भूख -14
संसार की भूख के लिए “और, और, और अधिक” की चाह बढ़ती ही जाती है । कितना भी कर लो, इस ‘और’ का अन्त कभी नहीं आता । यह ‘और-और’ ही असंतुष्टि है । जीव जब इस ‘और-और’ की उपेक्षा करने लगता है, तब जाकर इस ‘और’ की लालसा धीरे-धीरे कम होने लगती है । जितनी सांसारिक भूख कम होगी उतनी ही आध्यात्मिकता की तरफ़ उन्मुखता होगी । इस प्रकार कहा जा सकता है कि सांसारिक भूख से विमुखता ही आध्यात्मिक भूख की जागृति का आधार है ।
संसार की भटकन और अशांति से मुक्ति तभी मिल सकती है, जब इस बात की स्वीकारोक्ति हो जाए कि सांसारिक भूख कभी मिट नहीं सकती । इसी स्वीकारोक्ति के साथ ही व्यक्ति की आध्यात्मिक भूख जाग्रत हो जाती है । विषयों से एक बार का मिला सुख ही सांसारिक भूख के मूल में है । प्रत्येक विषय-सुख एक दिन आपको दुःखी करेगा ही, यह सत्य बात है । दुःखी होने पर हम फिर उसी सांसारिक सुख की चाहना करने लगते हैं, जिसकी परिणीति दुःख में हुई है । यही हमारी सबसे बड़ी भूल है । हमें यह समझना होगा कि जीवन में दुःख का आगमन होता ही इसीलिए है कि हम संसार से विमुख हो जाएं । जो इस रहस्य को जान जाता है वह संसार में रहते हुए भी वीतरागता को प्राप्त हो जाता है ।
संसार से हुआ वैराग्य ही आध्यात्मिकता की राह खोलता है । वैराग्य से संसार की भूख मिट जाती है और आध्यात्मिक भूख जग जाती है । संसार से हुआ वैराग्य पुनः राग में परिवर्तित नहीं हो जाए, इस बारे में सबको सदैव सचेत रहना आवश्यक है ।
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरिः शरणम् ।।