नेति-नेति
श्रीमद्भगवद्गीता के स्वाध्याय ने सत्, असत् और उससे परे के बारे में कुछ उलझन की स्थिति पैदा कर दी थी । गीता कहीं पर भी उलझाती नहीं है बल्कि हमारा अज्ञान (अधूरा ज्ञान) ही हमें उलझा देता है ।
गीता में भगवान कहते हैं कि सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं हूँ (अध्याय 9) । भगवान के विराट स्वरूप को देखकर अर्जुन भी कह देते हैं कि सत् भी आप है, असत् भी आप हैं और इन दोनों से परे जो कुछ भी हैं वे भी आप ही हैं (अध्याय-11) । फिर भगवान स्वयं कहते हैं कि मुझे न तो सत् कहा जा सकता है और न ही असत् । (अध्याय-13)। ऐसे में शंका उठना स्वाभाविक है कि आख़िर भगवान हैं क्या ?
एक परमात्मा ही सब कुछ है, वे वर्णनातीत हैं, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । ऋषियों ने उन्हें ज्ञेय बताते हुए साथ ही साथ “नेति-नेति” भी कहा है अर्थात् ‘न इति - न इति’, वे इतने ही नहीं है, इतने से नहीं है । कारण कि वे ससीम नहीं है, बल्कि असीम है । उनका वर्णन नहीं किया जा सकता ।
स्वामीजी कहते हैं कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ’ इस बात को स्वीकार करें । ऐसे में प्रश्न उठता है कि मैं शरीर नहीं हूँ तो फिर “मैं” कौन हूँ? इस प्रश्न का उत्तर कोई कोई मुमुक्षु ही जानने का प्रयास करता है । मनुष्य देह के रहते-रहते इस प्रश्न का उत्तर खोज लेने से तत्काल ही व्यक्ति विदेह हो जाता है । शरीर को ही “मैं” समझ लेना जीवन की सबसे बड़ी भूल है । शरीर को ही स्वयं का होना मान लेना, केवल इसीलिए सम्भव होता है क्योंकि पूर्वजन्म के संस्कार के कारण प्रत्येक व्यक्ति इस शरीर से सुख चाहता है । इन संस्कारों के अनुरूप ही मनुष्य जीवन का प्रारम्भ होता है । संस्कार के अनुरूप ही मनुष्य का स्वभाव बनता है । अपने मानव जीवन में वह नए संस्कार निर्मित करता है, जिससे उसका स्वभाव परिवर्तित होता है और देह समाप्ति पर इन संस्कारों को अपने साथ लेकर दूसरी देह में चला जाता है । उसे फिर से मानव शरीर के मिलने की प्रतीक्षा में बहुत काल तक विभिन्न देहों में भ्रमण करना पड़ सकता है ।
इन सब बातों को जानने वाला कौन है ? जो यह सब सही सही जानता है वही “मैं” है । इतना कुछ जानते हुए भी जो केवल शरीर को ही सब कुछ मानता है, वास्तव में वह कुछ नहीं जानता । ऐसा न जानने वाला वह भी “मैं” ही हूँ । फ़र्क़ केवल ‘हूँ’ और ‘है’ का है । ‘हूँ’ से ‘है’ की यात्रा पूरी कर लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है ।
‘हूँ’ और ‘है’, इन दो शब्दों को देखें तो इनके मध्य की यात्रा बड़ी सुगम प्रतीत होती है परन्तु इतनी सुगम भी नहीं है, जितनी दिखलाई देती है । कई मानव-जन्म लेने पड़ते है, इस यात्रा को पूरी करने के लिए क्योंकि शरीर को अपने से भिन्न मानना जीवन में सबसे कठिन कार्य है ।
यह यात्रा अति सुगम भी हो सकती है । इसके लिए हमें अपने जीवन में संस्कारों से मुक्ति पानी है । पूर्वजन्म से आए संस्कारों को तो समाप्त करना है और नए संस्कार बनाने नहीं है । यह यात्रा केवल उनके लिए ही सुगम है, जो जीतेजी संस्कारों से मुक्ति पा चुके हैं । संस्कारों से मुक्त होने का अर्थ है, संसार से मुक्त हो जाना । फिर शरीर का होना अथवा न होना, रहना अथवा न रहना कोई मायने नहीं रखता । यह अवस्था जीवन्मुक्त हो जाने की अवस्था है, विदेह हो जाने की अवस्था है ।
यदि शरीर अलग है और ‘मैं’ उससे भिन्न है, तो फिर यह ‘मैं’ इस शरीर में क्या कर रहा है ? वास्तव में ‘मैं’ कुछ भी नहीं करता है, जो कुछ भी करता है, वह शरीर ही करता है । परन्तु शरीर भी कुछ नहीं कर पाता यदि उसमें ‘मैं’ नहीं हो । कहने का अर्थ है कि ‘मैं’ भले ही अक्रिय हो, परंतु उसकी उपस्थिति में ही शरीर सक्रिय हो सकता है अन्यथा वह निष्क्रिय हो जाता है । आधुनिक विज्ञान की भाषा में इसे उत्प्रेरक (Activator) कहा जाता है । ‘मैं’ की अक्रियता के माध्यम से ही शरीर में जीवन व्यक्त होता है ।
निष्क्रिय शरीर में केवल इंद्रियों से क्रियाएँ नहीं होती, परन्तु एक पदार्थ होने के कारण उसके भीतर क्रियाएँ सतत चलती रहती है, तभी तो कुछ समय बाद शरीर भी विखंडित हो जाता है । शरीर का पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो जाना ही व्यक्ति की मृत्यु कहलाती है । शरीर का समाप्त हो जाने का अर्थ यह नहीं है कि जीवन समाप्त हो गया । जीवन तो फिर भी चलता रहता है, केवल शरीर बदलते जाते हैं । केवल शरीर की सक्रियता ही जीवन नहीं है बल्कि उसके साथ आ जुड़े ‘मैं’ की अक्रियता ही वास्तविक जीवन है ।
मेरे एक मित्र कहते हैं कि यह सक्रिय-अक्रिय, मृत्यु के बाद भी जीवन होना इत्यादि का क्या गड़बड़झाला है ? यह गड़बड़झाला केवल उनके लिए है, जो जीवन को एक ही शरीर तक सीमित माने बैठे हैं । जीवन एक शरीर के जन्म-मरण तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह जीवन अनेक जन्मों की शृंखला है । केवल शरीर का ही जन्म-मरण होता है, ‘मैं’ का नहीं । जो केवल एक ही शरीर को ही जीवन मानते हैं, उनकी दृष्टि में ‘मैं’ मरता है परंतु उनका ऐसा देखना सही नहीं है ।
कबीर ने कहा भी है -
‘मन’ मरा न ‘ममता’ मरी, मर मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर ।।
मन, ममता, आशा और तृष्णा नहीं मरते बल्कि केवल शरीर ही मरता है । जब तक केवल शरीर का मरना ही चलता रहेगा तब तक हम संसार में नए-नए शरीर लेकर आते रहेंगे, उसी एक मन के साथ ।
कबीर ने कहा है कि हमारा मन, ममता, आशा और तृष्णा नहीं मरते हैं बल्कि केवल शरीर मरता है । यही कारण है कि हम शरीर पर शरीर लेते जा रहे हैं क्योंकि हम मन को नहीं मार पा रहे हैं । जब हम शरीर को ही अपना होना मान लेते हैं तब हम उसी को “मैं” कहने लगते हैं, वास्तव में वह छद्म “मैं” है । यह “मैं” हमारा शरीर होने का अहंकार है । जब शरीर और संसार से विमुख हो जाते है और परमात्मा की ओर उन्मुख हो जाते है तब जिसे हम “मैं” कहते हैं वह वास्तविक “मैं” है । ये दोनों “मैं” वास्तव में एक ही है, केवल दृष्टि का अंतर है । संसार की ओर दृष्टि रहेगी तो वह “मैं” हमारा अहंकार होगा और परमात्मा की ओर दृष्टि रखेंगे तो वही “मैं” हमारा स्वरूप होगा ।
इसका अर्थ है कि ‘मैं’ ‘हूँ’ भी है और ‘है’ भी है। इस पहेली को सरल करने के लिए आगे इस लेख में ‘मैं’ के स्थान पर संस्कृत शब्द ‘अहम्’ का उपयोग करेंगे । ’अहम्’ से ‘हूँ’ और ‘है’, दोनों स्पष्ट हो जाएँगे । शरीर को अपना मानना छद्म अहम् है । वास्तविक अहम् का शरीर के साथ प्रत्यक्षतः कोई सम्बन्ध नहीं है । शरीर को हम अपना तभी मानते हैं, जब उससे हमारा स्वार्थ सिद्ध हो रहा हो । शरीर से हमारा केवल एक ही स्वार्थ रहता है - सुख प्राप्त करना । अकेला शरीर हमें सुख नहीं दे सकता । उससे सुख प्राप्त करने के लिए हमें दूसरे शरीरों की भी आवश्यकता होती है । वह शरीर किसी जीव का भी हो सकता है और निर्जीव का भी । निर्जीव को हम पदार्थ कह देते हैं और सजीव को प्राणी । गंभीरता से अवलोकन करें तो पाएँगे कि प्रत्येक जीव का शरीर भी एक पदार्थ ही है ।
जीव के शरीर और निर्जीव के शरीर में केवल अहम् का ही तो अंतर है । अहम् अगर पदार्थ में प्रवेश पा ले तो वह पदार्थ सजीव हो उठता है अन्यथा वह निर्जीव ही बना रहता है । इसीलिए सजीव पदार्थ (शरीर) का “मैं” होता है जबकि निर्जीव का “मैं” होता ही नहीं है । पत्थर कभी भी नहीं कहता कि मैं पत्थर हूँ जबकि शरीर कहता है कि यह मैं हूँ । ऐसा केवल अहम् की अनुपस्थिति अथवा उपस्थिति के कारण ही होना संभव है ।
पदार्थ के निर्जीव होने का अर्थ यह नहीं है कि उसमें सक्रियता नहीं है । अहम् की उपस्थिति के कारण सक्रियता सजीव के भीतर और बाहर, दोनों ओर दिखलाई पड़ती है जबकि निर्जीव के भीतर अहम् नहीं होने के कारण उसकी सक्रियता बाहर स्पष्ट रूप से दिखलाई नहीं पड़ती । पदार्थ की सक्रियता उसके भीतर सतत चलते रहने वाली क्रियाओं से संभव होती है । ये क्रियाएं पदार्थ के प्राकृतिक गुणों के कारण होती है ।
प्रकृति के तीन गुण हैं (सत्व, रज और तम), जोकि प्रत्येक पदार्थ में भी रहते हैं । इन गुणों के कारण पदार्थ में होने वाली क्रियाओं से उसकी आंतरिक सक्रियता सदैव बनी रहती है । निर्जीव के भीतर हो रही क्रियाएँ इतनी धीमी गति से होती हैं कि बाहर से उनमें अक्रियता दिखाई देती है परंतु वास्तव में वे अक्रिय नहीं हैं । शरीर चाहे सजीव हो अथवा निर्जीव, उनमें क्रियाओं का लगातार चलना जारी रहता है । इन क्रियाओं के कारण दोनों ही प्रकार के शरीरों (सजीव और निर्जीव) में समय के साथ-साथ परिवर्तन होते रहते हैं ।
निर्जीव में होने वाले परिवर्तन को सजीव देख सकता है क्योंकि सजीव में ऐसा अनुभव करने की क्षमता उसके पास अहम् के कारण है । परिवर्तन को अनुभव वही कर सकता है, जो अपरिवर्तनशील हो । इसका अर्थ है कि सजीव में आने वाले परिवर्तन को जो अनुभव करता है, वह स्वयं भी अपरिवर्तनशील है । और जो कभी भी बदलता नहीं है, सदैव अपरिवर्तित रहता है, वह है - अहम् । यह अहम् जब शरीर को ही स्वयं का होना मान लेता है, तब वह छद्म (अशुद्ध) अहम् हो जाता है । जो व्यक्ति शरीर में आ रहे परिवर्तन को स्वयं में परिवर्तन होना मानता है, जो शरीर के मरने को अपनी मृत्यु मानता है, वह अपने छद्म अहम् के कारण ऐसा मानता है ।
छद्म अहम् को असत् कहा जाता है जबकि मूल अहम् सत् है । वैसे अहम् एक ही है, और वह असत न होकर सत् है । वास्तव में अहम् तब तक असत् है, अशुद्ध है जब तक उसने शरीर को अपना आवरण बना रखा है । अहम् के शुद्ध होने का अर्थ है, उसका जीवात्मा में विलीन हो जाना । ऐसा अहम् सत् है । सत् अहम् जब प्रकृति के पदार्थों के साथ संलग्न होकर उनके प्रति आत्मीयता प्रदर्शित करने लगता है तब वह असत् अहम् की श्रेणी में आ जाता है । हम दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं परन्तु उस प्रतिबिम्ब को ही “मैं” मान लेने का अर्थ है असत् को ही अहम् मान लेना । वास्तविक “मैं” तो दर्पण के बाहर है, उसके भीतर नहीं । दर्पण के भीतर जो “मैं” दिखलाई पड़ता है, वह “मैं” शुद्ध नहीं होकर अशुद्ध “मैं” है क्योंकि वह “मैं” न होकर उस “मैं” का प्रतिबिम्ब है ।
जब तक हम मूल अहम् को नहीं जानेंगे तब तक परमात्मा तक नहीं पहुँच पाएंगे । अशुद्ध अहम् को शुद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि मूल रूप से अहम् शुद्ध ही है, उसके अशुद्ध होने का कारण तो शरीर के साथ एकता कर लेना है । शरीर और संसार में आसक्त अहम् को वहाँ से निवृत करना है, उनसे विमुख करना है । ऐसा होते ही मूल अहम् स्पष्ट हो जाएगा ।
प्रश्न उठता है कि अशुद्ध अहम् को शुद्ध अहम् के रूप में कैसे जाना जा सकता है ? स्वामीजी ने इसके लिए तीन उपाय बताए है -
प्रथम - अहम् को बदल देना ।
द्वितीय - अहम् को मिटा देना ।
तृतीय - अहम् को शुद्ध करना ।
अहम् को कैसे बदला जा सकता है ? इसके लिए यह मानें कि मैं शरीर नहीं हूँ । अगर मैं शरीर नहीं हूँ तो फिर क्या हूँ ? मैं शरीर से भिन्न चेतन हूँ, जोकि शरीर को देख सकता हूँ, उसमें आ रहे परिवर्तन को अनुभव कर सकता हूँ । इसे अहम् को बदलना भी कहते हैं । यह भक्ति-योग है । जब व्यक्ति की अहंता बदल जाती है, तब उसका मूल अहम् स्पष्ट होकर जानने में आ जाता है । बस, करना कुछ भी नहीं है, केवल “मैं भगवान का हूँ” यह मानना है ।
दूसरा उपाय जो मूल अहम् को जानने का है, वह है - छद्म (अशुद्ध) अहम् को मिटा डालना । अशुद्ध अहम् को मिटा डालना बड़ा मुश्किल है । जब तक यह शरीर और संसार है, तब तक कुछ न कुछ आसक्ति उनके प्रति बनी ही रहती है । स्वामीजी कहते हैं कि जब यह मान ही लिया कि मैं शरीर नहीं हूँ तो अब यह माने कि शरीर मेरा नहीं है । शरीर मेरा नहीं है इसका अर्थ हुआ कि फिर जिसको मैं मेरा मान रहा हूँ वह मुझसे भिन्न है । फिर यह शरीर क्या है ? शरीर तो आत्मा का पहनावा मात्र है जैसे व्यक्ति अलग है और उसकी पोशाक अलग है । अशुद्ध अहम् ने शरीर को अपना मान लिया है । ज्ञान हो जाने पर इस “ मैं” (अशुद्ध अहम्) की व्यक्ति के जीवन में कोई भूमिका ही नहीं रहेगी । फिर व्यक्ति यही कहेगा कि जिसे मैं “मेरा” कह रहा था, उसे “मेरा” कहना मेरी भूल थी ।
भूल को जब स्वीकार कर लिया जाता है और वही भूल दोहराई नहीं जाती है तब वास्तविकता स्वतः ही प्रकट हो जाती है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि भूल वास्तविकता में विलीन हो जाती है । यह ज्ञान-योग है । इसमें वास्तविकता का ज्ञान होते ही छद्म अहम् आस-पास कहीं भी नज़र नहीं आता । इसी को अशुद्ध अहम् को मिटा डालना कहते हैं ।
अशुद्ध अहम् पहले शुद्ध अहम् में परिवर्तित होता है और फिर यह शुद्ध अहम् परा प्रकृति में विलीन हो जाता है । अहम् के विलीन होते ही परमात्मा का द्वार खुल जाता है । ज्ञान मार्ग से ऐसा होना सम्भव है । केवल अशुद्ध अहम् को ही मिटाया जा सकता है, मूल अहम् को नहीं मिटाया जा सकता ।
अशुद्ध अहम् को मिटा डालने के लिए भीतर के "मैं" का मिटना ज़रूरी है । एक दृष्टांत के माध्यम से बात को आगे बढ़ाते हैं । एक बार सुकरात समुद्र तट पर टहल रहे थे, उनकी नजर तट पर खड़े एक रोते बच्चे पर पड़ी । वे उसके पास गए और प्यार से बच्चे के सिर पर हाथ फेरकर पूछा तुम क्यों रो रहे हो ?
लड़के ने कहा- 'आप ये जो मेरे हाथ में प्याला देख रहे हैं न, मैं उसमें इस समुद्र को भरना चाहता हूँ, पर यह समुद्र मेरे प्याले में समाता ही नहीं है । सुकरात ठहरे दार्शनिक, बच्चे की बात सुनकर वे गहरे विषाद में चले गये और बच्चे के साथ स्वयं भी रोने लगे । सुकरात को रोते देखकर बच्चा चुप हो गया । अब पूछने की बारी बच्चे की थी ।
बच्चा कहने लगा- ' आप भी मेरी तरह रोने लगे । क्या आपके प्याले में भी समुद्र नहीं समा रहा है ? पर आपका प्याला कहाँ है ?' सुकरात ने जवाब दिया - ' बच्चे ! तुम छोटे से प्याले में समुद्र भरना चाहते हो, और मैं अपनी छोटी सी बुद्धि में परमात्मा के बारे में सारी जानकारी भरना चाहता हूँ । आज तुमने मुझे सिखा दिया कि समुद्र प्याले में नहीं समा सकता है, इतने दिन मैं व्यर्थ ही बेचैन रहा ।'
यह सुनकर बच्चे ने प्याले को दूर समुद्र में फेंक दिया और बोला- "हे सागर, अगर तू मेरे प्याले में नहीं समा सकता तो क्या हुआ, मेरा प्याला तो तुममें समा सकता है ।” समुद्र में प्याले के डूबते ही बच्चा उछल पड़ा - “ लो मेरा प्याला समुद्र में समा गया । अब समुद्र में प्याला है और प्याले में समुद्र ।”
बच्चे ने समुद्र से कहा कि अगर तुम मेरे प्याले में नहीं समा सकते तो कोई बात नहीं, मेरा प्याला तो तुझमें समा सकता है । इतना सुनना था कि सुकरात बच्चे के पैरों में गिर पड़े और बोले,"आज बहुत कीमती सूत्र मेरे हाथ लगा है । हे परमात्मा ! आप तो सारा का सारा मुझ में नहीं समा सकते पर मैं तो सारा का सारा आपमें समा सकता हूँ ।
ईश्वर की खोज में भटकते सुकरात को ज्ञान देना था तो भगवान् उस बालक में समा गए । सुकरात का सारा अहंकार ध्वस्त हो गया । उनका “मैं” एक झटके में विलीन हो गया । जिस सुकरात से मिलने के लिए सम्राट तक समय लेते थे, वह सुकरात एक बच्चे के चरणों में दण्डवत होकर लोट गए ।
सारांश यह है कि ईश्वर जब आपको अपनी शरण में लेते हैं तब आपके अंदर का "मैं" सबसे पहले मिटता है या यूँ कहें जब आपके अंदर का "मैं" मिटता है तभी ईश्वर की कृपा होती है । मनुष्य का “मैं” ही अशुद्ध अहम् है, जिसकी दृष्टि संसार पर जमी है । उसे अपनी क्षमता पर छद्म विश्वास है जो उसके अहंकार का पोषक बनता है । अहंकार के टूटते ही अहम् गल जाता है और आत्म-बोध की दिशा स्पष्ट हो जाती है ।
सुकरात में परमात्मा को जानने का अहंकार था । परमात्मा ज्ञेय अवश्य है परन्तु बुद्धि की इतनी क्षमता नहीं है कि उसके माध्यम से हम उन्हें जान सके । उनको तो केवल अनुभव ही किया जा सकता है जिसके लिए सबसे पहले अहम् का मिटना आवश्यक है ।
स्वामीजी ने जो तीसरा उपाय मूल अहम् तक पहुँचने का बताया है, वह है - अहम् को शुद्ध करना । जिस प्रकार हमने पहले स्वीकार किया कि मैं शरीर नहीं हूँ और फिर स्वीकार किया कि शरीर मेरा नहीं है, उसी प्रकार स्वीकार करना है कि शरीर मेरे लिए नहीं है । शरीर मेरे लिए नहीं है तो फिर यह किसके लिए है ? शरीर संसार का है और उसी की सेवा के लिए है । हमें शरीर मिला है पूर्व जन्म के प्रारब्ध कर्मों के कारण । वे प्रारब्ध कर्म फल देकर ही नष्ट हो सकते हैं । जो कुछ लिया है, इसी संसार से लिया है । अतः संसार से लिया सब कुछ संसार को ही लौटा देना है ।
स्वामीजी ने अहम् को शुद्ध करने के लिए भी तीन बातें कही है - पहली - शरीर सहित कुछ भी मेरा नहीं है । दूसरी - मुझे कुछ नहीं चाहिए । तीसरी - मुझे अपने लिए कुछ नहीं करना है । शरीर सहित कुछ भी मेरा नहीं है, यह ज्ञान योग की बात है । इस बात को स्वीकार करने से मनुष्य की दृष्टि में शरीर गौण हो जाता है । शरीर के गौण होते ही दूसरी बात फलित होती है कि मुझे कुछ नहीं चाहिए । मनुष्य अपने लिए जो कुछ भी चाहता है, उसके पीछे शरीर के प्रति आसक्ति ही मुख्य कारण है । जब शरीर ही मेरा नहीं है तो फिर मुझे अपने लिए क्या चाहिए ? कुछ नहीं ।
‘शरीर सहित कुछ भी मेरा नहीं है’ से 'मुझे कुछ भी नहीं चाहिए’, फलित होता है । मुझे कुछ भी नहीं चाहिए तो फिर मुझे अपने लिए कुछ करने की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है ? इस प्रकार अंततः ‘मुझे अपने लिए कुछ भी नहीं करना है’, यह भी फलित हो जाता है ।
मनुष्य अपने जीवन में कर्म किए बिना नहीं रह सकता, यह सत्य है । जब मनुष्य को अपने लिए कुछ भी नहीं करना है तो फिर वह कर्म किसके लिए करेगा ? वह कर्म संसार की सेवा के लिए करेगा । अतः हमें वर्तमान जन्म के जीवन में यही ध्यान रखना है कि अपने स्वार्थ के लिए कोई कर्म न करें, स्वयं के सुख के लिए कोई कर्म न करें । दूसरों को सुख कैसे मिले, उसके सुख का माध्यम हमें बनना है । ध्यान यही रखना है कि ऐसे कर्मों के करने में हमारी कोई कामना न हो । कामना रखेंगे तो फिर से कर्म-बंधन होगा और संसार के अंतहीन आवागमन से मुक्त नहीं हो पाएँगे । कहने का अर्थ है कि निष्काम कर्म करते हुए सबकी सेवा करें । सेवा से ही अशुद्ध अहम् विलीन होकर शुद्ध अहम् प्रकट होगा ।
संसार में आकर मनुष्य जो भी कर्म करता है, वे सब शरीर को सुख देने के लिए ही करता है । शरीर मेरा नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए और मुझे अपने लिए कुछ भी नहीं करना है, ये तीनों बातें मान लेने से स्वयं के लिए कर्म होंगे ही नहीं । मनुष्य कर्म-बंधन में तभी पड़ता है, जब कर्म स्वयं के लिए किए जाते हैं, अन्य कर्म तो बाँधने वाले होते भी नहीं हैं ।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि अशुद्ध अहम् की असत् के प्रति आसक्ति रहती है और शुद्ध अहम् संसार से विमुख होकर सत् की ओर प्रगति कराता है । इस मूल अहम् के प्रकट होते ही व्यक्ति को आत्मा का ज्ञान हो जाता है । शरीर के छूटने पर यह अहम् मूल परा प्रकृति में विलीन हो जाता है जोकि सत् है । सत् से भी परे क्या है ? असत्, सत् और इनसे परे, इन तीनों को जानने पर ही परमात्मा का अनुभव होगा । ध्यान रखें, उनका केवल अनुभव ही होगा, उन्हें जाना नहीं जा सकेगा ।
स्वामीजी ने जो तीन बातें मानने के लिए कही है (मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिए नहीं है) इनको कहने/मानने वाला कौन है ? हमारा आत्मा तो परमात्मा का अंश है, वह तो कुछ करता नहीं है और न ही किसी कार्य में लिप्त होता है । इन तीनों बातों को जो स्वीकार करता है वह हमारा अहम् है । अहम् में भी केवल शुद्ध अहम् यह बात मान सकता है अन्यथा अशुद्ध अहम् के तो संसार और शरीर से विमुख होने का प्रश्न ही नहीं उठता । यही कारण है कि जीवन में सबसे पहले अशुद्ध अहम् का शुद्ध होना आगे की प्रगति के लिए आवश्यक है ।
अहम् को शुद्ध करना, मिटा डालना अथवा बदल देना व्यक्ति के स्वभाव और बौद्धिक स्तर पर निर्भर करता है । अहम् को शुद्ध करना कर्म का विषय है जबकि अहम् को मिटाना ज्ञान का । अहम् को शरीर के रहते मिटाना असंभव सा है । इन दोनों की तुलना में अहम् को बदलना कहीं अधिक सुगम है । हमें केवल अपनी दृष्टि में परिवर्तन लाना है । हम जो स्वयं को संसार और शरीर का मान रहें है, उसके स्थान पर परमात्मा का होना मानना है । इस प्रकार अहंता परिवर्तित होते ही संसार से आसक्ति छूट जाती है ।
कन्या को विवाह से पूर्व अपने पिता का घर ही अपना घर लगता है । जब उसका विवाह हो जाता है, तत्काल ही अपने पति के घर को अपना घर समझने लगती है । फिर पिता के घर की प्रत्येक वस्तु उसके लिए पराई हो जाती है । जब एक कन्या पाणिग्रहण करते ही सुगमता से यह बात स्वीकार कर सकती है तो आत्म-बोध चाहने वाले के लिए भी ऐसा करना असम्भव नहीं है ।
अहम् प्रारम्भ से ही शुद्ध होता है । अहम् में अशुद्धता आती है आसक्ति के कारण । आसक्त अहम् सत् की सत्ता के स्थान पर असत् की सत्ता मानता है क्योंकि उसकी दृष्टि में जो दिखने में आता है वही सत्य है । अहम् ही शरीर के आकार के साथ तादात्म्य स्थापित करता है, जिसके कारण उसको अहंकार नाम मिला है । जब शरीर से तादात्म्य मिट जाता है तब अहंकार दो में विभाजित हो जाता है - अहम् और आकार । इस प्रकार के विभाजन में शरीर (आकार) अलग और अहम् अलग हो जाते हैं । इस अवस्था तक पहुँचने के लिए भगवान ने तीन मार्ग (कर्म, ज्ञान और भक्ति) बतलाए हैं ।
तीनों मार्ग अलग-अलग भले ही प्रतीत हो रहे हो, अंततः तीनों ही अहम् को परा प्रकृति में विलीन करते हैं । जब तक शरीर रहता है, तब तक अहम् परा के साथ एकाकार नहीं होता बल्कि एकाकार होने के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से तैयार अवश्य ही कर लेता है । शुद्ध अहम् सत् है उसके आत्मा (सत्) में लीन होते ही असत् (संसार) की सत्ता मिट जाती है और केवल सत् की सत्ता रह जाती है । परंतु सत् से ऊपर भी एक मूल सत्ता है, जिसमें आत्मा के लीन होने पर वापिस संसार में लौटना नहीं होता ।
गीता के पन्द्रहवें अध्याय में अपरा को क्षर पुरुष, परा को अक्षर पुरुष और इन दोनों से जो परे हैं उसको उत्तम पुरुष नाम से संबोधित किया है । उत्तम पुरुष ही वह परम सत्ता है, जिसका केवल अनुभव ही किया जा सकता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
आइए ! अब दूसरे कोण से इस विषय पर आगे बढ़ते हैं । परमात्मा का व्यक्त हो जाना प्रकृति कहलाता है और उसका अव्यक्त बने रहना पुरुष । अव्यक्त (पुरुष) के बिना व्यक्त (प्रकृति) की सत्ता हो ही नहीं सकती । अव्यक्त ही व्यक्त होता है और यह व्यक्त भी एक दिन पुनः अव्यक्त में लीन हो जाता है । प्रकृति को भी एक दिन परमात्मा में लीन होना पड़ता है । प्रकृति और पुरुष, दोनों से भी जो परे हैं, उसे परम पुरुष अथवा उत्तम पुरुष कहा जाता है । प्रकृति जब पूर्ण क्रियाशील हो जाती है, तब माया कहलाती है । प्रकृति भी दो प्रकार की है - परा और अपरा । परा प्रकृति को विद्या माया कहा जाता है और अपरा को अविद्या माया । अपरा प्रकृति संसार और शरीर के रूप में व्यक्त होती है । परा प्रकृति जीवात्मा है । प्रकृति परमात्मा की अध्यक्षता में सक्रिय होकर जगत् का सृजन करती है, जिसमें सभी चर-अचर जीव आ जाते हैं ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि परमात्मा अर्थात् परम/उत्तम पुरुष से पुरुष और प्रकृति और फिर प्रकृति से संसार का सृजन होता है । प्रकृति को सक्रिय के सापेक्ष अक्रिय कहा अवश्य जाता हैं परंतु अक्रिय प्रतीत हो रही प्रकृति में भी सूक्ष्म क्रियाएं सदैव चलती रहती है । प्रकृति अक्रिय तब प्रतीत होती है, जब उसमें सृष्टि लीन हो जाती है । जैसे हम नींद लेते हैं, तब अक्रिय प्रतीत होते हैं परंतु इस अवस्था में भी शरीर के क्षरण होने की सूक्ष्म क्रिया उसके भीतर ही भीतर चलती रहती है ।
पूर्व में जिसको अहम् कहकर संबोधित किया गया है, वह पुरुष ही है । यह शुद्ध अहम् है । जब शुद्ध अहम् अपरा प्रकृति (माया) का संग कर लेता है, तब वह अशुद्ध अहम् प्रतीत होता है । शरीर से असंग (detach) होते ही वह पुनः शुद्ध प्रतीत होने लगता है । वास्तव में अहम् अशुद्ध हो ही नहीं सकता क्योंकि अहम् सत् है । सत् अहम् ही असत् प्रतीत होता है । अहम् के असत् से सत् होते ही यह परा प्रकृति अर्थात् आत्मा में विलीन हो जाता है । आत्मा में विलीन होने से अर्थ है अहम् को अपने स्वयं के आत्मा होने का ज्ञान हो जाना ।
मनुष्य के शरीर में रहते हुए ही पुरुष इस सत्य तक पहुँच सकता है, किसी अन्य शरीर में रहते हुए नहीं । शरीर भी दो प्रकार के होते हैं - स्थूल और सूक्ष्म शरीर । एक तीसरा शरीर जिसे कारण शरीर कहा जाता है, वह हमारे संस्कार है । संस्कारों से निर्मित हुआ कारण शरीर ही हमें भावी जन्म के लिए नए शरीर की ओर ले जाता है । निद्रा की अवस्था में जब स्थूल शरीर लगभग निष्क्रिय हो जाता है तब सूक्ष्म शरीर (मन आदि) अशुद्ध अहम् के साथ अविद्या में लीन हो जाता है । अविद्या से लौटने पर स्थूल शरीर पुनः सक्रिय हो उठता है । इस अवधि में मनुष्य को संसार के बारे में कुछ भी अनुभव नहीं होता । उसे केवल अच्छी और गहरी नींद का ही अनुभव होता है । ऐसा अनुभव मूल अहम् को ही होता है ।
जब मनुष्य को ज्ञान होना प्रारम्भ होता है तब वह अविद्या माया से विद्या माया में प्रवेश करता है । ‘ज्ञान प्रारम्भ होना’ समझाने की दृष्टि से कहा गया है अन्यथा ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि ज्ञान हमारे भीतर पहले से ही रहता है केवल माया से अच्छादित होने के कारण वह प्रकट नहीं होता ।
विद्या माया पूर्ण ज्ञान की अवस्था तो नहीं है फिर भी आत्म-बोध (परमात्मा) तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त अवश्य करती है । विद्या माया हमें आत्म-अनात्म का ज्ञान अवश्य करवा देती है । हम जब तक ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था तक नहीं पहुँचेंगे तब तक अहम् का अस्तित्व बना रहेगा । अशुद्ध अहम् तो अविद्या से विद्या में प्रवेश करते ही मूल यानि शुद्ध अहम् में लीन हो जाता है । शुद्ध अहम् ही अपने मूल स्वरूप (परमात्मा) तक पहुँच सकता है ।
इस बात को समुद्र और उसकी लहर के उदाहरण से समझा जा सकता है । जैसे समुद्र की लहर अशुद्ध अहम् है और समुद्र शुद्ध अहम् । जब तक लहर समुद्र में लीन नहीं होगी तब तक वह समुद्र का अंश होते हुए भी समुद्र नहीं है । लहर के गिरते ही वह समुद्र हो जाती है । इसी प्रकार बूँद भी समुद्र का अंश है परन्तु वह समुद्र नहीं है । समुद्र की एक बूँद अथवा उसकी एक लहर को समुद्र नहीं कहा जा सकता बल्कि उसे समुद्र की लहर ही कहा जाता है । लहर को समुद्र होने के लिए उसे समुद्र में ही लीन होना पड़ता है । लहर में भी जल है और समुद्र में भी जल है । गहराई से देखें तो लहर और समुद्र, दोनों का मूल तत्व जल ही हुआ । इसी प्रकार पुरुष/अहम्/आत्मा को तब तक परमात्मा नहीं कहा जा सकता जब तक कि अहम् मूल प्रकृति में लीन नहीं हो जाता । अहम् के लीन होते ही आत्मा भी परमात्मा हो जाता है, जैसे लहर के गिरते ही लहर समुद्र हो जाती है और इस प्रकार हम इनके मूल तत्व जल तक पहुँच जाते हैं ।
लहर और समुद्र दोनों में से समुद्र की सत्ता तो प्रतीत होती है परन्तु लहर की नहीं । लहर समुद्र से ही उठती है और उसी में गिर जाती है । यह प्रक्रिया बार-बार होती मिटती रहती है । इस परिवर्तनशीलता के कारण ही लहर की सत्ता स्वीकार्य नहीं होती बल्कि सागर की ही सत्ता प्रतीत होती है । इसी प्रकार शरीर और संसार दिखते अवश्य है परन्तु उनमें हो रहे परिवर्तन उनकी स्वतंत्र सत्ता होने पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं । शरीर की सक्रियता का कारण उसमें उपस्थित जीवात्मा के कारण है जैसे लहर का उठना-गिरना समुद्र के कारण है । इसलिए सत्ता लहर (शरीर) की न होकर समुद्र (आत्मा) की मानी गई है ।
जीवात्मा की अनुपस्थिति में शरीर भी निष्क्रिय होकर नष्ट हो जाता है परन्तु शरीर के मरते ही अकेली जीवात्मा की स्थिति भी व्यक्त से अव्यक्त की हो जाती है । अव्यक्त पर साधारण दृष्टि भला कैसे जा सकती है ? उसकी सत्ता की प्रतीति तो तभी होगी, जब उसे कोई दूसरा शरीर मिल जाए । शरीर और जीवात्मा का अनवरत संयोग-वियोग जिस सत्ता का अनुभव कराता है, वास्तव में वह परमात्मा की सत्ता है । जैसे समुद्र की सत्ता होने की प्रतीति लहर के उठने- गिरने से होती है परन्तु दोनों के संयोग का अनुभव जल के कारण ही संभव होता है । जल है तो समुद्र है और लहर भी है । समुद्र और लहर दोनों में जल है अतः सत्तावान जल हुआ । इसी प्रकार शरीर और जीवात्मा की सत्ता भी उस परम पर टिकी है, जिसका अनुभव ही किया जा सकता है, वर्णन नहीं ।
समुद्र और लहर के माध्यम से केवल जल की ओर संकेत भर किया गया है । वैसे यह एक उदाहरण भर है अन्यथा तो जल असत् तत्व है और असत् से सत् तक नहीं पहुँचा जा सकता । अतः इसे केवल समझाने की दृष्टि से एक उदाहरण के रूप में लें और लक्ष्य परमात्मा का ही रखें ।
लहर के समुद्र में समाते ही लहर की सत्ता समाप्त हो जाती है । इसी प्रकार जब कोई बूँद समुद्र में गिरती है, तो बूँद की सत्ता समाप्त हो जाती है । फिर बूँद आपको समुद्र में ढूँढे भी नहीं मिलेगी । कबीर हैरान हो जाते हैं, इस प्रकार बूँद को समुद्र में खोते देखकर । वे कहते हैं -
हेरत हेरत हे सखि, रहा कबीर हेराय ।
बूँद समायी समुद्र में, अब क़ित हेरी जाय ।।
अर्थात् हे सखि ! बूँद को समुद्र में समाते हुए, उसमें खोते देखकर मैं हैरान रह गया । मेरी हैरानी तो तब और बढ़ गई, जब ढूँढते ढूँढते उस बूँद को समुद्र में मैं ढूँढ नहीं सका ।
समुद्र की अथाह जलराशि में एक बूँद को ढूँढना कोरी मूर्खता ही कही जा सकती । बूँद, लहर और समुद्र तीनों एक ही जल के रूप है । जल है तो बूँद है, बूँद है तो समुद्र है और समुद्र है तो लहर है । तीनों एक ही जल के रूप है, हमने तो केवल विभिन्न आकार देखकर उनके अलग अलग नाम दे दिए हैं । हमारी भौतिक दृष्टि आकार को देखने की अभ्यस्त है। केवल आकार को देखकर ही हम उसकी क्षमता और निर्बलता का आकलन करने लगते हैं । परन्तु हम भूल जाते हैं कि इन आकारों के मूल में भी कोई तत्व है जो उनमें आपसी एकता सिद्ध करता है । जब तक उस मूल की ओर दृष्टि नहीं जाएगी तब तक पूरे जीवन भटकते रहेंगे, तत्व तक नहीं पहुँच पाएँगे ।
कबीर की परेशानी ने, उनकी हैरानी ने उन्हें सोचने के लिए विवश कर दिया कि समुद्र और बूँद में ऐसी कौन सी समानता है, जिसके कारण समुद्र में बूँद को ढूँढना असम्भव कर दिया । प्रत्येक कार्य असम्भव तब तक है जब तक हमारी दृष्टि स्थूलता की सीमा का अतिक्रमण नहीं कर जाती, उस सीमा के बंधन को तोड़कर उससे पार नहीं चली जाती । स्वामीजी ने इसको ललक (तीव्र इच्छा) कहा है । स्वामीजी कहते हैं कि आत्म-बोध होना, तत्व तक पहुँचना आपकी प्रबल इच्छा के अधीन है । इच्छा के अभाव में तो आप संसार की कोई तुच्छ वस्तु तक प्राप्त नहीं कर सकते, फिर यहाँ तो तत्व-प्राप्ति की बात हो रही है । प्रबल इच्छा के कारण कबीर को भी अंततः तत्व-बोध हो गया । फिर जो उन्होंने अपना नया कथन कहा वह इस प्रकार है -
हेरत हेरत हे सखि, रहा कबीर हेराय ।
समुद्र समाया बूँद में, अब कित हेरी जाय ।।
हे सखि ! समुद्र बूँद में ही तो समाया हुआ है । जब बूंद ही समुद्र है तो फिर वह बूँद कहाँ रही, वह तो खोकर स्वयं ही समुद्र हो गई है । अब उस बूँद को मैं कहां ढूंढू ? बूंद के समुद्र होते ही बूंद खो गई है। उस बूंद को ढूँढते ढूँढते यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया हूं कि इतने दिन मैं व्यर्थ ही दोनों को एक दूसरे से भिन्न मान रहा था । एक बूँद में ही तो पूरा समुद्र समाया हुआ है । बिना बूँद के सागर का अस्तित्व है ही कहाँ ?
समुद्र को जानना हो तो उसे जल की एक बूँद से भी जाना जा सकता है । कई बूँदों का संगठित रूप ही तो समुद्र है फिर समुद्र में जाकर बूँद को ढूँढने से क्या प्रयोजन ? इसी प्रकार केवल मूल अहम् (आत्मा) को जान लें, बूँद की तरह वह भी तो अपने सागर (परमात्मा) का अंश है ।
संसार और शरीर असत् है क्योंकि इनके क्रियाशील प्रकृति के अन्तर्गत होने के कारण इनमें निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं । परमपुरुष (परमात्मा) अक्रिय हैं, अतः इनको सत् कहा जाता है । जगत् से लेकर शरीर तक सभी मूल प्रकृति से परमात्मा की अध्यक्षता में सृजित हुए हैं । सक्रिय होने के कारण इस प्रकृति और संसार को असत् कहा गया है और परमात्मा को सत् । ऐसा कहना भी केवल सापेक्षता की दृष्टि से है अन्यथा तो सब कुछ एक परमात्मा ही है । इसी बात को भगवान ने गीता में इस प्रकार स्पष्ट किया है -
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युष्च सदसच्चाहमर्जुन।। गीता - 9/19।।
अर्थात् हे अर्जुन ! मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, मैं ही जल को ग्रहण करता हूँ और उसे वर्षा के रूप में बरसा देता हूँ । अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।
सूर्य का सृजन परमात्मा की प्रकृति से ही हुआ है । सूर्य सक्रिय है । भगवान कहते हैं कि सूर्य बनकर मैं ही तपता हूँ । अक्रियता-सक्रियता को ध्यान में रखते हुए देखें तो परमात्मा तो सत् हैं और सूर्य असत् । सूर्य की सक्रियता से उत्पन्न होने वाले ताप से जल वाष्प में परिवर्तित होकर सूर्य रश्मियों द्वारा ग्रहण किया जाता है । वही वाष्प बादल बनकर जल के रूप में पृथ्वी पर बरसती है । ये सब कार्य प्रकृति के माध्यम से परोक्ष रूप से परमात्मा ही कर रहे हैं । इस पूरे प्रकरण में (सूर्य के तपने से लेकर जल बरसाने तक) परमात्मा की भूमिका रहती है । इसीलिए भगवान ने कहा है कि सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं हूँ ।
असत् का अस्तित्व भी तभी तक है, जब तक सत् की अपेक्षा से सक्रिय-अक्रिय को स्पष्ट करना हो । जब असत् का अस्तित्व ही सत् पर टिका हो तो असत् स्वतन्त्र कहाँ हुआ ? जब असत् स्वतंत्र नहीं है तो फिर सब कुछ सत् ही हुआ । परंतु परमात्मा सत् है, ऐसा कहने से उसकी सापेक्षता में असत् की स्वीकार्यता हो ही जाती है । दोनों के मध्य उत्पन्न हुए भेद को समाप्त करने के लिए ही श्रीकृष्ण ने कहा है कि अमृत-मृत्यु और सत्-असत् भी मैं ही हूँ ।
सत्-असत् से भी आगे बढ़कर अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के बारे में कहा है -
क़स्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरियसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ।। गीता -11/37 ।।
हे महात्मन् ! गुरुओं के भी गुरु और ब्रह्मा के भी आदिकर्ता आपके लिए सिद्धगण नमस्कार क्यों नहीं करे ? क्योंकि हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप अक्षर स्वरूप हैं; आप सत् भी हैं, असत् भी हैं और इनसे पर जो कुछ भी है, वह आप ही हैं ।
परमात्मा अक्षर स्वरूप हैं । इस संसार में क्षर और अक्षर - ये दो ही प्रकार के पुरुष हैं । क्षर वह पुरुष है जोकि नाशवान है, जिसमें प्रतिक्षण कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है । संपूर्ण प्राणियों के शरीर क्षर कहे गए हैं । दूसरी प्रकार का पुरुष अक्षर है अर्थात् वह अविनाशी है, जिसमें किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता । अक्षर पुरुष हमारी जीवात्मा है जोकि क्षर शरीर में रहते हुए उस शरीर में हो रहे परिवर्तन को अनुभव करती है ।
प्रश्न उठता है कि क्षर पुरुष में हो रहे सतत परिवर्तन अंततः उसको कहाँ ले जाते हैं ? शरीर का हो रहा क्षरण शरीर का तो नाश कर देता है परन्तु जिन तत्वों से यह शरीर बना है, उन तत्वों का नाश नहीं होता । उन पाँच भौतिक तत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) का नाश नहीं होता क्योंकि ये सभी मूल प्रकृति के तत्व हैं । यह प्रकृति इन तत्वों का पुनः संयोजन कर एक नए शरीर का निर्माण कर देती है । इससे निष्कर्ष निकलता है कि क्षर शरीर है, क्षर पदार्थ हैं परंतु प्रकृति के तत्व क्षर नहीं हैं । ये सभी तत्व तो अपनी मूल प्रकृति के साथ ही परम में लीन होते हैं ।
स्वर्ण से विभिन्न प्रकार के आभूषण बनाए जाते हैं । आभूषण नाशवान हैं । जब चाहें आभूषण को गलाकर उसके मूल तत्व स्वर्ण को प्राप्त किया जा सकता है । स्वर्ण तत्व वैसे का वैसा ही रहता है , वह बदलता नहीं है केवल आभूषण बन जाने पर वह बदलता प्रतीत होता है ।
स्वर्ण-आभूषण हमारा शरीर है और स्वर्ण हमारी जीवात्मा । आभूषण परिवर्तनशील है परंतु स्वर्ण में कोई परिवर्तन नहीं होता । शरीर में हो रहे परिवर्तन से शरीर नष्ट हो जाता है परंतु उस शरीर में स्थित जीवात्मा शरीर के साथ नहीं मरता । जिसमें परिवर्तन होते हैं वही सब कुछ करता है । प्रकृति में परिवर्तन होते हैं, वही सब कुछ करती है । जो अपरिवर्तनीय है, भला वह क्या कुछ कर सकता है ? गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही बात समझाते हुए कह रहे हैं -
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरूष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।। 2/21।।
अर्थात् हे पृथानन्दन ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्म रहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ?
उपरोक्त श्लोक में भगवान ने जीवात्मा को शरीरी कहा है । शरीर की अपेक्षा से इसे शरीरी कहा गया है । शरीर विनाशशील है, इसके सापेक्ष इसे अविनाशी कहा गया है । शरीर अनित्य है, इसकी अपेक्षा से जीवात्मा को नित्य कहा गया है । शरीर जन्मता-मरता है, इसकी अपेक्षा से शरीरी को जन्म रहित कहा गया है । इसी प्रकार शरीर का सतत क्षय अर्थात् व्यय होता रहता है, जीवात्मा को व्यय की अपेक्षा से अव्यय बताया गया है । कहने का अर्थ है कि जो भी शब्द उस परमात्मा को जनाने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं सब सापेक्षता के कारण है अन्यथा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, वे स्वयं वर्णनातीत हैं ।
असत् कहने भर को असत् है, परंतु असत् ‘नहीं’ है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । पत्थर से बनी दीवार हमें दिखलाई पड़ती है, ऐसी स्पष्ट दिखलाई देने वाली वस्तु को ‘नहीं होना’ कैसे कहा जा सकता है ? यदि ‘दीवार नहीं है’ ऐसा मानते हैं, तो जरा अपना सिर उस पर दे मारें । सिर फूट जाएगा और रक्त-धार बहने लग जाएगी । क्या अब भी आप कहेंगे कि यह दीवार असत् है, ‘नहीं’ है ? कम से कम कहने वाले को तो यह ज्ञान होना आवश्यक है कि दीवार के होते हुए भी इसको ‘नहीं’ होना कहने के पीछे क्या कारण है ?
दीवार जो आज है, कल यह दीवार वैसी नहीं रहेगी । कुछ समय पश्चात्, शायद दस-बीस अथवा पचास वर्ष बाद वह दीवार रहेगी भी नहीं । जो आज है तथा कल नहीं होगी, उसका आज होना भी वास्तव में ‘नहीं होना’ ही है । इसी कारण से दीवार को असत् कहा गया है । वह प्रतिपल नष्ट होती जा रही है । जब इसका स्थायी भाव ही नहीं है तो फिर परिवर्तित होती जा रही वस्तु का कोई नाम भी कहाँ तक और कितने दिन तक टिका रहेगा ? यह दीवार भी कुछ वर्षों बाद गिर कर मलबा हो जाएगी । क्या उस मलबे को दीवार कहा जा सकता है ? नहीं, मलबा दीवार का है अवश्य, पर वह दीवार नहीं है ।
उस मलबे से पत्थर आदि निकाल कर, फिर से व्यवस्थित तरीक़े से एक नई दीवार बनाई जा सकती है परंतु वह पूर्व वाली दीवार नहीं होगी । नई बनी दीवार भी समय के साथ एक दिन मलबा बन जाएगी और उससे फिर किसी और प्रकार की दीवार बना दी जायेगी । फिर वह दीवार भी ‘होते’ हुए भी ‘नहीं’ ही कहलाएगी क्योंकि उसको भी एक दिन नष्ट होना है । दीवार की भाँति ही प्राणियों के शरीर और उनका संसार हैं ।
सभी प्राणियों के शरीर पाँच भौतिक तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि,गगन,वायु) से बने हैं । सभी शरीरों के इस जगत् में रहने की अपनी अपनी अवधि है । जगत् बना है, कुछ काल के लिए । उसकी भी रहने की अपनी अवधि है, यह भी एक दिन विलीन हो जाएगा । शरीर के नष्ट होने से जगत् नष्ट नहीं होता क्योंकि जगत् के रहने की अवधि शरीर से कहीं बहुत अधिक है । अवधि अधिक होने का अर्थ यह नहीं है कि जगत् नष्ट नहीं होगा । यह भी एक दिन नाश को प्राप्त होगा और अपने मूल स्रोत में विलीन हो जाएगा । फिर समय पाकर पुनः इसकी रचना होगी और ऐसी ही प्रक्रिया निश्चित समय बाद दोहराई जाएगी ।
शरीर के नाश का अर्थ यह नहीं है कि पाँच तत्व नष्ट हो जाते हैं । वे नष्ट नहीं होते । पाँचो भौतिक तत्व जगत् के अंश हैं, वे जगत् के विलीन होने पर ही विलीन होंगे और सृष्टि के पुनः सृजन पर सर्वप्रथम प्रकट हो जाएँगे । शरीर के मरते ही उसका विखंडन प्रारंभ हो जाता है और उसके अंतिम संस्कार के साथ ही पाँचो तत्व भी जगत् के तत्वों के साथ एकाकार हो जाते हैं ।
समय पाकर उन्हीं तत्वों से फिर प्राणी के एक नए शरीर का निर्माण होता है और संबंधित जीवात्मा उसमें प्रवेश करती है । जीवात्मा के प्रवेश करते ही यह शरीर सक्रिय हो जाता है और इस प्रकार नए शरीर के साथ जीवन-यात्रा आगे बढ़ती है । पुनर्ज़न्म के मूल में प्रकृति की यही क्रिया है, जो इस जगत् के रहने तक बार-बार दोहराई जाती है ।
अभी हमने शरीर के बार-बार मिटने-बनने की प्रक्रिया पर अल्प रूप से विचार किया । प्रश्न उठता है कि शरीर जिस स्थान पर मिटता है, पाँच तत्व उसी स्थान पर गिरते हैं । उन पाँचों तत्वों से ही एक नए शरीर का निर्माण होता है और उस नए शरीर में प्रायः वही संबंधित जीवात्मा प्रवेश करती है, ऐसा क्यों होता है ?
जीवात्मा ने पूर्व में जिस शरीर को धारण किया था, उस शरीर के साथ बने तादात्म्य ने उसके मन में कई कामनाएँ पैदा की होगी, कई वस्तुओं, व्यक्तियों के प्रति आसक्ति, ममता रही होगी, कइयों से लेन-देन किया होगा । उनमें कुछ कामनाएँ अधूरी भी रही होंगी, कुछ लेन-देन भी शेष रहा होगा, उन कामनाओं को पूरा करने के लिए और जिनमें ममता और आसक्ति रही होगी, उनसे मिलने के लिए उसी स्थान पर जीवात्मा को नए शरीर की आवश्यकता रहती है । यही कारण है कि पुनर्जन्म प्रायः उसी स्थान के आस-पास होता है, जहां उसकी कामना, ममता, आसक्ति आदि और कुछ लेन-देन शेष रह गया हो ।
इस बात को समझने के लिए एक सेठ का दृष्टांत लेते हैं । सेठजी वृद्ध हो चले थे परन्तु व्यापार, धन में प्रबल आसक्त थे । पुत्र मोह और पौत्र में गाढ ममता से अभी तक छूट नहीं पाए थे । बहुत चाहते थे कि शरीर त्यागने पर वैकुण्ठ मिले, पर …… । एक दिन एक संत का उनके यहाँ आना हुआ । सन्त से उन्होंने अपनी यह इच्छा बताई । सन्त सहर्ष उनको साथ ले जाने को तैयार भी हो गए । परंतु यह क्या ? सेठजी ने तत्काल साथ जाने से मना कर दिया । अभी तो व्यापार लड़के को सम्हलाना है, पौत्र छोटा है, उसका भी ध्यान रखना है । सेठजी ने अगली बार साथ चलने की हामी भर दी ।
सन्त तो चले गए । वे तो रमते जोगी हैं, आज यहाँ तो कल वहाँ । कई वर्षों बाद फिर उसी स्थान पर उनका आगमन हुआ । सन्तजी को सेठ का स्मरण हो आया । सोचा, चलो अब तो सेठ साथ चलेंगे ही । पहुँच गए उनकी कोठी पर । पता चला कि वे तो दिवंगत हो गए । सन्त ने ध्यान लगाया । अरे ! सेठ ने तो बकरे के रूप में पुनर्जन्म लिया है । सन्त तुरंत ही बकरे के पास पहुँच गए और बोले - ‘ सेठजी ! अब तो चलें ।’ बकरा बना सेठ बोला - ‘ अजी अभी कहाँ ? लड़का जब दुकान बंद कर रात को घर चला जाता है, तब पीछे से कहीं कोई ताला न तोड़ ले । इसलिए रात भर दुकान के आगे बैठकर इसकी रखवाली करता हूँ । जब लड़का किसी चौकीदार की व्यवस्था कर लेगा, तब आपके साथ अवश्य चलूँगा ।’
सेठ की बात सुन मुस्कुराते हुए सन्त वहाँ से आगे चले गए । वे जानते थे कि सेठ इस जन्म में ही क्या, अगले कई जन्मों तक मुक्त नहीं होगा । इस प्रकार फिर से कई वर्ष बीत गए । सन्त तो अनवरत यात्रा पर गतिमान थे, एक जगह नहीं ठहरते थे । संयोगवश एक बार फिर से सेठ के गाँव आना हुआ । पहुँच गए, सेठ की उसी दुकान पर जहां सेठ बकरा बने चौकीदारी कर रहे थे । परन्तु यहाँ तो बकरा है ही नहीं ।
सन्त ने ध्यान लगाया, सेठ किस शरीर में है, पता तो चले । बकरा बने सेठ तो मर गए । अब वे कहाँ होंगे ? अरे ! सेठ तो यह रहे, घर की नाली का कीड़ा बने हुए । तुरन्त दुकान से उठे, पहुँच गए घर से निकलने वाली नाली के पास । कीड़ा भी देखते ही सन्त को पहचान गया । सन्त बोले - ‘सेठजी, अब तो चलें ।’
नाली का कीड़ा बने सेठ ने सन्त की बात का कोई उत्तर नहीं दिया । सन्त फिर से बोले - ‘सेठजी, अब तो चलें ।’ कीड़ा क्रोध से फड़फड़ाया, बोला - ‘आपको जाना है तो जाइए, मैं तो यहाँ सुखी हूँ । देख रहे हो न, भीतर मेरा पोता नहा रहा है । उसका नहाया हुआ जल मेरे शरीर को छू रहा है । मैं उसके स्पर्श से रोमांचित हूँ । ऐसा सुख भला स्वर्ग में भी कहाँ मिलेगा ? आप जाइए, मुझे कहीं नहीं जाना है ।’
सन्त ने अपने जीवन में सेठ को तीन शरीरों के रहते समझाया परंतु सेठ को बात समझ में नहीं आई । जब मनुष्य शरीर में रहते हुए व्यक्ति को समझ नहीं आती तो दूसरे प्राणियों के शरीर में रहते तो समझ में आने का कोई प्रश्न ही नहीं है । अब सेठ को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, फिर से मानव शरीर मिलने की जोकि सब जन्मों के अन्त में जाकर मिलना है, तब तक चौरासी लाख शरीरों की यात्रा करनी होगी । अभी तो पूर्व मानव जन्म की कामना, ममता और आसक्ति के स्थान पर ही बार-बार चक्कर लगाना पड़ेगा, न जाने तब तक कितने वर्ष/युग बीत जाएँगे ।
सेठ ने जो कुछ किया, वही तो असत् है । मनुष्य की विडम्बना है कि वह स्वयं सत् होते हुए भी असत् में आसक्त होकर उसी को सत् मान बैठा है । असत् को सत्ता हमने ही दी है । सत्ता देने वाले असत् के पास असत् को सत्ता देने का अधिकार ही नहीं है । दीवार का सत् दिखना तभी स्वीकार्य है, जब उसे चर्म चक्षुओं से न देखकर ज्ञान चक्षुओं से देखा जाए । वास्तव में सत्ता केवल सत् की ही है, चाहे वह हमें असत् के रूप में दिखलाई पड़ रहा हो ।
सत् परमात्मा और असत् संसार, ये दोनों तो परमात्मा ही हैं परंतु इन दोनों से परे जो कुछ है वह भी परमात्मा है । गंभीरता से चिंतन करें तो अनुभव होगा कि सर्वत्र एक परमात्मा की सत्ता के अतिरिक्त किसी अन्य की सत्ता है ही नहीं । सत्, असत् और इन दोनों से परे कहा जाना केवल सापेक्षता ही दृष्टि से है । यदि हम प्रकृति को असत् मानते हैं तो इसका विलोम सत् भी है, ऐसा मानना होगा । जब सत् भी है, असत् भी है तो फिर इन दोनों अर्थात् सत् और असत् से परे भी कुछ हो सकता है । जो भी भेद है, वह असत् में है । असत् की सत्ता को अस्वीकार करते ही केवल सत् शेष रह जाता है और जब केवल एक सत् ही है तो उसको सत् कहना भी उचित नहीं है । फिर जो कुछ असत् है, जो कुछ सत् है और उससे परे भी जो कुछ है, वे सब एक परमात्मा ही हैं, उनके अतिरिक्त कोई है ही नहीं ।
असत्-सत् और उससे परे के समाप्त होते ही जो शेष रहता है, वह “है” है । जो “है” है, वही जीवन है । जीवन “है” में है, “नहीं” में नहीं । उसको “है” कहना भी केवल उसका वर्णन करने के उद्देश्य से है जिससे उस एक की ओर लक्ष्य किया जा सके । स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने कहा है कि जब तत्व का वर्णन किया जाता है तब अगर दृष्टि वर्णन पर रहेगी तो तत्व खो जाएगा, केवल शब्द ही पकड़ में आएंगे और अगर उसके वर्णन में दृष्टि लक्ष्य पर रहेगी तो वर्णन अपने आप खो जाएगा और केवल तत्व पकड़ में आ जाएगा ।
परमात्मा वर्णनातीत है, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । वर्णन करेंगे और दृष्टि केवल शब्दों पर रखेंगे तो प्राप्ति के रूप में हमारे हाथ में कोरे शब्द रह जाएंगे । शब्दों का महत्व तभी तक है जब तक दृष्टि केवल लक्ष्य पर रहती है, मात्र शब्दों पर नहीं । इसलिए दृष्टि तत्व पर रहेगी तो उसको जनाने के लिए किए गए वर्णन से वर्णनातीत का अनुभव हो ही जाएगा ।
स्वामीजी कहते हैं - “तत्व वास्तव में अनुभवरूप है क्योंकि अनुभव कभी अननुभव (विस्मृत) नहीं होता । वर्णनातीत का वर्णन आपकी स्मृति लौटा सकता है परंतु यह स्मृति कभी भी विस्मृत हो सकती है । स्मृति की विस्मृति हो सकती है परंतु अनुभव की विस्मृति न होकर उससे विमुखता होती है ।” गीता-ज्ञान के समापन पर अर्जुन द्वारा जिसको “स्मृति: लब्धा” कहा गया है वह वास्तव में “है” से हुई विमुखता का पुनः सम्मुखता में परिवर्तित हो जाना है । परमात्मा की विमुखता से पुनः उनका अनुभव हो जाना ही अधिक महत्वपूर्ण है ।
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि असत् की अपेक्षा से उसे सत् कहा गया है । समझाने की दृष्टि से ऐसा कहना आवश्यक है । भगवान ने स्वयं गीता में कहा है - नास्तो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: (गीता -2/16) अर्थात् असत् की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है । असत् को सत्ता सत् के कारण मिली है, इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता । बाह्य दृष्टि से देखने पर हमें असत् की सत्ता दिखलाई पड़ती है क्योंकि असत् नेत्रों से असत् भी सत् ही प्रतीत होता है ।
अपरा प्रकृति का अंश यह शरीर है । जीवात्मा जोकि परा प्रकृति है, अपरा के साथ तादात्म्य स्थापित कर उसमें मोहित हो जाती है । मोहित जीवात्मा ही शरीर को स्वयं होना मान लेती है । यह परमात्मा से विमुखता है । ज्ञान पुनः परमात्मा का अनुभव कराते हुए हमें संसार और शरीर से विमुख कर देता है । संसार और शरीर से विमुख हो जाना ही परमात्मा के सम्मुख होकर उनका अनुभव कर लेना है ।
मोह से मुक्त होते ही वास्तविक सत्ता का ज्ञान हो जाता है और सत् प्रकट हो जाता है । संसार को जानने के लिए संसार से दूर होना आवश्यक है । शरीर की विभिन्न अवस्थाओं जैसे बाल्य, युवा, प्रोढ आदि में शरीर का रूप, रंग तक बदल जाता है । शरीर में हो रहे इन परिवर्तनों को देखने वाला कभी नहीं बदलता तभी तो उसको शरीर में हो रहे बदलावों का अनुभव होता है । इस बात पर गंभीरता से चिंतन करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि हम शरीर नहीं हैं बल्कि उससे भिन्न हैं । इस बात को आत्मसात् करते ही शरीर और संसार से मोह समाप्त हो जाता है ।
हम क्रियाओं में इतने उलझे होते हुए भी आत्म-बोध को उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं । क्रियाएँ असत् के कारण होती हैं । इसका अर्थ है कि हम सब सत् को असत् के माध्यम से जानने का प्रयास कर रहे हैं । जबकि वास्तविकता यह है कि असत् से सत् का अनुभव हो ही नहीं सकता । असत् से स्वयं को अलग कर लेने पर ही शरीर की सत्ता खो सकती है और शेष केवल एक सत् की सत्ता रह जाती है । असत् की अपेक्षा से उसे सत् कहा जाता है अन्यथा न तो कहीं सत् है और न ही असत् ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यही बात समझाते हुए कह रहे हैं -
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।। गीता-13/12।।
अर्थात् जो ज्ञेय है, उस परमात्मतत्व को मैं अच्छी प्रकार से कहूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है । वह ज्ञेय-तत्व अनादि और परम ब्रह्म है । उसको न तो सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है ।
परमात्मा ज्ञेय हैं परंतु इसको उस प्रकार नहीं जाना जा सकता जैसे सांसारिक भौतिक वस्तुओं को जाना जाता है । भौतिक वस्तुएँ असत् है, उनको तो असत् अर्थात् इंद्रियों और शरीर के माध्यम से जाना जा सकता है परंतु सत् को तो केवल अनुभव ही किया जा सकता है । सत् का अनुभव होने पर सत् भी खो जाता है । फिर उसको केवल “है” ही कहा जा सकता है । “है” भी केवल वर्णन करने के लिए उस ओर किए जाने वाला संकेत मात्र है अन्यथा उसका कोई वर्णन नहीं हो सकता । न वह असत् है और न ही सत् । वह वर्णनातीत है इसलिए उसका केवल अनुभव ही हो सकता है, उसके बारे में न तो कहा जा सकता है और न ही कुछ लिखा जा सकता है । कहना और लिखना, केवल परमात्मा की ओर संकेत करने के लिए ही है ।
मैंने सुना है कि जापान में किसी स्थान पर एक मंदिर है, जिसको अंगुली वाला मंदिर कहा जाता है । उस मंदिर में एक हाथ के पंजे की मूर्ति लगी हुई है । हाथ की तीन अंगुलिया और अंगूठा तो हथेली से लगे हुए हैं और केवल तर्जनी अंगुली सीधी है जो ऊपर की ओर संकेत कर रही है । यह अंगुली उस ओर संकेत कर रही है जिधर देखने पर स्थूल दृष्टि को कुछ भी दिखाई नहीं देता, सिवाय खुले आसमान के ।
अंगुली संकेत करती है उस ओर, जिधर सत्तावान के उपस्थित होने की कल्पना की जाती है । वह सत्तावान ही “है” है, ऐसा कहा जाता है । उसको जाना नहीं जा सकता, न ही उसका वर्णन किया जा सकता है । हाँ, उसका अनुभव अवश्य ही किया जा सकता है । उसके अनुभव के लिए असत्, सत् आदि सभी नामों से ऊपर उठना होगा । उसको न तो सत् कहा जा सकता है और न ही असत् । जो सत् और असत् से भी परे है, जिसका कोई नाम नहीं है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता उसकी ओर तो केवल संकेत ही किया जा सकता है जैसा कि हाथ वाले मंदिर में अंगुली के माध्यम से किया गया है ।
“है” के अनुभव के लिए उस अंगुली की पूजा करने से कुछ भी नहीं होना है । हाथ की संकेत करती अंगुली हमारे शास्त्र आदि ही तो है, जिनसे हमने उसको जानने का प्रयास किया है । उस “है” के अनुभव के लिए अंगुली को पीछे छोड़ अर्थात् शास्त्रीय ज्ञान को पीछे छोड़ आगे बढ़ना होगा । आगे बढ़ने के लिए चुप होना होगा । चुप होने से अर्थ है, बाहर भीतर से शान्त, कुछ भी और किसी का भी चिन्तन नहीं । फिर जो अनुभव होगा वह अनुभव अतीन्द्रिय होगा ।
जैसे अंगुली से जिस दिशा की ओर संकेत किया जाता है उस ओर दृष्टि जाने पर ही हम लक्ष्य को जान सकते हैं । दृष्टि को केवल उस अंगुली पर रखने से तो अंगुली ही दिखाई देगी, लक्ष्य नहीं । लक्ष्य की ओर संकेत करती अंगुली ही लेखन और प्रवचन है अर्थात् वे परमात्मा की ओर मात्र संकेत करते हैं । लिखने से, बोलने से अच्छा लेखक और वक्ता हुआ जा सकता है, लेख पढ़कर, प्रवचन सुनकर अच्छा पाठक और अच्छा श्रोता हुआ जा सकता है परंतु लक्ष्य तक तभी पहुँचा जा सकता है, जब दृष्टि लेख-लेखक; प्रवचन-वक्ता पर न अटककर केवल लक्ष्य पर ही टिकी रहे ।
लक्ष्य पर दृष्टि टिकाए रखना ही परमात्मा के सम्मुख होना है । फिर लेख-लेखक, प्रवचन-वक्ता खो जाते हैं और परमात्मा (लक्ष्य) का अनुभव हो जाता है । उसका अनुभव होते ही शब्द खो जाते हैं और वाणी/ लेखनी शांत हो जाती है । यह मौन की अवस्था है, जिसमें सब कुछ पाकर भी उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । स्वामीजी ने इसको चुप साधन कहा है । मौन होकर बैठने पर न तो कोई विचार होता है और न ही किसी का चिंतन । तभी भगवान ने अर्जुन को स्पष्ट किया है कि उसको न तो सत् कहा जा सकता है और न ही असत् ।
“वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:”(गीता-7/19) अर्थात् ‘सब कुछ वासुदेव ही है’, ऐसा जान लेने वाला वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है । “वासुदेव” तक पहुँच जाने वाला क्या तो बोले और क्या लिखे ? इसलिए वह मौन हो जाता है ।
हमारे शास्त्र और सन्त ही वह अंगुली है जो लक्ष्य की ओर संकेत करती है । प्रश्न उठता है कि शास्त्र हमें परमात्मा का मार्ग दिखलाते है, उसको जानने की ओर अग्रसर करते हैं फिर हमें उस परम के अनुभव के लिए शास्त्रों को छोड़ना क्यों आवश्यक है ? हमारे शास्त्रों में अथाह ज्ञान भरा पड़ा है । उनको पढ़कर हम ज्ञानी बन सकते हैं, अच्छे वक्ता और लेखक बन सकते हैं परंतु जीवन का जो लक्ष्य है उस तक पहुँचने से दूर ही रह जाते हैं । शास्त्रीय ज्ञान मोह को पैदा करता है और यही मोह सब कुछ जानने का अहंकार पैदा करता है । अहंकार हमें असत् से (शरीर और संसार से) मुक्त नहीं होने देता ।
यह अहंकार ही अहम् है जिसके विलीन हुए बिना हम परमात्मा का अनुभव नहीं कर सकते । शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान ही तो “नेति-नेति” कहता है अर्थात् वह इतना ही नहीं है । इस ‘इतने ही नहीं है’ को स्वीकार करते ही व्यक्ति शास्त्रों की ओर से चुप होकर शान्त हो जाता है । यही चुप-साधन अर्थात् मौन-साधना है । इस अवस्था को उपलब्ध होने पर शास्त्रीय-ज्ञान का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।
स्वयं भगवान ने गीता में कहा है -
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: ।। 2/46 ।।
अर्थात् सब ओर से परिपूर्ण महान जलाशय मिलने पर छोटे गड्ढों में भरे जल में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, शास्त्रों को तत्त्व से जानने वाले ब्रह्मज्ञानी का संपूर्ण वेदों से उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता ।
जब व्यक्ति अध्यात्म की सर्वोच्च अवस्था तक पहुँच जाता है, तब उसे अनुभव होता है कि इतना प्रयास जो उसने इस अवस्था तक पहुँचने के लिए किया वह अधिक उपयोगी नहीं है । ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या वेद और शास्त्र पढ़ने इतने महत्वपूर्ण नहीं है ? ऐसा नहीं है कि शास्त्रों का अध्ययन महत्वपूर्ण नहीं है । अध्ययन से आत्म-बोध की जो मुमुक्षा पैदा होती है, वही आत्म-बोध का मार्ग भी दिखलाती है । ज्ञान जो शास्त्रों से मिलता है, वही ज्ञान अनुभव कराता है कि परमात्मा को जाना नहीं जा सकता ।
“परमात्मा है” और हम उसके ही अंश है, ऐसा ज्ञान कराने में शास्त्रों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता । परन्तु केवल शास्त्र को ही पकड़ कर बैठ जाना आध्यात्मिक प्रगति को रोक देता है । इसलिए शास्त्रों में जो ज्ञान है, उसे आत्मसात् कर आगे बढ़ना आवश्यक है, नहीं तो ये शास्त्र भी एक दिन बोझ बनकर रह जाते हैं । स्वामीजी ने ‘साधक-संजीवनी’ हमारे हाथ में दी है परंतु केवल उसे हाथ में थामे रहने से आत्म-बोध नहीं होने वाला । उसमें संकलित ज्ञान को आचरण में लाने से ही हम उस परमात्मा का अनुभव कर सकते है, जिसकी ओर संकेत करते हुए यह ग्रन्थ लिखा गया है । स्वामीजी के द्वारा कहे गए शब्दों को ही नहीं पकड़ना है बल्कि जिस लक्ष्य को लेकर ये शब्द कहे गए है, उनसे ऊपर उठकर लक्ष्य को पकड़ना है ।
शास्त्रों को पकड़कर बैठ जाना भी जड़ता है, प्रगति में बाधा है । शास्त्र से तभी तक प्रयोजन रहता है, जब तक आत्म-बोध की दिशा का ज्ञान नहीं हो जाता । दिशा का ज्ञान होते ही शास्त्रों को भी छोड़ना पड़ता है । शास्त्रों को पीछे छोड़े बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता । आगे बढ़ने से ही उस परम का अनुभव होगा जिसकी ओर संकेत करने के लिए शास्त्रों की रचना की गई है ।
श्रीमद्भागवत महापुराण का सार चार श्लोकों में सिमटा है, जो स्वयं भगवान द्वारा कहे गए हैं । इसे चतुःश्लोकी भागवत भी कहा जाता है । इन चार श्लोकों में परमात्मा स्वयं ने अपना वर्णन किया है । अवर्णनीय का वर्णन करना या तो परमात्मा से ही संभव है या उनके परम भक्तों से । ब्रह्माजी भगवद्धाम जाते हैं तब भगवान उन्हें सृष्टि रचना की आज्ञा देते हैं ।
ब्रह्माजी कहते हैं कि भगवन् ! आप समस्त प्राणियों के अंतःकरण में साक्षीरूप से विराजमान रहते हैं । आप अपने अप्रतिहत (निर्बाध) ज्ञान से यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ ? आप कृपा करके मुझ याचक की यह माँग पूरी कीजिए कि मैं रूपरहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों को जान सकूँ । आप मायापति है , अपनी माया का आश्रय लेकर इस जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करने के लिए अपने आपको ही अनेक रूपों में प्रकट कर क्रीड़ा करते हैं । आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि मैं सजग रहकर सावधानीपूर्वक आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ और सृष्टि की रचना करते समय भी कर्तापन आदि के अभिमान से बंध नहीं जाऊँ ।
आगे ब्रह्माजी कहते हैं कि प्रभो ! आपने एक मित्र के समान हाथ पकड़ कर मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है । अतः जब मैं आपकी इस सेवा / ‘सृष्टि-रचना’ में लगूँ और सावधानी से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ।
ब्रह्माजी के आग्रह पर भगवान ने उन्हें जो ज्ञान दिया वह भागवतजी के दूसरे स्कन्ध के नवें अध्याय के चार श्लोकों में समाहित है । इन्हीं चार श्लोकों को चतु:श्लोकी भागवत कहा जाता है ।
भगवान सृष्टि रचना की आज्ञा देते हुए ब्रह्माजी को कह रहे हैं कि मैं तपस्या से ही सृष्टि की रचना करता हूँ, तपस्या से ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और तपस्या से ही इसे अपने में लीन कर लेता हूँ । तुम उस समय सृष्टिरचना कर्म करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे, इसी से मैंने तुम्हें तपस्या करने की आज्ञा दी थी ।
सृष्टिरचना से ब्रह्माजी को कहीं कृतत्वाभिमान न हो जाए इसलिए भागवतजी के दूसरे स्कन्ध के नवें अध्याय में ब्रह्माजी को भगवान उपदेश देते हुए कहते हैं -
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ।। (1)
“सृष्टि से पूर्व केवल मैं-ही-मैं था । मेरे अतिरिक्त न स्थूल था, न सूक्ष्म और न ही दोनों का कारण अज्ञान । जहां सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं हूँ; और जो कुछ शेष रहेगा, वह भी मैं हूँ ।” (भागवत -2/9/32)
सृष्टि का प्रारम्भ कब हुआ, वैज्ञानिक इसे करोड़ों वर्ष पूर्व हुआ बताते हैं । चाहे जब से सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ हो, भगवान कहते हैं कि उससे पहले भी मैं था । सृष्टि रचना के बाद जो भी स्थूल-सूक्ष्म दृष्टिगत है, वह हमारे अज्ञान के कारण है अन्यथा एक भगवान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । जहां सृष्टि नहीं है, वहाँ भी भगवान है और भगवान ही सृष्टि रूप से प्रतीत हो रहे हैं । सृष्टि के विलीन हो जाने पर जो शेष रहेगा, वह भी वही होंगे ।
सृष्टि में जो कुछ भी हमें प्रतीत हो रहा है, वह हमारी भेद-दृष्टि के कारण है । इस भेद-दृष्टि का कारण हमारा अज्ञान है । भगवान कह रहे हैं कि मेरे अतिरिक्त न कोई स्थूल है, न कोई सूक्ष्म और न ही इन दोनों का कारण अज्ञान । जो स्थूल और सूक्ष्म का भेद हम करते हैं, वह अज्ञान के कारण करते हैं, अन्यथा सृष्टि में ऐसा भेद कहीं नहीं है । कहने का अर्थ है सृष्टि के आदि से भी पूर्व भगवान थे और सृष्टि के पश्चात् भी भगवान ही रहेंगे । भगवान के अतिरिक्त जो कुछ भी प्रतीत हो रहा है, वह हमारे अज्ञान के कारण हो रहा है ।
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्यादात्मानो मायां यथाऽऽभासो यथा तम: ।। (2)
“ सत्य के रूप में जो प्रतीत हो रहा है, अथवा नहीं प्रतीत हो रहा है, वह सब मेरी माया के कारण हो रहा है । वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चंद्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अन्यथा विद्यमान होने पर भी आकाश-मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझनी चाहिए ।” (भागवत -2/9/33 )
जैसे एक आँख पर अंगुली से थोड़ा दबाव डालें तो आकाश में एक चंद्रमा के अतिरिक्त एक और चंद्रमा दिखलाई पड़ता है, जबकि वास्तव में चंद्रमा एक ही है । इसी प्रकार राहु ग्रह की आसमान में प्रतीति नहीं होती जबकि राहु विद्यमान है । भगवान कहते हैं कि दो चंद्रमा न होते हुए भी जो दो होने की प्रतीति होती है, वह मेरी माया है और विद्यमान होने पर जिस राहु की प्रतीति होनी चाहिए थी, उसकी प्रतीति न होना भी मेरी माया है ।
जो आँखों से दिखलाई पड़ता है, उसको सत्य होना स्वीकार करना पड़ता है परंतु जो दिखलाई नहीं पड़ता, उसको असत्य कहना भी हमारा अज्ञान है । न होते हुए भी प्रतीति होना अथवा होते हुए भी प्रतीत न होना, केवल भगवान की माया ही समझना चाहिए । माया में उलझना इसीलिए होता है क्योंकि जो हमारी दृष्टि की पकड़ में है, उसको तो सत्य समझ लेते हैं और जो दृष्टि के बाहर है उसे असत्य । न कोई सत् है, न असत्; सब कुछ परमात्मा ही है, ऐसा स्वीकार कर लेना ही ज्ञान है ।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ।। (3)
जैसे प्राणियों के पञ्चभूत रचित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पञ्चमहाभूत उन शरीरों के कार्यरूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारणरूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किए हुए हूँ और आत्मदृष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ । (भागवत -2/9/34 )
सृष्टि के रचनाकार ने स्वयं से बाहर जाकर किसी मी रचना नहीं की है । रचनाकार स्वयं ही रचना बना है, केवल भ्रमवश हमें उसका अपनी रचना में प्रवेश करना दिखलाई पड़ता है ।
प्रत्येक जीव का शरीर पञ्चभूत निर्मित है । वे पाँच महाभूत सूक्ष्म रूप से इस शरीर में प्रवेश करते हैं । लेकिन वे प्रवेश नहीं भी करते क्योंकि पहले से ही वे इस शरीर के कारण रूप से उसमें उपस्थित हैं । इसी प्रकार भगवान स्वयं आत्मा रूप से शरीर में प्रवेश करते हैं और नहीं भी करते क्योंकि सृष्टि का निर्माण उन्होंने स्वयं में किया है, किसी अन्य सामग्री से नहीं । कहने का अर्थ है कि वे ही स्थूल शरीर हैं, वे ही सूक्ष्म शरीर है और उस शरीर के कारण भी वे ही हैं । जीवात्मा भी वे ही हैं । कहने का अर्थ है कि वे ही सब कुछ हैं, फिर चाहे उनको शरीर में प्रवेश किया मानो अथवा उनका शरीर में प्रवेश न करना मानो ।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मन: ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ।। (4)
यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं - इस प्रकार निषेध की पद्धति से और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है - इस अन्वयकी पद्धति से यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित है , वे ही वास्तविक तत्व है । जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है ।” (भागवत - 2/9/35)
ऋषियों ने सब कुछ समझकर “नेति-नेति” कहा है अर्थात् वे इतने ही नहीं है या यह ब्रह्म नहीं है, यह ब्रह्म नहीं है । उन्हीं ऋषियों ने स्वीकार किया है कि सर्वत्र और सब समय एक परमात्मा ही है, दूसरा कोई नहीं ।
किसी पक्ष को समग्र रूप से जानना हो तो सकारात्मक और नकारात्मक, दो दृष्टि रखकर जाना जा सकता है । नकारात्मक पद्धति को निषेध विधि कहा जाता है और सकारात्मक पद्धति को अन्वयकी विधि । “यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं” यह निषेध विधि है । परमात्मा असीम है, उनको एक सीमा में बाँधने का अर्थ है कि अभी भी हम उनको जानने से बहुत दूर हैं । जिसने परमात्मा को सत् कहा है, उसने असत् को परमात्मा नहीं माना है । निषेध की पद्धति कहती है कि न तो परमात्मा सत् है और न ही असत् । ( न सत्तन्नासदुच्यते - गीता- 13/12) ।
अन्वयकी पद्धति सकारात्मक विधि है । परमात्मा असीम है, उसका न कोई आदि है और न ही अन्त । सृष्टि का प्रारंभ और अन्त है, परमात्मा का नहीं । परमात्मा स्वयं सृष्टि बने हैं । सृष्टि का आदि-अन्त है, सृष्टि परिवर्तनशील है, इसलिए इसे असत् कहा गया है । परमात्मा को सृष्टि के असत् होने के सापेक्ष सत् कहा जाता है । वास्तव में देखा जाए तो असत् और सत्, दोनों ही परमात्मा हैं । ( सदसच्चाहमर्जुन - गीता - 9/19)
असत् और सत्, दोनों ही परमात्मा है, तो इन दोनों से परे कौन है ? वे भी परमात्मा हैं । इससे सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान ही सर्वत्र और सर्वदा है । वे ही वास्तविक तत्व हैं । जो आत्मा और परमात्मा को तत्त्व से जानना चाहते हैं, वे इतना ही जान लें । उनके लिए इतना जान लेना ही पर्याप्त है । तभी अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप दर्शन कर कहा है - “त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्” (गीता -11/27)
इतने विवेचन से स्पष्ट है परमात्मा स्वयं ही सृष्टि रूप में व्यक्त हुए हैं । व्यक्त को हम असत् कह देते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्त में परिवर्तन होना नियम है जबकि अव्यक्त जिसे हम सत् कहते हैं, वह अपरिवर्तनशील है । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जो अव्यक्त है, वह सत् है और जो अव्यक्त सत् के रूप में व्यक्त हो गया वह असत् है । इससे स्पष्ट होता है कि असत् संसार और शरीर की स्वतंत्र सत्ता नहीं है । असत् की सत्ता सत् के कारण है । सत् के असत् से दूर होते ही असत् खो जाता है और शेष केवल सत् रह जाता है क्योंकि सत् के अभाव में असत् की सत्ता नहीं रहती । अकेले सत् को सत् कहना भी उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि फ़िर उसके सापेक्ष असत् को भी मानना पड़ता है । असत् की अस्वीकार्यता होते ही सत् के स्थान पर भी केवल तत्व रह जाता है ।
स्वर्ण से बने आभूषण में हमें कड़ा, कण्ठी, अंगूठी आदि दिखाई देते हैं परन्तु उसको गलाने पर केवल एक स्वर्ण तत्व ही शेष रह जाता है उसी प्रकार शरीर भले ही भिन्न-भिन्न प्रतीत हो रहे हों, सबकी सत्ता एक परमात्म-तत्व के कारण ही है । एक परमात्म-तत्व पर ही दृष्टि रखेंगे तो फिर उसको न तो सत् कहा जा सकता है और न ही असत् । न तो सत् है, न ही असत्, केवल एक तत्व ही है, जिसे “है” कहा जा सकता है । यह “है” ही वह तत्व है, जिसका कोई भी वर्णन नहीं किया जा सकता । वह वास्तव में अवर्णनीय है ।
वर्णन असत् का करेंगे तो केवल असत् को ही जान पाएंगे । सत् को असत् के माध्यम से जानने का प्रयास करना व्यर्थ हैं । हाँ, असत् के माध्यम से वर्णन करते हुए दृष्टि सत् पर रखेंगे, तो सत्-असत् दोनों ही खो जाएंगे और शेष रहेगा वह मूल तत्व “है” ही होगा । अतः वर्णनातीत के वर्णन में शब्दों को नहीं पकड़ना है, बल्कि शब्दों के माध्यम से “है” तक पहुँचना है ।
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं -
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।। गीता - 7/7 ।।
हे धनंजय ! मेरे सिवाय इस जगत् का दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है । जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागों में पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह संपूर्ण जगत् मुझ में ही ओतप्रोत है ।
एक लम्बा सूत का धागा लें, उसी धागे की गाँठें लगाते हुए एक माला बना लें । दिखने मे वह एक माला प्रतीत होगी । गंभीरता से अवलोकन करेंगे तो उसमें धागा और मणियाँ पिरोई प्रतीत होगी । अपनी दृष्टि को और सूक्ष्म करेंगे तो देखेंगे कि धागा और मणियाँ, सूत से ही बनी है । फिर उस माला को चाहे जब देख लो, एक सूत के अतिरिक्त कुछ भी नज़र नहीं आयेगा । इस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर पहले तो माला खो जाएगी और फिर मणियाँ और धागा भी खो जाएँगे । अंत में केवल सूत ही दिखलाई देगा ।
इसी माला की तरह यह संसार है, जिसमें विभिन्न चर-अचर, सजीव-निर्जीव, प्रतीत-अप्रतीत आदि सब मणियाँ हैं । सबके मूल में एक परमात्मा (सूत) है । जितनी भी प्रतीति हो रही है अथवा नहीं भी हो रही है, उन सबका कारण एक परमात्मा ही है, उसके अतिरिक्त कोई अन्य किंचितमात्र भी नहीं है । संपूर्ण जगत् में एक परमात्मा के अलावा कोई दूसरा नहीं है । स्वामीजी कहते हैं कि संपूर्ण संसार में एक सूई की नोक जितनी भी जगह ऐसी नहीं है, जहां परमात्मा न हों ।
भगवान ने समझाने की दृष्टि से जो उदाहरण दिया है वह असत् से सत् की ओर संकेत मात्र है । माला, मणियाँ, धागा तो असत् है ही, सूत भी असत् है । सूत से आगे बढ़ें तो कपास का पौधा और पौधे से कपास का बीज और फिर बीज से कपास का पौधा, फिर रूई, धागा, मणियाँ और माला - इस प्रकार एक अंतहीन शृंखला से हमारा सामना हो जाता है । कहने का अर्थ है कि असत् से असत् संसार-चक्र को ही समझा जा सकता है, सत् को नहीं । असत् से तो सत् की ओर मात्र संकेत ही किया जा सकता है ।
इसी प्रकार परमात्मा की ओर लेखन, प्रवचन के माध्यम से सत् का वर्णन करते हुए उसकी ओर संकेत ही किया जा सकता है । वर्णन करते हुए इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि श्रोता/पाठक केवल शब्दों को पकड़ कर ही न बैठ जाए बल्कि शब्दों के अन्तर्हित संदेश के मर्म को समझें अन्यथा वह शब्दों के मायाजाल में ही उलझकर रह सकता है । आज संसार में यही हो रहा है, सब शब्दों को लिए घूम रहे हैं । लेखक शब्दों को आकर्षक रूप देकर पाठक को परोस रहा है, कथाकार शब्दों को बेच रहा है और श्रोता शब्दों को ख़रीदकर उनकी जुगाली कर रहा है ।
शब्द रस प्रदान करते हैं और श्रोता उस रस का सेवन करते हुए सुख अनुभव कर रहा है । स्वामीजी ने इसको ‘सत्संग का सुख’ लेना कहा है । शब्द-रस के सेवन से थोड़े समय बाद रस चूक जाता है और फिर जीवन से वे शब्द भी निकल लेते हैं । जब तक जीवन में उन शब्दों में छिपे संकेत को समझकर आगे नहीं बढ़ेंगे तब तक सभी शब्द अर्थहीन हैं । गुरु द्वारा कहे गए शब्दों का निहितार्थ समझने से ही सत् की ओर दृष्टि जाएगी और शब्द ही ब्रह्म समान हो जाएँगे ।
लेख का मूल विषय है कि क्या परमात्मा सत् भी हैं और असत् भी हैं (गीता - 9/19), या परमात्मा सत् भी हैं, असत् भी हैं और इन दोनों से परे भी हैं (गीता-11/37) अथवा क्या परमात्मा दोनों ही नहीं हैं (गीता-13/12) ? परमात्मा को जानना क्यों इतना कठिन है ? परमात्मा को जानना तब तक कठिन है, जब तक इन्हें हम अपनी बुद्धि के माध्यम से इन्हें जानने का प्रयास करते हैं । इस लेख में पूर्व में भी स्पष्ट किया गया है कि असत् से सत् को नहीं जाना जा सकता क्योंकि असत् ससीम है, बुद्धि ससीम है और सत् असीम है, परमात्मा असीम है ।
परमात्मा को जानने के प्रयास में ही कभी उसको सत् कहा जाता है, कभी असत्, कभी इनसे परे भी और कभी असत्-सत् दोनों ही नहीं । जब एक परमात्मा से ही पूरी सृष्टि का आविर्भाव हुआ है तो परमात्मा उसके प्रत्येक अवयव में उपस्थित है, किसी भी स्थान को उनसे विहीन नहीं कहा जा सकता । साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना है कि सृष्टि के केवल एक अवयव को देखकर यह भी नहीं कहा जा सकता कि परमात्मा इतने से ही हैं । वह भी परमात्मा है परंतु परमात्मा केवल इतने से भी नहीं है । तभी ऋषियों ने इसको नेति-नेति कहा है ।
असीम को एक सीमा में नहीं बांधा जा सकता । परमात्मा स्वयं ही सृष्टि बने हैं और सृष्टि का विस्तार कहाँ तक है, वैज्ञानिक अभी तक उसकी सीमा निर्धारित नहीं कर पा रहे हैं । कभी कर भी नहीं पाएंगे क्योंकि जब भी वे सृष्टि की सीमा निश्चित करने वाले होते हैं कि उस सीमा से परे कोई एक अवयव नज़र आ जाता है । अभी गत दिनों ही पृथ्वी से 5 करोड़ प्रकाश वर्ष दूर एक नए तारे को खोजा गया है ।
अंधों का एक गाँव था । वहाँ के सभी मनुष्य अंधे थे, कोई एक आध ऐसा था जिसको कुछ-कुछ दिखलाई पड़ता था । कोई बीमारी रही होगी वहाँ । कुछ समय पहले तक, जब स्वास्थ्य सेवाओं को व्यापक रूप में विस्तार नहीं मिला था तब भी कई गाँव ऐसे होते थे जहां के निवासियों को रात में ही क्या दिन में भी देखने में मुश्किल होती थी । ऐसे ही कोई गाँव में एक दिन हाथी आ गया ।
हाथी आ क्या गया था, साधुओं की एक टोली उस हाथी को लेकर वहाँ आ गई थी । हाथी पालतू था । गाँव के व्यक्ति हाथी के बारे में जानते नहीं थे । बड़ी संख्या में वहाँ के निवासी कोतुहलवश चौपाल में आ गये । सबने हाथी को चारों ओर से घेर लिया और अपने हाथ से उसको टटोलने लगे । किसी का हाथ उसकी पूँछ पर था,कोई उसके पैरों को टटोल रहा था, कोई उसकी बल खाती सूंड के साथ हाथ को इधर उधर कर रहा था । कहने का अर्थ है कि सभी अपने-अपने विवेक अनुसार हाथी को अनुभव कर रहे थे ।
सायंकाल वहाँ का एक निवासी जिसकी आँखें ठीक थी, गाँव लौटा । प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभव के आधार पर हाथी का वर्णन कर उसको सुना रहा था । कोई हाथी को खंभे (पाँव) जैसा कह रहा था, कोई पतली डोर (पूँछ) के समान बता रहा था । एक ने तो उसको झूले की तरह बता दिया क्योंकि उसने हाथी की सूंड़ का अनुभव किया था । क्या केवल पांव हाथी है या पूँछ हाथी है या केवल उसकी सूँड़ हाथी है ? नहीं सभी अवयव मिलकर हाथी है, कोई अकेला एक अवयव हाथी नहीं हो सकता ।
हाथी एक, परंतु उसके वर्णन में भिन्नता क्योंकि उसको टटोलने वाले सभी अंधे थे । अंधा अर्थात् अज्ञानी । अज्ञानी कभी असीमता की बात नहीं करता, समग्रता की बात नहीं करता क्योंकि वह अल्प ज्ञान यानि अधूरे ज्ञान पर ही अटक जाता है । कहावत है - 'अध जल गगरी छलकत जाय' । घड़े में थोड़ा सा जल डाल दें और फिर उसको लेकर चलें तो घड़े में से जल छलककर बाहर गिरने लगता है । अज्ञानी की यही स्थिति है । अपने को ज्ञानी समझकर अधूरे ज्ञान को इधर उधर बाँटता रहता है ।
घड़े को जब पूर्णरूपेण जल से भर दिया जाता है, तब उसको सिर पर रखकर कोसों दूर बिना जल को छलकाए ले जाया जा सकता है, उससे एक बूँद भी बाहर नहीं गिरती । यह ज्ञानी की स्थिति है । ज्ञानी सब कुछ जानकार मौन हो जाता है, क्योंकि उसको ज्ञान हो जाता है कि परमात्मा अगम है । न परमात्मा असत् तक सीमित है और न ही उनको केवल सत् ही कहा जा सकता है । उनके वर्णन के लिए प्रयोग में लिए जाने वाले सभी शब्द एक दूसरे की सापेक्षता से कहे जाते हैं । उन शब्दों को पढ़-सुनकर भ्रमित नहीं होना है । सत्य बात तो यह है कि वे अवर्णनीय हैं ।
अवर्णनीय का वर्णन केवल शब्दों के माध्यम से उनकी अगमता को समझाने का प्रयास भर है । शब्दों की सीमा में उलझते हुए परमात्मा को ससीम मान लेना केवल अज्ञानता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । उनकी असीमता ही उनको अगम बनाती है ।
परमात्मा को जब तक समग्र रूप से नहीं जाना जाएगा, तब तक ससीम मानते हुए उनका विभिन्न रूपों में वर्णन किया जाएगा । परमात्मा की समग्रता को पकड़ पाना बुद्धि की बात नहीं है । जिस दिन समग्र रूप से समझ लिया जाएगा तो फिर शब्दों के माध्यम से उनका वर्णन करना असंभव हो जाएगा । प्रत्येक शब्द उनकी विशालता के सामने बौना है । यही कारण है कि अध्यात्म की सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचकर साधक मौन हो जाता है, चुप्पी साध लेता है ।
परमात्मा को असत् संसार के सापेक्ष सत् कहा गया है अन्यथा यह नहीं कहा जा सकता कि असत् परमात्मा नहीं है । असत् भी परमात्मा है क्योंकि वे अपने आनन्द के लिए स्वयं ही असत् बने हैं । असत् भी परमात्मा है, इसका अर्थ यह नहीं है कि परमात्मा असत् तक ही सीमित है । सीमित दृष्टि रखने वाले असत् को ही परमात्मा मान इतिश्री कर लेते हैं तभी तो साधारण व्यक्ति मूर्ति पूजा करते हुए मंदिर से बाहर नहीं निकल पा रहा है । परमात्मा मंदिर तक ही सीमित नहीं है, वे तो संसार के कण-कण में व्याप्त है ।
परमात्मा सत् हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे केवल सत् तक ही सीमित है । वे न तो असत् तक सीमित है और न ही सत् तक, इसका अर्थ है कि वे सत्-असत् , इन दो तक ही सीमित नहीं है । इन दोनों से परे भी वे हैं । अतः जब वे ही असत् हैं, सत् हैं और इन दोनों से परे भी हैं, इसका अर्थ हुआ कि केवल एक वे ही हैं, उनके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं । फिर उनको असत्, सत् कहना भी अर्थहीन हैं । उनको सत् और असत्, नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनकी व्यापकता को स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक शब्द अर्थहीन है ।
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि एक परमात्मा ही सर्वत्र है, सर्वदा है । संसार के प्रत्येक जीव में परमात्मा है । परम सत्ता एक, नाम रूप अनेक । केवल अपने आनंद के लिए भगवान ने विभिन्न रूप धरे हैं । पासे बनकर वे ही जुआ खेलने वाले बन गए हैं । जुए में हारते भी वही हैं, जीतते भी वही हैं । जब सब कुछ वही हैं तो ऐसा कहना भी अनुचित जान पड़ता है कि कोई जुआ भी है, कोई हारता अथवा जीतता भी है । एक “है” के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । अतः “यह भी है, यह भी है” अथवा “यह नहीं, यह नहीं” कहने में कोई सार नहीं है । केवल एक “ है” ही है । उसी “है” को सबमें देखना है ।
मूर्ति की पूजा करते हुए उसमें परमात्मा को देखना सही है परंतु केवल मूर्ति ही परमात्मा है, ऐसा देखना सही नहीं है । सभी जीवों में और मूर्ति में समान रूप से परमात्मा को देखना सही देखना है । मूर्ति पत्थर से बनी है, जोकि निर्जीव है । उसमें की गई प्राण-प्रतिष्ठा हमारे भाव को दृढ़ता प्रदान करती है कि इसमें भी सजीव की तरह परमेश्वर है ।
भागवत जी में भगवान ने कहा है -
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थित: सदा ।
तमवज्ञाय मां मर्त्य: कुरुतेऽर्चाविडम्बनम् ।। भागवत - 3/29/21 ।।
अर्थात् मैं आत्मारूप से सभी जीवों में स्थित हूँ, इसलिए जो लोग मुझ सर्वभूत स्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वाँग मात्र है ।
प्राण-प्रतिष्ठा के बाद पत्थर की मूर्ति को भगवान मान कर उसकी पूजा करते हैं और संसार के जीवों से राग-द्वेष का भाव रखते हैं तो ऐसी मूर्ति-पूजा को भगवान ने आडंबर कहा है । पड़ौस का भाई भूखा है और भगवान की मूर्ति को छप्पन भोग लगाया जा रहा है, ऐसे भोग को परमेश्वर कदापि स्वीकार नहीं करते । उनकी दृष्टि में यह सब दिखावा मात्र है । ऐसी ईश्वरीय पूजा स्वाँग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।
भगवान ऐसी पूजा के बारे में कहते हैं कि -
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।।
हित्वार्चां भजते मौढ़्याद्भस्मन्येव जुहोति स: ।। भागवत -3/29/22 ।।
मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूँ, ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है ।
बिना अग्नि के हवन कुण्ड में डाली जा रही सामग्री से यज्ञ संपन्न नहीं होता । यज्ञ के लिए तो प्रत्येक प्राणी को परमात्म-स्वरूप देखते हुए उनकी सेवा करनी होती है । आपने उन प्राणियों की तो उपेक्षा कर दी और केवल मूर्ति के पूजन में लगे हुए हो, ऐसी पूजा निष्फल है । प्रतिमा में तभी ईश्वर को देखा जा सकता है, जब सभी चराचर जीवों में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव हो । जिस दिन ऐसा होने लग जाएगा, उसी दिन सबका परमात्म-प्रतिमा पूजन सफल हो जाएगा ।
सनातन धर्म में परमात्मा की उपासना करने के विभिन्न तरीक़े हैं । निराकार मानकर भी उनकी उपासना की जाती है और साकार समझकर मूर्ति पूजा भी की जाती है । आदिकाल से संत बताते आए हैं कि साकार और निराकार में कोई भेद नहीं है । ‘केवल मेरी पूजा पद्धति ही श्रेष्ठ है’, ऐसा कहना भी अनुचित है । निराकार को मानने वाले प्रायः साकार पूजा विधि का उपहास उड़ाते हैं । न तो परमात्मा साकार तक सीमित है और न ही वे केवल निराकार हैं । वे निराकार से साकार रूप कभी भी धारण कर सकते हैं । निर्गुण निराकार अपने आनंद के लिए ही सगुण साकार रूप में प्रकट होते हैं । इसलिए निराकार-साकार, निर्गुण-सगुण के द्वन्द्व में उलझने वाला ही अपनी राह से भटकता है ।
साकार का एक निश्चित आकार है, जिसके कारण व्यक्ति उसमें अटक सकता है । अटका तभी जाता है, जब पकड़ने को कोई आकार मिल जाए और साकार में वह आकार है । यही कारण है कि मूर्ति-पूजा करने वाले मंदिर की मूर्ति पर ही रुक जाते हैं, आगे की यात्रा नहीं करते । निराकार में पकड़ने को कुछ भी नहीं है, अतः उसमें अटकने का डर तो नहीं है परंतु राह से भटकने का डर अवश्य है । ज्ञानी व्यक्ति निराकार को महत्वपूर्ण मानता है जिससे उसके पास पकड़ने को केवल अपना शरीर ही रहता है । शरीर को न छोड़ पाने के कारण (देहासक्ति) अर्थात् शरीर में आसक्त रहने के कारण वह अपनी राह से भटक सकता है ।
इसलिए सर्वोत्तम मार्ग है - सबमें और सर्वत्र परमात्मा को देखना, जैसे कि एकनाथजी महाराज देखते थे । फिर न तो कहीं अटकने का डर है और न ही भटकने का ।
कहा जाता है कि यदि गंगोत्री के गंगा-जल से रामेश्वरम् में भगवान का अभिषेक किया जाय तो शंकर भगवान शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं । सदियों से यह परम्परा चली आ रही है । प्रत्येक सनातनी की अपने जीवन में यही इच्छा होती है कि वह उत्तराखण्ड जाकर गंगा-जल लाए और रामेश्वरम् जाकर उस जल से शंकर भगवान का अभिषेक करे ।
एकनाथजी महाराज को कौन नहीं जानता । वे भगवान के परम भक्त हुए हैं । एक बार एकनाथजी महाराज साधु-संतों के साथ हिमालय से गंगा-जल लेकर रामेश्वरम् जा रहे थे । उस समय आवागमन के द्रुतगामी साधन थे नहीं, अतः सभी पैदल ही जा रहे थे । सभी संतों ने देखा कि रास्ते में एक गधा नीमबेहोशी की अवस्था में पड़ा तड़फ़ रहा है । ऐसा प्रतीत होता था कि असहनीय गर्मी में प्यास के कारण वह व्याकुल है । प्रत्येक के पास मात्र एक-एक लोटा जल ही तो था । किसी ने उस गधे को जल पिलाना उचित नहीं समझा क्योंकि सब सोच रहे थे अगर इतना सा जल इस गधे को पिला देंगे तो फिर शंकर का अभिषेक किससे करेंगे ?
एकनाथजी से गधे की व्याकुलता देखी नहीं गई । वे उसे जल पिलाने को तैयार हो गए । एकनाथजी को उनके साथियों ने गधे को जल पिलाने से मना किया और यात्रा पर आगे बढ़ गए । फिर भी एकनाथजी महाराज ने जलपात्र को खोला और गधे को सारा जल पिला दिया । कहते हैं कि जल पीते ही गधे के स्थान पर शंकर भगवान प्रकट हो गए । उन्होंने एकनाथजी को गले लगा लिया और बोले - “पुत्र ! तेरा जलाभिषेक स्वीकार करता हूँ ।”
एकनाथजी महाराज ने सबमें परमात्मा को देखा, इसलिए गधे में भी उन्हें शंकर दिखलाई पड़े । अन्य साथी संत केवल रामेश्वरम् में भगवान को देख रहे थे । भगवान केवल रामेश्वरम् तक ही सीमित है, यह मानना सही नहीं है । भगवान तो सर्वव्यापी है । वे प्रत्येक काल में और प्रत्येक स्थान पर हैं । हमें मंदिरों में भगवान को देखकर वहाँ से भी बाहर निकलना होगा क्योंकि केवल मंदिर तक ही भगवान का क्षेत्र सीमित नहीं है । प्रत्येक जीव-निर्जीव का शरीर भी भगवान का मंदिर है । जहां तक दृष्टि जाती है या नहीं भी जाती, सर्वत्र उसकी उपस्थिति है । जहां तक हमारी सोच जाती है, उससे भी आगे भगवान हैं । अतः केवल मंदिर में ही उसे देखकर वहीं पर रूकना नहीं है । स्वामीजी कहते हैं -
“यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं होई।
ताँ के परे अगम है सोई॥”
भगवान को एक सीमित क्षेत्र में देखना सही नहीं है । “यह नहीं, यह नहीं” कहने का अर्थ है कि मंदिर में भगवान को देखना हाथी के एक अवयव को देखने के समान है क्योंकि केवल एक पैर/ पूँछ को जान लेना ही हाथी को जानना नहीं है । इसलिए जहां भी परमात्मा को देखें, उसका वर्णन करने से पहले विचार करें कि “यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं होई” । तो फिर परमात्मा कैसा है ? जैसा कि कहा गया है - “ ताँ के परे अगम है सोई” अर्थात् जहां जहां परमात्मा को देखते हैं उससे भी परे, उससे भी आगे, जिसको हम जान नहीं सकते, जिसका हम वर्णन नहीं कर सकते, वही परमात्मा है ।
मनुष्य की सबसे बड़ी कमी है कि वह जिसको जानना चाहता है, उसको अपनी बुद्धि के बल से ही जानना चाहता है । बुद्धि की भी एक सीमा है । जहां से मनुष्य को बुद्धि विरासत में मिली है, वह प्रकृति है । अभी तक बुद्धि से प्रकृति की सीमा भी जानी नहीं जा सकी है फिर परमात्मा को जानना तो दूर की कोड़ी है । प्रकृति ने इस जगत् को बनाया, मनुष्य ने इसी जगत् में अलग से अपना एक संसार बसा लिया । संसार में आसक्ति रखकर भी वह अपने रचे संसार के रहस्यों को भी अभी तक जान पाने में असफल रहा है । अगर वह इस क्षेत्र में जरा सा भी सफल हो जाता तो दुःखी नहीं होता । इसीलिए संसार को दुखालय कहा जाता है । संसार को जानने के लिए संसार से अनासक्त होना पड़ता है, उससे दूर होना पड़ता है । दूर होते ही संसार की वास्तविकता प्रकट हो जाती है ।
स्वरचित संसार टिका है, आपके स्वार्थ पर । केवल आपके ही स्वार्थ पर नहीं बल्कि प्रत्येक सांसारिक प्राणी के स्वार्थ पर । जब आप संसार से अपना स्वार्थपना छोड़ देते हैं अर्थात् संसार से स्वयं को अलग कर लेते हैं, तब प्रत्येक सांसारिक प्राणी को चोट पहुँचती है । फिर देखिए ! वह प्राणी आपसे सांसारिक सम्बन्ध कैसे निभाता है ? सभी सांसारिक सम्बन्ध स्वार्थ पर ही तो टिके है, स्वार्थ पूरा होने की संभावना समाप्त हुई नहीं कि सम्बन्ध समाप्त हुआ । जब तक हम स्वार्थवश संसार से जुड़े हैं, तब तक उसकी वास्तविकता को जान पाना असम्भव है । संसार से दूर होते ही, उससे भिन्न होते ही संसार को जान लेंगे ।
प्रश्न है कि संसार को तो इस प्रकार जाना जा सकता है परन्तु परमात्मा को जानने के लिए क्या करना होगा ? चलिए ! लेख को समापन की ओर ले जाते हुए इस प्रश्न पर भी विचार कर लेते हैं ।
परमात्मा को जानने के लिए संसार से सम्बन्ध समाप्त कर लेना ही पर्याप्त है । स्वामीजी कहते हैं कि संसार से भिन्न होकर संसार को जाना जा सकता है और परमात्मा से अभिन्न होकर परमात्मा को । संसार से भिन्न हो जाना ही परमात्मा से अभिन्न होना है । इस ब्रह्मांड में दो ही मुख्य हैं - एक तो प्रकृति और दूसरा पुरुष । प्रकृति से विमुख पुरुष परमात्मा के सम्मुख स्वतः ही हो जाता है । प्रकृति से दूर होकर प्रकृति का वर्णन किया जा सकता है क्योंकि प्रकृति को जानने का साधन स्वयं प्रकृति ने ही आपको दिया है । प्रकृति के दिए साधन से परमात्मा को जाना नहीं जा सकता क्योंकि ये साधन ससीम का वर्णन करने के लिए हैं, असीम का वर्णन करने के लिए नहीं ।
मनुष्य के नेत्रों की भी एक सीमा है, उससे दूर वह नहीं देख सकती । इसी प्रकार बुद्धि की भी एक सीमा है, वह कल्पना भी केवल उसी की कर सकती है, जिसको उसने अपनी ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से जीवन में कम से कम एक बार अनुभव किया है । आपने पक्षियों को आसमान में उड़ते देखा है, ऐसे में आप कल्पना भी किसी पक्षी की ही कर सकते हैं उससे भिन्न किसी ‘न देखी, न सुनी’ वस्तु/ जीव की कल्पना नहीं कर सकते ।
परमात्मा का अनुभव अतीन्द्रिय अनुभव है, उसका वर्णन करने को वाणी भी मौन हो जाती है । परमात्मा की कल्पना करते हुए उसका जो भी वर्णन किया जा सकता है, वह हमारे देखे, सुने, छुए, सूंघे अथवा स्वाद के अनुभव पर आधारित होता है । परन्तु क्या परमात्मा इतने से हैं ? नहीं ! परमात्मा इतने से और ऐसे नहीं हो सकते । वे जैसे हैं, वैसे हैं, कैसे भी हैं - कल्पनातीत हैं । इसीलिए उनके बारे में कहा गया है - “ यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं होई” अर्थात् नेति-नेति ।
सार-संक्षेप
“वासुदेव सर्वम्” अर्थात् सब कुछ और सब जगह एक परमात्मा ही है । जब एक परमात्मा ही है तो “सर्वम्” कहने का भी कोई औचित्य नहीं है । कल, आज और कल, सत्, असत् और इन दोनों से परे, जहां तक दृष्टि जाती है अथवा नहीं भी जाती सर्वत्र और सर्वदा एक परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । उसको टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट कर देखना सही देखना नहीं है । अलग-अलग रूपों में देखते हुए किसी एक को परमात्मा मान लेने तक का आग्रह ही मनुष्य की बुद्धि में समा सकता है परंतु विवेकवान की दृष्टि में परमात्मा केवल इतने से ही नहीं है । जितनी दूर दृष्टि जाती है, जितनी सीमा तक आपने उस असीम को माना है, वह सब व्यर्थ है क्योंकि भौतिक दृष्टि उनको देखने में सक्षम नहीं है और न ही उनको किसी एक सीमा में बांधा जा सकता है ।
उनका जो भी वर्णन किया जाता है, वह उस मूल को जानने की तरफ़ संकेत मात्र है । भरसक प्रयास करने के उपरांत भी उनको जानना संभव नहीं है और न ही कोई वाणी अथवा लेखनी ऐसी है, जो उसका समग्र रूप से वर्णन कर सके । जितना भी उनका वर्णन किया गया है, वह उनके एक छोटे से अंश का ही किया जा सका है, संपूर्ण का नहीं । ज्ञानी व्यक्ति के लिए यह वर्णन संकेत मात्र है, जिससे वह उन्हें उसी प्रकार जान सकता है जैसे जल की एक बूँद से समुद्र को जाना जाता है । फिर भी एक बूँद के वर्णन से समुद्र का वर्णन नहीं हो सकता । आत्मा, परमात्मा का अंश अवश्य है, परंतु वह परमात्मा तभी हो सकती है जब वह स्वयं अपने मूल स्रोत में समा जाए, अपने आपको परमात्मा में विलीन कर दे । जिस दिन ऐसा हो जाएगा, परमात्मा का वर्णन करने के लिए वाणी और लेखनी दोनों ही मौन हो जायेंगी क्योंकि परमात्मा अगम है, असीम है उनका वर्णन नहीं किया जा सकता ।
इसीलिए संतजन कहते हैं कि -
“यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं होई ।
ताँके परे अगम है सोई ।।”
“नेति - नेति”
परमात्मा ज्ञेय अवश्य है परन्तु साथ ही अगम भी है अर्थात् वर्णनातीत है । उस असीम और अगम का वर्णन करने में लेखनी भी असमर्थ है । लेखनी की भी वर्णन करने की एक सीमा होती है ।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरिः शरणम् ।।