फले सक्तो निबध्यते
अंग्रेजी की एक प्रसिद्ध कहावत है -"Man is born free but is everywhere in chains." मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र है परंतु प्रत्येक स्थान पर वह बंधन में रहता है। इस संसार के बन्धन से मुक्त होने का नाम ही मुक्ति है। संत कहते हैं कि संसार के बन्धन से मुक्त होना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। उपरोक्त कहावत के अनुसार मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र है अर्थात किसी भी प्रकार के बन्धन से मुक्त है परंतु फिर भी वह प्रत्येक स्थान पर बंधन में क्यों बंध जाता है? मनुष्य जीवन की मुक्ति में यह बंधन ही मुख्य बाधा है । इस प्रश्न का उत्तर जानना सरल नहीं है ।
कर्म को बंधन का कारण मानें तो फिर एक नया प्रश्न उठ खड़ा होता है कि श्वास लेना, भोजन का पचना, मल मूत्र त्यागना, संसार की सेवा करना आदि भी तो कर्म हैं। क्या ऐसे कर्म भी बंधन पैदा करते हैं ? नहीं, ये कर्म किसी प्रकार का बंधन पैदा नहीं करते ।
कर्म के बाद कामना को बंधन का कारण माना जा सकता है । परंतु ज्ञान की मुमुक्षा, सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः आदि भी तो कामनाएं है । फिर ये कामनाएं मनुष्य को बंधन में क्यों नहीं डालती? इनको तो मुक्त करने वाला माना जाता है।
इस प्रकार कई कारण हैं, जिनको प्रत्यक्ष रूप से संसार से बांधने का कारण माना जाता है परंतु वास्तव में ये सब प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष रूप से बंधन के कारण हैं। कर्म, कामना आदि के मूल में फल के प्रति हमारी आसक्ति अर्थात कामना और कर्म के पीछे छिपी फलेच्छा ही हमें संसार के साथ बांधती है। इसी कारण से भगवान ने गीता में "फल में आसक्ति" को ही बंधन का मूल कारण बताया है। इस प्रकार की आसक्ति ही नई नई कामनाओं की जननी है । फिर कामनाओं को पूरा करने के लिए स्थूल शरीर के माध्यम से भिन्न भिन्न प्रकार के कर्म होते हैं।
इस ब्रह्मांड में जितना भी अभी तक ज्ञात है, मनुष्य नाम का जीव सबसे अधिक बुद्धिमान और कर्मठ है । बुद्धि का उपयोग वह कितना और किस प्रकार करता है, स्पष्ट रूप से इस बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता क्योंकि उसके जीवन में आने वाली विभिन्न परिस्थितियाँ उसकी मानसिक दशा को प्रतिपल बदलती रहती है । व्यक्ति की मानसिक दशा से उसके द्वारा बुद्धि का उपयोग किया जाना सीधे तौर पर संबंधित है । इसलिए उसकी बुद्धिमत्ता पर बात करने से पहले उसकी कर्मठता पर बात कर लेते हैं ।
व्यक्ति की कर्मठता का सीधा संबंध उसके द्वारा किए जाने वाले कर्म से है । मनुष्य द्वारा किए जाने वाले कर्म उसके जीवन की परिस्थितियों पर निर्भर है और जीवन में बनने और बिगड़ने वाली परिस्थितियाँ उसके द्वारा किए जाने वाले कर्मों पर निर्भर है । कहने का अर्थ है कि जीवन में हमारे सामने जैसी भी परिस्थिति आती है और जिस प्रकार हम उनसे निबटते हैं, उनके लिए हमारे कर्म उत्तरदायी हैं ।
ले देकर बात कर्म पर आकर टिक जाती है । लेकिन क्या कर्म ही इन सब परिस्थितियों (अनुकूल और प्रतिकूल) के लिए उत्तरदायी है ? हाँ, कुछ सीमा तक यह सत्य है परंतु पूर्ण सत्य नहीं है ।यदि हम नहीं चाहते कि हमारे जीवन में कोई प्रतिकूल परिस्थिति पैदा हो, तो उसके लिए हमें अपनी मानसिक दशा सुधारनी होगी, क्योंकि जैसी हमारे मन कि स्थिति होगी, कर्म भी हमसे उसी अनुसार होंगे । मानसिक दशा सुधारने के लिए हमें अपनी बुद्धि का उपयोग करना होगा । यहाँ आकर हमारी बुद्धिमता की परीक्षा होती है । बुद्धि का सदुपयोग करते हुए मन को नियंत्रण में लेते ही हमारे कर्म स्वतः ही परिवर्तित हो जाएँगे और जीवन में परिस्थितियां भी परिवर्तित होने लगेगी ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि यदि हम बुद्धिमत्ता पूर्वक कर्म करते हुए कर्मठ बनें तो जीवन में आनंद और शांति को तत्काल उपलब्ध हो सकते हैं । सबसे पहले हम कर्म की बात करते हैं । मनुष्य जन्म लेने के पश्चात अपने जीवन में कर्म करना कैसे प्रारंभ करता है ? कर्म का मनुष्य से बड़ा गहरा नाता है । कर्म करते करते मानव जीवन छूटते ही (स्थूल शरीर त्यागने के पश्चात्) विभिन्न जीवों के रूप में जन्मता-मरता है और अंततः उसे पुनः नया मनुष्य जीवन मिलता है । इस मनुष्य जीवन में अगर वह नहीं सम्भला तो उसे फिर से विभिन्न जीवों के शरीर में चक्कर लगाकर आना होगा ।
जिन कर्मों के फल उसे मनुष्य जीवन के रहते किसी कारण से नहीं मिल सके हैं, वे कर्म ही संग्रहित होकर प्रारब्ध बनाते हैं और यह प्रारब्ध ही नए जीवन में उससे कर्म करवाना प्रारम्भ करता है। जब तक जीव मनुष्य जीवन के बाद विभिन्न योनियों में अन्य जीवों के रूप में भटकता है, तब तक उसके द्वारा केवल प्रारब्धवश ही कर्म होते हैं, उस जीवन में जीव अपनी इच्छा से कोई कर्म नहीं कर सकता । जब पुनः मनुष्य जन्म मिलता है, तब जाकर उसे प्रारब्ध कर्मों के साथ साथ नए कर्म करने की स्वतंत्रता मिलती है। यह चौरासी की अंतिम अवस्था है, जिसको पाकर मनुष्य आवागमन से मुक्ति पा सकता है अन्यथा उसे पुनः चौरासी की यात्रा पर फिर से जाना होगा । इसी जीवन में मुक्ति के लिए उसे अपने कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन लाना होगा ।
कर्म ही बंधन का कारण है। कर्मों में परिवर्तन, कर्ता अर्थात कर्मों को करने वाला ही कर सकता है। जीवात्मा शरीर का संग करके ही तो कर्मों का कर्ता बनता है। कर्ता मनुष्य स्वयं है और वह जीवन में कर्मों का प्रारंभ पूर्व मानव जीवन से चले आ रहे संस्कारों (प्रारब्ध) से करता है। संस्कार ही वर्तमान जीवन में मनुष्य का स्वभाव बनाते हैं और उसी स्वभावानुसार हम सब कर्म करते हैं। स्वभाव आपके स्वाभाविक कर्म के लिए उत्तरदायी है परंतु स्वाभाविक कर्म के साथ साथ मनुष्य नए कर्म अपनी इच्छा से कर सकता है। ये नए कर्म कर्ता के स्वभाव को परिवर्तित कर सकने में सक्षम है। इसीलिए कहा जाता है कि करने में सदैव सावधान रहें ।
कर्मों को ही चौरासी लाख योनियों के चक्कर लगाने के लिए उत्तरदायी माना जाता है, क्योंकि सकाम कर्म ही संचित होकर प्रारब्ध बनाते हैं । कैसे ? जिन सकाम कर्मों का मनुष्य को उसी जीवन में परिणाम नहीं मिलता तब कर्मसंग्रह होता है । यही कर्मसंग्रह बंधन पैदा करता है । यह बंधन होता है; संसार के साथ, संसार के भोग पदार्थों के साथ, संसार के शरीरों के साथ । यही कर्मसंग्रह मनुष्य का प्रारब्ध बनाता है, जो उसकी जीवात्मा को चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कराता है ।
क्या प्रारब्ध कर्म, कर्मबन्धन पैदा कर सकते हैं ? उत्तर है - नहीं क्योंकि प्रारब्ध कर्मों का परिणाम मिलना अवश्यम्भावी है और जब कर्म का फल मिल जाता है, तो कर्म समाप्त हो जाते हैं । समाप्त हो चूके कर्म कभी संग्रहित नहीं होते । ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर कौन से कर्म, व्यक्ति को बांधते हैं ? केवल वे ही कर्म मनुष्य को बाँधते हैं, जो एक जीवन में परिणाम देने से वंचित रह गए हैं और संचित हो जाते हैं । इसका अर्थ हुआ कि वर्तमान जीवन में किए जाने वाले कर्म मनुष्य के उस जीवन में तो बंधन का कारण नहीं है भले ही वे संग्रहित होकर आवागमन से मुक्त होने में बाधक बन जाते हों । हां, कुछ सीमा तक यह सत्य हो सकता है परंतु बंधन तो है ही, तभी तो उन कर्मों से बंधकर ही तो मनुष्य को नया शरीर मिलता है ।
मनुष्य अपने वर्तमान जीवन में सकाम कर्म करता ही क्यों है ? सकाम कर्म जिनका पूर्व जीवन में परिणाम नहीं निकल सका था अर्थात् उन कर्मों का फल जो उस समय नहीं मिल पाया था, वे ही नए जन्म में प्रारब्ध कर्म बनकर फल दे रहे हैं । इसीलिए प्रारब्ध कर्मों से फल को प्राप्त करने में मनुष्य को अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती । कम परिश्रम से अच्छा फल मिलने का पहला परिणाम तो यह होता है कि मनुष्य शीघ्र ही उस फल के प्रति आसक्त हो जाता है । दूसरा परिणाम यह होता है कि मनुष्य को मिले अच्छे फल के कारण उसमें कर्ताभाव पैदा हो जाता है, जो उसके अहंकार का कारण बनता है । इसी को कर्तृत्वभिमान कहते है ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रारब्ध कर्म से मिले फल से फ़लासक्ति और कर्तृत्वाभिमान, दोनों ही पैदा हो जाते हैं । प्रारब्ध कर्मों से मिले फल में बनी फ़लासक्ति ही मन में नई नई कामनाओं को जन्म देती है और ये कामनाएँ ही मनुष्य को पुनः वैसे ही फल प्राप्ति के लिए नए कर्म करने के लिए प्रेरित करती है । गीता में भगवान श्री कृष्ण ने फलासक्ति को ही बंधन का मुख्य कारण कहा है - ‘अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते’ अर्थात् सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंधता है ।
यह कर्म-रहस्य है, इसको पूर्ण रूप से समझना बड़ा ही कठिन है । कौन सा कर्म मनुष्य को कहाँ ले जाएगा, निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता । इसलिए स्वामी जी ने कहा है कि कर्मों को करने में सावधान रहो और होने में निश्चिंत । होने में निश्चिंत से आशय है कि जो भी फल मिले उसकी चिंता न करो क्योंकि सावधानी पूर्वक किए गए कर्मों का अनुचित परिणाम मिल ही नहीं सकता ।
इतने विवेचन से जो समीकरण निकल कर सामने आया है, उसको इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है -
प्रारब्धकर्म - कर्म - कर्मफल - फलासक्ति - कामना - सकामकर्म - कर्मफल - फलासक्ति - नई कामना - सकामकर्म - वांछित फल नहीं मिला - कर्मसंग्रह — प्रारब्धकर्म । इस प्रकार मनुष्य बार बार विभिन्न जीवों के रूप में जन्म लेते हुए संसार चक्र में घूमता रहता है ।
यहाँ आकर मन में एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि हमें संसार चक्र से बाहर निकलने के लिए क्या करना चाहिए ? पूरे चक्र को समझने से अनुभव होता है कि कर्मबन्धन से हमारा मुक्त होना आवश्यक है । क्या इसके लिए कर्मों का त्याग किया जा सकता है ? नहीं, कर्मों का त्याग करना संभव ही नहीं है । भगवान स्वयं गीता में कहते हैं कि इस संसार में मनुष्य कर्म करने को विवश है । प्रश्न उठता है कि फिर मनुष्य कर्म किस प्रकार करे कि वे कर्मबंधन पैदा ही न हो ?
कर्मबन्धन बने ही नहीं, इसका एक मार्ग तो ईशावास्योपानिषद सूझा रही है -
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्त् अँ समा: ।
एवं त्वयि नान्यथेतोSस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।। ईशावास्योपानिषद - 2 ।।
इस जगत् में शास्त्र नियत कर्मों को ईश्वर पूजार्थ करते हुए ही सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए । इस प्रकार किए जाने वाले कर्म मनुष्य में लिप्त नहीं होंगे, इससे भिन्न अन्य कोई मार्ग नहीं है, जिससे कि मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो सके ।
कर्म करते हुए मनुष्य के मन में सदैव कामना रहती है, उस कामना के वशीभूत होकर वह अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए कर्म करता है । यदि हम यही कर्म परमात्मा की पूजा मानते हुए केवल परमात्मा के लिए ही करें तो ऐसे कर्म कर्मबन्धन पैदा नहीं करते । इसका अर्थ हुआ कि हमारे सभी कर्म परमात्मा को अर्पण होने चाहिए ।
दूसरा मार्ग मुण्डक उपनिषद् इस प्रकार कहते हुए स्पष्ट करती है -
स वेदैतत् परमं ब्रह्म धाम
यत्र विश्वं निहितं भाति शुभ्रम् ।
उपासते पुरुषं ये ह्यकामा-
स्ते शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीरा: ।। मुण्डक उपनिषद् -2/1 ।।
निष्काम भाव वाला पुरुष इस परम विशुद्ध ब्रह्म धाम को जान लेता है, जिसमें संपूर्ण जगत् स्थित हुआ प्रतीत होता है । जो भी कोई निष्काम साधक परमपुरुष की उपासना करते हैं, वे बुद्धिमान रजोवीर्यमय इस शरीर का अतिक्रमण कर जाते हैं ।
ईशावास्योपनिषद (1) कहता है - “त्येन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध:” अर्थात् कर्म करते हुए उनके फल को त्यागपूर्वक भोगो, इसमें आसक्त न हों और मुण्डक उपनिषद् (2/1) निष्काम कर्म करने की बात कहता है । इसी प्रकार ईशावास्योपनिषद (2) कहता है कि शास्त्र नियत कर्मों को ईश्वर की पूजा के लिए करना चाहिए । ये तीनों कथन, एक दूसरे से सम्बन्धित हैं । इन तीनों के कहने का मंतव्य क्रमशः इस प्रकार है - कर्म करते हुए उनके फल को त्यागपूर्वक भोगने से व्यक्ति का कर्म के प्रति राग समाप्त होता है, निष्काम कर्म करने से कर्म से सम्बन्ध विच्छेद होता है और ईश्वर पूजार्थ कर्म करने से फलेच्छा का त्याग होता है ।
मुण्डक उपनिषद् निष्काम कर्म की बात कहता है । निष्काम कर्म का अर्थ है, बिना किसी कामना के कर्म हों । निष्काम कर्म संसार की सेवार्थ होते हैं । संसार की सेवा के लिए किए जाने वाले कर्म का अर्थ है - अपने लिए कुछ न करना । जब अपने लिए कुछ नहीं किया जाता, तो फल की इच्छा का त्याग स्वतः ही हो जाता है । मन में फल की इच्छा रखना ही हमारी कामना है और यह कामना ही हमें कर्म करने को विवश करती है ।
मन में कामनाओं के उठने का कारण गीता में भी फलासक्ति को ही बताया है ।गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को इसीलिए सभी कर्मों के फल का त्याग करने को कहा है -
अथैतदप्यशक्तोSसि कर्तुं मद्योगमाश्रित: ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ।। 12/11।।
अगर मेरे योग के आश्रित हुआ तू इस साधन (परमात्मा के लिए कर्म करना) को भी करने में स्वयं को असमर्थ पाता है, तो मन और इंद्रियों को वश में करके संपूर्ण कर्मों के फल का त्याग कर ।
स्वामीजी ने इस श्लोक (12/11) की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि कर्म फल का त्याग नहीं किया जा सकता क्योंकि कर्म किए गए हैं तो उस कर्म का कोई न कोई फल तो निश्चित ही मिलेगा । इसलिए फल का त्याग करना संभव ही नहीं है । हाँ, फल की इच्छा का त्याग होना संभव है । इस श्लोक में भगवान का कहने का मंतव्य भी यही है कि मन में फल की इच्छा रखते हुए कोई कर्म न करें ।
कर्मफल की इच्छा के त्याग से अर्थ है, स्वयं के लिए कर्म न कर संसार की सेवा के लिए कर्म करें । जब कर्म स्वयं की स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं होंगे तो कर्मफल की इच्छा का त्याग अपने आप ही हो जाएगा । स्वामीजी कहते हैं कि कर्म करने से एक तो उनको करने का राग समाप्त होगा और दूसरा स्वयं के लिए कर्म न कर संसार की सेवा के लिए कर्म करने से कर्मफल की इच्छा का त्याग होगा । इस प्रकार निष्काम कर्म करने से कर्मबन्धन भी नहीं होगा । जब मन में फल की इच्छा नहीं होगी, तब फिर कर्म करने में भी व्यक्ति शांत रहेगा । फिर जैसा भी कर्मफल होगा, वह उसको अशांत नहीं कर पाएगा । इसी बात को भगवान आगे कहते हैं -
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मलत्यागस्त्यागाच्छान्तिनन्तरम् ।।12/12।।
मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से परमेश्वर का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति की प्राप्ति हो जाती है ।
कर्मों के फल की इच्छा के त्याग से मनुष्य तत्काल ही शांति को उपलब्ध हो जाता है । शान्त जीवन ही मनुष्य को परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करा सकता है ।
हमारे कर्म ही हमारे जीवन में बनने वाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । फल की इच्छा मन में रखे बिना किए जाने वाले कर्मों में एक प्रकार की निश्चिंतता रहती है । जीवन में शांति का मिलना उसी निश्चिंतता का परिणाम है । जीवन की शांति ही मनुष्य को निर्भय और नि:शोक बनाती है । गोस्वामीजी कहते हैं -
तुलसी भरोसे राम के, निर्भय होकर सोय ।
अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय ।।
जीवन में जो कुछ भी होना है, वह पूर्व मनुष्य जीवन में किए गए कर्मों के आधार पर निश्चित हो चुका है , फिर इस जीवन में सब कुछ भगवान के भरोसे क्यों न छोड़ दिया जाए ? जो होना है, वह तो होकर रहेगा और जिसे नहीं होना है, वह कभी भी नहीं हो पाएगा । कहने का अर्थ है कि फल की इच्छा न रखें, कर्म करते रहें और परिणाम परमात्मा पर छोड़ दें ।
गीता में भगवान कहते हैं -
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकिम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।। गीता-5/12।।
कर्मयोगी कर्मफल का त्याग करके नैष्ठिक शांति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंधता है । कर्मफल का त्याग का अर्थ है, बिना फल की इच्छा के कर्म करना । कहा जाता है कि मन में फल की इच्छा नहीं होगी, ऐसे में कर्म कैसे किए जा सकते हैं ? सही है, कर्म करने की कामना की जनक फलेच्छा ही है । फल की इच्छा का त्याग करने से मंतव्य, “मन में चाहा गया फल ही येन केन प्रकारेण मिले”, इस इच्छा के त्याग से है । इस प्रकार का त्याग हो जाने से ही मनुष्य शान्त होकर कर्म करता है । फिर फल अनुकूल मिले अथवा प्रतिकूल, वह विचलित नहीं होता, सदैव शांत बना रहता है ।
इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि मनुष्य के जीवन में जो विभिन्न बंधन है, उन सबके मूल में कामना ही है । कामना का सीधा संबंध मुख्य रूप से फलेच्छा से ही है । जब मन के भीतर किसी विशेष फल की इच्छा नहीं होगी तो फिर कर्म करने की प्रेरणा भी नहीं मिलेगी । कर्म प्रेरणा न होने से कर्मबन्धन भी नहीं होगा । कर्मप्रेरणा और कर्मबन्धन का कारण गीता में भगवान ने स्पष्ट किया है -
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविध: कर्मसंग्रह: ।।(गीता -18/18)
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय; ये तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है । कर्ता, करण और क्रिया; ये तीन प्रकार का कर्मसंग्रह है ।
ज्ञान अर्थात् जिससे जाना जाता है, ज्ञेय अर्थात् जो जानने में आता है और जिसको ज्ञान होता है यानि जिसके द्वारा जाना जाता है, उसे परिज्ञाता (ज्ञाता) कहा जाता है । परिज्ञाता का अर्थ है, जिसको ज्ञान हो जाने पर स्फुरणा होती है । करण का अर्थ है; वे साधन जिनसे कर्म किए जाते हैं जैसे कर्मेन्द्रियाँ । करण से जो प्रयास किया जाता है, उसको कर्म कहते हैं । करण और उससे किए जाने वाले प्रयास (क्रिया) से जो करने का संबंध जोड़ता है, उसको कर्ता कहा जाता है ।
मनुष्य (ज्ञाता) को सबसे पहले ज्ञेय का ज्ञान (ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से) होता है । फिर इस त्रिपुटी से मन के भीतर कर्म करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है । कर्मप्रेरणा से करण (कर्मेन्द्रियों) के माध्यम से क्रिया संपन्न होती है । क्रिया और उससे मिले परिणाम से ज्ञाता जब अपना संबंध जोड़ लेता है, तब वह कर्ता बन जाता है । कर्ताभाव एक ओर तो अभिमान पैदा करता है तथा दूसरी ओर उसी फल को बार - बार पाने की इच्छा करता है । यह फलेच्छा ही पुनः उसी क्रिया को करने की प्रेरणा देती है । इस प्रकार हुई कर्मप्रेरणा पुनः नए कर्म करवाती है । इस प्रकार फलेच्छा ही मूलरूप से कर्मबन्धन पैदा करती है ।
हम अपने जीवन में बहुत कुछ करने की सोचते हैं, यहाँ तक कि अपनी संतान को भी कैसा बनाना है, उतनी दूर तक की भी सोच लेते हैं । इस सोच के मूल में हमारी कामनाएं ही होती है । कामना को किसी एक शब्द में सीमित नहीं किया जा सकता फिर भी अल्प रूप से कहा जा सकता है कि मन के भीतर दबी फलेच्छा ही बाहर हमारी कामना बन कर प्रकट होती है । प्रत्येक कामना के पीछे कोई न कोई संकल्प होता है । यहाँ संकल्प कामना का कारण है और कामना संकल्प का कार्य । संकल्प सीधा सीधा फल की इच्छा से सम्बन्धित है । इस प्रकार फलेच्छा और कामना परोक्ष रूप से एक दूसरे से सम्बन्धित हुए ।
इस कामना के कई रूप हैं । कामेच्छा से येन केन प्रकारेण किसी स्त्री का संग प्राप्त करने की कामना वासना कहलाती है । किसी एक व्यक्ति से हम कोई कामना रखते हैं तो वह अपेक्षा कहलाती है, जैसे पुत्र से कामना रहती है कि वह हमारा कहना माने । इसको हम पुत्र से अपेक्षा रखना कह देते हैं । जब धन की कामना मन में होती है तब उस धन के प्रति इतने अधिक आसक्त हो जाते हैं कि हम उसके संग्रह में जुट जाते हैं । यह अधिक से अधिक धन संग्रह की कामना लोभ कहलाती है । परमात्मा से किसी वस्तु, पदार्थ अथवा मन की इच्छा पूरी करने की कामना करना हमारा मनोरथ कहलाती है । एक भी कामना पूरी न हो तो क्रोध पैदा होता है जोकि अंततः मनुष्य के पतन का कारण बनता है ।
ख़ैर ! मुख्य बात यह है कि कामना के पीछे व्यक्ति द्वारा जीवन में सदैव सुख मिलते रहने की इच्छा ही है, जिसके लिए वह कर्म करता है । कर्म का फल वह अपने भीतर पहले सोचता है और फिर उस फलेच्छा को पूरा करने के लिए कर्म करता है । कर्म का फल इच्छानुरूप मिल जाता है तो फिर नई कामनाओं का जन्म होता है और इच्छानुरूप फल नहीं मिला तो ये कर्म ही बंधन बन जाते हैं और मनुष्य को विभिन्न योनियों में घुमाते रहते हैं । इस प्रकार के आवागमन से मुक्त होने के लिए प्रथम आवश्यकता है कि हमारा जीवन कामनाशून्य हो । कामनाशून्य जीवन के लिए हमारे भीतर फलेच्छा नहीं रहनी चाहिए । फलेच्छा न रहे, इसके लिए निष्काम कर्म करें । अतः स्वयं के लिए कुछ भी न करें बल्कि हमारे द्वारा संसार की सेवा के लिए ही कर्म हों, इस बात का विशेष ध्यान रखें ।
।। हरिः शरणम् ।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल