Wednesday, February 5, 2025

माया

 माया 

              तीन शब्द - अक्रिय, निष्क्रिय और सक्रिय । निष्क्रिय अर्थात् जिसमें क्रिया सुषुप्ति अवस्था में है । अक्रिय अर्थात् जिसमें क्रिया नहीं होती है परंतु जो क्रिया का जनक है । सक्रिय अर्थात् जिसमें क्रिया सतत हो रही है । इन तीन शब्दों के माध्यम से अध्यात्म को समझा जा सकता है । 

        परमात्मा अक्रिय हैं, उनमें क्रिया नहीं हो रही परन्तु वे क्रिया के जनक हैं । वे क्रिया को पैदा अपनी अक्रियता से ही करते हैं, जिससे सक्रिय होकर वे स्वयं ही जगत् बन जाते हैं । इसका अर्थ है कि प्रत्येक सक्रिय पदार्थ अक्रियता से ही उत्पन्न होते हैं । सक्रिय पदार्थ सतत क्रिया के चलते एक दिन निष्क्रिय हो जाता है अर्थात् उसमें क्रिया सुषुप्त हो जाती है । निष्क्रिय पदार्थ पाँच भौतिक तत्वों में परिवर्तित हो जाता है । इन पाँच भौतिक तत्त्वों का पुनः संयोजन परमात्मा की अक्रियता से होता है और वही अक्रियता एक दिन उन्हें निष्क्रिय से पुनः सक्रिय कर देती है ।

           इस प्रकार स्पष्ट है कि सारा जगत् क्रियाओं के इर्द-गिर्द ही घूमता है । प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ सक्रिय होता है । वहीं पदार्थ कुछ अवधि पश्चात् निष्क्रिय होकर एक दिन पुनः सक्रिय हो जाता है । निष्क्रियता को सक्रियता में परिवर्तित करने में भूमिका अक्रियता की रहती है । शरीर जब सक्रिय से निष्क्रिय हो जाता है तब उसे शरीर का मरना कहते हैं । मृत शरीर निष्क्रिय है, परमात्मा अक्रिय है और प्रकृति सक्रिय। 

      सक्रिय प्रकृति जगत् (संसार) है । यह प्रकृति ही माया है जो अक्रियता से पैदा हुई है और उसे एक दिन निष्क्रिय होकर अक्रियता में समा जाना है । यह प्रकृति जब तक सक्रिय रहती है, बहुत ठगती है । वह तो ठगेगी ही क्योंकि हम ठगे जाने को सदैव तत्पर रहते हैं परन्तु हमें इसके द्वारा नहीं ठगे जाना है । इस माया की ठगगिरी को समाप्त करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है । इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है - मम माया दुरत्यया ।

              “मम माया दुरत्यया” (गीता-7/14) -  भगवान कहते हैं कि मेरी माया दुरत्यया है अर्थात् इससे पार पाना कठिन है । गीता के एक श्लोक के इस चतुर्थांश से स्पष्ट है कि जिसे हम माया कहते हैं, वह भगवान की है और इस माया से पार पाना बहुत कठिन है । प्रश्न उठता है कि माया से पार पाना इतना ही कठिन है तो भगवान ने माया की रचना ही क्यों की ? क्या मनुष्य को अपनी माया में केवल उलझाने के लिए ? प्रश्न के समाधान के लिए हम सृष्टि की रचना से पहले भगवान की स्थिति को जानने का प्रयास करते हैं । भागवत में स्वयं भगवान सृष्टि की रचना से पूर्व अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि -

         अहमेवासमेवाग्रे नान्यत् किंचान्तरं बहिः ।

         संज्ञानमात्रमव्यक्तं प्रसुप्तमिव विश्वतः ।। 6/4/47 ।।

         जब यह सृष्टि नहीं थी, तब केवल मैं ही था और वह भी निष्क्रिय रूप में । बाहर-भीतर कहीं भी और कुछ न था । न कोई द्रष्टा था और न दृश्य । मैं केवल ज्ञान स्वरूप और अव्यक्त था । ऐसा समझ लो, मानो सब ओर सुषुप्ति ही सुषुप्ति छा रही हो ।

           एकाकी न रमते - अकेले अक्रिय परमात्मा को प्रेम और आनन्द की अनुभूति नहीं हुई । प्रेम और आनंद के आदान-प्रदान के लिए कम से कम दो का होना आवश्यक है । एक से दो तभी हुआ जा सकता है, जब परमात्मा की अक्रियता सक्रियता में परिवर्तित हो । अक्रियता पहले निष्क्रियता में परिवर्तित होती है और फिर उससे सक्रियता उत्पन्न होती है ।

            प्रेम और आनंद के लिए जब परमात्मा (परम/उत्तम पुरुष) की यह अक्रिय अवस्था जब सक्रिय होने के लिए मचल उठी तब वे दो में विभक्त हो गए - पुरुष और प्रकृति । पुरुष तो अक्रिय ही बना रहा परंतु प्रकृति सक्रिय हो गई । यह प्रकृति ही माया कहलाती है । प्रकृति दो प्रकार की है - परा और अपरा । परा प्रकृति तो जीव है जबकि अपरा प्रकृति शरीर और संसार । परा प्रकृति विद्या माया है और अपरा प्रकृति अविद्या माया ।

             प्रकृति की सक्रियता का कारण उसमें उपस्थित तीन गुण है - सत्व, रज और तम । आधुनिक विज्ञान के अनुसार इन तीन गुणों को क्रमश विद्युतीय (electrical), भौतिक (physical) और रासायनिक (chemical) गुण कहा जाता हैं, जोकि प्रत्येक पदार्थ में उपस्थित रहते हैं । प्रकृति के इन तीन गुणों ने मनुष्य के जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया है । संसार के सभी पदार्थों से लेकर शरीर के सभी अवयवों तक ये तीनों गुण सदैव उपस्थित रहते हैं क्योंकि संसार और शरीर दोनों ही प्रकृति के अंश हैं । 

           गुणों के कारण ही इंद्रियाँ पदार्थों के विषयों का ज्ञान शरीर को कराती है । इंद्रियों से मिले विषय ज्ञान में मोहित होकर प्राणी उनमें आसक्त हो जाता है । कहने का अर्थ है कि प्रकृति के तीन गुणों के कारण ही जीव विषयों के प्रति मोहित होता है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि मोहित होकर परा प्रकृति (जीव) ही अपरा प्रकृति (शरीर) की तरह व्यवहार करने लग जाती है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जीव अपना मूल स्वरूप भूलकर स्वयं को शरीर मानने लग जाता है । यही माया है । सृष्टि की रचना ज्यों ज्यों आगे बढ़ी, मनुष्य गुणों में आसक्त होकर धीरे-धीरे माया में और अधिक उलझता चला गया ।

           परमात्मा ने अपने मन से सृष्टि की रचना की थी क्योंकि उनके मन में विचार आया कि क्यों न मैं एक से अनेक हो जाऊँ । जो सृष्टि उनके मन से बनी वह मानसी सृष्टि कहलाई । लेकिन मानसी सृष्टि का विस्तार नहीं हो पाया क्योंकि ऐसी सृष्टि के विस्तार के लिए प्रत्येक बार परमात्मा को अपने मन में विचार करना पड़ता था । इस असुविधा से मुक्त होने के लिए उन्होंने मैथुनी सृष्टि की रचना की । स्वयं भगवान ने यह बात प्रजापति दक्ष को स्पष्ट की है । 

              श्रीमद्भागवतमहापुराण में भगवान, दक्ष प्रजापति को कह रहे हैं -  

          त्वत्तोऽधस्तात् प्रजा: सर्वा मिथुनीभूय मायया ।

          मदीयया भविष्यन्ति हरिष्यन्ति च मे बलिम् ।। ।।6/4/53 ।।

              हे प्रजापते ! अब तक तो मानसी सृष्टि होती थी, परन्तु अब तुम्हारे बाद सारी प्रजा मेरी माया से स्त्री-पुरुष संयोग से ही उत्पन्न होगी तथा मेरी सेवा में तत्पर रहेगी ।

          शल्य चिकित्सा के जनकसुश्रुतके अनुसार मैथुनी सृष्टि में केवल स्त्री-पुरुष का संयोग होना ही महत्वपूर्ण नहीं है । इस संयोग के साथ निम्न चार परिस्थितियों में सामंजस्य होना भी आवश्यक है - ऋतु-काल, क्षेत्र अर्थात् खेत की गुणवत्ता यानि उत्पादक क्षमता, जल और बीज । इस प्रकार के सामंजस्य से ही मैथुनी सृष्टि का विस्तार होता है । 

          मैथुनी सृष्टि के अन्तर्गत शास्त्रों में चार प्रकार के प्राणियों का वर्णन आता है - जरायुज, अण्डज़, उद्भिज और स्वेदज । जरायुज में सभी स्तनधारी प्राणी आते हैं जिसमें मनुष्य भी है । अण्डज के अंतर्गत सभी पक्षी, सरीसृप आदि आते हैं, जिसमें अण्डे के रूप में जन्म होता है । उद्भिज में स्थावर प्राणी आते हैं । ये ज़मीन को फोड़कर जन्म लेते हैं, जैसे सभी प्रकार की वनस्पति । स्वेदज प्राणि गन्दे स्थानों पर नर-मादा मैथुनी सृष्टि रचते हैं । इसके अंतर्गत जूँ, बिच्छू आदि प्राणी हैं ।

           उपरोक्त में से किसी भी श्रेणी के अंतर्गत प्राणी आता हो, सबमें स्त्री-पुरुष का संयोग, जल, क्षेत्र और बीज महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । स्त्री-पुरुष न कहकर इनको स्त्री-शक्ति और पुरुष-शक्ति कहना अधिक उचित है क्योंकि केवल स्थूल रूप से नर-मादा होना ही सृष्टि के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है उनमें उपस्थित प्रजनन शक्ति । स्त्री-पुरुष संयोग केवल ऋतुकाल में होने पर ही सृष्टि आगे बढ़ती है अन्यथा ऐसे संयोग का स्पर्श-सुख के अतिरिक्त कोई महत्व नहीं होता । मनुष्य के अतिरिक्त सभी प्राणी केवल ऋतुकाल में ही संयोग करते हैं। 

           जब तक उपयुक्त क्षेत्र और जल नहीं मिलता तब तक मैथुनी सृष्टि विस्तार को प्राप्त नहीं हो सकती । जैसे स्वेदज प्राणियों की सृष्टि तभी आगे बढ़ती है जब उसे गंदा और दूषित वातावरण मिलता है, साफ़ और शुद्ध वातावरण में जूँ और बिच्छू मैथुन कर ही नहीं सकते ।

           सबसे महत्वपूर्ण है - बीज । प्रत्येक प्राणी के शरीर में बीज स्वयं परमात्मा स्थापित करते हैं, तभी उसका जीवन प्रारम्भ होता है और वह जीव कहलाता है । 'अहं बीजप्रद: पिता’ (गीता - 14/4) । प्राणी तो प्रकृति का अंश है, जिसमें चेतन अंश अर्थात् बीज परमात्मा के द्वारा स्थापित किया गया है । चेतन तत्व की उपस्थिति के अभाव में प्राणी का अस्तित्व ही नहीं रहता ।

            उद्भिज सृष्टि को पृथ्वी और जल के साथ साथ बीज की भी आवश्यकता होती है परंतु यह बीज प्रकृति का ही अंश होता है । परमात्मा का अंश बीज तो इससे भिन्न होता है । प्राकृतिक बीज तो मिटता है, बनता है जबकि परमात्मा का बीज अविनाशी है । प्राकृतिक बीज अंकुरित होता है, ज़मीन फोड़कर बाहर निकलता है और एक दिन पौधा बनता है । इसी पौधे पर पुष्प खिलते हैं , जिनमें स्त्रीकेसर (pistil/gynoecium) और पुंकेसर (stamen/androecium) होते हैं । परागकण (pollen) पुंकेसर से स्त्रीकेसर तक पहुँचते है । इस प्रकार जल और वायु की सहायता से स्त्री शक्ति और पुरुष शक्ति में संयोग संभव हो पाता है । उसी संयोग से बीज बनता है और सृष्टि-चक्र आगे बढ़ता है ।

               इस प्रकार सृष्टि के सृजन का जितना वर्णन अभी तक किया गया है, उसमें परमात्मा की माया ही सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रही है । भगवान स्वयं गीता में कहते हैं -मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्’ (9/10) अर्थात् मेरी अध्यक्षता में ही प्रकृति (माया) चर-अचर सहित समस्त जगत् की रचना करती है । इसी प्रकार मानस में भगवान कहते हैं -मम माया संभव संसारा । जीव चराचर विविध प्रकारा ।। (उत्तरकांड - 86/3) अर्थात् मेरी माया से ही इस संसार का होना संभव हुआ है, जिसमें विभिन्न प्रकार के चर-अचर जीव हैं । इस प्रकार प्रकृति (माया) और परमात्मा, दोनों के संयोग से जीव का जीवन प्रारम्भ होता है ।

                 परमात्मा, जीव और माया, इन तीनों को जानना आवश्यक है । आइए ! माया को जानने से पहले जानें कि परमात्मा क्या है ? परमात्मा को जानना असंभव है, परंतु उनको कुछ सीमा तक समझकर अनुभव किया जा सकता है । अनुभव करने से पहले उनको कुछ शब्दों के माध्यम से उसे समझने का प्रयास करते हैं ।जो सबमें है, जो स्वयं पूर्ण है, जिसके अन्तर्गत सब कुछ है”, वह परमात्मा है । परमात्मा स्वयं में पूर्ण है, उनमें कभी न्यूनता आ ही नहीं सकती । जिस प्रकार समुद्र में से बादल जल लेकर उठते है, फिर भी उसमें कोई कमी नहीं आती । इतनी नदियाँ जल लेकर समुद्र में समाती है, फिर भी उसके तट कभी नहीं टूटते । समुद्र सदैव समान रहता है।

        कोई भी हो, वह आप हों, धूल का कण हो, ईश्वर हो, परमात्मा हो, हर एक के अंदर उसकी शक्ति होती है जो उसमें निहित होती है । अक्रिय परमात्मा में सुषुप्ति की अवस्था में शक्ति समाहित रहती है । जब वह शक्ति प्रकट होती है तो उसे माया कहते हैं । चूँकि परमात्मा पूर्ण हैं तो उसकी प्रकृति भी पूर्ण अर्थात वह भी सब कुछ होगी । इसलिए प्रकृति की क्रियाशील अवस्था माया भी पूर्ण शक्ति है । उसमें सब प्रकार की शुभ, अशुभ शक्तियां समायी है । वह कुछ भी कर सकने में समर्थ है । इस शक्ति का उपयोग उत्थान के लिए भी हो सकता है और पराभव के लिए भी । आप शक्ति को अपने  मन/बुद्धि की तरह समझें, जो आपको गिरा भी सकते हैं, ऊँचा भी उठा सकते हैं । साथ ही साथ यही बुद्धि आपको भ्रमित भी कर सकती है । परमात्मा की यह माया ही महामाया कहलाती है ।

         महामाया के दो रूप हैं - योग माया और माया । 

      1-योग माया- जिससे इस संसार की वास्तविकता दिखाई देती है । यह सत्य को जानने वाली बुद्धि है, जिसे ऋतम्भरा कहते हैं । यह बोधमयी है, प्रज्ञावान है और विवेकमयी है । यह पूर्ण विशुद्ध रूप सत्य को जानने वाली बुद्धि है । इसे विद्या माया कहते हैं ।

      2-माया - जिससे संसार अलग अलग रूपों में भासित होता है । सामान्य भाषा में इसे मन कहते हैं । इसे अविद्या माया भी कहते हैं । इसकी दो शक्तियां प्रमुख हैं - आवरण शक्ति  और विक्षेप शक्ति । इसके अलावा यह सभी प्रकार की रचना कर सकती है । आवरण का सरल अर्थ है, वह पर्दा जो प्रकाश को बाधित करता है । अविद्या माया ने सभी जीवों पर काला पर्दा डाल दिया है, जिससे उनको वास्तविकता दिखाई नहीं पड़ती । प्रकाश बाधित हो जाने पर वास्तविक सत्य दिखलाई नहीं पड़ता । जो कुछ भी सत्य के रूप में दिखलाई पड़ता है, वह सब असत् है । दिखलाई पड़ने वाले असत् को सत् समझ लेना ही अविद्या माया की विक्षेप शक्ति है ।

              माया पर चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले समझें कि जीव क्या है ? महामाया अर्थात् विद्या माया और अविद्या माया जब किसी जड़ तत्त्व को स्वीकार कर लेती है या कहें माया जब मूल प्रकृति से मिल जाती है और उसमें ब्रह्म अहम् रूप में भासित होता है तो वह जीव हो जाता है । परमात्मा तो सर्वत्र है, वह तटस्थ है । वह अहम् रूप में या स्वयं रूप में सबमें व्याप्त रहता है । आपका जो अहम् है, वह भी तटस्थ है ।    

          परमात्मा सर्वत्र है, इसलिए बुद्धि के साथ जब वह आकार ले लेता है तो जीव कहलाता है । यह ब्रह्म का प्रतिभासित स्वरुप है । प्रकृति जो त्रिगुणात्मक है, वह अपना कार्य कर रही है, वह योगमाया भी है और माया भी है । इसने बुद्धि के ऊपर या कहें कि जीव के ऊपर माया रूपी पर्दा डाल दिया है । यह माया की आवरण शक्ति हुई । 

          इस माया की एक शक्ति और है, वह अद्भुत है । उसे विक्षेप शक्ति कहते हैं । यह जीव को या यों कहें कि बुद्धि को उन्मत्त कर देती है, नशे में धुत्त मनुष्य की तरह बना देती है, जिससे उसे सत्य नहीं दिखता । इसे ऐसे समझें कि माया द्वारा एक तो शुद्ध बुद्धि के ऊपर काला पर्दा डाल दिया जाता है, (आवरण शक्ति) ऊपर से दो बोतल शराब और पिला दी जाती है (विक्षेप शक्ति) । 

           यह आकारीय बुद्धि अर्थात् जीव अपने आप को भूल जाता है और यह माया उसे जैसा दिखाती है वह वैसा ही देखता है । यही माया है । परन्तु जिस पर काले पर्दे का प्रभाव न हो और जिस पर शराबी के जैसी उन्मत्तता न चढ़े, वह माया मुक्त हो जाता है । तब वह ईश्वर कहलाता है । इस अवस्था को पाकर वह योगमाया अर्थात् विद्या माया से युक्त हो जाता है I माया जिसे अविद्या माया कहा गया है, वह उसके (विद्या माया के) अधीन हो जाती है ।

            एक बात बड़ी महत्वपूर्ण है - जब प्रकृति, ईश्वरीय शक्ति माया के कारण आकार ले लेती है तब वह आकार शाश्वत हो जाता है । आकार सदा रहता है पर उसका स्वरुप बदलता रहता है । इसी को जीव या लिंग शरीर  कहते हैं । आकार भी परमात्मा का भासित स्वरुप है । सृष्टि में जो कुछ भी है, वह परमात्मा का भासित स्वरुप है । उसे नाम और रूप में देखना ही माया है । नाम रूप से अलग हो जाना माया मुक्त होना है । यही ईशत्व है ।

            परमात्मा या आत्मा न तो कहीं आता है और न ही जाता है, वह सबके साथ होते हुए भी सबसे अलग रहता है । उस पूर्ण परमात्मा की प्रकृति माया, शक्ति के कारण अनेक प्रकार के आकार लेती रहती है । उन आकारों को सत्य मान लेना माया है और उन आकारों में परमात्मा को देखना मुक्ति का मार्ग है । परमात्मा का बोध, (अहम्) सर्वत्र रहते हुए भी सब से अलग रहता है । वह सब जगह है और सबसे निर्लिप्त है ।

            इस अहम् को भी समझना महत्वपूर्ण है । यह आपकेमैं’ (अशुद्ध अहम्) का हीमैं’ (शुद्ध अहम्) है । इसको जानकार जो इसमें स्थित हो जाता है उसे माया नहीं व्याप्ती है क्योंकि यह माया के अहम् का भी अहम् है । इससे आगे परमात्मा को नहीं जाना जा सकता है, केवल उनका अनुभव ही किया जा सकता है । अगर कोई इससे आगे परमात्मा को जानने का प्रयास भी करता है तो वह उलझ कर रह जाता है क्योंकि इससे आगे परमात्मा के होने का कोई भौतिक प्रमाण नहीं मिलता । जिसके कारण जगत् का अस्तित्व है, उसको मानकर अनुभव ही किया जा सकता है, उसे जाना नहीं जा सकता ।

        आइए ! इस विषय को कुछ सामान्य बातों से समझते हैं । हम संसार को अपनी इन्द्रियों (senses) के माध्यम से समझते हैं । इंद्रियों से ग्रहण किए गए विषय का विश्लेषण मन और बुद्धि द्वारा किया जाता है परंतु समझने की शक्ति अहम् के पास होती है । शरीर में लिप्त हुआ अहम्, मन-बुद्धि के द्वारा किए गए विश्लेषण के अनुसार जगत् को समझता है । कीट जिस रूप में जगत को देखते हैं, पशु उससे अलग इस जगत को देखते हैं, मनुष्य इसको अपने तरीके से देखता है । मनुष्य में भी हिन्दू अपने को हिन्दू रूप में देखता है, मुसलमान अपने को मुसलमान, ईसाई अपने को ईसाई आदि । यही माया है । आपकी एक इन्द्रिय कम या अधिक हो जाए तो आपके लिए इस जगत का रूप या किसी दूसरे का भी रूप बदल जाएगा । यही माया है अर्थात् एक को अलग अलग रूपों में देखना । 

           वास्तविक रूप में एक परम सत् है, जिसे परमात्मा कहते हैं, वही जगत में भिन्न भिन्न नाम रूप में भासित होता है । परम सत्ता एक, नाम रूप अनेक । नाम रूप में देखना और उस नाम रूप को सत्य समझ लेना ही माया है । आपका मन ही माया (अविद्या माया) है, जहाँ सदा संशय होता है । सत्य तो बुद्धि योगमाया (विद्या माया) है, जो सदा यथार्थ देखती है और जानती है ।

           परमात्मा के अहम् से ही प्रकृति में स्फुरण होता है । यह अहम् परा प्रकृति है और मूल प्रकृति अपरा प्रकृति है । परा से संयोग होने से मूल प्रकृति ही महामाया हो जाती है । महामाया का अर्थ है क्रियाशील प्रकृति - परमात्मा के अहम् के साथ । यही जीव का कारण है ।

             माया के बारे में आदि शंकराचार्य महाराज विवेक चूड़ामणि में लिखते हैं - 

      माया मायाकार्यं सर्वं महदादि देहपर्यन्तम् ।

     असदिदमनात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् ।।

                           -विवेक चूड़ामणि-125

          माया और महत्तत्व से लेकर देहपर्यन्त माया के सम्पूर्ण कार्यों को तू मरु मरीचिका के समान असत और अनात्म जान ।

          परमात्मा ही माया (प्रकृति) बने हैं इसका अर्थ है कि परमात्मा की तरह माया भी सत्य है । हाँ, माया भी सत्य है किंतु वह सत्य होते हुए भी सत्य नहीं है क्योंकि वह नाम और रूप से ग्रस्त है । हम रूप और नाम को नष्ट कर सकते हैं, तत्व को नहीं । माया सत्य है क्योंकि उसके पीछे सत् है जिससे उसके सत्य होने का आभास होता है । परंतु साथ ही यह भी सत्य है कि सत् वस्तु कभी दिखलाई नहीं पड़ती, अतः माया सत्य का भ्रम हुई । इस प्रकार माया सत्य भी नहीं है और असत्य भी नहीं है । माया के बारे में यह बहुत बड़ा विरोधाभास है । माया एक भ्रम भी है किंतु फिर भी भ्रम नहीं है ।

         जो सत्य को जान लेता है, उसे माया भ्रमित नहीं कर सकती क्योंकि वह जान जाता है कि माया सत्य न होकर सत्य होने का भ्रम मात्र है । जो सत्य को नहीं जानता, वह माया के भ्रम में फँसकर उसे ही सत्य समझ बैठता है । 

               प्रकृति (माया) की इस जगत् के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका है । इसी कारण जगत सदैव सक्रिय रहते हुए गतिमान बना हुआ है । इसमें परिवर्तन होना एक शाश्वत नियम है । इस जगत् की रचना परमात्मा ने अपनी माया से की है और इसी माया से मैथुनी सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है । मैथुनी सृष्टि में स्त्री शक्ति और पुरुष शक्ति का संयोगिक मिलन होता है । इस संयोग को बनाने में काम की भूमिका महत्वपूर्ण है । यह काम ही माया का वह मुख्य अंग है जिसके कारण माया से पार पाना कठिन हो गया है । आइए ! काम के माध्यम से माया पर चर्चा को आगे बढ़ाते हैं ।

            स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न सृष्टि ने ही जीव को माया में उलझा दिया । अब जीव का इस गुणमयी माया से निकलना असंभव हो रहा है । प्रश्न उठता है कि इस माया ने मनुष्य जीवन में ऐसा क्या कर दिया कि वह उससे मुक्त ही नहीं हो पा रहा है ? इसको जानना महत्वपूर्ण है ।

         मैथुनी सृष्टि के लिए आवश्यक है - परमात्मा की माया । इस माया के गुणों ने काम को जन्म दिया । बिना काम के सृष्टि का विस्तार असंभव है । इस काम के कारण ही स्त्री और पुरुष एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं । काम के कारण बने आकर्षण से स्त्री-पुरुष में संयोग होता है, जिसके परिणामस्वरूप सृष्टि के विस्तार को एक आधार मिलता है । इस प्रकार मैथुनी सृष्टि ने परमात्मा को तो सृष्टि-कार्य से मुक्त कर दिया परन्तु उनकी माया ने जीव को उलझा दिया ।                              

              माया से मुक्त होने के लिए काम पर नियंत्रण कर उसको जीतना आवश्यक है । यह काम इतना प्रभावशाली है कि कोई भी व्यक्ति जीते-जी नहीं कह सकता कि उसने काम को जीत लिया है । काम को जीतने का अर्थ है, जीवन में काम से निष्प्रभावी बने रहना । हरिद्वार के एक संत थे, जो कहा करते थे कि अगर यहाँ से लाहौर तक सोने की सड़क बना दी जाए तो भी मैं उस कंचन के आकर्षण में नहीं फँसूँगा परंतुकामिनी के आकर्षण से मैं मुक्त हो चुका हूँ’, ऐसा पक्का नहीं कह सकता । 

               काम पर जीतेजी नियंत्रण स्थापित कर पाना कितना असम्भव है, जानने के लिए एक दृष्टांत पर दृष्टि डाल लेते हैं । एक पहुँचे हुए संत थे । एक स्थान पर दीर्घ काल तक नहीं टिकते थे । कभी यहाँ, कभी वहाँ । संत का भी शरीर होता है, उनको भी बुढ़ापा आता है । जीवन के संध्याकाल में एक गाँव में पहुँचे । वहाँ के मंदिर में कुछ दिन ठहरने को स्थान मिल गया । वे प्रतिदिन ग्रामवासियों को प्रवचन करते । गाँव वाले उनके ज्ञान के आगे नतमस्तक थे । एक दिन उन्होंने वहाँ से आगे कहीं और चले जाने का निश्चय किया । गाँव के लोगों ने उनकी वृद्धावस्था देखकर शेष जीवन यहीं बिताने को कहा । अपनी अवस्था और लोगों के आग्रह को देखकर संत वहीं रुक गए ।

         मंदिर में रहने की उचित व्यवस्था नहीं थी । ग्रामवासियों ने मंदिर से कुछ दूर, बस्ती के दूसरे छोर पर बाबाजी के लिए एक कुटिया बना कर उनके लिए आवश्यक व्यवस्था कर दी । प्रतिदिन संत ब्रह्म मुहूर्त में उठते, संध्या आदि दैनिक कर्म कर मंदिर के लिए निकल पड़ते । मंदिर में कई लोग इकट्ठे हो जाते, उनको प्रवचन करते । यही उनका दैनिक कर्म हो गया था ।

           अपनी कुटिया से संत जिस रास्ते से मंदिर को जाते, उस रास्ते पर एक गणिका का घर पड़ता था । एक दिन अटारी पर खड़ी गणिका ने उन संत को मंदिर जाते देखा । संत के तेज आभायुक्त मुखमण्डल को देखकर गणिका प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी । संत की प्रशंसा तो उसने पहले से ही सुन रखी थी परन्तु एक वैश्या का मंदिर में प्रवेश ………? असंभव । एक अकेली स्त्री बिना किसी पुरुष के स्पर्श के कभी भी पतित नहीं हो सकती । काम दोनों को प्रभावित करता है, तभी जाकर दोनों में संयोग होता है । पुरुष प्रधान समाज में स्त्री-पुरुष का भेद काम के क्षेत्र में स्त्री को ही दोषी मानता है । भले ही कई पुरुष उस एक स्त्री से स्पर्श-सुख लेने को आतुर हों, पतित तो वह स्त्री ही कहलाएगी । समाज की यह कैसी विडम्बना है ?

          सन्त का प्रतिदिन उस गणिका के घर के सामने से होते हुए मंदिर जाना होता था । गणिका के मन में संत के लिए एक ही प्रश्न उठता परंतु साथ ही उनसे पूछने में संकोच भी होता । आख़िर एक दिन गणिका ने संत से पूछ ही लिया -बाबाजी ! आप पक्के सन्त हैं या कच्चे ?’ गणिका द्वारा अचानक से पूछे गए इस प्रश्न ने सन्त को भीतर तक झकझोर दिया । उनसे कोई उत्तर देते नहीं बन पड़ा । इस देह के रहते जोकि मैथुनी सृष्टि का कार्य है, कैसे कह दे कि मैं पक्का सन्त हूँ ? भले ही काम को उन्होंने जीत लिया हो परंतु शरीर कब, कहाँ और किस कामिनी के आकर्षण में फँस जाए, कहा नहीं जा सकता । सन्त उस दिन तो प्रश्न का उतर दिए बिना आगे बढ़ गए ।

         इधर गणिका भी अपने प्रश्न का उत्तर न पाकर असंतुष्ट रही । अब तो प्रतिदिन का यह एक नियम सा बन गया था कि सन्त ज्योंहि गणिका के निवास के पास से निकलते, अटारी पर खड़ी वह उनसे एक ही प्रश्न पूछती -बाबाजी ! आप पक्के सन्त हैं या कच्चे ?’ संत भी क्या उत्तर देते । कच्चे होने का कह देते तो उनके संतत्व पर प्रश्न चिन्ह लग जाता और पक्का होना कह देते तो देह के रहते ऐसा कहना शायद सत्य नहीं होता । सन्त एक उड़ती सी दृष्टि गणिका पर डालते और गहरी सांस लेते हुए मंदिर-मार्ग पर आगे बढ़ जाते । इधर गणिका भी अपने प्रश्न का उत्तर न पाकर मायूस हो जाती ।

                इस प्रकार कई दिन बीत गए परन्तु न तो गणिका का प्रश्न पूछना बन्द हुआ और न उत्तर देने के लिए सन्त का मौन ही टूटा । एक दिन सन्त चल बसे । गाँव वालों में शोक की लहर दौड़ गई । उन्होंने सन्त का अंतिम संस्कार मंदिर के पास ही करने का निश्चय किया । सन्त की कुटिया से उनकी शवयात्रा प्रारंभ हुई, मंदिर की ओर जाने के लिए । रास्ते में उसी गणिका का घर । अटारी पर खड़ी गणिका रोते हुए बोल पड़ी -हाय ! बाबाजी तो मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही चले गए ।’  

            कहते हैं कि उसी समय सन्त की देह बोल उठीं -सुन देवी ! मैं पक्का सन्त हूँ परन्तु देह के रहते कह नहीं सका क्योंकि देह त्रिगुणी प्रकृति (माया) की देन है । यह माया मुझे कभी भी भ्रमित कर सकती थी । देह नहीं रही तो माया का साथ भी छूट गया । अब पुरज़ोर तरीक़े से कह सकता हूँ कि मैं पक्का सन्त हूँ ।

            माया से भ्रमित हो कर जीव उसके जाल में फँस जाता है । माया का सबसे बड़ा अस्त्र यह काम ही है, जिसके कारण मनुष्य कंचन और कामिनी के आकर्षण से कभी मुक्त नहीं हो पाता । यह आकर्षण भीतर पल रहे काम के कारण है । आकर्षित होकर जीव माया (काम) से मिलने वाले शारीरिक सुख का भोग करने लगता है । यह सुख वास्तव में प्रकृति के गुणों की क्रियाओं का परिणाम होता है । सुखासक्ति होने से जीव प्रकृति के गुणों के साथ बंध जाता है । एक बार मिले शारीरिक सुख को बार-बार भोगने की इच्छा होती है । बार-बार भोग भोगने के लिए काम की ज्वाला भड़कती जाती है जिससे नई नई कामनाएँ जन्म लेती है । कामनाओं की पूर्ति का एक मात्र साधन यह माया निर्मित शरीर ही है, जिससे कर्म करते हुए व्यक्ति मनोवांछित फल को प्राप्त करने का प्रयास करता है । 

              इस प्रकार स्पष्ट है कि माया का अस्त्र काम है । काम के कारण ही जीव संसार में फँसता है । काम इंद्रियों के द्वारा, मन के माध्यम से जीव को भोग उपलब्ध कराता है । शारीरिक सुख-भोग की इच्छा जीव की होती है क्योंकि वह शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है और यह तादात्म्य बनता भी इसी काम के कारण है । यह काम, जीव और शरीर के संधि-स्थान पर रहता है अर्थात् माया निर्मित शरीर में काम इंद्रियों, मन और बुद्धि से होते हुए अहम् (अहंकार) के माध्यम से जीव को जकड़ता है और उसे शरीर के साथ बांध देता है । संतों ने इस संधि को चिज्जड़-ग्रंथि कहा है अर्थात् चैतन्य जीव और जड़ शरीर का जोड़, जिसके मूल में काम ही है । 

           भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं -जहि शत्रुम् महाबाहो कामरूपं दुरासदम्’, (गीता - 3/43) “अर्जुन ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल     परंतु काम को मार डालना इतना आसान नहीं है । काम एक है और उसके कारण उत्पन्न होने वाली कामनाएँ असंख्य है, जिन्हें वासनाएं भी कहा जाता है । जब तक जीव की समस्त कामनाएँ समाप्त नहीं होगी, तब तक काम नहीं मरने वाला और कामनाएँ कभी समाप्त होने वाली नहीं है । एक के पूरी होने से पहले ही दूसरी कामना जन्म ले लेती है । 

       इंद्रियों का निग्रह करने से सतही तौर पर काम नष्ट हुआ प्रतीत अवश्य होता है परन्तु किसी भी एक इंद्रिय के माध्यम से कोई एक विषय शरीर में प्रवेश कर सुषुप्त पड़े काम को पुनः पूर्ण रूप से सक्रिय कर सकता है । इसलिए इंद्रियों पर हर समय नियंत्रण रखना बहुत आवश्यक है । 

             यद्यपि ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद ने काम को जीत लिया था परन्तु वे एक इंद्रिय (दृष्टि) पर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख सके और उसके विषय (रूप) में फँस गए । उनके फँसने का कारण क्या था ? कारण था - काम को जीतने का अहंकार । अहम् में ही काम रहता है, जो जीव को शरीर के साथ बांधता है । इसी अहंकार के कारण नारदजी के भीतर निष्क्रिय पड़ा काम सक्रिय हो उठा और फिर जब काम की पूर्ति में बाधा पड़ी तब वे क्रोधित भी हो गए । क्रोध से मूढ़भाव (सम्मोह) हो जाता है । सम्मोह से स्मृति नष्ट हो जाती है और बुद्धि में भ्रम पैदा हो जाता है । फिर भले-बुरे का ज्ञान नहीं रहता क्योंकि बुद्धि का नाश हो जाता है । ऐसे में जीव का पतन होना निश्चित है । 

            हम जिस काम को मार डालने की बात करते हैं, वास्तव में उसे शरीर के रहते मारना बड़ा कठिन है क्योंकि इस शरीर का कारण भी तो काम ही है । शरीर है तो अहंकार है और जब तक अहंकार है तब तक उसमें निवास करने वाला काम रहेगा ही । हाँ, इंद्रियों को वश में करके काम को निष्क्रिय अवश्य ही किया जा सकता है परंतु नष्ट नहीं किया जा सकता । निष्क्रिय काम कहीं पुनः सक्रिय नहीं हो जाए इसका ध्यान देह-मृत्यु होने तक रखना होगा । ऐसा होना तभी संभव है, जब मन सहित सभी इंद्रियों को सदैव अपने नियंत्रण में रखें । नारद मुनि यही तो नहीं कर सके थे ।

              काम को जीत लेने का अहंकार ही उसके सदैव के लिए निष्क्रिय बने रहने में बाधक है । अहंकार आसक्ति का जनक है । आसक्ति ही जीव को काम से मुक्त नहीं होने देती क्योंकि देहाभिमान जब तक है, बाहर से भले ही विषय निवृत हो चुके हों, भीतर विषय-रस बना ही रहता है । इससे काम-मुक्त होने का केवल भ्रम ही होता है । इसी काम को जीत लेने का देवर्षि को अहंकार हो गया था ।

           ‘नारदजी ने काम को जीत लिया है’, यह बात त्रिलोकी में फैल चुकी थी फिर भी इससे अनजान वे अपनी बात ब्रह्माजी को कहते हुए शंकर भगवान तक पहुँच गए । शंकर भगवान ने बहुत मना किया कि मेरे को तो यह बात कह दी परंतु विष्णु को जाकर न कहना । नारदजी कहाँ मानने वाले थे । नारदजी सोच रहे थे -काम को क्या केवल शंकर ही जीत सकते हैं ? मैं क्या इनसे कम हूँ ? मैंने भी तो काम को जीता है, फिर जाकर सबको क्यों न बताऊँ ?”  सोचते हुए पहुँच गए बैकुंठ, भगवान के सामने । भगवान ने नारदजी की बड़ी प्रशंसा की और कहा कि काम को जीत लेना आपके लिए कौन सी बड़ी बात है ? अपनी प्रशंसा से फूले नारदजी भगवान को प्रणाम कर त्रिलोकी भ्रमण पर निकल पड़े ।

              भगवान ने मन में विचार किया कि मेरा परम भक्त नारद अपनी काम-विजय के मद में बावला हो गया है । उसने अपने संभावित पतन को निमंत्रण दे दिया है । पतन को रोकने के लिए इसके अहंकार को समाप्त करना ही होगा । भगवान तो भक्त-वत्सल हैं, वे भक्त के हित के लिए कुछ भी कर सकते हैं ।

         इधर नारदजी नारायण-नारायण करते पृथ्वी लोक में आ गए । रास्ते में शीलनिधि राजा का नगर पड़ा । नगर में बड़ी चहल-पहल थी । किसी को पूछा तो पता चला कि शीलनिधि की कन्या विश्वमोहिनी का स्वयंवर होने वाला है । जानकर नारदजी शीलनिधि के यहाँ पहुँच गए । शीलनिधि ने उनका स्वागत करते हुए विश्वमोहिनी को बुलाकर प्रणाम कराया । हस्त-रेखा देखकर पता भी चल गया कि विश्वमोहिनी को श्रीहरि जैसा ही वर मिलेगा फिर भी मन में उस कन्या को प्राप्त करने की कामना बलवती होती गई । विश्वमोहिनी का अनुपम सौंदर्य नारदजी की आँखों के माध्यम से भीतर प्रवेश कर निष्क्रिय पड़े काम को सक्रिय कर गया । काम को जीतने का अहंकार न होता तो कदाचित् कुछ भी न होता । देह के रहते देहाभिमान का जाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है । देहाभिमान समाप्त होना ही विदेह हो जाना है, यही जीवन-मुक्ति है ।

           अनुपम सौंदर्य की धनी विश्वमोहिनी किसी अति-सुंदर वर को ही चुनेगी । कल होने जा रहे स्वयंवर के लिए नारदजी के पास तप करने के लिए समय कम था, तप किए बिना सुंदरता कैसे प्राप्त होगी और शरीर सुंदर नहीं होगा तो राजकुमारी उनको कैसे वरेगी ? नारदजी ने भगवान को पुकारा, अपने हित के लिए सुंदर और आकर्षक रूप माँगा । भगवान ने भी कह दिया -नारद ! जिसमें तुम्हारा हित होगा, वही करूँगा ।” 

           नारदजी सुंदर रूप चाहते हैं और भगवान अहंकार रहित शरीर । महत्वपूर्ण आत्मा की सुंदरता है न कि शरीर की । नारदजी तो भगवान की माया के वशीभूत होकर विश्वमोहिनी के रूप-जाल में फँसकर उससे विवाह करना चाहते थे परन्तु भगवान नहीं चाहते थे कि उनका परम भक्त माया के कारण मन में उपजे काम के वश होकर विवाह करने की गलती करे । चिकित्सक कभी भी रोगी के कहने पर उसे मीठी दवा नहीं देता क्योंकि अनुचित दवा शरीर में जाकर विष बन जाती है । परमात्मा ने नारदजी के पतन को रोकने के लिए उन्हें कुरूप कर दिया । स्वयंवर में नारदजी की अवहेलना हो गई और विश्वमोहिनी ने वहाँ पहुँचे भगवान का वरण कर लिया ।

          कामना के पूरी न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है, फिर मनुष्य की बुद्धि जवाब दे जाती है । एक तो नारदजी की कामना पूरी नहीं हुई ऊपर से विश्वमोहिनी ने भगवान का वरण कर लिया । नारदजी से कुछ करते नहीं बन रहा था । सरोवर के जल में अपना कुरूप चेहरा देखकर नारदजी क्रोधित हो गए । तभी भगवान विष्णु, रमा और विश्वमोहिनी को साथ लिए उसी सरोवर किनारे आ गए । क्रोधित नारद ने नारी-वियोग का श्राप दे डाला । तभी भगवान ने अपनी माया समेट ली । अब वहाँ न तो लक्ष्मी थी और न ही विश्वमोहिनी । नारदजी का क्रोध शान्त हुआ, बुद्धि पर पड़ा माया (काम) का आवरण हटा और तत्क्षण विवेक जाग्रत हो गया । 

           विवेकयुक्त बुद्धि से नारदजी को अपनी गलती का भान हुआ परंतु अब कुछ भी नहीं किया जा सकता था क्योंकि तीर कमान से निकलकर लक्ष्य की ओर चल पड़ा था । असफल काम ने क्रोध को जन्म दिया । क्रोध को जब तक नियंत्रण में नहीं रखेंगे, तब तक इंद्रियाँ स्वतंत्र होकर इधर-उधर विचरण करते हुए कुछ भी कर सकती है । नारदजी के क्रोध ने उनकी वाक् इंद्रिय को स्वतंत्र कर दिया, जिससे वे अपने आराध्य को भी शाप देने जैसा बड़ा अपराध भी करने से नहीं चूके ।

              क्या नारदजी माया के कारण काम के वश हो गए थे ? हमारे मन में ऐसे प्रश्न तभी तक उठते हैं, जब तक परमात्मा की माया को पूर्ण रूप से समझ नहीं लेते हैं । भगवान को अवतार लेकर दनुजों का नाश करना था । अवतार लेने के लिए उन्हें कोई न कोई एक आधार चाहिए था । अवतरित होने में प्रकृति उनकी सहयोगी बनती है । प्रकृति को अपने अधीन करके ही योगमाया से मनुष्य रूप में भगवान प्रकट होते हैं ।प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया” (गीता 4/6) - मैं प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ ।

              जय, विजय को ब्राह्मणों (सनकादि) के शाप से मुक्त करने के लिए भगवान ने सारी माया रची और उस माया में फँस गए नारदजी । नारद का अहंकार तोड़ना और जय विजय को मुक्त करना अर्थात् एक तीर से दो शिकार करना । उस माया के माध्यम से सारा खेल परमेश्वर का ही था । तभी नारदजी को आश्वस्त करते हुए भगवान ने कहा था कि आप मुझे दिए गए श्राप का पश्चाताप न करें क्योंकि यह मेरी ही इच्छा थी -मम इच्छा कह दीनदयाला ।इसीलिए कहा जाता है कि परमात्मा की माया को कोई नहीं जान सकता ।

            ब्रह्माजी के मानस पुत्र नारदजी तो काम के वश हो गए थे परंतु उनके पिता को भी तो बाल कृष्ण के भगवान होने का विश्वास नहीं हो रहा था । वे भी भगवान की माया में उलझ गए । बाल-कृष्ण ग्वालबालों के साथ गायों को चराने वन में जाते थे । कृष्ण अपने सभी साथियों के साथ बैठकर संग लाया भोजन करते थे । उनकी यह लीला देखकर ब्रह्माजी को भी मोह हो गया । वे देख रहे हैं कि कैसे कृष्ण दूसरे ग्वाल बाल के मुख पर लगे दही को अपनी जीभ से चाट रहे हैं, कैसे वे साथियों के साथ माखन के लिए छीनाझपटी  कर रहे हैं । बस, भूल गए कि ये भगवान ही हैं और फँस गए उनकी माया में । ब्रह्माजी को पक्का विश्वास हो गया कि जो बालक ऐसी छोटी-छोटी क्रीड़ायें कर रहा है, भला वह भगवान कैसे हो सकता है ? चलो कोई बात नहीं, सत्य को जानने के लिए क्यों न परीक्षा कर ली जाय ।

            कृष्ण जब धेनुओं को देखने ग्वालबालों से कुछ दूर चले गए तो ब्रह्माजी ने सभी बछड़ों और उन बालकों को ले जाकर एक गुफा में बंद कर दिया और अपने लोक चले गए । एक वर्ष बाद उनको इस घटना का स्मरण हुआ । परिणाम जानने के लिए वे व्रज में आए । देखते हैं कि उतनी ही संख्या में और वैसे के वैसे बछड़े और गोप-बाल अभी भी नियमित रूप से वन में आ-जा रहे हैं ।ये सभी प्रतिमूर्ति हैं’, इस बात का न तो गोप बालकों की माताओं को भान हुआ और न ही बछड़ों की माता धेनुओं को ।

         ब्रह्माजी ने अविश्वास से अपनी आँखें मली और गुफा की ओर दौड़ पड़े । जाकर देखते हैं कि वहाँ पर उतने ही गोप-बाल और बछड़े बैठे आपस में खेल रहे हैं । पुनः लौटकर देखा कि व्रज में तो स्वयं कृष्ण ही ग्वाल-बाल और बछड़े बने बैठे हैं । यही नहीं, ग्वाल बालों के कपड़े, कमरिया और लकुटी तक सब कुछ कृष्ण ही कृष्ण हैं । तत्क्षण ही ब्रह्माजी के ज्ञान पर पड़ा माया का आवरण हट गया । भगवान की माया को जानकर उन्होंने परमात्मा की स्तुति की । ऐसी है उस परम की माया, जिसमें फँसने से स्वयं ब्रह्माजी भी अपने आपको बचा नहीं सके ।

             ब्रह्माजी को माया के कारण भ्रम हो गया था । उनका भ्रम तो समाप्त हो गया परंतु हम तो अपना पूरा जीवन इसी प्रकार के भ्रम में जीते हुए बीता देते हैं । परमात्मा को काल्पनिक तक मान बैठे हैं । माया से यह संसार अस्तित्व में अवश्य ही आया है परंतु स्वयं माया का कोई अस्तित्व नहीं है । उसका अस्तित्व तो उस परम पर ही टिका है फिर भी हम मायाजनित इस संसार को ही सत्य समझकर मायापति को विस्मृत कर बैठे हैं । यह माया क्या है ? जब तक हम माया को नहीं जानेंगे तब तक संसार की भूलभुलैया में यूँही भटकते रहेंगे ।

           माया ऐसा शब्द है जिसे बच्चा-बूढ़ा, छोटा-बड़ा, गरीब-अमीर सब कोई जानते हैं और बहुत कुछ जानने के बाद भी इस माया को पूर्ण रूप से कोई नहीं जानता । कबीर भी कह गए - 'माया महा ठगिनी हम जानी ।' आख़िर यह माया है क्या ? इसका क्या अस्तित्व है ? यह किस प्रकार संसार में व्याप्त है और किस प्रकार प्राणियों को माया व्याप्ती है ? हम जितना भी इसके विषय में जानने की कोशिश करते हैं, उलझन  उतनी ही गहन होती जाती है । 

             श्रीमदभागवत महापुराण में भी माया को स्पष्ट किया गया है । भागवतजी के ग्यारहवें स्कन्ध में नौ योगीश्वरों का संवाद है । इसमें तीसरे योगेश्वर अंतरिक्ष जी राजा निमि के पूछने पर उन्हें माया के बारे में बतलाते हैं । आदि पुरुष परमात्मा जिस शक्ति से संपूर्ण भूतों के कारण बनते हैं और मनुष्य आदि प्राणियों के शरीरों की सृष्टि करते हैं, उसी को माया कहते हैं । देहाभिमानी जीव अंतर्यामी द्वारा प्रकाशित इंद्रियों के द्वारा विषयों का भोग करता है और अपने शरीर को ही अपना स्वरूप मानकर उसमें आसक्त हो जाता है । यह भगवान की माया है । सुख प्राप्त करने के लिए जीव कर्मेन्द्रियों से कर्म करता है और स्वयं को कर्ता समझने लगता है । यही माया है । इस प्रकार जीव विभिन्न कर्मगतियों को प्राप्त होकर जन्म के बाद मृत्यु को और मृत्यु के बाद जन्म को प्राप्त होता रहता है । यह भगवान की माया है ।

             जब प्रलय का समय आता है, तब अनादि अनन्त काल इस समस्त व्यक्त सृष्टि को अव्यक्त की ओर, उसके मूल कारण की ओर खींचता है - यह भगवान की माया है । उस समय इस धरा पर लगातार सौ वर्षों तक भयंकर सूखा पड़ता है जिससे सूर्य की उष्णता अपने चरम की ओर बढ़ती है, यह सब भगवान की माया है । फिर अतिवृष्टि होती है और विराट ब्रह्मांड जल में डूब जाता है - यह भगवान की माया है । वायु पृथ्वी की गन्ध को और जल के रस को खींच लेती है । तब जल अपना कारण अग्नि में परिवर्तित हो जाता है । सब भगवान की माया है ।

         तीसरे योगीश्वर अंतरिक्ष जी माया का वर्णन करते हुए आगे कहते हैं कि अंधकार अग्नि का रूप छीन लेता है तब अग्नि वायु में लीन हो जाती है । तब आकाश वायु की स्पर्श शक्ति छीन लेता है । इस प्रकार वायु आकाश में लीन हो जाती है । फिर काल स्वरूप ईश्वर आकाश के शब्द गुण को हर लेता है जिससे वह तामस अहंकार में लीन हो जाता है । इंद्रियाँ और बुद्धि राजस अहंकार में लीन होती है और मन सात्विक अहंकार में प्रवेश कर जाता है । इस प्रकार एक एक कर सभी पाँचों भूत तत्व, बुद्धि और मन महतत्व की अवस्था तक पहुँच जाते हैं । अंततः महतत्त्व प्रकृति में और प्रकृति ब्रह्म में लीन हो जाते हैं ।  फिर इसी के उल्टे क्रम से सृष्टि पुनः उत्पन्न होती है । यह सब भगवान की माया है । 

         यह सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाली त्रिगुणी माया है । माया के मूल में उसके तीन गुण हैं, जिनमें आसक्त होकर जीव संसार के साथ बंध जाता है और अपने मूल स्वरूप को भूल जाता है ।

              आदि शंकराचार्य इस माया को अनिर्वचनीय कह गए हैं । इसको बताया नहीं जा सकता, यह सत्य भी नहीं है, यह असत्य भी नहीं है । यह सत और असत से मिली-जुली भी नहीं है । यह आत्मा से भिन्न नहीं है, अभिन्न नहीं है और उभयात्मिका भी नहीं है । यह अंग रहित भी नहीं है, अंग वाली भी नहीं है, यह उभयात्मिका भी नहीं है । यह अद्भुत है । यह होती भी है, यह नहीं भी होती है । यह दिखाई भी देती है और नहीं भी दिखाई देती है । इसको स्पष्ट करना निश्चय ही कठिन कार्य है । 

           पूर्व में महामाया (विद्या माया) और माया (अविद्या माया) के बारे में विस्तार से चर्चा हो चुकी है । अब हम मूल विषय माया (अविद्या माया) के बारे में चर्चा करेंगे ।

            माया का अर्थ है - मा = नहीं और या = यह अर्थात्जो नहीं है “, जिसका कोई अस्तित्व नहीं है । भगवान राम माया के बारे में समझाते हुए लक्ष्मण को कह रहे हैं - 

              गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ।। मानस -3/15/3 ।।

          “इंद्रियों के विषयों को और जहां तक मन जाता है, हे भाई ! उन सबको माया जानना ।

             मन इधर-उधर जाता है, इंद्रियों के कारण । शरीर को रथ कहा जाता है, जिसकी सारथी बुद्धि है और इस रथ का स्वामी है, जीवात्मा । इस रथ को पाँच इंद्रिय रूपी घोड़े खींचते हैं । इन इंद्रिय रूपी घोड़ों की लगाम है मन । मन के संकेत से इंद्रिय उसे (शरीर को) यहाँ-वहाँ, चाहे जहां ले जाती है ।  मनुष्य के शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती है, जिनके माध्यम से वह संसार के विषयों का ज्ञान करता है ।  संसार में मुख्य रूप से पाँच विषय हैं - शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श ।  विषय अपने से संबंधित इंद्रिय से संयोग कर ही अपना ज्ञान कराते हैं । संयोग का अर्थ है - सम्पर्क में आना, स्पर्श करना । बिना ज्ञान हुए किसी विषय का भोग नहीं होता । इसका सीधा सा अर्थ है कि सभी भोग संयोगजन्य भोग हैं । शब्द का स्पर्श श्रवणेन्द्रिय (tympanic membrane) से, रूप का स्पर्श दर्शनेन्द्रिय (retina) से, रस का स्पर्श स्वादेन्द्रिय (taste buds) से, गन्ध का स्पर्श घ्राण इंद्रिय (nasal mucosa) से और स्पर्श का स्पर्श त्वगेन्द्रिय (epidermis) से होता है । 

            इंद्रिय-स्पर्श से ही उस विषय को जीव मन के माध्यम से भोग पाता है, बिना स्पर्श के कोई विषय-भोग संभव ही नहीं है । एक बार भोगे गए विषय को जीव बार-बार भोगना चाहता है, जिन्हें प्राप्त करने के लिए मन इधर-उधर विषयों की खोज में दौड़ता रहता है ।

          संसार में असंख्य पदार्थ हैं, जिनका रस इंद्रियों से ग्रहण कर मन के माध्यम से जीव भोगता है । सभी विषय जीव को संयोग-जन्य सुख प्रदान करते हैं । यह सुख इंद्रिय-विषय के आपसी सम्पर्क होने से मिलता है । जब किसी विषय का स्पर्श एक इंद्रिय से होता है, तब जीव को सुख अथवा दुःख का अनुभव होता है । मैथुनी सृष्टि में सबसे पहले रूप विषय का संयोग दर्शनेन्द्रिय से होता है । इस संयोग से विपरीत लिंग के प्रति जीव का स्वाभाविक आकर्षण पैदा होता है । यह आकर्षण ही विपरीत लिंग को एक दूसरे के निकट लाकर कर्मेन्द्रिय के माध्यम से स्पर्श सुख उपलब्ध कराता है । इसी प्रकार यह संयोग विभिन्न इंद्रियों का भिन्न- भिन्न विषयों से होता है । इसी सुख-भोग को बार-बार प्राप्त करने के लिए नई-नई कामनाओं का जन्म होता है । 

            काम के आवरण से ज्ञान ढक जाता है, जिससे जीव अपने मूल को विस्मृत कर अपने बनाए संसार में उलझ जाता है । परमात्मा के बनाए जगत् से जीव का बनाया संसार एकदम भिन्न होता है । स्त्री-शक्ति और पुरुष-शक्ति के स्पर्श से बने संसार में काम इतना अधिक विस्तार पा जाता है, जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती । पत्नी-पुत्र, परिवार  (माता-पिता, भाई-बहिन आदि), मित्र, धन, घर, शुभचिंतक आदि सभी स्व-निर्मित संसार के अन्तर्गत आते हैं । 

          अपने द्वारा रचे गए संसार के प्रति आसक्ति का वासनाओं से गहरा सम्बन्ध है । आसक्ति का अर्थ है किसी वस्तु अथवा व्यक्ति का प्रिय लगना । इस आसक्ति से मन के भीतर असंख्य कामनाएं उत्पन्न होती हैं, जिन्हें वासना कहा जाता है । कामनाओं के पूरा न होने पर क्रोध और पूरा हो जाने पर लोभ पैदा होता है, जिनसे फिर नई-नई कामनाओं का जन्म होता है । इस प्रकार हुए कामना-विस्तार को तृष्णा कहा जाता है । इन कामनाओं के कारण जीव को विभिन्न वस्तुओं की आवश्यकता अनुभव होती है । काम के इस रूप को स्पृहा कहा जाता है । आवश्यक वस्तु के मिलने की संभावना को आशा कहा जाता है । नाम भले ही भिन्न-भिन्न हों, ये सब काम के ही रूप हैं । आसक्ति, कामना, वासना, आशा, लोभ (तृष्णा), स्पृहा आदि सभी काम के ही उपोत्पाद (by-product) हैं ।

           काम का मुख्य उत्पाद है, कामना । कई संत काम और कामना को एक ही मानते हैं, जो कुछ सीमा तक सत्य भी है । इस कामना के कारण ही जीव जीवन भर सुखी-दुःखी होता रहता है । कामना के पूरा होने अथवा न होने पर लोभ और क्रोध पैदा होते हैं । लोभ उस वस्तु के प्रति राग उत्पन्न करता है और क्रोध द्वेष । राग-द्वेष ही संसार-बंधन के मूल में है । विषय-भोग किसी भी जीव को तब तक प्रभावित नहीं करते जब तक उन्हें त्यागपूर्वक भोगा जाता है । कोई भी विषय अथवा पदार्थ हमें तभी प्रभावित करता है, जब उसके प्रति या तो हमारी आसक्ति होती है अथवा विरोध । पदार्थ के प्रति आसक्ति और उसके प्रति विरोध रखना ही राग-द्वेष है ।

              राग-द्वेष इंद्रियों में रहते है क्योंकि विषय सर्वप्रथम इंद्रियों के संपर्क में ही आते हैं । जब भी रुचिकर अथवा अरुचिकर पदार्थ का सम्पर्क (संयोग) इंद्रिय से होता है, तत्काल ही मन को वह अच्छा अथवा बुरा लगता है ।  तत्क्षण शरीर भी उसके पक्ष अथवा विपक्ष में प्रतिक्रिया दे देता है । पक्ष अर्थात् राग और विपक्ष अर्थात् द्वेष । इस प्रकार राग-द्वेष में बंधकर जीव संसार से कभी भी मुक्त नहीं हो पाता क्योंकि उसकी स्मृति में वह व्यक्ति, वस्तु अथवा पदार्थ सदैव बना रहता है । इनको स्मृति से बाहर निकाले बिना संसार से मुक्त होना असंभव है ।

         माया से काम, काम से राग-द्वेष और फिर राग-द्वेष में उलझकर जीव कहीं का नहीं रहता । इसके पीछे माया का अविद्या स्वरूप है । अविद्या माया के कारण ही मनुष्य राग-द्वेष से बने ताने-बाने में उलझकर संसार के साथ बंध जाता है । मानस में भगवान राम ने माया के दो भेद बताते हुए लखन को कहा है -

   तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ । 

   बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ।। मानस -3/15/4।।

                      “इस माया के भी विद्या और अविद्या दो भेद हैं ।

         अविद्या माया से तो संसार बनता है जिसको धारण कर जीव बंध जाता है । इस संसार को जीव स्वयं बनाता है । अपने बनाए संसार से सुख की कामना रखना ही इस संसार को दुखालय बना देती है, जिससे मुक्त होना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है ।

          भगवान श्रीराम माया को और अधिक स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं - 

      एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा । 

      जा बस जीव परा भवकूपा ।।

      एक रचइ जग गुन बस जाकें ।

      प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ।।

                   - मानस - 3/15/5-6

            “अविद्या माया दुष्ट (दोषयुक्त) है जोकि अत्यंत दुःखरूप है, जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है । दूसरी विद्या माया है, जिसके वश में प्रकृति के तीनों गुण हैं और जो जगत् की रचना करती है, वह प्रभु से प्रेरित होती है, उसका अपना कोई बल नहीं है ।

                  विद्या माया पर परमात्मा का प्रभाव रहता है, जिससे वह स्वतंत्र नहीं रहती । परमात्मा का अंश होने के बाद भी जीव अविद्या माया के संपर्क में आकर अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है । माया को स्वतंत्रता देने से ही जीव अपना मूल स्वरूप भूला बैठता है । माया को स्वतंत्रता देने के मूल में उसके प्रति आकर्षण है, जिसके वशीभूत होकर जीव सांसारिक पदार्थों से सुख चाहने लगता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि जिस माया पर जीव अपना प्रभाव स्थापित कर लेता है, वह विद्या माया है और जो माया जीव पर अपना प्रभाव स्थापित कर लेती है, वह अविद्या माया है । 

          जीव पर अपना प्रभाव बढ़ाकर अविद्या माया उसके मन को अधिग्रहीत कर लेती है । अहम् में बैठा माया से उत्पन्न हुआ काम जीव के मन में विभिन्न कामनाओं को पैदा करता रहता है । सभी कामनाएँ सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति को बढ़ाने वाली होती है । जब तक आसक्ति समाप्त नहीं होगी, तब तक मन माया से मुक्त नहीं हो सकता ।

            कबीर कहते हैं - 

             माया माया सब कहे, माया लखै न कोय ।

            जो मन से न निकले, माया कहिए सोय ।।

       मनुष्य के अंतःकरण (मन) को ही माया का निवास बताया गया है, जो काम के रूप में आत्मा (चेतन) और सूक्ष्म शरीर (जड़) के सन्धि-स्थान (चिज़्ज़ड़- ग्रन्थि) पर कुण्डली मार कर बैठा रहता है । जिस दिन चेतन और जड़ की यह संधि टूट जाएगी, माया भी मन से निकाल जाएगी अर्थात् अविद्या माया परिवर्तित होकर विद्या माया हो जाएगी । यह विद्या माया ही जीव कोपरमात्मा का अंशहोने का ज्ञान कराती है ।

          माया से मुक्त हुआ जीव भी देह के रहते कभी भी माया के आकर्षण में फँस सकता है । परमात्मा के मार्ग में आगे बढ़ रहे जीव को कई मेनकाएं मिल सकती है जो भीतर अहम् में निष्क्रिय पड़े काम को जाग्रत कर उसे विश्वामित्र बना सकती है । इसलिए माया के प्रभाव क्षेत्र में न जाना ही जीव के लिए हितकर है । आइए ! देखते है कि इस माया से पार पाना कैसे कठिन है ?

            त्रेता के नारद द्वापर में भी माया का प्रभाव एक बार फिर से देखना चाहते हैं । वैसे नारद पहले भी एक बार विश्वमोहिनी के सौंदर्य जाल में फँस ही चुके हैं । बड़े प्रयास से भगवान ने उनको संभावित पतन से बचाया था । शंकर भगवान की साधना करते हुए वे एक बार फिर काम (माया) से मुक्त हो चुके थे । इसी बात को परखने के लिए पहुँच गए प्रभु के पास - द्वारिका ।

               द्वारिका के राजमहल पहुँचने पर श्रीकृष्ण ने नारदजी का यथोचित स्वागत-सत्कार किया और उनके इस प्रकार अनायास ही चले आने का प्रयोजन पूछा । नारद बोले -प्रभु ! मैं एक बार फिर से आपकी माया देखना चाहता हूँ । मैंने आपके कहे अनुसार शंकर के नाम का कई वर्षों तक जाप किया है । मैं देखना चाहता हूँ कि क्या अब भी आपकी माया मुझे प्रभावित कर सकती है ?”  श्रीकृष्ण समझ गए कि नारद को फिर से काम को जीतने का अभिमान हो रहा है । भगवान ने टालने का बहुत प्रयास किया परन्तु नारद तो ज़िद्द पाले बैठे थे । भगवान ने उन्हें कुछ दिन प्रतीक्षा करने का कहा ।

             नारद द्वारिका के राजमहल में विश्राम करते हुए माया को देखने की अपनी ज़िद्द को लगभग भूला बैठे थे । व्यक्ति को जितना अधिक सांसारिक सुख मिलता है उतना ही वह परमात्मा से दूर होता चला जाता है । नारदजी भले ही भगवान के निवास-स्थान पर हैं परंतु वहाँ मिल रहे सुख ने उनके मन से उस प्रयोजन को विस्मृत कर दिया, जिसके लिए वे द्वारिका आए थे । भगवान श्रीकृष्ण ने उपयुक्त अवसर पाकर एक दिन नारदजी को बिना कुछ बताये अपनी माया दिखाने के लिए द्वारिका से बाहर वन-भ्रमण को ले गए । थोड़ी दूर चलने के बाद श्रीकृष्ण बोले -नारद ! मैं पैदल चलते-चलते थक गया हूँ और मुझे प्यास भी बहुत सता रही है । मैं थोड़ी देर यहीं रूककर विश्राम करना चाहता हूँ, तब तक तुम पास के गाँव में जाकर किसी के यहाँ से यह लोटा भर कर जल ले आओ ।इतना कहकर नारद के हाथ में लोटा थमाकर भगवान वहीं लेट गए और अपनी आँखें मूँदते हुए सोने का उपक्रम करने लगे ।

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            लोटा हाथ में लिए जल की खोज में नारदजी पास ही स्थित एक गाँव में गए । एक घर के दरवाज़े की साँकल खड़खड़ाई । घर का दरवाज़ा एक युवती ने खोला । अनुपम सौंदर्य की धनी युवती को देखकर नारदजी अपनी सुध-बुध खो बैठे । काम पूछने पर नारदजी ने उसे लोटा थमाते हुए जल देने का आग्रह किया । युवती तुरंत ही भीतर गई और जल से भरकर लोटा ले आई । नारदजी ने एक ही सांस में लोटे का सारा जल पी डाला ।लगता है आप यात्रा से थक गए हैं, थोड़ी देर विश्राम कर लीजिएकहते हुए युवती ने आँगन में पलंग लगा दिया और गृहकार्य निबटाने में लग गई ।

           एक तो युवती और ऊपर से उसका अनुपम सौंदर्य, नारदजी उसके रूपजाल में उलझकर भूल गए कि वे किस कार्य से यहाँ आए हैं । पलंग पर लेटे हुए भी उनकी दृष्टि उस युवती पर से नहीं हट रही थी । आख़िर वे पलंग से उठे और युवती के पास जाकर उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया ।

             “मेरे पिताजी अभी बाहर गए हुए हैं । इस बारे में वे ही कुछ निर्णय कर सकते हैं, तब तक आप बैठिए, वे अभी आते ही होंगे”, कहते हुए युवती फिर से अपने काम में लग गई । थोड़ी देर में उसके पिता भी आ गए । नारदजी ने उनसे कहा -मैं आपकी कन्या से विवाह करना चाहता हूँ, इसके लिए आपकी सहमति चाहिए ।पिता ने नारदजी के बारे में सारी जानकारी लेकर अपना निर्णय कहा -मुझे इस विवाह पर कोई आपत्ति नहीं है परंतु साथ में मेरी एक शर्त है । यह कन्या मेरी इकलौती संतान है । विवाह उपरांत आपको हमारे साथ ही रहना होगा ।

              नारदजी पर काम का प्रभाव इतना गहरा गया था कि वे सब कुछ भूल बैठे । उनके भीतर तो केवल वही अनुपम सौंदर्य की धनी कन्या ही बसी हुई थी । नारदजी ने उसके पिता की प्रत्येक शर्त स्वीकार कर ली और कन्या से विवाह कर वहीं उनके साथ ही रहने लगे ।

            दिन जाते देर नहीं लगती । समय पाकर वे दो पुत्रों के पिता भी बन गए । थोड़े दिनों बाद नारदजी के ससुर भी चल बसे । उस युवती और अपने दो पुत्रों के साथ नारदजी का जीवन सुखपूर्वक चल रहा था । खेती करके अनाज पैदा करते, बच्चों को पढ़ाते और अपनी पत्नी से सुख-दुःख की बातें करते । 

               एक बार गाँव में अतिवृष्टि हुई । वर्षा रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी । गाँव में एक-एक कर घर ढहते जा रहे थे । नारदजी के घर को भी गिरने का ख़तरा बढ़ गया था । जलप्लावन ने सबकी हालत ख़राब कर रखी थी । उन्होंने घर छोड़ने का निश्चय कर लिया । उन्होंने सवेरे सवेरे जल्दी उठकर अपनी आवश्यकता का सामान समेटा और परिवार के साथ घर छोड़ गाँव से बाहर निकल पड़े ।

                गाँव के बाहर एक नदी बहती थी जोकि भारी बरसात के कारण पूरे उफान पर थी । दूसरे गाँव जाने के लिए उस नदी को पार करना पड़ता था । नारदजी ने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को साथ लिया और उफनती नदी को पार करने लगे । सभी ने एक दूसरे को पकड़ रखा था । तेज बहाव के कारण पहले सारा सामान छूटा और फिर पत्नी भी बह गई । उन्होंने उसे बचाने का प्रयास भी किया परंतु सफल नहीं हो सके । इसी प्रकार पहले एक बच्चा छूटा और फिर दूसरा बच्चा भी नदी में बह गया । इतना सब होने पर नारदजी भीतर से एकदम टूट गए । उनका हृदय चीत्कार कर उठा फिर भी हिम्मत जुटाकर स्वयं को बचाने के लिए नदी पार करने लगे ।

           जब नदी का किनारा एकदम पास ही था, तभी पानी का एक तेज बहाव आया और नारदजी के पाँव उखड़ गए । प्रचण्ड जलधारा में वे बहने लगे । बचने के सभी प्रयास विफल होते जा रहे थे । संभावित मृत्यु को समक्ष खड़ी देख कर नारदजी तेज स्वर में पुकारने लगे -बचाओ, बचाओ ।नारदजी का आर्त स्वर सुनकर भगवान श्रीकृष्ण की नींद टूट गई । वे उठ बैठे और नारदजी से बोले -नारद ! मेरा जल कहाँ है ?” नारदजी आश्चर्यचकित होकर कभी अपने हाथ में पकड़े ख़ाली लोटे को देख रहे थे और कभी प्रभु के मुख को । वे श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़े और बोले -प्रभु ! देख ली आपकी माया । अपने स्तर पर कोई कितना ही प्रयास कर ले, आपकी माया से पार पाना असंभव है ।

            नारदजी ब्रह्मा के मानस पुत्र और भगवान के परम भक्त, फिर भी माया में बार-बार फँस जाते हैं । हमारी स्थिति तो और भी दयनीय है । नारदजी भगवान के पार्षद हैं, इससे वे उन्हें माया में फँसने से बचा लेते हैं परंतु हम तो माया में इतने गहरे तक उलझे हैं कि भगवान को भी काल्पनिक तक मान बैठे हैं । इसका एकमात्र कारण है कि हम माया को ही सत्य समझ बैठे हैं । जब तक भगवान की स्वीकार्यता जीवन में नहीं होगी, तब तक माया ही सत्य प्रतीत होगी । उसको भ्रम मानना असंभव है । जीवन में कई बार ऐसी परिस्थितियाँ बनती है, जब भगवान का होना सत्य प्रतीत अवश्य होता है परंतु विपरीत परिस्थिति से बाहर निकलते ही फिर वही ढफली और वही राग । वास्तव में माया भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, इसको तो केवल भगवान की लीला मात्र ही समझना चाहिए । 

           माया का आवरण जब मनुष्य की बुद्धि पर पड़ जाता है, तब उसकी सोचने-समझने की क्षमता चूक जाती है । फिर उसको वही सत्य प्रतीत होता है, जो उसको दिखलाई पड़ता है । माया के पास दो शक्तियाँ है - आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति । नारदजी भगवान की माया देखना चाहते थे, भगवान ने माया दिखला दी । यह माया की आवरण शक्ति है । इसमें बुद्धि कुछ काल के लिये भ्रमित होती है परन्तु ज्योंही वास्तविकता का अनुभव होता है, मनुष्य उस भ्रम से बाहर आ जाता है । माया की इस शक्ति का आवरण मूल स्वरूप पर होता है । माया की आवरण शक्ति से केवल भगवान ही छूटा सकते हैं ।

          माया की दूसरी शक्ति, विक्षेप शक्ति है । संसार के प्रति जीव को आकर्षित कर माया उसमें अहंकार पैदा करती है, जिससे वह संसार को ही सत्य समझकर उसके साथ बंध जाता है अर्थात् उसका परमात्मा से विक्षेप हो जाता है । इसीलिए यह माया की विक्षेप शक्ति कहलाती है । इस शक्ति के कारण माया के आकर्षण में फँसकर जीव इतना अधिक भ्रमित हो जाता है कि वह स्वयं को ही कर्ता-धर्ता समझने लगता है । यही जीव के जीवन में विक्षेप है । माया की विक्षेप शक्ति जीव को संसार में उलझा देती है और स्वरूप तक पहुँचने का उसके मन में विचार तक नहीं उठता । पुनः सही राह पर आने के लिए स्वयं जीव को ही अपने प्रयास से माया की इस विक्षेप शक्ति से मुक्त होना होगा ।

              माया की विक्षेप शक्ति मनुष्य को किस प्रकार भ्रमित कर सकती है, जानने के लिए तनिक श्रीरामचारित मानस में वर्णितशिव-सतीप्रसंग की ओर दृष्टि डाल लेते हैं ।

           त्रेता युग में एक बार शिव-सती दक्षिण भारत में स्थित अगस्त्य ऋषि के आश्रम गए । अगस्त्य ऋषि ने उनका यथोचित आदर सत्कार किया और दोनों को बैठने के लिए यथायोग्य आसान दिए । आपस में हो रहे वार्तालाप के मध्य में ही शिव-शक्ति ने ऋषि से राम-कथा सुनाने का आग्रह किया । शिव की बात सुनकर ऋषि कुम्भज ने बड़े मनोयोग से आद्योपांत राम-कथा सुनाते हुए राम-चरित्र का वर्णन किया । कथा सुनकर शिवजी बड़े हर्षित हुए । ऋषि अगस्त्य से आज्ञा लेकर सती के साथ शंकर भगवान कैलाश के लिए लौट चले ।

          संयोगवश त्रेता-युग में उस समय परमात्मा राम रूप में अवतरित होकर लीला कर रहे थे । उस समय पंचवटी आश्रम से सीता-हरण हो चुका था । रावण उनको लेकर लंका चला गया । लक्ष्मण के साथ आश्रम लौटकर जब राम ने सीता विहीन आश्रम देखा तो वे बड़े विकल हुए । पत्नी-वियोग मेंसीते-सीतेपुकारते हुए वन में सीता को ढूँढते हुए वे आगे बढ़ रहे थे । उसी समय सती के साथ शंकर वहाँ पहुँच गए । शंकर भगवान ने परमात्मा को पहचानकर उन्हें प्रणाम किया । संकेत के माध्यम से भगवान श्री राम ने भी प्रत्युत्तर में शंकर को प्रणाम किया । शंकर भगवान द्वारा पत्नी वियोग में विकल एक वनवासी को इस प्रकार प्रणाम करते देखकर सती विस्मित हुई । उन्होंने अपने पति से इसका कारण पूछा । शंकर भगवान ने उत्तर दिया कि मनुष्य वेश में ये साक्षात् परमात्मा हैं, इसलिए मैंने इनको प्रणाम किया है परंतु सती को उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ ।

             सती को मोह हो गया । वह मन ही मन विचार कर रही है -  “परमात्मा होकर नारी के वियोग में इतने व्याकुल ! मैं मान ही नहीं सकती कि यह वनवासी के रूप में लीला कर रहे साक्षात् परमात्मा हैं ।”  अभी कुछ समय पहले ही तो उन्होंने ऋषि के मुख से राम-कथा सुनी थी, फिर भी सती को विश्वास नहीं हो रहा है कि नारी-विरह में व्याकुल यह वन-वन भटकने वाला मनुष्य स्वयं राम रूप में परमात्मा है । जब कथा को आप केवल कहानी मान लेते हैं, तब ऐसा ही होता है । कहानी केवल क़लमकार की कल्पना का चित्रण मात्र होता है जो कलम के माध्यम से शब्दों के रूप में ढलता है । कथा कल्पना नहीं है, वह वास्तविक होती है । कथा के माध्यम से हमें इतिहास का ज्ञान होता है । वह ज्ञान हमें हमारे अतीत से परिचित कराता है और सत्य को प्रकट करता है ।

          सती ने इस अविश्वास को अपने पति के सामने रखा । शंकर समझ गए कि सती को मोह हो गया है । उन्होंने बहुत प्रकार से समझाया परंतु सती को विश्वास नहीं हुआ । विश्वास हो भी तो कैसे हो ? जो सती की आँखों ने देखा है, वही तो सत्य है । परमात्मा को देखने के लिए जो दृष्टि चाहिए थी, सती की उस दृष्टि पर माया का आवरण पड़ चुका था और साथ ही माया की विक्षेप शक्ति अपना प्रभाव दिखला रही थी ।

          शंकर भगवान की समझाईश तनिक भी काम नहीं आई । सती ने तो एक ही रट पकड़ ली थी कि पत्नी-वियोग में व्याकुल हुआ वन-वन भटकने वाला मनुष्य परमात्मा कैसे हो सकता है ? सच है, स्त्री अगर अपनी पर आ जाए तो स्वयं परमात्मा भी उसे समझा नहीं सकते ।

          शंकर भगवान ने भी समझाते-समझाते थककर हार मान ली । वे समझ गए कि सती के जीवन में प्रतिकूल समय ने दस्तक दे दी है । भावी प्रबल है, अब सती का कल्याण नहीं हो सकता । शंकर ने सती को कह दिया कि तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, तो जाकर परीक्षा ले लो । सती यही तो चाहती थी । नारी के मन की हो जाती है तो वह बड़ी प्रसन्न होती है, चाहे वह बात पति के प्रतिकूल ही क्यों न हो । फिर भी शंकर तो उनका हित ही चाहेंगे । शंकर भगवान ने सती को जाते-जाते एक बार फिर से समझाया कि ऐसा कुछ न करना जिससे कोई विपरीत बात जीवन में घटित हो जाए ।

           सती ने सीता का वेश बनाया और जिस रास्ते से राम-लक्ष्मण सिया की खोज में बढ़ रहे थे, उस मार्ग पर पहले ही आगे जाकर उनकी तरफ़ बढ़ने लगी । भगवान श्री राम ने रास्ते में जब सीता वेश में सती को आते देखा तो उनको प्रणाम किया और पूछ बैठे -माते ! आप अकेली वन में कैसे घूम रही हैं ? भगवान शंकर कहाँ हैं ?” प्रश्न सुनकर सती सुन्न हो गई । कोई उत्तर देते नहीं बना । उसका झूठ पकड़ा जा चुका था । माया का आवरण हट चुका था, विक्षेप शक्ति खो गई । वह समझ गई कि उन्होंने अपने पति पर विश्वास न कर बड़ी भयंकर भूल की है । परंतु अब कुछ नहीं हो सकता था । बिना विचार किए जो कुछ भी किया जाता है, करने के बाद पछतावे के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगता । जीवन में की गई प्रत्येक भूल बलिदान माँगती ही है । देखते हैं, सती को अपनी इस भूल का कैसा परिणाम मिलता है ?

                 सती ने सीता के वेश का त्याग किया और  दुःखी मन से अपने पति के पास चल दी । शंकर भगवान ने पूछा कि परीक्षा कर आई ? परंतु सती ने झूठ बोला -नहीं, मैं तो केवल प्रणाम करने गई थी, प्रणाम कर आई ।”  जगत् पिता से भले कोई बात छिपी रह सकती है ? शंकर को पता था कि यह सीता का वेश धर कर गई थी । शंकर को बड़ा बुरा लगा । जिसको मैं मां मानता हूँ, उसका वेश बनाना और फिर आकर मुझसे झूठ बोलना । ऐसी पत्नी के साथ अब उचित व्यवहार नहीं हो सकता । तत्काल ही उन्होंने सती का त्याग कर दिया । शंकर ने अपने भीतर प्रवेश किया और समाधिस्थ हो गए ।

             माया की विक्षेप शक्ति ने सती को भ्रम में डाल दिया और सती भी उस भ्रमजाल में फँस गई थी । भगवान शिव ने उसको माया के कारण हुए विक्षेप से बाहर निकालने का भरपूर प्रयास किया परन्तु  माया के आवरण से वह मुक्त न हो सकी । शंकर से विमुखता ही उसके पतन का कारण बनी ।

             ऋषि कुम्भज से सुनी रामकथा को गंभीरता से न लेना और शंकर की समझाईश की अवहेलना करना, दोनों ही सती को भारी पड़े । माया से मुक्त होने के लिए परमात्मा का सतत स्मरण तथा गुरु के प्रति श्रद्धा और विश्वास, दोनों ही महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । सती को तो दोनों ही मिले थे फिर भी वे माया से मुक्त न हो सकी । माया से पार होना उन्हीं के लिए कठिन है, जो परमात्मा से विमुख हैं और आदर्श गुरु के सान्निध्य से वंचित है ।

          बात चल रही थी, माया की दो शक्तियों की । आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति । आवरण को परमात्मा हटाते हैं और विक्षेप शक्ति से मुक्त होना मनुष्य के हाथ में है । माया को प्रकट करने के बाद परमात्मा ही माया को आवरण बनाकर जीव और स्वयं के मध्य आ गए हैं । उनके आवरण बनने का कारण था - प्रेम और आनन्द की प्राप्ति । माया के कारण ही प्रेम और आनन्द को अनुभव किया जा सकता है । अक्रिय (निर्गुण निराकार) परमात्मा माया के माध्यम से ही सक्रिय (सगुण साकार) होते हैं और उनकी यह सक्रियता ही प्रेमानंद का अनुभव कर सकती है ।

           परमात्मा ने माया को अपने अधीन कर इस सृष्टि को बनाया । सृष्टि के जीव को माया के इस आवरण के पार बैठे प्रभु से प्रेम करना था परंतु वह इसके विपरीत दिशा में चलकर सृष्टि के पदार्थों में आसक्त हो गया । इस प्रकार माया के आवरण का जीव पर विपरीत प्रभाव हुआ । इस विपरीत प्रभाव का कारण माया की विक्षेप शक्ति है । यह विक्षेप शक्ति कैसे कार्य करती है ? आइए ! इसको जानते हैं ।

             सृष्टि से जीव का प्रेम तब तक नहीं हो सकता जब तक गुणों से ओतप्रोत कोई पदार्थ आकार और रूप ग्रहण नहीं कर लेता । उस आकार और रूप में आसक्त होकर जीव उससे अपना एक सम्बन्ध बना लेता है । यह सम्बन्ध उसे प्रिय लगने लगता है । इस प्रकार जीव अपना एक संसार बना लेता है । जीव परमात्मा से विमुख होकर अपने द्वारा निर्मित इस संसार में डूब जाता है । यह सब कुछ माया की विक्षेप शक्ति के कारण ही सम्भव हो पाता है ।

             संसार में विभिन्न शरीरों का जन्म-मरण होता रहता है । जिस शरीर का जन्म मनुष्य के माध्यम से संभव होता है, वह उसका माता-पिता बन बैठता है । उसके जन्म लेने पर वह ख़ुशियाँ मनाता है और मरने पर दुःखी होता है । देखा जाए तो शरीर का यह जन्म-मरण एक प्राकृतिक क्रिया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । परंतु मनुष्य इस क्रिया को अपने द्वारा किया जाना मानने लगता है । माया की इस क्रियाशक्ति को अपना मान लेना ही विक्षेप होना है । दूसरे शब्दों में - परमात्मा की माया से बनी सृष्टि को अपने द्वारा सृजित मान लेना ही माया की विक्षेप शक्ति है ।

           लोहे से बनी कुर्सी को एक निश्चित आकार मिलने से लोहे का नाम और रूप बदल जाता है । आकार परिवर्तित होने के कारण लोहा कुर्सी हो गया । कुर्सी में लोहे को न देखकर केवल कुर्सी को देखना ही विक्षेप है । पूर्व में लोहे के प्रति हमारी कोई आसक्ति नहीं थी परंतु कुर्सी का आकार मिलते ही हम उससे प्रेम करने लगे । कुर्सी के टूटने पर जब वह पुनः लोहा हो जाती है, तब हमें उसके टूटने का दुःख होता है क्योंकि कुर्सी में हमारी आसक्ति हो गई थी । देखा जाए तो कुर्सी पहले भी नहीं थी और टूटने के पश्चात् भी नहीं है, केवल लोहा ही लोहा है । इस प्रकार कुर्सी में आसक्त होना ही विक्षेप है ।

            सृष्टि से प्रेम तभी हो सकता है जब स्वनिर्मित संसार से आसक्ति समाप्त हो । इस आसक्ति के समाप्त होते ही माया की विक्षेप शक्ति निर्बल हो जाती है । सृष्टि से प्रेम करना प्रेम की व्यापकता को परिभाषित करता है जिससे मनुष्य को आनन्द की प्राप्ति होती है । अपने बनाए संसार के आकर्षण से मुक्त होने पर ही प्रेम और आनन्द का मार्ग खुलता है ।

        माया का अस्त्र है - काम । इस काम के कारण ही जीव अपना संसार रचता है । स्वनिर्मित संसार से मुक्त होने के लिए काम से मुक्त होना आवश्यक है । काम ही राम से विमुख करता है । काम के कारण ही मनुष्य संसार से प्रेम करता है । संसार से प्रेम करना ही उसके सुख-दुःख के मूल में है । जो परिवर्तनशील है वह कभी एक-सा नहीं रह सकता, वह स्थाई नहीं हो सकता । स्थायित्व के अभाव के कारण ही जीव सुखी-दुःखी होता है । सुख-दुःख से ऊपर उठने के लिए जीव को संसार से उदासीन होना पड़ेगा, उससे विरक्त होना होगा । 

              संसार से राग समाप्त हो जाना ही वैराग्य है । वीतरागिता का परिणाम प्रकृति के माध्यम से परमात्मा से प्रेम करना है । प्रकृति जो परमात्मा की अनिर्वचनीय शक्ति है, जिसके मूल में स्वयं परमात्मा है, जिसका सृजन स्वयं परमात्मा ने किया है । वास्तव में स्वयं परमात्मा ही प्रेम और आनन्द के लिए प्रकृति बने हैं । संसार से वैराग्य लेने का अर्थ है परमात्मा की शक्ति - प्रकृति से प्रेम करना । जब चहुँओर प्रकृति में परमात्मा के दर्शन होंगे तो संसार स्वतः ही विलुप्त हो जाएगा और माया का आवरण हट जाएगा ।

         काम संसार के प्रति आसक्ति का जनक है । इस आसक्ति से हमें केवल दुःख की ही प्राप्ति होती है और कुछ भी नहीं । राम से प्रेम करना आनन्द के द्वार खोलता है । परमात्मा का प्रकृति को सृजित करने का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब आप संसार से प्रेम करना छोड़ कर प्रकृति के माध्यम से उन्हें प्रेम और आनन्द उपलब्ध कराएँ और स्वयं भी पाएँ । प्रकृति को प्रेम करने से तात्पर्य है - सभी प्राकृतिक पदार्थों और जीवों में केवल एक परमात्मा को ही देखना ।

           गीता में काम का निवास मुख्य रूप से अहम् में बताया गया है । यह अहम् अशुद्ध है क्योंकि है तो यह चेतन परंतु इसने शरीर में प्रवेश कर उसे ही स्वयं होना मान लिया है । शरीर एक प्राकृतिक पदार्थ होने के कारण जड़ है क्योंकि जन्मना और मरना ही इसकी गति है । चेतन न तो जन्मता है और न ही मरता है परंतु शरीर से तादात्म्य हो जाने के कारण शरीर के जन्मने और मरने को वह (अहम्) अपनी ही जन्म-मृत्यु मानने लगा है । इस प्रकार की स्वीकार्यता को बल देने के लिए जड़ काम सदैव इसके साथ लगा रहता है । काम अहम् को अपने वश में कर उसको कर्ता-भोक्ता बना देता है । कर्ता-भोक्ता बन जाने के कारण शरीर को होने वाले सुख-दुःख को वह अपने में होना मानने लगता है ।

              वास्तव में देखा जाए तो काम कोई तत्व नहीं है । अपरा अर्थात् जड़ प्रकृति (शरीर) के साथ परा प्रकृति (जीव/अहम्) का तादात्म्य हो जाने से इंद्रियों और मन द्वारा ग्रहण किए जाने वाले विषयों के प्रति रुचि दिखाने पर जीव में काम का अंकुरण हो जाता है । इस काम के अंकुरण को नष्ट नहीं करने पर यह अपनी जड़ें जमकर विशाल वृक्ष बन जाता है । फिर इसको उखाड़ डालना कठिन होता है । काम अहम् को संसार और शरीर में आसक्त कर देता है । काम की उत्पत्ति से ही अहम् अशुद्ध हो जाता है अन्यथा तो अहम् स्वरूप से ही शुद्ध है । अहम् को शुद्ध कर लें तो इसी काम की दिशा संसार से प्रेम करने से हटकर परमात्मा से प्रेम करने की ओर परिवर्तित हो जाती है । इसलिए माया से पार जाने में महत्वपूर्ण अहम् की भूमिका है, न कि शरीर, मन और इंद्रियों की ।

             काम और राम, इन दो शब्दों में केवलऔरका ही अंतर है । यह अंतर शाब्दिक रूप से अल्प सा प्रतीत भले ही होता हो, पर यह अंतर है बहुत बड़ा । इन दोनों शब्दों में रात दिन का अंतर है । अहम् जब बदलता है तब यही काम, राम से प्रेम में परिवर्तित हो जाता है । संसार से प्रेम करने वाला अहम् काम है तो परमात्मा से प्रेम करने वाला अहम् राम हो जाता है । काम और राम, दोनों एक साथ नहीं रह सकते । अहम् का काम में रमण करना अविद्या माया है तो अहम् का राम में रमण करना विद्या माया है । अविद्या से विद्या माया में प्रवेश करना ही अहम् को बदलने की प्रक्रिया है । 

             अहम् में राम और काम दोनों एक साथ नहीं रह सकते । यह वैसे ही है जैसे रवि और रात्रि का एक साथ होना असंभव है । रवि का प्रकाश चाहिए तो निशा का नाश करना आवश्यक है । तुलसी कहते हैं -

    जहां राम तहँ काम नहिंजहां काम नहिं राम ।

    तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम ।।

   जहां काम है, लोभ है, वहाँ ब्रह्म के चिंतन की संभावना तक नहीं है । ब्रह्म को प्रकट करना है तो काम को छोड़ना होगा । सूर्य का प्रकाश और रात्रि का अंधकार दोनों एक साथ रह ही नहीं सकते ।

             संसार से किए जा रहे प्रेम की धारा को परमात्मा की तरफ़ राधा बनाकर मोड़ना होगा तभी सुख-दुःख से मुक्त होकर परम प्रेम और आनन्द का अनुभव कर सकेंगे । मानव शरीर में जन्म लेने का मूल उद्देश्य यही है ।

          इतने विवेचन से स्पष्ट है कि माया से मुक्त होना कठिन अवश्य है परन्तु असंभव कदापि नहीं है । केवल हमें अपने अहम् को सही दिशा देनी है । माया का अस्त्र काम ही अहम् के दिशा परिवर्तन में बाधक है । इसको मार डालना आवश्यक है । स्वयं अहम् ही यह कार्य कर सकता है । कर्म-योग से अहम् को शुद्ध किया जा सकता है । शुद्ध अहम् में काम रह ही नहीं सकता । अहम् को शुद्ध करने के लिए मन से अपने स्वार्थ को निकालना होगा । स्वार्थ भाव ही राग-द्वेष का जनक है । स्वार्थवश कर्म करने के स्थान पर परमार्थ के लिए कर्म करना ही कर्म-योग है । इस प्रकार जो कर्म किए जाते हैं, उन कर्मों में आसक्ति पैदा नहीं हो सकती । आसक्ति के अभाव में कामना पैदा नहीं होगी और इस प्रकार काम स्वतः ही नष्ट हो जाएगा ।

              अपने और अपनों के लिए कर्म करना स्वार्थ है और सबके हितार्थ निष्काम भाव से कर्म करना सेवा है । स्वार्थवश किए जाने वाले कर्म के मूल में कामना होती है जबकि परमार्थ के लिए किए जाने वाले कर्म से कामना का नाश होता है । कामना ही मनुष्य के बंधन का कारण है । जब कर्म सेवा बन जाते हैं तब ऐसे कर्म बाँधते नहीं है । कामना का जनक काम है और जब कामना पैदा नहीं होती तो काम भी निष्क्रिय हो जाता है । काम का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है क्योंकि यह जड़ है । मनुष्य के निष्काम होते ही काम के कारण बनी चेतन-जड़ की ग्रंथि टूट जाती है जिससे चेतन तत्व स्वतंत्र होकर शुद्ध अहम् के रूप में प्रकट हो जाता है ।

          काम को नष्ट करने का दूसरा रास्ता है, ज्ञान-योग का । ज्ञान हमें कर्ता-भाव से मुक्त करता है । ज्ञान से यह समझ पैदा होती है कि शरीर के द्वारा होने वाली क्रियाएँ केवल प्रकृति के गुणों के कारण ही होती है । शरीर और संसार जड़ (अपरा) प्रकृति है, अतः जितने भी कर्म अथवा क्रियाएँ शरीर के द्वारा होती है उनमें परा प्रकृति (जीव) की कोई भूमिका नहीं होती । अज्ञानवश परा स्वयं को क्रियाओं का कर्ता मानकर अहंकार पाल लेती है । यह अहंकार ही अशुद्ध अहम् है । ज्ञान होते ही अहंकार (काम) नष्ट हो जाता है और शेष केवल शुद्ध अहम् बचता है । कर्ताभाव मनुष्य को सदैव अशान्त बनाए रखता है । ज्ञान होते ही मनुष्य शान्ति को प्राप्त हो जाता है । ज्ञानम् लब्धा परां शांतिम् (गीता-4/39)

           ज्ञान मार्ग में त्याग होता है । त्याग - असत् का । असत् और सत् को अलग-अलग और सही रूप से जान लेना ही ज्ञान है । अनात्म-आत्म को जान लेना ही ज्ञान है । सांसारिक ज्ञान हमें भोग और संग्रह की ओर ले जाता है जबकि आध्यात्मिक ज्ञान असत् संसार से विमुख करता है । असत् की सत्ता नहीं है और असत् की जो सत्ता प्रतीत होती है, उसके नैपथ्य में सत् ही होता है । सत्ता केवल एक सत् की ही रहती है । ज्ञान हो जाने पर यह बात समझ में आ जाती है, फिर मनुष्य से स्वतः ही असत् (संसार) का त्याग हो जाता है । संसार के त्याग से अर्थ संसार छोड़कर कहीं दूर चले जाना नहीं है बल्कि संसार में रहते हुए भी इसकी गतिविधियों में लिप्त नहीं होना है अर्थात् संसार से निर्लिप्त बने रहना है । जैसे नाव पानी में रहती है परंतु नाव में पानी नहीं रहता, वैसे ही संसार में रहो परंतु अपने भीतर के संसार का त्याग कर दो ।

         माया से पार जाने के लिए काम को मारना आवश्यक है । काम को नष्ट करने के दो रास्तों (कर्म और ज्ञान) का हमने अल्प रूप से विवेचन किया है । इन दोनों रास्तों में प्रयास करने की आवश्यकता है । तीसरा रास्ता ऐसा है जिसमें बिना किसी प्रयास के माया से पार हुआ जा सकता है । यह रास्ता है - भक्ति का । भक्ति में न तो अहम् को शुद्ध करना होता है और न ही उसको मारना होता है । इस रास्ते में तो केवल अहम् को बदलना होता है । अहम् के बदलते ही वह संसार से प्रेम करना छोड़ परमात्मा से प्रेम करने लगता है ।

        भक्ति में न तो कुछ करना होता है और न ही कुछ जानना । इसमें तो केवल स्वयं की मान्यता को बदलना होता है । शरीर में रहते हुए जो हम अपने को संसार का मानने लगे हैं, उसके स्थान परमैं परमात्मा का हूँऐसा मानना होगा । जहां अहम् होता है, वहीं प्रेम भी होता है और काम भी । जब मनुष्य के अहम् में काम उत्पन्न हो जाता है तब वह संसार से प्रेम करने लगता है । जब अहम् को परमात्मा का स्वरूप होना मानने लगेंगे तो काम निष्प्रभावी होकर निष्क्रिय हो जाता है । सक्रिय काम अहम् को संसार की ओर ले जाता है जिससे मनुष्य अपने में और अपनों में आसक्त होकर सुखी-दुःखी होता रहता है । यही काम जब निष्क्रिय हो जाता है तब अहम् की दिशा बदल जाती है जिससे वह संसार से अनासक्त होकर परमात्मा से प्रेम करने लगता है । प्रेम ही आनन्द का जनक है ।

              भक्ति को विलक्षण इसीलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें किसी प्रकार के साधन की आवश्यकता नहीं होती (करण निरपेक्ष) और न ही इसमें किसी प्रकार का परिश्रम है । इसमें केवल भगवद् आश्रय और विश्राम है जो प्रेम और आनंद को उपलब्ध कराने वाले हैं ।

          गीता में अर्जुन के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण हमें इस माया से पार होने का रास्ता दिखला रहे हैं - 

            दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।

            मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।। गीता - 7/14 ।।

          मेरी यह गुणमयी दैवी माया दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना कठिन है । जो केवल मेरी शरण होते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं ।

             भगवान स्पष्ट करते हैं कि यह माया मेरी है परन्तु हम इस गुणमयी माया को स्वयं की समझने लग गए है । माया को अपना समझने का कारण है, इसके गुणों में आसक्त हो जाना । माया त्रिगुणी है । सत्व, रज और तम, इन तीन गुणों से ही प्रकृति में क्रिया होती है, जिससे विभिन्न पदार्थ बनते हैं । इन पदार्थों में भी प्रकृति के ये तीनों गुण रहते हैं । इसी प्रकार पदार्थ होने के कारण शरीर में भी ये तीनों गुण हैं । 

            पदार्थ के गुण, पांच विषयों (शब्द, रूप, रस,स्पर्श और गंध) के जनक हैं । प्रत्येक पदार्थ में ये विषय कमोबेश रहते हैं । जब इन विषयों का संयोग पदार्थ के रूप में शरीर में स्थित इंद्रियों से होता है तब शरीर में उपस्थित गुणों के कारण मन को इनका अनुभव होता है । यह अनुभव ही अच्छा अथवा बुरा का ज्ञान कराते हुए मनुष्य को सुखी-दुःखी करता है । सुख-दुःख का अनुभव मन के माध्यम से शरीर को होता है । परंतु अहम् जब शरीर को ही स्वयं होना मान लेता है तब सुख-दुःख का अनुभव अपने में करने लगता है ।

         माया के प्रति आसक्त होने का कारण है, उसके तीन गुण । इन गुणों के प्रभाव में आकर ही चेतन और जड़ का गठबंधन हो जाता है । काम इस गठबंधन को टूटने नहीं देता । काम की सक्रियता को निष्क्रियता में परिवर्तित कर देने से इस जोड़ को कमजोर किया जा सकता है । इसके लिए इस जोड़ के बनने का कारण जानकर ही आगे बढ़ा जा सकता है ।

        विषय हो अथवा शरीर (पदार्थ) या मन, सब जड़ हैं, असत् हैं । इनकी सत्ता अहम् के कारण है । यही अहम् माया के कारण अपने आपको असत् ही मानने लगता है । यही चेतन और जड़ का गठबंधन है । यह ग्रंथि टूटनी कठिन है, तभी तो अहम् इस संसार से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहा है । हम जानते हैं कि शरीर के जन्म के साथ ही अहम् के इसमें प्रवेश करने पर ही यह सक्रिय होता है और शरीर की मृत्यु होने पर वह इस शरीर का त्याग कर देता है । इसका अर्थ है कि अहम् शरीर नहीं है बल्कि वह इस जड़ तत्व से अलग चेतन तत्व है । परंतु इस बात को हम शरीर के रहते समझ नहीं पाते । यही कारण है कि माया से पार होना हमें कठिन प्रतीत होता है । 

         माया का आवरण परमात्मा ही हटा सकते हैं, इसके लिए हमें उन्हीं की शरण में जाना होगा । जब हम परमात्मा की शरण हो जाते हैं तब जिस माया को हम अपनी समझ रहे थे, वह वास्तव में भगवान की है, ऐसा अनुभव हो जाता है । इस प्रकार माया की उलझन से हम बाहर निकल आते हैं । परंतु परमात्मा की शरण में जाना कठिन है क्योंकि माया के साथ चिपके रहना हमारा स्वभाव बन गया है । 

             जो मनुष्य भगवान की इस त्रिगुणी माया की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता मानते हैं, उनके लिए इस माया से पार पाना बहुत ही कठिन है । माया को अपना मानना बन्धन है और इस माया को परमात्मा की मानना ही मुक्ति है । इस माया से पार होना है तो वास्तविकता स्वीकार करते हुए इसकी सत्ता न मानकर केवल एक परमात्मा की ही सत्ता मानें । शरणागति का अर्थ भी यही है कि यहाँ कोई व्यक्ति अथवा वस्तु अपने नहीं हैं । जो अपनी नहीं है वह अपने लिए भी नहीं है । अपनी नहीं तो किसकी है ? “सब भगवान के हैंयह मानकर परमात्मा की शरण में चले जाना ही माया से पार हो जाना है । इसका अर्थ यह नहीं है कि माया कुछ भी नहीं है ।

               माया भगवान की अनिर्वचनीय शक्ति है, जिसका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता । माया के बिना परमात्मा भी सृष्टि की रचना नहीं कर सकते । माया लुभाती है तभी तो सृष्टि आगे बढ़ती है । माया को परमात्मा से अलग मानना ही हमारी भूल है । हमने यही तो किया है कि माया को अपना मानने लगे हैं । अपना मानते ही माया भ्रम हो जाती है क्योंकि जितना हम इसको पकड़ने का प्रयास करते हैं, उतनी ही यह हमको छलती है । कबीर ने इसीलिए माया को महाठगिनी कहा है । माया से उत्पन्न होकर और माया में रहते हुए भी हम माया को समझ नहीं पाए हैं । जिस दिन इसको समझ लेंगे फिर इससे ठगे नहीं जाएंगे बल्कि इसके माध्यम से उस प्रेम और आनन्द की अवस्था को उपलब्ध हो जाएंगे, जिसके लिए परमात्मा ने इस माया की रचना की है ।

सार-संक्षेप 

          हम जहां तक अपनी इंद्रियों के माध्यम से पहुँचते हैं, जो कुछ भी इनके माध्यम से अनुभव करते हैं, जो भी कर्म करते हैं, सुख-दुःख भोगते हैं - वह सब माया है । हम इस माया से ही उत्पन्न हुए हैं । केवल हम ही नहीं, यहाँ तक कि परमात्मा भी इस माया को अपने वश में कर अवतरित होते हैं अर्थात् शरीर रूप में प्रकट होते हैं । फिर भी वे इससे भिन्न हैं । हम भी परमात्मा के स्वरूप हैं इसलिए माया से अपने को अभिन्न मानते हुए भी उससे भिन्न ही हैं । माया को अपना मान लेने से ही हम अपने मूल स्वरूप को विस्मृत कर चुके हैं । माया को समझकर उससे पार हो जाना बड़ा कठिन है ।

               माया शब्दों से नहीं, अनुभव से समझ आती है । इसीलिए इसको अनिर्वचनीय कहा जाता है । माया की दो शक्तियां हैं-आवरण और विक्षेप शक्ति । माया का आवरण (स्वरूप पर), माया की  विक्षेप शक्ति (संसार) अर्थात अज्ञान और/से अविद्या । माया कारण है और संसार उसका कार्य । माया को अपना मान लेना ही इसको भ्रम बना देता है ।

           इस माया से पार होने का उपाय एक ही है - परमात्मा की शरण । मानस में भगवान श्रीराम अपनी शरण में आए काकभुशुण्डीजी को कह रहे हैं - 

माया संभव भ्रम सब, अब न ब्यापिहहिं तोय ।

जानेसु ब्रह्म अनादि अज, अगुन गुनाकर मोहि ।।

मोहि भगत प्रिय संतत, अस बिचारि सुनु काग ।

कायँ बचन मन मम पद, करेसु अचल अनुराग ।।

                        (उत्तरकांड - 85 )

           माया से उत्पन्न सब भ्रम अब तुझको नहीं व्यापेंगे । मुझे अनादि, अजन्मा, अगुण (गुणों से रहित) और गुणों की ख़ान (गुणातीत) ब्रह्म जानना । हे काक ! सुन, मुझे भक्त निरंतर प्रिय हैं, ऐसा विचार कर शरीर, वचन और मन से मेरे चरणों में अटल प्रेम करना ।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

।। हरिः शरणम् ।।