Monday, March 3, 2025

काम

 काम  

                   अभी हमने पिछले लेख में ‘माया’ पर विस्तार से चर्चा की है । इस लेख में ‘काम’ को माया का अस्त्र बताया गया है । बहुत से पाठकों ने इसी ‘काम’ को और अधिक स्पष्ट करने का आग्रह किया है । ‘काम’ शब्द जहां भी आ जाता है, वहाँ एक प्रकार का आकर्षण हो ही जाता है ।

        ओशो कहते हैं कि विकृत मानसिकता के लोगों ने 'काम' को लेकर भारतीय समाज में जो भ्रम फैलाया है, वह अनुचित है । इसलिए आज आवश्यकता है कि ‘काम’ को सही रूप से जाना जाय । बिना ‘काम’ के संसार गतिमान बना नहीं रह सकता । परमात्मा ने इस संसार को बनाया ही अपने आनन्द के लिए है । उस आनंद की अनुभूति तभी हो सकती है, जब ‘काम’ को वासना के रूप में न लेकर प्रेम के रूप में लिया जाय । ऐसा होने से ‘काम’ मनुष्य को ‘राम’ तक ले जाता है और प्रेम ही उसके लिए आनन्द बन जाता है ।

              माया की रचना परमात्मा ने की है । माया का आकर्षण मनुष्य को अपनी ओर खींचता है ।  मनुष्य के माया की ओर आकर्षित होने में केवल ‘काम’ की ही भूमिका है । अगर 'काम' की दिशा बदल दें तो यही आकर्षण 'राम' के प्रति हो सकता है। कहने का अर्थ है कि बिना ‘काम’ के आकर्षण हो ही नहीं सकता । 

         ‘काम’ शब्द का अर्थ है - कामना, इच्छा अर्थात् इंद्रिय सुख की इच्छा । स्वामीजी कहते हैं कि जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो ज़ाय - यही काम है । किसी भी क्रिया, वस्तु और व्यक्ति का अच्छा लगना अथवा उससे कुछ भी सुख चाहना ‘काम’ है । जब भीतर किसी वस्तु अथवा व्यक्ति से इंद्रिय सुख पाने की चाहना होती है, तब कामना का जन्म होता है । उस कामना के कारण ही मनुष्य कर्म करने को विवश होता है । कर्म के फलस्वरूप इंद्रियों के माध्यम से व्यक्ति को सुख का अनुभव होता है ।

            सुख सात प्रकार के बतलाए गए हैं । पहला सुख - निरोगी काया । दूसरा सुख - घर में माया (धन, सम्पति) । तीसरा सुख - घर में कुलवंती नारी । चौथा सुख - पुत्र आज्ञाकारी । पाँचवाँ सुख - स्वदेश में वासा अर्थात् अपने ही देश में निवास करना । छठा सुख - राज में पासा । सातवाँ सुख - संतोषी जीवन ।

           एक से छः तक प्राप्त होने वाले सुख प्राप्ति की कामना प्रत्येक के मन में रहती है परंतु संतोषी जीवन के लिए प्रत्येक प्रकार की कामना का नाश होना आवश्यक है । जब तक भीतर एक भी कामना है, तब तक जीवन में संतोष आ ही नहीं सकता । शांतिपूर्ण जीवन के लिए संतोष धारण करना आवश्यक है । मनुष्य की कामनाएँ कभी पूरी नहीं होती क्योंकि ज्योंही एक कामना पूरी होती है कि दूसरी कामना जन्म ले लेती है । इन्हीं कामनाओं के बियाबान में भटकते हुए जीव चौरासी लाख योनियों में घूमता रहता है फिर भी किसी जन्म में उसको शांति प्राप्त नहीं होती ।

         पौराणिक कथाओं के अनुसार कामदेव भगवान विष्णु और लक्ष्मी के पुत्र हैं । कुछ कथाओं में इन्हें ब्रह्माजी का पुत्र बतलाया गया है और इनका सम्बन्ध भगवान शिव से भी है । कुछ ग्रंथों ने इनका आविर्भाव धर्म की पत्नी श्रद्धा से हुआ माना है । गीता में भगवान कहते हैं कि मैं ‘प्रजनश्चास्मि कन्दर्प:’ हूँ (गीता-10/28) अर्थात् मैं शास्त्रोक्त रीति से संतान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ । शास्त्रोक्त रीति से संतान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव, कैसे ?

         मुख्य कथा कहती है कि एक समय ब्रह्माजी प्रजा की वृद्धि के लिए ध्यानमग्न थे । उसी समय उनके अंश से तेजस्वी पुत्र ‘काम’ उत्पन्न हुआ । कामदेव ने उत्पन्न होते ही ब्रह्माजी से कहा - ‘पिताजी, मेरे लिए क्या आज्ञा है ?’  ब्रह्माजी बोले कि मैंने सृष्टि के विस्तार के लिए प्रजापतियों को उत्पन्न किया किंतु वे सृष्टि रचना में समर्थ नहीं हुए । अतः मैं तुम्हें इस कार्य की आज्ञा देता हूँ ।

           सुनकर कामदेव वहाँ से विदा होकर अदृश्य हो गए । यह देख ब्रह्माजी बड़े क्रोधित हुए और उन्होंने कामदेव को श्राप दे डाला कि तुम्हारा शीघ्र ही नाश हो जाएगा । शाप सुनकर कामदेव भयभीत हो गए और ब्रह्माजी से क्षमा माँगने लगे । तब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उन्हें क्षमा कर दिया । उन्होंने सृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए कामदेव को बारह स्थान रहने के लिए दिए । ये वे स्थान हैं जहां कामदेव सदैव रहते हैं - स्त्रियों के कटाक्ष, केश, जंघा, वक्ष, नाभि, जंघमूल, अधर, कोयल की कूक, चाँदनी, वर्षाकाल,चैत्र और वैशाख का महीना । साथ ही ब्रह्माजी ने कामदेव को पुष्प-धनुष और पाँच बाण भी दिए । ये पाँच बाण हैं - मारण, स्तम्भन, जृंभन, शोषण और उम्मादन अर्थात् मन्मथ ( मन को मथने वाला ) इसीलिए कामदेव का एक नाम मन्मथनाथ भी है ।

             ब्रह्माजी से मिले वरदान की सहायता से कामदेव तीनों लोकों में भ्रमण करने लगा और भूत, पिशाच, गंधर्व, यक्ष सभी को अपने वश में कर लिया । कामदेव की पत्नी है, रति । रति को प्रेम और आकर्षण की देवी माना जाता है । रति का अर्थ है - रत होने का भाव । किसी कार्य में रत हो जाना, इतना डूब जाना कि आस-पास क्या घटित हो रहा है, उसका भी पता न चलना । रति का दूसरा अर्थ है - प्रेम, आनंद । 

         भगवान दत्तात्रेय ने अपने चौबीस गुरु बताए हैं । इनमें एक गुरु बाण बनाने वाला भी है । बाण बनाने वाले ने अपने आपको कार्य में ऐसा रत कर लिया था कि पास से दल-बल के साथ राजा की सवारी निकली और उसे इसका भान तक नहीं हुआ । मन को एकाग्र कर एक विशेष कार्य में लग जाना ही तन्मय हो जाना है । यह काम-रति है । मन को वश में कर, वैराग्य धारण कर मन को परमात्मा में लगा देना प्रेम-रति है । रति एक ही है, उसको किस प्रकार उपयोग में लेना है, यह व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है ।

          रति के पिता का नाम था - दक्ष जोकि सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के पुत्र थे । कहा जाता है कि रति का जन्म दक्ष के पसीने की एक बूँद से हुआ था । दक्ष की एक पुत्री सती थी, जोकि भगवान शंकर की पत्नी थी ।  ब्रह्माजी ने ही कामदेव को पत्नी के रूप में रति दी जिससे सृष्टि का विस्तार हो सके । रति इसके लिए कामदेव के लिए एक सहायक की भूमिका में है । यहीं से मैथुनी सृष्टि का आविर्भाव हुआ ।

                मैथुनी सृष्टि के लिए आवश्यक है - परमात्मा की माया । इस माया के गुणों ने ‘काम’ को जन्म दिया । बिना ‘काम’ के सृष्टि का विस्तार असंभव है । इस ‘काम’ के कारण ही स्त्री और पुरुष एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं । ‘काम’ के कारण बने आकर्षण से स्त्री-पुरुष में संयोग होता है, जिसके परिणामस्वरूप सृष्टि विस्तार को एक आधार मिलता है ।

      गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘काम’ की उत्पत्ति रजोगुण से हुई है ।

         काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: ।

         महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ।। गीता - 3/37।।

अर्थात् रजोगुण से उत्पन्न यह ‘काम’ अर्थात् कामना ही पाप का कारण है । यह ‘काम’ ही क्रोध में परिणत होता है । यह बहुत अधिक खाने वाला और महापापी है । इस विषय में तू इसको ही वैरी जान ।

            इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘काम’ की उत्पत्ति माया के एक गुण - रजोगुण से हुई है । मनुष्य जीवन का उद्देश्य माया से मुक्त होकर परमात्म-अवस्था को प्राप्त होना है । माया से मुक्त होने के लिए ‘काम’ पर नियंत्रण कर उसको जीतना आवश्यक है । यह ‘काम’ इतना प्रभावशाली है कि कोई भी व्यक्ति जीते-जी नहीं कह सकता कि उसने ‘काम’ को जीत लिया है । काम को जीतने का अर्थ है, जीवन में काम से निष्प्रभावी बने रहना ।

      रजोगुण से उत्पन्न ‘काम’ आपको संसार के साथ बाँधता है । इसी बंधन के कारण जीव संसार के आवागमन में पड़ा रहता है और मुक्त नहीं हो पाता । इसीलिए ‘काम’ को माया का अस्त्र कहा गया है, जिसका उपयोग करते हुए माया सृष्टि-चक्र को रूकने नहीं देती ।

        माया का सबसे बड़ा अस्त्र यह ‘काम’ ही है, जिसके कारण मनुष्य कंचन और कामिनी के आकर्षण से कभी मुक्त नहीं हो पाता । यह आकर्षण जीव के भीतर पल रहे ‘काम’ के कारण है । आकर्षित होकर जीव माया (काम) से मिलने वाले शारीरिक सुख का भोग करने लगता है । वास्तव में यह सुख प्रकृति के गुणों की क्रियाओं का परिणाम होता है ।

            प्रकृति में हो रही क्रियाएँ मनुष्य को इंद्रियों के माध्यम से सुख-दुःख प्रदान करती है । यथार्थ में इस संसार में सुख-दुःख है ही नहीं । प्रकृति में हो रही क्रियाएँ जीव के समक्ष केवल परिस्थितियों का निर्माण करती है, जैसे वातावरण में तापक्रम का बढ़ना अथवा कम होना । स्पर्शेन्द्रिय के माध्यम से व्यक्ति को वातावरण में हो रहे परिवर्तन से गर्मी अथवा शीत का अनुभव होता है । हम इस परिस्थिति को सहन करने की क्षमता पैदा कर लेते है तो फिर हम वातावरण में हो रहे परिवर्तन से सुखी-दुःखी नहीं होंगे । इसका अर्थ है कि सुख-दुःख का अनुभव करना हमारी मानसिक दशा पर निर्भर है अर्थात् यथार्थ में सुख-दुःख नहीं है बल्कि प्रकृति में होने वाली क्रियाओं से केवल परिस्थितियाँ परिवर्तित होती हैं ।

            काम-रति का युगल सृष्टि को चलाने के लिए आवश्यक है । काम है कामना और रति है आसक्ति । आसक्ति और कामना एक दूसरे के सहयोगी है । जहां आसक्ति है वहाँ कामना जन्म लेगी ही और कामना जहां है वहाँ सुखासक्ति पैदा होगी ही ।

                    सुखासक्ति होने से जीव प्रकृति के गुणों के साथ बंध जाता है । एक बार मिले शारीरिक सुख को बार-बार भोगने की इच्छा होती है । बार-बार भोग भोगने के लिए ‘काम’ की ज्वाला भड़कती जाती है जिससे नई नई कामनाएँ जन्म लेती है । कामनाओं की पूर्ति का एक मात्र साधन यह माया निर्मित शरीर ही है, जिससे कर्म करते हुए व्यक्ति मनोवांछित फल को प्राप्त करने का प्रयास करता है । 

              इस प्रकार स्पष्ट है कि माया का अस्त्र ‘काम’ है । काम के कारण ही जीव संसार में फँसता है । काम इंद्रियों के द्वारा, मन के माध्यम से जीव को भोग उपलब्ध कराता है । शारीरिक सुख-भोग की इच्छा जीव की होती है क्योंकि वह शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है और यह तादात्म्य बनता भी इसी काम के कारण है । यह काम, जीव और शरीर के संधि-स्थान पर रहता है अर्थात् माया निर्मित शरीर में काम इंद्रियों, मन और बुद्धि से होते हुए अहम् (अहंकार) के माध्यम से जीव को जकड़ता है और उसे शरीर के साथ बांध देता है । संतों ने इस संधि को चिज्जड़-ग्रंथि कहा है अर्थात् चैतन्य जीव और जड़ शरीर का जोड़, जिसके मूल में ‘काम’ ही है । 

               भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं - ‘जहि शत्रुम् महाबाहो कामरूपं दुरासदम्’, (गीता - 3/43) “अर्जुन ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल” । परंतु काम को मार डालना इतना आसान नहीं है । काम एक है और उसके कारण उत्पन्न होने वाली कामनाएँ असंख्य है, जिन्हें वासनाएं भी कहा जाता है । जब तक जीव की समस्त कामनाएँ समाप्त नहीं होगी, तब तक काम नहीं मरने वाला और कामनाएँ कभी समाप्त होने वाली नहीं है । एक के पूरी होने से पहले ही दूसरी कामना जन्म ले लेती है ।

        भगवान श्रीकृष्ण जिस ‘काम’ को नष्ट करने की बात कह रहे हैं वह आसक्ति से पैदा हुई वे असंख्य कामनाएँ है, जिनका पूरा होना संभव ही नहीं है । इंद्रियों का निग्रह करने से सतही (ऊपरी) तौर पर ‘काम’ नष्ट हुआ प्रतीत अवश्य होता है परन्तु किसी भी एक इंद्रिय के माध्यम से कोई एक विषय शरीर में प्रवेश कर सुषुप्त पड़े काम को पुनः पूर्ण रूप से सक्रिय कर सकता है । इसलिए इंद्रियों पर हर समय नियंत्रण रखना बहुत आवश्यक है । 

            ‘काम’ को जीतना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है । जिसने ‘काम’ को जीत लिया वह ईश्वरतुल्य हो जाता है । ‘काम’ शब्द कामदेव से लिया है जिसको परमात्मा ने अपनी एक विभूति भी बताया है । भगवान कहते हैं कि मैं ‘प्रजनश्चास्मि कन्दर्प:’ हूँ (गीता-10/28) अर्थात् मैं शास्त्रोक्त रीति से संतान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ ।

        ‘काम’ अदृश्य रूप से शरीर में रहता है इसीलिए उसको जीतना असंभव लगता है । ‘काम’ शब्द कामदेव से लिया गया है । कामदेव तो ‘काम’ के साकार रूप थे, रति उनकी पत्नी थी फिर उनके साथ ऐसा क्या घटित हो गया जो वे अनंग हो गए और ‘काम’ बनकर प्रत्येक जीव के भीतर प्रवेश कर उसे संसार में उलझा रहे हैं । जानने के लिए चलते हैं, त्रेता युग में ।

          त्रेता में भगवान शंकर ने अपनी पत्नी सती का त्याग कर दिया था । परमात्मा के प्रति संदेह और शंकर की बात पर अविश्वास, इस त्याग का कारण था । थोड़े दिनों बाद सती के पिता ने यज्ञ का आयोजन किया । भगवान शिव से वैमनस्य के कारण दक्ष ने सती को भी आमंत्रित नहीं किया । सती परित्याग से दुःखी तो थी ही, बिना बुलाए अपने पिता के घर चली गई । यज्ञ में अपने पति शंकर का भाग/स्थान न देखकर अपने पिता पर बड़ी क्रोधित हुई और स्वयं को अपनी योगाग्नि से जला डाला । शरीर छोड़ते हुए एक ही कामना थी कि अगले जन्म में उसे शंकर ही पति रूप में मिले ।

          सती का हिमाचल के घर पार्वती के रूप में जन्म हुआ । नारद के निर्देशानुसार शंकर को पाने के लिए दीर्घकालीन तप किया । देवताओं ने देखा कि शंकर तो समाधिस्थ है, ऐसे में उनका पार्वती से विवाह कैसे संपन्न होगा ?  विवाह होना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि शिव-पार्वती के पुत्र (कार्तिकेय) के ही हाथों तारकासुर का वध होना पूर्व निश्चित है ।

       देवताओं की सभा में प्रश्न उठा कि शिव की समाधि भंग कैसे हो ? कौन अपने प्राणों की बाज़ी लगाएगा इस कार्य के लिए ? कामदेव को बड़ी मुश्किल से इस कार्य के लिए राज़ी किया गया । कामदेव जानता था कि इस कार्य के लिए उसे अपने प्राणों को हथेली पर रखकर जाना होगा । कामदेव डरते-डरते कैलाश की ओर चला । उसकी उपस्थिति मात्र से ही वातावरण काममय हो गया । सभी चर-अचर, जीव-निर्जीव में काम बढ़ने के लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगे । कामदेव ने दूर से ही देखा कि शंकर समाधिस्थ हैं और उन पर उत्पन्न किए गए वातावरण का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है । 

              तभी कामदेव छोटे से जंतु जितना सूक्ष्म रूप लेकर कर्ण के छिद्र से भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर गए । इससे शिवजी का मन चंचल हो गया । उन्होंने विचार कर अपने चित्त में देखा कि कामदेव उनके शरीर में स्थित है । इतने में ही इच्छा शरीर धारण करने वाले कामदेव भगवान शिव के शरीर से बाहर आ गए और आम के एक वृक्ष के नीचे जाकर खड़े हो गए । फिर उन्होंने शिवजी पर मोहन नामक बाण छोड़ा, जो शिवजी के हृदय पर जाकर लगा । इससे क्रोधित हो शिवजी ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया ।

              कामदेव को जलता देख उनकी पत्नी रति विलाप करने लगी। तभी आकाशवाणी हुई जिसमें रति को रुदन न करने और भगवान शिव की आराधना करने को कहा गया ।  फिर रति ने श्रद्धापूर्वक भगवान शंकर की स्तुति की । रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो शिवजी ने कहा कि कामदेव ने मेरे मन को विचलित किया था इसलिए मैंने इन्हें भस्म कर दिया । अगर ये अनंग रूप में ही महाकाल वन में जाकर शिवलिंग की आराधना करेंगे तो इनका उद्धार होगा ।

               अनंग (कामदेव) महाकाल वन आए और उन्होंने पूर्ण भक्तिभाव से शिवलिंग की उपासना की । उपासना के फलस्वरूप शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम अनंग अर्थात् शरीर के बिना रहकर भी समर्थ रहोगे । द्वापर में कृष्णावतार के समय तुम रुक्मणि के गर्भ से जन्म लोगे और तुम्हारा नाम प्रद्युम्न होगा ।

            जब शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया तब ये देख रति विलाप करने लगी तब जाकर शिव ने कामदेव के पुनः कृष्ण के पुत्र रूप में धरती पर जन्म लेने की बात बताई । शिव के कहे अनुसार भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मणि को प्रद्युम्न नाम का पुत्र हुआ, जो कि कामदेव का ही अवतार था । इस अवधि में रति शम्बरासुर के यहाँ जाकर रसोईघर में कार्य करने लगी और अपना नाम मायावती रख लिया ।

               कहते हैं कि श्रीकृष्ण से दुश्मनी के चलते राक्षस शम्बरासुर नवजात प्रद्युम्न का जब वे मात्र दस दिन के शिशु थे, अपहरण करके ले गया और उसे समुद्र में फेंक आया । उस शिशु को एक विशाल मछली ने निगल लिया और वो मछली मछुआरों द्वारा पकड़ी जाने के बाद शम्बरासुर के रसोई घर में ही पहुंच गई ।

                    रति, मायावती के नाम से शम्बरासुर के यहाँ रसोईघर में पहले से ही काम कर थी । रसोईघर में आई मछली को उसने ही काटा और उसमें से निकले बच्चे को मां के समान पाला-पोसा । जब वो बच्चा युवा हुआ तो उसे पूर्व जन्म की सारी याद दिलाई गई । इतना ही नहीं, वे सारी कलाएं भी सिखाईं जिससे प्रद्युम्न ने शम्बरासुर का वध किया और फिर मायावती (रति) को ही अपनी पत्नी रूप में द्वारका ले आए ।

         कामदेव के अनंग होने और प्रद्युम्न बनकर रति से उसके मिलन की यह कथा श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम् स्कन्ध के पचपनवें अध्याय में वर्णित है । अनंग होने के बाद काम-रति प्रत्येक जीव के शरीर धारण करते समय उसके भीतर छिपे रहते हैं । अनुकूल समय आने पर वे कामना और आसक्ति के रूप में सक्रिय होकर जीव को संसार के साथ बांध देते हैं । इस प्रकार जीव ‘काम’ के सांसारिक रूप कामना-आसक्ति से भ्रमित होकर सुख-दुःख में उलझ जाता है । ‘काम’ का दूसरा रूप भी है, जो जीव को वैराग्य की ओर ले जाते हुए प्रेम और आनंद की उपलब्धि भी करा सकता है । ‘काम’ के इस दूसरे रूप को पुरुषार्थ कहा जाता है ।

     ‘काम’ को मनुष्य जीवन का पुरुषार्थ कहा गया है । जीवन के चार पुरुषार्थों में काम तीसरे नंबर का पुरुषार्थ है, शेष तीन पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ और मोक्ष । आहार, निद्रा, भय और मैथुन में रत तो सभी प्राणी रहते हैं । मनुष्य केवल पुरुषार्थ के कारण प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है ।

            पुरुषार्थ-एक छोटा सा मात्र चार अक्षरों से मिलकर बना शब्द परन्तु है बड़ा गूढ़ । पुरुषार्थ, एक संस्कृत शब्द है,जो दो शब्दों के योग से बना है - पुरुष+अर्थ = पुरुषार्थ । अतः इस शब्द का तात्पर्य हुआ – पुरुष होने का मंतव्य, पुरुष होने उद्देश्य । अंग्रेजी में इसको कह सकते हैं- Purpose of human being or objects of human pursuit. पुरुष का अर्थ है पुर यानि शरीर में रहने वाला । इस भौतिक शरीर को जो अधिग्रहित करता है वह है, चेतन्य अर्थात आत्मा । मनुष्य मात्र शरीर ही नहीं है ,वह शरीर से अलग भी कुछ है , उसी को हम जीवात्मा कहते है | यह भौतिक शरीर जीवात्मा के कारण ही चेतनता को उपलब्ध होता है । अतः इस छोटे से शब्द पुरुषार्थ का अर्थ हुआ चेतन्य होने का उद्देश्य ।

         इस प्रकार पुरुषार्थ की परिभाषा हुई - “अपने अभीष्ट (Desirable) की प्राप्ति के लिए, अपने कल्याण (Well being) के लिए जो मानसिक (Mental), वाचिक (Verbal) और कायिक (Somatic) चेष्टायें (Efforts) की जाती है, उन्हीं चेष्टाओं को पुरुषार्थ कहते हैं ।”

          स्वामी शरणानन्द जी महाराज कहते हैं कि प्रारब्ध का सदुपयोग करना ही मनुष्य का पुरुषार्थ है । अर्थ और काम का सदुपयोग धर्म के आचरण से ही हो सकता है अन्यथा नहीं । यही कारण है कि धर्म को मनुष्य का प्रथम पुरुषार्थ कहा गया है ।

           मनुष्य जीवन का तीसरा पुरुषार्थ है काम । काम का शाब्दिक अर्थ है ‘इच्छा’ अथवा ‘कामना’ । सामान्य रूप से कामना का मंतव्य होता है - शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करना । पुरुषार्थ के रूप में काम से अभिप्रायः मनुष्य की उन सभी शारीरिक, मानसिक आदि कामनाओं की पूर्ति से है, जो उसके सम्पूर्ण विकास और जीवन के परम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करने में सहायक है । इच्छा सभी कार्यों की प्रेरक शक्ति (Motivational power) है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रत्येक कार्य के पीछे ‘काम’ का होना एक आवश्यक शर्त है ।

           चार पुरुषार्थों में से अर्थ और काम तो पूर्व मनुष्य जीवन के पुरुषार्थ हैं और धर्म तथा मोक्ष वर्तमान जीवन के । पूर्व मानव जीवन में अधूरी रही कामनाओं और कर्मों से बना प्रारब्ध वर्तमान जीवन में फलीभूत होता है । धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ को मनुष्य केवल अपने वर्तमान जीवन में ही प्राप्त कर सकता है, इसमें प्रारब्ध की कोई भूमिका नहीं है । 

    मोक्ष, जोकि मनुष्य का अंतिम पुरुषार्थ है, उस तक पहुँचने के लिए जीवन में धर्मयुक्त काम और अर्थ के लिए प्रयास किए जाने चाहिए । प्रत्येक प्रयास के लिए मन में कामना का जन्म लेना आवश्यक है । धर्म और अर्थ प्राप्ति के लिए भी मनुष्य के भीतर उनकी प्राप्ति की कामना होना आवश्यक है । इस प्रकार समझ में आता है कि चारों पुरुषार्थ आपस में एक दूसरे से किस प्रकार जुड़े हुए हैं । 

               इतने विवेचन से स्पष्ट है कि  मनुष्य के जीवन में कामनाओं का महत्वपूर्ण स्थान है । अगर मन में कामना ही न उठे तो फिर अर्थ कैसे प्राप्त होगा ? अर्थ, धर्म के एक आवश्यक अंग -‘दान’ के लिए आवश्यक है । अतः जीवन में काम का होना धर्म और अर्थ, दोनों की तरह ही महत्वपूर्ण है । बिना ‘काम’ के हमारा जीवन एक भार ढोने वाले प्राणी से बिलकुल भी भिन्न नहीं होगा । जीवन बोझ तभी बन जाता है, जब कामनाएं पूरी न हो । अतः कामनाओं का जीवन में उठना, उनको पूरा करने का प्रयास करना और फिर सुख प्राप्त करना ही जीवन को गतिमान बनाए रखने के लिए आवश्यक है ।

                  जीवन में कामनाएं होना / रखना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है परन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि जीवन में कामनाएं कैसी रखनी चाहिये ? सांसारिक सुख क्षणिक सुख से अधिक कुछ भी नहीं है जबकि परमात्मा का सुख अखंड और अनन्त (Infinity) है । हमारे जीवन में कामनाएं प्रायः सांसारिक सुख की होती है । सांसारिक सुख अस्थाई (Temporary) है जोकि अंततः दुःख में परिवर्तित होता है । अतः जीवन में ऐसे काम को महत्त्व (Importance) देना चाहिए जो हमें स्थाई सुख दे सके । स्थाई सुख परमात्मा में ही मिल सकता है, संसार में नहीं । अतः हमारी कामना परमात्मा का प्रेम पाने के लिए होनी चाहिए, संसार से प्रेम पाने की नहीं । परमात्मा से प्रेम करने पर हमें प्रेम ही प्रत्युतर में मिलता है जबकि संसार से प्रेम करने पर अंततः दुःख की प्राप्ति होती है ।

           इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि एक सिक्के की तरह ‘काम’ के भी दो पहलू हैं । ‘काम’ संसार के सुखों की ओर ले जाता है, जिसके कारण मनुष्य ममता और आसक्ति के जाल में उलझकर संसार के बियाबान में भटकता रहता है । यही ‘काम’ अगर प्रेम और आनंद की दिशा पकड़ लेता है तो मनुष्य को परमात्मा तक ले जा सकता है । यह निर्णय तो स्वयं मनुष्य को ही करना है कि वह संसार से सुख चाहता है अथवा परमात्मा का प्रेम । फिर ‘काम’ स्वतः ही अपनी दिशा उसी प्रकार निर्धारित कर लेगा । ‘काम’ वर्जनीय नहीं है, मनुष्य की मानसिकता ही उसे विकृत बना देती है । अतः ‘काम’ को राम की दिशा में लगा देना ही उचित है ।

            भारतीय मनीषियों ने काम को तीन श्रेणियों में रखा है - सात्विक, राजसिक और तामसिक । गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –

 बलं बलवंता चाहं कामरागविवर्जितम् ।

धर्मविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।। गीता-7/11 ।।

अर्थात् हे भरत श्रेष्ठ ! मैं बलवानों का कामना और आसक्ति रहित बल यानि सामर्थ्य हूँ तथा सभी प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम अर्थात् धर्मयुक्त हूँ ।

                सात्विक काम में कर्म, फल की कामना के बिना अर्थात किसी प्रत्याशा/अपेक्षा (Expectancy) के बिना और स्व-धर्मानुसार (विवेकानुसार) संपन्न किया जाता है । सात्विक काम धर्म सम्मत होता है । राजसिक काम विषय, वासना और इन्द्रिय संयोग से पैदा होने वाला अहंकारयुक्त और फल की इच्छा रखते हुए किया जाने वाला काम है । इस प्रकार के काम को भोगते समय तो सुखकारी प्रतीत होता है किन्तु इसका परिणाम दुखकारी होता है । तामसिक काम में मनुष्य मोह पाश में बंधा हुआ होता है , वह न तो वर्तमान का और न ही भविष्य का कोई विचार करता है । आलस्य(Laziness), निद्रा (Lethargy) और प्रमाद(Negligence) इस काम के जनक कहे गए हैं । इस प्रकार का काम न तो भोगते समय सुख देता है और न ही इसका परिणाम सुखकारी होता है । इन तीनों कामों में सात्विक काम श्रेष्ठ है जो भोगते समय तो विषकारी हो सकता है लेकिन परिणाम सदैव आनंददायी और मुक्तिकारक होता है, अन्य काम तो केवल बंधन ही पैदा करते हैं । यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने स्वीकार किया है कि यौन (Sexual) सम्बन्धी इच्छाओं की तृप्ति (Satiety) जीवन का एक सहज (Effortless), स्वाभाविक (Natural) अथवा मूल प्रवृत्यात्मक अंग (Part) है । इसकी संतुष्टि के लिए हमारी संस्कृति में विवाह (marriage) का विधान है ।

             गीता में इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए काम को तृप्त करने के लिए कहा गया है । प्रश्न उठता है कि इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए ‘काम’ की तृप्ति कैसे हो सकती है ? प्रश्न का उत्तर जानने के लिए ईशावास्योपनिषद के प्रथम मंत्र पर दृष्टि डाल लेते हैं । यह मंत्र कहता है -

          ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्या जगत् ।

          तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्य स्विद् धनम् ।।

अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतन स्वरूप जगत् है, यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है । उस ईश्वर को साथ रखते हुए इसे त्यागपूर्वक भोगते रहो, इसमें आसक्त मत होओ, यहाँ धन (पदार्थ) किसका है ? अर्थात् किसी का नहीं है ।

            मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना है कि वह पदार्थों को भोगते हुए यह बात भूल जाता है कि जीवन में जो कुछ मिला है, वह स्थाई नहीं है । इस संसार में आते समय कुछ भी लेकर नहीं आए थे और न ही कुछ साथ ले जा सकते हैं । इसका अर्थ है कि जो कुछ भी मिला है, यहीं और इसी संसार से मिला है । मिले धन (पदार्थ) को इसी संसार की सेवा में लगा देना ही इसे त्यागपूर्वक भोगना है । त्याग के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण पाना होता है तभी हम जगत् को त्यागपूर्वक भोगकर तृप्त हो सकते हैं । जगत् के पदार्थों में आसक्त रहते संसार के चक्र से बाहर निकलना असंभव है ।

       गीता के दूसरे अध्याय के 62 और 63 वें श्लोक में कहा गया है कि विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की इन विषयों के साथ आसक्ति (Attachment) हो जाती है, आसक्ति से काम पैदा होता है और काम की तृप्ति न होने से क्रोध (Anger) पैदा होता है । क्रोध से मोह (fascination) पैदा होता है, मोह से स्मृति-भ्रम (Delusion) और अविवेक (Indiscriminate) पैदा होता है । अविवेक से बुद्धि (Intelligence) का नाश हो जाता है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का नष्ट हो जाना निश्चित है अर्थात मनुष्य पुरुषार्थ के योग्य नहीं रह जाता है ।

             मनुष्य के जीवन में कामनाओं का कभी भी अंत नहीं होता क्योंकि संसार के सभी प्राणियों का अस्तित्व ही कामनाओं पर टिका हुआ है । मनुष्य की सांसारिक सुख प्राप्त करते रहने की कामनाएं जीवन भर पूरा नहीं हो सकती इसीलिए उसे विभिन्न प्राणियों के रूप में जन्म लेना पड़ता है । इससे सिद्ध होता है कि कामनाएं ही इस संसार के सतत (Continuous) गतिमान रहने का आधार है ।

                  कामनाएं चाहे परमात्मा को पाने की हो अथवा सांसारिक सुख की, दोनों ही प्रकार की कामनाओं का छूट जाना आवश्यक है । परमात्मा को पाने की कामना आध्यात्मिक कामना है जिसे धर्म के मार्ग पर चलते हुए सात्विक कर्म करके पाया जा सकता है और अंत में इस कामना का भी त्याग करना होता है । सांसारिक कामनाओं को पूरा करने के लिए सात्विक कर्म करें अर्थात धर्माचरण करते हुए शास्त्रोक्त कर्म करें । धर्माचरण करना और शास्त्रोक्त कर्म करना, दोनों एक ही बात है । 

               धर्म कहता है कि प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति को अहिंसा, सत्य,अस्तेय(चोरी न करना),अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए । ये पांचो समाज और संसार के हित के लिए पालनीय धर्म है । ब्रह्मचर्य के दो अर्थ हैं – चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना । साथ ही साथ शौच अर्थात बाहर भीतर की शुद्धि, संतोष, तप अर्थात स्वयं से अनुशासित रहना, स्वाध्याय अर्थात आत्मचिंतन करना और ईश्वर प्रणिधान अर्थात ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण के भाव का पालन करना चाहिए । यह सभी निजी धर्म है । अगर हम सांसारिक सुख के लिए धर्म का त्याग करते हैं तो हम अपने जीवन में आध्यात्मिक कभी हो ही नहीं सकते ।

                  हमारे जीवन में सांसारिक कामनाओं का अंत कभी भी नहीं आता है । इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त देना चाहूँगा । एक व्यक्ति मोक्ष की कामना के साथ घने जंगल में तप कर रहा था । उस व्यक्ति की कुटिया के पास ही एक मीठे जल का तालाब था । गाँव की महिलाएं तालाब से जल लेने आया करती थी । एक दिन एक सुन्दर बाला ने विचार किया कि तपस्वी को कुटिया में तालाब से जल ले जाने में असुविधा होती होगी, क्यों न इनकी कुटिया में प्रतिदिन मैं ही जल भर कर रख दिया करूँ ? अगले दिन से नियमित रूप से वह ऐसा करने लगी । एक दिन तपस्वी जब अपनी साधना से उठा ही था कि उसकी दृष्टि उस कन्या पर पड़ गयी । उसकी सुन्दरता देख कर वह मंत्रमुग्ध हो गया। वह उस कन्या पर मोहित हो गया । उसके मन में कन्या से विवाह करने की कामना जगी परन्तु एक तपस्वी की गरिमा को ध्यान में रखते हुए उसने यह बात अपने भीतर ही रखी । प्रतिदिन कन्या आती, उसकी कुटिया में जल भरकर रख देती । तपस्वी उसको निहारता रहता परन्तु उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका ।

            एक बार उस कन्या को लम्बी अवधि के लिए गाँव से दूर किसी नगर में जाना पड़ा जिससे उसका वन में आना न हो सका ।  इस प्रकार तपस्वी की कुटिया में जल भरकर रखने का क्रम भी टूट गया । तपस्वी को जल भरने की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी उस कन्या को लेकर थी कि आखिर उसके मन को चुराकर वह कहाँ चली गयी ? उस कन्या को देखे बिना तो तपस्वी का हाल बेहाल हो गया । वह तप छोड़कर रात-दिन केवल उस कन्या का ही चिंतन करने लगा । एक दिन उसने गाँव की किसी अन्य महिला से उस कन्या के बारे में पूछा । महिला ने बताया कि वह तो यहाँ से बहुत दूर किसी नगर में चली गयी है और निकट भविष्य में उसका लौटना संभव नहीं है । थक हारकर आखिर तपस्वी ने उस कन्या की राह देखना छोड़ दिया और पुनः तप में लग गया ।

            तपस्वी की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर अंततः एक दिन परमात्मा प्रकट हो ही गए ।  प्रकट होते ही उन्होंने तपस्वी से वर मांगने को कहा । परमात्मा ने तपस्वी से पूछा -‘कहो वत्स, तुम्हे मोक्ष चाहिए अथवा मेरी भक्ति । क्या कामना है तुम्हारी ? तुम्हारे अति कठोर तप से प्रसन्न होकर मैं आज तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर दूंगा ।’ तपस्वी हाथ जोड़कर परमात्मा के समक्ष खड़ा हो गया और क्षुब्ध होकर कहने लगा -‘न तो मुझे आपकी भक्ति चाहिए और न ही मोक्ष । अगर आपको कुछ देना ही है, तो गाँव की उस सुन्दर कन्या को तत्काल यहाँ बुलाकर उसका विवाह मेरे साथ करा दीजिये ।’ 

           तपस्वी की यह बात सुनकर परमात्मा ने उसकी यह कामना पूरी की अथवा नहीं, अपने को इससे कुछ भी लेना देना नहीं है । हमें तो इस दृष्टान्त से एक ही बात ग्रहण करनी चाहिए कि मनुष्य की सांसारिक कामनाओं का कहीं भी कोई अंत नहीं है । अतः हमें सांसारिक कामनाओं में उलझना नहीं है क्योंकि वे अनन्त है और एक के पूरी होते ही दूसरी कामना का मन में जन्म हो जाता है ।

               हमें जीवन में अर्थ और काम, दोनों की ही उपलब्धि पूर्व मानव जीवन के कर्मों और अधूरी रही कामनाओं के कारण बने प्रारब्ध के अनुसार होती है । इसी प्रकार वर्तमान जीवन में मन में पैदा हुए काम के अनुसार भावी जीवन में अर्थ और काम की प्राप्ति होगी । अतः इस जीवन में हमारे लिए ‘काम’ का एक ही उद्देश्य होना चाहिए- अंतिम पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ को प्राप्त करने का ।

               इसलिए ‘काम’ को नई दृष्टि दीजिए, इसको केवल भोग के रूप में न लें, यह योग भी कराने में सक्षम है । गोस्वामीजी अपने कालजयी ग्रंथ श्रीरामचरितमानस का समापन करते हुए कहते हैं -

 कामिहि नारी पिआरि जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।

   तिमि रघुनाथ निरंतर, प्रिय लागहु मोहि राम ।।

      जैसे ‘काम’ में अन्धे को स्त्री प्रिय लगती है, लोभी को धन प्रिय लगता है, वैसे ही हे रघुनाथ ! हे राम !! आप मुझे सदैव प्रिय लगिए ।

          तुलसी के जीवन को देखेंगे तो पाएंगे की ‘काम’ की दिशा को कैसे बदला जा सकता है ।

        संसार में अनेकों संत ऐसे हुए हैं, जो जीवन की युवावस्था में ‘काम’ के कारण स्त्री के प्रति बुरी तरह से आसक्त थे । कोई अपनी प्रेयसी का मुख मण्डल देखते हुए उल्टे पांव चला करता था । उन्होंने जब भगवान का सौंदर्य देखा तो प्रेयसी का सौंदर्य भूल गए और संतत्त्व को उपलब्ध हो गए । एक अन्य तो जल लेकर अपने घर लौट रही नवयौवना के रूप पर आसक्त होकर उसके द्वार तक पहुँच गए थे । तत्क्षण ही उनके भीतर के ‘काम’ ने दिशा बदली और वे महान संत की श्रेणी में जा बैठे । तुलसीदासजी महाराज तो अपनी नवविवाहिता रत्नावली को एक पल के लिए भी अपने से दूर नहीं होने देते थे ।वही रत्नावली एक दिन उनकी आध्यात्मिक गुरु भी बन गई । कैसे ? आइए ! जानते हैं ।

                  एक बार रत्नावली किसी कार्य वश अपने पीहर चली गयी । प्रथम दिन तो कैसे ही गुजर गया परन्तु गोस्वामीजी से रात गुज़ारना भारी हो गया । अर्धरात्रि को उठकर वे अपने ससुराल के लिए चल पड़े । रात को नदी पार करने के लिए कोई नाव उपलब्ध नहीं थी । उन्होंने नदी में बहते शव को नदी में तैरता लकड़ी का तख्ता समझा और उस पर बैठकर नदी पार कर गए । ससुराल का घर भीतर से बंद था । दीवार के सहारे लटक रही एक रस्सी को पकड़ कर अंदर प्रवेश कर गए । जिसको उन्होंने रस्सी समझा था, वास्तव में वह दीवार के सहारे लटक रहा साँप था । सच है, ‘काम’ आदमी को अंधा बना देता है । वह न तो शव को देख पाता है और न ही साँप को ।

         तुलसीदास जी घर के भीतर पहुँचकर सीढ़ियों से होते हुए पत्नी के कमरे में जा पहुँचे और उसे जगाया । पत्नी अचानक अर्धरात्रि में आए पति को देखकर हतप्रभ रह गई । उसको सारा माजरा समझ में आ गया । वह तुलसीदास जी से बड़ी नाराज़ हुई । यह क्या ? एक दिन के लिए भी इस शरीर से दूर नहीं रह सकते । गोस्वामीजी ने बहुत अनुनय-विनय की और अपने प्रेम का वास्ता दिया परंतु पत्नी तो उनके इस व्यवहार से बड़ी क्षुब्ध थी । वह दुःखी होकर रोने लगी । 

        रत्नावली ने रोते-रोते गोस्वामीजी को कहा -

       अस्थि चर्म मय देह मम, तामे ऐसी प्रीति ।

       होती जो श्रीराम सौं, ना होती भवभीति ।।

           यह शरीर तो हड्डी, चमड़ी से बना एक ढाँचा है, जिसको एक दिन मिट जाना है । नाशवान शरीर में इतनी प्रीति क्यों ? इतना प्रेम अगर परमात्मा से करते तो जन्म-मरण का भय मिट जाता ।

          सच कहा रत्नावली ने । नाशवान शरीर को एक न एक दिन नष्ट होना ही है, फिर उसमें अनुराग क्यों रखना । प्रेम करना है तो परमात्मा से करें, जो संसार के सभी भयों का नाश करने वाला है । गोस्वामीजी को पत्नी की बात लग गई । ‘काम’ की दिशा संसार की ओर से बदलकर ‘राम’ की ओर हो गई । तत्काल ही ससुराल छोड़कर निकल पड़े, अपने निवास की ओर नहीं बल्कि ‘राम’ की ओर । गुरु भी मिल गए, ज्ञान भी हो गया और ‘राम’ के द्वार तक पहुँच भी गए । श्रीरामचरितमानस जैसी कालजयी रचना इस बात का जीता-जागता प्रमाण है ।

         प्रकृति (माया) के कारण ही सृष्टि का निर्माण और संचालन होता है । प्रकृति ऊर्जा का व्यक्त रूप है । गुणों से ही यह ऊर्जा संसार में अभिव्यक्त होती है। सृष्टि के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका प्रकृति के गुणों की रहती है । इन गुणों से प्रकृति में विभिन्न क्रियाएँ होती है और पदार्थों का निर्माण, उनमें परिवर्तन और उनका नाश होता रहता है । जिस गुण की प्रधानता होती है, उसी के अनुसार पदार्थ का व्यवहार होता है । मनुष्य का शरीर भी एक पदार्थ है । प्रकृति के तीन गुण - सत्व, रज और तम । शरीर भी गुण प्रधानता के अनुसार व्यवहार करता है ।

           पदार्थ की ऊर्जा इन तीन गुणों में ही समाहित है । इन गुणों के कारण ही क्रियाएँ होती है । वे क्रियाएं ही मनुष्य को आकर्षित कर उसके भीतर ‘काम’ को जन्म देती है । रजोगुण से उत्पन्न ‘काम’ मनुष्य में कामनाएँ पैदा करता है । उन कामनाओं के वशीभूत होकर व्यक्ति कर्म करता है । कर्म उसके सामने अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति बनाता है जिससे व्यक्ति को सुख-दुःख का अनुभव होता है । यही ‘काम’ सत्वगुण से उत्पन्न हो तो व्यक्ति सुख-दुःख से ऊपर उठ जाता है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रकृति के गुणों की तरह ‘काम’ भी ऊर्जा का एक रूप है ।

         स्पष्ट है कि ‘काम’ वह ऊर्जा है, जो जन्म के साथ हमें मिली है । इस ऊर्जा को हम संसार के सुख खोजने में लगाकर व्यर्थ कर देते हैं । यह अधोगामी ‘काम’ है । धर्मयुक्त  ‘काम’ उर्ध्वगामी होता है, जो हमें परमात्मा तक ले जा सकता है । ‘काम’ संसार प्रवाह के लिए अपरा प्रकृति का केंद्रीय तत्व है । भौतिक शरीर में जब तक ‘काम’ का वास है तब तक आवागमन का चक्र निर्बाध गति से चलता रहेगा ।

            लेख का समापन करने से पहले जानते हैं कि ‘काम’ मनुष्य को किस सीमा तक प्रभावित कर सकता है ? ‘काम’ से उत्पन्न हुए इस संसार ने ‘काम’ का उपयोग करते हुए मनुष्य को कामना के भँवर-जाल में उलझाकर रख दिया है । संसार में उलझकर ‘काम’ की परिधि पर चक्कर लगाता हुआ सृष्टि का सर्वोत्तम जीव, मनुष्य इससे मुक्त नहीं हो पा रहा है । उसके मुक्त न हो पाने का कारण ‘काम’ की दिशा को बदल नहीं पाना है ।

          ‘काम’ की दो दिशाएँ है । एक दिशा संसार की ओर है और दूसरी दिशा परमात्मा की ओर । जिस दिशा में ‘काम’ अपना प्रभाव डालता है, उस दिशा के प्रति मनुष्य का अनुराग बढ़ जाता है । संसार की दिशा पकड़ने पर ‘काम’ का असंख्य कामनाओं के रूप में विस्तार हो जाता है । इसके ठीक विपरीत दिशा में ‘काम’ की दृष्टि हो तो वह मिटकर प्रेम में परिवर्तित हो जाता है । इसी को गीता में भगवान ने ‘काम’ को मार डालना कहा है ।

        ‘काम’ के उप-उत्पाद है - क्रोध, लोभ और मोह । ‘काम’ में डूबा व्यक्ति अंधा हो जाता है फिर उसे अपनी कामनाओं की पूर्ति में अनुचित-उचित का ज्ञान नहीं रहता । ‘काम’ विफल हो जाए तो क्रोध पैदा होता है । क्रोध में व्यक्ति बहरा हो जाता है । ऐसी स्थिति में वह किसी के द्वारा कही गई बात को सुन नहीं पाता है । ‘काम’ सिद्ध हो जाए तो लोभ पैदा होता है । लोभ व्यक्ति को गूँगा बना देता है । लोभ से घिरा व्यक्ति अनुचित तरीक़े से लाभ होता देखकर भी चुप्पी साधे रहता है । ‘काम’ मोह का जनक है । मोह में व्यक्ति पंगु बन जाता है । घर में मोह रखने वाला व्यक्ति घर से बाहर नहीं निकलता । इसी प्रकार पुत्र-पोत्र के मोह में पड़ा व्यक्ति चाहकर भी उनसे दूर नहीं हो सकता ।

सार - संक्षेप 

     ‘काम’ शरीर के भीतर छिपी वह शक्ति है, जिसका सदुपयोग कर हम परमात्मा तक पहुँच सकते हैं । ‘काम’ से उत्पन्न हुए इस शरीर को सांसारिक ‘काम’ में ही डूबा दिया तो फिर बेड़ा गर्क होना अवश्यंभावी है । ‘काम’ हमारे अहम् में रहता है । इसकी अधोमुखी गति ही कामनाओं को जन्म देती है जिनको पूरा करने के लिए मनुष्य दिन-रात कोल्हू के बैल की भाँति अपने संसार के एक ही घेरे में सतत घूमता रहता है । ‘काम’ के कारण ही हमारे अहम् में कामनाएँ जन्म लेती है और दोष हम मन को देते हैं ।

          ‘काम’ की ऊर्ध्व गति व्यक्ति को संसार से मुक्त करती है जिसके कारण परमात्मा के प्रति प्रेम बढ़ता है । ‘काम’ को ऊर्ध्व गति देने में अहम् की ही भूमिका रहती है  । आसक्त व्यक्ति ‘काम’ पर नियंत्रण नहीं कर सकता । प्रत्येक प्रकार की आसक्ति का त्याग ही हमें कामनाओं से मुक्त करता है । कामनाओं से मुक्त होना ही ‘काम’ को मार डालना है ।

      ‘काम’ से ‘राम’ तक की यात्रा मनुष्य के विवेक पर निर्भर है । विवेक का सदुपयोग करने पर अनुभव होता है कि संसार सदैव अप्राप्त ही रहेगा क्योंकि इसमें स्थायित्व का अभाव है । परिवर्तन की निरन्तरता के कारण उसको पकड़ पाना असंभव है । यह समझ में आते ही ‘काम’ की दिशा ‘राम’ की ओर हो जाती है जिससे यह मनुष्य की समस्त कामनाओं का नाश हो जाता है । कामनाएँ तो संसार के लिए ही हैं, परमात्मा के लिए तो भीतर प्रेम होना चाहिए और यह प्रेम ‘काम’ से उत्पन्न वासनाओं के अंत से ही प्रस्फुटित होता है ।

        आइए !  ‘काम’ के कारण भीतर उत्पन्न हुई समस्त कामनाओं से मुक्त होकर हम ‘राम’ की ओर चलें, जोकि अनंत प्रेम और आनंद के धनी हैं ।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।