कर्मवाद (कर्मयोग)
कर्म और भोग, इन दो के कारण ही संसार गतिमान बना हुआ है । संसार चक्र का पहिया किसी के रोके रुक नहीं सकता क्योंकि यहाँ (पृथ्वी पर) जीवन है । जब तक जीवन में कर्म होते रहेंगे तब तक जीव विभिन्न भोग भोगता रहेगा । जब तक विभिन्न विषय भोग इस संसार में बने रहेंगे तब तक उनको भोगने की इच्छा जीव से कर्म करवाती रहेगी । इस प्रकार भोग की इच्छा से कर्म और फिर कर्म के परिणाम में भोग जीव को मिलते रहेंगे । यह कर्म और भोग का अटूट चक्र ही जीव को संसार के आवागमन में लगाए रखता है । संसार चक्र को सतत गतिमान बनाए रखने के मूल में कर्म-भोग ही मुख्य कारण है ।
जीव के बार बार संसार में देह धारण करते रहने के पीछे उसके कर्म ही उत्तरदायी हैं । प्रत्येक जीव को उसके द्वारा किए जाने वाले कर्म का कोई न कोई फल किसी न किसी जीवन में मिलना निश्चित है । एक देह के अपने अल्पकालीन जीवन में जीव जब किसी कर्म के फल को प्राप्त करने से वंचित रह जाता है तो उसे नई देह के जीवन में जाना पड़ता है, जहां उसे उस कर्म का फल मिलता है ।
कर्म का परिणाम जीव के सामने विभिन्न परिस्थितियां उत्पन्न करता है, जो उस जीव के सुख-दुःख का कारण बनती है ।मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी तो सुख-दुःख भोगकर उस देह से मुक्त होकर नई देह में चले जाते हैं परन्तु मनुष्य ही एक मात्र ऐसा जीव है जो उस परिस्थिति को परिवर्तित करने का प्रयास करता है । परिस्थितियां स्वतः ही परिवर्तित होती है, कोई कितना भी प्रयास कर ले परिस्थिति उसके प्रयास से बदलने वाली नहीं है । जिस दिन ऐसा करना मनुष्य के लिए संभव हो जाएगा, वह संसार के आवागमन से मुक्त हो जाएगा । वह अपने समक्ष आने वाली प्रत्येक परिस्थिति से किस प्रकार निपटता है अथवा इसके लिए वह अपने कर्मों को कैसे परिवर्तित करता है, इस बात को जानना आवश्यक है क्योंकि परिस्थिति ही उसके सुख-दुःख के मूल में है ।
मनुष्य का जीवन अन्य जीवों की तरह नहीं है । स्थूल रूप से भले ही सब जीवों के शरीर पाँच भौतिक तत्त्वों से बने हो, परंतु सूक्ष्म शरीर में बुद्धि तत्त्व की प्रधानता मनुष्य को अन्य जीवों से भिन्न बनाती है । सभी जीव अपना अपना जीवन प्रारब्ध अनुसार जीते हैं । मनुष्य प्रारब्ध से हटकर भी जी सकता है और उसके इस प्रकार जीने में बुद्धि की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । सभी प्राणी आहार, निद्रा और मैथुन के लिए भयपूर्ण वातावरण में जीने को विवश है । मनुष्य के समक्ष ऐसी कोई विवशता नहीं है । वह अपना जीवन जीने को पूर्ण रूप से स्वतंत्र है ।
बुद्धि के आधार पर प्राणियों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है - अविवेकी जीव और विवेकी जीव । बुद्धि प्रत्येक जीव में होती है । बुद्धि को विवेक में परिवर्तित करना जिस जीव को आ जाता है, वह विपरीत परिस्थितियों में भी अपने भविष्य को सुरक्षित कर लेता है । सभी पशु अविवेकी होते हैं, उनमें विवेक जाग्रत नहीं हो सकता । मनुष्य अविवेकी भी हो सकता है और विवेकी भी । अविवेकी मनुष्य उन प्राणियों की श्रेणी में आ जाता है जिसके लिए जीवन केवल भययुक्त होकर आहार, नींद और संतानोत्पत्ति तक ही जीने में सीमित है । इन चार (आहार, भय, निद्रा और मैथुन) के घेरे से बाहर उसका जीवन शून्य हो जाता है । विवेक जाग्रत होने पर ही उसे मनुष्य जीवन मिलने का उद्देश्य समझ में आता है ।
जो जीव केवल अपने लिए जीते हैं वे ही इन चार अर्थात् आहारादि तक ही सीमित रह जाते हैं । वे अपने होने का प्रयोजन ही नहीं जानते क्योंकि वे सब प्रारब्धवश इस शरीर में आए हैं । इस शरीर में कितने दिन रहना होगा, यह भी कोई निश्चित नहीं है । जिस दिन प्रारब्ध से मिला एक शरीर छूटता है, तत्काल ही उसे दूसरा शरीर प्रतीक्षा करते मिलता है । केवल विवेक की उपस्थिति से ही स्पष्ट होता है कि विविध शरीरों के भटकाव में जीव पुनः उलझेगा अथवा मुक्त होगा । ध्यान रहे, जाग्रत विवेक का सदुपयोग हो, इसके लिए ही जीव को मनुष्य शरीर मिलता है ।
मनुष्य शरीर पाकर भी जीवन अगर आहारादि तक ही सीमित रहा तो आगे फिर से चौरासी लाख शरीर उसकी प्रतीक्षा करते मिलेंगे । इसलिए मनुष्य शरीर मिलते ही जीव को अपनी बुद्धि से अपने जीवन का उद्देश्य समझ लेना चाहिए । मनुष्य शरीर मिलने का एक ही उद्देश्य है - अपने वास्तविक स्वरूप को जानना । स्वरूप का ज्ञान होते ही फिर मनुष्य संसार के भोगों में नहीं उलझता ।
भयपूर्ण वातावरण में केवल आहार, निद्रा और मैथुन के लिए जीना स्वार्थ है । मनुष्य स्वयं भी प्रारब्ध के अधीन है परंतु वह चाहे तो अपने विवेक से उस प्रारब्ध को भी परिवर्तित कर सकता है । विवेक ही मनुष्य और अन्य प्राणियों को आपस में जोड़ने वाली कड़ी को तोड़ता है । अंग्रेज़ी में एक कहावत है, जिसका हिन्दी अनुवाद है - “ मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है फिर भी वह अनेक बंधनों में जकड़ा रहता है ।” मनुष्य को बाँधने वाली इन ज़ंजीरों की कड़ियों को विवेक से तोड़कर मुक्त हुआ जा सकता है । संसार से मुक्त होने का अर्थ है, संसार के आवागमन से मुक्त होना ।
मनुष्य के बंधन उसके कर्मों का परिणाम है । पूर्व जीवन के कर्म वर्तमान जीवन में फल देते हैं । उन कर्मों के फल मनुष्य में उस फल के प्रति आसक्ति पैदा कर देते है, जिसके परिणाम स्वरूप वह नए कर्म करने को विवश हो जाता है । इस प्रकार फल की आसक्ति उसे कर्मों के फंदों से कभी मुक्त नहीं होने देती । मनुष्य के जीवन में बंधन का मुख्य कारण यही है । इसके अतिरिक्त भी बंधन के कई कारण हैं, परंतु लेख के विषय को देखते हुए हम केवल कर्म तक ही सीमित रहेंगे ।
फल की आसक्ति से किए जाने वाले कर्म और उसके परिणाम व्यक्ति की विभिन्न परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी हैं । अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितीयां प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आती है और उन परिस्थितियों के कारण ही वह जीवनभर सुखी दुःखी होता रहता है । परिस्थितियां सदैव एक समान नहीं रहती, परिस्थिति परिवर्तन अवश्यंभावी है । प्रत्येक परिस्थिति का मनुष्य किस प्रकार सामना करता है, वह अधिक महत्वपूर्ण है ।
जीवन में हमारे समक्ष आने वाली प्रत्येक परिस्थिति चाहे वह अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल, हमारे कर्मों का ही परिणाम होती है । कोई भी परिस्थिति सदैव के लिए नहीं रहती । अनुकूलता प्रतिकूलता में परिवर्तित हो जाती है और प्रतिकूलता अनुकूलता में । इन्हीं परिस्थितियों के कारण मनुष्य अपने जीवन में सुख-दुःख का अनुभव करता है ।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य सुख-दुःख से मुक्त होकर शांति की अवस्था को प्राप्त करना है । हम अशांत तब तक ही हैं, जब तक स्वयं के भीतर सुख की चाहना रखते हैं । सुख की चाहना ही हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करती है । सुख का अर्थ है, अनुकूल फल की कामना । मनुष्य को मिलता उतना ही है जितने का वह अधिकारी है और उसे वह सब-कुछ कब मिलना है, वह सब उसके शरीर धारण करने से पूर्व ही निश्चित किया जा चुका होता है । जो कुछ मिलना है, वह सब आपके पूर्वकृत कर्म ही दिलाते हैं ।
मनुष्य कर्म करते हुए जीवन में जब आगे बढ़ता है, तब उसमें कर्ताभाव पैदा हो जाता है । “मैं करता हूँ”, यह सोच ही उसको इसी जीवन में सब कुछ प्राप्त करने की आशा दिलाती है । हाँ, एक सीमा तक यह सत्य भी है क्योंकि हम जानते हैं कि मनुष्य अपने पुरुषार्थ से सब कुछ प्राप्त कर सकता है । परंतु उसे पुरुषार्थ से जो कुछ प्राप्त करना चाहिए, उसके लिए वह प्रयास नहीं करता । काम और अर्थ पदार्थों को प्राप्त करने के लिए किए गए पुरुषार्थ की कुछ सीमाएँ है । वे इसी जीवन में उपलब्ध हो भी सकती है और नहीं भी परंतु धर्म और मोक्ष, ये दोनों एक ही जीवन (वर्तमान जीवन) में प्राप्त किए जा सकते हैं ।
धर्मानुकूल काम और अर्थ को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को परहित के लिये कर्म करने होंगे तभी उसे शास्त्रोक्त पुरुषार्थ कहा जा सकता है । परमार्थ के लिए किए जाने वाले कर्म आपको बाँधते नहीं है क्योंकि वे स्वार्थ की सीमा से बाहर जाकर किए जाते हैं । इस प्रकार कर्म दो प्रकार से किए जाते हैं - स्वार्थ के लिए और परमार्थ के लिए । किए गए कर्मों के कारण ही मनुष्य को अच्छी बुरी परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है ।
मनुष्य के लिए उसका अंतःकरण अपना विशेष स्थान रखता है । अंतःकरण में सम्मिलित मन के कारण ही इस जीव को मनुष्य कहा गया है । स्वच्छ मन को मनुष्य की आत्मा कहा जाता है । अपनी चंचलता के कारण मन इधर उधर भटकता रहता है । मन ही मनुष्य के समक्ष उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों की व्याख्या करता है । जो परिस्थिति मन को भाती है, वह उसके लिए अनुकूल है जो उसे सुख देने वाली होती है । इसी प्रकार जो परिस्थिति मन को नहीं भाती, वह प्रतिकूल परिस्थिति कहलाती है और मनुष्य उस परिस्थिति में स्वयं को दुःखी अनुभव करता है ।
मनुष्य के समक्ष आने वाली प्रत्येक परिस्थिति और उससे सुखी-दुःखी होते रहने से व्यक्ति की प्रकृति स्पष्ट हो जाती है । हमारे सामने भी कई बार ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो जाती हैं, जो हमारा स्वार्थी होना सिद्ध करती हैं । स्वार्थ की भावना से कर्म करते हुए जो मनुष्य जीता है, उसमें और एक पशु में फिर कोई अंतर नहीं रह जाता । पशु केवल अपने स्वार्थ को पूरा करते हुए ही जीवन जीते हैं ।
प्रत्येक परिस्थिति व्यक्ति के जीवन पर अपना प्रभाव डालती है । मनुष्य जीवन को किस प्रकार जीना चाहिए, यह जानने के लिए हमें गहराई से विचार करना होगा । हमारे जीवन के क्या सिद्धान्त होने चाहिए ? जीवन में अपनाए जाने वाले सिद्धांत ही प्रत्येक परिस्थिति की स्पष्ट व्याख्या करने में सक्षम हैं । इससे मनुष्य की परिस्थिति से निबटने की क्षमता का विकास भी होता है ।
अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए आपके समक्ष एक प्रश्न रख रहा हूँ । ईश्वर न करे, आपके जीवन में कभी कोई विपरीत परिस्थिति आए परंतु दैवयोग से कभी ऐसी परिस्थिति आ भी जाए तो आप इस परिस्थिति की किस प्रकार व्याख्या करेंगे ? मेरे पूछने का अर्थ है कि प्रतिकूल परिस्थिति के लिए आप किस को उत्तरदाई ठहरायेंगे ? इस प्रश्न का उत्तर ही आपकी क्षमता और आपका भविष्य निर्धारित करने वाला होगा ।
अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियां किस जीव के जीवन में नहीं आती, कमोबेश विपरीत परिस्थिति का तो सभी के जीवन में आना अवश्यंभावी है । अन्य प्राणी को तो प्रारब्ध के कारण विपरीत परिस्थिति से जैसे तैसे निपटना होता है, निपट लेते हैं । अपने समक्ष आई विपरीत परिस्थिति से मनुष्य कैसे निपटता है ? यह जानना महत्वपूर्ण है । पूर्व में जो प्रश्न पूछा गया था, उसका उत्तर अब देना आवश्यक है, नहीं तो यह लेख अपने उद्देश्य से भटक जाएगा । प्रश्न पूछा गया था कि ईश्वर न करे, आपके जीवन में कोई विपरीत परिस्थिति आए परंतु दैवयोग से कभी ऐसी परिस्थिति आ भी जाए तो आप इस परिस्थिति की किस प्रकार व्याख्या करेंगे ? मेरे पूछने का अर्थ है कि इस विपरीत परिस्थिति के लिए आप किस को उत्तरदाई ठहरायेंगे ?
इस प्रश्न का आपने क्या उत्तर दिया है, मुझे नहीं पता । मेरे द्वारा दिए गए उत्तर से आप अपना उत्तर मिला लीजिए । विपरीत परिस्थिति आने पर एक संसारी और अविवेकी मनुष्य निम्न प्रकार से उसकी व्याख्या करता है -
प्रथमत:
परिस्थिति का कारण ईश्वर है। ईश्वर ने मुझे विषम परिस्थिति मे फँसा दिया अन्यथा मैं भी इस दुनिया का एक सफल व्यक्ति होता ।
द्वितीयतः
मेरी विषम परिस्थिति का कारण मेरा पडोसी है या मेरा व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी अर्थात् कोई दूसरा व्यक्ति है । अगर वह नहीं होता तो मैं भी विकास के क्षेत्र में बहुत ही आगे निकल जाता।
तृतीयतः
परिस्थिति के मूल में मेरे पूर्व जन्म के कर्म है । मेरे भाग्य में ही मेरे साथ अशुभ होना लिखा है, ऐसे में भला मैं क्या कर सकता हूँ ? मेरा समय ख़राब चल रहा है अथवा मैं ग़लत स्थान पर रह रहा हूँ ।
इस प्रकार संसारी मनुष्य अपनी परिस्थिति के लिए किसी दूसरे को ज़िम्मेवार मानता है । जैसे ईश्वर, प्रारब्ध, प्रतिद्वंद्वी, समय और स्थान आदि। वह स्वयं को अपनी परिस्थिति के लिए कभी भी ज़िम्मेवार नहीं मानता। यही उसकी मूलभूत भूल है ।
इस प्रकार विपरीत परिस्थिति की तीनों प्रकार की व्याख्या एक अविवेकी व्यक्ति द्वारा की गई व्याख्या प्रतीत होती है । अविवेकी व्यक्ति ही विपरीत परिस्थिति सामने आने पर भ्रमित हो जाता है । विभ्रमित व्यक्ति अपनी परिस्थिति की एक निश्चित व्याख्या नहीं कर पाता है। इस प्रकार की गई व्याख्या का परिणाम क्या हो सकता है, वह भी जान लीजिए । व्याख्या करने का मन्तव्य है, विपरीत परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए किया जाने वाला प्रयास ।
प्रथम व्याख्या के अनुसार आर्त होकर वह ईश्वर को भला- बुरा कह सकता है, यहाँ तक कि वह ईश्वर की उपस्थिति को भी नकार सकता है । वह दुःखी होकर आर्त-भाव से ईश्वर को पुकार सकता है । कई बार तो आहत होकर व्यक्ति अपना संप्रदाय तक बदल लेता है । इतना सब कुछ करके भी क्या उसकी परिस्थिति बदल सकती है ? नहीं, फिर भी उसकी परिस्थिति ज्यों की त्यों बनी रहेगी ।
दूसरी व्याख्या के अनुसार वह व्यक्ति अपने पड़ौसी अथवा प्रतिद्वंद्वी या किसी अन्य से द्वेष करने लगता है । जिसका परिणाम भयावह हो सकता है । वह उससे निपटने के लिए प्रत्येक प्रकार के उपाय काम में लेता है परंतु इतना करने के उपरान्त भी उसकी परिस्थिति नहीं सुधरने वाली ।
तीसरी प्रकार से विपरीत परिस्थिति की व्याख्या करने वाला अज्ञानी है । ऐसा अज्ञ व्यक्ति यह सोचता है कि देश बदलने से परिस्थिति बदल जायेगी अथवा संप्रदाय बदलने से सब कुछ ठीक हो जाएगा । वह विपरीत परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए गाँव छोडकर नगर में, देश छोड़कर विदेश में अपना आवास बना लेता है अथवा संप्रदाय बदलकर हिन्दू से मुस्लिम बन जाएगा, फिर भी उसकी परिस्थिति ज्यों की त्यों बनी रहती है । अंततः वह निर्णय करता है कि समय अभी बहुत ख़राब चल रहा है, अतः समय के बदलने की प्रतीक्षा करनी चाहिए ।
अभी तक हमने विपरीत परिस्थिति आने पर अविवेकी व्यक्ति द्वारा की जाने वाली व्याख्या के बारे में चर्चा की है । इस संबंध में एक प्रश्न भी आपके समक्ष रखा गया था। हो सकता है, पूर्व में दिए गए उत्तर से आपका उत्तर मेल न खाता हो । अगर दोनों उत्तर एक समान नहीं है, तो इसका अर्थ है कि आप एक अविवेकी व्यक्ति नहीं हैं । विवेकी व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थिति से कभी दुःखी नहीं होता बल्कि वह ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने के कारण को जानने का प्रयास करता है । दुःख का कारण जानने के उपरांत वह सुख की कामना करते हुए दुःख का भोग नहीं करेगा । “जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्” अर्थात् विवेकी पुरुष जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुःखरूप दोषों को देखता है ।
स्वामीजी कहते हैं एक ‘दुःख का भोग’ होता है और एक ‘दुःख का प्रभाव’ होता है । दुःख का अनुभव कर दुःखी होना ‘दुःख का भोग’ है । दुःख की मूल तक पहुँचकर उसको मिटाना ‘दुख का प्रभाव’ है । दुःख का भोग करने से विवेक नष्ट हो जाता है । इसीलिए अविवेकी पुरुष प्रतिकूल परिस्थिति में दुःख का अनुभव करता है । विवेकी पुरुष दुःख भोग न कर उस दुःख का कारण जानकर प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग करता है । वास्तव में सुख की इच्छा रखना ही दुःख का कारण है । इस प्रकार सुख की इच्छा मिटने से संपूर्ण दुःखों का स्वतः ही नाश हो जाता है ।
“हरिः शरणम् आश्रम” के आचार्य श्री गोविंद राम जी शर्मा समत्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि समता में स्थित पुरुष दोनों ही प्रकार की परिस्थितियों से विचलित नहीं होता है । समता में स्थित रहना ही विवेकी पुरुष की विशेषता है । समता व्यक्ति को कर्म करने का सही मार्ग दिखलाती है, जिससे व्यक्ति जीवन में कभी दुःखी नहीं हो सकता । “योग: कर्मसु कौशलम्” अर्थात् कर्मों में योग ही कुशलता है । विवेकी व्यक्ति स्वार्थ का त्याग कर परमार्थ कर्म में प्रवृत हो जाता है । इस परिवर्तन के कारण वह समत्व की स्थिति को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है । “समत्वं योग उच्यते” अर्थात् समत्व को ही योग कहा जाता है । जीवन में समता का पदार्पण विवेक जाग्रत होने की पुष्टि करता है ।
सभी व्यक्ति सुखमय जीवन की कामना करते हैं, दुःख किसी को भी अच्छा नहीं लगता । सभी को जीवन में अनुकूल परिस्थिति चाहिए, प्रतिकूलता में कोई जीना नहीं चाहता । प्रश्न उठता है कि साधारण व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थिति से बचने के लिए क्या करता है ? ऐसे व्यक्ति यह मानते हैं कि स्वयं का प्रयास करके सुखमय परिस्थिति लाई जा सकती है । सुखमय परिस्थिति के लिये उसने घर, परिवार, मित्र आदि बनाए । खूब धन अर्जित किया, भरपूर सावधि जमा की और जीवन बीमा कराया । ऐसी सोच रखना उसके अविवेकी होने का ही प्रमाण है क्योंकि इतना सब करने के बाद भी वह भयावह स्थिति और असुरक्षित भविष्य से बच नहीं सकता ।
अविवेकी जीव परिस्थिति को पूर्वनियत मान लेते हैं और उसको बदलने में अपना सारा जीवन लगा देते हैं। बुढापे तक वे इस परिस्थितिवाद से जूझते रहते हैं। उनकी इसे दुराशा ही कहा जा सकता है कि परिस्थिति को सुधार कर सुख प्राप्त किया जा सकता है। यहाँ तक कि वे गलत कर्म करके भी उसे सजाना-सँवारना चाहते हैं। उन्हें ज्ञात नहीं है कि परिस्थिति उनके द्वारा कृत कर्म का ही परिणाम है। इस प्रकार परिस्थिति को केंद्र में रख कर जीवन जीने का सिद्धान्त “परिस्थिति वाद” कहलाता है ।
हम सब जानते हैं कि बनती-बिगड़ती परिस्थितियां हमारे किसी न किसी कर्म का ही परिणाम होती हैं । अविवेकी पुरुष द्वारा किए जाने वाले कर्म में और विवेकवान के द्वारा किए जाने वाले कर्म में स्थूल रूप से भले ही कोई अंतर दृष्टिगत नहीं हो परंतु परिणाम के स्तर पर बहुत भारी अंतर होता है । अविवेकी के द्वारा किया गया कर्म स्वार्थ पर आधारित होता है, इसलिए उसके समक्ष विपरीत परिस्थितियां आने की संभावना अधिक रहती है । दूसरी बात, विवेकी मनुष्य परिस्थितियों का सामना सहज रहकर कर सकता है जबकि अविवेकी मनुष्य असहज होकर परिस्थिति से विचलित होकर भ्रमित हो जाता है । अतः व्यक्ति में कर्म करने की क्षमता के साथ विवेक का होना अधिक महत्वपूर्ण है ।
परिस्थिति हमारे मन की दशा के अनुसार ही प्रतिकूल अथवा अनुकूल मान ली जाती है । वास्तव में देखा जाए तो परिस्थिति प्रकृति में घटित होती है । प्रकृति का संचालन निश्चित नियमों के अन्तर्गत होता है । शरीर भी प्रकृति का अंश है । इसी कारण से शरीर में स्थित मन ही व्यक्ति के समक्ष आई परिस्थिति की व्याख्या करते हुए उसे अनुकूल अथवा प्रतिकूल बताता है । हम स्वयं शरीर से भिन्न है हैं अर्थात् हम शरीर नहीं हैं । शरीर को स्वयं होना मान लेना ही प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य को विचलित करता है अन्यथा कोई परिस्थिति ऐसी नहीं है जो स्वयं अर्थात् स्वरूप तक पहुंचती हो ।
अविवेकी मनुष्य स्वयं को शरीर की सीमा से परे अनुभव ही नहीं करता । इसी कारण से प्रकृति में होने वाले प्रत्येक परिवर्तन को वह स्वयं में होना अनुभव करता है । अनुकूल परिस्थिति में वह स्वयं को सुखी अनुभव करता है और प्रतिकूल परिस्थिति में दुःखी । जबकि वह स्वयं सुख-दुःख से परे है, इस सत्य से वह अनभिज्ञ रहता है । स्वयं को सुख दुःख से परे समझ पाना अविवेकी पुरुष के लिए दूर की कौड़ी है ।
विवेकी मनुष्य को सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता, ऐसी बात नहीं है । जिस शरीर में वह स्थित है, उसके सामने अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों का आना अवश्यंभावी है । विवेकवान अनुकूल परिस्थिति में सुखी अनुभव न कर दूसरों को सुख पहुंचाने में रत हो जाता है । इसी प्रकार वह प्रतिकूल परिस्थिति आने पर दुःखी न होकर, सुख की कामना का त्याग कर देता है । इस प्रकार एक विवेकी पुरुष प्रत्येक परिस्थिति में साम्यावस्था में रहता है और विचलित नहीं होता ।
इतने विवेचन से जो महत्वपूर्ण बात निकल कर आई है, वह है कि विवेक के सदुपयोग से व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति से भलीभाँति निपट सकता है । उसके जीवन में आने वाली अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति में वह सुखी- दुःखी नहीं होता बल्कि उनका सदुपयोग कर सदैव शान्त अवस्था में बना रहता है ।
विवेक के जाग्रत होते ही मनुष्य परिस्थितिवाद के कारण स्वरूप कर्म को सही दिशा देने के लिए कर्मवाद (कर्मयोग) की ओर झुकता है। कर्मवाद में प्रवेश करते ही भीतर का विकास होना शुरू हो जाता है। तब मनुष्य परमार्थवादी हो जाता है। उसे यह बोध होने लगता है कि प्रत्येक परिस्थिति की रचना उसने स्वयं ही की है और इस परिस्थिति को सत्कर्म से बदला जा सकता है। देखा जाए तो कर्मयोग भी यही है, जिसमें कर्म स्वयं के लिए न किए जाकर परमार्थ भाव से किए जाते हैं ।
अपनी कामना की पूर्ति के लिए किए जाने वाला कर्म ही व्यक्ति के जीवन में परिस्थितियों को बनाता बिगाड़ता है । ऐसे सभी कर्म सकाम कर्म कहलाते हैं । सकाम कर्म का फल किसी भी जीवन में और कभी भी मिल सकता है । सबके हित में किए जाने वाले कर्म निष्काम कर्म कहलाते हैं, जिनका फल मनुष्य को नहीं मिलता क्योंकि ऐसे सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं ।
कर्मवाद (कर्मयोग) में विश्वास रखने से जीवन सही रूप से संचालित होता है । अनुचित कर्म का परिणाम अनुचित ही होगा, ऐसी धारणा रखने से मनुष्य पापकर्म (कुकर्म) से बच सकता है । विवेकी मनुष्य परमार्थ में विश्वास रखता है जबकि अविवेकी मनुष्य स्वार्थ पूर्ति के लिए कर्म करते हुए परिस्थितियों को सम्भालने के लिए जीवन भर जुझता रहता है ।
परमार्थवादी भगवान श्रीराम ने वनवास की व्याख्या करते हुए कहा है कि वनवास मेरे लिए वरदान है। इससे एक तो पिता का वचन पूरा हो रहा है, दूसरा, माता का हित हो रहा है, तीसरा, राजनीति में दक्ष भाई भरत को राज्य मिल रहा है और चौथा, मुझे सन्तों के दर्शनों का सुअवसर मिल रहा है। ये सब मेरे पुण्य कर्म का प्रभाव है। परिस्थिति को श्रीराम की दिव्य दृष्टि से देखने पर ही जीवन का सुधार हो सकता है। दर्शन की यह उत्तम विधि है। ऐसा दर्शन हृदय को सींचता है, जीवन को मूल्यों से जोडता है।
परमार्थ के लिए कर्म विभिन्न प्रकार से किए जा सकते हैं । ऐसे किए जाने वाले कर्मों की कोई एक निश्चित सीमा नहीं है । हाँ, परमार्थ के लिए कर्म करना अपने स्वार्थ की सीमा से परे अवश्य हैं । हम प्रायः निष्काम कर्म को ही इसके अन्तर्गत ले लेते हैं । वास्तव में जो भी कर्म एक दिन अकर्म में बदल जाने वाले हैं, वे सभी परमार्थ के लिए किए जाने वाले कर्म होते हैं ।
सकामभाव से किए जाने वाले प्रत्येक कर्म का एक निश्चित परिणाम होता है । मन से कामना को बाहर निकालकर किए जाने वाले सभी कर्म निष्काम कर्म हैं । निष्काम कर्म स्वयं के लिए न किए जाकर संसार की सेवा के लिए किए जाते हैं । हम प्रायः अपने सुख के लिए ही कर्म करते रहते है, जिसके कारण जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है । निष्काम भाव से किए जाने वाले कर्म आपको सदैव शांत बनाए रखते हैं क्योंकि उन कर्मों से आपका स्वार्थ जुड़ा हुआ नहीं होता ।
स्वयं के सुख के लिए कर्म न कर दूसरों को सुख पहुँचाने का प्रयास भी आपके कर्मों की प्रकृति परिवर्तित कर देता है । आप दूसरे को सुख पहुंचाकर भी स्वयं को सुखी अनुभव कर सकते हैं । किसी दूसरे के दुःख का निवारण करके भी आप सुखी हो सकते हैं । इस प्रकार किए जाने वाले कर्मों से आपका स्वार्थ जुड़ा हुआ नहीं होता है जिसके कारण ये कर्म भी परमार्थ के लिए किए जाने वाले कर्मों के अन्तर्गत आ जाते हैं ।
निष्काम कर्म और दूसरों के सुख के लिए किए जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त एक और प्रकार के कर्म परमार्थ के लिए किए जाने वाले कर्मों के अन्तर्गत आते है । इसमें सभी कर्म परमात्मा के लिए किए जाते हैं अर्थात् सभी कर्मों का अर्पण परमात्मा को कर दिया जाता है । इसमें स्वयं को कर्मों से पूर्णतया अलग कर लिया जाता है । सभी कर्म परमात्मा की इच्छानुसार होने का अर्थ है कि कर्म मेरे द्वारा नहीं किए जा रहे हैं बल्कि स्वतः ही हो रहे हैं । इस प्रकार के कर्मों के प्रति मनुष्य में किसी प्रकार का कर्तृत्व-अभिमान पैदा नहीं होता ।
इतने विवेचन से जो महत्वपूर्ण सार निकल कर सामने आता है, वह जीवन जीने के सिद्धांत पर प्रकाश डालता है । मनुष्य के द्वारा जीवन को जीने के दो सिद्धान्त हैं-
(1) परिस्थितिवाद
(2) परमार्थवाद।
परिस्थिति नदी के जल की तरह सदैव प्रवाही है । आप नदी में स्नान करते हुए एक ही जल में दो बार डुबकी नहीं लगा सकते । पहली डुबकी वाला जल दूसरी डुबकी लगाने से पूर्व ही अपने स्थान से बहुत आगे बढ़ चुका होता है । इसी प्रकार जीवन में कोई भी परिस्थिति सदैव एक समान बनी नहीं रह सकती । जीवन में सुख है तो वह सुखमय परिस्थिति भी एक दिन दुःख में अवश्य ही परिवर्तित हो जाएगी ।
परिस्थिति नित्य प्रवाही है, अतः नदी की तरह उसका भी एक उद्गम स्रोत होना चाहिए । जैसे गंगा का उद्गम स्रोत गोमुख है । इसे सरल तरीक़े से इस प्रकार समझा जा सकता है -
अज्ञान से देहाभिमान, देहाभिमान से कर्ताभाव, कर्ताभाव से कर्मसंस्कार, कर्मसंस्कार से परिस्थिति, परिस्थिति से सुख-दुःख और सुख-दुःख से भोक्ताभाव का जन्म होता है।
इस प्रकार कर्तृत्व और भोक्तृत्व के मध्य जीव की सृष्टि का प्रसार है। कर्तृत्व से भोक्तृत्व और भोक्तृत्व से कर्तृत्व का चक्र ही जन्म-मरण का चक्र है। इस वर्तुल में जीव निरंतर नाचता रहता है। पुनर्जन्म अर्थात् बार बार देह परिवर्तन, इन्हीं करने और भोगने का परिणाम है । इस प्रकार स्पष्ट है कि मनुष्य के आवागमन के लिए उसकी परिस्थितियाँ और उन परिस्थितियों से निबटने की क्षमता परोक्ष रूप से उत्तरदायी है ।
इस प्रकार परिस्थितिजन्य समस्याओं को सुलझाने में पहले अज्ञानी अविवेकी जीव न्यस्त होता है, फिर व्यस्त हो जाता है, तदनंतर अस्त-व्यस्त हो जाता है और फिर पूरी तरह से त्रस्त होकर अन्त में ध्वस्त हो जाता है।
महाभारत महाकाव्य में पुण्य और पाप कर्मों की सोच को लेकर मनुष्य की वृत्ति का सटीक चित्रण किया गया है । एक उदाहरण देखिए -
‘‘पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवः ।
न पापफलमिच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।।”
मनुष्य की नियति देखिये कि वह पुण्य नहीं करना चाहता फिर भी पुण्य का फल पाना चाहता है । इसी तरह वह पाप का फल नहीं चाहता, किन्तु निरंतर यत्नपूर्वक पाप कर्म करता रहता है ।
इस विनाश से बचने के लिये बुद्धि में विवेक जगाना होगा। विवेक के जगते ही राग-द्वेष की मलिनता से चित्त निर्मल होने लगता है। स्वार्थी जीव परमार्थी बनने लगता है। तब उसके विषय का चयन ही बदल जाता है। अब वह ‘भोग-रस’ (विषय-भोग) के स्थान पर ‘आनन्द-रस’ को महत्व देता है। जब ‘राम-रस’ का स्वाद मिल जाता है तो ‘षटरस’ फीका लगने लगता है।
जब भीतर आनन्द का स्रोत फूट रहा हो तो बाहर के भोग की क्या जरूरत ? जब धर्म आश्रय बनता है तब विहित-निषिद्ध सभी विषयों के त्याग के उपरान्त ‘आत्मरति’ का लाभ मिलता है। सारी परिस्थितियाँ, सारा प्रपंच स्वप्नवत लगने लगता है। जब कल्पित सृष्टि ढह जाती है तो उससे तरने का प्रश्न ही मिट जाता है।
मीरा भी कहती है-
‘‘भवसागर तो सूख गयो है फिकर नहीं मोहि तरनन की।’’
मोहि लागि लगन गुरु चरणन की ।
चरण बिना मोहे कछु न भावे, जग माया सब सपनन की ।
भवसागर सब सूख गयो है, फ़िकर नहीं मोहि तरनन की ।।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, आस लगी गुरु शरणन की ।।
मोहि लागि लगन गुरु चरणन की ।।
मीरा ने अपने मन से संसार को मिटा डाला, अब उन्हें संसार सागर से तरने की कोई चिंता नहीं है । मीरा के लिए सारा संसार माया है, स्वप्नवत् है । परमात्मा की शरण होते ही उनके लिए संसार मिट गया । संसार को जब मिटा ही डाला है तो फिर क्या तो डूबना और क्या तरना ?
“फ़िकर नहीं मोहि तरनन की”, मीरा ने अपना संसार मिटा डाला, संसार होता तो भवसागर से पार उतरने की चिंता होती । जब संसार ही मिट गया तो उसमें डूबने का ख़तरा भी नहीं रहा । संसार सागर के सूख जाने का अर्थ है, संसार में किसी भी प्रकार की आसक्ति का न रहना । आसक्ति समाप्त, संसार समाप्त।
“तात मात भ्रात बन्धु आपनो न कोई ।
छाड़ि दई कुल की कानि कहा करिहै कोई ।।“
मीराबाई कहती है कि इस माया रूपी संसार में ना तो कोई मेरे पिता है और ना ही कोई मेरी माता है । ना ही कोई रिश्तेदार है और ना ही कोई भाई-बहिन है । मैंने अपने कुल-परिवार की मर्यादा की चिंता करनी छोड़ दी है, मेरे बारे में कोई कुछ कहेगा भी तो मेरा क्या कर लेगा ? मैंने तो अपने आपको गिरधर को सौंप दिया है । उसके अतिरिक्त मेरा यहाँ कोई नहीं है ।
संसार सागर को सुखाना है तो मीराबाई की तरह होना होगा । संसार में आसक्ति तभी होती है, जब इसे हम अपना मान लेते हैं । संसार के व्यक्तियों और पदार्थों के साथ ऐसा व्यवहार रखने से मन में कामनाएँ जन्म लेती है और उनसे सुख पाने की आशा बलवती होती है । सुख पाने और दुःख मिटने की आशा ही हमारे समक्ष विभिन्न परिस्थितियों का निर्माण करती है । दत्तात्रेय महाराज के 24 गुरुओं में एक गुरु, पिंगला वैश्या भी थी । पिंगला से दत्तात्रेयजी ने यही शिक्षा ग्रहण की कि संसार में किसी से आशा रखना ही दुःख का कारण है ।
भागवत कहती है ,”आशा हि परमं दुःखं नैराश्य परमं सुखम्” अर्थात् आशा ही सबसे बड़ा दुःख है और निराशा ही सबसे बड़ा सुख है । पिंगला ने जब पुरुष की आशा छोड़ दी तभी वह सुख से सो सकी । आशा राग पैदा करती है और निराशा वैराग्य । संसार के व्यक्तियों से आशा रखने के कारण जो परिस्थिति पैदा होती है, वह प्रायः प्रतिकूल ही होती है, जो उसके दुःख का कारण बनती है । इसलिए संसार में राग-द्वेष से दूर रहना ही संसार सागर को मिटा डालना है । फिर चाहे उसके सामने किसी भी प्रकार की परिस्थिति आ जाए, मनुष्य सुखी-दुःखी नहीं होता ।
जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों का आना, मनुष्य के मन की दशा की अभिव्यक्ति मात्र है । यह उसके ‘कर्मों का प्रभाव’ ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । कर्म तो जीवन में प्रत्येक जीव करता है क्योंकि वह प्रकृति के गुणों के कारण कर्म करने को बाध्य है । वह चाहकर भी कर्मों से दूर नहीं जा सकता । प्रत्येक कर्म का अपना एक निश्चित परिणाम होता है । उस परिणाम को कर्म-फल कहा जाता है । कर्म-फल की आसक्ति ही मनुष्य के समक्ष विभिन्न परिस्थितियों का निर्माण करती है, जिनसे वह सुखी दुःखी होता रहता है ।
स्वामीजी कहते हैं कि परिस्थितियां न तो भोगने के लिए होती है और न ही उनके भय से भागने के लिए होती है । हमारे दुःख का कारण यही है कि हम अनुकूल परिस्थिति को तो भोगने लगते हैं और प्रतिकूल परिस्थिति से भागने लगते हैं । इन परिस्थितियों का आगमन परमात्मा की कृपा से मनुष्य के कल्याण हेतु होता है । उसे इन परिस्थितियों का सदुपयोग करना चाहिए ।
प्रश्न उठता है कि मनुष्य अपने समक्ष आई विभिन्न परिस्थितियों का सदुपयोग किस प्रकार कर सकता है ? अनुकूल परिस्थिति को भोगना नहीं है अर्थात् उसमें सुख का अनुभव नहीं करना है बल्कि उसका सदुपयोग करते हुए सबको सुख पहुँचाना है । इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थिति में दुःखी नहीं होना है बल्कि सुख पाने की इच्छा का त्याग करना है । भोग को त्याग में बदलना ही परिस्थिति का सदुपयोग करना है ।
गीता में भगवान कहते हैं -
मात्रास्पर्शास्तु कौंतेय शीतोष्णसुखदुःखदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।।2/14।।
हे कुन्तीनंदन ! इंद्रियों के विषय अनुकूलता और प्रतिकूलता के द्वारा सुख-दुःख देने वाले है तथा आने-जाने वाले और अनित्य है । हे अर्जुन ! तू इनको सहन कर ।
परिस्थितियों से उत्पन्न सुख-दुःख को सहन करना ही तप है । तप में सुख-दुःख नहीं है, बल्कि समत्व की शक्ति है । प्रत्येक परिस्थिति में समता रखना ही मनुष्य को निष्काम कर्म के लिए प्रेरित करता है । यही कर्मवाद है ।
विवेक के जाग्रत हो उठने की पहचान यही है कि मिथ्या प्रपंच के भ्रामक सुख से सम्बंध टूट जाय । कहने का अर्थ है कि हमें जो सुख प्रतीत हो रहा है, वह छद्म सुख है । हमारे मन की दशा ही हमें सुख-दुःख का अनुभव कराती है । देखा जाय तो वास्तव में सुख-दुःख कहीं है ही नहीं । सुख-दुःख अनुभव में आने का कारण हमारा शारीरिक मोह है । विवेक से मोह (भ्रम) मिट जाता है और प्रभु के प्रति अनुरक्ति दृढ़ हो जाती है। ऐसा होना केवल विवेक-विचार से ही संभव है । अविद्या में सबसे बड़ी कमी एक ही है कि वह विचार को सहन नहीं कर पाती-‘‘अविद्या विचार न सहते।’’
हम जानते हैं कि प्रत्येक मशीन चलाने के लिए एक निश्चित नियमावली (manual) की आवश्यकता होती है। परमात्मा ने जीवन की मशीन के रूप में हमें यह शरीर दिया है और इस शरीर के सम्यक संचालन हेतु साथ में शास्त्रों के रूप में नियमावली भी दी है।अतः शास्त्र सम्मत कर्म करना ही शरीर के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक है ।
शास्त्र निषिद्ध कर्म करने वाले परिस्थितिवाद में फंसकर सुख-दुःख झेलते रहते हैं । शास्त्र विहित कर्म करना परमार्थवाद है । जिसने परमार्थवाद को अपने जीवन का सिद्धांत बना लिया, वे सदैव मौज में रहते हैं, अशांति उनको छू तक नहीं सकती । शान्त जीवन की अवधारणा इसी सिद्धांत पर आधारित है । कर्म तो संसार के समस्त जीव करते ही है क्योंकि कर्म करने को सभी विवश हैं । जब कर्मवाद के अनुसार जीवन जीना ही है तो फिर क्यों न ऐसे कर्म करें जो हमें विभिन्न परिस्थितियों में उलझाए नहीं बल्कि जीवन को शांतिपूर्ण जीने में सहायक बने ।
परिस्थितिवाद अथवा परमार्थवाद , दोनों में से किसी एक को चुनना मनुष्य के हाथ में है । शान्त जीवन जीना है अथवा भ्रमित होकर जीवन को अशांत बनाना है, सावधानी और खुले मस्तिष्क से उसे ही निर्णय करना होगा ।
सार-संक्षेप
कर्म से मनुष्य पलायन नहीं कर सकता अर्थात् मनुष्य कर्म करने को विवश है । वह जैसा कर्म करेगा, उसका परिणाम उसे वैसा ही भोगना पड़ेगा । स्वामीजी कहते हैं - “कर्म करने में सावधान रहें और होने में (परिणाम में) निश्चिंत रहें” । जैसा कर्म होगा तदनुरूप ही उसका फल प्राप्त होगा । कर्मफल ही आपके सामने विभिन्न परिस्थितियों का निर्माण करता है । परिस्थितियों से वही व्यक्ति विचलित होता है जिसने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर कर्म किए हैं । प्रतिकूल परिस्थिति स्वार्थपूर्ति के लिए कर्म करने वाले के समक्ष ही आती है । अतः सदैव परमार्थ हेतु कर्म करें जिससे किसी भी प्रकार की प्रतिकूल परिस्थिति से बचा जा सके ।
इस विवेचन से कर्मवाद स्पष्ट हुआ है । कर्मवाद से दो सिद्धांत निकल कर सामने आए हैं - परिस्थितिवाद और परमार्थवाद । परिस्थितिवाद सिद्धांत का आधार सकाम कर्म है और परमार्थवाद सिद्धांत का आधार निष्काम कर्म अर्थात् संसार की सेवा के लिए कर्म करना है । हमें अपने विवेक से शांतिपूर्ण जीवन की कामना के लिए परमार्थवाद का सिद्धांत जीवन में अपनाना चाहिए ।
मनुष्य शरीर के रूप में यह जीवन बार-बार मिलना सम्भव नहीं है । अतः शास्त्र विरुद्ध कर्मों का निषेध करते हुए शास्त्र सम्मत कर्म करें । शास्त्र विहित कर्म ही संसार से मुक्ति की सम्भावना को प्रबल करेगा और परमात्मा के द्वार खोलेगा ।
लेख के अंत में मात्र इतना ही कहूँगा कि यह मनुष्य शरीर मोक्ष का द्वार भी है और नरक का द्वार भी । शास्त्रसम्मत जीवन जीने से मोक्ष का द्वार खुलता है और जीवन में शान्ति आ जाती है । ऐसे में भला, आप और मैं शान्त जीवन को प्राथमिकता क्यों नहीं देंगे ? गोस्वामीजी की मानस में भगवान श्रीराम, सीता को रावण से बचाने के प्रयास में घायल हुए जटायु को कहते हैं -
परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ।।(मानस-5/31/5)
इसी के साथ कर्मवाद पर यह संक्षिप्त विवेचन समाप्त होता है । आप सभी का साथ बने रहने के लिए आभार ।
।। हरिःशरणम्।।
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल