Tuesday, September 3, 2024

मृत्यु-बोध

 मृत्यु - बोध 

    श्री नारायण स्वामी कहते हैं -

        दो बातन को भूल मत, जो चाहत कल्याण ।

         नारायण एक मौत को, दूजो श्री भगवान ।।

                      (अनुराग-रस -81)

अर्थात् अगर अपना कल्याण चाहते हो तो इन दो बातों को कभी न भूलें, एक तो शरीर की होने वाली मृत्यु को और दूसरी परमात्मा को ।

           इस ब्रह्मांड में दो ही सत्य है - एक तो असत् संसार का सत्य अर्थात् शरीर की मृत्यु होना और दूसरा  परमात्मा । इसलिए दोनों को स्मृति में सदैव बनाए रखना आवश्यक है । इसमें से किसी एक का भी बोध हो जाए तो दूसरे का बोध हो जाना सुगम हो जाता है । मृत्यु को सदैव अपनी स्मृति में बनाए रखने से व्यक्ति शरीर और संसार की नश्वरता को कभी नहीं भूलता । व्यक्ति को मृत्यु-बोध हो जाना ही उसे आत्म- बोध की ओर ले जाता है ।

           हम सब इस शरीर की मृत्यु हो जाने की कल्पना मात्र से ही भयग्रस्त हो जाते हैं । जिसने इस संसार में जन्म लिया है, उसका मरना भी निश्चित है । हमारा शरीर भी इस नियम से परे नहीं है । फिर मृत्यु की कल्पना से ही हम क्यों सिहर उठते हैं ?  इसके पीछे हमारा अज्ञान है । वास्तव में केवल शरीर मरता है, हम नहीं । हम अमर हैं । जिस दिन हमें अपनी अमरता और इस शरीर की मृत्यु का ज्ञान हो जाएगा, तब हमारा मृत्यु-भय भी समाप्त हो जायेगा । 

         मृत्यु का सत्य होना संसार की नश्वरता को सिद्ध करता है । यह ज्ञान हो जाने से नश्वर संसार और शरीर में हमारी आसक्ति और ममता समाप्त हो जाएगी और जो शेष रहेगा वह शाश्वत परमात्मा होगा । इससे स्पष्ट होता है कि मृत्यु-बोध ही आत्म-बोध का रास्ता प्रशस्त करता है ।

       अभी गत दिनों की बात है, घर के सामने से एक शव-यात्रा जा रही थी । यात्रा में शामिल सभी एक स्वर में बोलते जा रहे थे - “राम नाम सत्य है, राम नाम सत्य है” । जैसा कि संसार में होता आया है, शाम तक हम लोग उस शव-यात्रा को लगभग भूल चुके थे । पड़ौस के कुछ बच्चे हमेशा की तरह गली में आपस में कोई खेल खेल रहे थे । उनकी माताएँ घर के मुख्य द्वार पर बैठी आपस में बतिया रही थी । तभी चार-पाँच वर्ष का एक बालक तुतलाती आवाज़ में बोल पड़ा - ‘राम नाम सत्य है, राम नाम सत्य है’ । उसकी माता ने तत्काल ही ‘ऐसा नहीं बोलते’ कहकर उसको डाँटकर चुप करा दिया ।

            मैं उसी समय अपने घर के भीतर प्रवेश कर ही रहा था कि बच्चे पर पड़ रही डाँट को सुनकर मुस्कुराने लगा । मुझे मुस्कुराते देखकर उसकी माँ बोल पड़ी कि आप हंसे क्यों ? मैंने कहा कि आपका बच्चा सही ही तो कह रहा था कि राम नाम सत्य है । सही बात कहने पर भी आपने बच्चे को डाँटा, इस कारण से मुझे हंसी आ गई । बच्चे को असत्य बोलने पर तो सभी डाँटते हैं परंतु आपने तो उसको सत्य बोलने पर डाँटा । इतना कहकर मैं घर में प्रवेश कर गया । वह पीछे से बड़बड़ाती रही कि किसी की मृत्यु पर बोले जाने वाले वाक्य को भला कोई साधारण समय में भी बोलता है ?

          एक महिला का ऐसा व्यवहार उसके मृत्यु-भय को प्रदर्शित करता है । सब जानते हैं कि जिसने जन्म लिया है, उसकी एक न एक दिन मृत्यु होनी है, फिर भी कोई मरना नहीं चाहता । कोई भी मृत्यु को सहज भाव से स्वीकार नहीं करता । जिस दिन हमें मृत्यु-बोध हो जाएगा अर्थात् जिस दिन हम मृत्यु को भली भाँति समझ लेंगे, उस दिन हमारे मन से मृत्यु का भय निकल जाएगा और हम किसी भी दिन आने वाली मृत्यु का खुले दिल से स्वागत करेंगे ।

         प्रत्येक जीव की सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह एक ही शरीर में सदैव रहना चाहता है, मरना नहीं चाहता । वह जीना चाहता है क्योंकि उसे अपना शरीर सबसे प्रिय लगता है । सुअर भले ही गंदगी में रहता हो, गंदगी खाता हो परंतु शरीर को छोड़ने से वह भी डरता है क्योंकि उसे भी अपना शरीर प्रिय लगता है । शरीर प्रिय इसलिए लगता है क्योंकि इस शरीर के माध्यम से ही वह संसार के समस्त विषय-रस का पान कर रहा है । ये विषय उसे सुखानुभूति कराते हैं । प्रत्येक शरीर के रहने की भी एक निश्चित सीमा होती है, वह सदैव के लिए तो रह नहीं सकता । इस एक शरीर के जीवन को ही सम्पूर्ण जीवन मान लेना ही जीव की सबसे बड़ी भूल है । 

       शरीर की मृत्यु के बाद भी जीवन है, यह वर्तमान शरीर के रहते सुगमता से समझ में नहीं आता । इसका कारण है कि जीव उसी शरीर को ही अपने लिए उपयुक्त पाता है । हमें यह समझना होगा कि जीवन तब तक है, जब तक विभिन्न शरीरों से जन्म लेने की अनंत श्रृंखला समाप्त नहीं हो जाती । जन्म और मृत्यु, ये दो शब्द ऐसे हैं, जो हमारे जीवन से गहरे जुड़े हैं । प्रत्येक शरीर का संसार में आना उसका जन्म लेना है और शरीर का समय पाकर क्षीण होते होते समाप्त हो जाना उसकी मृत्यु है । जीवन केवल एक जन्म के शरीर तक सीमित नहीं है । जीवन तो अनेक शरीरों के माध्यम से चलने वाला शाश्वत सत्य है । इसी प्रकार प्रत्येक शरीर की मृत्यु होना भी एक शाश्वत सत्य है । 

             मनुष्य-जन्म में भी जीवन को दो प्रकार से जिया जा सकता है - सुषुप्त रहकर अथवा चैतन्य होकर । सुषुप्ति का जो जीवन है वह सदैव जीने की इच्छा रखता है । जीव जीवनभर अपने शरीर को सुरक्षित रखने की जुगत में ही लगा रहता है । मनुष्य का शरीर भी अन्य प्राणियों के शरीर से जरा भी भिन्न नहीं है । जैसे संसार के सभी प्राणियों का शरीर एक दिन मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी प्रकार मनुष्य का शरीर भी एक दिन मरेगा ।

        शरीर का मरना जीव का मरना नहीं है, इस बात को कोई सहज ही स्वीकार नहीं करता । वह इस शरीर को अक्षुण बनाए रखना चाहता है, यह जानते हुए भी कि इस शरीर का धीरे-धीरे क्षय ही होना है । मनुष्य के भय का कारण उसकी इस एक शरीर में ही जीते रहने की इच्छा है । जब आपके समक्ष किसी कार्य को पूरा करने की एक निश्चित सीमा होती है, तब आप उस कार्य को जागरूक रहकर निश्चित समय में पूरा कर लेते हैं । इसका अर्थ है कि आप सोए हुए नहीं हो । सदैव जाग्रत रहना ही जीवन में आवश्यक है ।

         दूसरे प्रकार का मनुष्य-जीवन चैतन्य का जीवन है । चैतन्य जीवन केवल वही व्यक्ति जी सकता है, जिसको मृत्यु का बोध हो गया हो । मृत्यु का बोध ही आपको आत्म-बोध के द्वार तक ले जाता है । इस शरीर का एक न एक दिन अन्त होना निश्चित है, जब इस बात का आपको ज्ञान हो जाता है, तब आपके जीवन की दशा और दिशा दोनों ही बदल जाती है । यहीं से आप आत्म-बोध को उपलब्ध होना प्रारम्भ करते हैं । आत्म-बोध का जीवन ही चैतन्य-जीवन है ।

        श्री नारायण स्वामी यही तो कह रहे हैं कि अगर आप अपना कल्याण चाहते हैं तो मौत और भगवान, इन दोनों को कभी भी न भूलें । ये बातें सदैव स्मृति में बनी रहे, उसी को तो बोध होना कहते हैं - मृत्यु-बोध और आत्म-बोध । प्रश्न उठता है कि मनुष्य को अपने जीवन में मृत्यु-बोध क्यों नहीं हो पाता ? मृत्यु-बोध न हो पाने का सबसे बड़ा कारण है - व्यक्ति का अपने अहम् के साथ जीना । शरीर को ही स्वयं का होना मान लेना ही मनुष्य का अहम् है । अहंकारी व्यक्ति सोचता है कि “मैं” ही संसार में सर्वश्रेष्ठ हूँ, दूसरा मेरे समकक्ष तो क्या, कहीं आस-पास तक भी नहीं है । स्थूल शरीर मात्र एक फूंक (प्राण) से संचालित होता है । जिस दिन प्राण-पखेरू उड़ जाएँगे, उस दिन यह केवल मिट्टी बनकर रह जाएगा और सगे-सम्बन्धी तुरन्त ही उसे फूंक (जला) भी आएँगे ।

             विडंबना है कि स्थूल शरीर में आसक्त व्यक्ति इस फूंक (प्राणवायु) के प्रवाह को तो भूल जाता है और एक नई फूंक (अहंकार) पाल बैठता है । स्थूल शरीर में महत्व प्राण का है अर्थात् इस शरीर का महत्व तभी तक है जब तक उसमें प्राण का प्रवाह हो रहा है । यह प्राण परमात्मा से उत्पन्न होता है और परमात्मा के ही आश्रित है । अतः शरीर के रहते व्यक्ति को अहम् (आत्मा) का बोध होना आवश्यक है, केवल अहम् (मैं) अर्थात् अहंकार में उड़ते रहना उसकी भयंकर भूल है ।

     आधुनिक विज्ञान इस शरीर के बारे में जितना जानता है, उससे अधिक सूक्ष्मता के साथ हमारे ऋषि-मुनियों ने इसका वर्णन किया है । विडम्बना है कि अभी भी इस शरीर को जानने के लिए आयुर्विज्ञान संस्थान में विद्यार्थी किसी मृत देह का विच्छेदन करते हुए उसकी सूक्ष्म स्थूलता को समझने का प्रयास ही कर रहे हैं । आयुर्विज्ञान यह नहीं जानता कि स्थूल शरीर के अतिरिक्त दो शरीर और भी होते हैं - सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर । सूक्ष्म-शरीर में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार आते हैं, जो अंतःकरण चतुष्ट्य कहलाते हैं । बाह्य करण में स्थूल शरीर की दस इंद्रियाँ आती हैं । कारण शरीर हमारे वे संस्कार है, जोकि नया स्थूल शरीर प्राप्त कराने में कारण बनते है । मनुष्य जीवन का उद्देश्य तो इन तीनों शरीरों से भी परे चले जाना है ।

           तीनों शरीरों से भी अधिक सूक्ष्मता की बात करें तो ऋषियों ने शरीर  के पाँच कोश बताए हैं - अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश । इन पाँच कोशों को जो जीवन देता है वह परमात्मा है । जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है जो इन पाँचों कोशों में तरंगों के रूप में सतत प्रवाहित होती रहती है । परमात्मा इस तरंग (जीवात्मा) का मूल स्रोत है । इन पांचों कोशों से मुक्त हो जाना केवल मनुष्य जीवन में ही संभव है ।

          अन्न से स्थूल शरीर का निर्माण होता है, प्राण से उस शरीर का संचालन होता है । मन और बुद्धि सूक्ष्म शरीर (मनोमय और विज्ञानमय कोश) के अन्तर्गत है, जिनका उपयोग कर जीव सुख-दुःख का भोग करता है । वहीं विवेक का सदुपयोग कर मनुष्य आनन्दमय कोश के माध्यम से आनन्द को उपलब्ध होता है ।

            हमारा यह लेख चूँकि स्थूल शरीर की मृत्यु का विवेचन कर रहा है अतः इस लेख में हम सीमा का अतिक्रमण नहीं करेंगे अर्थात् केवल शरीर की मृत्यु तक ही विवेचन को सीमित रखेंगे । मृत्यु जो होती है वह स्थूल शरीर की होती है और यह स्थूल शरीर प्राण पर आश्रित रहता है, इसलिए प्राणमय कोश की अल्प रूप से चर्चा करना आवश्यक है । जिस दिन प्राण स्थूल शरीर का साथ छोड़ जाते हैं, तत्काल ही उसकी मृत्यु हो जाती है । प्राण को वायु भी कहा जाता है । प्राण पाँच प्रकार के हैं, जो इस शरीर के प्रत्येक कोश में विचरण करते हुए उसे जीवन्त बनाए रखते हैं । ये पाँच प्राण हैं - प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान । इन प्राणों में होने वाले विकार ही शरीर में व्याधि पैदा करते हैं । प्राण (वायु/फूंक) की इस स्थूल शरीर में क्या भूमिका है ?

           आइए ! एक दृष्टान्त के माध्यम से चर्चा को आगे बढ़ाते हुए इसे समझने का प्रयास करते हैं । एक विरक्त त्यागी सन्त थे । उनका एक शिष्य था । गुरु से ज्ञान प्राप्त कर शिष्य बहुत आगे बढ़ गया । कहने का अर्थ है कि गुरु गुड़ ही रहा और चेला शक्कर हो गया । जीवन में धन के अहंकार के बाद ज्ञान का अहंकार दूसरा सबसे बड़ा अहंकार है । इस शिष्य को भी अपने ज्ञान का अहंकार हो गया । गुरु ने ज्ञान को जिया था जोकि उनके आचरण में स्पष्ट झलकता था, परन्तु शिष्य ऐसे आचरण से कोसों दूर था । निश्चित है कि शब्दों का मायाजाल बुनने में शिष्य अपने गुरु से चार कदम आगे ही रहा होगा । 

              जो शब्दों से श्रोताओं को बाँधने की क्षमता रखते हैं, जगत् उसकी प्रशंसा करता ही है । इस प्रकार उस शिष्य के व्याख्यान की भी भूरि भूरि प्रशंसा होने लगी । कोरे शब्द बंधन पैदा करते हैं, अतः प्रत्येक प्रकार के शब्द-जाल से भी मुक्त होना आवश्यक है । गुरु ने शिष्य को बहुत समझाया कि जब तक ज्ञान को आचरण में नहीं लाया जाएगा तब तक कहे जाने वाले सभी शब्द अर्थहीन होंगे । कोरे शब्दों से श्रोताओं के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकता । जब तक तत्व-बोध नहीं हो जाता तब तक व्याख्यान देना उचित नहीं है । व्याख्यान देना कोई अच्छी चीज नहीं है और न ही कोई बड़ी बात है । व्याख्यान देना व्यक्ति में ज्ञानी होने का अहंकार ही पैदा करता है । ऐसे अहंकार से कोई कोई ही बचता है ।

      शिष्य ने सोचा कि गुरु मेरी प्रशंसा को पचा नहीं पा रहे हैं । वास्तविकता यह है कि अपने शिष्य की प्रगति को देखकर प्रत्येक गुरु को प्रसन्नता ही होती है, जलन होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । हाँ, शिष्य की ज्ञान के क्षेत्र में वास्तविक प्रगति होनी चाहिए । गुरु के समझाने का शिष्य पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा । उसने गुरु का सान्निध्य छोड़ कहीं दूर चले जाने का निश्चय किया । मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यही होती है कि वह चूहे की भाँति हल्दी की छोटी सी गाँठ मिलते ही अपने आपको पंसारी समझने लगता है । ज्ञान अनन्त है और उसकी पूर्णता तक पहुँचने के लिए कई मानव जीवन भी छोटे पड़ जाते हैं ।

          शिष्य अपने आपको गुरु से अधिक ज्ञानी समझने लगा था । गुरु से दूर चले जाना उसने उचित समझा । यह सोचकर एक दिन अपने गुरु को वहीं छोड़ वह शिष्य दूसरी जगह जाकर व्याख्यान देने लगा । उसमें वाक्-चातुर्य तो था ही, उससे प्रभावित होकर आस-पास के सब लोग सुनने के लिए उसके पास आने लगे । व्याख्यान सुनने के लिये बड़े-बड़े धनी लोग यहाँ तक कि स्वयं राजा भी वहाँ आते और प्रभावित होते । सभी उसके व्याख्यान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे । ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि वाक् चातुर्य किसी को भी अपने जाल में उलझा सकता है ।

          चारों ओर शिष्य की प्रशंसा हो रही थी । गुरु तक भी इस बात की खबर पहुँची । बाबाजी को अपने शिष्य पर बड़ी दया आई कि इस प्रकार तो मेरा शिष्य फँस जाएगा । वे सोच रहे थे - “कहाँ तो वह अपने कल्याण की राह पर अग्रसर था और कहाँ अब शब्दों के जाल में उलझता जा रहा है । व्याख्यान तो शब्दों को रोचक तरीक़े से श्रोताओं के समक्ष परोसने की एक कला मात्र है । व्याख्यान देने का मनुष्य के कल्याण से प्रत्यक्ष रूप से कोई सम्बन्ध नहीं है । जैसे तैसे कैसे भी हो, शिष्य को पुनः सही मार्ग पर लाना ही होगा ।” किसी भी गुरु का अपना कोई निजी स्वार्थ नहीं होता । गुरु तो संसार के प्रत्येक जीव का कल्याण चाहते हैं, फिर वह तो उनका शिष्य था ।

        ऐसा सोचकर एक दिन बाबा जी अपने शिष्य के पास पहुँच गए । शिष्य ने देखा तो बोल पड़ा – “अरे ! हमारे गुरु महाराज पधारे हैं ।”  उसने उठकर गुरु को साष्टांग प्रणाम किया । लोगों ने सुना तो सब बड़ी संख्या में इकट्ठे हुए । उनका बड़ा आदर हुआ, प्रशंसा हुई, महिमा गाई गई कि हमारे महाराज के गुरुजी हैं । देखो, कितने बड़े सन्त हैं ? जब उनका शिष्य ही व्याख्यान देने में इतना पारंगत है तो गुरुजी तो बहुत पहुँचे हुए होंगे । हमारा सौभाग्य है कि एक महान संत हमारे यहाँ पधारे हैं । सभी गुरु और शिष्य दोनों की प्रशंसा कर रहे थे । गुरु को अपनी हो रही प्रशंसा से कोई लेना-देना नहीं था, उन्हें तो केवल अपने शिष्य को सही मार्ग पर लाना था । व्यक्ति को अगर गुरु से सही मार्गदर्शन मिल जाए तो उसकी दशा और दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकता है । ये गुरु भी अपने शिष्य के जीवन को परिवर्तित करने का कार्य करने जा रहे थे ।

        एक दिन गुरुजी के सम्मान में बड़ी सभा बैठी । उसमें राजा भी आये हुए थे । अचानक बाबाजी के मन में न जाने क्या आई कि उठकर राजा के पास गये और जोर से ‘भर्र ........’ करके अपानवायु छोड़ दी । लोगों ने देखा कि बाबाजी को तो हम ज्ञानी समझ रहे थे, परन्तु इनमें तो सभा में बैठने तक की सभ्यता नहीं है । ऐसा सोचते हुए सभी लोग उठ गए कि बाबाजी में कुछ आना-जाना नहीं है । हम बाबाजी के बारे में कितना अच्छा सोच रहे थे, ये तो हमारी सोच के ठीक विपरीत निकले । चेला तो बहुत अच्छा है, पर गुरु में दम नहीं है । लोग बड़े नाराज हुए, राजा भी नाराज हुए ।

               प्रतिदिन सभा में गुरु और शिष्य दोनों ही बैठते परन्तु सब शिष्य को ही देखते रहते, गुरु की तरफ़ उचटती दृष्टि भी नहीं डालते । अब लोग केवल शिष्य का प्रवचन सुनते, उनके गुरु की तरफ़ कोई झांकता तक नहीं था । कई दिनों तक बाबाजी की इसी प्रकार उपेक्षा होती रही । एक दिन गुरुजी ने वहाँ से जाने की इच्छा प्रगट की । शिष्य के प्रवचन के बीच ही बाबाजी ने कहा कि आज हम यहाँ से चले जाएँगे । उनके जाने की बात सुनकर लोग मन में बड़े प्रसन्न हुए कि अच्छी बात है, आफत मिटी । महाराज के गुरुजी हैं, इसलिए जाते-जाते उनका थोड़ा आदर तो कर दें । ऐसा समझकर बहुत से लोग बाबाजी को गांव की सीमा तक पहुँचाने उनके साथ चलने लगे । 

               गुरु को विदा करने शिष्य और गाँव वाले कुछ दूर उनके साथ चले जा रहे थे । रास्ते में एक मरी हुई चिड़िया पड़ी थी । बाबा जी ने उस चिड़िया को अपनी अँगुलियों से पकड़कर ऊपर उठा लिया और सबको दिखाने लगे । लोग देखने लगे कि देखें ! बाबाजी इस मरी चिड़िया का क्या करते हैं ? बाबाजी ने एक फूँक मारी तो चिड़िया ‘फुर्र .......’ करके उड़ गयी । 

            जब साधक सिद्ध की अवस्था तक पहुँचता है, तब उसके जीवन में ऐसी कई सिद्धियाँ आती है । जो इन सिद्धियों का दुरुपयोग करने लगता है, वह मान-सम्मान तो पा जाता है परंतु आत्म-बोध से चूक जाता है । परंतु गुरु तो प्रत्येक मान-सम्मान से परे थे, उनको तो अपने शिष्य को सही राह दिखानी थी ।

                बाबाजी के फूंक मारते ही इधर तो चिड़िया का उड़ना हुआ और उधर उनके जो कट्टर आलोचक थे, वही लोग वाह-वाह करने लगे कि ये तो बड़े सिद्ध महात्मा हैं । हमने तो इनको कुछ भी नहीं समझा था । वाक़ई ये तो शिष्य से भी बहुत आगे हैं । अब तो चारों तरफ बाबा जी की जय-जयकार होने लगी । जयकारे लगाती भीड़ में खड़ा शिष्य स्वयं को उपेक्षित अनुभव कर रहा था । 

          सांसारिक भीड़ तो चमत्कारों की ग़ुलाम होती है । उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि चमत्कार के प्रदर्शन का तत्व-ज्ञान से कोई नाता नहीं है । चमत्कार तो आधुनिक विज्ञान के पास भी कम नहीं है, फिर भी वह भौतिक जगत् से अभी तक बाहर कहाँ निकल पाया है ? जीवन में आत्म-बोध के लिए ऐसे चमत्कारों की दुनियाँ को पीछे छोड़ कहीं आगे निकलना होगा नहीं तो इस माया की भूलभुलैया में यहीं इसी संसार में भटकते रह जाएंगे ।

           जयजयकार के मध्य बाबाजी ने शिष्य को अपने पास बुलाया और कहा कि तू कुछ समझा कि नहीं ? शिष्य बोला – ‘इसमें क्या समझना है महाराज ?’  बाबाजी बोले – “इस दुनिया की क्या कीमत समझी है तूने ? यह सब दुनिया केवल एक फूँक की है । एक फूँक मारने (भर्र….) से लोग दूर भाग जाय और एक फूँक मारने (फ़ुर्र……) से पास आ जाय । जो पल में तोला पल में माशा हो ऐसी फूँक की क्या इज्जत है ? इसमें कोई तत्व नहीं है । इसलिये मान-बड़ाई की फूंक में न फँसकर भगवान् का भजन करो । ऊँचे आसन पर बैठने से, व्याख्यान देने से कोई बड़ा नहीं हो जाता । शरीर की वाक् इंद्रिय से मिली वाक् पटुता को लेकर इतने अहंकारी भी न बनो कि कल्याण के मार्ग से भटक जाओ ।” 

             अहंकार की फूंक व्यक्ति को शरीर के साथ बांध देती है । वह नश्वर देह को ही सर्वस्व समझने लगता है । शरीर का मोह उसे भय की ओर ले जाता है । भय से मुक्ति तभी हो सकती है, जब हमें शरीर की नश्वरता का ज्ञान हो । संसार में प्रतिदिन लाखों लोग शरीर छोड़ते हैं । कुछ की देह को हम स्वयं शमशान तक पहुँचाने भी जाते हैं, फिर भी कुछ नहीं समझते । फूंक (प्राण) निकलते ही फुंक (जल) जाना इस देह की नियति है । अतः इस देह और इंद्रियों की दिखाई पड़ रही विशेषताओं में कभी भी आसक्त नहीं होना चाहिए ।

           आकर्षक शब्दों से मान-सम्मान प्राप्त करना अलग बात है और शब्दों से लोगों के भीतर परिवर्तन लाना अलग । श्रोता, वक्ता के आचरण का अनुकरण करते हैं न कि उसके द्वारा कहे गए शब्दों का । गुरु की बात सुनकर शिष्य समझ गया कि ज्ञान को आचरण में लाए बिना केवल प्रवचन देने से लोगों में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता । वह दिन-रात आचरण के स्तर पर अपनी और अपने गुरु की तुलना करता रहता । उसे गुरु बड़े सौम्य और शांत प्रतीत होते, वे किसी भी बात पर तनिक से भी विचलित नहीं होते । गुरु की तुलना में उसे कभी-कभी अस्थिर मानसिक दशा का सामना करना पड़ता था । उसको जरा-जरा सी बात पर हर किसी पर क्रोध आ जाता था, जिससे बेवजह वह अपने साथ वालों से झगड़ पड़ता था । छोटी सी बात को लेकर उसकी रातों की नींद उड़ जाती थी । कहने का अर्थ है कि गुरु उससे ठीक विपरीत अवस्था में स्थिर चित्त और बहुत शान्त थे ।  

             विद्वता के स्तर पर भले ही दोनों एक समान हों परंतु आचरण के स्तर पर गुरु-शिष्य में रात-दिन का अन्तर था । इस अन्तर का कारण विद्वता को ज्ञान में परिवर्तित करने की क्षमता में छिपा है । शास्त्रों को पढ़कर विद्वान कोई भी हो सकता है परन्तु ज्ञानी वही होता है जिसके आचरण से विद्वता झलकती हो । हम पुस्तकें पढ़ते हैं, संतों का सान्निध्य भी लेते हैं फिर भी वह विद्वता हमारे आचरण में दिखलाई नहीं पड़ती । इसका कारण है कि हमने पुस्तकें पढ़ी अवश्य हैं परंतु उनमें लिखी बातों को अपने जीवन में उतारा नहीं है । उनको जीवन में उतारते ही व्यक्ति का आचरण बदल जाता है । अनुकरण उसी व्यक्ति का किया जाता है, जिसका आचरण विद्वता के अनुरूप हो ।

         आज के समय प्रवचन के माध्यम से ज्ञान बाँटने वाले गली-गली घूम रहे हैं, फिर भी संसार के लोग व्यथित ही नज़र आ रहे हैं । कारण यही है कि आधुनिक बाबा केवल धन-जन को ही अपने साथ जोड़ने में लगे हैं । जिसने धन और संसार की आसक्ति नहीं छोड़ी वह इस सम्बन्ध में कितना ही ज्ञान क्यों न दे दे, वह ज्ञान अपना प्रभाव नहीं छोड़ सकता । वक्ता को पहले स्वयं को परिवर्तित करना होगा, तभी श्रोताओं से परिवर्तन की आशा की जा सकती है ।

        बाबाजी अपने शिष्य को वापस तो ले आए परन्तु शिष्य को स्वयं में सुधार करने का कोई मार्ग दिखलाई नहीं पड़ रहा था । गुरु भी शिष्य को तभी ज्ञान देता है, जब उसे शिष्य में ज्ञान प्राप्त करने की ललक दिखलाई पड़े । इसके लिए शिष्य को ही गुरु के पास जाकर, उन्हें प्रणाम कर इस सम्बन्ध में पहल करते हुए प्रश्न पूछना होगा ।

               एक दिन एकांत पाकर शिष्य ने गुरु से उनके शान्त रहने का रहस्य पूछ ही लिया । प्रश्न सुनकर कुछ समय के लिए गुरु मौन हो गए । अचानक उन्होंने शिष्य को कहा कि तनिक अपना हाथ तो दिखाओ । हाथ देखते समय गुरु के चेहरे पर परिवर्तित हो रहे भाव को शिष्य अनुभव कर रहा था । बाबाजी ने हाथ देखना छोड़कर दुःखी होते हुए शिष्य को कहा कि कल सुबह तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी । मृत्यु ! वह भी इतनी जल्दी कि कुछ करने का समय तक हाथ में नहीं । इतना सुनकर शिष्य हतप्रभ रह गया । वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे, क्या करे ? मरी चिड़िया को अपनी एक फूंक से उड़ा देने वाला गुरु ऐसे समय क्या अपने शिष्य की तनिक भी सहायता नहीं कर सकता ?

          गुरु से अपने शिष्य के मनोभाव छिपे नहीं रह सके । उन्होंने शिष्य को समझाते हुए कहा- “ पुत्र ! इस संसार में जिसने जन्म लिया है, उसको एक दिन मरना अवश्य है । जीवन में साधना से सिद्धियाँ प्राप्त कर लेना कोई कठिन कार्य नहीं है । परंतु उन सिद्धियों का दुरुपयोग करना अथवा सिद्धियों को पाकर वहीं ठिठक कर खड़े रह जाना इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य नहीं है । उस दिन मरी चिड़िया को फूंक से उड़ा देने का उद्देश्य तुम्हें मनुष्य-जीवन और इस संसार की वास्तविकता से परिचय कराना था, सिद्धियों का दुरुपयोग करना तो क़तई नहीं था ।” इतना कहकर बाबाजी मौन हो गए ।

          शिष्य समझ गया कि गुरुजी अपनी सिद्धियों का दुरुपयोग कर उसकी संभावित मृत्यु को टालना नहीं चाहते । प्रकृति का जो विधान है, वह अटल है । किसी की मृत्यु को टालना संभव ही नहीं है । मृत्यु ही इस शरीर का एक मात्र सत्य है अन्यथा तो यह शरीर और संसार सब कुछ असत् है । शिष्य विद्वान तो था ही, मृत्यु के भय से उसमें ज्ञान का उदय होने लगा था । उसके सामने एक ही प्रश्न था कि वह अपने शरीर की संभावित मृत्यु के आने तक क्या करे ? सोच विचारकर उसने अपना अंतिम समय उस घर में परमात्मा का स्मरण करते हुए बिताने का निर्णय किया, जिसको कुछ समय पूर्व उसने सबसे लड़झगड़ कर छोड़ा था और बाबाजी के पास चला आया था ।

            उसने पक्का निर्णय किया, गुरु से आज्ञा ली और अपने घर लौट आया । घरवाले अचानक इस प्रकार उसके लौट आने पर विस्मित हुए परंतु पूर्व के तनाव को याद कर किसी ने उससे बात नहीं की । उसने अपने सभी परिवार जनों से मिलकर पूर्व में अपने द्वारा किए गए व्यवहार के लिए क्षमा माँगी । उसका अहंकार कहाँ तिरोहित हो गया, वह भी नहीं जान सका । घर के एक कोने में बने कमरे में गया और उसमें शान्त-चित्त होकर बैठ गया । तत्काल ही वह हरि: स्मरण में इतना लीन हो गया कि उसको समय और स्थान तक का ज्ञान भी नहीं रहा । प्रातःकाल होते ही उसकी देह छूटनी है, यह निश्चित जानकर उसने एक पल भी परमात्मा के स्मरण बिना व्यर्थ नहीं गँवाया । 

          इधर दूसरे दिन अपनी कुटिया में बाबाजी ब्रह्म मुहूर्त में उठकर संध्यावंदन से निवृत हो सूर्य की पहली किरण के साथ ही शिष्य के घर पहुंच गए । उन्होंने शिष्य के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया । दरवाज़ा खोलते ही अपने गुरु को देखकर शिष्य बाहर आकर उनके चरणों में गिर पड़ा । उसके नयनों से प्रेम की जलधारा लगातार बहती जा रही थी । उसने अपने गुरु का आभार व्यक्त किया । गुरुजी के कारण उसका एक ही दिन में हृदय परिवर्तित हो गया था ।

          बाबाजी ने अपने शिष्य को प्रेम से उठाकर गले लगा लिया । बोले -“पुत्र ! तुम्हारी अभी कोई मृत्यु नहीं होनी है । मैंने केवल तुम्हें शांत होने का उपाय बताने के लिए ऐसा कहा था । अब तो तुम समझ गए होंगे कि जिस दिन व्यक्ति मृत्यु को जान लेता है, उसका साक्षात्कार कर लेता है फिर उसके लिए संसार निरर्थक हो जाता है । यह मृत्यु-बोध ही मनुष्य की मुक्ति का मार्ग खोलता है । संसार और शरीर में रहते हुए सदैव मृत्यु को याद रखना सबसे महत्वपूर्ण है । इसलिए जीवन में सदैव मृत्यु को अपनी स्मृति में बनाए रखो, फिर संसार से विरक्त अपने आप हो जाओगे । संसार से विरक्ति ही आत्म-बोध तक ले जाती है । पिछले एक दिन में तुम्हें संसार का ध्यान एक पल के लिए भी नहीं आया न, यही संसार से मुक्ति है । मृत्यु-बोध होने से व्यक्ति संसार से मुक्त होकर परमात्मा के साथ योग कर लेता है ।” गुरु के ज्ञान ने शिष्य को संसार से मुक्त कर दिया । उसका अहंकार एक दिन में ही तिरोहित हो गया । 

        शरीर और संसार से आसक्ति का हट जाना ही जीवन्मुक्त होना है । संसार को स्मृति से बाहर निकाल फैंकना लगभग असम्भव है । संसार और उसके भोगों का रस हमें परमात्मा के आनन्दमय रस से वंचित कर देता है । इसीलिए संसार की नश्वरता का ज्ञान होना आवश्यक है । संसार और शरीर के साथ जुड़ जाना ही हमारे में अहंकार पैदा करता है । इस अहंकार का परिणाम भला अभिमन्यु पुत्र परीक्षित से बेहतर कौन जानता है ?

          राजा परीक्षित को ऋषि शमिक के पुत्र शृंगी ने सात दिन बाद तक्षक नाग के काटने से मृत्यु हो जाने का श्राप दिया था । परीक्षित का अपराध - ऋषिकुमार शृंगी के पिता शमिक ऋषि के गले में उन्होंने मृत सर्प डाल दिया था, जब वे समाधि की अवस्था में थे । राजा परीक्षित ने उनसे जल माँगा था । पद के मद में राजा परीक्षित समझ नहीं सके थे कि ऋषि ध्यानावस्था में हैं । स्वर्ण मुकुट सिर पर हो तो बड़े बड़ों का दिमाग़ घूम  हो जाता है, सोचने-समझने की क्षमता उसका साथ छोड़ जाती है ।

           किसी को पता चले कि सात दिन में उसकी मृत्यु होनी है तो क्या वह भयग्रस्त नहीं होगा ? शरीर का छूटना और शरीर को छोड़ना, दोनों विपरीत बातें हैं । मृत्यु के भय से शरीर छूटता है और शान्त रहकर शरीर छोड़ा जाता है । शरीर का छूटना आपके बिना चाहे होता है क्योंकि सभी प्रयास करने के बाद भी उसको जाने से आप रोक नहीं सकते । शांतिपूर्वक शरीर को छोड़ना, तभी सम्भव होता है जब आपको उसकी नश्वरता का ज्ञान हो गया हो । शरीर नश्वर है, इसको एक दिन जाना है, यह ज्ञान ही मृत्यु-बोध है । 

          मृत्यु के भय ने परीक्षित को व्यथित कर दिया । राज-पाट में उनका मन बिलकुल भी नहीं लग रहा था । उन्होंने अपना राज्य पुत्र जनमेजय को सौंप दिया । परीक्षित के लिए तो उस व्यथा से निकल कर शांत होने का उपाय जानना आवश्यक था क्योंकि ब्राह्मण ऋषिकुमार का दिया श्राप तो अटल है । मृत्यु-भय से मुक्त होने का एक मात्र उपाय है, मृत्यु-बोध । मृत्यु-बोध के लिए संत के सान्निध्य से परमात्मा की शरण में चले जाना होगा । परीक्षित ने राज-पाट त्याग दिया और वन को प्रस्थान कर गए । चलते-चलते गंगा किनारे पहुँच गए । शुकदेव महाराज भी आ गए, भागवत सुनाने और सुनने के लिए असंख्य ऋषि-मुनि भी । 

            मृत्यु को भले ही टाला न जा सकता हो परंतु मृत्यु का शान्त रहकर वरण तो किया ही जा सकता है । अशांत रहकर किया गया देह-त्याग ही मनुष्य को अनेक शरीरों में भटकाता है । इसलिए मृत्यु-भय और मृत्यु-बोध के अंतर को समझना आवश्यक है । भय की अवस्था में भी संसार से विरक्ति हो जाती है और बोध में भी । अंतर केवल इतना है कि भय में विरक्ति अस्थाई होती है, जिसे मसानिया वैराग कहा जाता है । मसानिया वैराग वह वैराग्य होता है जो मृत्यु-भय से केवल कुछ समय के लिए ही पैदा होता है । यह आग के उस भभके की तरह है जो घी डालने से कुछ समय के लिए ऊपर उठता है और तत्काल ही शान्त हो जाता है । बार-बार कितनी भी बार आग में घी डालें, भभका स्थाई रूप से उठ ही नहीं सकता । इसी प्रकार मौत से बार-बार सामना होने पर भी मृत्यु की वास्तविकता जानने में हम विफल हो जाते हैं ।

         प्रतिदिन नाते-रिश्तेदारियों में, मित्रों के परिवार में, आस-पड़ौस आदि में कोई न कोई मरता रहता है । जिनकी शवयात्रा में प्रायः साल में एकाध बार जाने का अवसर सबको मिला है । शमशान में अंतिम क्रिया पूरी होने में थोड़ा समय लगता ही है, उतने समय में देह की नश्वरता के बारे में जो गंभीर चिंतन वहाँ चलता है, उसको सुनने से प्रतीत होता है जैसे सभी के सभी अभी से ही राग-द्वेष से मुक्त हो चुके हैं । स्थाई वैराग्य उनमें आकार ले चुका है । शमशान से निकलते ही न जाने वह वैराग्य कहाँ चल जाता है ?  बाहर निकलते ही फिर से वही घोड़ा और वही मैदान ।

                इस अस्थाई वैराग्य का कारण है भय, मृत्यु का भय । शव देखकर संसार की असारता का जो भाव उठता है, वह समुद्र में उठी लहर के समान होता है । ज्वार के बाद लहर को वापस समुद्र में समाना होता ही है, उसी प्रकार तात्कालिक वैराग्य को भी संसार अपने में पुनः खींच लेता है । शमशान की सारी बात शव के जलते ही समाप्त । फिर से संसार के भोगों में लग जाना ही मनुष्य की नियति बन चुका है । 

              इस मरणधर्मा शरीर का कोई एक मात्र सत्य है तो वह है - मृत्यु । मृत्यु-भय एक अस्थाई भाव है । संसार में लौटने पर मृत्यु की विस्मृति हो जाती है । मृत्यु-बोध स्थाई भाव है, जिसमें मृत्यु सदैव स्मृति में बनी रहती है । संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक शरीर की मृत्यु होना निश्चित है । यह बात हम सभी जानते हैं ।

           क्या मृत्यु का इतना ज्ञान हो जाने के उपरांत हमारे जीवन में कोई परिवर्तन आया है ? गंभीरता से अवलोकन करेंगे तो पता चलेगा कि मृत्यु के सत्य ने जीवन में भय को ही पैदा किया है, बोध को नहीं । भय पैदा होने का एकमात्र कारण है कि इस संसार में शरीर धारण कर आने वाला कोई मरना ही नहीं चाहता ।

           यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न पूछा था कि संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया - “प्रतिदिन प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, फिर भी शेष प्राणी अनंतकाल तक यहाँ रहने की इच्छा करते हैं । इससे बढ़कर दूसरा आश्चर्य क्या हो सकता है ?” यही हाल है सबका । जब कोई परिचित मरता है, तब क्षणिक वैराग्य अवश्य अवतरित होता है परन्तु फिर वही व्यक्ति सोचता है कि मैं अभी कहाँ मरने वाला ? वह समझ नहीं रहा है कि एक दिन उसे भी जाना है । वह दिन और समय, आज और अभी भी तो आ सकता है ।  

           गुरु के सान्निध्य ने तो शिष्य को मृत्यु-भय से उबारकर तत्काल ही मुक्ति-बोध को उपलब्ध करा दिया  परंतु सभी को तो शास्त्रों और गुरु का सान्निध्य नहीं मिल सकता । वे सदैव मृत्यु-भय में जीते रहते हैं और उनको बोध तक पहुँचने के लिए गुरु का दीर्घक़ालीन सान्निध्य चाहिए । परीक्षित राजा था । ऋषिकुमार के श्राप ने मृत्यु-भय के पाश में उसे बांध दिया था । उन्हें मृत्यु-बोध कराने के लिए शुकदेव मुनि से बढ़कर दूसरा कौन गुरु मिल सकता था ?

             शुकदेव महाराज ने परीक्षित को मृत्यु-बोध ही तो कराया था । मृत्यु उनकी भी नहीं टली थे क्योंकि कोई कितना ही पहुँचा हुआ ज्ञानी गुरु हो, शरीर की मृत्यु को टाल नहीं सकता । तक्षक ने सात दिन बाद आकर परीक्षित को डस लिया था । उसी के ज़हर से उनकी देह छूटी थी परंतु अंत समय में वे शान्त बने रहे थे । सब जानना चाहते हैं कि मृत्यु-भय से अशांत परीक्षित आख़िर अन्त समय में आकर शान्त कैसे हो गए ? आइए ! इसको भी जान लेते हैं ।

                सात दिन तक शुकदेवजी ने उन्हें भागवत कथा सुनाई थी । पांच दिन बीत चुके थे और छठा दिन बीतने को था, फिर भी परीक्षित का मृत्यु-भय नहीं गया था । तब छठे दिन के समापन से पूर्व मुनि ने उन्हें एक कथा सुनाई । शुकदेव मुनि राजा परीक्षित को कथा सुना रहे हैं - “राजन् ! एक राजा अपने राज्य में एक दिन शिकार खेलने के लिए जंगल में निकला । मृगया में रत राजा को दिन ढलने का पता ही न चला । एक हरिण का पीछा करते-करते वे घने जंगल में प्रवेश कर गए । अंधेरा घिर आया था । हरिण उनकी दृष्टि से ओझल हो गया था । थकहारकर राजा ने उसका पीछा करना छोड़ दिया और जंगल से बाहर निकलने के लिए वापिस मुड़ा । रात के गहराते साये में घने जंगल के हिंसक पशुओं की आवाज़ें उन्हें स्पष्ट सुनाई दे रही थी । राजा बाहर निकलने का मार्ग भूल गया । हिंसक पशुओं की दहाड़ धीरे-धीरे निकट आती जा रही थी ।

                  जीव को भय उस प्रत्येक बात का हो सकता है, जो शरीर को संकट में डाल दे । मृत्यु कभी समय देखकर नहीं आती परंतु उसकी विस्मृति रहने से जीव को वह दिखलाई नहीं पड़ती । शरीर पर आसन्न संकट कुछ समय के लिए मृत्यु की याद करा देता है । राजा के साथ भी यही हो रहा है । उसे केवल रात भर के लिए एक सुरक्षित स्थान मिल जाए, ऐसा सोचते हुए राजा इधर उधर बड़ी व्यग्रता से देखता हुआ अश्व को दौड़ा रहा था ।

          तभी राजा को पास ही एक स्थान पर दीपक का प्रकाश दिखलाई पड़ा । उसने रात भर के लिए आश्रय पाने के लिए अपने अश्व का रुख़ उस ओर कर दिया । निकट पहुँचकर राजा ने देखा कि वहाँ एक टूटी-फूटी झोंपड़ी है, जहां से छनकर प्रकाश बाहर आ रहा है । उसने झोंपड़ी का द्वार खटखटाया । एक बूढ़े बहेलिए ने द्वार खोला । राजा ने उससे रातभर का आश्रय माँगा ।

              राजा के आश्रय मांगने पर  बहेलिए ने कहा कि मैं वृद्ध हूँ । हिंसक पशुओं के भय से रात को बाहर नहीं निकलता । इसी कारण से मुझे झोंपड़ी में ही मल-मूत्र का त्याग करना पड़ता है । दूसरी बात - शिकार कर मारे गये हरिणों की खाल भी भीतर लटक रही है, जिससे वे वातावरण को और अधिक दुर्गन्धमय बना रही है । आपका यहाँ रुकना आपको ही परेशान कर सकता है ।

          बहेलिया आगे कहने लगा - ‘राजन् ! इससे भी बड़ी एक विचित्र बात और है । इतना दुर्गन्धयुक्त वातावरण होते हुए भी जो एक रात के लिए यहाँ ठहर जाता है, वह दूसरे दिन यहाँ से लौटने को मना कर देता है । इसलिए क्षमा करें, मैं आपको भीतर नहीं आने दूँगा ।’ राजा चिंतित हो गया । हिंसक पशुओं की चहल-पहल बढ़ने लगी थी । भय उसके भीतर कहीं गहरे में बढ़ने लगा था । उसने बहेलिए से हाथ जोड़कर विनती करते हुए रात भर के लिए आश्रय माँगा और उसे आश्वस्त किया कि भोर होते ही वह यह झोंपड़ी छोड़कर चला जाएगा ।

              बहेलिए ने राजा पर विश्वास कर उन्हें अपनी झोंपड़ी के भीतर बुला लिया । एक गंदे से बिस्तर पर राजा सो गया । थोड़ी देर तो उसे अटपटा लगा, फिर थका होने के कारण शीघ्र ही नींद आ गई । सुबह हुई । बहेलिए ने राजा को जाने के लिए कहा । राजा ने झोंपड़ी छोड़ने से मना कर दिया । राजा को रात की गहन निद्रा से जो सुख मिला, उसको वह बार-बार अनुभव करना चाहता था । इतनी कथा सुनाकर शुकदेव मुनि मौन हो गए । परीक्षित उस कहानी को इससे भी आगे सुनना चाहता था । परंतु इससे आगे तो कथा थी ही नहीं, वहाँ से आगे तो केवल ज्ञान था जो किसी जिज्ञासु के प्रश्न करने पर ही मिल सकता था । शुकदेव महाराज भी परीक्षित के मुख से कोई प्रश्न की आशा कर रहे थे।

             कथा सुनकर परीक्षित के मन में प्रश्न उठा कि भला ऐसा कौन राजा हो सकता है जो महलों की सुख-सुविधा छोड़कर एक बहेलिए की दुर्गन्ध मारती, टूटी-फूटी झोंपड़ी में ही रहने की ज़िद्द पाले बैठा है । मुनि को मौन देखकर परीक्षित का धैर्य समाप्त हो गया । अंततः वह पूछ ही बैठा कि गुरुदेव वह राजा कौन था ? क्या उसने बहेलिए की झोंपड़ी को छोड़ दिया था ? मुनि को तो परीक्षित से ऐसे ही प्रश्न की अपेक्षा थी । शुकदेव महाराज ने कहा - ‘राजन् ! वह राजा आप हो ।’ उत्तर सुन परीक्षित सन्न रह गए । सोचने लगे कि शुकदेवजी ने मुझमें ऐसा क्या देखा जिसके कारण कथा का राजा मुझे ही बता रहे हैं । अंततः पूछ ही बैठे -‘कैसे महाराज ?’

                शुकदेवजी बोले - ‘राजन् ! यह शरीर ही वह जीर्ण-शीर्ण होती झोंपड़ी है । यह स्थूल शरीर अपने जीवन-काल में मल-मूत्र का निर्माण और उसके उत्सर्जन करने के अतिरिक्त करता ही क्या है ?  हमारी इस शरीर में आसक्ति दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है क्योंकि इससे एक बार मिले सुख को और अधिक भोगने की आशा सदैव बनी ही रहती है । यह सुख जिस दिन दुःख में परिवर्तित हो जाता है, हम पुनः उस सुख को प्राप्त करने के प्रयास में लग जाते हैं । इस जीवन में शरीर का अन्त आ जाता है, परन्तु सुख नहीं आता । इसलिए भलाई इसी में है कि इस शरीर में मोह का त्याग कर दो । शरीर में ममता रखना पशुबुद्धि है । पशु ही शरीर में आसक्त रहते हुए सदैव उसी में रमण करते रहना चाहते हैं ।

             शुकदेव मुनि परीक्षित को आगे कह रहे हैं कि कल तुम्हें तक्षक नाग डसेगा, परंतु अभी भी तुम्हारी देहासक्ति छूटी नहीं है । राजन् ! तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो, देह में आसक्ति छोड़ दो, मृत्यु का आनंदपूर्वक वरण करो क्योंकि इस संसार में केवल मृत्यु ही सत्य और अटल है ।”  परीक्षित समझ गए कि संभावित मृत्यु को देखकर वे भयग्रस्त हो गए थे । उन्हें अभी भी देह के छूटने का भय सता रहा था । मृत्यु अटल होते हुए भी उसको स्वीकार करना बड़ा कठिन है । प्रत्येक व्यक्ति यही सोचता है कि ऐसे-वैसे-कैसे भी हो, शरीर की मृत्यु टल जाए । कथा सुनकर परीक्षित का मृत्यु-भय समाप्त हो गया ।

         यह है सन्त के सान्निध्य का प्रभाव । छठे दिन ही मुनि ने परीक्षित के मृत्यु-भय को मृत्यु-बोध में बदल दिया । अब परीक्षित भयमुक्त हो चुका था । उसने भगवान को अपने हृदय की गहराई में बिठा लिया और उनका सतत स्मरण करने लगा । मृत्यु-बोध आपका स्वयं से परिचय कराता है । मनुष्य को इस अवस्था तक पहुँचकर ही अनुभव होता है कि संसार असार है, वह स्वयं तो उससे भिन्न परमात्मा का अंश है । शरीर समाप्त हो सकता है, जीवन नहीं । जीवन तो इस शरीर के मर जाने के बाद भी चलता रहेगा । 

          सातवें दिन तक्षक के आने पर परीक्षित तनिक भी विचलित नहीं हुए । तक्षक तो उन्हें डसने के लिए ही आया था, परन्तु उसके डसने से पूर्व ही परीक्षित देहमुक्त हो गए थे । शरीर में अहंता और ममता रखना व्यक्ति को बंधन में डाल देता है । यह बंधन मृत्यु-भय पैदा करता है । शरीर से अहंता और ममता के छूटते ही मृत्यु-भय, मृत्यु-बोध में बदल जाता है । 

          मृत्यु-भय केवल शरीर और संसार को बचाए रखने की जुगत मात्र है, जबकि मृत्यु-बोध व्यक्ति को जीवन्मुक्त  करता है । संसार का प्रत्येक प्राणी आहार, निद्रा, भय और मैथुन में रत है, यह सब शरीर को बचाने के उपाय ही तो है । इन सबके मूल में मृत्यु का भय ही है ।   

           जो मृत्यु के भय से मुक्त हो चुका है, उसके लिए ये चारों स्वतः ही महत्वहीन हो जाते हैं । जरा आप किसी जीवन्मुक्त महात्माओं का जीवन देखिए ! उनका आहार और निद्रा सीमित दायरे के होते हैं । किसी भी प्रकार का भय उनमें नहीं होता और मैथुन में रत रहने का तो प्रश्न ही नहीं है ।

        मृत्यु-भय का कारण है - शरीर में अहंता और ममता रखना । शरीर की मृत्यु होना शाश्वत सत्य है । जिसने इस संसार में शरीर का अधिग्रहण किया है, वह अविनाशी है, केवल उसका यह शरीर ही नाशवान है । शरीर के मरने पर भी व्यक्ति नहीं मरता । 

             शरीर तो जन्म लेने के साथ ही मरना प्रारम्भ कर देता है । पैदा होना, बढ़ना, रहना, युवा होना, क्षरण  होना और मरना, ये सब शरीर में होते हैं । कहने का अर्थ है कि जो शरीर परिवर्तनशील है और उसकी परिवर्तनशीलता को अनुभव करने वाला शाश्वत है । इस बात को जो समझ लेता है, समझ लो उसको मृत्यु-बोध हो गया है ।

            मृत्यु-भय से जो व्यक्ति विचलित होता है, वह दिन-रात अपने शरीर को बचाए रखने के प्रयास में ही लगा रहता है, यह जानते हुए भी कि इस शरीर को एक न एक दिन जाना है । वह जानता अवश्य है, परंतु इस सत्य को स्वीकार नहीं करता । सत्य को स्वीकार इसलिए नहीं कर पाता क्योंकि उसकी शरीर में ममता है । ममता उसे शरीर के साथ बांधे रखती है । मृत्यु शैया पर आ जाने के बाद भी वह शरीर से मोह छोड़ नहीं पाता । इस मोह के कारण ही उसे नए-नए शरीरों के साथ जन्म पर जन्म लेना पड़ता है । 


               स्मरण रहे, शरीर का जन्म होता है व्यक्ति का नहीं लेकिन शरीर में आसक्त होने के कारण वह इसे अपना ही जन्म समझता है । अविनाशी और नाशवान के अंतर को तथा आत्मा और अनात्मा को जान लेना ही सत्य तक पहुँच जाना है । इस सत्य को स्वीकार कर लेना ही मृत्यु-बोध होना है ।

           मृत्यु-बोध का अर्थ है - नाशवान और अविनाशी को अलग अलग जान लेना । इसे जान लेने के पश्चात् व्यक्ति कामनाओं में नहीं फँसता । उसके द्वारा कर्म तो होते हैं परंतु सभी कर्म संसार की सेवा के लिए होते हैं । जब मनुष्य संसार में जन्म लेता है, उस समय अपने साथ कुछ भी लेकर नहीं आता । वह सब कुछ इस संसार से ही लेता है । यहाँ कोई भी वस्तु उसकी अपनी नहीं है, यहाँ तक कि उसके संबंधी और मित्र भी । अतः किसी को भी अपना और अपने लिए मानना अनुचित है । जो कुछ भी पदार्थ, धन-सम्पत्ति यहाँ आकर संसार से उपार्जित की है, उसे अपने साथ कोई नहीं ले जा सकता । सब ख़ाली हाथ आए हैं और ख़ाली हाथ ही जाएंगे । अतः जो कुछ भी यहाँ आकर लिया है, सब संसार से ही लिया है । उसको संसार को ही लौटा देना है अर्थात् उनको संसार की सेवा में लगा देना है ।

          यहाँ आए हैं, बिना कुछ लिए और जो यहाँ आकर लिया है, सब यहीं छोड़कर चले जाना है । लिया यहाँ से ही है तो छोड़कर जाने से पहले सब कुछ संसार को ही लौटा देना चाहिए । जितना उनको अपना और अपने लिए मानेंगे उतना ही उसके साथ बंधते चले जाएँगे । जो कुछ मिला है, सब एक दिन खो जाएगा । यह बंधन ही व्यक्ति में उस वस्तु के खोने का भय पैदा करता है । इसलिए सदैव मृत्यु को ध्यान में रखते हुए कुछ भी बचाकर अपने पास न रखें, निरंतर उनका त्याग करते रहें । फिर जीवन में कोई भय नहीं सताएगा । भय-मुक्त जीवन ही शान्त-जीवन है और जीवन में शान्ति त्याग से ही आती है । 

         पूर्व में हमने राजा परीक्षित के दृष्टांत पर चर्चा की थी । श्रीमद्भागवत महापुराण वेद व्यासजी ने लिखी है, उनके पुत्र शुकदेव मुनि ने परीक्षित को भागवत कथा सुनाई थी । भागवत कथा को सुनकर राजा परीक्षित सात दिन में ही देह की ममता से मुक्त हो चुके थे । मृत्यु-बोध हो जाने पर इस शरीर के साथ क्या होता है, व्यक्ति के लिए कोई मायने नहीं रखता । संसार के सब सुख-दुःख शरीर तक ही सीमित है, आत्मा तक वे पहुँच ही नहीं सकते । इससे स्पष्ट होता है कि शरीर की मृत्यु आत्मा को तनिक भी प्रभावित नहीं करती । इस अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति अपनी देह के मरने को भी साक्षी-भाव से देखता है । 

        परीक्षित की देह तक्षक नाग के काटने से छूटनी थी । ऋषिकुमार शृंगी के श्राप के कारण उनकी देह को जीवित रहने के लिए मात्र सात दिन ही मिले थे । परीक्षित को कम से कम यह तो पता था न कि सात दिन बाद उनकी मृत्यु होनी है । उन सात दिनों के मृत्यु-भय ने उनको मृत्यु-बोध करा दिया जिसके कारण वे संसार से मुक्त हो गए । हमें तो यह भी पता ही नहीं है कि हमारी मृत्यु कब होगी ?  गुरु ने शिष्य का हाथ देखकर कह दिया था कि कल उसकी मृत्यु हो जाएगी । उससे भी उसको एक दिन में ही मृत्यु-बोध हो गया । सप्ताह में सात दिन ही होते हैं । उन सात दिनों में से किसी एक दिन हमारे शरीर की भी मृत्यु होनी है । इस बात को स्वीकार कर लें तो हम भी उस शिष्य की तरह मृत्यु- बोध को उपलब्ध हो सकते हैं । 

            शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कड़ी अंतःकरण कहलाती है । बाह्यकरण इस भौतिक शरीर की इंद्रियाँ है - पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ । इन इंद्रियों को हमारा अंतःकरण नियंत्रित करता है । इस अंतःकरण में अहंकार, बुद्धि, चित्त और मन आ जाते हैं । स्व अर्थात् आत्मा को शरीर से जोड़े रखने में मन की भूमिका विशेष है । मन ही इंद्रियों को नियंत्रित करता है । मन के अनुसार ही इंद्रियाँ विषयों की और विचरने लगती है । बुद्धि का मन पर नियंत्रण हट जाने से मन भी इंद्रियों को स्वच्छंद विचरने के लिए छोड़ देता है ।

           शरीर में इंद्रियाँ है, शरीर में ही मन है और शरीर में ही चेतन तत्व है । जब चेतन तत्व शरीर,मन और इंद्रियाँ के माध्यम से बाहर की यात्रा करता है तो हमें संसार और उसके पदार्थों अर्थात् अनात्मा का बोध होता है । जब यही चेतन तत्व शरीर, मन और इंद्रियों को छोड़ भीतर प्रवेश करता है तो वह अपदार्थ अर्थात् आत्मा को जानता है । पदार्थ और संसार का बोध मृत्यु-भय पैदा करता है जबकि आत्मा का ज्ञान मृत्यु-भय से मुक्त करता है । चेतन तत्व के भीतर की यात्रा अपने मूल स्रोत की यात्रा है, जिसमें मन और शरीर की कोई भूमिका नहीं रहती । इसका अर्थ है कि मूल स्रोत की यात्रा में हमारा मन भी अमन हो जाता है । मन के अमन हुए बिना भीतर की यात्रा हो ही नहीं सकती । मन के अमन होने को मन का मरना कहते हैं और यह मन जीतेजी मर जाए, अच्छा है । फिर व्यक्ति की सभी कामनाएँ और विकार तिरोहित हो जाते हैं और मृत्यु का भय भी समाप्त हो जाता है । यही मृत्यु-बोध है ।

         अष्टांग योग के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने मृत्यु-भय को अभिनिवेश कहा है । अभिनिवेश पाँच क्लेशों में से एक क्लेश है । क्लेश मनुष्य जीवन की वे बाधाएँ है, जो उसे आत्म-ज्ञान से वंचित कर देती है । ये पाँच क्लेश हैं - अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश । इस श्रृंखला में हम अभिनिवेश अर्थात् मृत्यु-भय पर विचार कर रहे हैं । अभिनिवेश का कारण अविद्या ही है । अविद्या के कारण ही शेष चार क्लेश अस्तित्व में आते हैं । अविद्या से बाहर निकल जाने पर मृत्यु-भय भी समाप्त हो जाता है । मृत्यु-भय समाप्त होने का अर्थ मृत्यु-बोध से है ।

        मृत्यु-भय से मुक्त होने के लिए महर्षि पतंजलि ने तीन साधन बताए हैं - तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान । तप का अर्थ है - स्वधर्म का पालन करने में जो शारीरिक, मानसिक आदि कष्ट प्राप्त हों, उनको सहन करना । स्वाध्याय का अर्थ है - जिन शास्त्रों के अध्ययन से अपने कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध हो, उनका पठन-पाठन करना । ईश्वर-प्रणिधान से अर्थ है, ईश्वर के शरणागत होना, उनसे अतिशय प्रेम करना । उपरोक्त तीनों साधनों से मृत्यु-भय समाप्त हो जाता है क्योंकि ये अविद्या का नाश करते हैं । इनके अतिरिक्त महर्षि ने मृत्यु-भय से मुक्त होने के लिए ध्यान को भी एक साधन बताया है ।

              महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग के आठ अंग इस क्रम में है - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । यम जहां सामाजिक नैतिकता है वहीं नियम व्यक्तिगत नैतिकता है, जिनका पालन प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए । आसन और प्राणायाम स्थूल शरीर के स्वास्थ्य से संबंधित है । प्रत्याहार, धारणा और ध्यान मानसिक शान्ति के लिए आवश्यक अंग है जबकि समाधि आध्यात्मिकता को पुष्ट करती है । समाधि का अर्थ है आत्मा से जुड़ना । यह परम चैतन्य की अवस्था होती है ।

       स्थूल शरीर तभी स्वस्थ रह सकता है जब आसन और प्राणायाम  के साथ-साथ यम- नियम का भी पालन किया जाय । पाँच यम, जो सामाजिक नैतिकता से संबंधित हैं, वे हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ।  पाँच नियम, जो व्यक्तिगत नैतिकता से संबंधित है, वे हैं -  शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान । यम-नियम का पालन करने से व्यक्ति समाज का आदर्श नागरिक बनता है ।

          हम मृत्यु- भय से मुक्त होने की बात कर रहे हैं । मृत्यु- भय से मुक्त होने के लिए तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान, इन तीनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । ये तीनों अष्टांग-योग के दूसरे अंग ‘नियम’ के अन्तर्गत है । महर्षि पतंजलि के अनुसार मनोयोग से इनका पालन करने से व्यक्ति मृत्यु-भय से मुक्त हो मृत्यु-बोध को उपलब्ध हो सकता है ।

             तप का अर्थ है प्रत्येक परिस्थिति में स्वयं को अनुशासित रखना । मनुष्य के जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां आती जाती रहती है, उनको सहन करने से व्यक्ति विचलित नहीं होता । इस संसार में जिस किसी से संयोग होता है, उससे एक न एक दिन वियोग होना निश्चित है । जिस किसी से संयोग होता है, उससे मनुष्य को सुखानुभूति होती है जिससे मनुष्य में उसके प्रति ममता बढ़ती है । ममता के कारण उसी संयोगजन्य सुख को बार-बार प्राप्त करने की कामना जाग्रत होती है ।

         कामना के वशीभूत होकर व्यक्ति कर्म करता है । कर्म का फल इच्छा के अनुरूप मिल जाए तो लोभ पैदा होता है और अगर फल विपरीत हो तो क्रोध उत्पन्न होता है । तप के माध्यम से मनुष्य क्रोध और लोभ को बढ़ने नहीं देता, उनको नियंत्रण में रखता है । इसे ही अनुशासन में रहना कहते हैं ।

        शरीर सम्बन्धी तप के अन्तर्गत गुरु और जीवन्मुक्त महात्माओं का पूजन और सम्मान करना, आंतरिक और बाह्य शुद्धि रखना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और किसी के प्रति हिंसा न करना है । दूसरा तप वाणी का तप है । जो किसी को उद्विग्न न करने वाला, सत्य और प्रिय तथा हितकारी भाषण है, वह वाणी सम्बन्धी तप है । अपनी वाक् इंद्रिय से स्वाध्याय और अभ्यास अर्थात् प्रभु का नाम-स्मरण, कीर्तन आदि भी वाणी के तप में आते हैं । तीसरा तप है मानसिक तप । मन की प्रसन्नता, मननशीलता, मन का निग्रह और भाव शुद्धि आदि सभी मानसिक तप कहे गए हैं ।

          शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप से मृत्यु- भय का नाश होता है । गीता में भगवान ने तप के तीन और प्रकार भी बतलाए हैं - सात्विक, राजसिक और तामसिक तप । जो तप कामना रहित होकर किया जाता है, वह सात्विक तप है । जो तप मान-सम्मान प्राप्त करने की इच्छा से अथवा प्रदर्शन के लिए किया जाता है वह राजसिक तप है । जो तप मूढ़ता अर्थात् अज्ञान से, अपने को पीड़ा देकर और दूसरों को कष्ट देने के लिए तथा हठपूर्वक किया जाता है, ऐसा तप तामसिक श्रेणी में आ जाता है ।

          शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप का सात्विक रूप से पालन करने से व्यक्ति शांति को उपलब्ध होता है जिससे व्यक्ति सदैव प्रसन्न रहता है । अशांत जीवन भय का जनक है जबकि शान्त जीवन सभी प्रकार के भय से मुक्त करता है ।

            दूसरा नियम स्वाध्याय है, जिसके पालन से भी व्यक्ति भय-मुक्त हो सकता है । स्वाध्याय से अर्थ है, शास्त्रों का अध्ययन और सत्संग करते हुए आत्मचिंतन करना । शास्त्रों का अध्ययन करते हुए उनमें लिखी बातों का सतत चिंतन, मनन करते रहने से भय से मुक्त हुआ जा सकता है । शास्त्र बनते हैं, महापुरुषों के अनुभव से । जिस राह पर चलकर महापुरुष मृत्यु- बोध, आत्म-बोध को उपलब्ध हुए हैं, निश्चित ही उनकी वाणी हमारा सही मार्गदर्शन करती है । इसलिए शास्त्रों का अध्ययन कर, उस पर चिंतन, मनन करते हुए सत्संग से संसार और शरीर की नश्वरता को समझा जा सकता है ।

             अष्टांग योग के दूसरे अंग नियम का एक महत्वपूर्ण सूत्र है - ईश्वर-प्रणिधान । ईश्वर-प्रणिधान अर्थात् ईश्वर के प्रति पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण समर्पण । ईश्वर अर्थात् परमात्मा जिसके हम एक अंश हैं । हमारा स्वरूप उससे जरा सा भी भिन्न नहीं है । जब हमारा संपर्क संसार और शरीर के साथ हो जाता है, तब अपना स्वरूप भूल जाते हैं और शरीर को ही स्वयं होना मान लेते हैं । शरीर को संसार के विषयों से जो सुखानुभूति होती है, उसके वशीभूत होकर मनुष्य संसार का आश्रय ले लेता है । 

          शरीर और संसार में परिवर्तन होते रहते हैं । इसे मनुष्य की विडंबना ही कह सकते हैं कि वह इन परिवर्तनों को स्वयं में होना समझता है । ऐसा समझने से शरीर की सम्भावित मृत्यु को वह अपनी मृत्यु होने की कल्पना कर सदैव भयग्रस्त बना रहता है । संसार का आश्रय कभी व्यक्ति को मृत्यु- भय से मुक्त नहीं कर सकता । मृत्यु-भय से मुक्त होने के लिए केवल एक परमात्मा का आश्रय ही चाहिए । ईश्वर-प्रणिधान में परमात्मा के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते हुए उनकी शरण में जाना होता है । एक उसकी शरण ही सभी प्रकार के भय से मुक्त कर देती है । 

           संसार आकर्षक है क्योंकि उसमें सतत परिवर्तन होने के कारण उसके भिन्न-भिन्न रूप प्रकट होते हैं । शरीर भी इसी प्रकार व्यवहार करता है । बाल्यावस्था से युवावस्था तक तो ठीक है परन्तु जब शरीर का क्षरण होना प्रारम्भ होता है तब मृत्यु-भय मनुष्य को विचलित कर देता है । इस भय से मुक्त होने के लिए संसार के आश्रय का त्याग कर परमात्मा के आश्रय में चले जाना ही श्रेयस्कर है ।

       इस प्रकार मृत्यु- भय से मुक्ति के लिए अर्थात् मुक्ति-बोध होने के दो प्रकार के साधन हैं - ईश्वर की शरण और तप, स्वाध्याय । दोनों ही साधन आपको मृत्यु- बोध तक ले जाते हैं । दोनों में मूल रूप से एक ही अंतर है । तप-स्वाध्याय में मृत्यु को शान्त भाव से अनुभव किया जाता है जबकि ईश्वर प्रणिधान में स्वयं को शरीर से अलग रखते हुए अपने भीतर प्रवेश किया जाता है । 

        एक बार एक वायुयान आसमान में वायु- भँवर में फँसकर बुरी तरह हिचकोले खाने लगा । भीतर बैठे हुए यात्री संभावित दुर्घटना की कल्पना कर चिल्लाने लगे । विमान में बैठे केवल दो ही यात्री विचलित नहीं हुए - एक साधु और दूसरी पाँच वर्ष की बालिका । साधु शान्त भाव से मौन होकर बैठे थे, ऐसा लग रहा था जैसे उनको विमान के डोलने का कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा हो । बालिका विमान के हिचकोलों से खुश होकर तालियाँ बजा रही थी । उसको ऐसा अनुभव हो रहा था मानो वह कोई झूला झूल रही हो ।

             थोड़ी देर बाद विमान उस भँवर से निकल कर अपनी नियंत्रित गति से गंतव्य की ओर आगे की यात्रा पर चलने लगा । सभी यात्रियों ने राहत की सांस ली । सभी यात्री परमात्मा का धन्यवाद करने लगे । वह बात और थी कि कुछ समय पहले तक वे केवल चिल्ला रहे थे, परमात्मा को कोई बिरला ही याद कर रहा था । थोड़े समय बाद विमान अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच गया । विमान परिचारिका ने इस अवधि में सभी यात्रियों से उनके अनुभव पूछे ।

            आसमान में वायुयान का हवा के भँवर में फँस जाना प्रायः होता रहता है, पर उस दिन तो विमान दुर्घटनाग्रस्त होने से बाल-बाल बचा था । परिचारिका ने जब यात्रियों से उस अवधि के अनुभव पूछे तो प्रायः सभी ने मृत्यु-भय होने को स्वीकार किया । साधु ने कहा कि जब विमान भँवर में फँसा तो कुछ समय के लिए तो मैं शान्त होकर बैठा रहा और फिर अपने भीतर चला गया, जहां गहरी शांति थी । मुझे विमान कितनी देर भँवर में फँसा रहा, इसका मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है । 

         जो भी परिस्थितियों बनती बिगड़ती है, वे सब वृत्त की परिधि पर होती है । परिधि पर होने वाले परिवर्तन ही मन को भयग्रस्त और अशांत करते हैं । इसके विपरीत केंद्र तो सदैव निश्चल और शान्त बना रहता है । समुद्र की गहराई में शांति है जबकि उसकी सतह सदैव तरंगित बनी रहती है ।

          कहा जाता है कि जो ईश्वर की शरण होते हैं उनका व्यवहार एक मासूम बच्चे की तरह (बालसुलभ) होता है । विमान में सवार बालिका को विपरीत परिस्थिति में हुआ अनुभव इस बात को स्पष्ट करता है । बालिका को विमान के हिचकोले भी उसे झूले में झूलने का आनंद दे रहे थे । बालिका नहीं जानती थी कि विमान दुर्घटनाग्रस्त भी हो सकता है । कहने का अर्थ है कि मृत्यु-भय उसी को होता है जिसने स्वयं को संसार से जोड़ रखा है । संसार में रमे व्यक्ति को ही प्रत्येक परिवर्तन विचलित करता है ।

          जिसका मृत्यु-भय समाप्त हो चुका है, वह डरता नहीं है बल्कि उसे सहर्ष स्वीकार करता है । मृत्यु-बोध ही आत्म-बोध है जिसमें व्यक्ति स्वयं को शरीर की तरह जन्मने-मरने वाला नहीं मानता । फिर तो मीरा की तरह उसे विष का प्याला स्वीकारने तक में कोई हिचक नहीं होती ।

           ईसापूर्व यूनान में एक दार्शनिक हुए थे - सुकरात । सुकरात के दर्शन (philosophy) से उस समय की धार्मिक व्यवस्था प्रसन्न नहीं थी । संसार में जितने भी संत हुए हैं, जिन्होंने भी लोगों को मृत्यु-बोध कराया है, निर्भय किया है ; तात्कालिक सत्तासीनों ने उनको कभी भी स्वीकार नहीं किया है । यही रीति आज भी चली आ रही है । सुकरात के साथ भी यही हुआ । उन्हें धर्म का विरोधी मानते हुए अनुयायियों सहित कारागार में डाल दिया गया । झूठे मुक़दमें लगाकर अंततः उन्हें मृत्यु दण्ड की सजा सुना दी गई । 

    उन दिनों मृत्युदण्ड के लिए एक प्रकार के पौधे की कुछ पत्तियों का रस पिलाया जाता था । हेमलॉक (Hemlock) नामक इस पौधे की पाँच-सात पत्तियों का रस ही एक व्यक्ति को मारने के लिए पर्याप्त होता है । इसका ज़हर तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है, जिससे कुछ ही समय पश्चात् व्यक्ति मर जाता है । इसी के रस  का प्याला सुकरात को पिलाया गया ।

        ज़हर को पीकर भी सुकरात शांत बने रहे । उन्होंने रो रहे अपने अनुयायियों को अपनी मृत्यु का अनुभव सुनाना प्रारम्भ किया । वे कह रहे हैं -“ मेरे दोनों पैर सुन्न होकर ठण्डे पड़ गए हैं । अब हाथ भी शक्तिहीन हो रहे हैं । अहा ! कितनी गहरी शांति है, मेरा मस्तिष्क सुन्न हो रहा है, बहुत आनन्द है । मृत्यु भी कितनी आनन्ददायक होती है ?” इतना कहकर सुकरात ने सदैव के लिए आँखें मूँद ली । मृत्यु-भय से मुक्त व्यक्ति ही इस प्रकार सहर्ष मृत्यु का वरण कर सकता है अन्यथा तो मृत्यु-दण्ड पाए व्यक्ति सब कुछ जानते हुए भी अन्त समय तक मृत्यु से बचने का असफल प्रयास करते हैं ।   

      जीवन में आने वाली विभिन्न परिस्थितियां मनुष्य को विचलित करती रहती है, विशेष रूप से प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण ऐसा होता है । परिस्थितियों का आना-जाना समय-चक्र के अनुसार चलता रहता है क्योंकि ये सब प्रकृति के अधीन है । परिवर्तनशीलता प्रकृति का प्रमुख गुण है । आज जो अनुकूलता है, वह कल प्रतिकूलता में परिवर्तित होगी ही और इसी प्रकार इसके विपरीत होना भी निश्चित है । जो प्रकृति की नश्वरता को अपना नाश होना मान लेता है, वह मृत्यु-भय से सदैव ग्रस्त रहता है । शरीर को ही स्वयं होना मान लेना अज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।

          जीवन की अक्षुणता में केवल शरीर बदलते हैं, जीवन एक ही चलता है । शरीर के बदलने और स्वयं के अपरिवर्तित रहने को जो समझ लेता है वह मृत्यु-भय से मुक्त हो जाता है । यह ज्ञान की अवस्था है जिसमें व्यक्ति प्रकृति की नश्वरता से स्वयं को अलग कर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । फिर वह प्रत्येक भय से मुक्त हो आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है ।

          भक्ति में सब कुछ भगवान को समर्पित कर दिया जाता है । भगवान के प्रति समर्पण से जीवन में आ रहे उतार-चढ़ाव से मनुष्य विचलित नहीं होता । शरीर की होने वाली मृत्यु की वह तनिक भी चिंता नहीं करता । ‘जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए”, परमात्मा का आश्रय लेने से ऐसी सोच जिस दिन हमारी हो जाएगी, तत्काल ही हम मृत्यु-भय से मुक्त होकर आत्म-बोध को उपलब्ध हो जाएंगे ।

         इतने विवेचन से एक महत्वपूर्ण बात निकलकर आई है कि मृत्यु-भय का कारण हमारी संसार और शरीर के प्रति आसक्ति है । जिस दिन हम इस आसक्ति से मुक्त हो जाएंगे मरने का भय भी चला जाएगा और मृत्यु-बोध भी हो जाएगा । मृत्यु-बोध से आत्म-बोध की यात्रा सुगम हो जाती है । मृत्यु-भय से मुक्त होने के सभी उपाय इस शरीर को केन्द्र में रखकर किए जाते हैं । विडम्बना है कि इतना सब कुछ करने के बाद भी कई बार मृत्यु-भय पुनः लौट आता है । स्वामीजी ने शरीर को लेकर तीन महत्वपूर्ण बातें कही हैं, जिनको आत्मसात कर आत्म-बोध होने तक सुगमता से पहुँचा जा सकता है ।

         शरीर से सम्बन्धित ये तीन सूत्र हैं - मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिए नहीं है । “मैं शरीर नहीं हूँ”, इसका अर्थ है शरीर अलग है और मैं शरीर से अलग हूँ । जो शरीर में परिवर्तन होना (जन्म लेना, बढ़ना, रहना, क्षरण होना, वृद्ध होना और मरना) देखता है वह वास्तविक “मैं” अविनाशी है । “शरीर मेरा नहीं है” तो फिर यह शरीर किसका है । शरीर विनाशशील प्रकृति (संसार) का है । इसका अर्थ है कि शरीर मरता है, “मैं” नहीं मरता क्योंकि मैं तो अविनाशी हूँ । “शरीर मेरे लिए नहीं है”, इसका अर्थ है शरीर से मुझे कुछ नहीं लेना है, इससे मुझे कुछ भी नहीं चाहिए । यह शरीर संसार की सेवा के लिए है । अतः जब तक यह शरीर है, तब तक इसे संसार की सेवा में ही लगाए रखना है ।

          इस प्रकार स्वामीजी के द्वारा दिए गए तीनों सूत्र बड़े ही महत्वपूर्ण है, जिनको धारण कर हम मृत्यु-भय से मुक्त हो आत्म-बोध को उपलब्ध हो सकते हैं । मृत्यु-बोध के लिए इन सूत्रों को सदैव स्मृति में बनाए रखना आवश्यक है ।        

सार-संक्षेप 

       जन्म-मृत्यु जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू है । जीवन तब तक चलता रहता है, जब तक संसार से मुक्त नहीं हो जाते । संसार में आसक्त जीव का जीवन विभिन्न शरीरों के माध्यम से अनन्त यात्रायें करता है । इस यात्रा की समाप्ति के लिए ही हमें मनुष्य जीवन मिला है । हमने मनुष्य शरीर के रूप में जन्म लिया अवश्य है परन्तु उसमें जीवन जीते हुए आहार, निद्रा, भय और मैथुन में रत रहकर उसे खोना नहीं है । ये सब असत् हैं और आत्मा से इनका कोई लेना-देना नहीं है । संसार और शरीर में मोह रखने से केवल मृत्यु-भय ही उपहार में मिलता है । प्रत्येक भय व्यक्ति को आत्म-बोध से वंचित कर देता है ।

         आत्म-बोध के लिए मृत्यु-बोध होना आवश्यक है । परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग मृत्यु-भय से मुक्त होकर ही पाया जा सकता है । मृत्यु-भय से मुक्त तभी हुआ जा सकता है, जब मृत्यु-बोध हो जाये । मृत्यु-बोध ज्ञान को उपलब्ध होने से ही संभव है । अतः हमें अनात्म और आत्म का ज्ञान होना आवश्यक है । संसार विनाशशील है और हम अविनाशी है । इस ज्ञान को अपने भीतर की गहराइयों में उतारना है, इसी ज्ञान में हमें जीना है । जब इस ज्ञान से मृत्यु-बोध हो जाता है, तो फिर परमात्मा का ज्ञान भी हो जाता है । परमात्मा का ज्ञान होने से उनके शरणागत होकर हम संसार की आसक्ति से मुक्त हो जाते हैं और तत्काल ही शान्ति को उपलब्ध हो जाते है । मृत्यु-बोध होना जीवन में शान्ति उपलब्ध कराता है और परमात्मा के द्वार तक ले जाता है । निश्चय ही गुरु का सान्निध्य हमें मृत्यु-भय से मुक्त कर मृत्यु-बोध कराएगा जिससे हम परमात्मा की ओर सतत आगे बढ़ेंगे ।

     इसीलिए नारायण स्वामी ने कहा है - 

           दो बातन को भूल मत, जो चाहत कल्याण ।

           नारायण एक मौत को, दूजो श्री भगवान ।।

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल