यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्
मनुष्य के जीवन में दुःख का महत्वपूर्ण कारण उसका मोह है। मोह किसे कहते हैं ? मोह का अर्थ है - किसी व्यक्ति, पदार्थ अथवा क्रिया के साथ अपने सुख के लिए इतना अधिक जुड़ जाना कि एक दिन उससे होने वाला वियोग असहनीय हो जाए। मोह पशु भी करते हैं परंतु एक निश्चित समय और सीमा तक। लेकिन मनुष्य के मोह की तो कोई सीमा ही नहीं है ।
मोह मनुष्य के अज्ञान को प्रदर्शित करता है। मनुष्य जानता है कि प्रत्येक क्रिया और पदार्थ का अंत निश्चित है, फिर भी वह उसको सदैव सुख के लिए अपने साथ बनाए रखना चाहता है। वह यह भी जानता है कि प्रिय से मिलन और बिछोह शाश्वत सत्य है फिर भी वह उसे अपना और अपने लिए मानता है। उसका यह जानना वास्तविक रूप से जानना नहीं है। सही और पूर्ण रूप से जानने का नाम ज्ञान है और अपूर्ण रूप से जानना ही अज्ञान है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहने का ही नाम अज्ञान है।
"तमसो मा ज्योतिर्गमय" का अर्थ है कि परमात्मा हमें अज्ञान की ओर नहीं बल्कि ज्ञान की ओर ले जाए। सत्य है कि परमात्मा की कृपा के बिना ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता। ज्ञान के बिना मोह नष्ट नहीं हो सकता। गीता के अनुसार जब अर्जुन को श्रीकृष्ण ने ज्ञान से सरोबार कर दिया तब कहीं जाकर उसका मोह नष्ट हुआ था।
"नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत" अर्थात हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है। अर्जुन पर जब भगवान श्रीकृष्ण की कृपा हुई तभी वास्तविक रूप से उसका जानना संभव हुआ अन्यथा तो गीता के प्रथम अध्याय में वह अपने सीमित ज्ञान से पारिवारिक मोह के जाल में फंसा प्रतीत हो रहा था। हम सतही ज्ञान को ही ज्ञान समझ लेते है, जोकि अनुचित है। जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता तब तक मोहपाश कटना संभव नहीं है । एक बार ज्ञान हो जाने से मनुष्य पुनः मोह में नहीं फंसता। गीता में भगवान कहते हैं -"यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्" अर्थात जिसको जान लेने के उपरांत मनुष्य को पुनः मोह नहीं होता ।
किस को जान लेने के बाद व्यक्ति पुनः मोह को प्राप्त नहीं होता? चलिए! इसी बात को जानने का प्रयास करते हैं ।
हमने “फले सक्तो निबध्यते” लेख माला में ‘कर्मबन्धन’ विषय पर विवेचन किया था । वास्तव में कर्मफल की इच्छा ही सांसारिक बंधन का मूल कारण है । इसीलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मफल की इच्छा के त्याग को शांति प्राप्त करने के लिए सर्वोत्तम साधन बताया है । कर्म और फलेच्छा एक दूसरे से संबंधित है । एक भी कर्म ऐसा नहीं है, जो फल नहीं देता हो और न ही कोई ऐसा फल है, जिसकी इच्छा करने से एक भी कर्म न होता हो । मनुष्य की फलेच्छा (कामना) ही उसे कर्म करने की ओर ले जाती है । इस प्रकार कहा जा सकता है की कर्म और कर्मफल की इच्छा ही परमात्मा से “योग” में बाधक है ।
मनुष्य का मोह (अज्ञान) ही उसे संसार के भोगों में उलझाए रखता है । इस संसार में शरीर भी है और विषय भी । मनुष्य संसार में है और विषय उसके शरीर से बाहर है । इस प्रकार विषय संसार में होने के कारण मनुष्य की सीधी पहुँच में है । विषय ही हमें अपनी ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से स्वयं का ज्ञान कराते हैं । उस विषय ज्ञान से मनुष्य के मन में उन विषय भोगों को भोगने की इच्छा होती है, जिन्हें व्यक्ति अपनी कर्मेन्द्रियों से कर्म कर सुगमता से प्राप्त कर सकता है । ये विषय भोग मनुष्य को छद्म सुख देते हैं और अन्ततः उसके दुःख का कारण भी बनते हैं ।
मनुष्य को विषयभोग से अल्प सुख के बाद जो दुःख मिलता है उसके तीन कारण हैं - पहला - विषयभोग जिस प्रकार का चाहा गया था, वैसा उसे मिला नहीं अर्थात् भोग मिला परंतु वह पसन्द नहीं आया । दूसरा दुःख का कारण - जो भोग मिला वह अपर्याप्त था । तीसरा दुःख का कारण - जिस भोग से मनुष्य को सुख मिला वह सुख स्थाई रूप से टिकता नहीं है । इन तीनों ही कारणों से मनुष्य को दुःख मिलता है । इस दुःखको सुख में बदलने के लिए उसी भोग को पुनः प्राप्त करने की इच्छा पैदा होती है, जिसे लोभ कहा जाता है । इस प्रकार एक के बाद एक कई कामनाएं जन्म लेती रहती है, जिनका कभी अंत आता नहीं है । यह तो हुई कामना पूरी होने की बात । कई बार भोग की कामना कर्म करने के बाद भी पूरी नहीं होती, ऐसी कामना मनुष्य के भीतर क्रोध पैदा करती है और उसका यह क्रोध फिर से कई कामनाओं को जन्म देता है ।
इस प्रकार विभिन्न विषय भोग को प्राप्त करने की कामनाएं मनुष्य को परजीवी लता (अमरबेल) की भाँति अपने तन्तुओं से बुरी तरह से जकड़ लेती है । यह जकड़न मनुष्य का ही शोषण करती है । इस बंधन से मुक्त होना लगभग असंभव हो जाता है, कारण कि जब तक इस बंधन का ज्ञान मनुष्य को होता है तब तक उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है और जीवन का संध्याकाल आ जाता है । समय और सामर्थ्य की यह कमी उसी मनुष्य को विचलित करती है, जिसने अपने जीवन कभी यह जानने का प्रयास तक नहीं किया कि इस संसार की वास्तविकता क्या है ? संसार की वास्तविकता को पूर्ण रूप से जान लेना ही हमारे जीवन के मूल आधार की ओर हमारी दृष्टि ले जाता है । संसार की वास्तविकता से परिचय करना हो तो गुरु के माध्यम से शास्त्रों तक पहुँच बनानी होगी । योग्य गुरु ही शास्त्र मर्मज्ञ होने के साथ साथ अनुभवी भी होता है । चलिए ! गुरु को साथ ले, शास्त्रों की ओर उन्मुख होते हैं ।
“एकाकी न रमते” (बृहदारण्यक उपनिषद - 1/4/3) अर्थात भगवान का अकेले में मन नहीं लगा । मन नहीं लगने के दो कारण है - पहला, एक ही प्रकार का कार्य करते रहने से मन का उचट जाना और दूसरा, जब करने को कोई कार्य ही न हो तो ऐसे में किसी का मन नहीं लगता । परमात्मा के साथ मन न लगने का दूसरा कारण है । जब एकाकी होने से किसी का मन नहीं लगता, तब वह अपने जैसे ही किसी दूसरे की खोज करता है, जिसके साथ बैठकर वह अपना मन बहला सके । मन बहलाने के लिए क्रीड़ा करना आवश्यक है । प्रत्येक प्रकार की क्रीड़ा में कम से कम दो की आवश्यकता होती है । दो पक्ष हुए बिना खेल में भी रस नहीं मिलता । परमात्मा तो एक ही हैं, ऐसे में प्रश्न था कि परमात्मा क्रीड़ा करने के लिए स्वयं जैसा दूसरा कहाँ से लाए ?
इसके लिए भगवान ने स्वयं में ही सृष्टि का सृजन किया और अंततः अपने स्वरूप जैसा ही एक जीव (मनुष्य) बनाया । इस प्रकार परमात्मा एक से दो हो गए और फिर मन बहलाने के लिए दोनों खेलने लगे । विडंबना देखिए ! परमात्मा से खेलने के स्थान पर मनुष्य ने अपना अलग ही संसार बना लिया और उसी में आसक्त होकर खेलना शुरू कर दिया । कहां तो परमात्मा खेल खेलने को उत्सुक थे और कहाँ अब परमात्मा केवल दृष्टा बनकर रह गए हैं । हाँ, जिन्होंने अपने बनाए संसार का त्याग कर दिया है, ऐसे भक्तों के साथ वे अवश्य खेलते हैं ।
यह सृष्टि, परमात्मा के खेल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । स्मरण रहे, परमात्मा और जीव (मनुष्य) इस खेल में एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं है । वे खेल जीव के भाव के अनुसार ही खेलते हैं और प्रत्येक बार जीव को ही जिताने की सोच के साथ खेलते हैं । “हारेंहूँ खेल जितावहिं मोही”, अवध में भरतजी के साथ खेलते हैं, भरतजी हारने वाले होते हैं परंतु भगवान ऐसा उल्टा दांव चलते हैं कि खेल के अंत में भरतजी जीत जाते हैं । भरतजी नहीं जीते बल्कि भगवान ने उन्हें जिता दिया । यही तो प्रभु का खेल है । जिस भाव से व्यक्ति खेलना चाहता है, प्रभु उसके साथ उसी प्रकार खेलने लगते हैं । “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।” जो जिस भाव से मेरी शरण होता है, मैं उसी भाव से उसे आश्रय देता हूँ । आप सकाम भाव से किसी फल की इच्छा रखेंगे, भगवान आपको वही उपलब्ध करा देंगे । यही तो परमात्मा का खेल है ।
परमात्मा के इस खेल को जो समझ जाता है, फिर वह संसार के भोगविलास में नहीं उलझता । फिर हम अपनी इच्छा अनुसार नहीं खेलते बल्कि उनकी इच्छा के अनुरूप खेलने लग जाते हैं । परन्तु जब हम अपना संसार बनाकर उसमें खेलते हुए स्वयं के खेल को अपना जीवन बना लेते हैं, तब जीवन में समस्याओं का पदार्पण होने लगता है । हम अपने संसार में आसक्त होकर उस खेल में सदैव जीतते रहने के प्रयास में विभिन्न प्रकार के कर्म करते रहते हैं, वे ही कर्म हमें बाँधते है । भगवान स्वयं हमारे इस खेल में न तो कुछ करते हैं और न ही कर्मों से लिप्त होते हैं ।
“ न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न एस बध्यते” ।। गीता - 4/14 ।।
कर्मफल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते । इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बन्धता ।
जो कर्म का कर्ता बनता है, वही बंधता है । सोचने वाली बात है कि जब प्रत्येक क्रिया प्रकृति के गुणों के अनुसार होती है, तो फिर हम उस क्रिया को कर्म क्यों बना देते हैं ? क्या हमारी उस क्रिया को करने में कोई भूमिका रहती है, जो हम कर्ता बन जाते हैं ? भगवान भी तो क्रीड़ा करते हैं, फिर भी कभी नहीं कहते कि मैं कर्ता हूँ ।
"कर्म में लिप्त होना और कर्तृत्वभिमान रखना", ये दोनों ही हमारे अज्ञान के द्योतक हैं । जब तक हम परमात्मा के सृष्टि-सृजन के उद्देश्य को नहीं समझ लेंगे, तब तक इसी प्रकार मोह में पड़े रहेंगे । प्रश्न है कि मोह किस बात से ? खेल को खेल न समझ, उसे अपना प्रयास समझ लेना ही मोह है । क्रिया सृष्टि में होती है और उस क्रिया को हम अपने द्वारा किया गया कर्म मानने लगते हैं । इस प्रकार का कर्तृत्वभिमान रखना ही हमारा मोह है । पत्नी, पुत्र आदि सभी परमात्मा के इस खेल के खिलाड़ी हैं और हम उन्हें अपना और अपने लिए मान बैठे हैं, यह हमारा मोह है ।
मनुष्य के अज्ञान का नाम ही मोह है । इस मोह को दूर करने के लिए ज्ञान होना आवश्यक है । गीता में भगवान कहते हैं कि जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह फिर कर्मों से नहीं बंधता । तत्वज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें परमात्मा के इस खेल को समझना होगा । खेल से हटना नहीं है बल्कि खेल खेलते हुए ही खेल को समझना है । कहने का तत्पर्य है कि कर्म का त्याग नहीं करना है बल्कि कर्म करते हुए उनमें लिप्त नहीं होना है । जो मनुष्य कर्म करते हुए उनमें लिप्त नहीं होता और न ही उस कर्म में कर्ताभाव रखता है, वही कर्म रहस्य को जानने वाला है ।
स्वामीजी ने साधक संजीवनी में कर्मों के करने अथवा न करने को लेकर बहुत ही सुंदर विवेचन किया है । उन्होंने सबसे पहले एक गाड़ी का एक उदाहरण देते हुए कर्म-रहस्य को सरलता से समझाने का प्रयास किया है । वे कहते हैं कि किसी भी गाड़ी के साथ निम्न प्रकार की चार परिस्थितियों हो सकती हैं -
1. गाड़ी खड़ी है और उसका इंजन भी नहीं चल रहा है । इसका अर्थ है - न तो ईंधन जल रहा है और न गाड़ी चल रही है ।
2. इंजन तो चल रहा है परंतु गाड़ी एक ही स्थान पर ही खड़ी है । कहने का अर्थ है कि गाड़ी में ईंधन तो जल रहा है परंतु गाड़ी नहीं चल रही है ।
3. इंजन चल भी रहा है और पहिए भी घूमते हुए गाड़ी को सड़क पर दौड़ा भी रहे हैं । अर्थात् ईंधन भी जल रहा है और गाड़ी भी चल रही है ।
4. सड़क पर ढलान है, गाड़ी के इंजन को बंद कर दिया गया है, फिर भी गाड़ी सड़क पर दौड़ रही है । इसका अर्थ है, इधर ईंधन भी नहीं जल रहा है फिर भी गाड़ी चल रही है ।
आपके समक्ष प्रश्न है कि इनमें से कौन सी परिस्थिति में आप गाड़ी चलाना पसंद करेंगे ? जरा सोचिए ।
गाड़ी और ईंधन से सम्बन्धित उपरोक्त दृष्टांत का विवेचन करते हुए स्वामीजी कहते हैं कि इस गाड़ी की परिस्थिति के समान ही कर्म से संबंधित निम्न चार परिस्थितियां हमारे समक्ष बन सकती हैं ।
1. मन में कामना भी न हों और कर्म भी न किए जायें अर्थात् कर्मों का स्वरूप से ही त्याग कर दिया जाय, जोकि किसी भी मनुष्य के जीवन में संभव ही नहीं है ।
2. मन में कामना तो रहे, फिर भी कर्म नहीं किए जाय । यह केवल दिखावे के तौर पर कर्मों का त्याग है । वास्तव में कामना होने के कारण भीतर ही भीतर मन में क्रिया तो चल ही रही है।
3. मन में कामना भी है और उसी अनुसार कर्म किए जा रहे हों । ये सकाम कर्म हैं ।
4. मन में कोई भी कामना नहीं है और शरीर से कर्म भी हो रहे हैं । ये निष्काम कर्म है, जो अन्ततः अकर्म में परिवर्तित हो जाएंगे ।
स्वामीजी ने चौथी अवस्था को सबसे उत्तम अवस्था बताई है अर्थात् मन में कामना भी नहीं हो और शरीर से कर्म भी होते रहें । भगवान भी गीता में कहते हैं कि कर्म न करने से कर्म करना अच्छा है और बिना किसी कामना के कर्म करना सबसे अच्छा है । ऐसे कर्म मनुष्य को बाँधते नहीं हैं और अकर्म में परिवर्तित हो जाते हैं । “फले सक्तो निबध्यते” कहने का अर्थ भी यही है ।
गीता में भगवान ने कर्म की गति को समझाते हुए इन्हें तीन प्रकार के बताए हैं - कर्म, अकर्म और विकर्म । भगवान ने श्रीमदभगवद्गीता में कहीं पर भी कर्म करने से मना नहीं किया है । उन्होंने कर्म में अकर्म देखना और अकर्म में कर्म को देखना अवश्य कहा है । स्वामीजी भगवान के इस कथन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि कर्म करते हुए उनसे निर्लिप्त रहना, कर्म में अकर्म देखना है और निर्लिप्त रहते हुए यानि निर्लिप्त भाव से कर्म करना अकर्म में कर्म देखना है ।
कर्म तभी अकर्म में बदलते हैं, जब उन्हें निर्लिप्तता के साथ किए जाय । निर्लिप्त हुए बिना कर्म करना और कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना, कैसे संभव हो सकता है ? “पद्मपत्रमिवाम्भसा”, जिस प्रकार कमल जल में पैदा होता है, जल में रहते हुए भी उसके पत्ते जल से निर्लिप्त बने रहते हैं अर्थात् उस जल की एक बूँद पल भर के लिए भी उन पत्तों पर टिक नहीं सकती । इसी प्रकार कर्म करने से पूर्व भी हमें निर्लिप्त भाव से रहना है ।
कर्मों के साथ लिप्त होने का कारण है - कर्म करने से पहले मन में फल की इच्छा का होना और कर्म करके फल प्राप्त कर लेने पर कर्तृत्वभिमान होना । जब हमारे भीतर ये दोनों (फलेच्छा और कर्तृत्वाभिमान) नहीं होंगे तो फिर कोई भी कर्म हमें लिप्त नहीं कर सकेगा यानि फिर हम किसी भी कर्म में लिप्त नहीं होंगे ।
अकर्म में कर्म देखना - निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना अथवा निर्लिप्त रहते हुए कर्म नहीं करना । इसका अर्थ है कर्म करते अथवा न करते समय भी सतत निर्लिप्त रहना । जैसे शरीर की क्रियाएं - चलना,गिरना, खाना पीना, चिंतन करना, ध्यान लगाना आदि सभी अकर्म होते हुए भी कर्म हैं । निर्लिप्त रहते हुए कर्तव्य कर्म करना । इनको अकर्म में कर्म देखना कहते हैं क्योंकि इन सब में निर्लिप्त भाव से कर्म हुआ है ।
कर्म में अकर्म देखना - ऐसा कहने का मंतव्य है कि कर्म को करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्त रहना अर्थात अपने लिए न तो कर्म में प्रवृत्त होना और न ही कर्म से निवृत होना । इस प्रकार दोनों से ही उसका कोई प्रयोजन नहीं होता ।
महत्वपूर्ण बात यह है कि ये दोनों ही प्रकार के कर्म बिना किसी कामना के किए जाते हैं, इसलिए इन्हें निष्काम कर्म की श्रेणी में रखा जाता है । निष्कामता के साथ यदि कर्म में कर्तापन का भाव (कर्तृत्वाभिमान) नहीं हो तो ये निष्काम कर्म स्वतः ही अकर्म बन जाते हैं । अकर्म में कोई कर्म किया गया है, ऐसा भान तक कर्ता को नहीं रहता ।
कर्म के संबंध में दो मार्ग बताए गए हैं- प्रवृति मार्ग और निवृत्ति मार्ग । कर्म करना प्रवृत्ति मार्ग है और कर्म न करना निवृत्ति मार्ग । कर्म करने से संसार में प्रवृति होती है और कर्म न करने से संसार से निवृत्ति और परमात्मा में प्रवृति होती है । कर्म करने में “मैं करता हूँ” इस बात की अहंता मुख्य है जबकि कर्म न करने में “मैं नहीं करता हूँ” इसकी अहंता रहती है । कर्म करने में अर्थात् प्रवृति मार्ग में कार्य की अहंता रहती है जबकि निवृत्ति मार्ग में अर्थात् कर्म न करने में कारण की अहंता होती है ।
इस प्रकार देखें तो दोनों ही मार्गों में कर्म हो रहा है, क्योंकि दोनों ही में प्रकृति के साथ सम्बन्ध बना हुआ है । जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है, तब तक दोनों ही कर्म हैं । इसलिए कर्मयोगियों में निर्लिप्तता का भाव होना मुख्य बात है । ‘कर्म करने’ में निर्लिप्त रहना तभी होगा जब फलेच्छा नहीं होगी और ‘कर्म न करने’ में निर्लिप्त रहना तभी सम्भव होगा जब कर्मों का त्याग करने से हमें मान, आदर, शरीर के आराम और सुख भोग की इच्छा नहीं होगी । कर्मयोगी का प्रवृति और निवृत्ति, दोनों से ही कोई प्रयोजन नहीं रहता ।
जब कर्मों पर बात चल ही पड़ी है तो विकर्म पर भी थोड़ी चर्चा कर लेते हैं । अत्यधिक लोभवश उठने वाली कामनाएं व्यक्ति को भले बुरे का विचार किए बिना कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। प्रायः ऐसे कर्म किसी न किसी का अहित करने वाले होते हैं । ये कर्म विकर्म कहलाते हैं । इस प्रकार सभी शास्त्र विरुद्ध कर्म विकर्म की श्रेणी में आते हैं । व्यक्ति को विकर्म पाप और पतन की ओर ले जाते हैं । विकर्म के बारे में स्वामीजी का कहना है कि शास्त्र निषिद्ध कर्म तो विकर्म हैं ही परंतु अगर शास्त्र विहित कर्म भी किसी को क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से अथवा अहित करने के भाव से किए जा रहे हैं तो ऐसे कर्म भी विकर्म की श्रेणी में आ जाते हैं । इसलिए कर्मों को करने में बड़ा सावधान रहने की आवश्यकता है । यह सत्य है कि कर्मों की गति को जानना बड़ा कठिन है परंतु कर्मों के बारे में आधारभूत ज्ञान हो तो वे हमें अशुभ अर्थात् संसार के बंधन की ओर नहीं ले जाते ।
भगवान ने गीता में कहा है -
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। 4/16 ।।
कर्म क्या है और अकर्म क्या है ? इनको समझने में विद्वान भी मोहित हो जाते हैं । अतः वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति फिर से कहूँगा, जिसको जानकार तू अशुभ से मुक्त हो जाएगा ।
अशुभ क्या है ? अशुभ है, संसार के साथ बंधना । संसार के साथ हमें हमारी फलेच्छा और उसके लिए किए जाने वाले कर्म बाँधते हैं । सकाम कर्म हमें बाँधते है जबकि निष्काम कर्म हमें संसार से मुक्त करते हैं । संसार से मुक्त होना ही अशुभ से मोक्ष मिलना है । फिर हमसे कोई अशुभ अर्थात् पापकर्म होगा ही नहीं ।
जैसा कि स्पष्ट है कि कर्मों का त्याग करना संभव ही नहीं है । हम सब अपने स्वभाव के कारण कर्म करने को विवश हैं । अर्जुन युद्धभूमि से पलायन करने जा ही रहा था कि भगवान ने उसे कर्मयोग का ज्ञान देना प्रारंभ करते हुए स्पष्ट किया कि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है । आगे उन्होंने फिर कहा कि यदि मोहवश तू युद्ध से पलायन कर ही जाएगा तो भी तेरा स्वभाव एक दिन तुम्हें युद्धभूमि में खींच लाएगा । अर्जुन क्षत्रिय कुल में पैदा हुआ था और उसी अनुसार युद्ध करना उसका जन्मजात स्वभाव था । भगवान ने कहा कि बिना फलेच्छा और कर्तृत्वभिमान के किया गया कर्म (युद्ध) न तो पाप है और न ही संसार के साथ बाँधने वाला है ।
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि कर्म ही हमारे बंधन का कारण है । वे ही कर्म बाँधने वाले होते हैं जो ममता, आसक्ति और फलेच्छा रखते हुए किए जाते हैं । ये सभी सकाम कर्म हैं और सकाम कर्म ही संसार के साथ हमें बांध देते हैं । जो बांधता है, वही मुक्त भी कर सकता है । अतः कहा जा सकता है कि कर्म ही बांधते हैं और कर्म ही मुक्त करते हैं । बस, आवश्यकता है कर्मों के प्रकार को परिवर्तित करने की । कर्म होने में से फलेच्छा को निकाल दिया जाए तो वे निष्काम कर्म हो जाते हैं । जब फल की इच्छा ही नहीं है तो निष्काम कर्म का फल नहीं मिलता और अंततः ये अकर्म हो जाते हैं ।
इस प्रकार हमने अब तक कर्म, अकर्म और विकर्म की चर्चा की है । अकर्म (निष्काम कर्म) और विकर्म पर अल्प रूप से चर्चा (जितना जानना एक साधारण व्यक्ति के लिए आवश्यक है) पूर्व में की जा चुकी है । मुख्य कर्म, जो हम सभी अपने जीवन में सकाम भाव से करते है, उस पर भी थोड़ी चर्चा करना महत्वपूर्ण होगा । प्रश्न है कि इन किए गए कर्मों का परिणाम कब मिलता है और नहीं मिलता तो फिर ऐसे कर्मों का क्या होता है ?
तत्काल फल मिल जाने अथवा तत्काल फल न मिलने आधार पर कर्मों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है, यथा - क्रियमाण कर्म, संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म । क्रियमाण कर्म वे कर्म हैं जिनको हम मन में इच्छा पैदा होते ही करना प्रारम्भ कर देते हैं और उनका परिणाम भी हमें तत्काल मिल जाता है । ये सकाम कर्म होते हैं | इनमें भी जो क्रियमाण कर्म शास्त्र विरुद्ध होते हैं, वे विकर्म कहलाते हैं, जिनका परिणाम कभी भी और किसी भी जीवन में मिल सकता है । इसलिए हमारे द्वारा किये जाने वाले सभी क्रियमाण कर्म शास्त्र विहित ही होने चाहिए। क्रियमाण कर्म आसक्ति और ममता से हमें संसार के साथ बांधने वाले होते हैं।
संचित कर्म - ये वे कर्म हैं, जिनका प्रारंभ तो फलेच्छा के साथ होता है परंतु उनका फल तत्काल नहीं मिलता । ऐसे कर्म चित्त (मन) में संचित हो जाते हैं । समय पाकर ये कर्म परिपक्व होकर प्रायः उसी जीवन में फल दे देते हैं । इन संचित कर्मों में से ही कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जो कामनानुरूप परिणाम मनुष्य को उसी जीवन में नहीं दे पाते । ये संचित कर्म मनुष्य के देहावसान के बाद चित्त में रहते हुए जीवात्मा के साथ नए शरीर में चले जाते हैं । फिर किसी भी जीवन में जाकर कभी भी वे प्रारब्ध कर्म बनकर परिपक्व हो जाते हैं और परिणाम दे देते हैं ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि किए गए सभी सकाम कर्मों का परिणाम एक न एक दिन मिलना अवश्यम्भावी है, उनसे किसी भी प्रकार बचा नहीं जा सकता । भीष्म पितामह के एक कर्म का परिणाम उन्हें एक सौ एक जन्मों के बाद जाकर शरशैया के रूप में कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में भुगतान पड़ा था ।
इस प्रकार हमने कर्म-विज्ञान के बारे में अल्प रूप से परंतु महत्वपूर्ण गम्भीर चर्चा की । कर्म-विज्ञान बहुत जटिल है, इसलिए भगवान ने कहा है - “गहना कर्मणों गति”, कर्मों की गति बड़ी गहरी है । कौन सा कर्म आपको कहाँ ले जाएगा, उसका क्या परिणाम मिलेगा और कब मिलेगा ? निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । कई बार व्यक्ति कुछ अच्छे का सोचकर कर्म करता है और परिणाम ठीक उसके विपरीत मिलता है । इसलिए सबसे अच्छा है कि कर्म निष्काम होकर किए जाएँ । निष्काम होने से कर्म भी अकर्म हो जाते हैं ।
कर्मविज्ञान के विवेचन से स्पष्ट है कि जिस मुख्य बात को ध्यान में रखना है, वह है अकर्म में कर्म देखना और कर्म में अकर्म देखना । इसके लिए हमें सदैव निर्लिप्त बने रहना होगा । अब प्रश्न उठता है कि ऐसा (निर्लिप्त) होना कैसे संभव है ? इसके लिए हमें केवल एक बात को सदैव के लिए अपनी स्मृति में बनाए रखना है कि प्रकृति के पदार्थ और क्रिया हमारे लिए नहीं है । फिर न तो हमारे भीतर कोई फलेच्छा होगी और न ही हमसे उसकी पूर्ति के लिए कोई कर्म होगा । इस बात को जीवन में अपनालें तो फिर कहीं भी लिप्त होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा ।
जो कर्म हम फलेच्छा के कारण करते हैं, उसको “करना” कहते हैं और जिस दिन हमें यह ज्ञान हो जाएगा कि प्रकृति के पदार्थ और क्रिया मेरी और मेरे लिए नहीं है, तब यह “ जानना” हो जाएगा । इसलिए जीवन में शांति को उपलब्ध होना है तो “करना” से “जानना” की यात्रा पर निकल जाना चाहिए । एक व्यक्ति के लिए “करने” से “ जानने” की यात्रा ही सबसे कठिन है ।
“करना” से “जानना” तक पहुंचने के लिए मनुष्य को ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि ज्ञान ही कर्मों को (करना को) नष्ट कर सकता है । कर्मों के ज्ञान के बाद चलिए, आत्मज्ञान की ओर चलते हैं क्योंकि आत्मज्ञान ही हमें “करने” से “ जानने” की स्थिति तक ले जाएगा ।
गीता में भगवान अर्जुन को कह रहे हैं -
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।।4/37।।
अर्थात् हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को सर्वथा भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को सर्वथा भस्म कर देती है ।
जैसा कि मैंने पूर्व में बताया था कि “करना” में प्रकृति के पदार्थ और क्रिया को मेरी, मेरे लिए और मेरे द्वारा होना मानते हैं जबकि “ जानने” में हम स्वयं को प्रकृति से अलग कर लेते हैं । यही संसार से सम्बन्ध विच्छेद करना है । हमें स्वयं का ज्ञान तभी होगा जब हम जो हमारा नहीं है उससे सर्वथा अपने आप को अलग कर लेंगे । हम शरीर नहीं है बल्कि शरीर प्रकृति के पदार्थों से बना है और यह शरीर भी हमें हमारे कर्मों के कारण ही मिला है । जिस दिन हमारे सभी कर्म समाप्त हो जाएंगे, हम इस शरीर को भी छोड़ देंगे और आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाएंगे । यदि कर्म नष्ट नहीं होंगे तो इस शरीर की क्रियाएं धीरे धीरे मद्धम पड़ने लगेगी और यह शरीर छूट जाएगा और फिर से नया शरीर मिलेगा ।
जो मिलने और बिछुड़ने वाली वस्तु है, वह अपनी कैसे हो सकती है ? फिर यह शरीर “मैं” और “ मेरे लिए” कैसे हुआ ? इन सब बातों ने हमारे मस्तिष्क को इतना अधिक भ्रमित कर दिया है कि समझ नहीं पा रहे हैं कि इनका समाधान करने कहाँ जाएं ? इस समाधान के लिए किसी शास्त्र मर्मज्ञ और अनुभवी व्यक्ति (तत्वज्ञाता) के पास जाना चाहिए ।
गीता में भगवान तत्त्वज्ञान प्राप्त करने का मार्ग बता रहे हैं -
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ।। (गीता -4/34)
उस तत्वज्ञान को तत्वदर्शी ज्ञानी पुरुष के पास जाकर समझें । उनको साष्टांग दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने और सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे अनुभवी शास्त्रज्ञ पुरुष (गुरु) आपको तत्वज्ञान का उपदेश देंगे ।
तत्त्वज्ञान क्या है ? आधुनिक विज्ञान की भाषा में तत्त्व का अर्थ है - वह, जो कभी नष्ट नहीं होता । आध्यात्मिक और शास्त्रीय भाषा में इसे सत् कहा जाता है । इस प्रकार तत्त्वज्ञान का अर्थ हुआ, जो ज्ञान हमें सत् का अनुभव करा दे । सत् को जानना अज्ञात (unknown) को जानना है । अज्ञात का कोई भी किसी को ज्ञान करा सकता तो वह अज्ञात नहीं रह जाता । कहने का अर्थ है कि अज्ञात को कोई भी नहीं जना सकता, अज्ञात को तो स्वयं के स्तर पर ही जाना जा सकता है, कोई दूसरा उसे नहीं जना सकता । गुरु का अर्थ है, जिसने स्वयं अज्ञात का अनुभव कर लिया है । अज्ञात का ज्ञान शब्दों के माध्यम से नहीं हो सकता, उसका तो केवल अनुभव ही हो सकता है । सत् के इस अनुभव को वाणी के माध्यम से प्रकट नहीं किया जा सकता क्योंकि वाणी असत् का अंग है । असत् से सत् को कैसे जनाया जा सकता है ?
तत्त्वज्ञान के लिए गुरु की भूमिका भी एक मार्गदर्शक होने से अधिक नहीं होती फिर भी एक भटके हुए व्यक्ति के लिए सत् की ओर संकेत भर कर देना भी पर्याप्त है । सत् अज्ञात है और असत् ज्ञात (known) है । हमें असत् से सत् की ओर जाना है परंतु सत् अज्ञात है, इसलिए इसकी राह कोई भी नहीं बता सकता, गुरु भी नहीं क्योंकि अज्ञात वाणी का विषय ही नहीं है । जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि “यदि आप जानते हैं कि आप कहां जा रहे है, तो आप कभी भी अज्ञात में प्रवेश नहीं कर पाएंगे । इस प्रकार आप कभी भी शाश्वत की खोज नहीं कर पाएंगे ।”
इसलिए गुरु का संकेत भी केवल सत् का अनुभव होने का है । उनकी शाश्वत की यात्रा ही आपकी यात्रा होगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार उनकी शाश्वत की यात्रा को जानना आपके लिए अधिक महत्वपूर्ण नहीं है । आपकी शाश्वत की यात्रा सर्वथा व्यक्तिगत यात्रा होगी जैसे अंतरिक्ष यात्रा में बिना किसी पूर्व निश्चित मार्ग के आप अज्ञात को जानने के लिए चल देते हो । आकाश में रास्ते नहीं होते, रास्ता स्वयं को ही बनाना पड़ता है । यह रास्ता कभी भी स्थाई नहीं बनता कि कोई भी आए और उस पर चल पड़े । आपके गुरु का भी नहीं बना क्योंकि आकाश में केवल गमन किया जा सकता है, स्थाई रास्ता नहीं बनाया जा सकता । संसार में परमात्मा ने सबको भिन्न भिन्न सामर्थ्य दी है, किन्हीं दो व्यक्तियों को असत् के आधार पर एक समान नहीं बनाया है । इसलिए सब कुछ आपकी क्षमता और मुमुक्षा पर निर्भर करता है कि आप शाश्वत तक कैसे पहुंचते हो ?
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि तत्त्वज्ञान की यात्रा का मार्ग व्यक्ति स्वयं ही बनाता है । प्रश्न है कि तत्त्वज्ञान से ही जब शाश्वत स्वरूप का अनुभव होता है तो अभी तक हम इस अनुभव से दूर क्यों हैं ? हम शरीर को ही अपना स्वरूप मान रहे हैं, इसका क्या कारण है ?
प्रत्येक पत्थर में भगवान की मूर्ति छिपी है । उसी पत्थर से मूर्ति को प्रकट करने के लिए उसके कुछ अवांछित भाग को हटाया जाना आवश्यक है क्योंकि उसी भाग ने मूर्ति को अपने में छिपा रखा है । इसी प्रकार हमारा स्वरूप भी स्थूल शरीर के भीतर स्थित अन्तःकरण (सूक्ष्म शरीर) के कारण छिपा हुआ है, जिस कारण से अपने शरीर को ही हम स्वयं होना मान बैठे हैं । शरीर को ही स्वयं होना मान लेने का मुख्य कारण हमारा अंतःकरण है । अंतःकरण चतुष्ट्य में मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार आते हैं । ये चारों आपस में एक दूसरे से सम्बन्धित हैं । अंतःकरण ही हमारी चेतन वृत्ति है ।
जब संकल्प विकल्प होते हैं, सोच- विचार होते हैं, तब उस चेतन वृत्ति को मन कहते हैं । जब इसको कई स्मृतियों के संग्रह के रूप में देखा जाता है, तो यह चित्त कहलाता है । जब उस चेतन वृत्ति का कार्य निर्णय करना होता है, तब वह बुद्धि कहलाती है । जब “मैं” भाव रूप से इसका उपयोग होता है, तब इसे अहंकार कहते हैं । गहराई से देखा जाय तो चेतन वृत्ति एक ही है, एक ही स्पंदन है परन्तु कार्य के आधार पर इसके चार नाम हैं - मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार ।
हमारी चेतना का ही विस्तार यह अंतःकरण है । इस चेतन वृत्ति के संसार की ओर उन्मुख हो जाने से हम अपने मूल चेतन स्वरूप को भूल जाते हैं । संसार के संग से अंतःकरण में आए दोष हमारी दृष्टि को परिवर्तित कर देते हैं, जिसके कारण हमें केवल संसार ही प्रिय लगने लगता है । स्मृति में रखें कि ये दोष (विकार) अंतःकरण में आये हैं चेतन (स्वरूप) में नहीं । संसार के भोगों में रत रहने के कारण ये दोष हमें स्वयं में आए प्रतीत होते हैं । सांसारिक भोगों और शरीर सुख की इच्छा हमें उलझा के रख देती है । अतः संसार से मुक्त होने के लिए अंतःकरण के इन दोषों पर एक दृष्टि डालनी आवश्यक है ।
अंतःकरण के दोषों के कारण हम शरीर को ही सब कुछ समझ लेते हैं । शरीर स्थूल भौतिक तत्वों से बना है जोकि जड़ है, जबकि हमारा स्वरूप चेतन है । हमारी चेतन वृत्ति का विस्तार ही हमारा अंतःकरण है । अंतःकरण में तीन प्रकार के दोष रहते हैं - मल, विक्षेप और आवरण । मल (संचित पाप), विक्षेप (चित्त की चंचलता) और आवरण (अज्ञान) के कारण हमें हमारा वास्तविक स्वरूप दिखलाई नहीं पड़ रहा है ।
संसार में आकर जो हम कर्म करते हैं उनमें से जो भी शुभ- अशुभ कर्म होते हैं, वे चित्त पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं । अशुभ की छाप गहरी होती है और ऐसे अशुभ कर्म संचित होते जाते हैं । ये संचित पाप ही संसार से हमारी दृष्टि को नहीं हटने देते । यही हमारे मन का मल है, जो हमें वास्तविक स्वरूप तक पहुँचने नहीं देता । हमारा मन सदैव चंचल बना रहता है । यह एक पल के लिए भी विश्राम नहीं लेता, यहाँ तक कि नींद में भी इसकी चंचलता स्वप्न के रूप में प्रकट होती रहती है । तीसरा दोष है, आवरण । हमारे और हमारे स्वरूप के मध्य अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है । अज्ञान का अर्थ ज्ञान की अनुपस्थिति नहीं है बल्कि ज्ञान को सही संदर्भ में न लेना है । इस आवरण का हटना आत्म स्वरूप तक पहुंचने के लिए आवश्यक है ।
मल और विक्षेप तो अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए कर्म न करने से अर्थात् केवल संसार की सेवा के लिए कर्म करने से मिट जाते हैं परंतु अज्ञान के आवरण दोष को मिटाने के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है । गुरु के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करने से उसका अज्ञान मिट जाता है और वह संसार के पदार्थों और कर्मों का अतिक्रमण कर जाता है । यहाँ पहुंचकर उसके सामने केवल शाश्वत अर्थात् चिन्मय तत्व तक पहुंचने का ही लक्ष्य रहता है । इसीलिए गीता में भगवान ने कहा है कि सम्पूर्ण कर्मों का और पदार्थों का समापन तत्त्वज्ञान में होता है (4/33) तथा ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्मीभूत कर देती है (4/37) । इसलिए ज्ञान की प्राप्ति हमारे लिए बहुत ही आवश्यक है अन्यथा एक पशु और मनुष्य में क्या अंतर रह जाएगा ?
तत्त्वज्ञान कैसे प्राप्त होगा ? इसके लिए कई प्रचलित साधनों का वर्णन हमारे शास्त्रों में आता है । हालांकि सबको शाश्वत तक पहुंचने के लिए अपने अपने रास्ते स्वयं को ही बनाने है फिर भी कुछ रास्ते तत्त्वज्ञान प्राप्ति के लिए शास्त्रों में बताये गए हैं, वे भी कुछ सीमा तक हमें सहयोग कर सकते हैं । स्मरण रहे, इन रास्तों से केवल सहयोग ही मिलेगा, शाश्वत (स्वरूप) नहीं । शास्त्रों में ज्ञानप्राप्ति के आठ अंतरंग साधन बताए गए हैं । ये आठ साधन है - विवेक, वैराग्य, शमादि षट् संपत्तियां (शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा और समाधान), मुमुक्षता, श्रवण, मनन, निदिध्यासन और तत्व पदार्थ संशोधन ।
विवेक चूड़ामणि में शंकराचार्यजी महाराज कहते हैं -
साधनान्यत्र चत्वारि कथितानि मनीषिभि: ।
येषु सत्स्वेव सन्निष्ठा यदभावे न सिद्ध्यति ।। 18।।
मनीषियों ने जिज्ञासा के चार साधन बताए हैं, उनके होने से ही सत्य स्वरूप आत्मा में स्थिति हो सकती है, उनके बिना नहीं । इनको साधन चतुष्ट्य भी कहा जाता है । ये चार साधन हैं - विवेक, वैराग्य, षट् सम्पदा (शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान), और मुमुक्षत्व (Eager to know) ।
आगे बढ़ने से पहले इन ज्ञानप्राप्ति के आठ अंतरंग साधनों पर भी थोड़ी दृष्टि डाल लेते हैं ।
1.विवेक (Discrimination) - सत् और असत् को अलग अलग जान लेना । ‘ब्रह्म सत्य जगत् मिथ्या’, इस बात का निश्चय होना । विवेक जाग्रत होने से अज्ञान रूपी अंधकार से मुक्ति मिलती है ।
2.वैराग्य (Detachment) - असत् का त्याग और संसार से विमुखता । लौकिक और पारलौकिक सुख-भोग से वैराग्य होना । संसार में जितनी भी दृष्टि अथवा श्रवणादि के द्वारा जो भी अनित्य भोग पदार्थ अनुभव में आते हैं, उनमें अनासक्त हो जाना ।
विवेक और वैराग्य की तत्त्वज्ञान प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका होती है । इन दो साधनों के बाद छः अन्य साधनों पर भी अल्प रूप से विचार कर लेते हैं ।
3.षट् सम्पदा - (क) शम - मन को इंद्रियों से हटाना ।
(ख) दम - इंद्रियों को विषयों से हटाना ।
(ग) श्रद्धा - ईश्वर और शास्त्रों पर प्रत्यक्ष से भी अधिक विश्वास करना । गुरु के कथन और शास्त्रों के वाक्यों पर सत्य बुद्धि रखना ।
(घ) उपरति - वृत्तियों को संसार की ओर से हटा लेना ।
(च) तितिक्षा - सभी प्रकार के द्वंद्वों को सहना और उनकी उपेक्षा करना । सभी कष्टों को बिना किसी प्रतिकार के सहना ।
(छ) समाधान - अपनी बुद्धि को शुद्ध ब्रह्म में सदैव स्थिर रखना । अंतःकरण की सभी शंकाओं का समाधान कर लेना कि फिर कोई शंका नहीं रहे । चित्त की इच्छापूर्ति का नाम समाधान नहीं है ।
4.मुमुक्षता - संसार से संबंध विच्छेद करने की इच्छा । अहंकार से लेकर देहपर्यंत जितने भी अज्ञान कल्पित बंधन हैं, उनका त्याग करना ।
5.श्रवण - गुरु की और शास्त्रों की प्रत्येक बात को गंभीरता से सुनना । पठन से अधिक श्रवण से सभी संशयों का नाश होता है ।
6.मनन - परमात्मत्त्व का युक्ति, प्रयुक्तियों से चिंतन करना । मनन से प्रमेयगत संशय दूर होता है ।
7.निदिध्यासन - विपरीत सोच और भावना को दूर करना अर्थात् हटाना ।
8.तत्त्व पदार्थ संशोधन - प्रकृति के पदार्थों से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद करना जिससे केवल चिन्मय तत्त्व ही शेष रह जाय । इसे ही तत्त्व साक्षात्कार भी कहते हैं ।
इस प्रकार के साधन करने से तत्त्वज्ञान को उपलब्ध होने में सहायता मिलती है । साधन को बड़ी श्रद्धा और निष्ठा से करना आवश्यक है । योग्य गुरु का सान्निध्य आपको इस राह में आगे बढ़ाने में सहायक हो सकता है ।
स्वामीज़ी कहते हैं कि तत्त्व-बोध के इन सभी साधनों का एक ही तात्पर्य है कि सभी असाधनों अर्थात् असत् से सम्बन्ध का त्याग । त्याज्य वस्तु अपनी नहीं होती और त्याग का परिणाम (आत्मबोध) अपना होता है । सभी साधन अंतःकरण की शुद्धि के लिए है । शुद्धि से अंतःकरण के तीनों दोष यथा मल, विक्षेप और आवरण हट जाते हैं और चेतनवृत्ति शुद्ध होकर चेतन को स्पष्ट कर देती है । इस प्रकार अंतःकरण की शुद्धि तत्त्वज्ञान के मार्ग को प्रशस्त करती है । तत्त्वज्ञान को उपलब्ध होने का अर्थ है, अज्ञान का नष्ट हो जाना ।
अंतःकरण की शुद्धि के अनुसार ज्ञान के तीन अधिकारी होते हैं । ज्ञान का उत्तम अधिकारी वह है, जिसको गुरु के सामान्य उपदेश से एक बार सुनने से ही आत्मबोध हो जाता है । उत्तम अधिकारी वह होता है, जिसमें तत्वप्राप्ति की तीव्र लगन हो । दूसरी प्रकार के, मध्यम अधिकारी वे होते हैं, जिनको बार बार श्रवण से बोध होता है अर्थात् श्रवण, मनन और निदिध्यासन से तत्त्वज्ञान होता है । तीसरी प्रकार के कनिष्ठ अधिकारी वे होते हैं, जो चिर काल तक शास्त्रों का श्रवण करते हैं, विभिन्न शंकाएं जिनके मन में उठती है । इनको योग्य गुरु की आवश्यकता होती है, तब कहीं जाकर वे बोध को उपलब्ध होते हैं ।
गुरु आपको तत्वज्ञान का उपदेश देंगे परंतु उनके उपदेश को सुनने मात्र से ही वास्तविक बोध नहीं होगा । वास्तविक बोध का वर्णन कोई नहीं कर सकता क्योंकि बोध करण निरपेक्ष है अर्थात मन और वाणी से परे है । वास्तव में आत्म-बोध करण-निरपेक्ष है। वास्तविक बोध तो स्वयं को स्वयं के द्वारा ही होता है। श्रद्धा पूर्वक सुनने से, स्वरूप में स्थित होने में सहायता अवश्य मिलती है परंतु स्वरूप में स्थित स्वयं को ही होना होता है । मनुष्य चाहे जितना जतन कर ले, कितने ही साधन अपना ले , अंततः जानना तो अपने-आपसे ही होगा और अपने- आपको ही जानेगा । गुरु तो लक्ष्य की तरफ संकेत भर कर देगा, जिससे आपकी मुमुक्षा बढ़ जाए । आपकी मुमुक्षा ही आपको शाश्वत-ज्ञान के द्वार तक ले जाएगी । गुरु का कर्तव्य आपकी मुमुक्षा को जाग्रत कर देना भर है ।
शाश्वत अज्ञात है । अज्ञात को शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता है ।अज्ञात को जान कर, उसका अनुभव करके, उसको देखकर, उसका वर्णन करके, उसके बारे में सुनकर आश्चर्यचकित होना ही पड़ता है क्योंकि कितने ही प्रयास कर लिए जाये, अज्ञात के बारे में पूर्ण रूप से स्पष्ट कोई भी नहीं कर सकता । असत् के द्वारा सत् को स्पष्ट नहीं किया जा सकता ।
भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं -
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य: ।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति
श्रुत्वाप्येन वेद न चैव कश्चित् ।। गीता -2/29।।
अर्थात् कोई इस शरीरी (आत्मा) को आश्चर्य की तरह देखता है, वैसे ही कोई दूसरा इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई आश्चर्य की तरह सुनता है और सुनकर भी कोई इसको नहीं जानता ।
जिसने उस आत्मा का अनुभव कर लिया है, वह किसी भी साधन से अपने अनुभव का वर्णन नहीं कर सकता क्योंकि वह तत्व वाणी, श्रोतादि से परे है । मुख्य बात जो इस विवेचन से निकल कर आई है उससे स्पष्ट है कि व्यक्ति को स्वयं को ही उस स्थिति को प्राप्त करना होगा, जिसकी तरफ गुरु संकेत करता है ।
आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए अज्ञान का आवरण हटाना आवश्यक है । इस आवरण से मुक्ति तभी मिल सकती है, जब हम प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लें । प्रकृति संसार और शरीर के रूप में हमारे सामने है । हमारा मोह इस संसार और शरीर में हैं । ये हमारे किसी काम के नहीं है । संसार को आपकी आवश्यकता है अथवा संसार आपको चाहता है, यह आपकी भौतिक उन्नति हो सकती है । संसार से आपको कुछ नहीं लेना है, संसार की आवश्यकता आपको नहीं है, यह आपकी आध्यात्मिक उन्नति होने का संकेत है ।
वह ज्ञान क्या है ? उस ज्ञान से क्या होगा कि उसको प्राप्त करना हमारे लिए इतना आवश्यक है ? इसी को जानने के लिए आगे बढ़ते हैं ।
ज्ञान हमें अपने जीवन में शांति उपलब्ध करवाता है । फिर विभिन्न परिस्थितियों के कारण जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव हमें विचलित नहीं कर सकते । जो माया (अज्ञान) का आवरण शरीर (असत्) और शाश्वत (सत्) के मध्य पड़ा है, उसको हटाने में ही ज्ञान की भूमिका है । हम इस संसार में मनुष्य शरीर के रूप को पाकर उसी को ही सत् समझ बैठे हैं । संसार, जिसके साथ हम बंधे हुए हैं, वह असत् है । ज्ञान प्राप्त करने के दो रास्ते हैं - प्रथम वह रास्ता है, जिससे संसार को जाना जाता है । संसार को जानते ही अज्ञात पर पड़ा आवरण हट जाता है और हम स्वयं ही उस अवस्था को उपलब्ध हो जाते हैं । यह निवृत्ति मार्ग है अर्थात् संसार से निवृत होना । दूसरा रास्ता है - सीधे अज्ञात की खोज में निकल पड़ना । इससे स्वतः ही संसार की उपेक्षा हो जाती है । परमात्मा की और प्रवृत होने के करण इसे प्रवृति मार्ग कहा जाता है ।
प्रवृति और निवृत्ति मार्ग का उल्लेख कर्मयोग के संबंध में पूर्व में किया जा चुका है । कर्मयोग में, निष्काम कर्म में प्रवृत हो जाना शाश्वत को पाने के लिए प्रवृति मार्ग है और कर्मों का त्याग उनसे निवृत होने का मार्ग है, जिसमें परमात्मा की ओर प्रवृत हुआ जाता है । इस प्रकार ये दोनों ही मार्ग, ज्ञान प्राप्ति के लिए उपयोगी हैं ।
हम संसार से भिन्न हैं और परमात्मा से अभिन्न । संसार को संसार से भिन्न अर्थात् अलग होकर ही जाना जा सकता है । परमात्मा को जानने के लिए उनसे अभिन्न होना पड़ता है । परमात्मा से अभिन्न होने का ज्ञान ही परमात्मज्ञान (विज्ञान) है । संसार से अलग होकर उसको जान लेना आत्मज्ञान है । केवल संसार की गतिविधियों को जानकर उसमें ही उलझे रहना ज्ञान नहीं है, वह तो सब कुछ जानकार भी अज्ञान में भटकना है । स्वामीजी ऐसे ज्ञान के बारे में कहते हैं कि शास्त्र पढ़कर वाक् पटुता आ जाएगी, अच्छे प्रवचन कहकर वाहवाही लूट लोगे परंतु आत्मज्ञान के स्तर पर शून्य ही बने रहोगे । इसलिए जीवन में गुरु के सान्निध्य और शास्त्र-अध्ययन से मिले ज्ञान को जीवन में उतारने से ही आत्मज्ञान को उपलब्ध होंगे अन्यथा उस तोते की सी ज़िंदगी हो जाएगी, जिसने राम-राम रटना तो सिख लिया परंतु बिल्ली के पकड़ने पर उसके मुँह से टें टें ही निकलता है, राम-राम नहीं ।
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को मूल रूप से संसार को जानने के लिए ही कहा है । गीता के प्रथम अध्याय में ही अर्जुन ने जिस सांसारिक मोह का प्रदर्शन भगवानके समक्ष प्रस्तुत किया था, उस मोह को दूर करना आवश्यक था । उसके मोह को दूर करने के लिए सर्वप्रथम भगवान ने उसे संसार की नश्वरता का ज्ञान कराया है । संसार अशाश्वत है, इसका पूर्ण ज्ञान होने से ही शाश्वत के ज्ञान का आधार तैयार होता है । इसीलिए पहले भगवान ने शरीर और संसार का ज्ञान कराया और फिर उस ज्ञान के अनुरूप कर्म करने को प्रेरित किया । मोह के कारण एक बार तो अर्जुन युद्धभूमि छोड़ने तक का मानस बना चुका था ।
इस प्रकार सातवें अध्याय में भगवान ने ज्ञान को आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान (विज्ञान) के स्तर तक ले गए जहां से परमात्मा की राह पकड़ना अर्जुन के लिए सुगम हो गया । राजविद्या राजगुह्य योग नामक अध्याय तक पहुंचते पहुंचते अर्जुन आत्मज्ञान के उच्चतम स्तर को छू चुका था परंतु परमात्मज्ञान के स्तर तक पहुँचने में अभी भी भ्रम की स्थिति में था । भगवान ने अपनी विभूतियों का वर्णन कर जब अपना विराटस्वरूप दिखलाया तब जाकर अर्जुन की दृष्टि परिवर्तित हुई । इसके बाद ही उसे भक्ति का ज्ञान दिया गया और उस विज्ञान को संसार के ज्ञान के साथ जोड़ते हुए (क्षर-अक्षर विभाग योग) अर्जुन को अंततः शरणागति की अवस्था तक ले आए ।
भगवान श्रीकृष्ण की वाक् पटुता निश्चय ही प्रशंसनीय है । गीता में ज्ञान देते हुए उन्होंने एक पल के लिए भी अर्जुन को सुनने की लीक से हटने नहीं दिया । न ही उन्होंने कभी अर्जुन को यह अनुभव होने दिया कि वे उसे युद्ध करने के लिए विवश कर रहे हैं । उन्होंने संसार से भिन्न होकर संसार को जान लेने में अर्जुन का पूरा सहयोग किया । ज्ञान देते हुए भगवान ने अर्जुन को बिना किसी दबाव के, स्वतंत्र होकर अपने जीवन और युद्ध करने के बारे में निर्णय कर लेने का पूरा अधिकार दिया ।
जब भगवान श्रीकृष्ण गीता के ज्ञान को समापन की ओर ले जा रहे थे, तब उन्होंने अर्जुन को क्या कहा था ? उन्होंने कहा था -
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।। (गीता-18/63)
अर्थात् यह गुह्य से भी गुह्यतर ज्ञान मैंने तुझे कह दिया है । अब तू इस पर अच्छी तरह विचार करके जैसा चाहता है, वैसा कर ।
गुह्य ज्ञान आत्मज्ञान है और गुह्यतर ज्ञान परमात्म ज्ञान है । परमात्मज्ञान का अर्थ है परमात्मा का बोध हो जाना । परमात्मा के बोध से तात्पर्य है - “वासुदेव सर्वम्”, सब जगह एक परमात्मा ही है, परमात्मा के अतिरिक्त अन्य है ही नहीं । ज्ञान में अहंकार रह सकता है, बोध में नहीं । बोध होना ही परमात्मा के शरण होना है । इसलिए स्वामीजी ने गीता का सार “ वासुदेव सर्वम्” और “शरणागति” बताया है । भगवान श्रीकृष्ण मोह को नष्ट करते हुए अर्जुन को शरणागति तक ले गए हैं ।
आत्मज्ञान हो जाने पर मोह नष्ट हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता क्योंकि आत्मज्ञान में शरीर के अहंकार का सूक्ष्म अंश रह ही जाता है । परमात्मज्ञान जिसको आत्मबोध होना भी कहते हैं, में अहंकार नहीं रहता और जब अहंकार का नाश हो जाता है तब मोह भी नष्ट हो जाता है ।
आत्मज्ञान और आत्मबोध में केवल अहंकार का ही अंतर है । अहंकार के कारण आत्मज्ञान विस्मृत हो सकता है परंतु जब एक बार आत्मबोध हो जाता है फिर उसका विस्मरण नहीं होता । यही कारण है कि आत्मज्ञान को उपलब्ध हुआ व्यक्ति या तो उसको विस्मृत कर संसार में लौट सकता है अथवा आगे आत्मबोध की यात्रा पर अग्रसर हो जाता है । आत्मज्ञान ही तत्वज्ञान है । विवेक का सदुपयोग ही विवेक को ज्ञान में परिवर्तित कर देता है और यही आत्मज्ञान अगर अहंकार रहित हो तो मोह को नष्ट कर देता है ।
मोह के नष्ट होने के बारे में गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण दृक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ।। (गीता-4/35)
हे पाण्डव ! जिसको (तत्वज्ञान को) जानकर तू इस प्रकार के मोह को पुनः प्राप्त नहीं होगा । जिसके अनुभव कर लेने से तुम संपूर्ण प्राणियों को निःशेष भाव से पहले अपने में और उसके बाद मुझ में देखेगा ।
गीता में ज्ञान के संबंध में यह एक महत्वपूर्ण श्लोक है । भगवान ने यहाँ स्पष्ट कर दिया है कि ज्ञान से मोह तभी नष्ट होगा, जब इस ज्ञान को आचरण में लाया जाएगा अर्थात् ज्ञान का अनुभव किया जाएगा । ज्ञान तभी उपयोगी है, जब वह संसार से मुक्त कर दे । बिना ज्ञान का अनुभव किए उसे आचरण में लाना संभव नहीं है । बिना अनुभव का ज्ञान भार/बोझ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । संसार का समस्त ज्ञान पुस्तकों में भरा पड़ा है । उन पुस्तकों में रहने वाले छोटे छोटे कीड़े उन किताबों में लिखे ज्ञान को पन्नों सहित चट कर जाते हैं परंतु वे मुक्त नहीं होते । इसी प्रकार ज्ञान को अनुभव में लाए बिना उसे केवल कहते फिरना व्यर्थ का थूक बिलौना है, जिसमें झाग तक नहीं उठते, मक्खन निकलना तो दूर की बात है ।
गीता के इस श्लोक (4/35) में भगवान तत्त्वज्ञान को जानकर उसके अनुभव से निकलने वाले परिणाम की बात कह रहे हैं । अनुभव कर लेने के परिणाम स्वरूप पहले तो व्यक्ति संसार के सम्पूर्ण जगत् को स्वयं में देखने लगेगा । यह ज्ञान आत्मज्ञान है । आत्मज्ञान होने से ऐसा अनुभव होता है है जैसे मेरी सत्ता सर्वत्र परिपूर्ण है और उस सत्ता के अन्तर्गत ही अनंत ब्रह्मांड हैं । फिर वह अपने सहित समस्त जगत् को एक परमात्मा में ही देखेगा । ऐसा देखना परमात्म-ज्ञान (विज्ञान) है अर्थात् सब कुछ परमात्मा ही है । फिर न कोई जगत् है और न ही शरीर । यह बोध हो जाने की अवस्था है, जिसको प्राप्त करने से स्वयं और परमात्मा में कोई अंतर नहीं रह जाता । तत्त्वज्ञान को उपलब्ध हो जाने का यही एक मात्र उद्देश्य है ।
प्रश्न उठता है कि आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान में क्या अंतर है ? स्वामीजी कहते हैं कि आत्मज्ञान में निजानन्द है जबकि परमात्मज्ञान में परमानन्द है । लौकिक निष्ठा (कर्मयोग और ज्ञानयोग) से आत्मज्ञान का अनुभव होता है जबकि अलौकिक निष्ठा (भक्ति) से परमात्मज्ञान का अनुभव होता है । आत्मज्ञान से अखंड रस मिलता है, जबकि परमात्मज्ञान में अनन्तरस मिलता है । वह अनन्त रस दिन प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है ।
जिस प्रकार वर्षों से बन्द पड़े कमरे का अंधेरा एक छोटे से दीपक के प्रकाश के सामने पल भर के लिए भी ठहर नहीं सकता, उसी प्रकार ज्ञान भी अज्ञान को तत्काल ही नष्ट कर देता है । जिस असत् की सत्ता को हम इतने जन्मों से स्वीकार किए बैठे हैं, ज्ञान होते ही तत्काल ही वह सत्ता स्वप्न की तरह ओझल हो जाती है । भगवान गीता में अर्जुन को कहते हैं - “नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः” अर्थात् असत् की तो सत्ता नहीं है और सत् का कहीं अभाव नहीं है । सत् की सत्ता का अनुभव हो जाना ही ज्ञान है ।
अनात्म और आत्म के अन्तर को समझ लेना ही ज्ञान है । संसार, संसार के पदार्थ और उनसे मिलने वाले भोग तथा यह शरीर आदि सभी के सभी अनात्म है, इनका हमारे (आत्मा) से कोई संबंध नहीं है । शरीर और संसार को अपना समझ लेना ही अनात्म को अपना होना मान लेना है । अनित्य वस्तु को एक न एक दिन नष्ट होना ही है परंतु नित्य वस्तु में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । हम नित्य रहने वाले हैं परंतु अनित्य का साथ हमें भ्रमित कर देता है और हम भी अपने आपको जन्म-मरण के चक्र में डाल देते हैं । नित्य अनित्य की आपस में एकता नहीं हो सकती ।
सोने से बने आभूषण अनित्य है । सुनार उनको गलाकर, नष्ट करके उसके स्थान पर नया आभूषण बना सकता है परन्तु वह आभूषण में उपस्थित स्वर्ण को कभी भी नष्ट नहीं कर सकता । आभूषण को गलाने पर स्वर्ण स्वतः ही अलग होकर चमकने लगता है । स्वर्ण (Au) तत्त्व है जबकि आभूषण पदार्थ (material) है । स्वर्ण तत्त्व होने के कारण नित्य है जबकि आभूषण पदार्थ होने के कारण अनित्य है । प्रत्येक आभूषण में स्वर्ण को देखना ही ज्ञान है ।
सभी मनुष्यों में ज्ञान का होना स्वाभाविक है । अज्ञान (ignorance) का अर्थ ज्ञान की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि ज्ञान की अवहेलना करना है । ज्ञान की अवहेलना (ignore) होने का कारण हमारे मन में उठती रहने वाली विभिन्न कामनाएं हैं । परोक्ष रूप से कहा जा सकता है कि हमारी ये कामनाएँ ही ज्ञान का आवरण बन जाती है, जिससे ज्ञान का अनुभव नहीं हो पाता । गीता में भगवान कहते भी हैं कि कामना के आवरण से ज्ञान ढका हुआ है, जैसे जेर (placenta and membranes) से गर्भ ढका रहता है ।
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।। गीता - 3/38।।
जैसे धुएं से अग्नि और मैल से दर्पण ढका रहता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, ऐसे ही उसके (कामना) द्वारा ज्ञान ढका हुआ है ।
जहां पर भी हमें धुँआ दिखाई देता है, वहां अग्नि की उपस्थिति अवश्य है परंतु अग्नि पर धुएँ का आवरण होने के कारण वह प्रकट दिखलाई नहीं पड़ती । इसी प्रकार दर्पण पर मेल जम जाए तो हम दर्पण में अपना स्वरूप नहीं देख सकते । गर्भ को ढके रखने वाली ज़ेर गर्भ को छिपाए रखती है परन्तु उसके नीचे गर्भ की उपस्थिति है ही । उसी प्रकार संसार और शरीर की अनंत कामनाओं के कारण ज्ञान दबा पड़ा रहता है, उसके होने का हमें अनुभव नहीं हो पाता । इस प्रकार कहा जा सकता है कि अज्ञान के आवरण को हटाने पर ही ज्ञान सामने आ सकता है । इस आवरण को दूर करने को ही ज्ञान होना कहते हैं ।
संसार के पदार्थों में आसक्ति और विषय भोग करते हुए सतत शारीरिक सुख प्राप्त होता रहे, ऐसी सोच ही कामनाओं को बढ़ाती है । कामना को पूरी करने के लिए व्यक्ति पाप कर्म तक कर बैठता है । ये पाप संचित होते हैं, जो अंतःकरण में मल नामक दोष उत्पन्न करता है । साथ ही विक्षेप दोष अर्थात् मन की चंचलता से कामनाओं का विस्तार होता है । बढ़ती कामनाओं के कारण, मल और विक्षेप दोष का बुद्धि पर प्रभाव पड़ता है और मनुष्य का विवेक दब कर रह जाता है, जिससे माया का आवरण और घना होकर ज्ञान को पूर्ण रूप से ढक लेता है ।
मल (संचित पाप) दोष, जो अंतःकरण में कामनाओं के कारण आ गया है, ज्ञान पर जिसका आवरण पड़ गया है, उसकी शुद्धि कर्मयोग से हो सकती है । श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान कहते हैं - “कर्मयोगस्तु कामिनाम्” (11/20/7) अर्थात् सकाम योगी कर्म योग के अधिकारी हैं । कर्मयोग के अनुसार निष्काम होकर कर्म करने से मल का आवरण हटने लगता है और उसके नीचे दबा पड़ा ज्ञान स्पष्ट दिखलाई पड़ने लगता है । कहने का अर्थ है कि ज्ञान हमारे भीतर पहले से ही है परंतु वह अंतःकरण के दोषों के कारण दबा पड़ा है । आवश्यकता ज्ञान पर पड़े आवरण को हटाकर उसे सतह पर लाने की है ।
जो हमारे अंदर पहले से ही है, उसको प्राप्त नहीं किया जाता क्योंकि वह तो पहले से ही प्राप्त है । ज्ञान को प्राप्त नहीं किया जाता बल्कि दबे हुए ज्ञान को सतह पर लाकर उसका अनुभव किया जाता है । इसी को हम ज्ञान प्राप्त करना कह देते हैं, वास्तव में यह प्राप्त की ही प्राप्ति है । इसको सतह पर लाकर अनुभव करने के लिए स्वयं के भीतर प्रवेश करना पड़ता है । स्वयं के भीतर जाने के लिए मार्ग स्वयं को ही बनाना पड़ता है ।
आप स्वयं के भीतर कैसे प्रवेश पा सकते हैं ? उस ओर संकेत गुरु अवश्य कर सकता है । गुरु का संकेत समझने के लिए गुरु के प्रति श्रद्धा और समर्पण होना चाहिए । जितने भी साधन शास्त्रों में ज्ञान प्राप्ति के लिए सहायक बताए गए हैं, उनका मनोयोग से उपयोग करना चाहिए, तभी ज्ञान को अनुभव किया जा सकेगा ।
स्वयं के भीतर उपस्थित ज्ञान को सतह पर कैसे लाया जा सकता है ? इस बारे में भगवान श्रीकृष्ण गीता में कह रहे हैं -
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय: ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।। (4/39)
जो जितेन्द्रिय तथा साधन पारायण है, ऐसा श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है । ज्ञान को प्राप्त होकर वह परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
गीता के इस श्लोक (3/38) के अनुसार मनुष्य में ज्ञान को प्रकट करने के लिए दो आवश्यक योग्यताएं होना आवश्यक है - श्रद्धावान और संयेतेन्द्रिय होना । श्रद्धा क़िस में ? पहली श्रद्धा स्वयं पर होनी चाहिए कि मेरे में ज्ञान है परंतु वह ज्ञान मेरे अनुभव में नहीं आ रहा है । दूसरी श्रद्धा गुरु पर होनी चाहिए क्योंकि गुरु ही आपके भीतर छिपे ज्ञान को प्रकट करा सकता है । तीसरी श्रद्धा शास्त्रों में वर्णित ज्ञान पर होनी चाहिए और चौथी श्रद्धा परमात्मा पर होनी चाहिए जो स्वयं ज्ञानपूर्ण है और हमारे भीतर अंतर्यामी के रूप में सदैव उपस्थित रहते हैं, एक क्षण के लिए भी हमें छोड़ कर नहीं जाते ।
इंद्रियों पर नियंत्रण रखना ही संयतेन्द्रिय होना है । हमारा मन बड़ा चंचल है । चंचल मन के कारण इंद्रियों पर नियंत्रण रखना बड़ा मुश्किल होता है । कठोपनिषद् में इंद्रियों को शरीर रूपी रथ के घोड़े कहा गया है । इन इंद्रियों की लगाम मन है । चंचल मन के कारण इंद्रियों पर नियंत्रण हटने की संभावना अधिक रहती है, जिससे इंद्रियाँ अनियंत्रित होकर विषयों की ओर दौड़ पड़ती है । मन को भी एक इंद्रिय माना गया है । इस प्रकार मन को नियंत्रण में रखने से इंद्रियाँ स्वतः ही नियंत्रित हो जाएगी । गीता में मन की चंचलता को रोकने के लिए अभ्यास और वैराग्य, ये दो उपाय बताए गए हैं ।
श्रद्धावान होने के कारण मनुष्य समर्पित भाव से गुरु के निर्देशों का पालन करता है और संयतेन्द्रिय होने के कारण उसका मन इधर उधर भटकना कम कर देता है । इंद्रियों के नियंत्रण में रहने से भोगों की आसक्ति नहीं रहती और वीतरागता की और कदम बढ़ने लगते हैं । भोगों की ओर से अनासक्त होने से मन में कामनाएं जन्म नहीं लेती और पापकर्म नहीं होते । पापकर्म न होने से अंतःकरण का मल दोष साफ़ हो जाता है और मन के नियंत्रित होने से विक्षेप दोष । अंतःकरण के इन दोनों दोष के हटने से ज्ञान प्रकट होने लगता है जिससे माया का आवरण भी दूर हो जाता है ।
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान को प्राप्त करना नहीं है, वह तो नित्य प्राप्त ही है । ज्ञान को कुछ समय के लिए छुपाया जा सकता है, नष्ट नहीं किया जा सकता । ज्ञान तो हमारे संसार के संग के कारण अप्रकट हुआ है । संसार भी दो हैं - एक तो परमात्मा का बनाया हुआ, जिसे जगत् कहा जाता है और दूसरा जो हमने अपने सुख के लिए बना लिया है । यहां संसार से तात्पर्य स्व- निर्मित संसार से है । हमारे प्रियजन, माता- पिता, पुत्रादि सभी इस संसार के अन्तर्गत है । किसी पूर्वजन्म के ऋणानुबंध के कारण इनका हमसे मिलन हुआ है । जब आपस का लेनदेन समाप्त हो जाएगा, सब अपने अपने रास्ते चलते बनेंगे । परंतु हम तो उनको ‘मेरा और मेरे लिए” मानकर उनमें आसक्त हो गए हैं । इस प्रकार आसक्त होना ही संसार का संग करना कहलाता है । संसार के संग का कारण है, शरीर के लिए सुख की चाहना ।
सुख के लिए कर्म करने पड़ते हैं । कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं, जिन्हें क्रिया होना कहते हैं । परंतु जब इन क्रियाओं को करने के हम कर्ता बन जाते हैं, तब ये क्रिया ही कर्म कहलाती है । कर्म से सुख मिले तो वह अभिमान पैदा करती है । सुख ही एक दिन दुःख में परिवर्तित होता है क्योंकि परिवर्तित होना प्रकृति का नियम है । जब कर्म से फल इच्छानुसार मिल जाता है, तो नई कामना जन्म लेती है, जो पुनः कर्म की ओर ले जाती है और अगर फल इच्छानुसार नहीं मिला तो क्रोध उत्पन्न होता है । इस प्रकार एक एक कर सारे विकार मनुष्य में आने लगते हैं ।
कुल मिलाकर कहने का अर्थ है कि संसार और शरीर के प्रति हमारी आसक्ति हमें संसार से अलग नहीं होने देती । जब तक संसार से असंग नहीं होंगे, तब तक तत्त्वज्ञान कि अवस्था को उपलब्ध नहीं होंगे । इसलिए सबसे महत्वपूर्ण है - संसार से हमारी असंगता । जीवन में जब विपरीत परिस्थितियां आती हैं, तब संसार की वास्तविकता का कुछ कुछ ज्ञान होने लगता है । इस अवसर का समुचित लाभ ले लिया जाए तो संसार से शीघ्र ही असंग हुआ जा सकता है ।
संसार का संग जब कमजोर पड़ने लगेगा, ज्ञान स्वतः प्रकट हो जाएगा । संसार की वास्तविकता सामने आने पर ही माया का आवरण ज्ञान को मुक्त करेगा । संसार की वास्तविकता क्या है ? संसार की वास्तविकता यह है कि वह अनित्य है । अनित्य होने के कारण यह प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है । संसार में चारों ओर बिखरे पड़े विषयों को, जिनको हम सुख का साधन मान रहे हैं, वे ही विषय एक दिन हमें दुःख देते हैं ।
भौतिक शरीर को हम अपना स्वरूप समझ बैठे हैं, उसका मूल कारण यह संसार और उसके विषय हैं । संसार और विषय प्रकृति के अंग है जो अपने गुणों की आपसी क्रियाओं से उनको परिवर्तित करती रहती है । इन क्रियाओं को हम अपने द्वारा “ करना” मानते हैं जबकि क्रियाएं प्रकृति के गुणों के कारण होती है । इसलिए सर्वप्रथम इस “ करना” (doing) को “होना” (happening) में बदलना होगा । करने को होने में बदल देना ही ज्ञान को उपलब्ध हो जाना है । फिर “होना” को “है” (existing) में बदलना है क्योंकि जो क्रियाएं प्रकृति में हो रही है, वह किसी और के अस्तित्व के कारण है और वह अस्तित्व उसी “है” का है ।
केनोपनिषद् में इस बात को बड़ी स्पष्टता के साथ कहा गया है कि देखने के पीछे जिसकी शक्ति कार्य करती है, वास्तव में देखता वही है । हम कह तो देते हैं कि आंखे देख रही है परंतु आंखें तो कैमरे के भी होती है तो क्या कैमरा स्वयं देखता है ? नहीं देखता । देखेगा वही जिसके पास देखने की शक्ति है । इसलिए “करना” को पहले “ होना” में परिवर्तन करना होगा जोकि ज्ञानयोग है, फिर इसी करने को “है” में बदलना होगा, जोकि केवल मानने से ही संभव है । परमात्मा को मानना ही भक्तियोग है ।
संसार का संग ही मोह को उत्पन्न करता है । व्यक्ति स्वनिर्मित संसार के साथ किसी न किसी कामना के वशीभूत होकर मोह के बंधन में बन्ध जाता है । मोह से मुक्त दो ही प्रकार से हुआ जा सकता है - आत्मज्ञान होने से अथवा परमात्मज्ञान होने से ।
इस प्रकार संसार से भिन्न होकर संसार को जानना संभव हो जाता है । संसार को जानते ही संसार से असंग हो जाते हैं । यह ज्ञान है । ज्ञान से कर्म को करने में व्यक्ति सावधान हो जाता है क्योंकि उसके समझ में आ जाता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ । फिर वह कर्म में लिप्त नहीं होता । फिर उससे कर्म सेवा के लिए ही होते हैं । इस प्रकार कह सकते हैं कि संसार की सेवा करना कर्मयोग है, संसार को जानकर स्वयं को जानना ज्ञान योग है और तत्त्वज्ञान से यह स्वीकार कर लेना कि उस शाश्वत परमात्मा को वाणी अथवा किसी अन्य साधन से सिद्ध नहीं कर सकते बल्कि उसे माना ही जा सकता है, उसको मानना भक्तियोग है ।
संसार से असंग होना आपके स्वरूप का ज्ञान करा देता है । संसार की परिवर्तनशीलता को जो देखने वाला है, वह स्वयं अपरिवर्तनशील है । अविनाशी ही विनाशशील को देख सकता है । जो अशाश्वत को देखने वाला है, वही शाश्वत है जिसको संसार के संग के कारण अज्ञात कहा जा रहा था । शाश्वत को जान लेना कि वह संसार से भिन्न है और देखने वाला “मैं” ही हूँ, इस प्रकार मैं जो अपने आपको अशाश्वत शरीर समझ रहा था, वास्तव में वह “मैं” शाश्वत हूँ । यह आत्मज्ञान हुआ ।
स्वामीजी कहते हैं कि आत्मज्ञान होते ही वह पहले स्वयं में जगत् को देखता है और फिर अपने सहित जगत् को परमात्मा में देखता है । सबको परमात्मा में देखना परमात्मज्ञान है । इसी को बोध होना कहते हैं । बोध होने के बाद संसार से “मैं-मेरेपन” का सम्बन्ध नहीं रहता । ज्ञान तो फिर भी विस्मृत हो सकता है परंतु एक बार जब बोध हो जाता है, तब पुनः अज्ञान की ओर जाना असंभव है । अतः आवश्यक है कि ज्ञान प्राप्त कर ही संतुष्ट न हों बल्कि बोध की अवस्था तक पहुंचें । ऐसे में पुनः मोह होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता ।
अपने स्वरूप पर मोह का आवरण मनुष्य ने स्वयं डाल रखा है और वह स्वयं ही इस आवरण को हटाकर स्वयं को देख सकता है । इसके लिए जिस ज्ञान की आवश्यकता मनुष्य को है, वह उसके भीतर विवेक के रूप में पहले से ही उपस्थित है । मन का बुद्धि पर प्रभावी होना विवेक के जाग्रत होने में बाधक है । इसलिए सर्वप्रथम बुद्धि पर से मन के प्रभाव को हटाना होगा और फिर मन पर बुद्धि का प्रभाव पुनर्स्थापित करना होगा । ऐसा करने की क्षमता परमात्मा ने मनुष्य को दी है । अगर मनुष्य अपनी इस क्षमता का समुचित उपयोग नहीं कर पा रहा है तो इसके लिए मनुष्य स्वयं दोषी है, इसके लिए किसी दूसरे को दोष नहीं दिया जा सकता ।
बुद्धि जब स्वयं को मन के प्रभाव से मुक्त कर लेती है, तभी मनुष्य को ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त होती है । बुद्धि के मन पर प्रभाव की पुनर्स्थापना के पश्चात् विवेक का जाग्रत होना आवश्यक है । विवेक होने पर ही मनुष्य ज्ञान की उस अवस्था तक पहुँचता है, जहां पहुँचकर वह अशुभ से मुक्त हो जाता है अर्थात् फिर वह पाप कर्म में लिप्त नहीं होता । विवेक को जाग्रत करने में सत्संग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । सत्संग परमात्मा की कृपा से ही मिलता है ।
बिनु सत्संग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोई फल सिधि सब साधन फूला ।।(मानस-1/3/4)
बुद्धि का मन से अलग हो जाना, स्वरूप पर से मल और विक्षेप का आवरण हट जाना है । इसके बाद जब प्रभु की कृपा से सत्संग मिलने पर विवेक जाग्रत हो जाता है तब अज्ञान का आवरण भी हट जाता है । विवेक जाग्रत होते ही मोह का नाश हो जाता है । फिर पुनः मोह का जीवन में आगमन नहीं हो सकता । गोस्वामीजी मानस में इसी को लेकर लिखते हैं -
होई बिबेकु मोह भ्रम भागा । तब रघुनाथ चरन अनुरागा ।। (मानस-2/93/3)
परमात्मा से संबंध स्थापित हो जाना, उससे प्रेम हो जाना है । यही मनुष्य के मोह का नाश करने वाला है, फिर स्वरूप तक पहुँचकर उसका पुनः मोह में लौटना नहीं होता ।
जिसको इंद्रियों के माध्यम से नहीं जाना जा सकता, जो वाणी का विषय नहीं है, जिसको खोजने के लिए स्वयं से बाहर नहीं जाना पड़ता, उसको जानने के लिए तो भीतर ही जाना पड़ता है । वह अज्ञात तभी तक है, जब तक हमें संसार और शरीर की वास्तविकता का अनुभव नहीं है । व्यक्ति की मानसिकता ऐसी हो गई है कि वह देखने में आ रहे दृश्य में ही अज्ञात को ढूंढ़ता है । वह यह नहीं जानता कि दृश्य को देखने वाला शरीर नहीं है, उसकी इंद्रियाँ नहीं है बल्कि उस दृश्य का दृष्टा तो शरीर के भीतर है । उस दृष्टा को ढूँढने के लिए उसे इस संसार में खोजना बंद करना होगा और स्वयं के भीतर प्रवेश कर खोजना होगा ।
स्वयं को जानने के लिए स्वयं को स्वयं के भीतर ही जाना पड़ता है । संसार से भिन्न होकर, परमात्मा की शरण में जाकर, क्योंकि संसार में रहते हुए स्वयं के भीतर प्रवेश करना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है । इसीलिए गीता के समापन में भगवान अर्जुन को अपनी शरण में आने का कहते हैं । परमात्मा की शरण लेने का अर्थ है, सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देना । शरणागत होने पर ही संसार से दृष्टि पूर्ण रूप से हट जाती है और सांसारिक मोह नष्ट हो जाता है । तभी तो अर्जुन कहते हैं -
नष्टोमोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिश्ये वचन तव ।। गीता -18/73 ।।
हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है । मैं संदेहरहित होकर स्थित हूँ । अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ।
ज्ञान से मोह नष्ट हो जाता है परंतु ज्ञान विस्मृत भी हो सकता है । ज्ञान विस्मृत न हो, इसके लिए आवश्यक है कि इसको बोध में परिवर्तित कर दिया जाए । ज्ञान को बोध बनाना अपने हाथ में नहीं है, यह तो परमात्मा की शरण में जाने से ही संभव है । हाँ, “यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्” यह तो आत्मज्ञान से तब संभव हो जाता है, जब यह ज्ञान आत्मबोध में परिवर्तित हो जाता है।
मैं जानता हूँ कि इस लेख में बहुत कुछ कहने से छूट भी गया है । ज्ञान को कभी भी पूर्ण रूप से कहा नहीं जा सकता, इसको तो केवल अनुभव ही किया जा सकता है ।
भगवान ने गीता में अर्जुन को कहा है -
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
यज्ज्ञातवा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।7/2।।
अर्थात् तेरे लिए मैं यह विज्ञान सहित ज्ञान संपूर्णता से कहूंगा, जिसको जानने के बाद फिर इस विषय में जानने योग्य कुछ भी शेष नहीं रहेगा।
असत की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, यह 'ज्ञान' है । असत के अंतर्गत प्रकृति (परा और अपरा) आती है । प्रकृति (अपरा और परा) और अन्य सब कुछ भी भगवान ही है, यह 'विज्ञान' है । सब कुछ एक भगवान ही है, यह 'विज्ञान सहित ज्ञान' है । विज्ञान सहित ज्ञान का अर्थ है समग्र ज्ञान।
सब कुछ परमात्मा ही है, यह समग्र ज्ञान है । इसको जान लेने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता । जो जाना गया है, उसको वाणी अथवा किसी अन्य माध्यम से भी बतलाया नहीं जा सकता, केवल उसका आनंद ही लिया जा सकता है । अभी तक जिस अज्ञात को पाने का प्रयास हो रहा था, वह सब स्वयं के भीतर ही तो था । हमारा स्वरूप शाश्वत है, एकदम परमात्मा की तरह - “अहम् ब्रह्मास्मि” ।
ज्ञान के समापन पर भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं -
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।। 10/42।।
अर्थात हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंश से इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूं यानि अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंश में है ।
अर्जुन की तरह हमें भी इससे अधिक जानने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमें उतना ही जानना आवश्यक है, जिससे हम पुनः मोह से ग्रस्त न हों ।
सार-संक्षेप
श्रीमदभगवद्गीता एक विलक्षण ग्रंथ है । जिस उद्देश्य को लेकर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान दिया था, वहाँ तक पहुँचने में यह निस्संदेह पूर्ण सफल रहा है । जिस “मोह” को लेकर इस ग्रंथ का शुभारंभ हुआ है, समाप्ति पर यह उस “मोह” से स्थाई रूप से मुक्त करने में सफल हुआ है । अर्जुन ने अपने पारिवारिक मोह को जिस कथित ज्ञान (अज्ञान) की चासनी में लपेट कर भगवान के समक्ष रखा था, श्रीकृष्ण के अकाट्य तर्कों ने उसे निष्प्राण कर दिया था ।
देह की नश्वरता को लेकर प्रारम्भ किए गए ज्ञान को परमात्मा की शाश्वतता तक लेकर जाना कोई हंसी खेल नहीं था । मोहग्रस्त व्यक्ति ऐसे प्रत्येक ज्ञान से दूर भागता है जो उसे स्वयं के संसार से दूर ले जाता हो । परंतु भगवान ने अर्जुन को शरीर और संसार की वास्तविकता से परिचित कराते हुए उसके अज्ञान को केवल दूर ही नहीं किया बल्कि “मामनुस्मर युध्य च” कहते हुए ज्ञानपूर्वक कर्म करते हुए युद्ध करने को प्रेरित भी किया ।
जहां ज्ञान है, वहाँ कर्म करने की स्वतंत्रता का दुरुपयोग नहीं हो सकता । ज्ञान अपने साथ अहंकार को लाता है, जिसके कारण मनुष्य न चाहते हुए भी पुनः संसार और शरीर के मोह में फँस जाता है । अहम् से जब तक मुक्त नहीं होंगे तब तक मोह विभिन्न रूपों में प्रकट होता रहेगा । ज्ञान होने के बाद भी असत् (अहम्) की सूक्ष्म सत्ता बनी रहती है । इस अहम् की तभी समाप्ति होगी जब यह ज्ञान, बोध में परिवर्तित हो जाएगा ।
बोध के लिए असत् से सत् की और जाना होगा अर्थात् सब कुछ सत् ही है उसके अतिरिक्त किसी अन्य की सत्ता नहीं है, अर्थात् “वासुदेव सर्वम्” इस बात को मानना होगा । परमात्मा की सत्ता स्वीकार करते ही मनुष्य के अहम् की समाप्ति हो जाती है और वह उस सत्ता के प्रति शरणागत हो जाता है। इतना जान लेने से मनुष्य को पुनः मोह नहीं होता अर्थात् “यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्”।
।। हरिः शरणम् ।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल