बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ
'संसार दुःखमय है’, जानते हुए भी हम सुख की कामना करते हुए कर्म करते हैं । ये कर्म हमें संसार के साथ बाँधते हैं । कामनाएँ और कर्म, हमें संसार-चक्र (संसृति) से मुक्त नहीं होने देते । कामनाओं को पूरा करने के लिए केवल एक जन्म ही पर्याप्त नहीं होता । उनके पूरी होने की आशा में हम शरीर पर शरीर लेते जा रहे हैं फिर भी कामनाएँ पूरी नहीं हो रही और फिर से एक नया शरीर लेना पड़ता है । हमारे साथ युग-युगों से ऐसा होता आया है और जब तक नहीं सँभलेंगे तब तक होता रहेगा ।
क्यों होता है हमारे साथ ऐसा ? क्योंकि हम मन के कहे अनुसार चलने लगे हैं । कबीर कहते भी हैं कि “मन के मते न चालिए, मन के मते अनेक”, फिर भी हम कबीर की नहीं सुनते, मन की ही सुनते हैं । मन चंचल है । अभी यहाँ है, पल भर में चाँद पर चला जाएगा, चाँद से और कहीं और फिर वापस आपके पास । मन कहता है “ ऐसा करना चाहिए”, फिर थोड़ी देर में कहेगा “ऐसा नहीं, वैसा करना चाहिए” । इसी ऐसे-वैसे के चक्कर में जो होना चाहिए वह नहीं होता ।
मन को छोड़ बुद्धि का आश्रय लेने से मन की चंचलता कम की जा सकती है । मन पर अंकुश लगते ही कामनाओं की गति भी मन्द पड़ जाती है और हम संसार से मुक्त होकर योग की ओर अग्रसर हो जाते हैं । इसीलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा है - “बुद्धौ शरणमन्विच्छ” अर्थात् तू बुद्धि का आश्रय ले ।
सृष्टि का सृजक परमात्मा है । परमात्मा स्वयं ही सृष्टि के रूप में अवतरित हुआ है । वही सृजक, वही सृजन । संसार को सागर कहा गया है । इस संसार-सागर को पार करने के लिए जिस नाव की आवश्यकता है, वह नाव है - यह मानव शरीर । संसार से पार होना क्यों आवश्यक है ? क्योंकि यहाँ आकर हम संसार और शरीर के मोह में फँस गए हैं । जैसे नदी से पार जाने के लिए नाव की आवश्यकता होती है उसी प्रकार संसार से पार होने के लिए मानव शरीर आवश्यक है । नदी से पार हो जाने के बाद जिस प्रकार नाव अनावश्यक हो जाती है उसी प्रकार संसार से मुक्त होने के लिए शरीर का उपयोग करते हुए उसका भी मोह छोड़ना होता है ।
मानव का दिखलाई दे रहा यह शरीर, स्थूल शरीर कहलाता है । पाँच भौतिक तत्वों से निर्मित इस स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर के रूप से अंतःकरण स्थित है । अंतःकरण को चार भागों में विभाजित किया गया है - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । मन और चित्त में बहुत अधिक अंतर नहीं है । जिस मन में कामना उत्पन्न होती है और उस कामना को पूरा करने के लिए कर्मेन्द्रियों से कर्म करवाने के निर्देश दिए जाते हैं, वह मुख्य मन है । जिस मन में अपूर्ण कामनाओं और फल की प्रतीक्षा करते कर्मों का संचय होता है, मन का वह भाग चित्त कहलाता है ।
इस प्रकार मुख्य रूप से शरीर में कुल आठ तत्व हुए - पाँच भौतिक तत्त्व (भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश) और तीन सूक्ष्म तत्व (मन, बुद्धि और अहंकार) । इस प्रकार इस देह को अष्टधा प्रकृति भी कहा जाता है । यह अपरा प्रकृति है । पाँच भौतिक तत्त्व के अन्तर्गत पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं । ये सभी स्थूल शरीर के अंग और उससे सूक्ष्म हैं । इन इंद्रियों से सूक्ष्म मन को बताया गया है । मन से सूक्ष्म है बुद्धि और बुद्धि से भी सूक्ष्म है अहंकार । अहंकार इस भौतिक शरीर की सर्वोच्च सीढ़ी है ।
अहंकार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, अहं और आकार । जीवात्मा जब किसी आकार (शरीर) को अपना लेता है, उसके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब अहं पैदा होता है अर्थात् जीवात्मा ही अहं बन जाती है । अहं जब अपने आपको आकार तक सीमित कर उसके साथ अपनी एकता होना मान लेता है, तब अहंकार का जन्म होता है । वास्तव में जीवात्मा की एकता परमात्मा से है संसार से नहीं । जब जीवात्मा को इस बात का ज्ञान हो जाता है, तब उसे अहं शब्द से भी मुक्ति मिल जाती है ।
संसार के साथ जीवात्मा की एकता भ्रम मात्र है । इस एकता का कारण केवल संसार से सुख लेने की अपेक्षा है । जीवात्मा संसार और शरीर (माया) के आकर्षण के वश में होकर उसमें फँस जाती है । संसार का आकर्षण मनुष्य में सुख उपलब्ध कराने का एक छद्म विश्वास पैदा करता है । वास्तव में देखा जाए तो परमात्मा निर्मित संसार में सुख-दुःख कहीं भी नहीं है । यह संसार सदैव उदासीन अवस्था में रहता है, केवल हमारी कामनाएँ ही हमें सुख-दुःख पहुँचाती है ।
सुख की लालसा ही मनुष्य के दुःख का कारण बनती है । जब दुःख, सहन करने की सीमा को लांघने लगता है, तब जीव संसार-चक्र से बाहर निकलने के लिए छटपटाता है । ऐसा नहीं है कि जीवात्मा संसार से मुक्त होने का प्रयास नहीं करती, वह प्रयास तो करती है परंतु संसार के रस-भोग का आकर्षण उसे अपने साथ बांधे रखता है और उसे मुक्त नहीं होने देता । संसार और शरीर से मुक्त होने के लिए उसे क्या करना चाहिए ? चलिए ! यह जानने का प्रयास करते हैं ।
इस मानव देह में वही सब कुछ है जो सृष्टि के प्रत्येक जीव में है । अष्टधा प्रकृति से यह शरीर बना है । इन आठ में पाँच तो भौतिक तत्त्व है, जिनसे यह स्थूल शरीर (gross body) बना है । ये पाँच भौतिक तत्व हैं - पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ।
छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम शरीरा ।। मानस - 5/11/4 ।।
शेष तीन तत्व सूक्ष्म शरीर (subtle body) का निर्माण करते हैं । ये तीन तत्व हैं - मन (चित्त), बुद्धि और अहंकार ।
अष्टधा प्रकृति अपरा प्रकृति कहलाती है, जिसके अन्तर्गत यह स्थूल शरीर और इसमें स्थित अंतःकरण (सूक्ष्म शरीर) आते हैं । गीता में इन आठ तत्वों के बारे में भगवान अर्जुन को बता रहे हैं -
भूमिरापोऽनलोवायु: खं मनोबुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृति रष्टधा ।। गीता-7/4 ।।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश; ये पाँच महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार - इस प्रकार के आठ भेदों वाली मेरी यह अपरा प्रकृति है ।
शरीर से भिन्नता लिए हुए जो परा-प्रकृति है, वह जीव (जीवात्मा) कहलाती है और वह नित्य है, वह कभी नष्ट नहीं होता । शरीर के मरने पर भी वह मरता नहीं है ।
प्रगट सो तनु तव आगे सोवा । जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ।। 5/11/5 ।।
शरीर से प्राण निकल जाने के पश्चात् वह शरीर जो प्रत्यक्ष रूप से तुम्हारे सामने सोया हुआ है, वह नाशवान है और इसमें जो निवास करता था, वह जीव नित्य है । फिर तुम किसके लिए रो रहे हो ?
गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं -
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।। गीता - 7/5 ।।
हे महाबाहो ! अपरा प्रकृति से भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है ।
इस श्लोक (गीता- 7/5) में भगवान एक बात बड़ी ही महत्वपूर्ण कह रहे हैं कि जीव ने ही इस जगत् को धारण किया है न कि जगत् ने जीव को । जगत् सदैव गतिमान बना रहता है जैसे कोई झूला अपने निर्धारित पथ पर एक धुरी के चारों ओर घूमता रहता है । ऊपर-नीचे, आजू-बाजू घूमता झूला हम सब के लिए एक आकर्षण का विषय हो जाता है ।
जैसे घूमते झूले पर हम स्वयं चढ़ते हैं, न कि झूला हमें पकड़कर अपने ऊपर चढ़ाता है वैसे ही जगत् के आकर्षण में आकर हम स्वयं जाकर फँसते है, जगत् हमें नहीं फँसाता है । फिर हम संसार में उलझकर कहते हैं कि यह संसार हमें छोड़ता नहीं है । वास्तव में हमने संसार को पकड़ा है, हम संसार में आसक्त हुए हैं और इससे मुक्त भी हमें ही होना है ।
संसार में हमारी आसक्ति उससे मिले छद्म सुख के कारण होती है । संसार में आकर उन सुखों को बारम्बार प्राप्त करने की कामनाओं को पूरा करने के लिए हम सकाम कर्म करते हैं । सकाम कर्म का अर्थ है फल प्राप्त करने की कामना मन में रखते हुए कर्म करना । ऐसे किए जाने वाले प्रत्येक कर्म का सुख-दुःख के रूप में कोई न कोई एक परिणाम अवश्य ही निकलता है । उस परिणाम में आसक्त होकर मनुष्य फिर एक नई कामना के वशीभूत होकर और अधिक कर्म करने को उद्यत हो जाता है । इस प्रकार कामना और कर्म के चक्र से उसका बाहर निकलना असंभव हो जाता है ।
कामना और कर्म का चक्र ही सुख-दुःख का सांसारिक चक्र है, इसे ही संसृति कहते हैं, जिसमें फँसकर जीव आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता । मुक्त होने के लिए उसे कर्म के आश्रय को त्यागना आवश्यक है । कर्म इंद्रियों से होते हैं । इंद्रियाँ स्थूल शरीर का अंग है । इसका अर्थ हुआ कि केवल स्थूल शरीर का आश्रय ले संसार से मुक्त नहीं हुआ जा सकता ।
प्रश्न उठता है कि इस शरीर की अष्टधा प्रकृति में ऐसा कौन सा तत्व है, जिसका सहारा लेकर हम इस संसार से मुक्त हो सकते हैं ? प्रकृति के आठ तत्वों में से स्थूल शरीर के पाँच तत्व तो इंद्रियों के कारण कर्म से संबंधित है । सकाम कर्म करते हुए संसार से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, यह भी स्पष्ट है । ‘करना’ (कर्ताभाव) तो फिर से एक नया बंधन पैदा करेगा, वह बंधन अहं (मैं) और मम (मेरा) का ही होगा । इसलिए सबसे पहले ‘करना’ का त्याग होना आवश्यक है । ‘करना’ का त्याग करना जितना सोचते हैं, उतना सरल भी नहीं है ।
स्थूल शरीर के पाँच तत्वों के अकेले अपने स्तर पर मुक्ति में अनुपयोगी सिद्ध हो जाने के बाद शेष बचते हैं, सूक्ष्म शरीर के तीन तत्व - मन, बुद्धि और अहंकार । मन चंचल है । उसकी चंचलता दृढ़ता पूर्वक निर्णय लेने में बाधक है । सूक्ष्म शरीर के दूसरे तत्व अहंकार के कारण ही तो जीवात्मा ने संसार के साथ तादात्म्य स्थापित किया है । अतः अहंकार का आश्रय लेने से केवल संसार के साथ बंधन को ही दृढ़ता मिलेगी, मुक्ति नहीं । मुख्य बात यही तो है कि अहं को संसार से अलग करना है और यह कार्य अहंकार की शरण में जाने से नहीं होगा ।
अपरा प्रकृति के आठ तत्वों में से उपरोक्त सात तत्व संयुक्त रूप से भी संसार से मुक्ति के लिए इतने उपयोगी नहीं है । इसका अर्थ यह न लें कि मुक्ति में इनकी कोई भूमिका नहीं है । प्रत्येक तत्व मुक्ति के लिए महत्वपूर्ण है । जैसे शरीर के सभी अंग सामूहिक रूप से भी तब तक अनुपयोगी बने रहते हैं जब तक उन्हें मस्तिष्क का साथ नहीं मिलता । मस्तिष्क की मृत्यु होते ही सारा शरीर भी मृत हो जाता है । वैसे ही स्थूल शरीर के पाँच तत्व और सूक्ष्म शरीर के मन और अहंकार तब तक अनुपयोगी हैं, जब तक बुद्धि सक्रिय नहीं है । आठवें तत्व के रूप में सूक्ष्म शरीर का जो एक तत्व शेष बचता है, वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है - बुद्धि । हाँ, बुद्धि यह कार्य बखूबी कर सकती है क्योंकि दृढ़ता पूर्वक निर्णय केवल उसी के स्तर पर लिया जा सकता है ।
बुद्धि अकेली भी कुछ नहीं कर सकती, जब तक स्थूल शरीर साथ न दे और साथ ही मन और अहंकार को बुद्धि अपने नियंत्रण में न ले ले । बुद्धि की विशेषता यही है कि वह अहंकार और मन पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकती है । जब मन और अहंकार पर बुद्धि का नियंत्रण स्थापित हो जाये और साथ ही स्थूल शरीर भी स्वस्थ हो, तो फिर मुक्ति सहज हो जाती है । इसीलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बुद्धि का आश्रय लेने का कह रहे हैं -
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव: ।। गीता - 2/49 ।।
अर्थात् बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यंत ही दूर (निम्न श्रेणी का) है । अतः ही धनंजय ! तू बुद्धि का ही आश्रय ले; क्योंकि फल के हेतु (कारण) बनने वाले अत्यंत दीन (कृपण) हैं ।
कर्म की मुख्य रूप से तीन श्रेणियाँ हैं - कर्म, निष्काम कर्म और अकर्म । इनके बारे में पूर्व में भी कई बार विस्तार से विवेचन किया जा चुका है । बुद्धि का उपयोग कर हम कर्म की श्रेणी में परिवर्तन ला सकते हैं । सकाम कर्म के कारण ही सांसारिक बंधन पैदा होते हैं । सकाम कर्मों का मुक्ति से दूर-दूर तक का सम्बन्ध नहीं है अर्थात् संसार से मुक्ति चाहते हैं तो वह मुक्ति सकाम कर्म से नहीं हो सकती । सकाम कर्म संसार से सुख प्राप्त करने की आशा से किए जाते हैं । यह फलेच्छा ही मनुष्य के बंधन का कारण है । संक्षेप में यह समझना आवश्यक है कि जब निष्काम कर्म होते हैं, तब व्यक्ति संसार के साथ नहीं बंधता है, बल्कि मुक्ति की ओर ही अग्रसर होता है ।
प्रश्न उठता है कि बुद्धि कर्म की श्रेणी कैसे परिवर्तित कर देती है ? संसार में आसक्त मनुष्य के कर्म शरीर से होते हैं और शरीर मन के निर्देशानुसार कार्य करता है । मन चंचल होता है, जिससे शरीर से कर्म भी अनियंत्रित रूप से होते हैं । अगर बुद्धि मन की चंचलता पर अपना अंकुश लगा देती है तो उससे स्थूल शरीर का नियंत्रण सीधा बुद्धि के पास आ जाता है । निर्णय लेने की क्षमता केवल बुद्धि के पास ही है, अपनी चंचलता के कारण मन निर्णय लेने में सक्षम नहीं होता ।
बुद्धि के तीन प्रकार हैं - सात्विक, राजसिक और तामसिक । बुद्धि के अनुसार ही कर्ता होता है और कर्म कर्ता ही करता है । कर्म कभी भी सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक नहीं होते बल्कि जैसा कर्ता होता है उसी अनुसार कर्म होते हैं । इस प्रकार कहा जा सकता है कि कर्ता केवल बुद्धि से ही नियंत्रित होता है । कर्ता जीवात्मा को कहा जाता है । वास्तव में देखा जाए तो जीवात्मा परमात्मा का अंश होने के कारण ‘न करोति न लिप्यते’ होनी चाहिए अर्थात् न तो वह कुछ करती है और न ही कहीं लिप्त होती है । परंतु संसार और शरीर को अपना मान लेने के कारण वह कर्ता बन जाती है ।
जीवात्मा जब स्वयं को कर्ता मानने लग जाती है तब केवल बुद्धि ही उसका संसार से लगाव छुड़ा सकती है । इस स्थिति में आकर बुद्धि की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है । जीवात्मा परा प्रकृति है और बुद्धि अपरा । परा स्वतंत्र और नित्य है परंतु अपरा का साथ पाकर वह स्वयं को अपरा ही मानने लग जाती है जोकि परतंत्र और अनित्य है । अंततः परा का अपरा से सम्बन्ध विच्छेद कराने के लिए अपरा का ही आश्रय लेना पड़ता है । जीवात्मा को मनुष्य शरीर इसीलिए मिला है कि वह संसार से मुक्त हो सके और इसके लिए भगवान ने इस शरीर में स्थित बुद्धि को एक सशक्त माध्यम बनाया है ।
बुद्धि में ज्ञान और विवेक पहले से ही रहता है । उनको सतह पर लाने में परिस्थितियों की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है । जिस परिस्थिति में व्यक्ति दुःख का अनुभव करता है, केवल उसी परिस्थिति में ज्ञान का उदय हो सकता है अन्यथा तो सुख की परिस्थिति में तो अज्ञान से ज्ञान ढका रहता है । अज्ञान से ज्ञान ढका रहने पर इस स्थूल शरीर और इंद्रियों पर बुद्धि से अधिक मन का नियंत्रण रहता है । मन के नियंत्रण के कारण इंद्रियों द्वारा संपादित होने वाले कर्म व्यक्ति के समक्ष अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ पैदा करते हैं । विपरीत परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए मनुष्य बुद्धि का आश्रय लेता है जिससे अज्ञान से आच्छादित ज्ञान सतह पर आने लगता है जिसको सर्वोच्च अवस्था तक पहुँचाने में सत्संग की भूमिका उत्प्रेरक की होती है । इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य को प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग करना चाहिए । अनुकूल परिस्थिति में उदार हो जाना चाहिए और प्रतिकूल परिस्थिति में इच्छाओं का त्याग कर देना चाहिए । यही परिस्थितियों का सदुपयोग करना है ।
ज्ञान कहता है कि इस शरीर से होने वाला प्रत्येक कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होता है । इसका अर्थ हुआ कि मनुष्य के अहं अथवा मन की कर्म के संपादित होने में कोई भूमिका नहीं होती । गुणों की प्रत्येक क्रिया को स्वयं द्वारा करना मान लेना ही उसे कर्म बनाता है । जब यह ज्ञान मनुष्य को हो जाता है तब उसका कर्ताभाव समाप्त हो जाता है । कर्तापन से स्वयं को अलग कर लेना संसार से मुक्त होने की ओर प्रथम कदम होगा ।
बुद्धि का दूसरा कदम होता है कि फल की इच्छा का त्याग करना । जब कर्म करना मनुष्य के नियंत्रण में है ही नहीं, तो फल भी उसके नियंत्रण में नहीं रहेगा । इस बात का ज्ञान होते ही मनुष्य फल की इच्छा का भी त्याग कर देता है । फल की इच्छा ही मनुष्य के बंधन का एक मुख्य कारण है । फल की इच्छा का त्याग करते ही जो भी कर्म होंगे वे सभी निष्काम कर्म ही होंगे । निष्काम कर्म संचित नहीं होते और समय पाकर वे अकर्म हो जाते हैं, जिनका कोई भी फल नहीं होता ।
बुद्धि का तीसरा कदम है, मनुष्य का अनासक्त हो जाना । इंद्रियों के जितने भी विषय हैं वे सब क्षणिक सुख-दुःख प्रदान करते हैं । सुख के प्रति व्यक्ति आसक्त हो जाता है और वह बार-बार उसी सुख को प्राप्त करने की कामना करता है । यह भोग के प्रति आसक्ति उसको कर्म से मुक्त नहीं होने देती । सुख के प्रति राग ही संसार से मुक्ति में बाधक है । इसलिए यह आवश्यक है कि संयोगवश मिले विषय-भोग में मनुष्य रमण न करे बल्कि उसे त्याग पूर्वक भोगें । फिर उस रस के प्रति राग उत्पन्न ही नहीं होगा ।
मुक्ति की ओर चौथा कदम - मन की चंचलता पर नियंत्रण । सोचा-विचारी में मन की भूमिका रहती है । सोचा-विचारी के कारण संकल्प-विकल्प होते हैं । संकल्प-विकल्प मुक्ति में बाधक हैं । बुद्धि में उपजे ज्ञान-विवेक मनुष्य को स्पष्ट करते हैं कि भविष्य में क्या होना अथवा क्या नहीं होना है, वह सब पूर्वनिर्धारित हैं । पूर्वनिर्धारित होने में व्यक्ति की स्वयं की भूमिका होती है क्योंकि यह सब उसका ही प्रारब्ध है । यह प्रारब्ध बनता है, पूर्व-जन्म के संचित कर्मों से । ज्ञान से मनुष्य का मन शान्त अर्थात् अमन हो जाता है जिससे उसके सभी संकल्प- विकल्प मिट जाते हैं ।
पाँचवा कदम है, व्यक्ति की अहंकार से मुक्ति । अहंकार का सबसे बड़ा कारण है,मनुष्य का कर्तापन । ज्ञान होने पर व्यक्ति समझ जाता है कि वह किस बात का अहंकार करे ? जब सभी कर्म गुणों के कारण होते हैं, फल भी स्वयं की इच्छानुसार नहीं मिल सकता और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है, तो मनुष्य किस बात का अहंकार रखे । अहंकार के समाप्त होते ही मनुष्य का विवेक पूर्णरूपेण जाग्रत हो जाता है ।
विवेक का सदुपयोग करना मनुष्य के हाथ में है । विवेक का सदुपयोग है, की गयी भूल को नहीं दोहराना, साथ ही अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में शांत रहकर उनको सहना, सबमें परमात्मा को देखना, जिससे किसी के प्रति द्वैष पैदा नहीं होगा । विवेक का सबसे महत्वपूर्ण सदुपयोग है, स्वयं को परमात्मा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर देना । यही प्रभु के प्रति शरणागति है । विवेकहीन मनुष्य इस अवस्था को उपलब्ध नहीं हो सकता ।
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि बुद्धि भले ही अपरा प्रकृति का एक तत्व है, परन्तु यह आपको परमात्मा के द्वार तक पहुँचा सकती है । ऐसा होना तभी संभव होगा, जब बुद्धि का उपयोग सही दिशा में किया जाए । सात्विक बुद्धि से ज्ञान और विवेक को आचरण में लाना ही उसका सदुपयोग है । बुद्धियोग का अर्थ कर्मयोग से ही है । जैसा पूर्व में बताया गया है कि बुद्धि से कर्मों का प्रकार (कर्मों की श्रेणी) परिवर्तित किया जा सकता है, जिसका अर्थ ही कर्मों को निष्काम की श्रेणी में लाने से है । इस प्रकार बुद्धियोग का सीधा सम्बन्ध कर्मों से है, न कि ज्ञान से । ज्ञान की भूमिका केवल इतनी ही है कि इससे मनुष्य को कर्म की होने वाली प्रक्रिया समझ में आ जाती है जिससे वह सकाम कर्मों को करने से बच जाता है और नैष्कर्म्यता को उपलब्ध हो जाता है ।
बुद्धि का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है - समता । संसार से मुक्ति के लिए जितने भी सोपान पूर्व में बताए गए हैं, वे व्यक्ति की स्थिर बुद्धि के कारण ही संभव होते हैं । स्थिर बुद्धि ही समबुद्धि है । समबुद्धि के कारण व्यक्ति के आचरण में समता आ जाती है । समता के कारण उसके कर्म भी निष्काम हो जाते हैं । गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने समता को ही योग कहा है ।
योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यऽसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। गीता - 2/48 ।।
हे धनंजय ! तू आसक्ति का त्याग करके, सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है ।
जितने भी द्वंद्व है (सुख-दुःख, हानि-लाभ, सिद्धि-असिद्धि, राग-द्वेष आदि) उनके न रहने से जीवन में जो समता आती है, उस समता में स्थित होकर कर्म करने चाहिए । समता को ही ‘योग’ कहा जाता है ।
संसार के सभी जीव कर्म करने में लगे हुए हैं । कर्म शरीर के सुख के लिए किए जाते हैं । जो कर्म स्वयं के सुख के लिए किए जाते हैं, वे सकाम कर्म हैं । सकाम कर्म परमात्मा से विमुख करते हैं, इसलिए उनको निम्न श्रेणी का कहा गया है । बुद्धि की स्थिरता जीवन में समता लाती है । समता से कर्म की प्रकृति परिवर्तित हो जाती है । फिर कर्म स्वार्थ के लिए न होकर परमार्थ के लिए होते हैं । ऐसे कर्म बँधनकारी नहीं होते ।
फलेच्छा से किए जाने वाले कर्मों से जीवन में समता नहीं लाई जा सकती । प्रत्येक कर्म का फल मिलना निश्चित है और वह फल बंधन पैदा करता है । संसार का निर्माण क्रियाओं से ही हुआ है अर्थात् संसार में क्रिया ही क्रिया है । क्रिया का फल पदार्थ है । पदार्थ में होने वाली क्रिया ही कर्म बनकर विषय-भोग उपलब्ध कराती है । प्रत्येक क्रिया का आरंभ और अंत होता है । इससे सिद्ध होता है कि कर्म, पदार्थ और विषय-भोग सभी आदि-अंत वाले हैं । इसलिए कर्मों का आश्रय लेना ही नहीं चाहिए ।
परमात्मा ने अर्जुन को कर्म की बजाय बुद्धि का आश्रय लेने का कहा है क्योंकि मनुष्य के पास एकमात्र बुद्धि तत्व ही ऐसा हो जो उसके जीवन में समता ला सकता है । समता ही योग है और योग अविनाशी है । जो व्यक्ति बुद्धि का आश्रय लेता है वह पाप-पुण्य से दूर हो जाता है । समतापूर्वक कर्म करने से फलेच्छा समाप्त होकर कर्म से संबंध विच्छेद हो जाता है । जब कर्म से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहता तो फिर पाप अथवा पुण्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
गीता में भगवान ने कर्मफल के त्याग को सबसे बड़ा त्याग बताया गया है । कर्मफल के त्याग से अर्थ है, फल की इच्छा का त्याग । फल की इच्छा मनुष्य में कामना पैदा कर उसको कर्म करने को विवश करती है । समता में रहने वाला कर्म को मात्र प्रकृति के गुणों की क्रिया मानता है । क्रियाएँ मनुष्य को तभी प्रभावित करती है, जब वह उनमें आसक्त होता है । समता सदैव अनासक्त रखती है जिससे जीवन में किसी भी परिस्थिति में व्यक्ति विचलित नहीं होता ।
जीवन में जो भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं, वे सब हमारे कर्मों का ही परिणाम होती हैं । उन परिस्थितियों के लिए किसी दूसरे को दोष, यहाँ तक कि परमात्मा को भी दोष देना अनुचित है । हमारा स्वार्थ ही हमें उन परिस्थितियों तक ले जाता है । जीवन में समता आते ही परमार्थ भावना का जीवन में आगमन होता है, जो हमें शान्ति को उपलब्ध कराता है । बुद्धि का उपयोग जीवन को समत्व की स्थिति तक ले जाने में ही है । तुलाधार वैश्य समता का पालन करते हुए अपना व्यावसायिक कर्म करता था और केवल इसी आधार पर वह जीवन-मुक्त हो गया था ।
बुद्धि की भूमिका कर्मयोग के साथ साथ ज्ञानयोग में भी रहती है । ज्ञानयोग परमात्मा को जानने में सहायक है । जितना भी ज्ञान मनुष्य अर्जित करता है वह सब उस परमात्मा को जान पाने के लिए अपर्याप्त है । इसीलिए सन्तजन कहते हैं कि परमात्मा बुद्धि का विषय नहीं है । यह जिस दिन हमारे समझ में आ जाएगा हम बुद्धि से भी परे चले जाएँगे और परमात्मा को उपलब्ध हो जाएँगे । बुद्धि से परे चले जाने का अर्थ है, प्राप्त ज्ञान को विस्मृत कर देना । यह विस्मृति स्मृति में तभी परिवर्तित होती है, जब परमात्मा के द्वार खुल जाते हैं । फिर वह ज्ञान अहंकार रहित होगा क्योंकि परमात्मा स्वयं ज्ञान स्वरूप हैं ।
परमात्मा के प्रति शरणागत होने के लिए बुद्धि का आश्रय लेना आवश्यक है । जब तक मनुष्य मन के कहे अनुसार चलता रहेगा तब तक वह बंधनमुक्त नहीं हो सकता । स्थिर बुद्धि, मन को नियंत्रित कर सकती है । मन के नियंत्रित होते ही परमात्मा की ओर दृष्टि हो जाती है । संसार की नश्वरता का ज्ञान बुद्धि के माध्यम से ही हो सकता है । समत्व बुद्धि संसार की आसक्ति से दूर कर परमात्मा की और उन्मुख कर देती है । इसीलिए समता को योग कहा गया है । योग अर्थात् परमात्मा के साथ योग ।
विवेचन के अन्त में प्रश्न उठता है कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बुद्धि का आश्रय लेने के लिए ही क्यों कहते हैं, मन का आश्रय भी तो लिया जा सकता है ?
मनुष्य के अंतःकरण जिसे सूक्ष्म या लिंग शरीर भी कहा जाता है, वह संसार के आवागमन में भूमिका निभाता है । इस संसार-चक्र के लिए मुख्य रूप से मन ही उत्तरदायी है क्योंकि मन की चंचलता के कारण कामनाओं और सकाम कर्मों से मनुष्य जीवन भर मुक्त नहीं हो पाता । इस मुक्त न हो पाने की अवस्था को ही संसार का बंधन कहा जाता है । संसार से मुक्ति के लिए अंतःकरण के तीनों तत्वों को भगवान को समर्पित करना होता है । अहंकार को बुद्धि में उपजे ज्ञान विवेक से समाप्त किया जा सकता है परंतु मन को नहीं । मन को बुद्धि के माध्यम से परमात्मा में स्थापित किया जा सकता है, जिससे उसकी चंचलता समाप्त हो जाती है । भगवान गीता में स्वयं कह रहे हैं -
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवासिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय: ।। गीता - 12/8 ।।
अर्थात् तू मुझमें मन को स्थापन कर और मुझ में ही बुद्धि को प्रविष्ट कर; इसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा - इसमें संशय नहीं है ।
मन चंचल है, इसको स्थापन (fix) करना पड़ता है जबकि बुद्धि को परमात्मा में प्रवेश कराना होता है । बुद्धि मन के स्थापन में सहयोगी है, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण बुद्धि का आश्रय लेने की बात कह रहे हैं । बुद्धि अंतःकरण का वह तत्व है जिसका आश्रय ले मनुष्य संसार-चक्र से मुक्त हो सकता है ।
इस जगत् में जो कुछ मन से सोचा जाता है, वाणी से कहा जाता है, नेत्रों से देखा जाता है और श्रवण आदि इंद्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान है । सब स्वप्न की तरह मन का विलास मात्र है । मन चंचल है । जिस मनुष्य का मन अशांत, असंयत है, उसको ही संसार में अनेकता दिखलाई पड़ती है । वास्तव में यह चित्त का भ्रम ही तो है । नानात्व (अनेकता) का भ्रम हो जाने पर ही ‘यह गुण है’ और ‘ यह दोष है’ इस प्रकार की कल्पना करनी पड़ती है । जिसकी बुद्धि में गुण और दोष का भेद बैठ गया है, उसी के लिए कर्म, अकर्म और विकर्म रूप में कर्मों के भेद कहे गए हैं । जिस बुद्धि में गुण-दोष का भेद बैठ गया है, वह सांसारिक बुद्धि है । मनुष्य को इस सांसारिक बुद्धि को आध्यात्मिक बुद्धि में बदलना होगा, तभी संसार से मुक्त होना संभव होगा अन्यथा नहीं ।
आध्यात्मिक बुद्धि का विकास कैसे होगा ? भागवतजी में भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी को इसके बारे में बताते हैं । वे कह रहे हैं -
तस्माद् युक्तेन्द्रियग्रामो युक्तचित्त इदं जगत् ।
आत्मनीक्षस्व विततमात्मानं मय्यधीश्वरे ।। भागवत - 11/7/9 ।।
हे उद्धव ! तुम पहले अपनी समस्त इंद्रियों को अपने वश में कर लो, उनकी बागडोर अपने हाथ में ले लो और केवल इंद्रियों को ही नहीं, चित्त की समस्त वृत्तियों को भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह सारा जगत् अपनी आत्मा में फैला हुआ है और आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत ब्रह्म से एक है, अभिन्न है ।
इस प्रकार का अनुभव केवल बुद्धि से ही हो सकता है । इस प्रकार जो अनुभव करने वाली बुद्धि है, वही आध्यात्मिक बुद्धि कहलाती है । इसलिए भगवान ने अर्जुन को बुद्धि का आश्रय लेने का कहा है ।
अंतःकरण चतुष्ट्य में मन, चित्त और अहंकार, ये तीन तो परमात्मा के अंतर्यामी स्वरूप के विभाग हैं । मन और इंद्रियों के माध्यम से वे सांसारिक विषयों के भोक्ता बनते हैं । वे हालाँकि विषय-भोगों में लिप्त नहीं होते परन्तु देहाभिमान (अहंकार) के कारण जीव स्वयं को ही कर्ता और भोक्ता मानकर शरीर में आसक्त हो जाता है । आसक्ति के कारण मन अपने भीतर फल की इच्छा रखते हुए इंद्रियों से सकाम कर्म कराता है । इस बात को भागवतजी में नौ योगीश्वरों में तीसरे योगेश्वर अंतरिक्षजी स्पष्ट करते हैं ।
एवं सृष्टानि भूतानि प्रविष्ट: पञ्चधातुभि: ।
एकधा दशधाऽऽत्मानं विभजञ्जुषते गुणान् ।। भागवत -11/3/4 ।।
अर्थात् पञ्च महाभूतों के द्वारा बने प्राणी शरीर में परमात्मा ने अंतर्यामी रूप से प्रवेश किया और स्वयं को ही पहले मन के रूप में और इसके पश्चात् पाँच ज्ञानेंद्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय - इन दस रूपों में विभक्त कर दिया तथा उन्हीं के माध्यम से विषयों का भोग करने लगे ।
इस प्रकार देहभिमानी जीव अंतर्यामी द्वारा प्रकाशित इंद्रियों के द्वारा विषयों का भोग करता है और इस पञ्चभूतों के द्वारा निर्मित शरीर को आत्मा अर्थात् अपना स्वरूप मानकर उसी में आसक्त हो जाता है । इसी कारण से उससे सकाम कर्म होते हैं और वह शरीर और संसार के साथ बंध जाता है ।
परमात्मा ने जीवात्मा के रूप में आकर स्वयं को मन और दस इंद्रियों में विभाजित कर लिया और उनसे विषय-भोग के भोक्ता बने परंतु इस भोक्तापन से अंतःकरण चतुष्ट्य के चौथे अंश बुद्धि को अलग रखा । बुद्धि यदि मन की अनुगामी बन गई तो फिर जीव का संसार से मुक्त होना असंभव है । अतः बुद्धि को एक ही दिशा में रखते हुए उसको मन की अनुगामी न बनाएँ, तभी मुक्ति सहज हो सकेगी । स्थितप्रज्ञ में यही विशेषता होती है । अतः जीवन में बुद्धि को तीक्ष्ण और मन पर प्रभावशाली बनाएं ।
कठोपनिषद् में कहा गया है कि यह शरीर एक रथ है । यह रथ जिन घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है, वे हमारी इंद्रियाँ है । इन घोड़ों की बाग (लगाम) को मन बताया गया है । यह लगाम जिस सारथी के हाथ में है, वह सारथी हमारी बुद्धि है । इस रथ का मालिक जीवात्मा है । जीवन रूपी इस चलते हुए रथ (शरीर) को देखें तो स्पष्ट है कि रथ को सारथी (बुद्धि) चलाता है, वह भी बाग को अपने नियन्त्रण में रखते हुए । जीवात्मा शरीर का मालिक बनी हुई इस रथ के पिछले भाग में बैठी है । कहने का अर्थ है कि इस शरीर में मन और जीवात्मा के मध्य बुद्धि है । जीवात्मा ने शरीर के साथ अपनापन कर लिया है और वह बुद्धि को उपेक्षित करते हुए सीधे मन और इन्द्रियों से विषय -भोग प्राप्त कर रहा है ।
विभिन्न प्रकार के विषय इस शरीर से बाहर संसार में है । इंद्रियों का जब संपर्क विषयों से होता है तब उनके प्रति राग-द्वेष पैदा हो जाता है । जिस विषय के प्रति राग होता है, उसको जीवात्मा बार-बार पाने का प्रयास करती है । मन इंद्रियों को उन्हें पाने के लिए प्रेरित करता है । मन का नियंत्रण बुद्धि के पास भले ही हो, उसकी अवहेलना कर जीवात्मा सीधे मन को आदेश देने लगता है । इसीलिए जीवात्मा को सब विषयों की भोक्ता कहा जाता है ।
बुद्धि अगर मनोमुखी है तो वह मन पर नियन्त्रण नहीं रख सकती और जीवात्मा के द्वारा चाहे गए भोग मन और इन्द्रियों के माध्यम से उसे उपलब्ध करवाती रहती है । यही बुद्धि अगर परमात्मा की ओर दृष्टि रखे तो वह जीवात्मा के आदेश की उपेक्षा कर सकती है । परंतु कैसे ?
बुद्धि अगर जीवात्मा को मन से अलग कर दे तो इंद्रियों का नियंत्रण सीधा बुद्धि के पास आ सकता है । यह कार्य कठिन अवश्य है, असंभव नहीं है । मन की चंचलता के कारण जो बुद्धि बहुशाखाओं वाली हो गई है उसको केवल एक दिशा में लगाना आवश्यक है ।
अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए चलिए ! कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में चलते हैं । कौरव और पाण्डव सेना के मध्य युद्ध प्रारम्भ होने जा ही रहा है कि रथ में बैठे अर्जुन को मोह हो गया है । भगवान उसके रथ के सारथी हैं, जो न तो युद्ध करेंगे और न ही इस युद्ध में वे लिप्त होंगे । अर्जुन कर्तव्य विमुख होकर विषाद कर रहे हैं । उसका मन विचलित है परंतु श्रीकृष्ण उसके मन (रथ की लगाम) को थामे हुए हैं । वे अर्जुन को ज्ञान देते हैं और उसे विषाद-मुक्त करते हुए कर्तव्य पथ की ओर मोड़ देते हैं ।
अर्जुन जीवात्मा है और भगवान श्री कृष्ण बुद्धि है । जीवात्मा (अर्जुन) के विषाद का कारण उसका चंचल मन है । मन सामने की सेना में अपने संबंधियों को देखकर मोहग्रस्त हो गया है और इस कारण जीवात्मा युद्ध से होने वाले परिणाम का आकलन कर रही है । जीवात्मा (अर्जुन) की दृष्टि केवल अपने मन पर लगी है परंतु उसकी दृष्टि रथ की लगाम (मन) को थामे भगवान श्री कृष्ण (बुद्धि) की ओर नहीं है । श्रीकृष्ण तो साक्षात परमात्मा हैं, वे सभी बुद्धियों के स्वामी हैं, सभी बुद्धियों के दृष्टा हैं ।
जब जीवात्मा जो अपने आप को शरीर और मन मान बैठी है, की दृष्टि बुद्धि पर जाती है तथा वह बुद्धि का आश्रय ले लेती है, तब जीवन के सभी विषाद समाप्त होने की संभावना बढ़ जाती है l बस, आवश्यकता है कि बुद्धि को विचलित न होने दें । श्री कृष्ण स्थिर और सम्यक बुद्धि के प्रतीक हैं । मन के अधीन हुई जीवात्मा बुद्धि को विचलित करने का बहुत प्रयास करती है, परन्तु बुद्धि से अर्जुन की तरह प्रश्न - प्रतिप्रश्न करते रहना चाहिए जिससे विषाद से निकलने के लिए सही मार्ग मिल सके, फिर किसी भी परिस्थिति में विचलित होना सम्भव ही नहीं होगा ।
बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ - 19
जीवात्मा सभी भोगों की भोक्ता है, इसलिए वह सुखी-दुःखी होना अनुभव करती है । वास्तव में वह सुखी-दुःखी नहीं होती बल्कि शरीर सुखी-दुःखी होता है । इस बात का अनुभव मन को होता है, जीवात्मा को नहीं । यही वह अवसर है, जब मन पर बुद्धि प्रभावी हो सकती है । यदि इस अवसर का सदुपयोग कर बुद्धि मन को नियंत्रण में ले लेती है तो फिर इंद्रियाँ बुद्धि के अनुरूप चलने लगती है । ऐसी अवस्था में विषय-भोगों और कर्मों के प्रति आसक्ति धीरे-धीरे समाप्त होती जाती है और जीवात्मा को शरीर से अलग होने का अनुभव होने लगता है । फिर शरीर से कर्म स्वतः ही बिना फलेच्छा के होने लगते हैं ।
भगवान स्वयं अर्जुन के सारथी बने हैं, जिससे अर्जुन युद्ध जैसी विपरीत परिस्थिति में विचलित न हो सके । ज्ञान देते हुए भगवान ने ही अर्जुन को बुद्धि का आश्रय लेने का कहा है । बुद्धि को स्थिर रखते हुए स्थितप्रज्ञ बनना है, तो श्री कृष्ण के जीवन को देखें, आपको सब बात समझ में आ जाएगी ।
वसुदेवजी ने विपरीत परिस्थिति में भी भगवान के अवतरण को समझ लिया था क्योंकि सलाखों के पिछे रहते हुए, एक -एक कर अपनी सात संतानों के दुःख को सहते हुए भी वे कभी विचलित नहीं हुए क्योंकि वे स्थिर बुद्धि के स्वामी थे । स्थिर बुद्धि के स्वामी होने के कारण ही उनके घर परमात्मा पधारे ।
इतने विवेचन का सार एक ही है कि हमें अपरा प्रकृति के एक मात्र तत्व, बुद्धि का आश्रय लेना है, जिससे हम अपने मूल सच्चिदानंद स्वरुप तक पहुंच सकें अन्यथा मन के सहारे तो चौरासी में भटकना ही निश्चित है ।
सार - संक्षेप
परमात्मा स्वयं ही सृष्टि के रूप में अवतरित हुए हैं । सृष्टि का संचालन करने के लिए परमात्मा ही जीवात्मा बने है । जीवात्मा का इस सृष्टि से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है । जीवात्मा तो स्वयं सृष्टि के सृजनकर्ता का अंश है परन्तु वह स्वयं को ही सृष्टि (शरीर) समझ सुख भोगने के लिए अपने एक संसार का अलग से सृजन कर लेता है । फिर उसी संसार के आश्रित होकर वह सुख - दुःख भोगता रहता है ।
सृष्टि में जो भी परिवर्तन होते हैं, उससे परमात्मा पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ता परंतु सृष्टि के जीव विचलित होते रहते हैं । जीवात्मा स्वयं परमात्म-स्वरुप है परंतु सृष्टि के परिवर्तन को अपने में होना मान कर सुखी -दुखी होता रहता है ।
इस दुःख की निवृति के लिए उसे संसार और शरीर का आश्रय छोड़ बुद्धि का आश्रय ग्रहण करना होगा तभी वह शान्ति के साथ परमात्मा तक पहुंच सकता है । बुद्धि को भी उसे एक ही दिशा में स्थिर रखना होगा अन्यथा संसार और शरीर में आसक्त होकर मन का पुनः आश्रय ले लेगा । परमात्मा ही सभी बुद्धियों के दृष्टा हैं । उसी बुद्धि के माध्यम से वे सुखी दुखी न होकर सृष्टि से केवल आनन्द लेते हैं । हम उन्हीं के अंश हैं, फिर हम बुद्धि का आश्रय लेकर शान्ति को उपलब्ध क्यों नहीं हो सकते ?
इस प्रकार अपरा प्रकृति के श्रेष्ठतम तत्व बुद्धि का सदुपयोग कर व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो सकता है । भगवान ने गीता में इसीलिए बुद्धि का आश्रय लेने का कहा है । बुद्धि का आश्रय लेने के बाद व्यक्ति धीरे-धीरे स्वतः ही भगवान के आश्रय में चला जाता है । परमात्मा बुद्धि से भी परे हैं और बुद्धि से उनको जाना भी नहीं जा सकता। बुद्धि का आश्रय लेने से केवल संसार और शरीर से ममता छूट जाती है । इस प्रकार संसार से विमुख हुआ मनुष्य स्वतः ही परमात्मा के सम्मुख हो जाता है। आप भी बुद्धि का आश्रय लेते हुए योग में स्थित होकर कर्म करने से निश्चित ही परमात्मा को उपलब्ध होंगे, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।
।। हरिः शरणम् ।।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल