Monday, August 21, 2023

फले सक्तो निबध्यते

 फले सक्तो निबध्यते 

अंग्रेजी की एक प्रसिद्ध कहावत है -"Man is born free but is everywhere in chains." मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र है परंतु प्रत्येक स्थान पर वह बंधन में रहता है। इस संसार के बन्धन से मुक्त होने का नाम ही मुक्ति है। संत कहते हैं कि संसार के बन्धन से मुक्त होना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। उपरोक्त कहावत के अनुसार मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र है अर्थात किसी भी प्रकार के बन्धन से मुक्त है परंतु फिर भी वह प्रत्येक स्थान पर बंधन में क्यों बंध जाता है? मनुष्य जीवन की मुक्ति में यह बंधन ही मुख्य बाधा है । इस प्रश्न का उत्तर जानना सरल नहीं है ।

        कर्म को बंधन का कारण मानें तो फिर एक नया प्रश्न उठ खड़ा होता है कि श्वास लेना, भोजन का पचना, मल मूत्र त्यागना, संसार की सेवा करना आदि भी तो कर्म हैं। क्या ऐसे कर्म भी बंधन पैदा करते हैं ? नहीं, ये कर्म किसी प्रकार का बंधन पैदा नहीं करते । 

      कर्म के बाद कामना को बंधन का कारण माना जा सकता है । परंतु ज्ञान की मुमुक्षा, सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः आदि भी तो कामनाएं है । फिर ये कामनाएं मनुष्य को बंधन में क्यों नहीं डालती? इनको तो मुक्त करने वाला माना जाता है।

    इस प्रकार कई कारण हैं, जिनको प्रत्यक्ष रूप से संसार से बांधने का कारण माना जाता है परंतु वास्तव में ये सब प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष रूप से बंधन के कारण हैं। कर्म, कामना आदि के मूल में फल के प्रति हमारी आसक्ति अर्थात कामना और कर्म के पीछे छिपी फलेच्छा ही हमें संसार के साथ बांधती है। इसी कारण से भगवान ने गीता में "फल में आसक्ति" को ही बंधन का मूल कारण बताया है। इस प्रकार की आसक्ति ही नई नई कामनाओं की जननी है । फिर कामनाओं को पूरा करने के लिए स्थूल शरीर के माध्यम से भिन्न भिन्न प्रकार के कर्म होते हैं।       

              इस ब्रह्मांड में जितना भी अभी तक ज्ञात है, मनुष्य नाम का जीव सबसे अधिक बुद्धिमान और कर्मठ है । बुद्धि का उपयोग वह कितना और किस प्रकार करता है, स्पष्ट रूप से इस बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता क्योंकि उसके जीवन में आने वाली विभिन्न परिस्थितियाँ उसकी मानसिक दशा को प्रतिपल बदलती रहती है । व्यक्ति की मानसिक दशा से उसके द्वारा बुद्धि का उपयोग किया जाना सीधे तौर पर संबंधित है । इसलिए उसकी बुद्धिमत्ता पर बात करने से पहले उसकी कर्मठता पर बात कर लेते हैं । 

             व्यक्ति की कर्मठता का सीधा संबंध उसके द्वारा किए जाने वाले कर्म से है । मनुष्य द्वारा किए जाने वाले कर्म उसके जीवन की परिस्थितियों पर निर्भर है और जीवन में बनने और बिगड़ने वाली परिस्थितियाँ उसके द्वारा किए जाने वाले कर्मों पर निर्भर है । कहने का अर्थ है कि जीवन में हमारे सामने जैसी भी परिस्थिति आती है और जिस प्रकार हम उनसे निबटते हैं, उनके लिए हमारे कर्म उत्तरदायी हैं । 

          ले देकर बात कर्म पर आकर टिक जाती है । लेकिन क्या कर्म ही इन सब परिस्थितियों (अनुकूल और प्रतिकूल) के लिए उत्तरदायी है ? हाँ, कुछ सीमा तक यह सत्य है परंतु पूर्ण सत्य नहीं है ।यदि हम नहीं चाहते कि हमारे जीवन में कोई प्रतिकूल परिस्थिति पैदा हो, तो उसके लिए हमें अपनी मानसिक दशा सुधारनी होगी, क्योंकि जैसी हमारे मन कि स्थिति होगी, कर्म भी हमसे उसी अनुसार होंगे । मानसिक दशा सुधारने के लिए हमें अपनी बुद्धि का उपयोग करना होगा । यहाँ आकर हमारी बुद्धिमता की परीक्षा होती है । बुद्धि का सदुपयोग करते हुए मन को नियंत्रण में लेते ही हमारे कर्म स्वतः ही परिवर्तित हो जाएँगे और जीवन में परिस्थितियां भी परिवर्तित होने लगेगी ।

             इस प्रकार स्पष्ट है कि यदि हम बुद्धिमत्ता पूर्वक कर्म करते हुए कर्मठ बनें तो जीवन में आनंद और शांति को तत्काल उपलब्ध हो सकते हैं । सबसे पहले हम कर्म की बात करते हैं ।  मनुष्य जन्म लेने के पश्चात अपने जीवन में कर्म करना कैसे प्रारंभ करता है ? कर्म का मनुष्य से बड़ा गहरा नाता है । कर्म करते करते मानव जीवन छूटते ही (स्थूल शरीर त्यागने के पश्चात्) विभिन्न जीवों के रूप में जन्मता-मरता है और अंततः उसे पुनः नया मनुष्य जीवन मिलता है । इस मनुष्य जीवन में अगर वह नहीं सम्भला तो उसे फिर से विभिन्न जीवों के शरीर में चक्कर लगाकर आना होगा ।

       जिन कर्मों के फल उसे मनुष्य जीवन के रहते किसी कारण से नहीं मिल सके हैं, वे कर्म ही संग्रहित होकर प्रारब्ध बनाते हैं और यह प्रारब्ध ही नए जीवन में उससे कर्म करवाना प्रारम्भ करता है। जब तक जीव मनुष्य जीवन के बाद विभिन्न योनियों में अन्य जीवों के रूप में भटकता है, तब तक उसके द्वारा केवल प्रारब्धवश ही कर्म होते हैं, उस जीवन में जीव अपनी इच्छा से कोई कर्म नहीं कर सकता । जब पुनः मनुष्य जन्म मिलता है, तब जाकर उसे प्रारब्ध कर्मों के साथ साथ नए कर्म करने की स्वतंत्रता मिलती है। यह चौरासी की अंतिम अवस्था है, जिसको पाकर मनुष्य आवागमन से मुक्ति पा सकता है अन्यथा उसे पुनः चौरासी की यात्रा पर फिर से जाना होगा । इसी जीवन में मुक्ति के लिए उसे अपने कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन लाना होगा । 

        कर्म ही बंधन का कारण है। कर्मों में परिवर्तन, कर्ता अर्थात कर्मों को करने वाला ही कर सकता है। जीवात्मा शरीर का संग करके ही तो कर्मों का कर्ता बनता है। कर्ता मनुष्य स्वयं है और वह जीवन में कर्मों का प्रारंभ पूर्व मानव जीवन से चले आ रहे संस्कारों (प्रारब्ध) से करता है। संस्कार ही वर्तमान जीवन में मनुष्य का स्वभाव बनाते हैं और उसी स्वभावानुसार हम सब कर्म करते हैं। स्वभाव आपके स्वाभाविक कर्म के लिए उत्तरदायी है परंतु स्वाभाविक कर्म के साथ साथ मनुष्य नए कर्म अपनी इच्छा से कर सकता है। ये नए कर्म कर्ता के स्वभाव को परिवर्तित कर सकने में सक्षम है। इसीलिए कहा जाता है कि करने में सदैव सावधान रहें ।

       कर्मों को ही चौरासी लाख योनियों के चक्कर लगाने के लिए उत्तरदायी माना जाता है, क्योंकि सकाम कर्म ही संचित होकर प्रारब्ध बनाते हैं । कैसे ? जिन सकाम कर्मों का मनुष्य को उसी जीवन में परिणाम नहीं मिलता तब कर्मसंग्रह होता है । यही कर्मसंग्रह बंधन पैदा करता है । यह बंधन होता है; संसार के साथ, संसार के भोग पदार्थों के साथ, संसार के शरीरों के साथ । यही कर्मसंग्रह मनुष्य का प्रारब्ध बनाता है, जो उसकी जीवात्मा को चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कराता है । 

                  क्या प्रारब्ध कर्म, कर्मबन्धन पैदा कर सकते हैं ? उत्तर है - नहीं क्योंकि प्रारब्ध कर्मों का परिणाम मिलना अवश्यम्भावी है और जब कर्म का फल मिल जाता है, तो कर्म समाप्त हो जाते हैं । समाप्त हो चूके कर्म कभी संग्रहित नहीं होते । ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर कौन से कर्म, व्यक्ति को बांधते हैं ? केवल वे ही कर्म मनुष्य को बाँधते हैं, जो एक जीवन में परिणाम देने से वंचित रह गए हैं और संचित हो जाते हैं । इसका अर्थ हुआ कि वर्तमान जीवन में किए जाने वाले कर्म मनुष्य के उस जीवन में तो बंधन का कारण नहीं है भले ही वे संग्रहित होकर आवागमन से मुक्त होने में बाधक बन जाते हों । हां, कुछ सीमा तक यह सत्य हो सकता है परंतु बंधन तो है ही, तभी तो उन कर्मों से बंधकर ही तो मनुष्य को नया शरीर मिलता है ।

               मनुष्य अपने वर्तमान जीवन में सकाम कर्म करता ही क्यों है ? सकाम कर्म जिनका पूर्व जीवन में परिणाम नहीं निकल सका था अर्थात् उन कर्मों का फल जो उस समय नहीं मिल पाया था, वे ही नए जन्म में प्रारब्ध कर्म बनकर  फल दे रहे हैं । इसीलिए प्रारब्ध कर्मों से फल को प्राप्त करने में मनुष्य को अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती । कम परिश्रम से अच्छा फल मिलने का पहला परिणाम तो यह होता है कि मनुष्य शीघ्र ही उस फल के प्रति आसक्त हो जाता है । दूसरा परिणाम यह होता है कि मनुष्य को मिले अच्छे फल के कारण उसमें कर्ताभाव पैदा हो जाता है, जो उसके अहंकार का कारण बनता है । इसी को कर्तृत्वभिमान कहते है । 

             इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रारब्ध कर्म से मिले फल से फ़लासक्ति और कर्तृत्वाभिमान, दोनों ही पैदा हो जाते हैं । प्रारब्ध कर्मों से मिले फल में बनी फ़लासक्ति ही मन में नई नई कामनाओं को जन्म देती है और ये कामनाएँ ही मनुष्य को पुनः वैसे ही फल प्राप्ति के लिए नए कर्म करने के लिए प्रेरित करती है । गीता में भगवान श्री कृष्ण ने फलासक्ति को ही बंधन का मुख्य कारण कहा है - ‘अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते’ अर्थात् सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंधता है ।

    यह कर्म-रहस्य है, इसको पूर्ण रूप से समझना बड़ा ही कठिन है । कौन सा कर्म मनुष्य को कहाँ ले जाएगा, निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता । इसलिए स्वामी जी ने कहा है कि कर्मों को करने में सावधान रहो और होने में निश्चिंत । होने में निश्चिंत से आशय है कि जो भी फल मिले उसकी चिंता न करो क्योंकि सावधानी पूर्वक किए गए कर्मों का अनुचित परिणाम मिल ही नहीं सकता । 

               इतने विवेचन से जो समीकरण निकल कर सामने आया है, उसको इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है - 

प्रारब्धकर्म - कर्म - कर्मफल - फलासक्ति - कामना - सकामकर्म - कर्मफल - फलासक्ति - नई कामना - सकामकर्म - वांछित फल नहीं मिला - कर्मसंग्रह — प्रारब्धकर्म । इस प्रकार मनुष्य बार बार विभिन्न जीवों के रूप में जन्म लेते हुए संसार चक्र में घूमता रहता है ।

        यहाँ आकर मन में एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि हमें संसार चक्र से बाहर निकलने के लिए क्या करना चाहिए ? पूरे चक्र को समझने से अनुभव होता है कि कर्मबन्धन से हमारा मुक्त होना आवश्यक है । क्या इसके लिए कर्मों का त्याग किया जा सकता है ? नहीं, कर्मों का त्याग करना संभव ही नहीं है । भगवान स्वयं गीता में कहते हैं कि इस संसार में मनुष्य कर्म करने को विवश है । प्रश्न उठता है कि फिर मनुष्य कर्म किस प्रकार करे कि वे कर्मबंधन पैदा ही न हो ?

        कर्मबन्धन बने ही नहीं, इसका एक मार्ग तो ईशावास्योपानिषद सूझा रही है -

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्त् अँ समा: ।

एवं त्वयि नान्यथेतोSस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।। ईशावास्योपानिषद - 2 ।।

इस जगत् में शास्त्र नियत कर्मों को ईश्वर पूजार्थ करते हुए ही सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए । इस प्रकार किए जाने वाले कर्म मनुष्य में लिप्त नहीं होंगे, इससे भिन्न अन्य कोई मार्ग नहीं है, जिससे कि मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो सके ।

        कर्म करते हुए मनुष्य के मन में सदैव कामना रहती है, उस कामना के वशीभूत होकर वह अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए कर्म करता है । यदि हम यही कर्म परमात्मा की पूजा मानते हुए केवल परमात्मा के लिए ही करें तो ऐसे कर्म कर्मबन्धन पैदा नहीं करते । इसका अर्थ हुआ कि हमारे सभी कर्म परमात्मा को अर्पण होने चाहिए । 

दूसरा मार्ग मुण्डक उपनिषद् इस प्रकार कहते हुए स्पष्ट करती है -

स वेदैतत् परमं ब्रह्म धाम

       यत्र विश्वं निहितं भाति शुभ्रम् ।

उपासते पुरुषं ये ह्यकामा-

    स्ते शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीरा: ।। मुण्डक उपनिषद् -2/1 ।।

निष्काम भाव वाला पुरुष इस परम विशुद्ध ब्रह्म धाम को जान लेता है, जिसमें संपूर्ण जगत् स्थित हुआ प्रतीत होता है । जो भी कोई निष्काम साधक परमपुरुष की उपासना करते हैं, वे बुद्धिमान रजोवीर्यमय इस शरीर का अतिक्रमण कर जाते हैं ।

      ईशावास्योपनिषद (1) कहता है - “त्येन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध:” अर्थात् कर्म करते हुए उनके फल को त्यागपूर्वक भोगो, इसमें आसक्त न हों और मुण्डक उपनिषद् (2/1) निष्काम कर्म करने की बात कहता है । इसी प्रकार ईशावास्योपनिषद (2) कहता है कि शास्त्र नियत कर्मों को ईश्वर की पूजा के लिए करना चाहिए । ये तीनों कथन, एक दूसरे से सम्बन्धित हैं । इन तीनों के कहने का मंतव्य क्रमशः इस प्रकार है - कर्म करते हुए उनके फल को त्यागपूर्वक भोगने से व्यक्ति का कर्म के प्रति राग समाप्त होता है, निष्काम कर्म करने से कर्म से सम्बन्ध विच्छेद होता है और ईश्वर पूजार्थ कर्म करने से फलेच्छा का त्याग होता है ।

        मुण्डक उपनिषद् निष्काम कर्म की बात कहता है । निष्काम कर्म का अर्थ है, बिना किसी कामना के कर्म हों । निष्काम कर्म संसार की सेवार्थ होते हैं । संसार की सेवा के लिए किए जाने वाले कर्म का अर्थ है - अपने लिए कुछ न करना । जब अपने लिए कुछ नहीं किया जाता, तो फल की इच्छा का त्याग स्वतः ही हो जाता है ।  मन में फल की इच्छा रखना ही हमारी कामना है और यह कामना ही हमें कर्म करने को विवश करती है ।

           मन में कामनाओं के उठने का कारण गीता में भी फलासक्ति को ही बताया है ।गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को इसीलिए सभी कर्मों के फल का त्याग करने को कहा है - 

अथैतदप्यशक्तोSसि कर्तुं मद्योगमाश्रित: ।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ।। 12/11।।

अगर मेरे योग के आश्रित हुआ तू इस साधन (परमात्मा के लिए कर्म करना) को भी करने में स्वयं को असमर्थ पाता है, तो मन और इंद्रियों को वश में करके संपूर्ण कर्मों के फल का त्याग कर । 

        स्वामीजी ने इस श्लोक (12/11) की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि कर्म फल का त्याग नहीं किया जा सकता क्योंकि कर्म किए गए हैं तो उस कर्म का कोई न कोई फल तो निश्चित ही मिलेगा । इसलिए फल का त्याग करना संभव ही नहीं है । हाँ, फल की इच्छा का त्याग होना संभव है । इस श्लोक में भगवान का कहने का मंतव्य भी यही है कि मन में फल की इच्छा रखते हुए कोई कर्म न करें । 

         कर्मफल की इच्छा के त्याग से अर्थ है, स्वयं के लिए कर्म न कर संसार की सेवा के लिए कर्म करें । जब कर्म स्वयं की स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं होंगे तो कर्मफल की इच्छा का त्याग अपने आप ही हो जाएगा । स्वामीजी कहते हैं कि कर्म करने से एक तो उनको करने का राग समाप्त होगा और दूसरा स्वयं के लिए कर्म न कर संसार की सेवा के लिए कर्म करने से कर्मफल की इच्छा का त्याग होगा । इस प्रकार निष्काम कर्म करने से कर्मबन्धन  भी नहीं होगा । जब मन में फल की इच्छा नहीं होगी, तब फिर कर्म करने में भी व्यक्ति शांत रहेगा । फिर जैसा भी कर्मफल होगा, वह उसको अशांत नहीं कर पाएगा । इसी बात को भगवान आगे कहते हैं -

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मलत्यागस्त्यागाच्छान्तिनन्तरम् ।।12/12।।

मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से परमेश्वर का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति की प्राप्ति हो जाती है । 

       कर्मों के फल की इच्छा के त्याग से मनुष्य तत्काल ही शांति को उपलब्ध हो जाता है । शान्त जीवन ही मनुष्य को परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करा सकता है ।

        हमारे कर्म ही हमारे जीवन में बनने वाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । फल की इच्छा मन में रखे बिना किए जाने वाले कर्मों में एक प्रकार की निश्चिंतता रहती है । जीवन में शांति का मिलना उसी निश्चिंतता का परिणाम है । जीवन की शांति ही मनुष्य को निर्भय और नि:शोक बनाती है । गोस्वामीजी कहते हैं -

       तुलसी भरोसे राम के, निर्भय होकर सोय ।

       अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय ।।

      जीवन में जो कुछ भी होना है, वह पूर्व मनुष्य जीवन में किए गए कर्मों के आधार पर निश्चित हो चुका है , फिर इस जीवन में सब कुछ भगवान के भरोसे क्यों न छोड़ दिया जाए ? जो होना है, वह तो होकर रहेगा और जिसे नहीं होना है, वह कभी भी नहीं हो पाएगा । कहने का अर्थ है कि फल की इच्छा न रखें, कर्म करते रहें और परिणाम परमात्मा पर छोड़ दें ।

         गीता में भगवान कहते हैं -

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकिम् ।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।। गीता-5/12।।

      कर्मयोगी कर्मफल का त्याग करके नैष्ठिक शांति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंधता है । कर्मफल का त्याग का अर्थ है, बिना फल की इच्छा के कर्म करना । कहा जाता है कि मन में फल की इच्छा नहीं होगी, ऐसे में कर्म कैसे किए जा सकते हैं ? सही है, कर्म करने की कामना की जनक फलेच्छा ही है । फल की इच्छा का त्याग करने से मंतव्य, “मन में चाहा गया फल ही येन केन प्रकारेण मिले”, इस इच्छा के त्याग से है । इस प्रकार का त्याग हो जाने से ही मनुष्य शान्त होकर कर्म करता है । फिर फल अनुकूल मिले अथवा प्रतिकूल, वह विचलित नहीं होता, सदैव शांत बना रहता है ।

     इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि मनुष्य के जीवन में जो विभिन्न बंधन है, उन सबके मूल में कामना ही है । कामना का सीधा संबंध मुख्य रूप से फलेच्छा से ही है । जब मन के भीतर किसी विशेष फल की इच्छा नहीं होगी तो फिर कर्म करने की प्रेरणा भी नहीं मिलेगी । कर्म प्रेरणा न होने से कर्मबन्धन भी नहीं होगा । कर्मप्रेरणा और कर्मबन्धन का कारण गीता में  भगवान ने स्पष्ट किया है -

      ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।

      करणं कर्म कर्तेति त्रिविध: कर्मसंग्रह: ।।(गीता -18/18) 

      ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय; ये तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है । कर्ता, करण और क्रिया; ये तीन प्रकार का कर्मसंग्रह है ।

      ज्ञान अर्थात् जिससे जाना जाता है, ज्ञेय अर्थात् जो जानने में आता है और जिसको ज्ञान होता है यानि जिसके द्वारा जाना जाता है, उसे परिज्ञाता (ज्ञाता) कहा जाता है । परिज्ञाता का अर्थ है, जिसको ज्ञान हो जाने पर स्फुरणा होती है । करण का अर्थ है; वे साधन जिनसे कर्म किए जाते हैं जैसे कर्मेन्द्रियाँ । करण से जो प्रयास किया जाता है, उसको कर्म कहते हैं । करण और उससे किए जाने वाले प्रयास (क्रिया) से जो करने का संबंध जोड़ता है, उसको कर्ता कहा जाता है । 

           मनुष्य (ज्ञाता) को सबसे पहले ज्ञेय का ज्ञान (ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से) होता है । फिर इस त्रिपुटी से मन के भीतर कर्म करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है । कर्मप्रेरणा से करण (कर्मेन्द्रियों) के माध्यम से क्रिया संपन्न होती है । क्रिया और उससे मिले परिणाम से ज्ञाता जब अपना संबंध जोड़ लेता है, तब वह कर्ता बन जाता है । कर्ताभाव एक ओर तो अभिमान पैदा करता है तथा दूसरी ओर उसी फल को बार - बार पाने की इच्छा करता है । यह फलेच्छा ही पुनः उसी क्रिया को करने की प्रेरणा देती है । इस प्रकार हुई कर्मप्रेरणा पुनः नए कर्म करवाती है । इस प्रकार फलेच्छा ही मूलरूप से कर्मबन्धन पैदा करती है । 

          हम अपने जीवन में बहुत कुछ करने की सोचते हैं, यहाँ तक कि अपनी संतान को भी कैसा बनाना है, उतनी दूर तक की भी सोच लेते हैं । इस सोच के मूल में हमारी कामनाएं ही होती है । कामना को किसी एक शब्द में सीमित नहीं किया जा सकता फिर भी अल्प रूप से कहा जा सकता है कि मन के भीतर दबी फलेच्छा ही बाहर हमारी कामना बन कर प्रकट होती है । प्रत्येक कामना के पीछे कोई न कोई संकल्प होता है । यहाँ संकल्प कामना का कारण है और कामना संकल्प का कार्य । संकल्प सीधा सीधा फल की इच्छा से सम्बन्धित है । इस प्रकार फलेच्छा और कामना परोक्ष रूप से एक दूसरे से सम्बन्धित हुए ।

                   इस कामना के कई रूप हैं । कामेच्छा से येन केन प्रकारेण किसी स्त्री का संग प्राप्त करने की कामना वासना कहलाती है । किसी एक व्यक्ति से हम कोई कामना रखते हैं तो वह अपेक्षा कहलाती है, जैसे पुत्र से कामना रहती है कि वह हमारा कहना माने । इसको हम पुत्र से अपेक्षा रखना कह देते हैं । जब धन की कामना मन में होती है तब उस धन के प्रति इतने अधिक आसक्त हो जाते हैं कि हम उसके संग्रह में जुट जाते हैं । यह अधिक से अधिक धन संग्रह की कामना लोभ कहलाती है । परमात्मा से किसी वस्तु, पदार्थ अथवा मन की इच्छा पूरी करने की कामना करना हमारा मनोरथ कहलाती है । एक भी कामना पूरी न हो तो क्रोध पैदा होता है जोकि अंततः मनुष्य के पतन का कारण बनता है ।

           ख़ैर ! मुख्य बात यह है कि कामना के पीछे व्यक्ति द्वारा जीवन में सदैव सुख मिलते रहने की इच्छा ही है, जिसके लिए वह कर्म करता है । कर्म का फल वह अपने भीतर पहले सोचता है और फिर उस फलेच्छा को पूरा करने के लिए कर्म करता है । कर्म का फल इच्छानुरूप मिल जाता है तो फिर नई कामनाओं का जन्म होता है और इच्छानुरूप फल नहीं मिला तो ये कर्म ही बंधन बन जाते हैं और मनुष्य को विभिन्न योनियों में घुमाते रहते हैं । इस प्रकार के आवागमन  से मुक्त होने के लिए प्रथम आवश्यकता है कि हमारा जीवन कामनाशून्य हो । कामनाशून्य जीवन के लिए हमारे भीतर फलेच्छा नहीं रहनी चाहिए । फलेच्छा न रहे, इसके लिए निष्काम कर्म करें । अतः  स्वयं के लिए कुछ भी न करें बल्कि हमारे द्वारा संसार की सेवा के लिए ही कर्म हों, इस बात का विशेष ध्यान रखें ।

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

Thursday, August 10, 2023

धर्म - अधर्म

 धर्म-अधर्म

               मनुष्य को अन्य जीवों से भिन्न बनाने में धर्म की मुख्य भूमिका है । प्रकृति में पाए जाने वाले प्रत्येक जड़ और चेतन का एक निश्चित धर्म होता है,  जिसके दो लक्षण होते हैं - स्वभाव और आचरण। धर्म से ही उसका स्वभाव और आचरण निश्चित होता है । व्यक्ति का स्वरूप वह होता है, जो वास्तव में वह स्वयं है और स्वभाव वह होता है, जैसा वह अपने जीवन में दिखलाई देता है । सभी का स्वरूप समान होता है परंतु स्वभाव भिन्न भिन्न होता है । संसार के प्रति व्यवहार ही उसका आचरण कहलाता है। मनुष्य के स्तर पर बुद्धि और विवेक के कारण उसके व्यवहार में भिन्नता दिखाई देती है। यह व्यवहार की भिन्नता ही उसके दिखलाई पड़ने वाले स्वरूप में भी दृश्य रूप से परिवर्तन कर देता है।

              धर्म उसको अपने वास्तविक स्वरूप तक पहुंचने में सहयोग करता है और अध्यात्म उसे उसके मूल स्वरूप का बोध कराता है । उद्देश्य की समानता के कारण धर्म और अध्यात्म बाहर से एक जैसे दिखाई देते हुए भी आपस में सूक्ष्म भिन्नता रखते हैं। धर्म का क्षेत्र बाहरी है जबकि अध्यात्म का क्षेत्र आन्तरिक है। धर्म का उद्देश्य मनुष्य को उसके व्यवहार का (स्वभाव और आचरण) और अध्यात्म का उद्देश्य उसे उसके स्वरूप का ज्ञान या बोध कराना है।

                 कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में दुर्योधन पितामह भीष्म के सामने यह स्वीकारता है कि - 

             जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।

             केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।।

                              (गर्गसंहिता, अश्वमेध पर्व- 50/36) 

            दुर्योधन कह रहा है कि पितामह! मैं यह जानता हूँ कि धर्म क्या है ? परंतु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है । मैं यह भी जानता हूँ कि अधर्म क्या है ? अधर्माचरण क्या है ? किन्तु मेरी यह विडम्बना है कि मैं स्वयं को उससे निवृत नहीं कर पाता।मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ ।

       स्वामीजी कहते हैं कि दुर्योधन देव का नाम अवश्य ले रहा है, परंतु वास्तव में उसकी कामना ही उसे अधर्म की और जाने को प्रेरित कर रही है । अपनी कामना को येन केन प्रकारेण पूरा करने के लिए व्यक्ति अधर्म का आचरण करता है । अधर्म की उत्पत्ति कैसे हुई और अधर्म के आचरण का क्या परिणाम होता है ?

       हमारे जितने भी शास्त्र हैं, उनमें विशेष रूप से धर्म की चर्चा की गई है,  इसलिए इनको धर्मग्रन्थ कहा जाता है । जिन्होंने अधर्म का रास्ता चुना था, उनका वर्णन भी शास्त्रों में आता है परंतु अधर्माचरण करने वालों की सदैव ही पराजय हुई है । किसी भी शास्त्र ने अधर्मी को विजयी होना नहीं बताया है । अधर्म पर सदैव ही धर्म की विजय होती आई है और भविष्य में भी होती रहेगी ।

           हमारे सनातन धर्म शास्त्रों में धर्म के साथ साथ अधर्म के बारे में भी कहा गया है परंतु वह सब निषेध की दृष्टि से कहा गया है । स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज अपने प्रवचनों में प्रायः विधि और निषेध की बात किया करते थे । वे कहा करते थे कि आपका स्वरूप जन्म से ही शुद्ध है, आपको इसको शुद्ध करने की आवश्यकता नहीं हैं । यदि हम स्वयं में अशुद्धि नहीं आने दें तो हमारा स्वरूप स्वतः सिद्ध शुद्ध ही है ।जीवन में अशुद्धता लाने से स्वभाव बिगड़ जाता है जिससे स्वरूप भी अशुद्ध नज़र आने लगता है । स्वभाव को सुधारने के दो रास्ते हैं - विधि और निषेध । विधि-विधान के अंतर्गत वे साधन आते हैं जिनका उपयोग करके हम अपने स्वभाव को सुधार सकते हैं, जिससे स्वरूप स्वतः ही शुद्ध नज़र आने लगेगा । 

               दूसरा मार्ग है, निषेध का । निषेध से तत्पर्य है, किसी प्रकार के साधन को अपनाने की आवश्यकता नहीं है बल्कि केवल अनुचित को जीवन में स्थान न देना है । जो अशुद्धियाँ आती है, वह हमारे स्वभाव में आती है, स्वरूप में नहीं । स्वभाव को विकारग्रस्त होने ही न दें, तो फिर उसके अशुद्ध होने का प्रश्न ही नहीं रहेगा । यह मार्ग निषेध का मार्ग है । उदाहरण स्वरूप यदि हम असत्य भाषण नहीं करेंगे तो हमसे सत्य भाषण स्वतः ही होने लगेगा । यहाँ हमने असत्य का निषेध किया है । धर्म को अपनाने के लिए विधि विधान की आवश्यकता होती है परंतु अधर्म का निषेध करते ही जीवन में धर्म स्वतः ही अवतरित हो जाता है । कहने का अर्थ है कि निषेध के मार्ग पर चलने में किसी भी प्रकार के प्रयास और परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती, केवल अनुचित को अपने जीवन में प्रवेश नहीं होने देना है । इसके लिए किसी विशेष विधि-विधान की आवश्यकता नहीं पड़ती।

           धर्म के लिए हमें हमारे जीवन में अधर्म का निषेध करना है । अधर्म हमें संसार की जटिलता में उलझा देता है । जैसे सत्य बोलने पर आप निश्चिंत रहते हैं परंतु असत्य बोलकर निश्चिंत नहीं रह सकते । एक असत्य को छिपाने के लिए आपको ढेर सारे असत्य बोलने ही पड़ेंगे । असंख्य असत्य बोलने का पाप अपने सिर पर ढोकर भी हम जीवन में बोले गए एक असत्य को कभी भी सत्य सिद्ध नहीं कर सकते । रावण ने अपने आप को एक साधु के वेश को धारण कर उसके पीछे छुपकर पाप किया था, जिसका परिणाम क्या हुआ ? आप सब जानते ही हैं । सत्य तो रावण का रावण बने रहना ही था परंतु साधु रूप के पीछे छुपते ही उसका साधु होना असत्य हो गया । 

     सभी सनातन धर्म शास्त्र हमें धर्म के मार्ग पर चलने का कहते हैं । जब जब हमने धर्म का मार्ग छोड़ा, तब तब हमारा पतन ही हुआ है । धर्म को पुनर्स्थापित करने के लिए परमात्मा को अवतार लेना पड़ता है । हमारे शास्त्र और सद्गुरू हमें धर्म का आचरण करने को प्रेरित करते हैं । हम उनकी बातों को कितनी गंभीरता से लेते हैं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है । इस लेख में हम श्रीमद्भागवत महापुराण में धर्म अधर्म के बारे में जो निर्देशित किया गया है, उस पर चर्चा करेंगे । 

          श्रीमद्भागवत महापुराण ग्रन्थ ज्ञान देने के साथ साथ हमें अपने इतिहास से भी परिचित कराता है । अपने स्वर्णिम इतिहास से यदि हम कुछ सीख नहीं सकते तो कमी हमारे में है, ग्रंथ अथवा इतिहास में नहीं । जब तक मनोयोग से शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया जाएगा तब तक हम उनके कथन को समझ ही नहीं पाएंगे । कई बातें शास्त्रों में सांकेतिक रूप से बताई गई हैं, जबकि कई कथाओं के माध्यम से । मेरे एक मित्र श्रीमद्भागवत महापुराण को कहानियों का भंडार कहते हैं । मैं कहता हूँ, अवश्य ही इस ग्रंथ में कथाएँ हैं, परंतु कहानियां नहीं है । कहानियां प्रायः काल्पनिक होती है, जबकि कथाएँ सत्य । कहानी कहती है कि “ क्या हुआ था ?” जबकि कथा हमें बताती है कि “क्यों हुआ था ?” कहानियां प्रायः प्रश्न खड़ा कर देती है, परंतु उनका उत्तर नहीं मिलता । प्रश्न कथा पर भी खड़े हो सकते हैं परंतु कथा के पास उन खड़े किए गए प्रश्नों में प्रत्येक प्रश्न का उत्तर होता है । कहानी आपको संतुष्ट नहीं करती, जबकि कथा से असंतुष्टि कहीं टिकती नहीं है ।

         महाभारत युद्ध की कहानी तो मात्र इतनी सी है कि एक परिवार के दो चचेरे भाइयों के मध्य राज्य के उत्तराधिकार को लेकर विवाद था । उस विवाद के चलते इतिहास का भीषणत्तम युद्ध हुआ, जिसमें कई मर्यादाएं टूटी । परंतु महाभारत की कथा उससे भी आगे जाकर उस युद्ध का कारण बतलाती है । महाभारत का युद्ध कोई साधारण युद्ध नहीं था । युद्ध धर्म-अधर्म के मध्य था । भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध टालने का प्रयास भी किया था । परंतु जब दोनों पक्षों के मध्य समझौते की समस्त सम्भावनाएँ समाप्त हो गई थी तब युद्ध के माध्यम से निर्णय करने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं रह गया था । धर्म की पुनर्स्थापना के लिए युद्ध होना अवश्यंभावी हो गया था । कुरुक्षेत्र की इसी युद्धभूमि में ही भगवान ने अर्जुन को ज्ञान दिया था ।

            तो हम बात कर रहे थे, धर्मग्रन्थों में वर्णित धर्म की । धर्म के साथ साथ अधर्म की चर्चा भी कहीं कहीं श्रीमद्भागवत महापुराण में भी आती है । उचटती दृष्टि से देखने और पढ़ने से प्रायः ऐसे विषय पर हमारी दृष्टि जाती नहीं है । मनोयोग से पढ़ने पर यह बात समझ में आती है कि इस ग्रंथ के प्रत्येक श्लोक से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है । चलिए ! इस कथन के साथ हम आज एक नई कथा के साथ श्रीमद्भागवत महापुराण में प्रवेश करते हैं । बात करूँगा भागवतजी के मात्र चार श्लोकों की, परंतु ये चारों श्लोक बड़े महत्वपूर्ण हैं । विदुरजी को यह कथा मैत्रेय जी सुना रहे हैं ।

              मैत्रेयजी कह रहे हैं कि हे विदुरजी ! श्रीहरि के अंश से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए । फिर अपने अंश से ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम सनकादि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति नाम के पुत्र उत्पन्न किए । ब्रह्माजी के इन ब्रह्मचारी नैष्ठिक पुत्रों ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश ही नहीं किया, अतः उनके कोई संतान नहीं हुई ।  श्रीहरि का ब्रह्माजी को उत्पन्न करने का उद्देश्य सृष्टि को बढ़ाना था परंतु जब सभी पुत्र ब्रह्मचारी हो गए तो सृष्टि विस्तार पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक ही था । अंततः ब्रह्माजी ने अपने अंश से एक और पुत्र स्वायम्भुव मनु उत्पन्न किया जिन्होंने दूसरे अंश शतरूपा से विवाह कर इस सृष्टि को आगे बढ़ाया । स्वायम्भुव मनु से उत्पन्न होने के कारण ही हमें मनुष्य नाम मिला है । इन्हीं मनु और शतरूपा के दो पुत्र हुए - उत्तानपाद और प्रियव्रत ।

              स्वायम्भुव मनु ने अपने बड़े पुत्र उत्तानपाद को राज्य सौंपकर अपनी पत्नी शतरूपा के साथ वन में जाकर तपस्या की थी । उनकी तपस्या  से भगवान प्रकट हुए, जिनसे उन्हें इच्छानुसार वरदान मिला कि त्रेता युग में जब वे दशरथ और कौशल्या के रूप में जन्म लेकर अयोध्यापति बनेंगे, तब वे उनके यहां पुत्र (राम) के रूप में अवतार लेंगे। कालांतर में त्रेता युग में श्रीहरि ने उनकी इच्छा पूरी करते हुए अवधपति दशरथ के यहाँ पुत्र रूप में अवतरित हुए ।

            इन्हीं मनु महाराज के बड़े पुत्र उत्तानपाद के दो पत्नियां थी - सुरुचि और सुनीति । जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है - सुरुचि अर्थात् अच्छी रुचि वाली, जिसमें कोई भी रुचि ले सकता है अर्थात् आकर्षक । इसी आकर्षण के कारण उत्तानपाद की आसक्ति दोनों पत्नियों में से एक, सुरुचि में अधिक थी । दूसरी पत्नी - सुनीति, अर्थात् नीतिगत आचरण करने वाली यानी जिसकी नीति सही हो । उत्तानपाद उसे दासी जितना भी महत्व नहीं दे रहे थे । विषय भोगों में सदैव रमण करने वाले की भला नीति के प्रति आसक्ति क्योंकर होगी ? आज इस युग में तो प्रायः सभी अनीति के मार्ग पर ही चल रहे हैं । नीति के मार्ग पर तो केवल वही चलेगा, जो वास्तव में धर्मावलम्बी हो ।

          उत्तानपाद भले ही स्वायम्भुव मनु के पुत्र हो, परंतु थे तो एक मनुष्य ही । जैसे एक साधारण मनुष्य की आसक्ति सुंदर स्त्रियों में अधिक होती है, वैसे ही उत्तानपाद भी सुरुचि के प्रति आसक्त था । सुरुचि के पुत्र का नाम था, उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम था - ध्रुव । यह वही ध्रुव हैं, जिनको ब्रह्मांड में अटल स्थिर स्थान मिला है, जिनकी सप्तऋषि सहित हमारा सौरमंडल और हमारे सूर्य जैसे अनेकों तारे परिक्रमा करते हैं ।आज भी हम उनको रात्रि के समय उत्तर दिशा में आसानी से देख सकते हैं । आख़िर ध्रुव को यह परम पद कैसे मिला ?  इसकी चर्चा हम फिर कभी करेंगे । आज तो हम उस “अधर्म” की चर्चा करेंगे, जिसका निषेध कर हम अपने वास्तविक स्वरूप तक पहुँच सकते हैं ।

              इस लेख के प्रारंभ में मैने ब्रह्माजी के नैष्ठिक ब्रह्मचारी पुत्रों की चर्चा की थी, जिन्होंने विवाह नहीं किया । विवाह नहीं किया तो संतान भी नहीं हुई । उनके एक अन्य पुत्र स्वायम्भुव मनु ने शतरूपा से विवाह किया, जिससे उनका वंश आगे चला । भागवत कहती है कि इन सब के अतिरिक्त भी ब्रह्माजी के एक पुत्र और था - अधर्म। भागवत में इस अधर्म के वंश का वर्णन करते हुए मैत्रेय जी कह रहे हैं -

मृषाधर्मस्य भार्याऽऽसीद्दम्भं मायां च शत्रुहन् ।

असूत मिथुनं तत्तु निर्ऋतिर्जगृहेऽप्रजः ।। भागवत - 4/8/2 ।।

अधर्म भी ब्रह्माजी का ही पुत्र था, उसकी पत्नी का नाम था मृषा । उनके दम्भ नामक पुत्र और माया नाम की कन्या हुई । उन दोनों को निर्ऋति ले गया, क्योंकि उसके कोई संतान नहीं थी । 

       अधर्म अर्थात् धर्म का विलोम यानी धर्म के विरुद्ध । अधर्म की पत्नी का नाम, मृषा । मृषा का अर्थ है - मिथ्या,असत्य यानि झूठ । मूल रूप से असत्य ही अधर्म का आधार है । बिना असत्य का साथ मिले अधर्म अपने वंश का विस्तार नहीं कर सकता । जब असत्य और अधर्म मिल जाते हैं ; एक हो जाते हैं तब मनुष्य में माया अर्थात् अज्ञान और दम्भ पैदा हो जाते हैं । माया मनुष्य को सत्य से दूर ले जाती है क्योंकि माया स्वयं असत् है । इसीलिए माया को अधर्म और असत्य की पुत्री बताया गया है । असत्य और अधर्म से जो पुत्र हुआ, उसका नाम है - दम्भ । दम्भ कहते हैं, झूठे अभिमान को । अधर्म और असत्य के मार्ग पर चलते हुए जो कुछ भी व्यक्ति अर्जित करता है, उसका उसे अभिमान हो जाता है । फिर अर्जित किए जाने वाला चाहे धन हो अथवा धन से पैदा हुआ बल ।

      अधर्म और मृषा के दोनों बच्चों को निर्ऋति ले गया क्योंकि उसके कोई संतान नहीं थी । निर्ऋति का अर्थ है, जो ज्ञानमय आचरण से शून्य हो, अविद्या अर्थात् चेतना से रहित जड़ प्रकृति । निः + ऋति: = आत्मा का पतन कराने वाली । जो ज्ञानमय आचरण नहीं करता, वही माया से भ्रमित होकर दम्भाचरण करता है ।

       निर्ऋति को भागवतजी में संतानहीन बताया गया है । सत्य है, अज्ञानी के पास न तो ज्ञान होता है और न ही किसी के द्वारा दिए गए ज्ञान को वह आचरण में ही लाता है । जिसके पास कुछ भी नहीं होता, वही माया के जाल में फंसकर अहंकार पाल बैठता है । निर्ऋति तो अज्ञानी है और अज्ञानी के पास ही माया और दम्भ रह सकते हैं । ज्ञानी तो माया के प्रभाव में आता नहीं है, फिर वह दंभ किस बात पर करे ? 

                इस प्रकार संतानहीन निर्ऋति के पास संतान के रूप में ये दोनों (माया और दंभ) आ गए हैं । इन दोनों के आ जाने से लोभ और निकृति (मूर्खता, शठता) का पैदा होना अवश्यम्भावी है । भागवतजी में बड़े ही सुंदर ढंग से इस बात को कहा गया है । मैत्रेयजी कह रहे हैं - 

तयो: समभवल्लोभो निकृतिश्च महामते ।

ताभ्यां क्रोधश्च हिंसा च यद्दुरुक्ति: स्वसा कलि: ।। भागवत -4/8/3 ।।

       दम्भ और माया से लोभ और निकृति (शठता) का जन्म हुआ । उनसे फिर क्रोध और हिंसा उत्पन्न हुए । फिर उनसे कलि (कलह) और दुरूक्ति (गाली) उत्पन्न हुए ।

     अज्ञानी के पास जब माया आ गई तो उसकी वृद्धि करने के लिए मन में लोभ का आना स्वाभाविक है । लोभ से कामनाओं का जन्म होता है और कामनाएं पूरी हो जाए तो फिर लोभ बढ़ता है । लोभ से उत्पन्न हुई कामनाएं पूरी न हो तो क्रोध का जन्म होता है जो व्यक्ति को हिंसक बना देता है । क्रोध व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति को छीन लेता है । इस शक्ति के क्षीण होने से व्यक्ति को भले-बुरे का अंतर समझ में नहीं आता । ऐसी नासमझी को बुद्धि का भ्रमित होना कहते हैं । इस प्रकार अधर्म और मृषा का वंश माया- दंभ से लोभ- शठता होते हुए क्रोध- हिंसा तक बढ़ जाता है । 

          लोभ और मूर्खता, इन दोनों के कारण क्रोध और हिंसा का जन्म होता है । क्रोध और हिंसा के कारण कलह और दुरूक्ति का जन्म होता है । मनुष्य अपने क्रोध के वशीभूत होकर किसी से भी लड़-झगड़ पड़ता है । प्रत्येक प्रकार की कलह में दुरुक्ति अर्थात् गाली-गलौज का होना स्वाभाविक है । इस प्रकार कलह और दुरूक्ति के कारण व्यक्ति के सामाजिक संबंध तार-तार हो जाते हैं । ऐसे में समय-असमय आवश्यकता पड़ने पर ऐसे व्यक्ति का कोई सहयोगी नहीं होता । ऐसा मनुष्य अपने स्वार्थ के कारण समाज में अलग थलग पड़ जाता है ।

       क्रोध और हिंसा के कारण कलह और गाली गलौज इन दिनों आम होता जा रहा है क्योंकि अधर्म का बोलबाला बढ़ता ही जा रहा है । छोटी-छोटी बात पर लोग झगड़ पड़ते हैं और बात मरने-मारने तक पहुँच जाती है । इस प्रकार एक भय का वातावरण बन जाता है । आपस का वैमनस्य दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है, जिसके कारण कभी भी दोनों पक्षों में बात मारपीट तक पहुँच सकती है, जिस कारण से किसी न किसी को जान से हाथ धोना ही पड़ता है । आज के समय अधर्म इतना बढ गया है कि किसी व्यक्ति की हत्या होना सामान्य बात हो गई है । इस प्रकार स्पष्ट है कि दुरूक्ति और कलि से भय और मृत्यु का जन्म होता है । मैत्रेयजी अगले श्लोक में यही बात विदुरजी को कह रहे हैं -

दुरुक्तौ कलिराधत्त भयं मृत्युं च सत्तम ।

तयोश्च मिथुनं जज्ञे यातना निरयस्तथा ।। भागवत - 4/8/4 ।।

फिर दुरूक्ति से कलि ने भय और मृत्यु को उत्पन्न किया । फिर इन दोनों के संयोग से यातना और निरय (नरक) का जोड़ा उत्पन्न हुआ । 

       जिस समाज में भय और मृत्यु का वातावरण बना रहता है, वहाँ के लोग सुखपूर्वक नहीं रह सकते । लगातार विपरीत परिस्थिति जीवन में यातना ही देती है । यातना भोगते हुए जीना ही जीतेजी नरक में निवास करना है । इस श्लोक में मैत्रेयजी कहते हैं कि कलि और दुरूक्ति से भय और मृत्यु पैदा होते हैं । भय और मृत्यु के संयोग से यातना और निरय अर्थात नरक उत्पन्न होते हैं ।

         कहने का अर्थ है कि अधर्म के रास्ते पर चलने से जीवन दुःखमय बन जाता है । दुःखमय जीवन यातना भोगते रहने और नरक में वास करने से कम नहीं है । प्रश्न उठता है कि फिर व्यक्ति अधर्म के रास्ते पर क्यों चल पड़ते है ?

         मनुष्य को अधर्म की ओर चलने के लिए प्रेरित करती है, उसकी आसुरी वृत्ति और उसका तामसिक स्वभाव । तामसिक व्यक्ति अधर्म को ही धर्म मान लेता है और असत्य को ही जीवन का सत्य समझ लेता है । इन दोनों के कारण ही वह यातना और नरक भोगने तक की स्थिति में पहुँच जाता है । उसका न तो कोई मित्र होता है और न ही कोई संबंधी । जीवन में वह कभी भी संतुष्ट नहीं रह पाता और न ही कभी उसे शांति उपलब्ध होती है । तामसिक बुद्धि उसे अधर्म और धर्म में अंतर नहीं समझा सकती । भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को कह रहे हैं -

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।

सर्वार्थान् विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी ।।18/32 ।।

अर्थात् हे पार्थ ! तमोगुण से घिरी बुद्धि अधर्म को “यही धर्म है” ऐसा मान लेती है । वह तामसिक बुद्धि संसार में सभी को विपरीत समझती है ।

          यह अधर्म का वंश इतना बलशाली है कि उससे बाहर निकलना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है । विदुरजी को भागवत में मैत्रेयजी कह रहे हैं -

संग्रहेण मयाऽऽख्यातः प्रतिसर्गस्तवानघ ।

त्रि:श्रुत्वैतत्पुमान् पुण्यं विधुनोत्यात्मनो मलम् ।। भागवत - 4/8/5 ।।

इस प्रकार यह संक्षेप में अधर्म का वंश है । इस प्रकार यह कथन अधर्म का त्याग कराकर पुण्य संपादन में हेतु बनता है और मनुष्य के मन की मलीनता को दूर कर देता है ।। 

       जो कोई भी इस अधर्म और असत्य के वंश को पूर्ण रूप से जान और समझ लेता है, वह अधर्म का मार्ग त्यागकर धर्म की राह पकड़ लेता है । धर्म क्या है ? धर्म मानुष जीवन का एक पुरुषार्थ है । जीवन में चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । 

            धर्म का शाब्दिक अर्थ है - जो धारण करने योग्य हो । धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है अन्यथा मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं है । धर्म मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थों में से एक पुरुषार्थ है । वैसे धर्म से अर्थ है - कर्तव्य पालन, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्गुण आदि । जो मनुष्य अपने जीवन में धर्म के इन अंगों को धारण कर उसी अनुरूप आचरण करता है, सही मायने में वही धार्मिक है ।

               हम पुरुषार्थ से प्राप्त होने वाली चार सिद्धियों, यथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को दो समूहों में रख सकते हैं | पहले समूह में वे सिद्धियाँ आती हैं जो प्रयास करने पर उसी जीवन में प्राप्त हो जाती हैं | इस समूह में धर्म और मोक्ष को रखा जा सकता है | दूसरा समूह ऐसी सिद्धियों का है जिनके लिए कठोर पुरुषार्थ करने के बाद भी एक और जन्म का इंतजार करना पड़ सकता है | इस समूह में अर्थ और काम नामक दो सिद्धियों को रखा जा सकता है | 

              इसका सीधा सा अर्थ है कि जो सिद्धियाँ आपके शरीर को कथित सुख प्रदान करने वाली  होती है, उनको प्राप्त करने के लिए कठिन पुरुषार्थ करने के बाद भी लम्बा इंतजार करना पड़ सकता है | इसके अंतर्गत काम और अर्थ पुरुषार्थ आते हैं । जबकि वे सिद्धियाँ जो आपको आत्मिक सुख अर्थात आनंद देने वाली होती है, उन्हें आप इसी जीवन में कठिन पुरुषार्थ से तत्काल ही प्राप्त कर सकते है | इसके अंतर्गत धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ आते हैं|धर्म और मोक्ष को इस जन्म में ही पूर्ण भाव से प्रयास कर प्राप्त किये जा सकते हैं | अतः विवेकी पुरुष वही है, जो इस बात को जीवन में समय रहते समझ जाये और अर्थ व काम प्राप्त करने के लिए प्रयास करने के स्थान पर धर्म और मोक्ष की प्राप्ति का प्रयास करे | तभी उसके मनुष्य होने की सार्थकता है |

         इतने विवेचन से निष्कर्ष निकलता है कि अधर्म का त्याग कर धर्म की राह पर चलने से ही हम मोक्ष की ओर बढ़ सकते हैं । मोक्ष का अर्थ है - संसार के बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा से मिलन । अधर्म का वंश जान लेने के उपरांत हम अधर्म की राह पकड़ने की गलती कभी नहीं करेंगे और दुर्भाग्यवश अगर अधर्म की राह पर हैं, तो तत्काल ही उसको त्यागकर धर्म की राह पकड़ लेंगे ।

सार-संक्षेप

          व्यक्ति की तामसिक वृत्ति ही उसे अधर्म के रास्ते पर ले जाती है । तामसिक वृत्ति वाले मनुष्य सर्वाधिक असत्य भाषण करते है । असत्य भाषण ही उसे अधर्म की ओर प्रवृत्त कर देता है । मृषा और अधर्म दोनों के मिलने से ही व्यक्ति में माया (अज्ञान) और दम्भ पैदा हो जाते हैं । इस प्रकार मृषा और अधर्म की माया और दंभ, ये दो संतानें हुई । माया और दम्भ मनुष्य की बुद्धि को विकृत कर देते हैं, जिससे उसकी सोचने, विचरने की शक्ति मलिन हो जाती है । बुद्धि की मलीनता मन को भी मलिन कर देती है और मनुष्य पाप के रास्ते पर आगे बढ़ने लगता है ।

    माया और दम्भ को आत्मा का पतन कराने वाली जड़ प्रकृति (अविद्या) हर लेती है , जिससे लोभ और शठता (मूर्खता) पैदा होते हैं जोकि क्रोध और हिंसा का कारण बनते हैं । क्रोध और हिंसा से कलह और दुरूक्ति (गाली गलौज) उत्पन्न होते हैं । कलह और दुरुक्ति का परिणाम भय और मृत्यु ही है, जो मनुष्य के लिए जीवनभर की यातना का कारण बनते हैं । इसी यातना के कारण मनुष्य नारकीय जीवन जीने को विवश हो जाता है ।

      इस प्रकार हमने जाना कि केवल अधर्म और असत्य की राह पकड़ने से जो छद्म सुख मनुष्य को मिलता है, वह वास्तव में सुख न होकर अंततः उसके लिए यातना और नरक का कारण बनता है । इसलिए मनुष्य को जीवन में अधर्म का मार्ग कभी भी नहीं अपनाना चाहिए । धर्म का पालन व्यक्ति को परमात्मा तक पहुँचा सकता है, इसमें दो मत नहीं हो सकते । आवश्यकता है, अपनी बुद्धि को तामसिक न होने दें । तामसिक बुद्धि ही मनुष्य को धर्म का ज्ञान नहीं करा सकते । तामसिक बुद्धि ही “अधर्म ही धर्म है” ऐसा क़हती है । धर्म, बुद्धि और मन को कभी मलिन नहीं होने देता । मनुष्य का शुद्ध मन और बुद्धि ही उसे परमात्मा के द्वार तक ले जा सकते हैं । इसलिए जीवन में सदैव अधर्म का निषेध करें, धर्म स्वतः ही जीवन में उतर आएगा । 

इसी के साथ यह लघु लेखमाला समाप्त होती है । आप सभी का साथ बने रहने के लिए आभार ।

।। हरिः शरणम् ।।

प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल