म-ज्ञान है, आत्म-बोध है, परमात्मा को प्राप्त कर लेना है | मुक्ति भी यही है | आत्म-ज्ञान का परिणाम स्वयं ही परमात्मा हो जाना है |

        इस भौतिक संसार में छोटे से छोटे कण से लेकर दूर स्थित तारों और नक्षत्रों का ज्ञान हममें से प्रत्येक को है। विडम्बना तो यह है कि हममें से स्वयं का ज्ञान किसी को भी नहीं है। जिस दिन स्वयं का ज्ञान हो जाएगा, उस दिन हम विस्मित होकर रह जाएंगे। सतही तौर पर हम सभी जानते हैं कि कौन हैं हम, परन्तु सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। संसार का आकर्षण हमें अपने साथ इस प्रकार बांधे रखता है कि वह हमें स्वयं को देखने, जानने और समझने का अवसर ही नहीं देता। आखिर यह संसार है कहां ? प्रायः हम लोग सम्पूर्ण विश्व को ही बांधने वाला संसार समझते हैं और इसमें आकंठ डूबे रहते हुए भी इसी का मान-मर्दन करने में लगे हुए हैं। वास्तविकता यह है कि सम्पूर्ण विश्व तो परमात्मा निर्मित है, अतः आलोच्य हो ही नहीं सकता | इसीलिए समस्त विश्व को अपना परिवार मानकर (वसुधैव कुटुम्बकम्) उसी के अनुरुप व्यवहार करना तो अध्यात्म की ओर चलने के लिए प्रथम कदम माना जाता है। आत्म-ज्ञान के लिए प्रारम्भ इसी भावना के साथ होता है कि हम “वासुदेव सर्वम्” का भाव रखते हुए संसार में स्थित सभी में एक परमात्मा के ही दर्शन करें। सम्पूर्ण संसार के प्रति यह भावना स्वयं में उत्पन्न करना ही सबसे अधिक मुश्किल है। इसका कारण है कि सम्पूर्ण विश्व से हम स्व-निर्मित संसार को एकदम अलग मानते हैं।

              इतने बड़े जगत में हमारा अपना संसार कहाँ है ? हमारा अपना संसार है- यह शरीर, परिवार व परिजन, हमारे द्वारा किए जाने वाले विषय-भोग, इकट्ठी की गयी धन-संपदा, अर्जित किया हुआ मान-सम्मान आदि में हमारी ममता और आसक्ति। इसी आसक्ति के कारण विभिन्न प्रकार की कामनाएं और इच्छाएं हमारे भीतर मन में जन्म लेती रहती हैं। इन इच्छाओं को पूरा करने के लिए हम स्वार्थपूर्ण व्यवहार करने लगते हैं। हमारा यह व्यवहार हमें शेष विश्व से अलग-थलग कर देता है और हम अपने लिए एक अलग संसार का निर्माण कर उसमें सिमट कर रह जाते | इस प्रकार स्वयं के द्वारा निर्मित यह संसार हमें अपने साथ बांध लेता है और हम हैं कि अपने स्वार्थ के लिए उसके साथ बंध भी जाते हैं। हमारे द्वारा बनाये गये इस संसार में आसक्ति, कामना, कर्म, विषय-भोग, फिर भोगों में आसक्ति और कामनाओं का अधिक विस्तार, इस प्रकार यह दुष्चक्र कभी टूट नहीं पाता और मनुष्य जीवन भर इससे बाहर निकल नहीं पाता। हैं। इससे अधिक मनुष्य जीवन की क्या विडंबना हो सकती है कि एक अपरिमेय व्यक्तित्व अपना संसार बनाकर मापे जाने की स्थिति में परिवर्तित हो जाता है |

              यह संसार बन्धनकारी है और स्वयं को जानने के लिए इस संसार के बन्धन से बाहर निकलना आवश्यक है। बाहर निकलना कठिन अवश्य है परन्तु असंभव नहीं है | केवल दृढ इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति ही इससे बाहर निकलकर असंभव को संभव बना सकता है | हमें स्वयं का ज्ञान कैसे हो सकेगा, अब यह प्रश्न हमारे सामने है। सर्वप्रथम तो हमें यह समझना होगा कि क्या हम स्वयं आत्म-ज्ञान के लिए तैयार हैं ? मेरे मित्र सदैव मुझसे पूछते हैं कि स्वयं को जानने के लिए भी क्या किसी प्रकार की कोई तैयारी भी करनी पड़ती है ?  बिल्कुल करनी पड़ती है’, प्रत्येक बार उनको मेरा यही उत्तर होता है। हम अपने संसार में इतने अधिक उलझे हुए हैं कि हमें इस बात का जरा सा भी एहसास नहीं है कि इस मनुष्य जीवन का क्या उद्देश्य होना चाहिए? जिस संसार से बंध कर हम सुख का अभी अनुभव कर रहे हैं, देखा जाये तो वास्तव में वहां दुःख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जब तक हम इस बात को पूर्ण रुप से समझ नहीं लेंगे, तब तक संसार-चक्र से बाहर निकल पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है।  

                 प्रायः लोग बाग़ इस संसार को दुःखालय मानने की बात से असहमति जताते हैं और कहते हैं कि जब संसार परमात्मा की ही एक कृति है, तो फिर यह मनुष्य के लिए दुखदाई कैसे हो सकता है ? उनका कहना एकदम सत्य है। कारण कि उनको स्व-निर्मित संसार से सुख का एक छद्म आभास होता है और साथ ही साथ अधिक सुख मिलने की अपेक्षा भी रहती है | मैंने कभी नहीं कहा कि यह संसार परमात्मा की कृति नहीं है। इस संसार को दुःखालय अथवा सुखालय बनाना तो मनुष्य के हाथ में है। हमारी कामनाएं, इच्छाएं तथा विषय भोगों के प्रति आसक्ति ही इस संसार को दुःखालय बना देती है। जैसे कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है तो उसके मुख की झिल्ली टूट जाती है और वहां से रक्त स्राव प्रारभ हो जाता है | कुत्ता समझता है कि यह रक्त-रस उसे उस हड्डी से मिल रहा है जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है |

           मनुष्य अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय श्रम करके छद्म सुख की चाह में व्यर्थ ही गँवा देता है | सभी विषय-भोग और आसक्तियां कुत्ते को मिली उस सूखी हड्डी के समान है जो आपका ही शोषण कर रही होती है | मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि वह स्वयं के मनुष्य होने का उद्देश्य समय रहते समझ नहीं पाता है। एक बार उद्देश्य समझ लेने के पश्चात् यह संसार ही उसे सुखालय लगने लगेगा क्योंकि तब आप कामनाओं और भोगों में आसक्ति से परे जा चुके होंगे | यह संसार ही मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है और यही उत्थान की ओर। अपने जीवन को उत्थान की ओर ले जाना है, तो फिर आसक्ति और भोगों का त्याग कर अनासक्त होना होगा।                          

         मनुष्य को अपने जीवन का उद्देश्य तभी समझ में आ सकता है, जब उसे स्वयं का ज्ञान हो जाए। स्वयं को जान लेना ही आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाना है। आत्म-ज्ञान के लिए जो प्रक्रिया है, वही प्रक्रिया परमात्मा को प्राप्त करने की है। आत्म-ज्ञान हो जाने का अर्थ है, स्वयं का परमात्मा हो जाना।  

            संत महापुरुष सदैव परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग ही बतलाते हैं, जिससे मनुष्य को आत्म-ज्ञान हो जाये। प्रश्न यही पैदा होता है कि सीधे आत्म-ज्ञान का मार्ग भी तो बतलाया जा सकता है। हां, सीधे भी बताया जा सकता है परन्तु आत्म-ज्ञान का सीधा मार्ग बतलाने के बाद भी वह मार्ग आज तक प्रभावकारी सिद्ध नहीं हो सका है। इसका कारण है कि संसार में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो स्पष्ट रुप से यह कह सके कि उसे किसी प्रकार का कोई ज्ञान नहीं है। इस संसार में एक से बढकर एक ज्ञानी भरे पडे. हैं। यहाँ किसी व्यक्ति को आप जरा अज्ञानी कहकर तो देखिए, आपको इस बात का अनुभव भी हो जाएगा। अतः किसी को अज्ञानी कहकर आत्म-ज्ञान कराने का प्रयास कदापि न कीजिए | उसे इस बात का अनुभव कराइए कि इतने कर्म और इतना ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भी आपके जीवन में रिक्तता क्यों है ?

            हाँ, सभी तथाकथित ज्ञानी बाहर से बड़े ही शांत स्वभाव वाले दिखलाई पड़ते हैं परन्तु भीतर से वे उतने ही अशांत भी हैं | ज्ञान को उन्होंने भीतर तक उतारकर जिया नहीं है | ऐसे व्यक्ति यदि ज्ञानी है, कर्मनिष्ठ हैं तो फिर वे अशांत क्यों है ? उन्हें पहले इस बात का अनुभव कराना आवश्यक है कि जिस ज्ञान को आप ओढ़े घूम रहे हैं, उसको आपने जिया नहीं है | ज्ञान केवल प्रदर्शन और प्रवचन की वस्तु नहीं है, उसको जीवन में उतारना पड़ता है, ज्ञान को जीना पड़ता है | जीवन में उतारे बिना ज्ञान शांति को प्राप्त नहीं करवा सकता | फिर जब वे इस बात से सहमत हो जाये कि हमारा जीवन अशांत है, हमें शांति चाहिए तब सीधे-सीधे परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग बतलाइए | इस मार्ग के लिए परमात्मा के नाम-स्मरण से प्रारम्भ कीजिये | नाम–स्मरण से जब थोड़ी शांति मिलेगी तब उसके जीवन की रिक्तता भी कम होने लगेगी और अन्ततः उसे स्वयं का ज्ञान भी हो जाएगा। तो आइए ! हम भी आत्म-ज्ञान के मार्ग के स्थान पर परमात्मा को पाने के इस मार्ग की ओर चलें, आत्म-ज्ञान तो फिर स्वतः हो ही जाएगा। 

परमात्मा का मार्ग/आत्म-ज्ञान का मार्ग -  

           परमात्मा को प्राप्त करने के मार्ग विभिन्न महापुरुषों ने स्व-विवेकानुसार बतलाए हैं। श्री मद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने इन सभी मार्गों का तुलनात्मक रुप से विश्लेषण किया है। गीता में भगवान ने जो भी मार्ग बतलाये हैं उनके केंद्र में भले ही ज्ञान मार्ग हो, अंततः वे भी अर्जुन को शरणागत होने का कह देते हैं | इसका अर्थ यह नहीं है कि ज्ञान, ध्यान, कर्म आदि अन्य मार्ग महत्वहीन है | शास्त्रों में ‘नेति नेति’ कहते हुए जिस ओर इंगित किया गया है, वह दिशा ही परमात्मा की ओर जाती है | “यह भी नहीं, वह भी नहीं” इस बात का अर्थ एक ही है, उस परमात्मा को शब्दों और संकेतों के माध्यम से नहीं जाना जा सकता |

           ज्ञान अर्जित करने का एक लाभ यह है कि हम कर्म करने में सावधानी बरतने लगते हैं | चूंकि कर्म ही व्यक्ति को विभिन्न योनियों में भटकाता है इसलिए कर्मों को करने में सावधानी रखना आवश्यक है | इसी प्रकार ध्यान योग से हमें चंचल मन को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है इसलिए ध्यान-योग भी परिणाम दायक है | फिर भी ये सभी मार्ग हमें परमात्मा तक जाने की राह अवश्य दिखलाते हैं परन्तु सुगमता से आत्म-ज्ञान नहीं करा सकते | जब तक आत्म-ज्ञान नहीं हो जाता तब तक परमात्मा की पहिचान भी नहीं हो पाती | दूसरे शब्दों में कहूँ तो कहा जा सकता है कि आत्म-ज्ञान हो जाना ही परमात्मा को प्राप्त कर लेना है |

        इतने चिंतन से एक तथ्य बिलकुल स्पष्ट होकर हमारे समक्ष आता है कि आप कितना ही ज्ञान प्राप्त कर लें, कितने ही कर्म कर लें और चाहे ध्यान अवस्था में कितनी ही ऊंचाई तक पहुँच जाएँ, एक रिक्तता आपके जीवन में सदैव रहेगी, वह रिक्तता है - परमात्मा का अनुभव न होना | परमात्मा का अनुभव, बिना आत्म-ज्ञान के नहीं हो सकता और आत्म-ज्ञान परमात्मा के प्रति समर्पित हुए बिना नहीं हो सकता | दोनों ही बातें एक दूसरे से सम्बंधित है और एक दूसरे पर निर्भर भी |

          ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि परमात्मा को प्राप्त करने के जो भी मार्ग हैं वे सब लौकिक मार्ग है केवल एक भक्ति का मार्ग ही अलौकिक मार्ग है | कर्म, ज्ञान, ध्यान आदि सभी में कुछ न कुछ करना पड़ता है परन्तु केवल भक्ति ही एक ऐसा मार्ग है जिसमें कुछ भी नहीं करना पड़ता | आत्म-ज्ञान होना, व्यक्ति का सदैव के लिए विश्राम की अवस्था में आ जाने का नाम है | जब जीवन भर हम कुछ न कुछ करते ही रहते हैं तो ऐसे में फिर विश्राम कहाँ ? विश्राम के लिए तो करने के भाव तक का भी त्याग करना आवश्यक है और सर्वप्रथम परमात्मा को मानना पड़ता है | कहने का अर्थ है कि भक्ति के बिना आत्म-ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता क्योंकि इसमें कुछ करना नहीं पड़ता | इसलिए कहा जा सकता है कि भक्ति में ही चिर विश्राम है | भक्ति का प्रारम्भ भले ही कथा और लीला श्रवण से होता हो परन्तु स्मरण से परमात्मा की ओर आगे चलने का मार्ग पुष्ट होता है और अंततः परमात्मा के प्रति समर्पण में इसकी परिणिति होती है |

       श्रीमद्भागवत महापुराण में भक्त प्रहलाद अपने पिता हिरण्यकशिपु को भक्ति के नौ भेद बतला रहे हैं-  

                श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् |

                अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनं ||भगवत-7/5/23||

अर्थात भगवान् की भक्ति के नौ भेद हैं- श्रवण, कीर्तन, रूप-नाम का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चन, वंदना, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन |

        भगवान् की लीलाओं का श्रवण करने से भक्ति का प्रारम्भ होता है, जो उसके नाम के कीर्तन से होता हुआ स्मरण तक पहुँचता है | स्मरण का प्रारम्भ उसके रूप और नाम से प्रारम्भ होता है फिर उनके चरणों की सेवा में परिवर्तित होता है | उस परम की पूजा और अर्चना करते हुए स्वयं को उनका दास होना कहा जाता है | दास की अवस्था शीघ्र ही सखा भाव में परिवर्तित हो जाती है | सखा भाव में व्यक्ति परमात्मा को अपना मित्र स्वीकार करते हुए उनसे अपने सुख-दुःख की प्रत्येक बात को उनके साथ साझा करने लगता है | इसे ही आत्म-निवेदन कहा जाता है |

                 भगवान् की लीला कथाओं का श्रवण और नाम संकीर्तन भक्ति की एक प्रारम्भिक स्थिति है | इसके बाद स्मरण से भक्ति का दृढ होना प्रारम्भ होता है | नाम–स्मरण भक्ति का आवश्यक अंग है | इस स्थिति में आकर मीरां बाई जैसी महान भक्त भी कहने लगती है -“मेरो मन राम ही राम रटे” | मन से किया हुआ स्मरण समस्त संसार को भूला देता है और साधक भगवान् की पूजा अर्चना बड़ी ही तल्लीनता से करता है | पूजा अर्चना करने से समर्पण की अवस्था का प्रारम्भ होता है जो परमात्मा के चरणों की सेवा, उसकी वंदना, दास्य, सख्य भाव से होता हुआ आत्म-निवेदन की स्थिति को प्राप्त कर लेता है | इस स्थिति में आकर मीरां जैसी भक्त अपने भाव प्रकट करते हुए कह उठती है – ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूजो न कोई“| मीरां बाई की यह अवस्था परमात्मा को पूर्ण समर्पण की अवस्था है | इसीलिए मीरां बाई को भगवान् का अनन्य-भक्त कहा जाता है | अनन्य यानि पूर्ण समर्पण अर्थात सब कुछ एक परमात्मा ही अन्य कोई नहीं |

             ‘स्मरण से समर्पण’ की यात्रा एक आध्यात्मिक व्यक्ति के जीवन की महत्वपूर्ण यात्रा होती है | परमात्मा का नाम-स्मरण भले ही प्रारम्भ में जिह्वा के माध्यम से शब्दों के उच्चारण तक सीमित हो, (जिसे सुमिरन कहा जाता है) परन्तु इससे मन को एकाग्र करने में बड़ी सहायता मिलती है | हम अपने द्वारा निर्मित संसार में इतने अधिक व्यस्त हो जाते हैं कि “मैं” कौन हूँ, इसका ज्ञान भी हमें नहीं रहता | हमारा मन हमें स्वय का परिचय कराने के स्थान पर संसार की ओर ले जाकर उससे परिचय कराता है | संसार से परिचित होने की कोई कीमत नहीं है जब तक कि उस परिचय से हमारा परमात्मा की ओर चलने का मार्ग प्रशस्त न हो | नाम-स्मरण से मन का संसार में भटकना धीरे-धीरे कम होता जाता है और हम स्वयं के भीतर गहरे उतरते हुए स्व-निर्मित संसार से दूर जाते हुए स्वयं के भीतर की ओर चलने लगते हैं | मन की एकाग्रता हमें हमारे स्वयं के भीतर ले जाती है और “मैं” कौन हूँ, इसका ज्ञान कराती है | “मैं” का ज्ञान हो जाने पर ही “मैं” और स्व-निर्मित संसार दोनों की समाप्ति हो जाती है और केवल एक परमात्मा ही शेष रह जाते हैं | ‘मैं’ और मेरे-पन का लोप हो जाना ही आत्म-बोध हो जाना है | यह पूर्ण समर्पण की अवस्था है |

             सांसारिक भटकाव हमें स्वयं के भीतर प्रवेश ही नहीं करने देता जिससे स्वयं से परिचित होने का अवसर ही नहीं मिल पाता | सांसारिक गतिविधियों से दूर होने के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है | मन संसार में भटकता है और हम मन के पिछलग्गू होकर उसके साथ भटकते रहते हैं | वास्तव में देखा जाये तो मन को ही हम अपना स्वरुप समझ बैठे हैं और मन को ही “मैं” होना मानते हैं | हमें इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि मन संसार में भटकता है, हम नहीं भटकते | हम तो स्वयं को मन समझकर उसके भटकने को अपना भटकना मान बैठे हैं | दूसरे शब्दों में कहूँ तो यह मन ही “मैं” है जबकि हम स्वयं परमात्मा हैं | नाम स्मरण हमें परमात्मा के वास्तविक स्वरुप का चिंतन कराता है | चिंतन का प्रभाव हमें स्वयं के ऊपर पड़ता परिलक्षित भी होता है और तब हम अनुभव कर सकते हैं कि हमारा यह संसार मात्र माया है, भ्रम है | इतने दिन तक हम भ्रम को ही सत्य समझ रहे थे | इस बात का अनुभव होते ही परमात्मा से प्रेम बढ़ने लगता है |

          स्व का ज्ञान होने से पहले तक हम संसार से प्रेम कर रहे थे | नाम-स्मरण ने हमारे प्रेम की दिशा को परिवर्तित कर दिया | हमें स्मरण से अनुभव होता है कि जो आनंद परमात्मा से प्रेम करने में है, वह संसार से प्रेम करने में कहाँ ? संसार से प्रेम करना दुःख को निमंत्रण देना है | परमात्मा का स्मरण हमें संसार की आसक्ति से मुक्त करता है | संसार में आसक्ति रखना ही दुःख का कारण है | स्मरण करते हुए जो भी कर्म किये जाते हैं, उनका हमें फल नहीं मिलता क्योंकि स्मरण की अवधि में किये जाने वाले कर्म आसक्ति के कारण नहीं किये जाते बल्कि परमात्मा के लिए किये जाते हैं, संसार की सेवा के लिए किये जाते हैं | इसीलिए भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि तू सदैव मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर |

            इस प्रकार हमने स्मरण से समर्पण तक की यात्रा के बारे में चिंतन किया | परमात्मा का स्मरण जब मन का एक मात्र गहन भाव बन जाता है, तभी समर्पण हो सकता है अन्यथा नहीं | केवल ज्ञान–योग और कर्म-योग से जब व्यक्ति को परमात्मा का अनुभव नहीं होता है तब उसे लगता है कि कि समस्त ज्ञान और कर्म व्यर्थ है, केवल एक परमात्मा की भक्ति ही सार्थक हैं तब उसकी यात्रा की दिशा परिवर्तित होती है | जिस दिन ऐसी अवस्था को व्यक्ति प्राप्त होता है, उसी दिन से परमात्मा का स्मरण प्रारम्भ होता है जो कि ह्रदय और मन की गहराइयों से किया जाता है | ज्ञान और कर्म मार्ग से भक्ति मार्ग पर आ जाने का कारण यह है कि ज्ञान और कर्म के सब साधन करके देख लिए, आत्म-ज्ञान नहीं हुआ | अब एक मात्र परमात्मा के नाम का स्मरण करते हुए उस तक पहुँचने का प्रयास किया जाना शेष बचा है |

          ज्ञान और कर्म मार्ग से आत्म-बोध क्यों नहीं हो सकता ? स्वयं के ज्ञानी होने का तथा कर्मों में कर्तापन का अहंकार न हो तो आत्म ज्ञान इन दोनों मार्गों से होना भी संभव है | स्वयं को ज्ञानी मानना और कर्म में कर्ताभाव रखना, इन दोनों से व्यक्ति में अहंकार पैदा होता है | जब अहंकार टूटता है तभी व्यक्ति का मोह भंग होता है | अहंकार के गिर जाने पर व्यक्ति सोचता है कि स्वार्थपूर्ति के लिए प्राप्त किये जाने वाला ज्ञान और किये जाने वाले कर्म दोनों ही व्यर्थ हैं | मोह भंग होते ही व्यक्ति दूसरी राह की खोज करता है और वह सुगम राह जो उसी मिलती है, वह है नाम-सुमिरन | नाम-सुमिरन से प्रारम्भ कर वह उसे स्मरण में परिवर्तित करता है और अंत में स्वयं को परमात्मा को समर्पित कर देता है | ऐसे ज्ञान और कर्म मार्गी साधक को परमात्मा के प्रति समर्पण की अवस्था तत्काल ही उपलब्ध हो जाती है |

        अर्जुन को भी अपनी वीरता और ज्ञान पर अभिमान था | गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान, कर्म, ध्यान और स्मरण (भक्ति) मार्ग का साधन स्पष्ट करने के बाद भी जब देखते हैं कि अर्जुन की दुविधा अभी तक समाप्त नहीं हुई है तो वे सीधे स्पष्ट रूप से समर्पण की बात पर आ जाते हैं | वे कहते हैं-

    सर्वधर्मान्परित्यज्य मामकं शरणं व्रज |

    अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||गीता-18/66||

अर्थात सम्पूर्ण धर्मों अर्थात कर्तव्य कर्मों को मुझ में त्यागकर तू केवल मेरी शरण में आ जा | तू शोक मत कर, मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा |   

          परमात्मा की शरण में जाना उनके प्रति पूर्णरूपेण समर्पित हो जाना है | अर्जुन न ज्ञान से संतुष्ट हुआ न कर्म और ध्यान से इसलिए समर्पण के अतिरिक्त उसके सामने कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था | ज्ञान और कर्म मार्ग से समर्पण की अवस्था तक पहुँचना एक कठिन और लम्बी यात्रा है | जो इतने कठिन मार्ग से होकर गुजरना नहीं चाहता वह पहले ही सीधे-सीधे ही परमात्मा को समर्पित हो सकता है | यह शरणागति का मार्ग है | सबसे सुगम पथ है यह, जहाँ पहुँचने से पहले न कुछ करना पड़ता है और न ही जानना पड़ता है | इधर एक हम जो कि भीतर ज्ञान लेकर कुछ करने को आतुर बैठे हैं, वे अभी तक यह भी नहीं जानते कि समर्पण का अर्थ क्या है, मंतव्य क्या है ? तो चलिए, अब समर्पण की थोड़ी चर्चा कर लेते हैं |

समर्पण –

        अपने आपको मन बुद्धि से पूर्णरूपेण किसी को, जिस पर आपकी पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो, बिना किसी तर्क और संदेह के स्वार्थरहित होकर सौंप देना ही समर्पण है | एक कन्या विवाह के उपरांत अपना परिवार त्यागकर अपने पति को ही सब कुछ मानने लग जाती है, यही उस कन्या का अपने पति के प्रति समर्पण है | पति-पत्नी के जीवन में तर्क, संदेह, कपट आदि का कोई स्थान नहीं होता | तुलसीदासजी रचित रामचरित मानस में भगवान् श्री राम कहते हैं-

   निर्मल मन जन सो मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा || मानस-5/44/5 ||

      बिना किसी तर्क और संदेह के मन और बुद्धि के साथ स्वयं का परमात्मा को समर्पण ही शरणागति है | ऐसा समर्पण मीरां बाई ने किया था-“मेरे तो गिरधर गोपाल दूजो न कोई”, राजा जनक ने अष्टावक्र मुनि के समक्ष किया था, द्रोपदी ने श्री कृष्ण के समक्ष किया था; कहाँ तक गिनाऊ, एक लम्बी सूची बन सकती है | इनमें से किसी एक ने भी समर्पित होने से पहले अपनी तर्क बुद्धि का सहारा नहीं लिया | किसी का भी कोई स्वार्थ नहीं था, समर्पण में | तभी तो मीरां को श्री कृष्ण मिले, राजा जनक को ज्ञान प्राप्त हुआ और द्रोपदी की लाज बची |

        नदी के तेज प्रवाह में बहते हुए डूबने से बचने के लिए व्यक्ति अपने हाथ-पैर मारता है, बहुत संघर्ष करता है फिर भी वह डूबने से बच नहीं पाता | जो व्यक्ति डूबने से बचने के लिए संघर्ष करना छोड़ कर अपने हाथ-पैर ढीले छोड़ कर समर्पण कर देता है, वही किनारे लग सकता है | उसका जल को समर्पण ही उसे डूबने से बचा लेता है | डूबने से बचने के लिए व्यक्ति को स्वयं ही नदी हो जाना पड़ता है | इसी प्रकार संसार सागर में डूबने से बचकर पार हो जाने के लिए ज्ञान और कर्म के माध्यम से संघर्ष करना छोड़ परमात्मा के प्रति समर्पित होना ही उचित और श्रेष्ठ मार्ग है | यह समर्पण ही हमें आत्म-ज्ञान कराता है कि इस “मैं” को परमात्मा में मिला दो, दोनों अलग अलग न होकर एक ही हैं |

          समर्पण सदैव भीतर से होता है, अंतर्मन से होता है | समर्पण केवल बाहर बाहर का यानि केवल दिखावे का हो नहीं सकता | अगर कोई बाहर से उपरी तौर पर समर्पण करता है, तो यह उसका अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए किया गया दिखावा मात्र है, समर्पण नहीं है | जिसके समक्ष समर्पण किया गया है वह और जिसने समर्पण किया है, दोनों एक हो जाते हैं | आप कहेंगे कि हम तो अपने गुरु के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हैं और गुरु बाहर दिखाई भी पड़ रहे है अर्थात गुरु अलग है और हम अलग | जब तक शिष्य पूर्ण रूप से गुरु को समर्पित नहीं होगा, तब तक गुरु बाहर ही हैं और बाहर ही रहेंगे | अगर समर्पण के बाद भी गुरु बाहर रहता है तो हमारे समर्पण में ही कोई कमी है अन्यथा समर्पण होते ही तो गुरु भी भीतर प्रवेश कर ज्ञान रूप में दिखलाई पड़ने लगता है | यही कारण है कि गुरु को परमात्मा कहा गया है | कबीर कहते भी हैं –

      गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काकू लागे पांय |

      बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ||

       ज्ञान देने के लिए गुरु ज्ञान बनकर आपके भीतर प्रवेश कर जाते हैं और भीतर पहले से ही परमात्मा भी हैं | इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति के बाद गुरु और आप दोनों ही परमात्मा हो जाते हो | यही गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण का परिणाम है |

              इसी प्रकार समर्पण प्रेम का आधार भी है | बाहर बाहर का प्रेम करना प्रेम नहीं है, वह वासना है | प्रेम तो भीतर की घटना है, जिसमें प्रेमी कैसा भी व्यवहार करे प्रेम कभी मिट नहीं सकता | पूर्ण समर्पण का भाव ही प्रेम को भीतर प्रस्फुटित करता है | गुरु जब परमात्मा का ज्ञान उपलब्ध कराता है तब सारा संसार ही परमात्मामय हो जाता है | फिर भीतर जो प्रेम का झरना बहना प्रारम्भ होता है, वह अनवरत बहता रहता है |

          ऐसी अवस्था में समर्पण होते ही भीतर स्मरण प्रारम्भ हो जाता है अर्थात पहले समर्पण, फिर स्मरण | जब आप परमात्मा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाते हो तब आपके भीतर उसका अनवरत स्मरण चलता रहता है | स्मरण अर्थात कभी भी विस्मृत न होने देना | ऐसी अवस्था में भीतर दिन रात उस परमात्मा के नाम का स्मरण चलता रहता है | उठे तो राम सोये तो राम, चले तो राम, बैठे तो राम, खाए तो राम, बस केवल राम ही राम, राम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं | सारा संसार ही राममय हो जाता है | ऐसी स्थिति में भय नाम की कोई चीज नहीं रह जाती | जहाँ राम है वहां भय कहाँ ? भय मुक्त हो जाना ही, शांति की प्राप्ति करवाता है | पहले समर्पण और बाद में सतत स्मरण, यह सर्वाधिक सुगम मार्ग है |    

           हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा समर्पण के बारे में एक बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त देते हैं | वे कहते हैं कि हमें अपने जीवन में बिल्ली के बच्चे की तरह व्यवहार करना चाहिए | बिल्ली का बच्चा जिस प्रकार पूर्ण रूप से अपनी मां पर निर्भर रहता है, स्वयं की ओर से किसी भी प्रकार का प्रयास नहीं करता वैसे ही हमें भी परमात्मा पर पूर्ण विश्वास रखते हुए स्वयं को पूर्ण रूप से उन्हें समर्पित कर देना चाहिए | बिल्ली के बच्चे का बिल्ली पूरा ध्यान रखती है क्योंकि उसने सब कुछ अपनी मां पर छोड़ रखा है | एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए वह कुछ नहीं करता | उसकी मां ही उसे मुंह में दबाकर, उसे बिना किसी प्रकार की हानि पहुंचाए उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर सुरक्षित ले जाती है | कुछ भी हो, वह तो केवल अपनी मां को समर्पित हुए दिन रात उसी का स्मरण करता रहता है | यह बिल्ली के बच्चे वाला मार्ग ऐसा है, जिसमें पहले समर्पण है और फिर सतत स्मरण |

        आचार्यजी इसके बाद दूसरा उदाहरण बन्दर के बच्चे का देते हैं, जिसमें पहले स्मरण है और बाद में समर्पण | बन्दर का बच्चा अपनी मां को कभी भी विस्मृत नहीं करता | वह सदैव मां के पास रहते हुए खेलता रहता है | जब मां उससे दूर जाने लगती है तब वह दौड़ कर मां की छाती से चिपट जाता है और कसकर उसे पकड़ लेता है | इस स्थिति में बन्दर के बच्चे को स्वयं पर भरोसा है अतः मां उसकी चिंता कम करती है क्योंकि वह जानती है कि बच्चा स्वयं ही उसे ढूंढ लेगा | बन्दर के बच्चे के लिए मां का स्मरण पहले है और समर्पण बाद में |

           बिल्ली और बन्दर के बच्चे के उदाहरण से स्पष्ट है कि समर्पण का भाव दोनों ही बच्चों में है | बिल्ली का बच्चा प्रारम्भ से ही समर्पित है और बैठे बैठे केवल मां का स्मरण करता रहता है जबकि बन्दर के बच्चे को स्वयं के कर्म और ज्ञान पर विश्वास है | वह मां का स्मरण तो सदैव करता है परन्तु समर्पण की अवस्था को बाद में प्राप्त होता है |

           हमारा शरीर पदार्थ है जिससे नाम सुमिरन की क्रिया की जाती है | नाम-सुमिरन स्मरण में बदलता है, जब यही सुमिरन भीतर की गहराइयों में अपनी जड़ें जमा लेता है | फिर जिसके नाम का सुमिरन किया जाता है, वह स्मरण में बदल कर कभी विस्मृत नहीं होता | सुमिरन की क्रिया स्मरण होकर भाव बन जाती है | धीरे-धीरे स्मरण की प्रगाढ़ता इतनी अधिक बढ़ जाती है कि जिसका स्मरण चल रहा होता है, हम उसी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाते हैं | समर्पण ही हमारे जीवन का उद्देश्य है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि पदार्थ (शरीर) से क्रिया (नाम-सुमिरन) का महत्व अधिक है | क्रिया से भाव अर्थात स्मरण अधिक महत्वपूर्ण है | परन्तु जीवन का उद्देश्य अर्थात परमात्मा के शरणागत हो जाना सबसे महत्वपूर्ण है | समर्पण के बाद न तो किसी प्रकार की क्रिया/कर्म करने की आवश्यकता है और न ही किसी प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने की | तभी कबीर ने कहा है –

          जप तप संयम साधना, सब सुमिरण के मांहि |

          कहे कबीर सुनो भइ साधो, सुमिरण सम कछु नाहिं ||

    जप, तप, संयम, साधना आदि सभी कर्म और ज्ञान मार्ग से सम्बन्ध रखते हैं | कबीर अनपढ़ जुलाहे थे | कहने को तो उनके गुरु रामानंद थे परन्तु वास्तविकता है कि उन्होने  कहीं से भी विधिपूर्वक किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त नहीं किया और जो कुछ ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ वह सब परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित होने से ही हुआ | स्वाभाविक कर्म करते हुए स्मरण उनके भीतर सदैव चलता रहता था तभी तो उनकी वाणी से ज्ञान की बातें झरने लगी थी | अतः कहा जा सकता है कि परमात्मा के प्रति समर्पण कभी निष्फल नहीं होता |

             सारांश यह है कि स्मरण और समर्पण दोनों एक दूसरे से सम्बंधित है | कैसे भी हो, स्मरण से पहले अथवा बाद में, अंततः समर्पण होता ही है | भक्ति की पराकाष्ठा समर्पण ही है चाहे आप ज्ञान मार्ग से पहुँचो अथवा कर्म मार्ग से या ध्यान मार्ग से | इस श्रृंखला को समाप्त करते हुए अंत में मैं केवल दो ही शब्द कहना चाहूँगा, जैसे कि सदैव ही कहता हूँ - “हरिः शरणम्“, सदैव हरि की शरण में रहो और उसका स्मरण करते रहो |

       प्रायः सभी सन्तो ने ज्ञान और कर्म मार्ग पर भक्ति मार्ग को वरीयता दी है, कारण चाहे जो कुछ भी रहा हो | ज्ञान, ध्यान, कर्म, सहज आदि मार्गों पर चलने से मुक्ति को उपलब्ध हुआ जा सकता है अथवा नहीं, कह नहीं सकते, परन्तु यह सत्य है कि केवल अकेली भक्ति से मुक्ति को अवश्य प्राप्त किया जा सकता है |

प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

 

Monday, August 24, 2020

मामनुस्मर युध्य च

 मामनुस्मर युध्य च

             कुछ समय पहले ही हमने ‘यज्ञ’ विषय पर गहन चिंतन किया था | उस विवेचन का निष्कर्ष था कि जीवन में यज्ञार्थ कर्म करते हुए परमात्मा के द्वार तक पहुंचा जा सकता है | मनुष्य के जीवन की समस्या  कर्म करना नहीं है बल्कि उसकी समस्या है जीवन में यज्ञार्थ कर्म करना | जिस किसी प्राणी ने इस संसार में जन्म लिया है, वह कर्म करने को विवश है | विवशता इसलिए कि पूर्व मानव जीवन में कर्म करते हुए उसका कर्म करने का स्वभाव बन गया है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी तो कर्म करते हुए उनके फल भोगकर उन कर्मों से मुक्त होते जाते हैं परन्तु मनुष्य को तो अपने जीवन में एक से बढकर एक नए विषयों का सुख चाहिए और उसकी यह लालसा ही उसे कर्मों के जाल में इतना अधिक उलझा देती है कि केवल एक जीवन में उससे मुक्त होना संभव नहीं हो सकता | ऐसे में उसे फिर 84 लाख योनियों में भटकते हुए अपने द्वारा किये गए कर्म नष्ट करने पड़ते हैं और सभी योनियों के अंत में जाकर के कहीं उसे पुनः मनुष्य योनि मिलती है | पुनः मनुष्य योनि मिलने से भी क्या उसकी समस्या का निराकरण हो जायेगा ? नहीं होगा क्योंकि 84 में भटकते भटकते वह अपने पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के जाल में उलझने की घटना को पूर्णतया विस्मृत तक कर चूका होता है |

            प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य जीवन के कारण ही क्या हम 84 में भटकने को विवश हैं ? जी हाँ, यह शतप्रतिशत सत्य है | इसका अर्थ हुआ कि फिर इसके विपरीत भी तो होना संभव हो सकता है | जिस प्रकार आँगन से सीढ़ियों के माध्यम से ऊपर छत पर जाया जा सकता है उसी प्रकार इन्हीं सीढ़ियों के माध्यम से ऊपर से नीचे भी तो आया जा सकता है | इस बात पर हमें ध्यान देना है कि एक ही प्रकार की सीढ़ियों का उपयोग ऊपर और नीचे, दोनों ही ओर जाने के लिए किया जा सकता है | हमारा मन ही वह सीढ़ी है जो हमें उत्थान और पतन, दोनों ही ओर ले जा सकती है | हमें मन का इस प्रकार सदुपयोग करना है कि वह केवल उत्थान की सीढ़ी बनकर रह जाये और पतन की ओर ले जाने वाले उसके सभी दरवाजे सदैव के लिए बंद हो जाएँ |

           यदि हम मन के उत्थान वाले रस्ते का उपयोग करें तो वह केवल एक ही ओर जाने वाला रास्ता (One way) बन सकता है | परमात्मा का स्मरण केवल उत्थान की ओर ले जाने वाली सीढ़ी है, पतन की ओर ले जाने वाली नहीं है | हमें परमात्मा का स्मरण करना है और साथ ही अपने जीवन में कर्म भी करते रहना है तभी हम इन विभिन्न योनियों में भटकने से बच सकते हैं | मनुष्य का जीवन मिला है, अपने मूल स्रोत तक पहुँचने के लिए, अपना स्वरुप पहचानने के लिए अर्थात आत्म-बोध के लिए | हमारा मूल स्वरुप है सच्चिदानंद अर्थात परमात्मा | अतः उस परमात्मा के स्वरूप का सतत स्मरण करते रहना ही हमें अपने मूल स्वरूप तक पहुंचा सकता है |

गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –

             उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |

             आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः || गीता- 6/5 ||

अर्थात मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य स्वयं ही तो अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है |

             हम स्वयं ही तो अपने मित्र हैं और स्वयं ही अपने शत्रु | मन को नियत्रण में रखकर उसे भटकने न दें, उसको विषय भोगों की ओर दौड़ने न दें तभी हम स्वयं के मित्र बन जाते हैं और अगर इसी मन को स्वेच्छाचारी बना दिया तो फिर हम स्वयं ही अपने शत्रु हो जाते हैं | मित्र आपको उत्थान की ओर ले जाता है और शत्रु आपको पतन की ओर |

               एक-एक सोपान चढते हुए अपना उत्थान करना है अथवा उन्हीं सोपान से नीचे आकर अधोगति को प्राप्त होना है, मनुष्य को अपने जीवन में यही निश्चय करना है | उत्थान की ओर जाना है, ऐसा निश्चय करने में कर्म की भूमिका महत्वपूर्ण है क्योंकि कर्म ही ऊँची-नीची योनियों में जाने का कारण बनता है | किसी भी प्रकार के निश्चय को करने में मनुष्य के लिए स्वयं का विवेक उपयोगी है | इस प्रकार मनुष्य के द्वारा स्व-विवेक से कर्म निश्चित करना हुआ ज्ञान योग और निश्चित किये हुए शास्त्रीय कर्म को करना हुआ कर्म योग | परन्तु इन दोनों योग को सुगम प्रकार से अपनाने में परमात्मा की कृपा महत्वपूर्ण है | परमात्मा का स्मरण करते हुए विवेकपूर्वक किये गए कर्म मनुष्य के उत्थान में सहायक होते हैं | इस प्रकार सदैव परमात्मा का स्मरण करना हुआ भक्ति योग |      

         ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदास जी महाराज कहा करते थे कि “गीताजी जैसा विलक्षण ग्रन्थ मैंने आज तक नहीं देखा है | जितनी बार भी इसका अध्ययन करो, नए-नए अर्थ आपके सामने आते हैं |” आप किसी भी प्रकार से इस ग्रन्थ का अध्ययन करें, नित नए अर्थ लिए प्रत्येक श्लोक आपके समक्ष पुनः आकर खड़ा हो जाता है | यही कारण है कि इस ग्रन्थ का संसार में सर्वाधिक विवेचन किया गया है और टीकाएँ लिखी गयी हैं और अभी भी यह कार्य निरंतर गतिमान है | यह केवल एक धर्म अथवा सम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं है बल्कि मानव समुदाय के जीवन जीने की कला का मार्गदर्शक है, यह ग्रन्थ |

                 अर्जुन कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में अपने स्वजनों को एकत्रित हुआ देखकर मोहग्रस्त हो जाता है और अपने ही लोगों को मारते और मरते हुए वह देखना नहीं चाहता | इस कारण से वह युद्धभूमि को छोड़कर भाग जाना चाहता है | परन्तु भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को इतनी आसानी से महाभारत युद्ध से पलायन नहीं करने देना चाहते | यहीं से गीता ज्ञान का प्रारम्भ होता है | सर्वप्रथम सांख्य का उपदेश देने के उपरांत वे ज्ञान से कर्म को श्रेष्ठ बतलाते हैं तो अर्जुन दुविधा में पड़ जाता है कि ज्ञान मार्ग सही है अथवा कर्म मार्ग |

            अर्जुन को इसी उहापोह की स्थिति से बाहर निकालने के लिए भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को समस्त ज्ञान उड़ेलते हुए कहते हैं –“मामनुस्मर युध्य च” (गीता-8/7) अर्थात मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर | बड़ी विकट परिस्थिति में डाल दिया अर्जुन को, भगवान् ने | परमात्मा का स्मरण करना और युद्ध भी करना | देखने में दोनों बातें एक दूसरे के विपरीत जाती जान पड़ती है | कहाँ युद्ध में हिंसा का स्थान और कहाँ परमात्मा के स्मरण में “वासुदेव सर्वम्” का भाव | ऐसी विपरीत बात आखिर भगवान् ने कैसे कह दी ? इस प्रकार भगवान् ने ऐसी बात कहकर अर्जुन की समस्या को सुलझाने के स्थान पर और अधिक उलझा दिया |

            अर्जुन पहले से ही द्वंद्व में उलझा हुआ है कि युद्ध करूँ या न करूं और साथ ही साथ भगवान् ने युद्ध करने का स्पष्ट आदेश देने के साथ ही परमात्मा का स्मरण करने का और कह दिया | अगर श्रीकृष्ण उसे केवल परमात्मा का स्मरण करने का कह देते तो अर्जुन तो इसके लिए पहले से तैयार ही था क्योंकि वह युद्ध नहीं करना चाहता था | परन्तु यहाँ तो युद्ध करने के साथ परमात्मा का स्मरण, अब प्रश्न यही है कि अर्जुन किस प्रकार से इस दुविधा से बाहर निकल पायेगा ?

               हम नर है और वे नारायण | वे लीला करते हैं हम उनकी लीला समझ नहीं सकते | उनकी लीला को ना समझना ही हमारे समक्ष एक प्रकार से भ्रम की स्थिति पैदा करता है | हमारे भीतर परमात्मा के प्रति श्रद्धा और विश्वास की कमी से ही यह भ्रम उत्पन्न होता है | हम गलत कह और कर सकते हैं, समझ सकते हैं परन्तु नारायण कभी गलत कह नहीं सकते, कुछ गलत कर नहीं सकते और कभी गलत हो नहीं सकते | उनमें श्रद्धा और विश्वास रखते हुए उनकी इसी बात को समझ कर हमें अपने भीतर के भ्रम को समाप्त करना है | गहराई से चिंतन करें तो पाएंगे कि परमात्मा का स्मरण करते हुए युद्ध करना मनुष्य जीवन की ही एक कला है, जो मनुष्य को सदैव हिंसा भाव से दूर रखती है |

          मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों के जीवन की तरह इतना सहज और सरल नहीं है, जितना इसको समझा जाता है | सभी प्राणियों को अपने पूर्व मानव जन्म में कृत कर्मों को केवल भोगना ही पड़ता है परन्तु मानव जीवन में केवल भोग ही भोग नहीं होता बल्कि नए कर्म भी करने होते हैं | वे नए कर्म किस प्रकार के हों, यही उसके समक्ष यक्ष-प्रश्न है जिसका उत्तर इतनी सरलता से उसे मिलना संभव नहीं है | किस कर्म को करना है और किस को नहीं करना है, कौन सा कर्म निषिद्ध कर्म है और कौन सा शास्त्रोक्त, इसी दुविधा में उसका जीवन मुट्ठी से रेत की भांति धीरे-धीरे सरकता जाता है | यह कर्म के प्रति द्वंद्व की स्थिति मनुष्य के जीवन में किसी युद्ध से कम नहीं है | ‘मामनुस्मर युध्य च’ कहने में भगवान् का युद्ध से भावार्थ मनुष्य के जीवन में कर्मों को करने के बारे में उसके भीतर चल रहे अंतर्द्वंद्व से है |

          कुरुक्षेत्र युद्ध का मैदान है | कुरु का अर्थ है करना अर्थात कर्म करना | धर्मक्षेत्र से अर्थ है कर्तव्य क्षेत्र | यह युद्ध कर्म करने का है और वह भी कर्म केवल धर्म के अनुसार करना अर्थात केवल कर्तव्य कर्म करना | अर्जुन का कर्तव्य कर्म/स्वाभाविक कर्म था युद्ध करना, न कि युद्ध से पलायन कर जाना | इसलिए भगवान् ने उसे युद्ध करने के लिए कहा | अर्जुन के स्थान पर अगर कोई व्यापारी होता तो वे उसे व्यापार करने के लिए कहते न कि युद्ध करने के लिए | भगवान् श्री कृष्ण किसी को भी अपने कर्तव्य कर्म से विमुख होने का कह ही नहीं सकते | इस प्रकार युद्ध करने से तात्पर्य कर्म करने से है, किसी भी प्रकार की हिंसा से नहीं |

             युद्ध करने के साथ ही वे कहते हैं कि मेरा भी स्मरण कर | मेरा स्मरण करते हुए युद्ध कर अर्थात परमात्मा का स्मरण करते हुए कर्म कर | परमात्मा का स्मरण हमें अनुचित कर्म करने ही नहीं देगा | इस कारण से किसी भी प्रकार का कर्म-बंधन होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा | जब कर्म बंधन नहीं होगा तो हम मुक्त ही हैं | मनुष्य जन्म से ही मुक्त है, बस अपने लिए एक संसार बनाकर बंधन में फंस जाता है | वह संसार बनाता है, सुख प्राप्ति के लिए और सुख मिलना तो दूर, उलटे उसमें उलझ जाता है और फिर जीवनभर उससे बाहर निकलने को छटपटाता रहता है परन्तु निकल नहीं पाता |

         क्या स्मरण और कर्म, दोनों एक साथ होने संभव है ? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है क्योंकि हम जीवन में जब भी परमात्मा का स्मरण करते हैं तो हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्म ठहर से जाते हैं और जब कोई कर्म करते हैं तो परमात्मा विस्मृत हो जाते हैं | हमें स्मरण और कर्म, दोनों का एक साथ होना संभव प्रतीत नहीं होता परन्तु भगवान् कहते हैं कि दोनों का एक साथ होना संभव है | तभी तो भगवान् ने अर्जुन को कहा है कि मेरा स्मरण भी कर और युद्ध भी कर |  

          स्मरण और सुमिरन में अंतर है | हम प्रायः स्मरण और सुमिरन को एक ही समझ लेते हैं | हाँ, यह सत्य है कि सुमिरन शब्द का जनक ‘स्मरण’ शब्द ही है | सुमिरन एक क्रिया (Action) है और स्मरण भाव (Passion) है | क्रिया से भाव अधिक महत्वपूर्ण है | स्मरण एकाग्रचित्त होकर किया जाता है और फिर एक अवस्था ऐसी आती है जब स्मरण सतत चलता रहता है जबकि सुमिरन कुछ समय के लिए किया जाता है और प्रायः वह क्रिया से आगे नहीं बढ़ पाता क्योंकि सुमिरन में एकाग्रता का अभाव होता है | नाम-सुमिरन करते हुए हमारा चंचल मन बाहर कहीं का कहीं भटकता रहता है और केवल जिह्वा (Tongue) उस नाम का उच्चारण करती रहती है | सुमिरन में एकाग्रता उसे स्मरण में परिवर्तित कर देती है, फिर जीवन में परमात्मा कभी विस्मृत नहीं होते | हमें अपने जीवन को परमात्मा के स्मरण से भरना है तभी उसके स्मरण के साथ कर्म करते हुए भी हम मुक्त हो सकते हैं |

              एक बार स्मरण को जीवन में उतार लिया तो फिर परमात्मा कभी भी विस्मृत नहीं होंगे और फिर जिह्वा से सुमिरन की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी | पहुंचे हुए संत आपको कभी परमात्मा का सुमिरन करते हुए दृष्टिगोचर नहीं होंगे क्योंकि उनके भीतर चौबीसों घंटे केवल परमात्मा का स्मरण ही चलता रहता है और साथ ही साथ वे अपना कार्य भी करते रहते हैं | अतः यह कहना कि स्मरण और कर्म साथ साथ होने संभव नहीं है, उचित प्रतीत नहीं होता | संत कबीर एक जुलाहे थे, वे कपड़ा बुनते हुए भी परमात्मा का स्मरण बराबर करते रहते थे | उनसे किसी ने पूछा कि आप दोनों कार्य एक साथ कैसे कर लेते हैं ? उत्तर में उन्होंने बड़ा ही सुन्दर उदाहरण दिया | उन्होंने पनघट से पानी भरकर दो-दो घड़े सिर पर धरकर आ रही पनिहारिनों की तरफ संकेत करते हुए कहा कि “देखो, सभी पनिहारिने अपने सिर पर घड़े रखे हुए हैं और बातें भी करती चल रही है | सभी का बातों पर ध्यान है फिर भी उन्होंने अपने सिर पर रखे घड़ों को विस्मृत नहीं किया है | अगर उनको घड़ों का स्मरण नहीं रहता तो घड़े कभी के गिरकर टूट जाते |” पनिहारिन आपस में बातचीत का कर्म भी कर रही है और सिर पर घड़े हैं, भीतर इसका स्मरण भी उन्हें है | इसी प्रकार अपने भीतर बैठे परमात्मा को कभी भी विस्मृत न होने दें और फिर देखें, आपके द्वारा कर्म परमात्मा के स्मरण के साथ साथ होते हैं अथवा नहीं | समस्या तो तभी होती है जब हम स्मरण के नाम पर सुमिरन की क्रिया मात्र करते हैं और कर्म को सुमिरन से अलग एक भिन्न क्रिया मान लेते हैं |

           कर्म की पृष्ठभूमि में जब तक कर्म फल रहेगा, सुमिरन स्मरण बन ही नहीं पायेगा | यह केवल मनुष्य के मन का खेल है | मनुष्य का मन भटकता बहुत है | इस भटकाव का कारण है, विषय-भोग की कामना | विषय-भोग की इच्छा सर्वप्रथम कर्म-फल निश्चित करती है और फिर कर्म-फल को प्राप्त करने के लिए कर्म किये जाते हैं | कर्म जब फल के आश्रित होकर किये जाते हैं तो फिर केवल नाम-सुमिरन ही हो सकता है, केवल जिह्वा ही परमात्मा के नाम को उच्चारित करती रह सकती है, मन से उसका उच्चारण नहीं हो सकता क्योंकि मन में तो पहले से ही कर्मफल कुण्डली मारकर बैठा हुआ है | जब तक परमात्मा के नाम का उच्चारण मन से नहीं होगा, भीतर की गहराई से नहीं होगा, तब तक केवल नाम-सुमिरन ही चलता रहेगा, वह कभी भी स्मरण नहीं बन सकता | ऐसा सुमिरन तो तोता भी कर सकता है और टेप-रिकार्डर भी | क्या तोता ऐसे सुमिरन से परमात्मा तक पहुँच सकता है ? नहीं, कभी नहीं |

               परमात्मा तक तो केवल उसके सतत स्मरण से ही पहुंचा जा सकता है और वह भी इस प्रकार का स्मरण जब व्यक्ति साथ में कर्म भी करता रहे और भीतर स्मरण भी चलता रहे | कर्म करते हुए स्मरण न रुके और स्मरण चलते हुए कर्म भी न रुके | भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को इस प्रकार के स्मरण को करते हुए युद्ध करने का कह रहे हैं | ऐसा युद्ध, जिसमें अर्जुन के हाथ में गांडीव भी हो और भीतर श्री कृष्ण भी रहे | इस प्रकार युद्ध करने से ही अर्जुन को युद्ध में विजयश्री प्राप्त हुयी और युद्ध में हुई हिंसा का परिणाम भी उसे भुगतना नहीं पड़ा | हाँ, प्रत्येक कर्म का परिणाम तभी मिलता है, जब उस कार्य के फल को पहले ही निश्चित किया जा चूका हो | अर्जुन तो युद्ध की संभावित जन-हानि जो कि केवल उसे और उसके परिवार को ही होनी थी, से मोहग्रस्त हो गया था परन्तु भगवान श्री कृष्ण ने उसे कर्म रहस्य समझाते हुए स्पष्ट कर दिया था कि अगर इस धर्म-युद्ध को जीतोगे तो पृथ्वी का राज्य भोगने को मिलेगा और यदि पराजित भी हो जाओगे तो स्वर्ग मिल जायेगा | अर्जुन एक क्षत्रिय होने के नाते युद्ध को अपना धर्म, अपना कर्तव्य मानते हुए करेगा और अपने धर्म पर चलते हुए वीरगति को प्राप्त होना भी उचित है | अपने कर्तव्य कर्म जैसे धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म का अनुसरण करना अपयश ही दिला सकता है, सफलता उससे सदैव कोसों दूर रहती है |

          नाम-स्मरण भी एक प्रकार की भक्ति हैइस प्रकार की भक्ति और भक्तों के उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। राजस्थान वीरों की भूमि तो है ही, भक्ति भी यहां के लोगों में गहराई तक समाई हुई है | इस संसार मे पुरुष तो कई भक्त हुए हैं परंतु महिलाओं की भक्ति को देखें तो प्रतीत होता है कि उनमें राजस्थान की महिला भक्तों का अग्रणी स्थान है | हम आज बात करेंगे नागौर जिले में पैदा हुई तीन महिला भक्तों की | मेड़ता के राज परिवार में जन्मी, पली और बढ़ी मीरा बाई सर्वकालीन नित्य वन्दनीय भक्त हुयी हैं | उनका विवाह मेवाड़ जैसे वीरता विख्यात राजघराने में हुआ | भगवान् श्री कृष्ण की अनन्य भक्ति में मेवाड़ की मीरा बाई जग प्रसिद्ध है, जो सदैव कहती रही-“मेरे तो गिरधर गोपाल, दूजो न कोय

             इसी श्रेणी में दूसरी महिला भक्त हुयी है, करमा बाई | करमा बाई नागौर जिले की मकराना तहसील के कालवा गाँव में जाट (डूडी) परिवार में पैदा हुई | करमा की विश्वास और श्रद्धा-भक्ति को हम कभी भी भूला नहीं सकते जिसने खिचड़ी खाने के लिए परमात्मा को भी साकार रूप लेने को विवश कर दिया था | जीवन के उतरार्ध में वह राजपूताना छोड़कर जगन्नाथपुरी चली गयी और अपने हाथों से खिचड़ी पकाकर भगवान् को जीवन पर्यंत खिलाती रही | आज भी पुरी में भगवान् जगन्नाथ के प्रथम भोग खिचड़ी का ही लगता है |

          इसी प्रकार राजस्थान के नागौर जिले में एक तीसरी महिला भक्त भी हुई है इसी मरुधरा पर, जिसको अभी भी बहुत कम लोग ही जानते हैं। इनका जन्म (1568 ई.में) एक जाट (मांझू) परिवार में हुआ था | नाम स्मरण से उसकी परमात्म भक्ति विशेष रूप से मारवाड़ क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध है | इस महिला भक्त का नाम है, फूली बाई | जितनी प्रसिद्ध मीरा बाई और करमा बाई हुई उतनी प्रसिद्ध फूली बाई अवश्य नहीं हुयी परन्तु नाम स्मरण में वह किसी से कम नहीं थी | इसलिए कल इस श्रृंखला में हम फूली बाई की चर्चा करेंगे।

       जोधपुर रियासत के सिंहासन पर उन दिनों महाराजा जसवंतसिंह विराजमान थे। यह बात कोई 16वीं शताब्दी की है। तत्कालीन जोधपुर रियासत के बीकानेर रियासत की सीमा लगती थी | जोधपुर रियासत का नागौर एक परगना था जो बीकानेर रियासत की सीमा के लगता हुआ क्षेत्र था | आज स्वतन्त्र भारत के राजस्थान राज्य का नागौर एक जिला है। नागौर-सुजानगढ़ के मध्य में राष्ट्रीय राज मार्ग संख्या 65 पर एक गाँव पड़ता है- डेह । डेह से जब सुजानगढ़ तहसील के गांव लालगढ़ जाने वाले मार्ग पर चलेंगे तो मुख्य मार्ग से हटकर बाएँ ओर एक छोटा सा गांव आता है, मांझवास (मांझावास/माजावास) । मांझवास सुजानगढ़ से लगभग 90 किलोमीटर और इसी तहसील के लालगढ़ गाँव से 27 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा सा गाँव है | इसी मांझवास गाँव में फूली बाई का जन्म हुआ था | उसने जीवनपर्यंत विवाह नहीं किया था इस कारण से वह सदैव उसी गाँव में रही | कहा जाता है कि फूली बाई का बचपन से ही परमात्मा की भक्ति के प्रति रूझान था | जैसा कि कहा जाता है कि जो जिसको और जैसा होना चाहता है, परमात्मा उसको सब कुछ वैसा ही दे देते हैं और वह वैसा ही हो जाता है |

             फूली को भी एक गुरु मिल गए, संत ज्ञानदेव | फूली बाई ने उनको गुरु बनाकर उनसे गुरु मंत्र माँगा | चूंकि फूली अनपढ़ थी तो गुरु ने उसे नाम स्मरण करने का कहा, केवल राम के नाम का स्मरण | फूली ने श्रद्धा और विश्वास के साथ उस राम नाम के मंत्र को अपने मन में गहरे तक बिठा लिया |

      कोई भी कार्य करती, फूली राम नाम का सतत सुमिरन करती रहती | घर की रसोई में काम करती तो मुंह मे राम का नाम, मवेशियों को चारा देती तो राम का नाम यहां तक कि गोबर के उपले (थेपडी) बनाती तो भी राम का नाम | उसने राम के नाम को कभी भी विस्मृत नहीं होने दिया | कहा जाता है कि फूली बाई ने राम नाम को अपने भीतर इतनी गहराई तक बिठा लिया था कि चारों और के वातावरण में भी राम नाम की तरंगें तक अनुभव की जा सकती थी | उसकी बनाई हुई थेपडी तक से भी राम नाम की धुन निकलती थी |

            फूली बाई की प्रसिद्धि और नाम स्मरण भक्ति की चर्चा चारों और फैलने लगी | बात जोधपुर रियासत के तत्कालीन राजा जसवंतसिंह जी तक भी पहुंची | उनके मन में भी फूली बाई से मिलने की प्रबल इच्छा हुई | एक बार वे दिल्ली के शासक ओरंगजेब की तरफ से काबुल में युद्ध करने के लिए गए हुए थे | युध्द भूमि से वापिस अपनी रियासत की ओर लौट रहे थे तो रास्ते में मांझवास गांव से गुजरते हुए उन्हें फूली बाई का स्मरण हो आया | वे फूली बाई से मिलने उसके घर पहुँच गए | फूली बाई से मिलकर महाराज जसवंतसिंह बड़े प्रसन्न हुए | महाराजा जसवंतसिंह फूली बाई की नाम स्मरण भक्ति से बड़े प्रभावित हुए और उन्हें अपने राजमहल में रानियों को ज्ञान देने के लिए आमंत्रित किया |

      जसवंतसिंह जी के कई रानियां थी | महाराज पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए वे आपस में लड़ती झगड़ती रहती थी | महाराजा को अपने प्रभाव में लेने के लिए प्रत्येक रानी एक दूसरी से बढ़-चढ़कर दिन भर शारीरिक श्रृंगार करती रहती थी | अचानक एक दिन फूली बाई उनका मार्गदर्शन करने रनिवास में जा पहुंची | रानियों के शारीरिक मोह और उनके मध्य के राग-द्वेष को देखकर फूली बाई ने कहा -

   गहनों गांठो तन की शोभा, काया काचो भाँडो।

  ‘फूली’ कव्हे थे राम भजो नित, लड़ो क्यूं हो रांडो।।

      दोहा राजस्थानी भाषा में है, इसको हिंदी में थोडा स्पष्ट कर देता हूँ | इस दोहे में फूली बाई कहती है कि हे रानियों, यह आभूषण तो केवल शरीर की शोभा बढ़ाते हैं और शोभा भी उस शरीर की जो नश्वर है, कच्चे मिटटी के बर्तन की तरह है, न जाने कब फूट जाए ? इसलिए तुम आपस में लड़ो-झगड़ो मत और न ही किसी प्रकार का मन में राग-द्वेष रखो | प्रतिदिन परमात्मा का नाम स्मरण करो, इसी में आप सब का कल्याण है |

        फूली बाई मात्र नाम-स्मरण भक्ति से उच्च अवस्था को प्राप्त हो गयी | आज भी मांझावास गाँव में श्याम मंदिर के पास फूली बाई की समाधि सब का ध्यान आकर्षित करते हुए कह रही है कि शिक्षा का अभाव कभी भी परमात्मा की राह में बाधा नहीं बन सकता |  आवश्यकता है, पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ परमात्मा के नाम का स्मरण करने की |

        फूली बाई अनपढ़ थी, केवल नाम स्मरण कर के परमात्मा में मिल गयी | इस दृष्टान्त से हमें नाम स्मरण के महत्त्व का पता चलता है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं-

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||गीता-8/5||

           अर्थात कोई भी मनुष्य शरीर के त्यागने के समय अगर कोई मेरा स्मरण भी कर लेता है तो तत्काल ही “मैं” उसको प्राप्त हो जाता हूँ, इस बात में कोई संशय नहीं है |

            पढ़कर और सुनकर हम समझते हैं कि बस, इतना सा करना और मुक्ति को पा जाना, इस प्रकार परमात्मा को प्राप्त करना तो बहुत ही सरल है | हाँ, गीता के इस श्लोक को पढ़ने से तो ऐसा ही प्रतीत होता है परन्तु अंत समय में भगवान् के नाम का स्मरण होना ही कठिन है | सब अजामिल का उदाहरण देते हैं परन्तु वे अजामिल के बारे में जानते ही कितना है ? हम अजामिल को देखते हैं तो लगता है कि पुत्र का नाम नारायण रख लेंगे तो अंत समय में उसको पुकार कर मुक्त हो जायेंगे | नहीं, अंत समय में जब दम घुटने लगता है तब उस समय परमात्मा के नाम का जिह्वा तक आना असंभव हो जाता है, ह्रदय से स्मरण करना तो बहुत दूर की बात है | उसका स्मरण तो तभी हो सकता है, जब जीवन में परमात्मा को कभी विस्मृत ही न होने दिया हो | अजामिल तो जीवन के प्रारम्भ से ही परमात्मा की भक्ति में लीन रहता था | वह तो कुसंगति में पड़कर परमात्मा के मार्ग से भटक गया था | नगर वधू के घर में रहते हुए अजामिल को सौभाग्य से एक बार फिर से सन्तो का संग मिला | सन्तो ने उसे बहुत प्रकार से समझाया परन्तु अजामिल ने कहा कि दुर्व्यसनों में पड़े रहकर उस परम का सतत स्मरण करना उसके लिए असंभव सा हो गया है | तब सन्तो ने उसे सुझाया कि तुम अपने पुत्र का नाम ही नारायण रख लो | हो सकता है उस पुत्र को अंत समय में पुकारते हुए तुम्हें वास्तविक नारायण का स्मरण हो जाये | जीवन के प्रारम्भ काल में स्मरण किये हुए नाम की विस्मृति कुछ समय के लिए भले ही हो जाये परन्तु एक दिन यह स्मृति लौट भी सकती है |

            अजामिल के जीवन के अंतिम समय में भी यही हुआ | दम निकलने के समय हुई तड़प में उसने अपने पुत्र नारायण को ही सहायता के लिए पुकारा था | तत्काल ही उसकी भीतर की गहराइयों में दबी हुई स्मृति लौट आयी और वास्तविक नारायण का स्मरण हो आया | तत्काल ही घुटन की तड़प के स्थान पर चेहरे पर शांति के भाव उभर आये | इस प्रकार जीवन के पूर्व काल का स्मरण प्रभावी हुआ और परमात्मा प्रकट हो गए | ऐसी है नाम-स्मरण की महिमा |

         हम सोचते हैं कि अभी जीवन का संध्याकाल नहीं आया है | जब जीवन का उत्तर काल आएगा, उस समय भगवान के नाम का स्मरण कर लेंगे | क्या आप बता सकते हैं कि अन्तकाल कब आएगा ? वह इसी क्षण भी आ सकता है | अभी से उसके नाम का स्मरण प्रारम्भ करोगे तब अंत समय में सम्भावना रहेगी कि भीतर उसका ही स्मरण चलेगा | अभी प्रारम्भ नहीं करोगे तो समझ लें, सरल नहीं है, अंतकाल में परमात्मा का स्मरण हो जाना | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-

यं यं स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ||गीता-8/6||

अर्थात हे कौन्तेय, यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस भाव को ही वह प्राप्त होता है क्योंकि उसने सदैव वैसा ही होने और पाने का चिंतन किया है |

            हम जीवन भर चिंतन करते हैं विषयों का, और चाहते हैं कि अंतिम समय में परमात्मा का चिंतन हो जाये | असंभव है ऐसा हो पाना क्योंकि मनुष्य जीवन भर जिस बात का चिंतन करता है वह चिंतन उसकी स्थाई स्मृति बन जाता है और यही स्मृति अन्तकाल में पुनः स्मरण हो आती है | जीवन भर परमात्मा का स्मरण किया नहीं तो भला अंत समय में उसका स्मरण कैसे हो पाएगा ? जिस दिन हम यह बात समझ जायेंगे उसी दिन से मन में तो परमात्मा का स्मरण करते रहेंगे और अपनी कर्मेन्द्रियों से कर्म | दोनों साथ साथ क्यों नहीं चल सकते; चल सकते हैं | मन का कार्य है मनन और कर्मेन्द्रियों का कार्य है कर्म करना | हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि “परमात्मा ने मनुष्य को दो हाथ दिए हैं | एक हाथ से संसार में रहते हुए कर्तव्य कर्म करते रहो और दूसरे हाथ से परमात्मा को पकडे रखकर उसका नाम स्मरण करते रहो | जब संसार में रहते हुए कर्तव्य कर्म से मुक्त हो जाओ, संसार का त्याग कर दो और दोनों हाथों से परमात्मा को पकड़ लो |”

             भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को यही समझा रहे हैं कि संसार में रहते हुए अपना नियत कर्म अर्थात युद्ध करो और साथ ही साथ मेरा स्मरण भी करो | मन लगाओ परमात्मा में और कर्म करो संसार की सेवा के लिए | फिर न तो कर्म रुकेंगे और न ही परमात्मा का स्मरण, बिना किसी बाधा के दोनों साथ-साथ चलते रहेंगे |

             प्रत्येक प्राणी में समान रूप से एक विशेषता होती है कि वह दो प्रकार के कर्म एक साथ नहीं कर सकता | जैसे कोई भी पशु भार ढोते समय अपना भोजन कर नहीं सकता अर्थात चर नहीं सकता और चरते-चरते भार नहीं ढो सकता | ऐसी ही व्यवस्था मनुष्य के साथ भी है | आधुनिक समय में किसी भी समारोह में भोजन की बफ़े व्यवस्था रहती है जिसमें एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलते हुए भोजन सामग्री लेनी पड़ती है | इस बार आप किसी ऐसे समारोह में जाओ तब मेरी बात पर ध्यान देना, ऐसी व्यवस्था में चलते समय हमारा भोजन करना रूक जाता है और भोजन करते समय चलना थम जाता है | इसी प्रकार जब हम सुमिरन को केवल दैनिक क्रिया के रूप में मात्र एक कर्म बना लेते हैं तब उसके साथ दूसरा कर्म करने में अड़चन आएगी ही, यह निश्चित है | भारतीय संस्कृति में इस बात को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है और कहा गया है कि एक बार में एक कार्य ही करो | हमारे यहाँ भोजन करते समय बात करना तक वर्जित माना गया है क्योंकि बात करना वाक् इन्द्रिय का काम है और भोजन करना हाथ और मुख का कार्य है | बात करते समय भोजन करने में बाधा पड़ती है | इस प्रकार की बाधा सुमिरन की क्रिया और अन्य सांसारिक कर्म करने में भी उत्पन्न होती है | ऐसे में हम जब नाम-सुमिरन को क्रिया मानकर करते हैं तो सांसारिक कार्यों को छोड़ना पड़ता है और संसार के कार्य करते हैं तो सुमिरन छूट जाता है |

               परन्तु स्मरण के साथ ऐसा नहीं है क्योंकि स्मरण मन में होता है, अतः वह कर्म की श्रेणी में नहीं आता है, वह मनन की श्रेणी में आता है | स्मरण के साथ साथ सुगमता से सभी प्रकार के कर्म किये जा सकते हैं, इसमें कोई बाधा नहीं है |

             मन और इन्द्रियों के कार्य भिन्न-भिन्न है | मन के दो भाग हैं, मन और चित्त | मन का मन वाला भाग कर्मेन्द्रियों से कार्य करवाता है और मन का दूसरा भाग अर्थात चित्त साथ ही साथ चिंतन मनन भी करता रहता है जबकि इन्द्रियां केवल कार्य करती है, चिंतन नहीं | इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्मरण तो मन से होता है और कर्म इन्द्रियों से | मन में विषयों का स्मरण चलता रहेगा तो फिर इन्द्रियों से कर्म भी उसी स्मरण के अनुरूप होंगे | जब मन से केवल परमात्मा का स्मरण होगा तो फिर कर्तव्य कर्म के अतिरिक्त कोई कर्म होगा भी नहीं | इसलिए महत्वपूर्ण है कि हमारा मन किसका स्मरण कर रहा है, किसका चिंतन कर रहा है | दिशा मन की बदलनी है, कर्म स्वतः ही परिवर्तित हो जायेंगे | परमात्मा का स्मरण करते हुए सकाम कर्म हो ही नहीं सकते, यह शत प्रतिशत सत्य है | इस बात को अनुभव ही किया जा सकता है, केवल पढ़ते और सुनते रहने से इसका अनुभव नहीं होगा | जरा परमात्मा का स्मरण करके तो देखिये, जीवन प्रवाह की दिशा कैसे परिवर्तित हो जाती है ?

मामनुस्मर युध्य च -14- समापन कड़ी   

            अंत समय में परमात्मा का स्मरण तभी हो पायेगा जब हम इस स्मरण को इसी जीवन में मन का स्थाई भाव बना लेंगे | केवल कुछ समय के लिए सुमिरन को केवल क्रिया मात्र बनाकर सांसारिक कर्मों में लग जाने से अंत समय में उस परम का स्मरण होना संभव नहीं होगा | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ||गीता-8/7||

इसलिए हे अर्जुन ! तू सब समय में मेरा स्मरण कर और साथ ही साथ युद्ध भी कर | इस प्रकार मुझ में अर्पण किये हुए मन और बुद्धि से युक्त होकर तू निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा |

        स्मरण का प्रभाव स्पष्ट करते हुए श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि स्मरण का सबसे अच्छा प्रभाव यह होता है कि मन और बुद्धि मेरे में अर्पित हो जाती है | फिर मन के कहीं ओर अथवा विषयों की ओर चले जाने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा | मन अपनी वृतियों के कारण ही हमें पतन की ओर ले जाता है | हमारे जीवन की सबसे बड़ी समस्या यही है कि हम सदैव मन के वश में रहते हैं, मन हमारे वश में नहीं रहता |

       मन के बारे में अमृत बिंदु उपनिषद् कहता है कि “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो” अर्थात मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है | सांसारिक विषय-भोग में आसक्त होकर मनुष्य बन्ध जाता है | हमें विषयों में आसक्ति का त्याग करना होगा | इसके लिए मन की वृतियों पर अंकुश लगाकर उन वृतियों को रोक देना आवश्यक है | वृतियों का निरोध हो जाने पर मन का भटकना स्वतः ही बंद हो जायेगा | इस मनोवृति निरोध में स्मरण की भूमिका महत्वपूर्ण है |

       मन की वृतियों का निरोध हो जाना ही परमात्मा से योग हो जाना है | पतंजलि योग सूत्र का द्वितीय सूत्र यही कहता है –“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” अर्थात चित्त की वृतियों का निरोध (सर्वथा रूक जाना) ही योग है | स्मरण से भी समर्पण तक पहुंचा जा सकता है | समर्पण ही शरणागति है | आइये ! हम सभी परमात्मा के स्मरण से परमात्मा को समर्पण की अवस्था तक पहुंचें | इसी शुभकामना के साथ इस श्रृंखला को समाप्त करने की आज्ञा चाहूँगा | आप सभी का साथ बने रहने पर आभार |

प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||