Monday, December 15, 2025

भूख -14

 भूख -14

             संसार की भूख के लिए “और, और, और अधिक” की चाह बढ़ती ही जाती है । कितना भी कर लो, इस ‘और’ का अन्त कभी नहीं आता । यह ‘और-और’ ही असंतुष्टि है । जीव जब इस ‘और-और’ की उपेक्षा करने लगता है, तब जाकर इस ‘और’ की लालसा धीरे-धीरे कम होने लगती है । जितनी सांसारिक भूख कम होगी उतनी ही आध्यात्मिकता की तरफ़ उन्मुखता होगी । इस प्रकार कहा जा सकता है कि सांसारिक भूख से विमुखता ही आध्यात्मिक भूख की जागृति का आधार है ।

          संसार की भटकन और अशांति से मुक्ति तभी मिल सकती है, जब इस बात की स्वीकारोक्ति हो जाए कि सांसारिक भूख कभी मिट नहीं सकती । इसी स्वीकारोक्ति के साथ ही व्यक्ति की आध्यात्मिक भूख जाग्रत हो जाती है । विषयों से एक बार का मिला सुख ही सांसारिक भूख के मूल में है । प्रत्येक विषय-सुख एक दिन आपको दुःखी करेगा ही, यह सत्य बात है । दुःखी होने पर हम फिर उसी सांसारिक सुख की चाहना करने लगते हैं, जिसकी परिणीति दुःख में हुई है । यही हमारी सबसे बड़ी भूल है । हमें यह समझना होगा कि जीवन में दुःख का आगमन होता ही इसीलिए है कि हम संसार से विमुख हो जाएं । जो इस रहस्य को जान जाता है वह संसार में रहते हुए भी वीतरागता को प्राप्त हो जाता है ।

              संसार से हुआ वैराग्य ही आध्यात्मिकता की राह खोलता है । वैराग्य से संसार की भूख मिट जाती है और आध्यात्मिक भूख जग जाती है । संसार से हुआ वैराग्य पुनः राग में परिवर्तित नहीं हो जाए, इस बारे में सबको सदैव सचेत रहना आवश्यक है ।

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Sunday, December 14, 2025

भूख -13

 भूख -13

        एक सुधि पाठक की जिज्ञासा है कि 'संग्रह सूक्ष्म शरीर का भूखा है' इसे पूर्ण रूप से समझ में नहीं आया। इसके बारे में थोड़ा विस्तार से बताएं।

            विषय-भोग स्थूल शरीर के स्तर पर भोगा जाता है। उस भोग से मिले सुख-दुःख का अनुभव सूक्ष्म शरीर को होता है। जब स्थूल शरीर मर जाता है तब सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर का त्याग कर देता है, तब स्थूल शरीर को किसी प्रकार के सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता। विषय-भोग से मिले सुख-दुःख का सूक्ष्म सूक्ष्म शरीर में ही होता है। इसी के आधार पर सूक्ष्म शरीर में ही अधिक भोग मिलने की इच्छा (वासना), विषय के प्रति आशक्ति, व्यक्ति के प्रति मोह, स्थान आदि के प्रति मोह, धन को संग्रहित करने की प्रवृत्ति आदि पैदा होती हैं। ये सभी सूक्ष्म शरीर में एकत्रित होते रहते हैं। दोस्ती के कारण अलग-अलग शरीर त्याग-त्याग रहता है। 

                   मुख्य रूप से हम धन के संग्रह की प्रकृति को ही सूक्ष्म शरीर की भूख कहते हैं। धन कामना अनुचित नहीं है क्योंकि धन से ही हमें स्वस्थ शरीर की आवश्यकता पूरी होती है। जिंदगी की दो हकीकतों को जानते हुए भी हम अंकित बने रहते हैं। पहली हकीकत - इस जीवन में स्टूल धन का भी संग्रह किया गया है, इसे शरीर छोड़ने पर कोई भी अपने साथ नहीं ले सकता। हम भलीभाँति जानते हैं कि धीरे-धीरे हमारे द्वारा अर्जित की गई सामग्री का संग्रह कर लिया गया है, वह हमारे पूरे जीवन के लिए आत्मनिर्भर है, फिर भी हम 'और अधिक, और अधिक' की रट लांग बने हुए हैं। दूसरी वास्तविकता - धन से एकमात्र पदार्थ ही विखंडित किया जा सकता है क्रम-सिद्धांत के अनुसार भगवान ने जन्म से पूर्व ही निश्चित कर रखा है। उस प्रारब्ध से न तो रत्ती भर कम अपॉइंटमेंट है न ही मोर। फिर भी हम जीवन भर धन की तलाश और संग्रह करने में लगे हैं। यह मानसिक भूख नहीं है तो और क्या है? 

          मन सूक्ष्म शरीर का मुख्य अंग है, जो हमें चौरासी के चक्कर में डालता है, वह बाहर यात्रा नहीं देता। वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी पर सूक्ष्म शरीर के सूक्ष्म कण पाए जाते हैं।

कल लेख की अगली कड़ी 

मॉन्स्टर - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Saturday, December 13, 2025

भूख -12

 भूख -12

          सांसारिक भूख के बाद बात करते हैं आध्यात्मिक भूख की । अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर मनुष्य ने अहम् के कारण एक अलग संसार बना लिया है, जिसमें आसक्त होकर उसमें फँस गया है । इससे मुक्त होने के लिए उसके भीतर जो छटपटाहट होती है, वह उसकी आध्यात्मिक भूख है । संसार अपरा प्रकृति है और जीव परा प्रकृति के अन्तर्गत है । संसार क्षर है, जीव अक्षर है । क्षर से मुक्त होने के लिए अक्षर अर्थात् जीव की प्रकृति (परा प्रकृति) का ज्ञान होना आवश्यक है । अध्यात्म का यही अर्थ है कि जीव अपने स्वभाव को जाने । अक्षर जीव उस अक्षर परमात्मा का अंश है जिसे उत्तम पुरुष कहा जाता है । स्वयं को जानने के लिए हमें संसार से अपने आपको अलग करना होगा । संसार से अलग होने के लिए अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना होगा तभी हम अहम् से स्वरूप तक पहुंचेंगे । इस प्रकार मनुष्य जीवन की यह आध्यात्मिक भूख उसकी ‘स्वभाव से स्वरूप तक’ की यात्रा कराती है ।

            सांसारिक भूख और आध्यात्मिक भूख, दोनों ही भूख हैं, फिर इनमें अंतर क्या है ? सांसारिक भूख को जितना हम मिटाने की कोशिश करते हैं, वह उतनी ही अधिक भड़कती है । सांसारिक भूख के कारण जीवन अशांति से घिरा रहता है । आध्यात्मिक भूख का पहले तो जाग्रत होना कठिन है और जब जाग्रत हो जाती है तब जीवन में शांति का अवतरण होने लगता है । आध्यात्मिक भूख ऐसी भूख है जिसको मिटाने के प्रयास मात्र से ही जीवन में संतुष्टि का अनुभव होने लगता है । सांसारिक भूख के लिए कितने ही प्रयास कर लें वह आपको सदैव असंतुष्ट ही बनाए रखती है । सांसारिक भूख संसार के भोजन को चाहती है और आध्यात्मिक भूख परमात्मा के भजन को ।

 क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।     

Friday, December 12, 2025

भूख -11

 भूख -11

     अब बात करते हैं, सामाजिक भूख की । भोग और संग्रह के पश्चात् बात आती है, सामाजिक मान-सम्मान की । भोग स्थूल शरीर की भूख है, संग्रह सूक्ष्म शरीर की भूख है और मान-सम्मान की चाह रखना सामाजिक भूख है । जब व्यक्ति के पास संग्रह अधिक हो जाता है, तब वह चाहता है कि समाज में उसकी प्रतिष्ठा हो, समाज से उसे मान-सम्मान मिले, समाज उसकी प्रशंसा करे । प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और प्रशंसा की चाह रखना सबसे बड़ा और ख़तरनाक ज़हर है । सामाजिक भूख को शान्त करने के लिए व्यक्ति भोग और संग्रह से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि ये एक दूसरे के पूरक हैं । सामाजिक स्तर पर इतनी अधिक प्रतिस्पर्धा है कि अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के प्रयास में व्यक्ति कोल्हू का बैल बन जाता है ।

         इस प्रकार सांसारिक भूख के बारे में हमने अल्प रूप से चर्चा की । सांसारिक भूख कंचन, कामिनी और कीर्ति की भूख है । कंचन के संग्रह में लग जाना मानसिक भूख है । कामिनी को भोगने अर्थात् शरीर के सुख की कामना के कारण यह शारीरिक भूख है । कीर्ति की कामना रखना सामाजिक भूख है । कंचन, कामिनी और कीर्ति की भूख तब तक शान्त नहीं हो सकती जब तक हम इस संसार को महत्व देते रहेंगे । संसार दिखता अवश्य है परंतु वास्तव में वह है नहीं । इसी प्रकार कंचन, कामिनी और कीर्ति हमें आकर्षित करती अवश्य है परन्तु उनका अस्तित्व नहीं है, वे स्थाई नहीं है । कंचन अर्थात् धन आने-जाने वाला है, कामिनी का यौवन भी एक दिन ढल जाने वाला है और कीर्ति भी सदैव के लिए नहीं रहेगी ।

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Thursday, December 11, 2025

भूख -10

 भूख -10 

          वासनामय भूख जब विस्तार पाती है तो मन तक अपना फैलाव कर लेती है । शरीर जब किसी विषय विशेष के प्रति आसक्त होकर क्रिया को करने में असहाय हो जाता है तब व्यक्ति मन में उसी विषय से सुख भोगने के लिए क्रिया (चिन्तन) करने लगता है अर्थात् मन के माध्यम से वह उस क्रिया का सुख लेता रहता है । उस क्रिया से मानसिक सुख तो मिल सकता है परंतु भूख नहीं मिट सकती ।

           शारीरिक भोग की तरह ही मानसिक भोग से भी व्यक्ति कभी तृप्त नहीं हो सकता क्योंकि संसार की वस्तुएँ चाहे स्थूल रूप में हो अथवा काल्पनिक रूप में, भोग के लिए बनी ही नहीं है, वे तो केवल उपयोग के लिए है । जितनी आवश्यकता है, केवल उतनी का ही उपयोग करेंगे तो भूख कभी विस्तारित नहीं होगी ।

          शास्त्रों में शारीरिक भोग से भी मानसिक भोग को अधिक पतन करने वाला बताया है । शारीरिक रूप से तो किसी एक विषय का भोग कर आप कुछ समय के लिए शान्त हो जाते हैं परंतु मानसिक भोग को आप अनिश्चित काल तक सतत भोगते हुए अशान्त बने रहते हैं । शारीरिक भूख को मिटाने के लिए आप इंद्रियों के माध्यम से विषय-भोग करते हुए रस लेते हैं परन्तु मानसिक भूख में आपके सामने विषय नहीं होता, फिर भी आप उसका रस लेते रहते हैं । गीता में भगवान ने कहा है कि इंद्रियों को विषयों से हटाने वाले मनुष्य के विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता अर्थात् उसकी शरीर और संसार में रसबुद्धि बनी रहती है । (गीता-2/59) । इस प्रकार कहा जा सकता है कि शारीरिक भूख से मानसिक भूख अधिक उग्र और विनाशकारी होती है । 

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Wednesday, December 10, 2025

भूख -9

 भूख -9              

       शरीर की वासना भूख मानसिक भूख है। यह वास्तव में स्थूल शरीर का भूख न क्षत्र सूक्ष्म शरीर का भूख है। दोनों के शरीर की भूख में ज्यादा अंतर नहीं है। मन में किसी वस्तु या पदार्थ की प्रति आसक्ति हो जाती है, तब मानसिक भूख तेज हो जाती है। अभी तक हमने काम-भोग की चर्चा की है। दूसरी वासनामय भूख, संग्रह की भूख है। काम-भोग के बाद इस वासनामय भूख का दूसरा उदाहरण धन का संग्रह करना है। धन का संग्रह करने वाला धन का उपयोग नहीं कर सकता। धन कमाना अनुचित नहीं है बल्कि धन को महत्वपूर्ण मानने के लिए केवल उसका संग्रह करना अनुचित है। धन की आवश्यकता नौकरों के लिए है। आवश्यकता है शेष धन का सदुपयोग करते हुए उसे सद्कार्यों में लगाना देना है। ऐसा करने से धन के संग्रह की भूख ख़त्म हो जाती है। 

       धन के लोभी व्यक्ति के मन में धन ने अपना विशेष स्थान बना लिया है जिससे वह अपने प्रिय का ही संग्रह कर लेता है फिर भी भूखा का खाना ही रह जाता है। वास्तव में धन के त्याग से जो सुख मिलता है, वह धन के संग्रह से नहीं। स्वामीजी कहते हैं कि जिस वस्तु के आकर्षण से जो सुख मिलता है, वह उस वस्तु के ज्ञान से नहीं - यह सिद्धांत है। धन के आकर्षण (लोभ) से जो सुख मिलता है, वह धन के ज्ञान से नहीं।

 क्रमशः 

मॉन्स्टर - डॉ. प्रकाश काछवाल

.. हरिः शरणम् ।।

Tuesday, December 9, 2025

भूख -8

 भूख -8

       सामाजिक वर्जनाएँ और शारीरिक विवशताएँ भले ही पुरुष को स्त्री-भोग से रोक दें फिर भी रूप-रस को भोगने से वह कभी बाज़ नहीं आता । मनुष्य के जीवन की विडम्बना है कि वह विषय- भोग में आकण्ठ डूबा हुआ है । आज तक भोगों से कभी कोई तृप्त नहीं हुआ है । शरीर की आवश्यकता अनुसार भोज्य पदार्थ सभी को मिलते हैं परंतु जब आवश्यकता मय भूख वासना बन जाती है तब उसका अन्त नहीं आता । विषय-भोग ही जीवन में दुःख का कारण बनते हैं । विषयों की यह तृष्णा ही उसके दुःख का कारण है ।

       या दुस्त्यज्या दुर्मतिभिर्जीर्यतो या न जीर्यते ।

       तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत् ।। भागवत - 9/19/16 ।।

      विषयों की तृष्णा ही दुःखों का उद्ग़म स्थान है । मंदबुद्धि लोग बड़ी कठिनाई से इसका त्याग कर सकते हैं । शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन होती जाती है । अतः जो कल्याण चाहता है, उसे शीघ्र से शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिए ।

      प्रत्येक व्यक्ति यह बात जानता है, फिर भी भोगों से उसका वैराग्य नहीं हो पाता । इसीलिए अष्टावक्र महाराज राजा जनक को कहते हैं - 

        मुक्तिमिच्छासि चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज ।

        क्षमार्जवदयातोषसत्यं पियूषवद् भज ।। अ.गी. -1/2।।

हे प्रिय ! यदि तू मुक्ति को चाहता है, तो विषयों को विष के समान त्याग दे और क्षमा, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत के सदृश सेवन कर ।

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Monday, December 8, 2025

भूख -7

 भूख -7

       पिता की कामना ने पुत्र को समय से पहले बूढ़ा कर दिया । पिता ययाति अपने पुत्र की युवावस्था पाकर कई वर्षों तक काम-सुख भोगता रहा, फिर भी उसको तृप्ति नहीं मिली । काम व्यक्ति को उम्रभर असंतुष्ट बनाए रखता है, संतुष्टि तो कामना रहित होने में है । यह तृप्ति मिलती है - त्याग से । भोग से भला कोई कभी तृप्त हुआ है ? ययाति की युवावस्था उधार की थी इसलिए कई वर्षों तक बनी रही परन्तु समय तो कभी रूकता नहीं, वह तो अपनी गति से भागता जाता है । ययाति युवा रहा परन्तु बढ़ती उम्र ने उसे कुछ सोचने को विवश कर दिया । उसे अपने किए पर बड़ी ग्लानि हुई । उसने देवयानी से अपने पतन की चर्चा की और भोगों से वैराग्य ले लिया । देवयानी से वे कहते हैं - 

        न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति ।

        हविषा कृष्णवत् र्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। 9/19/14 ।।

विषयों को भोगने से भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती । जिस प्रकार घी की आहुति डालने पर आग और अधिक भड़कती है, वैसे ही भोगों से भोगवासनाएँ और अधिक प्रबल होती है ।

         ययाति ने अपने असमय वृद्ध हुए पुत्र पूरू को उसकी युवावस्था लौटा दी और अपने चार बड़े पुत्रों में राज्य के विभिन्न भाग करके बाँट दिया । सबसे छोटे पुत्र पूरू ने चूँकि उनकी माँग को तत्काल पूरा किया था, उसे सभी संपत्तियां देते हुए अपने राज्य पर अभिषिक्त किया और वन में चले गए ।

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Sunday, December 7, 2025

भूख -6

 भूख -6

         भागवतजी के नवम् स्कंद में राजा ययाति का प्रसंग आता है। दानवों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से हुआ था उनका विवाह। देवयानी के साथ पूर्व में हुई एक घटना के कारण दैत्यराज विश्पर्वा की बेटी शर्मिष्ठा को सितारा सितारा देवयानी की दासीनाम दिया गया। आदर्श एक पुरुष एक ही स्त्री से कब जुड़ा है, भले ही उसने प्रेम-विवाह ही क्यों न किया हो। जो सुख वस्तु/व्यक्ति को प्राप्त नहीं होता वह सुख उसका प्रति हमारा आकर्षण होने का कारण होता है। उस वस्तु/व्यक्ति के मिल जाने पर वह पहले सुख जाता है। स्त्री/पुरुष का आकर्षण भी ऐसा ही होता है, जो भी उनसे मिलने में सुख पाता है, वह सुख मिल कर उनके जाने पर धीरे-धीरे धीरे-धीरे चलता रहता है। आदर्श ही सुख पुनः प्राप्ति के लिए पुरुष किसी अन्य महिला के आकर्षण में कमी रखता है। ययाति भी ऐसे पुरुषों में से एक थे। शर्मिष्ठा के साथ भी एक दिन उनका सम्बन्ध बन गया।

          देवयानी को जब इस अपवित्र संबंध के बारे में पता चला तो वह ययाति से रूठकर अपने पिता के पास चली गई। कामान्ध ययाति भी भला पीछे कहाँ रहने वाला था। ययाति पर दृष्टव्य ही शुक्रजी ने उन्हें असमय ही वृद्ध होने का श्राप दे दिया। ययाति का शरीर मूलतः वृद्ध हो गया। ययाति ने बड़ी अनुनय-विनय की और इससे देवयानी के सुख में आने वाली असामयिक बाधा से होने वाले अनिष्ट का वास्ता दिया। तब शुक्राचार्य ने कहा था कि वह इस श्राप से मुक्त होने के लिए किसी भी व्यक्ति को अपनी वृद्धावस्था में ले जा सकता है।

         ययाति के पाँचवें पुत्र थे - यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु, अनु और पुरू। प्रथम चार पुत्रों ने ययाति की अनुचित माँग को अस्वीकार कर दिया। सबसे छोटे बेटे पुरु ने ययाति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और पिता से वृद्धावस्था लेकर उन्हें अपनी युवावस्था दे दी। पुरू का कहना है कि यह शरीर मरणधर्मा है, दुनिया की सेवा में इसे लगाना ही इसका सदुपयोग करना है।

क्रमशः 

मॉन्स्टर - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Saturday, December 6, 2025

भूख -5

 भूख -5

          संसार के जितने भी सुख हैं, सब स्पर्शजन्य सुख है । मनुष्य शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । संयोग से जब कोई एक भी विषय इनसे स्पर्श करता है तब शरीर को एक प्रकार के सुख का अनुभव होता है । इस प्रकार प्रथम स्पर्श से होने वाले सुख को संयोगजन्य सुख कहा जाता है । इस स्पर्श-संयोग से अनुभव हुए सुख को हमारी इन्द्रियाँ बार-बार चाहने लगती है । इस बार-बार की चाहना को ही वासना कहा जाता है । इससे सिद्ध होता है कि जीव की आवश्यकतामय भूख तो मिट सकती है परन्तु वासनामय भूख का मिटना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है ।

          राजा भृर्तहरि कहते हैं - 

           भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता:

                    तपो न तप्तं वयमेव तप्ता: ।

           कालो न यातो वयमेव याता:

                    तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा: ।। वैराग्य शतक /7 ।।

अर्थात् भोगों को हमने नहीं भोगा बल्कि भोगों ने हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की बल्कि हम ख़ुद तप गए । काल अर्थात् समय कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं ही चले गए । इतना होने के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा जीर्ण नहीं हुई बल्कि हम स्वयं ही जीर्ण हो गए ।

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Friday, December 5, 2025

भूख -4

 भूख -4

         शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ है - त्वचा (स्पर्शेन्द्रिय), कान (श्रवणेन्द्रिय), नाक (घ्राणेंद्रिय), आँख (दर्शनेन्द्रिय) और जिह्वा (स्वादेन्द्रिय) । इनके पाँच विषय क्रमश इस प्रकार हैं - स्पर्श, शब्द, गंध, रूप और रस । विषय अपने से सम्बन्धित इंद्रिय के संपर्क में आता है, तब उस स्पर्श से उस विषय का ज्ञान होता है । उस ज्ञान से जीव को सुख या दुःख का अनुभव होता है । जिस विषय से उसे सुख का अनुभव होता है, उसे जीव बार-बार प्राप्त करना चाहता है और जिससे दुःख होता है उसकी उपेक्षा करना चाहता है । एक ही विषय कभी दुःख देता है और कभी सुख । इसी सुख-दुःख से राग - द्वेष पैदा होते हैं ।

            सुख-दुःख का अनुभव होना उस विषय की मात्रा, समय, परिस्थिति और स्थान आदि पर निर्भर करता है । जैसे अपने विरोधी की आलोचना जब सुनते हैं तो सुख का अनुभव होता है और प्रियजन की आलोचना सुनने पर दुःख का । मिष्ठान्न कम मात्रा में जो रस प्रधान करता है, अत्यधिक मात्रा में उपभोग करने पर वह दुःखी करता है । राग-रंग, संगीत आदि विवाह समारोह में तो सुख देते हैं परन्तु शोक की अवस्था में उन्हें देखकर ही उपेक्षा का भाव पैदा होता है ।

        इंद्रिय सुख को प्राप्त करने में पाँच कर्मेन्द्रियाँ अपना सहयोग देती है । कर्मेन्द्रियों की सक्रियता सुख-दुःख के अनुभव पर निर्भर करती है । मूल बात यह है कि इंद्रिय-सुख की चाहना ही मनुष्य की वासनामय भूख को बढ़ाने में मुख्य भूमिका निभाती है । 

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Thursday, December 4, 2025

भूख -3

 भूख -3

            आध्यात्मिक भूख को शांत करने के लिए भटकने वाला जीव कभी भी आध्यात्मिक नहीं हो सकता। हां, आध्यात्म की भूख की एक सीमा शांत तक है।

         सांसारिक भूख भी तीन प्रकार की होती है - शारीरिक (स्थूल शरीर की), मानसिक (सूक्ष्म शरीर की) और सामाजिक। शारीरिक भूख भी दो प्रकार की होती है - आवश्यकता है भूख और इच्छा की भूख। शरीर को ऊर्जायुक्त बनाए रखने के लिए जो भूख पैदा करता है, उसे भूख की आवश्यकता होती है। यह भूख भोजन के रूप में अन्न-जल ग्रहण करने पर एक बार के लिए शांत हो जाता है। जब शरीर को पुनः ऊर्जा की आवश्यकता होती है तो यह भूख फिर जागती है।

           दूसरी शारीरिक भूख है, वासनामय भूख। यह स्पर्शजन्य भूख है। प्रथम बार किसी विषय के इन्द्रिय-स्पर्श से जो सुख की अनुभूति होती है, जीव वही सुख को बार-बार अनुभव करना चाहता है। इस प्रकार उसी सुख को पुनः प्राप्त करने की भूख पैदा होती है। कमर दर्द ही बार इंद्रिय को विषय रूपी भोजन मिल जाए फिर भी यह भूख शांत नहीं होती बल्कि हर बार इसकी एंजल्स मजबूत होती है। इस प्रकार यह भूख जीवन में कभी भी शांत नहीं होता। यहां तक ​​कि शरीर के कैंसर होने से भी भूख खत्म नहीं होती। तब वह भूख शारीरिक स्तर को ठीक करने के लिए मानसिक स्तर पर स्थानांतरित हो जाती है। जो व्यक्ति शरीर के स्तर पर भोग नहीं लगाता, वह अब मानसिक स्तर पर भोगने लगता है। इस प्रकार आध्यात्मिक भूख शारीरिक से मानसिक भूख तक का अध्ययन किया जाता है।

क्रमशः 

मॉन्स्टर - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Wednesday, December 3, 2025

भूख -2

 भूख -2 

           मनुष्य अपनी अनेकों प्रकार की भूख के कारण ही विभिन्न योनियों में भटकते हुए संसार-चक्र से बाहर निकल नहीं पा रहा है । स्वामीजी कहते हैं कि हमें भूख लगती है इसका अर्थ है कि इस भूख को शान्त करने के लिए कहीं न कहीं भोजन अवश्य ही है । यदि भोजन नहीं होता तो भूख भी नहीं होती । इसी प्रकार स्वयं को जानने की जिज्ञासा है तो उस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए कहीं ज्ञान भी है । कहने का अर्थ है कि आप जानते तो हैं कि आप शरीर नहीं है बल्कि इस शरीर से भिन्न है परन्तु अज्ञानवश आप इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं । 

        क्या कारण है कि मनुष्य की यह भूख मिटती ही नहीं है ? भोजन मिल जाने पर भी इस शरीर की भूख सदैव के लिए शान्त क्यों नहीं होती, बार-बार  भोजन पाने की आवश्यकता क्यों रहती है ?  जब तक हमें भूख की प्रकृति का ज्ञान नहीं होगा, तब तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाएगा । चलिए ! पहले मनुष्य की भूख को जानने का प्रयास करते हैं ।

          भूख दो प्रकार की होती है - सांसारिक और आध्यात्मिक । सांसारिक भूख जीव को विभिन्न योनियों में भटकाती है जबकि आध्यात्मिक भूख उसे मुक्त करती है । जब तक सांसारिक भूख से विमुखता नहीं होती तब तक आध्यात्मिक भूख का जाग्रत होना असम्भव है । दोनों भूख एक साथ जाग्रत नहीं रह सकती । प्रायः व्यक्ति दोनों भूख की बात करता अवश्य है परंतु वास्तव में वह आध्यात्मिक रूप से भूखा होने का केवल नाटक ही करता है । 

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।


Tuesday, December 2, 2025

भूख -1

 भूख -1

        तो बात चल रही थी भूख की । चलिए ! इसी भूख पर बात को आगे बढ़ाते हैं । प्रत्येक जीव को भूख विरासत में जन्मजात मिलती है । भूख का अर्थ है - किसी चीज़ की आवश्यकता को अनुभव करना । यह आवश्यकता किसी की भी हो सकती है । शरीर को ऊर्जा की आवश्यकता होती है तो भूख लगती है । मन को मनोरंजन की भूख होती है । आर्थिक अभाव वाले को धन की भूख होती है । आध्यात्मिक व्यक्ति को आत्म-ज्ञान की भूख होती है । भूख का अनुभव होता है तो यह निश्चित है कि उस भूख को शान्त करने के लिए कोई न कोई भोज्य पदार्थ अवश्य उपलब्ध है । उसकी अनुपस्थिति में भूख का अनुभव हो ही नहीं सकता ।

          भूख के अनुभव से जो भोज्य पदार्थ ग्रहण किया जाता है उससे जीव को तुष्टि अर्थात् तृप्ति-सुख का अनुभव होता है । तुष्टि से पुष्टि होती है अर्थात् भोक्ता पुष्ट होता है । पुष्टि का अर्थ है जीवन में ऊर्जा का संचार । जब तुष्टि और पुष्टि का अनुभव हो जाता है तब भूख मिट जाती है अर्थात् क्षुधा निवृत्ति हो जाती है । यह क्षुधा निवृत्ति तब तक ही रहती है जब तक कि भोक्ता को तुष्टि और पुष्टि में किसी कमी का अनुभव नहीं हो । कमी का अनुभव होते ही भूख पुनः जाग्रत हो जाती है । भूख अन्य जीवों के लिए केवल शरीर को पुष्ट बनाए रखने का आधार मात्र है परन्तु मनुष्य की भूख का केवल एक मात्र यही कारण नहीं है । मनुष्य की भूख के कई कारण हो सकते है ।

क्रमशः 

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।

Monday, December 1, 2025

रूचि/ भूख

 रुचि / भूख

            प्रत्येक व्यक्ति की रुचि भिन्न-भिन्न होती है । कुछ लोग भोजन में रुचि रखते हैं, कुछ की रुचि पढ़ने, लिखने में होती है और कुछ की घूमने फिरने में । रुचि जब एक सीमा से अधिक बढ़ जाती है तब उसे ‘भूख’ कहा जाता है । इस भूख को शांत करने के लिए व्यक्ति अनेकों प्रयास करता है । कहने का अर्थ है कि इस संसार में सभी के पीछे एक प्रकार की भूख लगी है । 

              मुख्य बात है कि आपका भोजन कैसा है, आप क्या पढ़ते/लिखते हैं, कैसी जगह जाते हैं, घूमते-फिरते हैं, आप कैसे लोगों के संग उठते-बैठते हैं ?  कहने का अर्थ है कि आपकी रुचि सात्विक है, राजसिक अथवा तामसिक । सात्विक भोजन आपकी पेट की भूख को शांत करेगा और शरीर को पुष्ट भी । घूमना यदि तीर्थों की ओर है तो ऐसा भावपूर्ण पर्यटन आपके अन्तर्मन को शुद्ध बनाता है । इसी प्रकार सात्विक पठन-पाठन और लेखन स्वयं को जानने की जिज्ञासा को शांत करते हैं । आत्म-ज्ञान की भूख जाग्रत होते ही सोच, विचार और आचरण बदल जाते है । पढ़ने, सुनने, बोलने और लिखने में एक प्रकार की संतुष्टि का अनुभव होता है । 

            कुछ समय के लिए लेखन से हुई दूरी से मुझे जीवन में कुछ अभाव का अनुभव हुआ, संभवतः संतुष्टि का अभाव । लेखन से आत्मसंतुष्टि मिलती है । दूसरी बात, पाठक भी पुनः लेखन प्रारम्भ करने का बार-बार आग्रह कर रहे हैं ।  विचारों को जो गति लेखन से मिलती है, वह मुझे किसी अन्य साधन से नहीं मिली । लेखनी जब चलती है, तब न जाने भीतर से इतने विचार कहाँ से प्रकट हो जाते हैं ? लेखनी तो आपकी हो सकती है परंतु भाव जागृत करने में निःसंदेह अदृश्य शक्ति की भूमिका रहती है । लेखनी उठती भी तभी है, जब भीतर भाव जगते हैं । लेखनी तो केवल उन भावों को भाषाबद्ध करती है । लेखन की भूख का सीधा सम्बन्ध भीतर उठ रहे भावों से है ।

          आत्मकल्याण में लेखन की भले ही प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती हो परंतु अध्यात्म पथ पर अग्रसर करने में इसका महत्वपूर्ण स्थान है । लेखन से आत्मकल्याण की भूख सदैव बनी रहती है । इसी बात को ध्यान में रखते हुए आज गीता अवतरण दिवस से पुनः लेखन के माध्यम से आपके साथ जुड़ने जा रहा हूँ, इसी लेखन की ‘भूख’ के साथ ।

।। हरिः शरणम् ।।

डॉ. प्रकाश काछवाल