नैव किंचित् करोति स:
‘मैं और मेरा’ ही मनुष्य को कर्मों की ओर जाने को प्रेरित करता है । ‘मैं और मेरा’ की भावना ने जिस संसार का निर्माण किया है, वहाँ राग-द्वेष का होना अवश्यंभावी है क्योंकि इस संसार का आधार ही परमार्थ न होकर स्वार्थ है । स्वार्थ पूर्ति के लिए व्यक्ति कर्म करता है । कर्म करने के पीछे अपनों को सुख पहुँचाने की भावना रहती है । दूसरे को सुख कैसे मिले यह परमार्थ भाव है लेकिन केवल मुझे और मेरे लोगों को ही सुख मिले, यह स्वार्थ भाव है । इस स्वार्थ के कारण किए जाने वाले कर्म, मनुष्य को बंधन में डालते हैं, जबकि परमार्थ के लिए किए जाने वाले कर्म उसे मुक्त करते हैं ।
स्वार्थ-परमार्थ के लिए किए जाने वाले कर्मों के इस खेल में प्रायः सभी भ्रमित हो रहे हैं । कर्मों के स्वरूप और उनकी गति को भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्त भला दूसरा कौन स्पष्ट कर सकता है ? गीता को कर्मयोग का ग्रंथ कहा ही इसलिए जाता है क्योंकि कर्मों का जितना स्पष्ट और सटीक वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है, उतना किसी अन्य ग्रंथ में नहीं मिलता । स्वामीजी ने कर्म के रहस्य को खोलने का बेजोड़ प्रयास किया है । यह लेख इसी कर्म-रहस्य को छूने का प्रयास भर है । कर्म-रहस्य को जैसा मैंने स्वामीजी और आचार्य श्री गोविन्दरामजी शर्मा से समझा और अनुभव किया है, उसको अपने शब्दों के माध्यम से आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
वास्तव में मनुष्य कोई कर्म करता नहीं है बल्कि वह केवल प्रकृति में होने वाली क्रियाओं को अपने द्वारा करना मान बैठा है । गीता भी यही कहती है कि कोई भी जीव कुछ नहीं करता । मनुष्य भी कुछ नहीं करता । “नैव किंचित् करोति स:” ।
यह लेख एक व्यवसायी मित्र द्वारा किए गए प्रश्न (कर्ताहमिति मन्यते) के दिए गए उत्तर (नैव किंचित् करोति स:) पर आधारित है ।
कर्म - दिखने और करने में जितना सरल है, कर्म के स्वरूप को जानना, इसके परिणाम को पहिचानना उतना ही कठिन है । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म के तीन स्वरूप बताए हैं - कर्म, अकर्म और विकर्म । साथ ही साथ उन्होंने कर्म की गति को गहन भी बतला दिया । कर्मों की गति गहन है क्योंकि जो कर्म आपके द्वारा किया जा चुका है वह कर्म उपरोक्त तीन श्रेणियों में से कौन सी श्रेणी के अन्तर्गत होगा, इसको जानना बड़ा ही कठिन है । जिस कर्म को हम निष्काम कर्म समझ कर कर रहे हैं, वह अपनी पल भर में की गई तनिक सी त्रुटि से सकाम कर्म की श्रेणी में आ सकता है । जिस कर्म को हम शास्त्र विहित समझ कर कर रहे हैं, हो सकता है कि वह कर्म विकर्म की श्रेणी का हो । इसलिए हमें कर्म के स्वरूप को भलीभाँति जान लेना चाहिए जिससे अपने जीवन में कर्म सावधान होकर कर सकें ।
कर्म के उपरोक्त तीन स्वरूप तो मुख्य हैं ही परंतु इसके साथ ही यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि आपके द्वारा किया गया कर्म, पाप-कर्म है अथवा पुण्य-कर्म । आप सात्विक कर्म कर रहे है अथवा राजसिक या तामसिक यह भी जानना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । आपके द्वारा किए जाने वाले कर्म स्वरूप से कर्म, अकर्म अथवा विकर्म में से किस श्रेणी में आते हैं, यह जानना बड़ा ही कठिन है । हाँ, सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक कर्म को जान लेना फिर भी सुगम है । यदि हम सात्विकादि तीनों प्रकार के कर्मों को भली-भांति जान लेते हैं, तो फिर उन कर्मों के मूल स्वरूप (कर्म,अकर्म और विकर्म) तक पहुँचने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी ।
स्वामीजी कहते हैं कि कर्म से महत्वपूर्ण है कर्ता, क्योंकि जैसा कर्ता होगा, उससे कर्म भी उसी अनुसार होंगे । कहने का अर्थ है कि कर्ता अगर सात्विक है तो फिर उससे कर्म भी सात्विक होंगे । व्यक्ति ही प्रत्येक कर्म का कर्ता होता है । मूल बात है कि कर्ता का भाव जैसा होगा, उससे कर्म भी वैसे ही होंगे । वह चाहे तो कर्म के स्वरूप को बदल सकता है । इसके लिए उसे अपने भाव को बदलना होगा तभी वह कर्म का स्वरूप भी बदल पाएगा अन्यथा नहीं । अगर कर्ता का भाव अकर्ता का हो जाता है, तो वह कर्म करते हुए दिखता तो है परन्तु वास्तव में उससे कर्म होते नहीं है ।
कर्ता के विषय में एक बात बड़ी ही महत्वपूर्ण है कि अगर कर्ता सात्विक है और अगर कुछ समय के लिए भी उसके भाव तामसिक हो गए तो उस समय उससे होने वाले कर्म तामसिक ही होंगे । इसका कारण है कि सात्विक व्यक्ति में सत्व गुण प्रधान अवश्य है परंतु शेष दो गुणों की मात्रा भी कमोबेश कुछ न कुछ बनी ही रहती है । इसलिए कर्ता को सदैव कर्म करने के प्रति सचेत रहना चाहिए ।
कर्म का विषय बड़ा ही जटिल है । जितना आप कर्म को जानने का प्रयास करेंगे, कर्म के रहस्य की भूलभुलैया में फँसकर उसी में चक्कर लगाते रहेंगे, फिर भी कर्म की गति को पूर्ण रूप से कभी भी नहीं जान पाएंगे । कर्म की गति से अर्थ है, आपके द्वारा किए गए कर्म का परिणाम अर्थात् वह कर्म आपको किस ओर ले जा सकता है ? यह जानना । अब प्रश्न है कि हमें कर्म का परिणाम क्या मिलता है ? प्रत्येक कर्म का एक निश्चित परिणाम निकलता ही है, इसमें संशय नहीं है । उस कर्म के परिणाम को हम अपने स्तर पर किस प्रकार अनुभव करते हैं ? यह जानना महत्वपूर्ण है ।
हमारे ऊपर कर्म के परिणाम का प्रभाव हमारी मानसिकता (कर्म करते हुए उसमें लिप्त होना) और कर्म करने के उद्देश्य (लिप्त होकर कर्म करना) पर निर्भर करता है । कर्म करने का उद्देश्य अगर हमारी कामना है अर्थात् मन में फल की इच्छा रखकर कर्म कर रहे हैं (लिप्त होकर कर्म करना) तो परिणाम हमें सुख अथवा दुःख के रूप में मिलेगा । सुख का अनुभव हमें अधिक उत्साहित कर देगा और दुःख हमें विचलित कर सकता है । यदि यही कर्म हम बिना फलेच्छा के करें (निर्लिप्त रहकर कर्म करना) तो ऐसे में हम कर्म के परिणाम से विचलित नहीं होंगे ।
मन से यदि हम कर्म से मिलने वाले फल को सहज रूप से स्वीकार करने को तैयार हैं और साथ ही कर्म के कर्ता भी नहीं बनना चाहेंगे, (कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना) तो कर्म का जो भी परिणाम मिलना होगा, वह हमें विचलित नहीं करेगा । फिर हम कर्म से मिलने वाले सुख का अनुभव कर न तो अत्यधिक प्रसन्न होंगे और न ही दुःख मिलने पर विचलित ही होंगे ।
प्रश्न है कि हम कर्म करते ही क्यों हैं ? स्वामी शिवानन्द इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि प्रत्येक कर्म का भी पूर्व का कोई कर्म कारण होता है और उस नए कर्म का जो भी परिणाम होता है, वह फिर से भविष्य में नए जन्म में जाकर किये जाने वाले कर्म का कारण बन जाता है । इस प्रकार कर्म इस जीवन-चक्र का प्रमुख आधार है ।
स्वामीजी कहते हैं कि कर्म का होना अथवा कर्म को करना कर्ता पर निर्भर है । कहने का अर्थ है कि कर्म से अधिक महत्वपूर्ण कर्ता होता है । जैसा कर्ता होता है, उससे उसी प्रकार के कर्म होंगे । पूर्वजन्म के संस्कार से बने स्वभाव के कारण कर्ता अपने जीवन में कर्म करना प्रारम्भ करता है । उन कर्मों को करने से रोक पाना भी कर्ता के हाथ में नहीं है क्योंकि ये पूर्वजन्म के वे अधूरे कर्म हैं जो मनुष्य के उस जीवन में कामनापूर्ति के लिए हो रहे थे । इस मनुष्य जीवन में उसी कामनापूर्ति के लिये वे अधूरे कर्म पूरे होने आवश्यक हैं अन्यथा मनुष्य को उन कर्मों की पूर्णता के लिए फिर से कई जन्म और लेने पड़ेंगे । स्वभावानुसार प्रारम्भ हुए कर्मों से यदि मनुष्य अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लेता है अर्थात् उन कर्मों के फल में आसक्त होकर और फिर से नई कामना में नहीं उलझता तो फिर जीवन में उससे वैसे कर्म फिर से नहीं होंगे ।
प्रश्न उठता है कि क्या कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद कर लेना मनुष्य के लिए इतना आसान है ? बहुत कठिन है, कर्म से सम्बन्ध तोड़ लेना । इसके दो कारण हैं - प्रथम - कर्म प्रायः फल की इच्छा रखते हुए किए जाते हैं जिसके कारण कर्म से सम्बन्ध बन ही जाता है । दूसरा महत्वपूर्ण कारण है, स्वयं को कर्म का कर्ता मान लेना । कर्ता मानना व्यक्ति में कर्तृत्वाभिमान पैदा कर देता है, जिससे कर्म के साथ सम्बन्ध सुदृढ़ हो जाता है । मनुष्य क्यों नहीं तोड़ पाता कर्मों से सम्बन्ध ? इस लेख का यह अतिमहत्वपूर्ण प्रश्न है । इस प्रश्न के जो दो उत्तर अभी दिए गए हैं, उन पर गहन चिंतन की आवश्यकता है । आगे बढ़ने से पूर्व कर्म-सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त पर दृष्टि डाल लेते हैं, फिर इस विषय पर चर्चा को आगे बढ़ायेंगे ।
घने जंगल में एक तालाब था । तालाब के किनारे पर एक कुटिया थी । कुटिया में एक संत अपने शिष्य के साथ निवास करते थे । तालाब उनके लिए जल का एक मात्र स्रोत था । तालाब में मछलियाँ अठखेलियाँ करती रहती थी । यदा कदा दूर कहीं से भोजन की खोज करते करते कुछ बगुले उस तालाब की ओर चले आते थे । एक दिन संत तालाब के किनारे शान्त भाव से बैठे भगवद्चिंतन में लीन थे । बगुले के आने की आहट से उनका ध्यान भंग हो गया । उन्होंने देखा कि बगुला तालाब में उतर चुका है । वह बिना हिले-डुले एक मछली पर टकटकी लगाए खड़ा है । सन्त ने सोचा कि अब उस मछली का शिकार बनना निश्चित है । यह सोचकर उन्होंने तत्काल ही बगुले को वहाँ से उड़ा दिया । इस प्रकार एक मछली के प्राण बच गए । संत आश्वस्त थे कि आज उन्होंने एक मछली को मरने से बचा कर पुण्य अर्जित कर लिया ।
समय पाकर संत का बुलावा आ गया । अब कुटिया में शिष्य अकेला ही रह गया । अपने गुरु के चले जाने पर उनका वह शिष्य ही सन्त हो गया । उस नए संत ने भी अपना एक शिष्य बना लिया । इस प्रकार उस कुटिया में संत और शिष्य, दोनों आराम से रहने लगे । कुटिया भी यथा स्थान थी और वह तालाब भी । तालाब में मछलियाँ और मछलियों का शिकार करने यदा कदा बगुलों का आ धमकना, पूर्व की भाँति चलता रहा । समय भले ही परिवर्तित हो गया हो, परन्तु उस स्थान पर वातावरण पूर्व की भाँति ही बना हुआ था । किसी एक के चले जाने से जगत् की गति रुक नहीं जाती । हम अपने जीवन में सोचते हैं कि हमारे जाने से संसार में एक रिक्तता आ जाएगी परन्तु प्रकृति में परिवर्तन भले ही कितना ही हो जाए, उसमें रिक्तता आना असंभव है । परिवर्तन भी मात्र इतना ही होता है कि पिता के चले जाने पर पुत्र ही पिता बनकर उस रिक्तता को भर देता है, जैसे कि कुटिया से गुरु के चले जाने पर शिष्य ही गुरु बन गया था और उसके पास भी एक शिष्य आ गया था ।
हाँ, तो बात चल रही थी कि गुरु तो चले गए और उनके शिष्य ही नए गुरु के रूप में अपने शिष्य को ज्ञान देने लगे । एक रात को नए सन्त ने स्वप्न में अपने गुरु को देखा । गुरु ने कहा कि बेटे, मैं तुम्हें एक महत्वपूर्ण बात बता रहा हूँ, ध्यान से सुनना । तालाब में मछली का शिकार करने आए बगुले को कभी भी मत उड़ाना । मैंने एक दिन मछली का शिकार करने आए बगुले को उड़ा दिया था, जिससे वह बगुला उस दिन भूखा ही रह गया । मैंने सोचा था कि मछली के प्राण बचाने के लिए किए गए कर्म से मुझे पुण्य प्राप्त होगा परंतु भूखे बगुले को उड़ाने का वह कर्म मेरे लिये पाप कर्म बन गया ।
दिवंगत सन्त अपने शिष्य को स्वप्न में आगे कह रहे हैं कि बगुले के भूखे रह जाने से बने पाप कर्म के कारण मुझे कुछ दिनों के लिए नरक में जाना पड़ा । वहाँ मैं कई दिनों तक भूखा बैठा रहा । अपना पाप कर्म भुगतने के बाद आज ही मैं वहाँ से मुक्त हुआ हूँ । इसलिए तू मेरी इस बात की गाँठ बाँध ले कि तालाब में आए बगुले को भूलकर भी मत उड़ाना । इतना सुनते ही नए गुरु का स्वप्न टूट गया । उन्होंने मन में यह बात दृढ़ता से बिठा ली कि तालाब में आए बगुले को किसी भी हाल में उड़ाना नहीं है ।
जीवन में सभी का अपना-अपना अनुभव होता है और उसी अनुभव के अनुसार वे पाप और पुण्य कर्मों की व्याख्या कर लेते हैं । महत्वपूर्ण बात तो कर्म के साथ बने सम्बन्ध की है । वह सम्बन्ध अन्त तक कैसा बना रहेगा जब तक स्पष्ट नहीं हो जाता तब तक कर्म की गति किस प्रकार की होगी, कहा नहीं जा सकता ।
समय बदलता है परन्तु परिस्थितियां वैसे ही आती- जाती रहती है । बीत जाने वाला समय पुनः नहीं लौटता परन्तु परिस्थितियों का बार- बार आगमन पहले की भांति ही होता रहता है । अंतर केवल इतना ही होता है कि व्यक्ति अर्थात् प्राणी बदल जाते हैं, स्थान वहीं का वहीं बना रहता है । कुटिया और तालाब के पास समय अवश्य ही बीता, प्राणी भी बदले परंतु एक दिन वैसी ही परिस्थिति बन गई जैसे बूढ़े गुरु के समय बनी थी । कहीं दूर से कुछ बगुले आए थे । उन्होंने मछलियों को कई दिनों तक अपना आहार बनाया । एक दिन तालाब के किनारे बैठे गुरु चिंतन में लीन थे कि तालाब में बगुले की उपस्थिति का उनको भान हुआ । उन्होंने देखा कि बगुला एक मछली के पीछे पड़ा हुआ है । वह बार-बार मछली को मारने के लिए चौंच मारता परन्तु मछली प्रत्येक बार स्वयं को बचा लेती । उसको अपने गुरु की स्वप्न में कही गई बात का स्मरण हो आया । उसने बगुले को नहीं उड़ाया । नए गुरु केवल बगुले और मछली के मध्य चल रही आँख-मिचौली को देखते रहे । अंततः बगुले ने मछली को मार ही डाला ।
नए सन्त का भी एक दिन बुलावा आ गया । ये संत भी शिष्य को अकेला छोड़ कर चले गए । आना-जाना, प्रत्येक प्राणी की नियति में है । राजा भी जाएगा, फ़क़ीर भी जाएगा । आना-जाना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण है, आपका यहां से साथ क्या ले कर जाना ? आप यहाँ से जन-धन को तो साथ लेकर जा नहीं सकते । हाँ, अपने द्वारा किए गए कर्म और अपनी अपूर्ण कामनाएं आपके साथ अवश्य ही जाएँगे । यहां रहते हुए आपने क्या किया, कैसे कर्म किए, किसलिए किए ? ऐसे कर्म ही आपका भावी जन्म-जीवन निश्चित करते हैं ।
दो पीढ़ियों के चले जाने के उपरांत भी कुटिया और उसके आस-पास कुछ भी नहीं बदला था, सिवाय समय और प्राणियों के । संसार वैसे ही चल रहा था । किसी के जाने-आने से संसार की गति में कोई अंतर नहीं आता । तालाब और कुटिया पूर्व की भांति अपने स्थान पर ही थे । तीसरी पीढ़ी के रूप में बचा शिष्य भी अब संत बन गया था । ज्ञान की खोज में एक जिज्ञासु वहाँ आकर उनके साथ रहने लगा । वह उनका शिष्य बन गया । संसार में कभी रिक्तता आ ही नहीं सकती क्योंकि परमात्मा स्वयं संसार के रूप में अवतरित हुए हैं । परमात्मा पूर्ण हैं, उनमें अपूर्णता नहीं आती । तीसरी पीढी के संत और उनका युवा शिष्य, दोनों कुटिया में जीवन बिताने लगे । संत परमात्मा के चिंतन में रत रहते । शिष्य पूर्ण समर्पण भाव से उनकी सेवा करता और अपना आध्यात्मिक ज्ञान बढ़ाता ।
एक दिन नए सन्त ने अपने गुरु को स्वप्न में देखा । वे कह रहे थे कि बेटा ! तालाब मे जब भी बगुले आए और मछली मारने लगे तो उसे उड़ाने अथवा न उड़ाने का निर्णय सोच-समझकर करना । मेरे गुरु ने बगुले को उड़ा दिया था, जिससे उस दिन वह भूखा रह गया। इसके कारण मेरे गुरु को नरक जाना पड़ा। मैंने अपने गुरु के कहने से बगुले को नहीं उड़ाया था, जिस कारण से मुझे कुछ समय के लिए नरक में जाकर मरती हुई उस मछली की तरह तड़फना पड़ा था जो कि बगुले को न उड़ाने के कारण मारी गई थी । कारण, उस दिन बगुले ने मछली को क्रीड़ा करते हुए मार डाला था । वह चौंच मारकर मछली को तड़फते देखकर खुश हो रहा था । मछली को बगुले ने अपना पेट भरने के लिए नहीं मारा था क्योंकि उस दिन वह भूखा नहीं था । केवल अपने मनोरंजन के लिए ही उसने मछली को मार डाला था । उस दिन मेरे द्वारा बगुले को उड़ा देना ही मेरा कर्तव्य था । मैं तो उस दिन उसे उड़ा नहीं पाया था पर तू इस बात का ध्यान अवश्य रखना और ऐसी परिस्थिति आए तो अपने विवेक से सोच-समझकर निर्णय लेना ।
शिष्य जो अब तीसरी पीढ़ी का गुरु बन गया था, ने अपने गुरु की कही बात पर गंभीरता से विचार किया । वह सोच रहा था कि मेरे गुरु के गुरु को बगुला उड़ाने के कारण नरक जाना पड़ा और मेरे गुरु को बगुला न उड़ाने के कारण नरक जाना पड़ा । इसका अर्थ हुआ कि मैं बगुले को नहीं उड़ाऊँगा अथवा उसे उड़ा भी दूँगा, तो भी प्रत्येक परिस्थिति में मुझे नरक जाना पड़ सकता है । दोनों में से किसी भी परिस्थिति में नरक जाना ही होगा, इसका अर्थ है कि बगुले को उड़ाने अथवा न उड़ाने से नरक जाने का कोई सम्बन्ध नहीं है । दोनों ही परिस्थितियों में मेरे गुरु और दादा गुरु से कर्म तो हुआ ही है । भूखे बगुले को उड़ा देना भी कर्म है (लिप्त रहकर कर्म करना) और मछली को खेल-खेल में मारते और मरते देखना (कर्म न करते हुए भी कर्म करना) भी कर्म है ।
कर्म करना अथवा न करना, दोनों जिस भाव से किए जाते हैं, वह भाव महत्वपूर्ण है । इसका अर्थ है कि कर्म जिस भाव से किए जाते हैं, वह भाव ही कर्म का परिणाम (कर्म की गति) निश्चित करता है । आप अपने स्तर पर कर्म की गति (कर्म का परिणाम) का निर्धारण नहीं कर सकते । जिस कर्म को आप पुण्य कर्म समझ रहे हैं, वह पाप-कर्म भी तो हो सकता है ।
आइए ! दृष्टान्त के पूर्व जिस स्थिति में विवेचन चल रहा था, उसी स्थिति में पुनः चलते हैं । उस समय एक महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने था, उसका उत्तर जानने के लिए आगे बढ़ते हैं । प्रश्न था कि मनुष्य कर्मों से अपना सम्बन्ध क्यों नहीं तोड़ पाता ? कर्मों में लिप्त हो जाना अर्थात् प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कर्म के साथ जुड़ जाना ही उसके संसार के आवागमन से मुक्त होने में बाधक है । कर्मों में लिप्त होने का अर्थ है, कर्मों से सम्बन्ध बना लेना अथवा मान लेना ।
मनुष्य ही क्यों, कोई भी प्राणी इस संसार में क्षण भर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता । शरीर को सुचारू रूप से चलाने के लिए इसमें विभिन्न क्रियाएँ चलती रहती है । ये सभी क्रियाएँ प्रकृति में, उस शरीर में उपस्थित तीन गुणों के कारण सतत चलती रहती है । हमारा शरीर प्रकृति के अन्तर्गत है, इसलिए इसमें क्रियाओं का चलना स्वाभाविक है ।
प्रत्येक क्रिया का एक निश्चित परिणाम निकलता है । बिना किसी परिणाम के कोई क्रिया होती ही नहीं है । शरीर प्रकृति का अंश है और हम परम पुरुष के । चूँकि यह भौतिक शरीर प्रकृति का एक अंश है तो उसमें भी क्रियाएँ होंगी । उन क्रियाओं का परिणाम भी हमारे ही शरीर को मिलेगा । स्वामीजी कहते हैं कि क्रिया भी प्रकृति में होती है और उसकी सिद्धि भी प्रकृति में होती है । कोई भी क्रिया और उससे होने वाली सिद्धि स्वरूप तक नहीं पहुँचती ।
प्रकृति की इन क्रियाओं को जब हम अपने द्वारा होना मान बैठते हैं, तब यही क्रियाएँ हमारे द्वारा किए जाने वाले कर्म बन जाती है और हम उन कर्मों के कर्ता । कर्ता होने से उन कर्मों के परिणाम के भोक्ता भी हम ही होंगे । कर्मों का परिणाम भले ही शरीर को प्रभावित करता हो परंतु शरीर में स्थित पुरुष को कर्मों का परिणाम तनिक भी प्रभावित नहीं कर सकता, केवल प्रभावित करता प्रतीत ही होता है । इस प्रतीति का कारण पुरुष द्वारा प्रकृति के गुणों का संग कर शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेना है ।
क्रियाओं को कर्म बनाकर ही मनुष्य उसके साथ एक अटूट सम्बन्ध स्थापित कर लेता है । कर्म का फल या तो सुखद होगा अथवा दुखद । दोनों ही स्थितियों के मध्य मनुष्य जीवनभर डोलता रहता है । यही कारण है कि मनुष्य जीवन भर इन कर्मों में लिप्त बना रहता है और इनसे अपना सम्बन्ध तोड़ नहीं पाता ।
सन्त और शिष्य के दृष्टांत में तीसरी पीढ़ी का सन्त इस विषय पर जो कुछ चिंतन कर रहा है, वह निश्चित ही कर्मों के रहस्य को एक सीमा तक उजागर कर पाने में सफल होगा । जो मनुष्य अपने बड़े-बुजुर्ग के कर्मों से सीख लेकर उन्हें अपने जीवन में उतारेगा, निश्चित ही एक दिन वह सभी कर्मों से मुक्त हो जाएगा ।
प्रायः हम लोगों में कर्म के स्वरूप को लेकर बहुत बड़ी भ्रांति है । इस भ्रांति के कारण जिस कर्म को हम उसका स्वरूप सोचकर करते हैं, उसका परिणाम कई बार हमारी उस सोच के ठीक विपरीत निकलता है । संसार के जनों की सेवा करने को हम निष्काम कर्म समझते अवश्य हैं परन्तु यह सेवा भाव जब हमारी प्रसिद्धि और मान-सम्मान की कामना से जुड़ जाता है तो वह कर्म तत्क्षण ही सकाम कर्म की श्रेणी में आ जाता है । निष्काम कर्म यदि वास्तव में कामना रहित हो तो यह कर्म भी एक दिन अकर्म में परिवर्तित हो जाता है ।
विकर्म वे सकाम कर्म होते हैं, जो मनुष्य की बढ़ी हुई कामनाओं को येन केन प्रकारेण पूरा करने के लिए किए जाते हैं, भले ही उसके लिए शास्त्र निषिद्ध कर्म ही क्यों न करने पड़ें । विकर्म तो निषिद्ध कर्म हैं ही और उसके स्वरूप के बारे में भी किसी प्रकार का संशय नहीं है ।
सबसे बड़ा संशय तो अकर्म को लेकर है । अकर्म का अर्थ प्रायः लोग कर्म न करने से लेते हैं । संसार का कोई भी जीव अपने जीवन में क्षण मात्र के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता क्योंकि उसका शरीर प्रकृति का अंश है और प्रकृति में क्रियाएँ सतत चलती रहती है । इसका अर्थ हुआ कि कर्म का त्याग भी कभी भी पूर्ण रूप से नहीं हो सकता । अतः अकर्म का अर्थ कर्म न करने से तो हो ही नहीं सकता । अकर्म का अर्थ है - कर्म हो भी रहे हैं और शरीर में स्थित पुरुष का कर्म करने से कोई सम्बन्ध नहीं है, अर्थात् उसमें फल की कोई इच्छा नहीं है, और साथ ही कर्तृत्वाभिमान भी नहीं है ।
गीता में भगवान कहते हैं कि जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है, वह वास्तव में सही देखता है । निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना - अकर्म में कर्म देखना है और कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना - कर्म में अकर्म देखना है । बिना फलेच्छा के कर्म करना, निर्लिप्त रहकर कर्म करना है । इसमें कर्म प्रारंभ करने के पूर्व, कर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है, फिर भी कर्म तो संपन्न हो ही रहे हैं । यह अकर्म में कर्म देखना है ।
कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना अर्थात् स्वयं को कर्ता न मानना । कर्म में किसी भी प्रकार का कर्तृत्वाभिमान न रखना कर्म करते हुए उससे निर्लिप्त रहना है । इसमें कर्म करने का भान तो कर्ता को रहता है परन्तु कर्म के साथ वह अपना कोई सम्बन्ध नहीं रखता । यह कर्म में अकर्म देखना है ।
विकर्म और अकर्म के बाद कर्म का जो तीसरा स्वरूप है, वह कर्म ही कहलाता है । विभिन्न विद्वानों ने इसको कई उपश्रेणियों में बांट दिया है । अल्प रूप से उनकी चर्चा भी कर लेते हैं । सकाम और निष्काम कर्म के अतिरिक्त स्व-कर्म और कर्तव्य कर्म भी कर्म के अंतर्गत आ जाते हैं । सकाम कर्म भी कई प्रकार के हैं, जिनमें क्रियमाण कर्म भी एक है । प्रथम प्रकार के कर्म क्रियमाण कर्म हैं । ये वे कर्म हैं जो वर्तमान में किए जा रहे हैं और फल देकर समाप्त हो जाते हैं । दूसरे कर्म वे होते हैं, जो एक मनुष्य जीवन में परिपक्व होकर फल नहीं देते । वे कर्म चित्त में संचित होते जाते हैं - संचित कर्म । तीसरे प्रारब्ध कर्म - संचित कर्म ही प्रारब्ध कर्म बन कर नए जीवन में जाकर परिपक्व होकर फल देते हैं ।
स्व-कर्म का अर्थ है, जन्म के साथ मिले अपने स्वभाव और वर्ण के अनुसार कर्म करना । इन कर्मों को मनोयोग पूर्वक करने से भी मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है । आज के युग में स्वाभाविक कर्म से विमुख होना एक फ़ैशन बन गया है जिसके कारण समाज में विषमता की स्थिति बनती जा रही है । लोग वर्ण को जाति कहकर विषमता बढ़ाने का दोषारोपण करते हैं जबकि वास्तविकता है कि वर्ण व्यक्ति के पूर्व मानव जीवन के कर्मों (संस्कार) के आधार पर निश्चित होता है । सभी अपने वर्ण-धर्म के अनुसार आचरण करें तो विषमता पैदा होने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
कर्म के अन्तर्गत एक प्रकार के और कर्म हैं, जिनको कर्तव्य कर्म कहा जाता है । कर्तव्य कर्म को धर्म माना गया है । कर्तव्य कर्म की मनुष्य जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है । वर्तमान जीवन में जो कर्म-क्षेत्र आपने अपने लिए चुना है, उसके अनुसार आपका एक कर्तव्य निश्चित है । जैसे चिकित्सक का कर्तव्य है, चिकित्सा सेवा देना, एक सैनिक का कर्तव्य है, देश की दुश्मनों से रक्षा करना । इसी प्रकार न्यायाधीश का कर्तव्य है, विवाद की स्थिति में निष्पक्ष रहते हुए न्याय करना ।
मनुष्य अपना कर्तव्य समझकर जो कर्म करता है, उससे उसका किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहता । इसके लिए आवश्यक है कि जिसके प्रति कर्तव्य समझकर कर्म किए जा रहे हैं, उनसे किसी प्रकार की अपेक्षा न रखी जाय । जब कोई अपेक्षा नहीं होगी, तब कर्तव्य कर्म भी एक दिन अकर्म में परिवर्तित हो जाते हैं । मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना है कि वह स्वार्थ के वशीभूत होकर प्रत्येक कर्म के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है । यही कारण है कि वह संसार के आवागमन के चक्कर में पड़कर उन कर्मों के फल भोगने को विवश हो जाता है ।
मनुष्य के जीवन में सगे-सम्बन्धी, मित्र, परिवार आदि के रूप में सबका एक साथ जो संगम होता है, उसका कारण पूर्व मानव जीवन का ऋणानुबंध है । पूर्व जीवन में किसी से कुछ लेना शेष रह गया था अथवा किसी को कुछ देना बाक़ी था । इस जीवन में कर्मों को करते हुए वह लेन-देन पूरा किया जाता है, ऐसे कर्म भी कर्तव्य-कर्म कहलाते हैं । आपका इनमें से प्रत्येक के प्रति कुछ न कुछ कर्तव्य होता है, उस कर्तव्य के लिए कर्म करना पड़ता है ।
मनोयोग से कर्तव्य निभाने पर ही कर्मों से आपका सम्बन्ध समाप्त होगा । स्वामीजी कहते हैं कि जिसको देना है, उसकी सेवा करो परन्तु ध्यान रखो कि इस जीवन में किसी से नया कुछ भी लेना नहीं है । अगर इस जन्म में भी लेना जारी रखा तो नया कर्म-बंधन तैयार हो रहा है, जो आपको पुनः कई जन्मों की यात्रा करवाएगा । महत्वपूर्ण बात है कि हमें निर्लिप्त रहकर लोकसंग्रह अर्थात् लोकहित के लिए कर्तव्य कर्म करना है । यही अकर्म में कर्म है ।
लोकसंग्रहार्थ कर्म करने का सबसे अच्छा उदाहरण राजा जनक का है । राजा जनक को विदेहराज भी कहा जाता है अर्थात् वे अपने शरीर में आसक्ति नहीं रखते थे । उन्होंने मिथिला राज्य का संचालन बड़े ही कुशल तरीक़े से किया था । वे प्रजा से कर भी लेते थे परंतु इस कर का उपयोग वे प्रजा के हित में करते थे, स्वयं के लिए नहीं । वे राज्य में कभी आसक्त नहीं रहे । न तो राज्य के प्रति उनका ममत्व था और न ही राजा होने का उनमें अहंकार ही था । कर्ताभाव उनको छूकर तक नहीं गया था । इसीलिए उनको जीवन्मुक्त, शरीरमुक्त अर्थात् विदेहराज कहा जाता है ।
राज्य का संचालन कर्तव्य समझकर करना और किसी व्यवसाय को कर्तव्य मानकर करना, दोनों में तनिक सा अन्तर भी नहीं है । आज हम देखते हैं कि व्यवसाय के क्षेत्र में राजा जनक का उदाहरण गौण हो गया है क्योंकि लोगों ने व्यवसाय को कर्तव्य न समझकर केवल धन उपार्जन का साधन बना लिया है । आज सभी लोग लोकसंग्रहार्थ के स्थान पर स्वार्थपूर्ति हेतु कर्म करते हुए सुख-भोग और धन संग्रह करने में लगे हुए हैं ।
व्यावसायिक कर्म को आप किस दृष्टि से देखते हैं, उसी दृष्टि के अनुसार आपका उस कर्म से सम्बन्ध बनता है । यदि केवल धन कमाकर उसका संग्रह करना ही हमारा उद्देश्य है तो ऐसे व्यावसायिक कर्म से हमारा सम्बन्ध गहरा है । ऐसे सम्बन्ध को तोड़ पाना बहुत ही कठिन है । यह व्यवसाय से सम्बन्ध हमारे स्वार्थ पर आधारित है क्योंकि इसमें कर्म हम अपने कामनापूर्ति के लिए करते हैं । ऐसे सभी व्यावसायिक कर्म सकाम कर्म की श्रेणी में आ जाते हैं ।
परिवार का भरण-पोषण करने जितना सम्बन्ध व्यावसायिक कर्म के साथ रखेंगे तो यह हमारा कर्तव्य कर्म कहलाएगा । इस प्रकार किए जाने वाले व्यवसाय से कई अन्य परिवारों का भरण-पोषण भी हो रहा है । उनके भरण-पोषण से अगर हमारी मान-सम्मान और बड़ाई की भावना नहीं जुड़ी है तथा कर्म अहंकारशून्य होकर किए जा रहे हैं तो ऐसे कर्म निष्काम कर्म है । ऐसे कर्म बँधनकारी नहीं हैं । कर्तव्य समझकर किए जाने वाले व्यवसाय में आप कर्म करते हुए भी उन कर्मों के कर्ता नहीं है । यह कर्म में अकर्म देखना हुआ । ऐसे कर्तव्य-कर्म अकर्म है, भले ही संसार की दृष्टि में आप कितने ही बड़े कर्ता हों ।
स्वार्थ आधारित व्यावसायिक कर्म आपमें अहंकार पैदा करता है । यह अहंकार दो कारण से उत्पन्न होता है । प्रथम - आप यह मानने लगते हैं कि “मैं हूँ और मेरे कारण” ही यह व्यवसाय सुचारू रूप से चल रहा है । दूसरा- इस व्यवसाय के कारण कई परिवारों का भरण-पोषण मेरे द्वारा हो रहा है । अहंकार चाहे किसी भी बात को लेकर हो, वह मूढ़ता को जन्म देता है । इस प्रकार अहंकार और अज्ञान के कारण मनुष्य स्वयं को उस व्यवसाय का कर्ता मान बैठता है ।
अकर्म का कोई कर्ता नहीं होता, फिर भी कर्म होते हैं । अहंकार और अज्ञान के कारण कर्म के साथ अपना सम्बन्ध बना लेना ही हमें कर्ता बना देता है । मनुष्य कर्म के साथ सम्बन्ध क्यों बना लेता है ? जब तक हमें कर्म का सही रूप से ज्ञान नहीं होगा, तब तक हम प्रत्येक कर्म को एक ही दृष्टि से देखते रहेंगे । प्रत्येक कर्म अपनी एक विशिष्टता रखता है । उस विशिष्टता के आधार पर ही यह निश्चित होता है कि उस कर्म के साथ हमारा सम्बन्ध है अथवा नहीं । प्रत्येक कर्म के साथ हमारा सम्बन्ध हो ही, यह आवश्यक नहीं है । कर्म के साथ सम्बन्ध तभी जुड़ता है, जब उस कर्म को करने में हमारा स्वार्थ निहित हो । निस्वार्थ भाव से किए जाने वाले कर्म से हमारा सम्बन्ध जुड़ ही नहीं सकता ।
आइए ! पुनः चलते हैं कर्मों की गति के विषय की ओर । पूर्व में हमने एक दृष्टान्त पर चर्चा की थी जिसमें संत, तालाब, मछली और बगुले की चर्चा हुई थी । पहले सन्त ने बगुले को उड़ा दिया था इसलिए उन्हें नरक जाना पड़ा । दूसरे संत ने बगुले को नहीं उड़ाया, जिसके कारण मछली मारी गई । उन्हें भी अपने कर्म के कारण नरक जाना पड़ा । अब तीसरे संत, अपने दादा गुरु और गुरु के कर्मों की गति पर गहन चिंतन कर रहे हैं ।
सन्त सोच रहे हैं कि मेरे गुरु के गुरु (दादा गुरु) को बगुला उड़ाने के कारण नरक जाना पड़ा और मेरे गुरु को बगुला न उड़ाने के कारण नरक जाना पड़ा । इसका अर्थ हुआ कि मैं बगुले को नहीं उड़ाऊँगा अथवा उसे उड़ा भी दूँगा, तो भी प्रत्येक परिस्थिति में मुझे नरक ही जाना पड़ेगा । दोनों में से प्रत्येक परिस्थिति में नरक जाना ही होगा, इसका अर्थ है कि बगुले को उड़ाने अथवा न उड़ाने से नरक जाने का कोई सम्बन्ध नहीं है । दोनों ही परिस्थितियों में मेरे गुरु और दादा गुरु से कर्म तो हुआ ही है । भूखे बगुले को उड़ा देना भी कर्म है (लिप्त रहकर कर्म करना) और मछली को खेल-खेल में मारते और मरते देखना (कर्म न करते हुए भी कर्म करना) भी कर्म है ।
कहने का अर्थ है कि व्यक्ति का जीतेजी कर्म से सम्बन्ध त्याग कठिन है । मन के भाव ही कर्म के संबंध से मुक्त नहीं होने देते । कर्म से स्वयं का सम्बन्ध न जोड़ें तो व्यक्ति के समक्ष दो प्रकार की स्थितियाँ बन सकती है । पहली - आप कुछ न करते हुए भी सब कुछ करते हैं । दूसरी अवस्था ऐसी भी है, जिसमें आप सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करते ।
तीसरे सन्त के सामने दुविधा थी कि मेरे गुरु जैसी परिस्थिति भविष्य में मेरे समक्ष आ गई तो मुझे क्या करना चाहिए ? तीसरे सन्त के मन में उधेड़बुन लगातार चल रही है । वे सोच रहे हैं कि मेरे दादा गुरु ने अपना कर्तव्य निभाया क्योंकि उनकी दृष्टि में मछली के जीवन की रक्षा करना उनका कर्तव्य था । परन्तु बगुले को भोजन से दूर कर देना भी तो अनुचित था, इसलिए दादा गुरु को नरक जाना पड़ा ।
उसके गुरु ने बगुले को नहीं उड़ाया क्योंकि दादा गुरु ने कहा था कि बगुले को मत उड़ाना । उस दिन बगुला अपने भोजन के लिए मछली नहीं मार रहा था बल्कि बगुले ने क्रीड़ा करते करते मछली को मार डाला था । उसने मछली को मारकर उसे अपना भोजन नहीं बनाया था । उस दिन गुरु का कर्तव्य मछली के जीवन की रक्षा करना था, जिसमें वे विफल रहे थे । इस कारण उन्हें नरक जाना पड़ा था ।
दोनों ही परिस्थितियों का अवलोकन करने से अनुभव होता है कि कर्म करने से पूर्व कर्म की गति को जानना असम्भव है । प्रश्न उठता है कि ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति क्या करे जिससे उसे कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध हो जाए ? बहुत कठिन है, इस प्रकार का बोध होना । फिर ऐसी स्थिति समक्ष आने पर क्या किया जाए ? तीसरा संत इसी उधेड़बुन में संयोगवश एक दिन तालाब के किनारे पहुँच ही गया । उस दिन फिर वैसा ही दृश्य, कहीं दूर से एक बगुला आता है, मछली पर घात लगाता है, वह तत्पर है मछली मारने को । संत को अपने दादा गुरु और गुरु का स्मरण हो आया परन्तु उसके मन में किसी प्रकार का कर्तव्य भाव नहीं जगा । दृश्य देखकर तत्काल ही उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिए और परमात्मा से प्रार्थना करने लगे ।
कुटिया के पास तालाब, तालाब में बगुला, जल में मछली, बगुला मछली मारने की ताक में और तालाब के किनारे नेत्र मूँदकर बैठे हुए परमात्मा के चिंतन में रत संत । संत परमात्मा से प्रार्थना कर रहे हैं -
“हे मालिक ! आप ही बगुले हैं, आप ही मछली हैं । मैं अकिंचन भला आपकी लीला के मध्य बाधक क्यों बनूँ, आपकी लीला में व्यवधान क्यों डालूं ? आप बगुले बन भूखे रहो या भोजन करो, मछली बनकर मरो अथवा बचो, मैं कुछ करने वाला होता ही कौन हूं ? आपकी लीला देखकर मैंने अब ऐसी अवस्था प्राप्त कर ली है, जहां पहुँचकर मेरा संसार से कोई कर्तव्य शेष नहीं रह गया है ।”
संत की इस प्रार्थना से स्पष्ट है कि वे सभी प्रकार के कर्तव्य से मुक्त हैं । प्रश्न उठता है कि कर्तव्य से मुक्त कैसे हुआ जा सकता है क्योंकि कर्तव्य कर्म तो करने ही पड़ते हैं ? इसका उत्तर भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को दे रहे हैं -
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।। गीता - 3/17 ।।
अर्थात् जो मनुष्य अपने आप में ही रमण करने वाला और अपने आप में ही तृप्त तथा अपने आप में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है ।
अपने दादा गुरु और गुरु के कर्मों से सीख लेकर तीसरी पीढ़ी के संत आत्मज्ञान को प्राप्त हो चुके हैं । उन्होंने कर्तव्य और सभी प्रकार के कर्मों से अपना संबंध विच्छेद कर लिया था । इसका अर्थ यह नहीं है कि उनसे कर्म हो ही नहीं रहे है । कोई भी प्राणी हो, जब तक शरीर है, तब तक कर्म तो होंगे ही । हाँ, कर्मों को करने अथवा न करने में उसकी आसक्ति समाप्त हो जाती है ।
व्यक्ति कर्म अपने लिए करता है और वह भी टूटकर तथा साथ ही अपने आपको कर्मयोगी भी बताता है । यह कर्मयोग नहीं है । ऐसा करने से तो कर्मों के साथ संबंध बना ही रहेगा । कर्म करते हुए कर्मयोग को उपलब्ध होने से ही कर्मोंसे सम्बन्ध समाप्त होता है । स्वामीजी कहते हैं कि कर्म संसार की सेवा के लिए करें और योग स्वयं के लिए । तभी कर्म करते हुए कर्मयोग सिद्ध होता है ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं -
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय: ।। गीता - 3/18 ।।
अर्थात् कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष का इस संसार में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न ही कर्म न करने से कोई प्रयोजन रहता है तथा संपूर्ण प्राणियों में किसी भी प्राणी के साथ उसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता ।
उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट होता है कि कर्मयोग से सिद्ध हुआ पुरुष सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करता क्योंकि कर्म करने में उसका कोई स्वार्थ नहीं है । साथ ही उसका कर्म न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता क्योंकि वह जानता है कि शरीर के रहते कर्म से पलायन करना संभव ही नहीं है । फिर वह क्यों तो कर्म करने में फँसे और क्यों कर्म न करने में उलझे । कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं । अतः कर्म करने अथवा कर्म न करने से शरीर (प्रकृति) का तो सम्बन्ध है परन्तु कर्म से स्वयं (स्वरूप) का कोई सम्बन्ध नहीं है ।
मूलतः यह लेख एक साधक के द्वारा किए गए प्रश्न पर आधारित है । उनका प्रश्न था कि जब कर्म हमारे द्वारा किए जा रहे हैं तो फिर हम अकर्ता कैसे हो सकते हैं ? उनका कहना था कि व्यवसाय का कार्य व्यक्ति स्वयं ही करता है, तो फिर कर्ता भी तो वही हुआ, ऐसे में हम अपने आपको अकर्ता कैसे माने ? व्यवसाय के कार्य से हम अपना सम्बन्ध विच्छेद कैसे कर सकते हैं ? व्यावसायिक कर्म से सम्बन्ध विच्छेद कर लेने पर क्या व्यवसाय छिन्नभिन्न होकर समाप्त नहीं हो जाएगा ?
हमारी सबसे बड़ी समस्या यही है कि प्रत्येक कर्म को हम अपने द्वारा करना मान लेते हैं । बड़े कार्य को संचालित करने में कोई एक व्यक्ति कर्ता बनकर अभिमान रखता है, तो यह निश्चित है कि वह अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर सोच नहीं रहा है । एक कहावत है “अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता ।” चने के भाड़ की तरह ही प्रत्येक व्यवसाय है । केवल एक व्यक्ति किसी व्यवसाय को सुचारू रूप से नहीं चला सकता । उस व्यवसाय को चलाने में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कई लोगों का योगदान रहता है । जब इस बात को हम समझ लेंगे तब हमें तनिक सा भी कर्तृत्वाभिमान नहीं होगा । जब करने का अभिमान ही नहीं होगा तो हम स्वयं को कर्ता होना भी स्वीकार नहीं करेंगे । कर्म न करने वाला अकर्ता नहीं है । अकर्ता होने का अर्थ है, कर्म से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लेना ।
हमारे जीवन में सबसे बड़ी समस्या है कि हम प्रत्येक व्यवसाय को अपना मानते हैं । साथ ही साथ रात-दिन उस व्यवसाय के संचालन का बोझा अपने सिर पर लिए घूमते रहते हैं । व्यवसाय का यह बंधन तभी तक है जब तक इस व्यावसायिक कर्म से हम अपना सम्बन्ध मानते हैं । इस बंधन का दूसरा कारण है व्यवसाय से उपार्जित होने वाले धन के प्रति आसक्ति रखना । व्यावसायिक कर्म से सम्बन्ध रखना हमारे भीतर कर्तृत्वाभिमान पैदा करता है जिसके कारण हम प्रत्येक कर्म के कर्ता बन जाते हैं । व्यवसाय से उपार्जित किए जाने वाले धन के प्रति आसक्ति, हमें उसके फल के साथ बांध देती है । इस प्रकार हम फल में आसक्त होकर व्यावसायिक कर्म में लिप्त हो जाते हैं । यह व्यावसायिक लिप्तता हमें बार-बार विचलित करती रहती है ।
व्यवसाय को बिना फलेच्छा के करना आज के युग में असंभव माना जाता है क्योंकि प्रत्येक व्यवसाय लाभ को दृष्टिगत रखते हुए ही प्रारंभ किया जाता है । अगर व्यवसाय को प्रारम्भ करने से पूर्व लाभ-हानि का आकलन नहीं किया जाए तो व्यवसाय में सदैव अनिश्चितता बनी रहेगी । व्यवसाय से पूर्व किए गए आकलन के अनुसार लाभ की दृष्टि से जो कर्म किए जाते हैं, वे फल में लिप्त होकर किए जाते हैं, इसलिए बन्धनकारी भी होते हैं । अगर ये कर्म निर्लिप्त होकर किए जाएँ तो अकर्म बनकर मुक्त करने वाले हो जाते हैं ।
व्यवसाय पूर्व लाभ-हानि का आकलन करना अनुचित नहीं है परन्तु प्रारम्भ से ही लाभ की आशा रखना आपको व्यावसायिक कर्म के साथ बांध देता है । व्यवसाय मनोयोग से करें परंतु उस कर्म के न तो कर्ता बनें और न ही कर्म करने से पहले संभावित लाभ के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ें । केवल कर्तव्य कर्म समझते हुए व्यवसाय का संचालन करते रहें ।
व्यावसायिक कर्म को अपना कर्तव्य समझकर किए जाएँ तो फिर वे बोझ नहीं बनते । बोझ तभी तक हैं जब तक आप अपने आपको व्यवसाय का कर्ता समझते हो । व्यवसाय को अपना और केवल अपने लिए मानना ही सबसे बड़ी भूल है ।
एक दृष्टांत के माध्यम से अपनी बात स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ । एक राजा अपने राज्य का संचालन भलीभाँति कर रहा था । उसकी अध्यात्म में बड़ी रुचि थी । वह भी चाहता था कि सब कुछ छोड़छाड़कर इन कर्मों से मुक्त हो जाऊँ । जब व्यक्ति ऐसी ही किसी दुविधा का शिकार होता है, तो उसे सांसारिक और व्यावसायिक कार्य बोझ लगने लगता है । वह व्यवसाय में आसक्त है और साथ ही आसक्ति का त्याग किए बिना मुक्त भी होना चाहता है । ऐसा होना कैसे सम्भव है क्योंकि इसके पीछे सबसे बड़ी बाधा उसका कर्तापन है । संसार के कार्य हों अथवा व्यवसाय के, अगर उनको कर्तव्य समझकर किए जाएं तो फिर वे व्यक्ति को अहंकार से बचाए रखते हैं । प्रत्येक कर्म बोझ तभी तक है, जब तक उसके साथ आपने स्वयं को बांध रखा है ।
राजा के साथ भी यही था । राज्य का संचालन उनको कर्तव्य समझकर करना चाहिए था, जबकि वे कर्ता बनकर कर रहे थे । तभी राज्य का संचालन उन्हें बोझिल कार्य लग रहा था । राजा राज्य के सभी झंझटों से मुक्त होना चाहता था । इस प्रकार दुविधा में पड़े राजा के यहाँ एक संत का आगमन हुआ । राजा ने उनका यथोचित स्वागत-सत्कार किया और उचित आसान देकर बिठाया । संत से राजा के मन की दुविधा छिपी नहीं रह सकी ।
संत ने राजा से दुविधा का कारण पूछा । राजा ने कहा कि राज्य का संचालन करना बहुत ही टेढ़ा काम है । मैं इसका संचालन करते करते थक गया हूँ । मैं जानता हूँ कि राज-कार्य का संचालन मेरे अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता । संत समझ गए कि राजा अपने आपको कर्ता समझने लगे हैं जबकि उनको राज्य का संचालन अपना कर्तव्य समझकर करना चाहिए । संत ने राजा को विविध प्रकार से समझाया परंतु राजा इस बात को समझ नहीं सके ।
अंततः संत ने राजा को एक सुझाव दिया कि किसी योग्य व्यक्ति का चुनाव कर, राज्य के महत्वपूर्ण कार्य उसको सौंप दो । राजा को अपने राज्य में ऐसा कोई व्यक्ति नज़र नहीं आया, जो राज़-कार्य सही प्रकार से कर सकता हो । संत समझ गए कि राजा को किसी पर भी विश्वास नहीं है । आख़िर संत ने कहा कि राजन ! यह राज्य संचालन हेतु मुझे सौंप दो । आज से यहाँ का राजा मैं हूँ । अब आप राज़ कार्य से मुक्त हो । राजा बड़ा प्रसन्न हुआ । कहा कि गुरुजी ! आपसे अधिक योग्य इस राज्य का शासक भला कौन होगा ? मुझे बड़ी ख़ुशी है कि आप जैसे योग्य संत इस प्रजा के राजा होंगे ।
संत ने राज्य का भार सम्भालते हुए राजा को अपना मंत्री बनाया और कहा कि आज से आप यहाँ का राज कार्य सम्भालेंगे । इतना कहकर संत उठकर वहाँ से जाने लगे । राजा, जोकि अब मंत्री हैं, संत को रोकने लगा । संत ने कहा कि आपको मैंने राजा पद से मुक्त कर दिया है, अब आप राज्य का अपनी योग्यता से संचालन करें । आप मंत्री बनकर राज्य का संचालन अब भलीभाँति कर सकोगे क्योंकि जो राजा होने का जो कर्ता-भाव आप में था, मेरे राजा बनते ही उससे आप मुक्त हो चुके हैं । आपकी समस्या केवल अपने आपको कर्ता मानने के कारण थी । अब मंत्री बनते ही राजकार्य को आप अपना कर्तव्य समझकर करेंगे ।
संत ने राजा को कर्ताभाव से मुक्त करने की अच्छी राह निकाली । जब तक हम व्यवसाय को अपना और अपने लिए ही मानते है, तब तक ही हमारे भीतर कर्तृत्वाभिमान रहता है । जब व्यवसाय किसी दूसरे को सौंप दिया जाता है, तत्काल ही हम कर्ता भाव से मुक्त हो जाते हैं । फिर भले ही कर्मचारी कार्य पालन कैसे ही करते हों, हमारे ऊपर उसका प्रभाव नहीं पड़ता । हम कर्ता नहीं बनेंगे, तभी व्यवसाय को कर्तव्य कर्म समझकर भलीभाँति और बिना किसी अहंकार के कर पाएँगे । फिर सभी कर्मचारी आपको अपने ही प्रतीत होंगे और सबके बीच आपसी समझ भी बेहतर होगी ।
कर्तव्य कर्म की परिभाषा हम अपने स्तर पर ही अलग अलग प्रकार से कर लेते हैं । वास्तव में देखा जाए तो कर्तव्य कर्म सदैव स्वार्थ भाव से मुक्त होता है । स्वार्थ भाव से मुक्त व्यक्ति ही सर्वहित के कार्य कर सकता है । कर्तव्य को निभाने के लिए जो कर्म किए जाते हैं, उनमें अहंकार रखने का कोई औचित्य नहीं है । अहंकार से दूर रहकर ही हम कर्तव्य कर्म को भली प्रकार कर पाएँगे । कर्तव्य कर्म करते हुए हम संसार बंधन से सरलता से छूट जाते हैं क्योंकि हमारा एक दूसरे के प्रति कर्तव्य बनता ही तभी है, जब पूर्व जन्म में हमारा आपस का कोई लेन-देन शेष रह गया हो । इस लेन-देन को समाप्त करने का एक रास्ता व्यवसाय का भी है । एक दूसरे के व्यावसायिक हित स्वतः ही आपस में एक सम्बन्ध निर्मित कर देते हैं, जिससे पूर्वजन्म के ऋण से छुटकारा भी शीघ्र ही मिल जाता है । इस प्रकार प्रत्येक व्यवसाय को कर्तव्य समझकर करने से संसार से मुक्ति सहज ही हो जाती है ।
शरीर में चल रही क्रिया अर्थात् कर्म और जीवन के कर्तव्य कर्म, दोनों से मुक्त होने के लिए विवेक की आवश्यकता होती है । इसीलिए गीता में भगवान ने कर्मयोग को बुद्धियोग भी कहा है । विवेक प्रत्येक मनुष्य की बुद्धि में जन्म से ही रहता है । आवश्यकता है, उस विवेक का सदुपयोग करने की । विवेक आत्म-अनात्म का ज्ञान कराता है, वह प्रकृति (शरीर) और पुरुष (स्वयं) के मध्य जो अंतर है, उसको स्पष्ट करता है । विवेकानुसार आचरण करने से ही व्यक्ति कर्म से सम्बन्ध विच्छेद कर सकता है क्योंकि विवेक ही स्पष्ट करता है कि आप (पुरुष) कुछ भी नहीं करते हैं, जो कुछ भी हो रहा है, वह शरीर (प्रकृति) में हो रहा है अर्थात् जो हो रहा है वह मात्र प्रकृति के गुणों की क्रियाएँ हैं ।
व्यक्ति कर्म से अपना सम्बन्ध तीन कारण से बना लेता है - फलेच्छा, कर्तृत्वाभिमान और जीवन में किसी के आश्रय की आवश्यकता । संसार से उसे सुख मिलता प्रतीत होता है । उस सुख के लिए वह कर्म करता है । इसका अर्थ हुआ कि कर्म करने के मूल में उसकी फलेच्छा है । जब कामना के अनुसार फल मिल जाता है तो उस कर्म के साथ उसका एक विशेष सम्बन्ध बन जाता है । फल की इच्छा उसने कर्म करने से पूर्व की थी और कर्म करने के पश्चात् उसे फल की प्राप्ति हुई है । ऐसी सोच उसमें कर्तृत्वाभिमन पैदा कर देती है । यह अभिमान उसको कर्ता बना देती है ।
मनुष्य की विशेषता है कि वह किसी न किसी का आश्रय ढूँढता है । आश्रय परमात्मा का ले तो कोई बात नहीं परंतु वह संसार का आश्रय चाहता है । संसार का आश्रय लेने के पीछे उसकी सुख की चाहना है । वह समझता है कि संसार से ही उसे सुख मिलेगा । उसकी यह सोच उसे अलग से अपना एक संसार बनाने को विवश कर देती है और फिर उस संसार के आश्रय रहते हुए वह सुख भोगता है । वह यह नहीं जानता कि संसार में स्थायित्व का अभाव है । संसार में परिवर्तन होते रहना मुख्य है । न तो उसको संसार का आश्रय सुरक्षा प्रदान कर सकता है और न ही उसके कर्म ।
परिवर्तनशील संसार में परिस्थितियाँ बनती बिगड़ती रहती है । अनुकूल परिस्थिति में मनुष्य फिर भी सहज रह सकता है परंतु जरा सी प्रतिकूल परिस्थिति उसे विचलित कर देती है । इससे बचने का एक मात्र रास्ता है कि न तो कामनाओं को प्रश्रय दें, न कर्मों के कर्ता बनें और न ही संसार का आश्रय लें । जो भी स्वस्फूर्त कर्म हो रहे हैं, उसके साथ अपना संबंध न जोड़ें और जो भी दैवसंयोग से मिला है, सदैव उसमें संतुष्ट रहें । जीवन में सन्तुष्ट तभी रहा जा सकता है, जब मन में कामनाओं का विस्तार न हो और प्रकृति में हो रही क्रियाओं में कर्तापन का भाव न हो ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि फलेच्छा, कर्म और संसार का आश्रय, मनुष्य को सदैव असंतुष्ट बनाए रखते हैं । जीवन में संतुष्ट तभी हुआ जा सकता है, जब संसार का आश्रय छोड़ परमात्मा की शरण लें । इससे आप उस अवस्था को प्राप्त कर लेंगे जहां पहुंचकर आप सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करते ।
कर्म बन्धन का मूल कारण फलेच्छा यानि कामना है । फल हम पहले सोचते हैं और कर्म उसके बाद करते हैं । स्वामीजी इसको संकल्प कहते हैं । इस प्रकार फल की इच्छा के कारण हमारा सम्बन्ध कर्म के साथ हो जाता है । चाहा गया फल मिलने पर यह सम्बन्ध और भी दृढ़ हो जाता है । जब बार-बार उसी फल की चाहना करते हैं तो एक ही प्रकार का कर्म बार-बार दोहराया जाता है । फल को प्राप्त करना हमारे हाथ में है, यह सोच कर्तृत्वाभिमान को जन्म देती है ।
कर्म और फल, दोनों के लिए हमें संसार का आश्रय लेना पड़ता है क्योंकि क्रिया और विषय प्रकृति के अन्तर्गत है और संसार के आश्रय रहकर ही इनको प्राप्त किया जा सकता है । सभी कर्म अपना निश्चित फल देते हैं जिससे व्यक्ति में कर्तृत्वाभिमान और फल के प्रति आसक्ति बढ़ती है । फलेच्छा और कर्तृत्वाभिमान, दोनों कर्म के प्रति व्यक्ति को आसक्त कर देते हैं । इस प्रकार यह एक अटूट चक्र बन जाता है जिसके कारण कर्म से सम्बन्ध टूट नहीं पाता । इस आसक्ति से छूटने का एक मात्र उपाय है - मिले हुए कर्म-फल से संतुष्ट हो जाना । यह संतुष्टि जीवन में व्यक्ति को तृप्त करती है और यही तृप्ति कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद करती है ।
क्रिया को कर्म बनाना कर्ता के हाथ में है । संसार का आश्रय व्यक्ति को कर्ताभाव से मुक्त नहीं होने देता । ऐसे में व्यक्ति कर्म को स्वयं के द्वारा होना मानता है । जब कर्म और फल, दोनों की आसक्ति का त्याग कर दिया जाता है तो जीवन में संतुष्टि आती है और संसार के आश्रय की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । ऐसा मनुष्य कर्मों को अच्छी तरह करता हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं -
त्यक्त्वा कर्मफलासंगम् नित्यतृप्तो निराश्रय ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति स: ।। गीता - 4/20 ।।
अर्थात् जो कर्म और फल की आसक्ति का त्याग कर आश्रय से रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मों में अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता ।
भगवान ने अर्जुन के माध्यम से हमें कर्म का निर्विवादित ज्ञान दिया है, जिसको आत्मसात् कर हम अनासक्त होकर कर्म कर सकते हैं । अनासक्त रहकर सहज कर्म करने से न तो कर्म से सम्बन्ध जुड़ता है और न ही फलासक्ति ही पैदा होगी । जहां आसक्ति नहीं है वहाँ तृप्ति अपने आप है ।
संसार का आश्रय तो त्यागने योग्य ही है । केवल परमात्मा का आश्रय ही सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त होने का एकमात्र और अंतिम उपाय है । संसार के आश्रय रहते हुए कुछ भी प्राप्त होना असंभव है, क्योंकि संसार स्वयं अप्राप्त है । इसलिए फल की इच्छा रखना व्यक्ति को सदैव अतृप्त ही बनाए रखता है ।
परमात्मा सदैव प्राप्त हैं । सदैव उनके आश्रय रहना ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए । फिर सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों, कर्म, फल, विषय-भोग आदि में आसक्ति नहीं हो सकती । फिर जीवन में मनुष्य सभी प्रकार से संतुष्ट रहते हुए तृप्त है । फिर वह शरीर में हो रही क्रियाओं में आसक्त होकर उनका कर्ता नहीं बनता । ऐसा मनुष्य कर्मों में अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता ।
कर्म - एक ऐसा विषय जिस पर चाहे जितना विवेचन कर लें, अपर्याप्त ही प्रतीत होता है । कर्म, जिसको करने और न करने, दोनों को समझ लें, तो फिर उसके साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता । साधारण सी बात है, एक तो भोजन करना होता है और एक भोजन का पचना होता है । भोजन करने के कर्म के साथ हम अपना सम्बन्ध बना लेते हैं, जबकि भोजन पचने के साथ नहीं । देखा जाए तो भोजन करना भी एक क्रिया है और भोजन का पचना भी एक क्रिया है । चूँकि भोजन करने के लिए हम अपनी कर्मेन्द्रियों का सहारा लेते है, इसलिए ऐसा समझते हैं कि भोजन हम कर रहे हैं । इंद्रियों की क्रिया के साथ सम्बन्ध मानते ही क्रिया कर्म बन जाती है । भोजन के पचने में हमारी किसी भी इंद्रिय की प्रत्यक्ष भूमिका नहीं रहती, इस कारण से हम इस क्रिया के कर्ता भी नहीं बनते ।
दोनों ही परिस्थितियों में वास्तव में केवल क्रिया ही होती है परन्तु भोजन करने में जो इंद्रियां क्रिया करती है, उस क्रिया को हम अपने द्वारा करना मान लेते हैं । उस क्रिया के साथ अपना सम्बन्ध मान लेना ही उस कर्म के साथ सम्बन्ध बना लेना है । जब तक इस प्रकार का सम्बन्ध है, तब तक हम संसार में आसक्त हैं । संसार से मुक्त होने के लिए इसी सम्बन्ध का त्याग करना आवश्यक है ।
कर्म ‘करना’ की श्रेणी में आता है जबकि क्रिया ‘होने’ की श्रेणी में अर्थात् कर्म तो किए जाते हैं और क्रिया के होने में हमारी कोई भूमिका नहीं होती है । गंभीरता पूर्वक देखें तो पाएंगे कि ‘करना और होना’, इन दोनों में केवल प्रकृति के गुणों की भूमिका है । जैसे भोजन तो ‘करना’ के अन्तर्गत है और उसका पचना ‘होना’ के अन्तर्गत है । स्वामीजी इसीलिए कहते हैं कि इस ‘करना’ को ‘होना’ में बदलना आवश्यक है । जब करना होने में बदल जाता है, फिर संसार का आश्रय छूट जाता है, संसार विलुप्त हो जाता है और केवल “है” रह जाता है । ऐसी दशा को उपलब्ध व्यक्ति कर्मों को करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करता ।
मनुष्य सहित संसार के सभी प्राणी इस संसार में आकर कर्म करने को विवश है । शारीरिक रूप से देखें तो शरीर के क्रियाकलापों में सभी प्राणी समान हैं । सभी जीवों के शरीर अष्टधा प्रकृति के हैं । सब कुछ समान होते हुए भी मनुष्य अन्य जीवों से भिन्न है । अन्य सभी जीव कर्म-भोग के लिए इस संसार में आए है जबकि मनुष्य चाहे तो कर्म-भोग के साथ साथ कर्म-योग के स्तर तक भी पहुँच सकता है । कर्म-भोग संसार के आवागमन से मुक्त नहीं होने देता जबकि कर्म-योग बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर से जीव को बचा सकता है । अन्य सभी प्राणियों की तुलना में बुद्धि के स्तर पर मनुष्य बहुत आगे है । अपनी बुद्धि में वह विवेक जाग्रत कर कर्म-योग सिद्ध कर सकता है ।
प्रश्न है कि कर्म के क्षेत्र में बुद्धि किस प्रकार उपयोगी हो सकती है ? मनुष्य द्वारा कर्म करने के तीन आधार हैं - स्वार्थ, सेवा और पूजा । बुद्धि अगर सांसारिक है तो मनुष्य स्वार्थ पूर्ति के लिए कर्म करता है क्योंकि वह संसार से केवल अपने लिए सुख की कामना करता है । बुद्धि में विवेक जाग्रत हो जाने पर वह संसार की सेवा के लिए कर्म करता है । मनुष्य इस संसार में कोई वस्तु साथ लेकर नहीं आया और न ही साथ लेकर जाएगा । अतः संसार में आकर उसे जो कुछ भी मिला है, संसार की सेवा में लगा देना चाहिए । इस आधार पर जो कर्म किए जाते हैं, वे सेवार्थ कर्म होते हैं ।
संसार भी परमात्मा का आदि अवतार है । मनुष्य जो भी कर्म करता है, यदि उनको वह परमात्मा की पूजा समझकर करता है तो ऐसे में उसका कर्म के साथ कोई संबंध नहीं रहता । इस प्रकार वह कर्म करते हुए भी वास्तव में कोई कर्म नहीं करता ।
कर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रत्येक जीव कर्म करने को विवश है । कर्म के तीन स्वरूप है - कर्म, विकर्म और अकर्म । आपके द्वारा किया गया प्रत्येक कर्म इन तीन में से किसी एक स्वरूप के अन्तर्गत अवश्य ही होगा । कर्म और विकर्म आपको इसी संसार में विभिन्न योनियों में घुमाते रहेंगे । केवल कर्म का एक स्वरूप अकर्म ही ऐसा है, जो आपको मुक्त कर सकता है । अकर्म के सम्बन्ध में मुख्य बात है कि इसमें आपका कर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता । आपसे कर्म होते हुए भी नहीं होते क्योंकि आप कर्म के अकर्ता होकर उसके साथ के प्रत्येक सम्बन्ध से मुक्त हैं ।
प्रत्येक कर्म का एक निश्चित फल होता है परन्तु जब कर्म के साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानते तो वह कर्म मात्र क्रिया बनकर रह जाता है । क्रिया का परिणाम शरीर को मिलता है और आप शरीर न होकर उससे पूर्णतया भिन्न हैं । इस प्रकार कहा जा सकता है कि शरीर में हो रही कोई भी क्रिया आप तक पहुँच नहीं सकती ।
समस्त क्रियाएं प्रकृति में होती है, इसलिए संसार और शरीर को सक्रिय कहा जाता है । परमात्मा में कोई क्रिया नहीं होती । क्रिया नहीं होती, इसका अर्थ यह नहीं है कि परमात्मा निष्क्रिय है । वे निष्क्रिय नहीं हैं बल्कि अक्रिय है अर्थात् वे प्रकृति की प्रत्येक क्रिया से दूर एक चेतन तत्व हैं । आप परमात्मा के अंश है, शरीर से भिन्न हैं, अतः आप भी चेतन और अक्रिय हैं । प्रत्येक सक्रियता अक्रियता से ही आती है और जाकर समाप्त भी उसी अक्रियता में ही होती है क्योंकि जिस क्रिया का प्रारंभ होता है, उसका अन्त होना निश्चित है । अक्रियता अनादि है और साथ ही सक्रियता की जनक भी । प्रत्येक क्रिया कभी न कभी अक्रियता में परिवर्तित होगी ही, यह निश्चित है ।
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि शरीर सक्रिय है और आप उससे भिन्न, अक्रिय । प्रत्येक क्रिया कर्म तभी बनती है, जब आप उससे अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं । क्रिया, प्रकृति के तीन गुणों के द्वारा शरीर में स्थित इंद्रियों के माध्यम से होने वाला एक कार्य है । प्रत्यक्षतः उस कार्य से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए लेकिन जब हम शरीर को ही अपना स्वरूप मान लेते हैं तब सारी समस्याएं पैदा होने लगती है । चलो ! कोई बात नहीं, आपने क्रिया के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लिया परन्तु अब उस सम्बन्ध का त्याग भी आपको ही करना है ।
कर्म के साथ सम्बन्ध का त्याग तभी होगा जब आप अपने स्वार्थ का त्याग कर देंगे । संसार से सुख की चाहना को छोड़ फ़लेच्छा का त्याग कर देंगे । इस त्याग के साथ ही कर्तापन का त्याग भी हो जाएगा और सभी कर्म अकर्म में बदल जाएंगे । न फलेच्छा रहेगी, न कर्तृत्वाभिमान होगा, फिर कर्म का परिणाम आपको तनिक भी प्रभावित नहीं करेगा । यह हुआ, कर्म करते हुए भी कुछ न करना ।
फलेच्छा से किए जाने वाले कर्म, लिप्त होकर किए जाने वाले कर्म हैं और कर्म में कर्ताभाव रखना कर्म करते हुए उसमें लिप्त होना है । फलेच्छा का त्याग कर किए जाने वाले कर्म का अर्थ है - अकर्म में कर्म देखना और कर्तापन त्यागकर किए जाने वाले कर्म का अर्थ है - कर्म में अकर्म देखना ।
अकर्म का अर्थ है, सक्रियता का अक्रियता में समावेश । अक्रियता सक्रियता की जनक है अतः सक्रियता का अक्रियता से मिलन शाश्वत है । यह मिलन होना तभी सम्भव होगा जब कामना, ममता और कृतृत्व का अभाव हो जाएगा । इन तीनों के कारण ही सक्रियता अर्थात् कर्म के साथ सम्बन्ध बनता है । स्मरण रहे, सक्रियता के साथ स्वयं का सम्बन्ध मानने से ही आप अक्रिय होते हुए भी अपने आपको अनुकूलता - प्रतिकूलता में फँसा पाते हैं ।
समुद्र की सतह पर जल की ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं, गिरती हैं और वातावरण में शोर उत्पन्न कर शान्ति को भंग करती है । कभी सागर की अथाह गहराई में जाकर देखें, वहाँ कोई लहर दिखाई नहीं देगी । सागर की अथाह गहराई में गहरी शान्ति है । कारण - समुद्र की गहराई में अक्रियता है और सतह पर सक्रियता । देखें तो सतह की सक्रियता की जनक समुद्र की गहराई में स्थित अक्रियता ही है । समुद्र का गहरे में अक्रिय होने का अर्थ उसका अचेतन होना नहीं है । उसकी गहराई में भी चेतनता है ।
प्रत्येक वृत्त के केंद्र में अक्रियता होती है और परिधि पर सक्रियता । पहिए की धुरी अक्रिय और स्थिर रहती है, तभी पहिए में गति होती है और उस गति से हमारी लंबी से लंबी यात्रा भी सुगम हो जाती है । प्रत्येक सक्रियता दृष्टिगोचर अवश्य होती है परंतु उसके मूल में सदैव अक्रियता ही रहती है । कहने का अर्थ है कि अक्रियता के कारण ही सक्रियता का जीवन संभव है । हमें भ्रम हो जाता है कि पहिए की परिधि हमें यात्रा करवा रही है, जबकि वास्तविकता है कि धुरी अगर अक्रिय और स्थिर नहीं हो तो पहिए में गति हो ही नहीं सकती क्योंकि अक्रियता के अभाव में सक्रियता भी निष्क्रिय हो जाती है ।
संसार परिधि है और परमात्मा केंद्र । हम संसार रूपी परिधि पर बैठे चक्कर लगा रहे हैं । इसे ही संसार का आवागमन-चक्र कहा जाता है । हम केंद्र से विमुख होकर इसकी परिधि तक अपने कर्मों के कारण आए हैं क्योंकि प्रकृति की क्रियाओं से हमने संबंध जोड़ रखा है । प्रकृति की क्रिया के साथ बने सम्बन्ध का त्याग कर के ही हम अपने मूल केंद्र तक लौट सकते हैं, उससे पूर्व नहीं ।
कर्म से विमुख होना अपने पतन को निमंत्रण देना है । भगवान भी इस संसार में आकर कर्म करते है, फिर हम कर्म करने से मुख क्यों मोड़ें ? वे कर्तव्य-कर्म करते है, उसी प्रकार हमें भी उन्हीं की तरह कर्म करने हैं । कर्तव्य कर्म के साथ आपका कभी कोई सम्बन्ध नहीं होता बल्कि इनको करने से तो कर्म के साथ सम्बन्ध समाप्त होता है ।
यह संसार है ही कर्म भूमि । कर्म करते हुए, कर्म न करने की अवस्था को उपलब्ध होना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है अर्थात् सक्रिय रहते हुए अक्रिय हो जाना । बिना कर्म किए संसार से मुक्त होना संभव नहीं है । ध्यान यही रखना है कि सभी कर्म अकर्म का स्वरूप प्राप्त कर लें । मनुष्य अपने मनोभाव से कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन ला सकता है ।
गीता में तीन प्रकार के कर्ता और उतने ही प्रकार के कर्म बताए गए हैं । सात्विक, राजसिक और तामसिक । तामसिक कर्ता में केवल गूढ़ स्वार्थ का भाव होता है, प्रबल कामनाएं रहती है, जिनके लिए घोर निषिद्ध कर्म तक किए जाते हैं । ऐसे कर्म विकर्म की श्रेणी में आते हैं । राजसिक कर्ता में स्वार्थ के साथ-साथ सेवा से मान-सम्मान और बड़ाई मिलने का भाव हो तो ऐसे कर्म सकाम कर्म की श्रेणी में आते हैं । सात्विक कर्ता में सेवा का भाव प्रबल होता है और ऐसे कर्म के साथ उससे मिलने वाले सुख और होने वाले अहंकार से सम्बन्ध न जुड़े तो ये कर्म निष्काम कर्म की श्रेणी में आएंगे । ऐसे कर्म अंततः अकर्म स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं ।
जब व्यक्ति गुणातीत अवस्था प्राप्त कर लेता है तब उसका कर्म से सम्बन्ध समाप्त हो जाता है । गुणातीत मनुष्य के द्वारा संकल्प से कर्म नहीं होते बल्कि उनमें केवल कर्म-स्फुरणा होती है । जो कर्म मन में संकल्प रखकर किए जाते है, उनसे व्यक्ति का सम्बन्ध बनना अवश्यंभावी है । गुणातीत अवस्था में संकल्प-विकल्प रहता ही नहीं है । इस अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति सब कुछ करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करता ।
कर्म का रहस्य बहुत गहन है क्योंकि जितनी चाहे उतनी विवेचना कर लें, इसके स्वरूप को समझ पाना कठिन है । इस श्रृंखला के माध्यम से कर्म के स्वरूप को सरल तरीक़े से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । सबकी समझने की क्षमता भिन्न भिन्न होती है, इसलिए एक ही बात को अलग अलग प्रकार से स्पष्ट किया गया है । मुख्य बात है कि कर्म तो प्रत्येक प्राणी को करने ही हैं परंतु यही कर्म मनुष्य अगर फलेच्छा का त्याग कर परमात्मा को समर्पित कर दे तो उसे कर्मों की निवृति के रूप में महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।
भागवतजी में कहा गया है -
वेदोक्तमेव कुर्वाणो नि:संगोऽर्पितमीश्वरे ।
नैष्कर्म्या लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुति: ।। भागवत - 11/3/46 ।।
अर्थात् फल की अभिलाषा को छोड़कर और विश्वात्मा भगवान को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्म का अनुष्ठान करता है, उसे कर्मों की निवृत्ति से प्राप्त होने वाली ज्ञानरूपी सिद्धि मिल जाती है । जो वेदों में स्वर्गादि रूप फल का वर्णन है, उसका तात्पर्य फल की सत्यता में नहीं है, वह तो कर्मों में रुचि उत्पन्न कराने के लिए है ।
वेदों में कर्मों के फल के बारे में कहा गया है कि शास्त्र विहित कर्मों का फल स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति है । ऐसा कहने का उद्देश्य है कि मनुष्य कर्मों में रुचि ले, न कि कर्म करने से बचना चाहे । स्वर्ग और नर्क, किसी ने देखा नहीं है । जो कुछ भी देखा जाता है, वह इसी जगत् में देखा जाता है । स्वर्ग भी यहीं है और नर्क भी । शास्त्र-विहित कर्मों के प्रति रुचि बढ़ाने के लिए वेदों में उन कर्मों के फल के रूप में स्वर्ग आदि लोकों का वर्णन किया गया है ।
हमने अभी तक कर्म के स्वरूप पर विस्तार से चर्चा की है । कर्म के तीन स्वरूप हैं - कर्म, विकर्म और अकर्म । विस्तार से किए गए विवेचन से स्पष्ट होता है कि हमारे जीवन का उद्देश्य कर्म करते हुए उसके स्वरूप अकर्म तक पहुँचना है । अकर्म का अर्थ है, कर्म के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखना । कर्म के साथ सम्बन्ध रखने से ही मनुष्य संसार से मुक्त नहीं हो पाता ।
कर्म के स्वरूप अनुसार अकर्म की अवस्था तक पहुँचने के लिए कर्ता को अपने स्वभावानुसार कर्त्तव्य कर्म करते हुए पूर्व जन्म के सभी कर्मों को समाप्त करते हुए नए कर्मों में नहीं उलझना है । पूर्वजन्म के कर्म जब तक समाप्त नहीं होंगे, तब तक नए-नए शरीरों की अनंत यात्राएं करनी पड़ेगी । इसलिए आवश्यक है कि इसी मनुष्य जीवन में स्वभावानुसार कर्म करते हुए पूर्व के समस्त कर्मों से मुक्त हो जाएं और लोकहित के लिए नए कर्मों को करते हुए उनके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखें ।
कर्ता का स्वभाव पूर्वजन्म के संस्कार के अनुसार निश्चित होता है । स्वभाव प्रकृति के तीन गुणों से बनता है । प्रकृति के तीन गुण हैं - सत्व, रज और तम । जिस गुण की मुख्यता/प्रधानता कर्ता में होती है, कर्ता उसी के अनुसार सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक होता है । इस आधार को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि कर्ता तीन प्रकार के होते हैं - सात्विक, राजसिक और तामसिक । जैसा कर्ता होता है, उससे प्रायः कर्म भी उसी अनुसार होते हैं ।
कर्म प्रायः कर्ता में उपस्थित मुख्य गुण के आधार पर होते हैं । इसका अर्थ यह नहीं है कि सात्विक कर्ता से केवल सात्विक कर्म ही होंगे । सात्विक कर्ता भी तामसिक कर्म कर सकता है क्योंकि उसमें तामसिक गुण भी न्यून मात्रा में उपस्थित रहता है । कर्म करने की दिशा कामना की तीव्रता पर निर्भर करती है । यदि कामना तीव्र हो और सात्विक कर्ता उस कामना को येन केन प्रकारेण पूरा करना चाहता हो तो वह शास्त्र निषिद्ध कर्म भी कर बैठता है, जोकि तामसिक कर्म की श्रेणी में आते है ।
जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि मनुष्य अन्य प्राणियों से कर्म करने के क्षेत्र में स्वतंत्र है । वह अपनी स्वतन्त्रता का सदुपयोग करे तो अपना स्वभाव परिवर्तित करते हुए कर्म के प्रकार को भी बदल सकता है । तामसिक कर्ता अपने स्वभाव को बदलते हुए सात्विक कर्म भी कर सकता है । इस प्रकार धीरे-धीरे वह भी तामसिक से सात्विक कर्ता की श्रेणी में आ सकता है ।
स्वभाव परिवर्तन का उद्देश्य कर्मों के स्वरूप को बदलना है । सकाम के स्थान पर निष्काम कर्म होने लगे तो ऐसे कर्म कुछ समय पश्चात् अकर्म हो जाते हैं । मुख्य बात तो कर्मों से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रखना है । कर्मों के साथ सम्बन्ध रखने से मनुष्य का पतन होना निश्चित है । अतः कर्मों के त्यागने के स्थान पर कर्मों से सम्बन्ध का त्याग करना श्रेष्ठ है । कर्मों का स्वरूप से त्याग करना किसी भी प्राणी/जीव के लिये सम्भव ही नहीं है क्योंकि शरीर का सम्बन्ध प्रकृति के साथ होने के कारण उसमें क्रियाओं का सतत चलते रहना अवश्यंभावी है । हमारे लिए क्रियाओं को रोकना असंभव है परंतु उस क्रिया के साथ सम्बन्ध न रखना हमारे हाथ में है और वह हम सहज रहते हुए कर सकते हैं ।
कर्म के सम्बन्ध में एक प्रश्न उठता है कि पाप-कर्म और पुण्य-कर्म क्या है ? मनुष्य अपने जीवन में इतने कर्म करता है कि वह समझ नहीं पाता कि कौन सा कर्म तो पाप है और कौन सा पुण्य ? थोड़े से शब्दों के माध्यम से इस बात को समझा जा सकता है । प्रत्येक कर्म जो स्वार्थ-पूर्ति के लिए किया जाता है, वह पापकर्म है । जो कर्म संसार की सेवा अर्थात् परमार्थ के लिए किए जाते है, वे सभी पुण्यकर्म हैं । जो केवल अपने लिए जीता है, उसका जीवन एक पशु के जीवन से भी बदतर है । भगवान ने गीता में ऐसे मनुष्य को चोर कहा है ।
स्वार्थपूर्ति के लिए किया जाने वाला प्रत्येक कर्म मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है । मनुष्य से निम्न स्तर की योनियों में जन्म लेने का कारण व्यक्ति का स्वार्थ है । जो मनुष्य केवल पापकर्म में ही लगा रहता है, उसका विभिन्न योनियों में भटकना अवश्यंभावी है । परमार्थ के लिए किए जाने वाले कर्म मनुष्य को परमात्मा की ओर ले जाते हैं । पुण्यकर्म के कारण संसार से मुक्ति सहज हो जाती है ।
पापकर्म आपको संसार के साथ बाँधता है, क्योंकि ऐसे कर्म का सम्बन्ध जड़ता से है । पुण्यकर्म का सम्बन्ध चेतनता से है । इसलिए प्रत्येक पुण्य-कर्म आपको संसार से मुक्त करते हुए आत्म-बोध की अवस्था तक ले जाता है । इसीलिए कहा जाता है कि अठारह पुराणों का व्यासजी महाराज ने दो बातों में सार बता दिया है कि परहित के लिए किए जाने वाले कर्म ही पुण्य है और दूसरे को पीड़ा पहुँचाने वाले कर्म पाप हैं ।
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम् ।
परोपकार: पुण्याय पापाय परपीड़नम् ।।
‘मैं हूँ’ । इस ‘मैं हूँ’ में ‘मैं’ तो जड़ ( प्रकृति) अर्थात् शरीर है और ‘हूँ’ चेतन (पुरुष) है । वास्तव में चेतन ‘हूँ’ न होकर ‘है’ है । ‘है’ का ‘हूँ’ में बदल जाना ‘मैं’ के कारण होता है । जब ‘मैं’ का लोप हो जाता है तब ‘हूँ’ स्वतः ही ‘है’ में परिवर्तित हो जाता है । यह ‘है’ ही हमारा वास्तविक स्वरूप है । सरल शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि ‘मैं’ शरीर और संसार है और ‘हूँ’ जीवात्मा है, जिसने अपने आपको ‘मैं’ मान रखा है । ‘मैं’ शरीर और संसार है जबकि ‘है’ परमात्मा है । ‘हूँ’ (जीवात्मा) की एकता ‘है’ (परमात्मा) के साथ है, ‘मैं’ (शरीर और संसार) के साथ नहीं । ‘हूँ’ ‘है’ से तो अभिन्न है परन्तु ‘मैं’ से भिन्न है ।
‘हूँ’ (जीवात्मा) को ‘है’ (परमात्मा) होना है (जोकि वह है ही) तो उसे ‘मैं’ (शरीर) के साथ अपने द्वारा बनाये गए छद्म सम्बन्ध को तोड़ना होगा । ‘हूँ’ का ‘मैं’ के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध होने का कारण शरीर में होने वाली विभिन्न क्रियाओं से मिलने वाला कथित सुख है । इसी सुख में आसक्त होकर ‘हूँ’, ‘मैं’ में होने वाली क्रियाओं को अपने द्वारा किए जाने वाले कर्म मान लेता है । इस प्रकार ‘हूँ’ (जीवात्मा) का ‘मैं’ (शरीर) के साथ सम्बन्ध (मैं हूँ) बन जाता है । ‘मैं हूँ’ में ही कर्ता और भोक्तापन होता है अन्यथा ‘है’ तो इन दोनों से मुक्त है । ‘मैं’ में होने वाली क्रियाओं के साथ ‘हूँ’ का सम्बन्ध ही कर्म-बन्धन है । जब तक हमारा कर्म के साथ संबंध है, तब तक हम स्वयं को ‘हूँ’ ही समझते रहेंगे । हमें इस ‘हूँ’ को ‘है’ में विलीन करना होगा ।
स्वामीजी कहते हैं कि सर्वप्रथम ‘करना’ (कर्म) को ‘होना’ (क्रिया) में बदलें । ‘होना’ ( प्रकृति) से सम्बन्ध समाप्त होते ही ‘हूँ’ समाप्त होकर केवल ‘है’ (परमात्मा) ही रह जाता है । यह ‘है’ ही हमारा स्वरूप है । जीवात्मा अगर अपने कर्म को प्रकृति की क्रिया मान ले तो कर्मबन्धन टूट जाता है । इस प्रकार कर्म को पुनः क्रिया में बदल देने से कर्म-सम्बन्ध भी छूट जाता है । हमें गुरु ही कर्म-सम्बन्ध से मुक्त कर उस ओर ले जाते हैं जहां पहुँचकर कहा जा सकता है - ‘नैव किंचित् करोति स:’ । ‘हूँ’ को ‘है’ में बदलने का मार्ग एक गुरु ही दिखला सकता है क्योंकि गुरु ‘है’ है, ‘हूँ’ नहीं ।
गुरु शरीर नहीं होते बल्कि ज्ञान की प्रतिमूर्ति होते हैं, साक्षात परमात्मा होते हैं। पारस पत्थर तो लोहे को केवल सोना ही बनाता है परंतु गुरु तो शिष्य को अपने समान बना देते हैं । अतः गुरु वंदनीय हैं ।
एक लंबे विवेचन के बाद स्पष्ट है कि कर्म के साथ संबंध रखना ही हमें संसार के आवागमन से मुक्त नहीं होने देता । क्रिया करने का कार्य प्रकृति का है । प्रकृति में जो गुण है, उनके कारण प्रकृति में क्रिया होती है । शरीर प्रकृति का है इसलिए शरीर के द्वारा किए जाने वाला प्रत्येक कर्म प्रकृति की क्रिया मात्र है । प्रकृति में क्रिया सदैव होती रहती है, कभी दिखलाई देती है, कभी नहीं देती । प्रकृति की सुषुप्ति अवस्था अर्थात् प्रलय में वह अक्रिय प्रतीत अवश्य होती है परन्तु वह अक्रिय नहीं है क्योंकि प्रलय के बाद और सृजन से पूर्व भी उसमें सूक्ष्म रूप से क्रियाएँ चलती ही रहती है ।
सक्रिय प्रकृति से विपरीत व्यक्ति (व्यक्त पुरुष) है, जोकि अक्रिय है । उसके अक्रिय होने से अर्थ है कि वह कुछ भी नहीं करता है । कर्म को अपने द्वारा किया जाना मानना ही उसकी भूल है क्योंकि वह शरीर (प्रकृति) नहीं है । वास्तव में उसके शरीर से जो क्रियाएँ हो रही है उसको करने वाला वो नहीं बल्कि प्रकृति है । वह तो अकर्ता है । गीता में इसी बात को स्पष्ट करते हुए श्रीकृष्ण कह रहे हैं -
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
य: पश्यति तथ्यात्मानमकर्तारं स पश्यति ।। गीता -13/29।।
अर्थात् जो संपूर्ण क्रियाओं को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही की जाती हुई देखता है और अपने आपको अकर्ता देखता है अर्थात् अनुभव करता है, वही यथार्थ देखता है ।
स्वयं को जिस दिन हम अकर्ता स्वीकार कर लेंगे, उस दिन से शरीर से होने वाले कर्म को कभी भी अपने द्वारा किया जाना नहीं कहेंगे । अकर्ता का अर्थ है, सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करना अर्थात् केवल शरीर द्वारा होने वाले कर्म को दृष्टा-भाव से देखना । इस प्रकार हमारा कर्म से सम्बन्ध-विच्छेद स्वतः ही हो जाएगा ।
सार-संक्षेप
संसार में जितने भी शरीरधारी प्राणी हैं, वे सभी कर्म करने को विवश हैं । उनकी इस विवशता का कारण है - कर्म-भोग । पूर्व मानव जीवन में भोगों की अधूरी रह गई कामना को पूरा करने के लिए कर्म करना आवश्यक है । प्रत्येक कर्म का आरम्भ और अन्त होता है । पूर्वजन्म में भोग प्राप्त करने के लिए प्रारम्भ किए गए कर्म किसी कारण पूर्णता को प्राप्त नहीं हो पाए थे । वे ही कर्म इस जन्म में अपनी आगे की यात्रा प्रारम्भ कर समाप्त होंगे, इसलिए ‘प्रत्येक प्राणी कर्म करने को विवश है’, ऐसा कहा जाता है । मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी अपने जीवन में कर्म करते हुए कुछ भोग तो भोग लेते हैं और शेष बचे कर्मों को पूरा करने के लिए आगे नए शरीरों की यात्रा पर निकल जाते हैं । जब उसके केवल मनुष्य जीवन में भोगे जाने वाले कर्म शेष रहते हैं तब उसको सबके अन्त में मनुष्य शरीर मिलता है ।
मनुष्य शरीर भी कर्म-भोग के लिए मिला है, ऐसा कहना कुछ सीमा तक सही भी है । परन्तु मनुष्य शरीर तक पहुँचने का उद्देश्य केवल भोग ही नहीं है बल्कि योग भी है, अपने स्वरूप के साथ योग । मनुष्य की विकसित बुद्धि केवल भोगों में ही रमण नहीं कराती बल्कि उसमें उपस्थित विवेक मनुष्य के लिए आत्म-बोध का रास्ता भी प्रशस्त कराती है ।
जीवन में कर्मों का प्रारम्भ भले ही भोग के लिए होता हो, परन्तु अगर मनुष्य उन कर्मों से मिले भोग और परिणाम के प्रति आसक्त न हो तथा किसी भी कर्म का कर्ता न बने, तो प्रत्येक कर्म बिना उसे प्रभावित किए नष्ट हो जाएगा । कर्म का फल तभी मिलता है, जब कर्म करने से पहले भीतर में विशेष फल पाने की इच्छा हो अथवा कर्म करने में कर्तृत्व का अभिमान हो । इन दो का अर्थात् फलेच्छा और कर्तापन का त्याग हो जाए तो सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं और संसार का आश्रय भी छूट जाता है । फिर आप सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करते । ऐसा पुरुष संसार के आश्रय का त्याग कर और परमात्मा की शरण ले कर अपने जीवन में सदैव संतुष्ट रहता है । ऐसे मनुष्य के लिए ही भगवान ने गीता में कहा है - “नैव किंचित् करोति स:” ।
।। हरिः शरणम् ।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल