धरमु न दूसर सत्य समाना
अभी तीन दिन पूर्व ही हमने धर्म-कर्म पर विवेचन का समापन 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' श्रृंखला में किया है। कर्म को धर्म के अनुसार करने से कोई समस्या नहीं है बल्कि कर्म को अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करना ही सबसे बड़ी समस्या है। व्यक्ति सकाम कर्म करने को विवश क्यों हो जाता है ? सब कुछ जानते हुए भी वह कर्मों के साथ बंधकर संसार में सुख-दु:ख भोगता रहता है, जबकि वह धर्म के अनुसार कर्म करने पर वह संसार से मुक्त भी हो सकता है ।
सकाम कर्म करने के पीछे महत्वपूर्ण कारण है, संसार से सुख की चाहना रखना। यह सुखासक्ति ही उसे जीवन में मुक्त नहीं होने देती।संसार असत है और असत्य से आसक्ति आवागमन में डाले रखकर सुख दुःख देती रहती है। हमें अपनी आसक्ति को असत से हटाना होगा और सत से प्रेम करना होगा। असत में रहकर उससे प्रेम करते हुए कर्म करना हमारा धर्म नहीं है। हमारा धर्म है-सत्य से प्रेम करना, सत्य को ही धर्म मानना। फिर प्रश्न उठता है कि सत्य क्या है ? क्या सत्य की राह पर चलना ही हमारा धर्म है ? गोस्वामीजी मानस में लिखते हैं -
धरमु न दूसर सत्य समाना ।
आगम निगम पुरान बखाना।।
जब सत्य के समान कोई दूसरा धर्म ही नहीं है तो फिर हम असत को प्राप्त करने के लिए क्यों कर्म करें?क्यों न सत्य को ही धर्म बनाकर इस मनुष्य जीवन को सार्थक करें।
भारतीय संस्कृति के मूल में ‘धर्म’ है | मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि ‘धर्म’ हमारी संस्कृति का प्राण है | भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में जहां भौतिकता की प्रधानता है वहीं हमारी संस्कृति (Culture) में धर्म की प्रधानता है | पश्चिम की संस्कृति में भौतिकता की मुख्यता होने के कारण वह सुख प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रकार के कर्म करने को कहती है जबकि भारतीय संस्कृति में मुख्यता धर्म की होने के कारण वह आनंद को उपलब्ध होने के लिए धर्मानुसार कर्म करने को प्राथमिकता देती है | वहां पश्चिम में भौतिकता के कारण स्वाद (Taste) के लिए हिंसा की जा सकती है, यहाँ धार्मिकता के आधार पर स्वाद पर नियंत्रण रख अहिंसा (Non violence) की अनुपालना (Follow) करने पर जोर दिया जाता है | धर्म हमें यह सिखाता है कि हमें क्या तो करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ? इस प्रकार धर्म का सीधा सम्बन्ध कर्तव्य कर्म से है | कर्तव्य कर्मों का निर्वहन ही धर्म है | भारतीय संस्कृति धर्म पर ही आधारित है | इसीलिए भारतीय संस्कृति को आध्यात्मिक संस्कृति कहा जाता है |
पञ्चतंत्र में ‘धर्म’ को वह तत्व बताया है जिसके आधार पर मनुष्य और प्राणियों में अंतर प्रकट होता है |
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत पशुभिर्नराणम |
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिर्समाना ||पञ्चतंत्र||
अर्थात आहार, निद्रा, भय और संतानोत्पत्ति में तो सामान्यतया मनुष्य सहित सभी जीव रत (Indulge) रहते हैं लेकिन धर्म मनुष्य को अन्य जीवधारियों से पृथक करता है | अगर मनुष्य में से धर्म तत्व को अलग कर दिया जाये, तो फिर मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रह जायेगा |
योगवासिष्ठ के अनुसार धर्म के चार चरण हैं | ये धर्म के चरण ही मनुष्य के कर्तव्य के आधार है | इन चारों चरणों में विश्वास रखते हुए कर्तव्य करते रहना ही वास्तविकता में धर्म हैं | धर्म के चरण हैं – सत्य (truth), अहिंसा (nonviolence) अथवा दया (kindness) , तप (penance) और दान (donation) | इसी प्रकार मनु ने भी धर्म के चार चरण बताये हैं, वे हैं ज्ञान, यज्ञ, तप और दान | दोनों एक ही बात कह रहे हैं | सत्य को जान लेना ही ज्ञान है अर्थात सत्य ही ज्ञान है | यज्ञ का अर्थ है सबके हित के लिए कर्म करना, जिसके कारण हिंसा का भाव तक न होना, इसी को अहिंसा कहते हैं | इन चारों के विलोम (opposite) अर्थात विपरीत होना अथवा चलना ही अधर्म है | आप किसी भी सम्प्रदाय के साहित्य और शास्त्रों को उठाकर देख लिजीये, आपको मुख्यतः इन्हीं चार बातों का अनुसरण करने का कहा जाता है | हिंसा, असत्य, कलह और असंतोष जैसी अधार्मिक बातों का कोई भी संप्रदाय समर्थन नहीं करता क्योंकि ये सभी अधार्मिकता के अंतर्गत आते हैं |
सत्य के मार्ग पर चलना, सभी प्राणियों के प्रति दया का भाव मन में रखना, परमात्मा और सत्य की प्राप्ति के लिए तप करना और असहायों की दान देकर सहायता करना आदि सभी धर्म के अंतर्गत आते हैं और ऐसे धर्म मार्ग पर चलना वर्तमान मानव जीवन में पुरुषार्थ करने से ही संभव है | इसके लिए पूर्वजन्म का पुरुषार्थ यानि दैव, प्रारब्ध किसी उपयोग के नहीं है | संसार में जब मानव जन्म लेता है तब वह किसी भी प्रकार के व्यवहार और आचरण के प्रति सपाट कोरे कागज (blank paper) की तरह होता है | उसमे और अन्य मूक प्राणियों में किसी भी प्रकार का अंतर आपको नज़र नहीं आएगा | उसमे ‘धर्म’ का स्फुरण (Ignition) वर्तमान जीवन में होना ही संभव है | धर्म में प्रारब्ध की कोई भूमिका नहीं होती अतः धर्म का स्फुरण स्वतः (automatically) होना संभव ही नहीं है | धर्म के लिए तो पुरुषार्थ करने की आवश्यकता रहती ही है | अर्थ और काम तो पूर्वजन्म के पुरुषार्थ अर्थात प्रारब्ध से ही उपलब्ध होते हैं परंतु धर्म और मोक्ष वर्तमान जीवन मे पुरुषार्थ करने से ही मोलते हैं। यही कारण है कि चारों पुरुषार्थ में धर्म को मुख्य पुरुषार्थ कहा गया है |
धर्म के मार्ग पर चलना ही नैतिक आदर्श है | धर्म से चाहे आपको सांसारिक वस्तुएं उपलब्ध न हों परन्तु धर्म को अपनाकर आप अपने भीतर एक प्रकार की शांति का अनुभव कर सकते हैं | धर्म के मार्ग पर चलकर जिस प्रकार की शांति का अनुभव आप करते हैं वह अमूल्य है | अतः धर्म का मूल्य मुद्रा के रूप में न होकर नैतिकता में निहित है | नैतिक मूल्य सदैव ही मौद्रिक मूल्य से अधिक शक्तिशाली होता है | नैतिक मूल्य को स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त देना चाहूँगा |
वनवास के समय पाण्डव एक दिन घूमते-घूमते थककर एक विशाल वटवृक्ष के नीचे विश्राम करने बैठ गये। उस समय उन्हें प्यास भी लगी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने नकुल से पानी लाने को कहा | नकुल ने वृक्ष पर चढ़कर देखा तो एक स्थान पर हरियाली तथा जल होने के अन्य चिह्न देखकर वे उसी ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचकर जैसे ही वे सरोवर में उतरे, उन्हें अदृश्य वाणी सुनाई दीः "तात ! इस सरोवर का पानी पीने का साहस मत करो। पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो, उसके बाद पानी पीना और ले भी जाना।"
नकुल बहुत प्यासे थे | उन्होंने उस बात पर बहुत ध्यान नहीं दिया और उसे अनसुना करते हुए सरोवर का जल पीने लगे | जल पीते ही वे निर्जीव होकर पृथ्वी पर गिर पड़े | इधर नकुल को गए बहुत देर हो गयी तो युधिष्ठिर ने सहदेव को भेजा | उनको भी वही अदृश्य वाणी सुनाई दी | उन्होंने भी ध्यान नहीं दिया और जल पीते ही वे भी प्राणहीन होकर गिर गये | फिर धर्मराज ने एक-एक कर अर्जुन और भीमसेन को भी भेजा | उनकी भी यही दशा हुई |
. जब चारों पांडवों में से कोई वापस नहीं लौटा तब पांचवें पाण्डव युधिष्ठिर बहुत चिंतित हुए। बहुत थके होने पर भी स्वयं ही किसी प्रकार उस सरोवर तक पहुँचे | अपने प्राणप्रिय भाइयों को पृथ्वी पर प्राणहीन अवस्था में पड़े देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ | देर तक भाइयों के लिए शोक करके अंत में वे भी जल पीने को उद्यत हुए | उसी समय उन्हें भी वही अदृश्य वाणी सुनाई दी - "इस जल पर मैंने अधिकार कर रखा है | जल पीने से पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो | मैंने ही तुम्हारे चारों भाइयों को मारा है | यदि तुम उत्तर नहीं दोगे तो पाँचवें पाण्डव, तुम भी इन्हीं की तरह प्राणहीन होकर गिर पड़ोगे |"
युधिष्ठिर ने पूछाः "तुम कौन हो ?"
"मैं बगुला हूँ | "
"यह काम किसी पक्षी का तो नहीं हो सकता |"
"मैं कोरा जलचर पक्षी नहीं हूँ, यक्ष हूँ |"
तब धर्मात्मा युधिष्ठिर ने उस विशालकाय यक्ष को वृक्ष के ऊपर बैठे देखकर कहा -
"यक्ष ! मैं दूसरे के अधिकार की वस्तु नहीं लेना चाहता | तुमने सरोवर के जल पर पहले ही अधिकार कर लिया है तो यह जल तुम्हारा ही रहे। तुम जो प्रश्न पूछना चाहते हो पूछो, मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उनका उत्तर देने का प्रयत्न करूँगा |"
युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने से यक्ष ने अनेक प्रश्न पूछे | युधिष्ठिर ने सभी के उचित उत्तर दिये | इससे संतुष्ट होकर यक्ष ने कहा - "राजन ! तुमने मेरे प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर दिये हैं, इसलिए चारों में से जिस भी एक भाई को तुम चाहो, वह जीवित हो सकता है |"
युधिष्ठिर ने कहा - "आप मेरे नकुल को जीवित कर दें |"
यक्ष ने चकित होते हुए कहाः "तुम राज्यहीन होकर वन में भटक रहे हो | शत्रुओं से तुम्हें अंत में युद्ध करना है, ऐसी दशा में अपने महापराक्रमी भीमसेन या शस्त्रज्ञ, महान धनुर्धर अर्जुन को छोड़कर नकुल को जिला देने की इच्छा तुम्हे क्यों है ?"
यहाँ ध्यान दीजिये, युधिष्ठिर ने प्रत्युतर में जो कहा वही वास्तव में धर्म है | उन्होंने कहा - "यक्ष ! राज्य का सुख या वनवास का दुःख तो भाग्य के अनुसार मिलता है, किंतु मनुष्य को जीवन में धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए | जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म स्वयं उसकी रक्षा करता है | इसलिए मैं धर्म को नहीं छोड़ूँगा | कुंती व माद्री दोनों मेरी माताएँ हैं | कुंती का एक पुत्र अर्थात मैं युधिष्ठिर जीवित हूँ | अतः मैं चाहता हूँ कि मेरी दूसरी माता माद्री का वंश भी नष्ट न हो | आप नकुल को जीवित करके दोनों को पुत्रवती कर दो |"
यक्ष युधिष्ठिर का उत्तर सुन प्रसन्न हो गया | वह बोला - "पुत्र ! तुमने अर्थ और काम से भी अधिक समता का विशेष आदर किया है, अतः तुम्हारे सभी भाई जीवित हो जायें | मैं तुम्हारा पिता धर्म, तुम्हें देखने तथा तुम्हारी धर्मनिष्ठा की परीक्षा लेने आया था।" इस प्रकार धर्म ने अपना स्वरूप प्रकट कर दिया | तभी चारों मृत पाण्डव भी तत्काल उठ बैठे |
धर्म का प्रत्येक परिस्थिति में पालन करने वाले की सदैव जय होती है | इसी कारण से युधिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता है | इस दृष्टान्त से यही मुख्य सन्देश निकल कर आता है कि हमें भी अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर अपने अंतर्मन की बात को महत्त्व देना चाहिए | अंतर्मन हमें धर्म-अधर्म का भान कराता है | हालाँकि वेद ही धर्म को स्पष्ट करने का मुख्य आधार है परन्तु जब वेद, शास्त्र, गुरु आदि की अनुपलब्धता हो तो अंतर्मन की आवाज़ ही हमें धर्म का ज्ञान करा सकती है |
युधिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता है | धर्म के चार चरण जो योगवासिष्ठ में बतलाये गए हैं, उनमें सत्य प्रमुख है | एक सत्य को जिसने जान लिया और जीवन में धारण कर लिया तो फिर धर्म के शेष तीनों चरण अहिंसा, तप और दान जीवन में स्वयमेव ही उतर आते हैं | इसीलिए मानस में गोस्वामीजी कहते हैं कि सत्य के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है | अब प्रश्न उठता है कि सत्य क्या है ?
सत्य का शाब्दिक अर्थ है, सब का कल्याण | जब इस भावना को हृदयांगम कर लिया जाता है तब अहिंसा, तप और दान तीनों ही जीवन में आ जाते हैं | सब का कल्याण का अर्थ ही है कि सभी का जीवन सुखमय हो, किसी को मेरे कारण दुःख और पीड़ा नहीं पहुंचे | सत्य का आचरण करने वाले व्यक्ति की पहिचान भी यही है कि वह बिना भूत, वर्तमान और भविष्य की चिंता किये सत्य पर सदैव अडिग रहता है |
सत्य भी दो प्रकार का होता है – व्यवहारिक सत्य और वास्तविक सत्य | व्यवहारिक सत्य से अर्थ है कि जैसा सुना, देखा और अनुभव किया जाता है, उसको वैसा का वैसा ही प्रकट कर देना | जो व्यवहारिक सत्य आपके लिए सत्य हो सकता है, वह किसी अन्य के लिए असत्य भी हो सकता है | इसलिए यह वास्तविक सत्य नहीं हो सकता।
वास्तविक सत्य को परम सत्य भी कहा जाता है | इस परम सत्य का अर्थ है कि सब प्राणियों को धारण करने वाला आत्मा एक है | उसमें कभी भी परिवर्तन नहीं होता है | वही आत्मा वास्तव में “मैं” है | व्यवहारिक सत्य में तो जीवन में कभी मान-सम्मान मिल सकता है और कभी अपमान भी परन्तु वास्तविक सत्य में मनुष्य को सदैव आनंद की अनुभूति होती है, जो प्रतिपल बढ़ती ही है | उसमें कमी आने का कोई प्रश्न ही नहीं है |
व्यवहारिक सत्य इस संसार में काल, स्थान और परिस्थिति के सापेक्ष है जबकि परम सत्य के साथ ऐसा नहीं है । परम सत्य तो सदैव एक ही रहता है | व्यवहारिक सत्य किस प्रकार व्यवहार करता है ? देखिए ! एक स्थान का सत्य उसी समय किसी अन्य स्थान पर असत्य हो जाता है । इसी प्रकार विपरीत परिस्थितियों में व्यक्त किया हुआ सत्य भी कई बार असत्य और असत्य भी सत्य प्रतीत होता है । इस भौतिक परिवर्तन शील संसार का सत्य भी यही है कि यहाँ पर कुछ भी सत्य नहीं है । इसी कारण से संसार को मनीषियों ने असत्य अथवा असत कहा है । जो समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है, भला वह कभी सत हो सकता है ? आपके लिए जो सत्य है, हो सकता है वह किसी अन्य के लिए असत्य हो |
स्थान के परिपेक्ष में व्यवहारिक सत्य बदलता रहता है | हम जीवन में इतनी बातें कहते और करते रहते हैं जो अगर स्थान के परिपेक्ष में देखें तो कहीं पर जाकर असत्य भी हो जाती है | प्रतिदिन हम सूर्योदय होने की बात करते हैं परन्तु कभी सोचा भी है कि सूर्योदय होता भी है क्या ? सूर्य न तो कभी अस्त होता है और न ही उदय होता है | जो हमारी पृथ्वी है वह अपनी धुरी पर सदैव एक लट्टू की तरह घूर्णन करती रहती है | अपनी धुरी पर जब वह एक चक्कर पूर्ण कर लेती है तो उतने समय में 12 घंटे के लिए तो सूर्य हमें दिखाई पड़ता है और 12 घंटे के लिए हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है | इसी को हम कहते हैं कि 24 घंटे में सूर्य एक बार तो उदय हो जाता है और एक बार अस्त | इसी कारण से जब हमारे देश भारत में दिन होता है तो भारत से 180 अक्षांश दूर अमेरिका में रात होती है | इस प्रकार एक स्थान का सत्य दूसरे स्थान के लिए असत्य सिद्ध हो जाता है |
इसी प्रकार किसी पूर्णिमा के दिन जब सूर्य और चन्द्रमा के मध्य पृथ्वी एक सीधी रेखा में आ जाती है, तब पृथ्वी पर तो चंद्रग्रहण होता है परन्तु उसी दिन और उसी समय चन्द्रमा पर खड़े होकर देखें तो वहां सूर्यग्रहण दिखलाई पड़ेगा | इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यवहारिक सत्य केवल एक स्थान के लिए ही सत्य होता है | किसी दूसरे स्थान पर, उसी समय वह सत्य वैसे का वैसे वहां पर भी होगा, संभव ही नहीं है | अतः व्यवहारिक सत्य को स्थान, समय और परिस्थिति के परिपेक्ष में ही देखा जाना चाहिए, न कि हम उसे ही वास्तविक सत्य समझ लें |
कहने का अर्थ यह है कि सत्य को स्थान के परिपेक्ष्य में देखना चाहिए क्योंकि सत्य तो स्थान के अनुसार बदलता रहता है | सत्य को स्थानानुसार असत्य घोषित कर देना अनुचित है क्योंकि यह व्यवहारिक सत्य है, वास्तविक सत्य नहीं है |
इस संसार में परमात्मा ने सब कुछ सत्य ही प्रकट किया है । यहाँ असत्य कुछ भी नहीं है | अतः सत्य और असत्य के भ्रम में न पड़े | आप भी इनसे परे होकर जीवन का आनंद लें | जीवन आनंद लेने के लिए ही मिला है | आप भी परमात्मा के अंश हैं और परमात्मा ने अपने आनंद के लिए सृष्टि का सृजन करता है और आनंद के लिए ही वह उसे वापिस समेट भी लेता है | इस प्रकार इन सबका ज्ञान प्राप्त कर समस्त व्यवहारिक ज्ञान को विस्मृत कर दें, तभी आप जीवन का वास्तविक आनंद ले पाएंगे |
अभी हमने यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक स्थान का सत्य अपनी स्थिति के अनुसार होता है, लेकिन साधारण व्यक्ति उसको असत्य समझने की भूल कर बैठता है | हर स्थान का सत्य अलग अलग होता है | किसी एक स्थान का सत्य दूसरे स्थान के लिए असत्य प्रतीत जरूर होता है परन्तु वास्तव में वह असत्य होता नहीं है | मैंने पूर्व में ही स्पष्ट कर दिया था कि इस ब्रह्माण्ड में जो भी कुछ हमें दृष्टिगोचर होता है अथवा जो भी आज अदृश्य है, चाहे वह जड़ हो, चेतन हो, मनुष्य हो, कीट पतंग हो, जानवर हो आदि कुछ भी हो सब सत्य ही है | मात्र स्थान, समय और परिस्थितियों के साथ साथ हमारी आसक्तियां उसे असत्य बना देती है | व्यवहारिक सत्य को सत्य समझने के लिए आवश्यक है कि हम सत्य उद्घाटित किये जाने के स्थान, समय और परिस्थिति पर कुछ कहने से पहले एक दृष्टि अवश्य ही डाल लें | ऐसा कर लेने पर सत्य के बारे में किसी प्रकार का संशय नहीं रह जायेगा | आइये ! अब हम जानें कि समय कैसे सत्य को असत्य में परिवर्तित कर देता है ?
महान वैज्ञानिक गेलिलियो से पहले यह माना जाता था कि पृथ्वी स्थिर रहती है और सूर्य उसके चारों ओर परिक्रमा करता है | गेलिलियो ने सबसे पहले यह प्रतिपादित किया कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके चारों और परिक्रमा कर रही है | सहस्राब्दियों से माने जाने वाले सत्य को गेलिलियो की इस जानकारी ने एक दिन में ही असत्य में बदल दिया | आज आधुनिक युग में गेलिलियो की बात भी असत्य साबित हो चुकी है | अब यहाँ तक माना जाने लगा है कि हमारे सौर मंडल का केंद्र सूर्य भी अपने समस्त ग्रहों को साथ लेकर किसी अन्य पिण्ड की परिक्रमा कर रहा है | हो सकता है, यह तथ्य भी भविष्य में एक बार फिर झुठला दिया जाये | लेकिन पहले वाली बात अपने समय में सत्य थी, गेलिलियो ने भी अपने समय में सत्य कहा था और आज का विज्ञान भी सत्य कह रहा है | अंतर केवल काल का यानि समय का ही है |
आप आज कह सकते हैं कि गेलिलियो से पहले लोग असत्य कह रहे थे | साथ ही यह भी कह सकते हैं कि गेलिलियो ने भी असत्य कहा था | आप एक बार गेलिलियो के काल में चले जाइये या उससे पूर्ववर्ती काल में जाएंगे, तो आपको सब वही सत्य लगेगा जैसा उस समय में सत्य के रूप में उसे कहा गया था | हाँ, यह बात भी सत्य है कि हमारे ऋषि-मुनियों ने ब्रह्मांड के विस्तार और उसकी गतिविधियों के बारे में जो बात हजारों वर्ष पूर्व कही थी, वह विज्ञान की दृष्टि में आज सत्य साबित हो रही है और आगे भी होती रहेगी |
सदियों से दुनियां पृथ्वी को चपटी बताती आ रही थी | परन्तु हमारे पूर्वज तो प्रारम्भ से ही इसे एक गेंद की तरह गोल बताते रहे हैं | वराह अवतार लेकर भगवान् ने हिरण्याक्ष से पृथ्वी को छीन कर अथाह जल से एक गेंद की तरह बाहर निकाल लिया था | कहने का अर्थ है कि हम आदिकाल से ही पृथ्वी को गोल मानते हुए आ रहे हैं |
इसी प्रकार गीता के प्रथम श्लोक को पढ़कर पिछली शताब्दी तक लोग इस बात की सत्यता पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे कि भला संजय कुरुक्षेत्र से मीलों दूर हस्तिनापुर में बैठकर अंधे धृतराष्ट्र को एक बंद कमरे में आँखों देखा हाल कैसे बता सकता है ? भला हो दूरदर्शन के अविष्कारकर्ता का, जिसने अपने काल में इस बात को भी सत्य प्रमाणित कर दिया | ऐसे हजारों उदाहरण हमारे शास्त्रों में भरे पड़े है, जो आज से पहले असत्य प्रतीत होते थे, आज वे सभी एक एक कर सत्य प्रमाणित होते जा रहे हैं | वास्तव में देखा जाये तो ये सब पहले भी सत्य थे और आज भी है, अंतर केवल प्रमाणिकता का है | एक महत्वपूर्ण बात – ‘सत्य को कभी भी किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है |’ इसीलिए हमारे ऋषि-मुनि कभी श्रेय लेने और सिद्ध करने की होड़ में नहीं पड़े |
आप को अपने चारों ओर समय और स्थान के अनुसार परिवर्तित होते जा रहे व्यवहारिक सत्य के सैंकड़ो उदाहरण मिल जायेंगे | आपकी बौधिक क्षमता इतनी तीव्र होनी चाहिए कि आप सत्य को समय, स्थान अथवा परिस्थितियों के अनुसार देखना बंद कर दें | आप समस्त ज्ञान अर्जित करने के बाद भी वास्तविक सत्य को कभी भी प्रमाणित नहीं कर पाएंगे | आप अपने ज्ञान से भी आगे निकल जायेंगे, अपने इस तथाकथित ज्ञान का परित्याग करके, तभी आप जान पाएंगे कि यहाँ इस ब्रह्मांड में सत्य के अतिरिक्त कुछ अन्य है भी नहीं | यही परम सत्य है।
सत्य सदैव के लिए ही सत्य होता है । देश काल और परिस्थितियां भले ही कुछ समय के लिए इसे धूमिल कर दे | सत्य कभी भी छुपा हुआ नहीं रह सकता, एक न एक दिन उसे प्रकट होना ही पड़ता है । हमने स्थान अर्थात देश और काल यानि समय के अनुसार सत्य को बदलते हुए जाना | अब हम चर्चा करेंगे कि सत्य परिस्थितियों के सापेक्ष किस तरह व्यवहार करता है ?
किसी भी व्यक्ति के द्वारा उच्चारित शब्द उसकी दशा को प्रतिबिंबित करते हैं | इसका अर्थ यह हुआ कि उस व्यक्ति के द्वारा कही गई बात को उसकी मानसिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही देखा जाना चाहिए | जो श्रोता इस बात को समझ जाता है, वही एक अच्छा श्रोता हो सकता है | एक आदर्श श्रोता के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी तात्कालिक परिस्थिति को मस्तिष्क से निकाल बाहर करे और केवल वक्ता की बात को ही ध्यान लगाकर सुने | इससे वक्ता की मानसिक स्थिति का निर्धारण वह बड़ी ही आसानी से कर सकता है | प्रायः यह देखा गया है कि श्रोता, वक्ता की बात सुनने के साथ-साथ अपनी मानसिक परिस्थितियों का भी चिन्तन करता रहता है | इस कारण से वह न तो वक्ता की बात को अच्छी तरह समझ सकता है और न ही अपनी मानसिक उलझन का समाधान कर सकता है | इसलिए सत्य को अच्छी तरह समझने के लिए एक आदर्श श्रोता बनना आवश्यक है |
व्यक्ति जब स्वयं विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा होता है, तब वह वक्ता की आधी अधूरी बात ही सुन पाता है | इस आधी अधूरी सुनी हुई बात से सत्य के बारे में किसी भी बात का निर्णय कर पाना लगभग असंभव हो जाता है | इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण महाभारत काल का है | महाभारत युद्ध अपने चरम पर था | द्रोणाचार्य बड़े ही मन से कौरवों के पक्ष से युद्ध का संचालन कर रहे थे | भगवान श्रीकृष्ण को पांडवों और विजय के बीच द्रोणाचार्य खड़े नज़र आ रहे थे | अंत में श्रीकृष्ण ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया जिसके कारण युद्ध का परिणाम भी बदल गया | उनका उद्देश्य था कि गुरु द्रोणाचार्य तक किसी भी प्रकार उनके पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार पहुँचाया दिया जाय |
लेकिन अश्वत्थामा तो चिरंजीवी है, वह भला मर कैसे सकता है ? श्री कृष्ण ने फिर भी एक प्रयास किया | अश्वत्थामा काल कलवित हो गया, इस समाचार को सत्य का रूप देने के लिए श्रीकृष्ण ने पांडवों की सेना में शामिल एक अश्वत्थामा नाम के हाथी को मरवा डाला | हाथी के मरते ही पांडव सैनिकों ने शोर मचा डाला - अश्वत्थामा मारा गया, अश्वत्थामा मारा गया | गुरु द्रोणाचार्य को बड़ा दुःख हुआ परन्तु वे इसे सत्य मानने को तैयार ही नहीं थे | उन्हें इस बात पर विश्वास दिलाने के लिए युधिष्ठिर को कहा गया लेकिन वे असत्य बोलने के लिए तैयार नहीं हुए | अंततः किसी प्रकार युधिष्ठिर सत्य की आड़ लेकर कहने को तैयार हो गए | उन्होंने आचार्य की ओर उन्मुख होकर कहा – “अश्वत्थामा मारा गया, नर नहीं हाथी” | अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनते ही आचार्य के हाथ से हथियार गिर गए | उनके हथियार डालते ही युद्ध में विजय का झुकाव पांडवों की ओर हो गया | अवसर पाकर द्रोणाचार्य का वध उन्ही के शिष्य द्वारा कर दिया गया |
महाभारत युद्ध के दौरान घटी यह एक असाधारण घटना थी | इस घटना में सत्य बोलते हुए भी सत्य को बड़े अनोखे तरीके से छुपा लिया गया था | यह असत्य को सत्य का आवरण लगाकर प्रस्तुत करने का एक बेहतरीन उदाहरण है | यहाँ बोला गया सत्य भी वास्तव में एक असत्य था | यह असत्य भी परिस्थिति अनुसार सत्य में परिवर्तित हो गया गया या यूँ कह सकते हैं कि सत्य में परिवर्तित कर दिया गया | वास्तव में देखा जाये तो बोला तो सत्य ही गया था परन्तु सत्य बोले जाने का उद्देश्य असत्य था, युद्ध के नियमों के अनुसार नहीं था | अब हम विचार करेंगे कि परिस्थितियों की इस व्यवहारिक सत्य में क्या भूमिका थी ?
“गुरु गुड ही रहा, चेला शक्कर हो गया”- गुरु से शिष्य अग्रणी हो जाये तो उस गुरु का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है | इसी प्रकार पुत्र, अपने पिता से प्रशिक्षण पाकर उस क्षेत्र में अगर नए मापदंड स्थापित करता है तो पिता का सीना भी गर्व से फूल जाता है | गुरु और पिता को अपने शिष्य और पुत्र से साधारण परिस्थितियों में हार जाने पर भी गर्व महसूस होता है | परन्तु यह सोचना कि प्रत्येक परिस्थिति में गुरु और पिता को हार ही मिलनी है, भी गलत होगा | अगर यह कहावत प्रत्येक परिस्थिति में समान रूप से लागू होती तो श्रीकृष्ण को इतना जटिल और निर्दयी निर्णय नहीं लेना पड़ता | इस निर्णय को जटिल तो मैं इसलिए कहूँगा क्योंकि एक परम ब्रह्म का साक्षात् व्यक्त रूप भला अपने बनाये नियमों को ताक पर कैसे रख सकता है तथा इस निर्णय को मैं निर्दयी इसलिए कहूँगा क्योंकि सबको पता था कि अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुनकर आचार्य अपने हथियार डालकर निहत्थे हो जायेंगे | एक निहत्थे को मारना निर्दयता की पराकाष्ठा ही होती है | द्रोणाचार्य किसी भी प्रकार अर्जुन से युद्ध कौशल मे कम नहीं थे, अतः युद्ध की परिस्थिति मे यह कहावत निःसंदेह गलत ही साबित होती अगर उसमें श्रीकृष्ण किसी भी प्रकार की भूमिका नहीं निभाते ।
आइये ! अब इस बात को समझते हैं कि आचार्य द्रोण जैसे विशाल व्यक्तित्व ने बिना सोचे समझे इस बात को कैसे स्वीकार कर लिया कि उनका पुत्र अश्वत्थामा इस युद्ध में मारा गया है ? आचार्य द्रोण को तो पता होना चाहिए कि अश्वत्थामा चिरंजीवी है, उसको मारा ही नहीं जा सकता | दूसरी बात, ठीक है कि युधिष्ठिर सत्यवादी थे और वे असत्य कभी भी नहीं बोलते थे परन्तु युद्ध में अपने विरोधी की किसी भी बात पर आँख मूँद कर विश्वास करना भी कहाँ तक उचित है ? युद्ध कभी भी ऐसी परिस्थिति पैदा कर सकता है, जहाँ किसी भी समय असत्य, सत्य का चोला पहनकर सामने आ सकता है | फिर द्रोणाचार्य तो युद्ध कला में पारंगत थे | उन्होंने अपने शत्रु का इतना जल्दी विश्वास कैसे कर लिया कि वह सत्य वचन ही कह रहा है ?
द्रोणाचार्य का पुत्र मोह बहुत ही अधिक था | यह पुत्र के प्रति आसक्ति ही उनके सोचने और समझने की क्षमता पर प्रहार कर बैठी | उन्होंने वास्तव में युधिष्ठिर के वाक्य को पूर्ण रूप से सुना ही नहीं क्योंकि उनकी बुद्धि पुत्र मोह के अधीन थी | उनके लिए अश्वत्थामा का अर्थ मात्र उनका पुत्र होना ही था | उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि अश्वत्थामा नाम एक हाथी का भी हो सकता है | अश्वत्थामा मारा गया बस, केवल यही उनको सुनाई दिया | इतना सुनने के बाद उनकी श्रवण क्षमता ने जवाब दे दिया | हालाँकि युधिष्ठिर ने आगे यह भी बोला था कि 'नर नहीं बल्कि हाथी' | बुद्धि पर हावी आसक्ति ने इस प्रकार वाक्य के दूसरे अंश को सुनने से द्रोणाचार्य को वंचित कर दिया |
“अश्वत्थामा हत: इति नरो वा कुंजरो वा” अगर द्रोणाचार्य को यही वाक्य युद्ध के मैदान की परिस्थिति के अतिरिक्त अन्य किसी भी परिस्थिति में कहा जाता तो यह कथन सुनकर वे समझ जाते कि जो अश्वत्थामा उनका पुत्र है वह नहीं बल्कि इसी नाम का हाथी मारा गया है। लेकिन श्रीकृष्ण तो परम ब्रह्म थे, उनको तो सारा खेल खेलना आता है | वह अपनी मर्ज़ी से इस खेल के द्वारा किसी को भी और कभी भी नचा सकते हैं | सम्पूर्ण महाभारत युद्ध में उन्होंने किया भी यही | सत्य को कभी भी असत्य कहला देते और कभी असत्य को सत्य | वह तो केवल परिस्थितियां निर्मित करते रहे और समस्त खेल निर्बाध गति से चलता रहा |
वास्तव में देखा जाये तो सारा खेल सत्य ही था | असत्य और सत्य तो परिस्थितियों के अनुसार एक दूसरे के रूप में मरीचिका की तरह आते जाते रहे क्योंकि व्यवहारिक सत्य में ऐसा ही होता है | यह सब केवल एक कारण से ही होता है और वह है हमारी आसक्ति, जैसे प्यासा पशु जल में आसक्त होने के कारण मरीचिका को ही जल का स्रोत होना मान लेता है | आचार्य द्रोण के सामने युद्ध की परिस्थिति थी और पशु के सामने प्यास की | इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अलग अलग परिस्थितियों मे सत्य को अलग अलग तरीक़े से समझा जाता है | अलग अलग समझने के बाद भी सत्य सदैव सत्य ही रहता है, असत्य नहीं हो जाता |
व्यवहारिक सत्य स्थान, समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित हो सकता है परन्तु इस परिवर्तन के पीछे भी मूल रूप से वास्तविक सत्य ही कारण होता है | व्यवहारिक सत्य जीवन में मुख्यतः व्यवहार करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है | मनु अपने ग्रन्थ मनुस्मृति में कहते हैं –
सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रिय |
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एव धर्मः सनातनः || मनुस्मृति-4/138||
अर्थात सत्य बोलें, प्रिय बोलें परन्तु न तो अप्रिय सत्य बोलें और न ही प्रिय असत्य बोलें |
मनुस्मृति का यह श्लोक व्यवहार की दृष्टि से बड़ा उपयोगी है | आपके जीवन में सत्य अथवा असत्य जिस को भी आप महत्वपूर्ण मानते हैं, उसे यह श्लोक स्पष्ट करता है | एक दार्शनिक और आध्यात्मिक व्यक्ति की दृष्टि में चहुँ ओर परमात्मा होने के कारण उसे कहीं भी सत्य के अतिरिक्त अन्य कोई दृष्टिगत ही नहीं होता, उसकी दृष्टि में तो सब कुछ सत्य ही है |
इस प्रकार हमने इतने लम्बे विवेचन से यह जाना है कि व्यवहारिक सत्य वास्तव में सत्य नहीं है | वास्तविक सत्य को जानना और उसके अनुसार आचरण करना ही हमारा धर्म है | इसीलिए गोस्वामीजी ने मानस में लिखा है कि सत्य के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है | हमें उस परम सत्य को जानना आवश्यक है, जिसे जानकर ही मनुष्य संसार के साथ सभी बंधनों से मुक्त हो सकता है | व्यवहारिक सत्य तो आपको सदैव बंधन में डाले रखता है, जोकि आपके सुख-दुःख आदि द्वंद्व का कारण बनता है, जबकि परम सत्य आपको इनसे मुक्त कर निर्द्वंद्व कर देता है |
पुनः चलते हैं महान ग्रन्थ “योगवासिष्ठ” की ओर | जैसा कि पूर्व में मैंने बताया है कि योगवासिष्ठ के अनुसार धर्म के चार चरण होते हैं | ये धर्म के चरण ही मनुष्य के कर्तव्य-कर्म के मुख्य आधार है | इन चारों चरणों में विश्वास रखते हुए कर्तव्य करते रहना ही वास्तविकता में धर्म हैं | धर्म के चरण हैं – सत्य (truth), अहिंसा (nonviolence) अथवा दया (kindness), तप (penance) और दान (donation) | एक सत्य को भी अगर हम अपने जीवन में उतार लेते हैं तो फिर अहिंसा अर्थात दया, तप और दान, ये तीनों भी स्वतः सिद्ध हो जाते हैं | जैन धर्म कहता है –“अहिंसा परमो धर्मः यतो धर्मस्ततो जयः”| इस अहिंसा का पदार्पण मनुष्य के जीवन में कब होता है ? अहिंसा मनुष्य के जीवन में तभी आ सकती है, जब वह संसार के प्रत्येक प्राणी को अपने समान समझे | सभी को स्वयं के समान समझना तभी संभव हो सकता है जब हम परमात्मा को सर्वत्र देखें | ‘सूई की नोक जितनी जगह भी परमात्मा से रिक्त नहीं है’, ऐसा स्वामीजी कहते हैं, इसका अर्थ है कि संसार में सभी में और सभी स्थानों पर परमात्मा हुए | फिर भला कोई किसी को क्यों तो मारे और क्यों कोई मरे | सब पर दया का भाव जीवन में इस सत्य को धारण करते ही आ जाता है |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को यही बात तो समझा रहे हैं –‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ अर्थात सत्य का तो कभी और कहीं भी अभाव नहीं है और कहीं पर भी असत्य की सत्ता नहीं है | इस कथन के अनुसार तो फिर सत्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | यही हमारी सनातन संस्कृति के पुष्पित और पल्लवित होने का मुख्य आधार है |
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं –
परहित सरिस धर्म नहीं भाई |
परपीड़ा सम नहीं अधमाई ||
दूसरे के हित के लिए कर्म करने के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरे को दुःख देने के समान कोई नीच कर्म नहीं है |
गीता के अनुसार कर्मयोग वह है जिसमें कर्म संसार की सेवा के लिए किये जाते हैं | संसार की सेवा के लिए ही यह शरीर मिला है | मनुष्य शरीर का सर्वोत्तम उपयोग यही है कि उससे संसार की सेवा की जाये | संसार में आसक्ति रखते हुए जो भी कर्म किये जाते हैं, वे सेवा के अंतर्गत नहीं आते हैं | प्रायः लोग अपने नाम के लिए अथवा मान-सम्मान मिलने की अपेक्षा से सेवा कार्य करने का प्रदर्शन करते हैं | जब तक मन में किसी भी प्रकार की कामना रहती है अथवा अपेक्षा रहती है, तब तक वह सकाम कर्म ही माना जायेगा | सकाम कर्म, कर्मयोग नहीं है | निस्वार्थ भाव से किये जाने वाला कर्म ही कर्मयोग के अंतर्गत है |
संसार की सेवा के लिए शरीर से कर्म करने तभी संभव हो सकते हैं जब हम सत्य को ही अपना धर्म समझें | सत्य एक ही है और वह है परमात्मा | इस संसार में सर्वत्र परमात्मा को देखने वाला ही परमात्मा के लिए कर्म करने वाला होता है और परमात्मा के लिए किये जाने वाला कर्म ही संसार की सेवा है | अतः जीवन में सत्य को ही धारण करें | इसी सत्य को धर्म बना लेने पर आपको किसी और को धारण करने की आवश्यकता नहीं होगी | जहाँ सत्य है, वहां अहिंसा, यज्ञ, तप आदि स्वतः ही सिद्ध हो जाते हैं |
अब तक हमने व्यवहारिक सत्य और वास्तविक सत्य का विवेचन किया है | देखा जाये तो व्यवहारिक सत्य को तात्कालिक सत्य भी कहा जा सकता है क्योंकि यह सत्य उस समय अर्थात उस काल, स्थान और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए कहा जाता है | जब स्थान, समय और परिस्थिति में बदलाव हो जाता है तब ऐसे सत्य का कोई महत्त्व नहीं रह जाता | अतः हमें इस प्रकार के सत्य में ज्यादा उलझना नहीं चाहिए |
वास्तविक सत्य तो केवल एक ही होता है और वह कभी भी परिवर्तित नहीं होता है | इसको शाश्वत, परम अथवा सनातन सत्य भी कहा जा सकता है | यह सत्य जिस दिन हमें समझ में आ जायेगा उस दिन हम परमात्मा के पास होंगे | मूलभूत इस सत्य पर ही सारा संसार टिका हुआ है यहाँ तक कि व्यवहारिक सत्य भी इसी सत्य पर आधारित होता है | संसार में दो की सत्ता नहीं हो सकती, इसी प्रकार सत्य भी दो नहीं हो सकते | सत्य एक ही होता है उसी सत्य को जीवन में अपना धर्म मानकर उसी पर चलने का प्रयास करना चाहिए |
भगवान् श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं कि –
यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् |
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् || गीता-18/5 ||
अर्थात यज्ञ, दानऔर तप रूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वे तो अवश्य कर्तव्य है क्योंकि यज्ञ, दान और तप – ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान मनुष्यों को पवित्र करने वाले हैं |
गीता के 18/5 श्लोक में भगवान् ने यज्ञ, दान और तप तीन कर्मों को त्यागने का नहीं कहा है बल्कि ये कहा है कि ये तीनों कर्म ही मनुष्य को पवित्र करने वाले हैं | यज्ञ दूसरे के हित के लिए किये जाने वाले कर्म हैं और दान मनुष्य की आसक्ति समाप्त करने के लिए है | किसी वस्तु का दान तभी होता है, जब मनुष्य के भीतर उस वस्तु के प्रति किसी प्रकार का मोह न हो | तप का अर्थ है सहन करने की शक्ति | गीता के 17 वें अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण ने शरीर, मन और वचन के तप का विस्तार से विवेचन किया है |
यज्ञ, दान और तप सात्विक हों, यह आवश्यक है | ये तीनों प्रकार के कर्म सत्य पर ही आधारित हैं | सत्य को ही धर्म बना लेने पर ही किये गए यज्ञ, दान और तप मनुष्य को परमात्मा तक ले जाते हैं | आज इस कलियुग में सत्य पर आधारित कर्म करना असंभव सा होता जा रहा है | सत्य का आचरण करने से मनुष्य के जीवन में जो शारीरिक, मानसिक कष्ट आता है, उसे सहन करने वाला व्यक्ति समय पाकर उसी प्रकार निखर आता है जिस प्रकार तपाने से ही सोने में निखार आता है | तुलसी मानस में कहते हैं –
सिबी दधीचि हरिचंद नरेसा |
सहे धरम हित कोटि कलेसा ||
रंतिदेव बलि भूप सुजाना |
धरमु धरेउ सहि संकट नाना ||
सत्य को धर्म बनाकर उस पर आचरण करने वाले महापुरुष शिवी, दधीचि, हरिशचंद्र, रंतिदेव और बलि आदि हुए हैं | उन्होंने सत्य को धर्म बनाकर धारण किया और जीवन में बहुत से कष्ट भी सहे | कष्ट सहकर भी वे धर्म के पथ से तनिक भी विचलित नहीं हुए | यही कारण है कि वे आज भी वन्दनीय हैं |
आप इन सभी महापुरुषों के बारे में जानते ही होंगे | फिर भी संक्षेप में इनके बारे में बता देता हूँ | राजा शिवी की गोद में जब कबूतर आकर गिरा तब उसका पीछा करते एक बाज भी वहां चला आया | उसने राजा शिवि को कहा कि ये कबूतर मेरा भोजन है, इसे मुझे दे दो | राजा शिवि ने कहा कि कबूतर मेरी शरण में आया है, अतः इसका जीवन बचाना मेरा प्रथम कर्तव्य है | उन्होंने बाज को कबूतर के भार जितना अपना मांस ले लेने का सुझाव दिया | शिवि ने बेहिचक अपना मांस काटना प्रारम्भ भी कर दिया था | बाद में पता चलता है कि शिवि की यह एक परीक्षा ही थी |
अयोध्या के राजा हरिशचंद्र ने भी अपने वचन का पालन करने के लिए बहुत कष्ट सहे थे | यहाँ तक कि उन्होंने निश्चित समय में दिया गया वचन निभाने के लिए अपनी पत्नी और पुत्र रोहिताश्व तक को बेच दिया था | महर्षि दधीचि को कौन नहीं जानता | उन्होंने राक्षसों पर विजय प्राप्त करने के लिए अपना शरीर तक दे दिया था | उन्हीं की हड्डियों से बने वज्र से देवता जीत कर निर्भय हो पाए थे | रंतिदेव अपने परिवार का पालन धर्म के मार्ग पर चलते हुए कर रहे थे | कई दिन से भूखे परिवार को जब अन्न प्राप्त हुआ तभी वहां एक ब्राह्मण आ गया | ब्राह्मण को अन्न देने के बाद बचे हुए अन्न का भोजन करने वाले ही थे कि एक शूद्र याचक अपने कुत्ते सहित उनके समक्ष आ खड़ा हुआ | उसने दोनों के लिए भोजन माँगा | रंतिदेव ने दोनों को शेष बचा भोजन भी दे दिया | उन्होंने सोचा कि आज जल पीकर ही रह जायेंगे | वे जल पीने ही वाले थे कि उसी समय उन्होंने देखा कि एक वृद्ध अर्धमूर्छित अवस्था में भूमि पर पड़ा पानी-पानी चिल्ला रहा है | उन्होंने पास में जितना भी जल था, उस वृद्ध को पिला दिया | भूख-प्यास की इस अवस्था में रंतिदेव भी अंततः मूर्छित हो गए | यह भी उनके सत्य और धर्म की एक परिक्षा थी ।
राजा बलि को कौन नहीं जानता ? राजा बलि हिरण्यकश्यप के प्रपोत्र और भगवान् के परम भक्त प्रहलाद के पौत्र थे | विरोचन उनके पिता थे जिनकी हत्या देवराज इन्द्र के द्वारा छलपूर्वक कर दी गई थी | उसके बाद बलि को राज्य मिला था | वे बड़े शक्तिशाली थे | अपने पराक्रम के बल से उन्होंने तीनों लोकों पर अपना अधिकार कर लिया था | दैत्य होने के कारण उनमें अहंकार ज्यादा था फिर भी वे सदैव सत्य और धर्म का आचरण करने के लिए जाने जाते थे | शुक्राचार्य जी उनके गुरु थे |
अपने गुरु की सहायता से उन्होंने एक सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करने का संकल्प किया | 99 यज्ञ तो सानंद संपन्न हो गए | सौवें यज्ञ को अगर वह संपन्न कर चूके होते तो इन्द्र के पद पर आसीन हो जाते | एक दैत्य भला इन्द्र के पद पर कैसे आसीन हो सकता है, यह सोचकर देवता लोगों में भय व्याप्त हो गया | उन्होंने भगवान् विष्णु से सहायता मांगी | भगवान् विष्णु यज्ञभूमि पर वामन रूप लेकर आये | यज्ञ प्रारम्भ होने से पूर्व ब्राह्मण बने वामन भगवान् ने उनसे दान माँगा | बलि ने उनसे कहा कि दान के रूप में उन्हें क्या चाहिए ? वामन भगवान् ने मात्र तीन पग भूमि मांगी | राजा बलि के लिए यह साधारण सी बात थी, उन्होंने हाँ भर ली | दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने बहुत समझाया कि वे दान देने से मना कर दे क्योंकि ये साधारण बटुक बालक नहीं है, ये तो साक्षात् विष्णु भगवान् है | परन्तु बलि अपने कहे गए वचन से नहीं टले | दो पग में ही भगवान् ने तीनों लोक नाप लिए और बलि से पूछा कि तीसरा पग कहाँ रखूं ? बलि ने कहा – ‘मेरे माथे पर रखें |’ इस प्रकार राजा बलि ने अपना सर्वस्व दे दिया परन्तु अपने दिए गए वचन और सत्य पर दृढ रहे |
इस प्रकार हमने जाना कि किस प्रकार सत्य का आचरण करते हुए धर्म मार्ग पर चलने वाले को कितने कष्ट सहन करने पड़ते हैं | शारीरिक रूप से इनको हम कष्ट मान सकते हैं परन्तु जो सत्य के लिए जीता है उसके लिए ये कष्ट न होकर एक प्रकार का आनंद होता है | इसीलिए सत्य के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है, ऐसा कहा जाता है | सत्य के समान दूसरा धर्म क्यों नहीं है ? गोस्वामीजी ने मानस में लिखा है –
धरमु न दूसर सत्य समाना |
आगम निगम पुरान बखाना ||
महर्षि वसिष्ठ ने धर्म के जो चार चरण बताये हैं उनमें सत्य के अतिरिक्त तीनों धर्म तप, अहिंसा और दान, ये सभी एक देशीय हैं, जबकि सत्य व्यापक है | सत्य का पालन करने से अहिंसा, तप और दान का स्वतः ही पालन हो जाता है | इसीलिए सत्य के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है, ऐसा कहा गया है |
सत्य साक्षात् परमात्मा है | इस जगत में सब कुछ असत है क्योंकि जगत प्रतिपल बदल रहा है | हमारा शरीर संसार का ही भाग है, यह भी प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है | प्रतिदिन हमारे शरीर की हजारों कोशिकाएं मर जाती है और उनका स्थान दूसरी नई कोशिकाएं ले लेती है | इस प्रकार सात वर्षों की अवधि में पूरा शरीर ही परिवर्तित हो जाता है और एक दम नया शरीर बन जाता है | प्रतिक्षण बदलने वाला शरीर सत्य कैसे हो सकता है ? मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यही है कि वह शरीर को ही सत्य समझ लेता है | अभी विगत में हमने जिन पांच महापुरुषों की चर्चा की है, क्या उन्होंने कभी अपने शरीर को महत्त्व दिया था ? नहीं दिया था | ऋषि दधीचि ने तो देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए अपने शरीर की हड्डियाँ तक दे डाली थी |
दधीचि ने न तो स्वयं के शरीर के बारे में सोचा और न ही अपने परिवार के बारे में विचार तक किया | उनके शरीर छोड़ते समय उनकी पत्नी स्वर्चा गर्भवती थी | ऋषि के शरीर छोड़ते ही उन्होंने अपना गर्भ पीपल के पत्ते पर रख दिया और सती हो गयी | इसलिए उनको स्वर्चा के साथ साथ गर्भस्तिनी भी कहा जाता है | पीपल के पत्ते पर रखे गर्भ से जो पुत्र हुआ, वे बड़े होकर ऋषि पिप्पलाद कहलाये |
सत्य के मार्ग पर चलने वाले असत को महत्त्व नहीं देते हैं | उनका सीधा सम्बन्ध परमात्मा से ही रहता है | सही भी है कि सत्य अपरिवर्तनशील है और महत्त्व सदैव न बदलने वाले का ही होता है | अन्य जो भी धर्म के अंतर्गत आते हैं, सभी व्यक्तिगत है जबकि सत्य व्यापक है | जहाँ तक आपकी दृष्टि जाती है, सत्य के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है |
गीता में अर्जुन, भगवान की स्तुति करते हुए कह रहे हैं -
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं पुरुषोमतो मे ।।11/18।।
आप ही जानने योग्य परम अक्षर (परब्रह्म परमात्मा)हैं, आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं,आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही सनातन पुरुष हैं। ऐसा मेरा मत है।
अर्जुन ने जब भगवान श्री कृष्ण का विश्वरूप देखा, उसे समझ में आ गया था कि सम्पूर्ण जगत में एक परमात्मा के अतिरिक्त कोई नहीं है। सब कुछ परमात्मा ही हैं, वही सत्य है और धर्म के रक्षक भी वही है। ऐसे में सबके एक मात्र आश्रय भी वही है। वही सत्य हैं, वही धर्म है और वही सनातन हैं। सत्य ही सनातन हैं, सत्य के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है।धर्मो रक्षति रक्षतः।
इसलिए परमात्मा को सर्वत्र देखने वाला ही सत्य को ही सबसे बड़ा धर्म मानकर उस को जीवन में आचरण में ला सकता है | इसलिए गोस्वामीजी ने कहा है कि –
धरमु न दूसर सत्य समाना |
आगम निगम पुरान बखाना ||
जिस दिन मनुष्य अपने जीवन में धर्म के रूप में सत्य को अपना लेता है और उस पर अडिग बना रहता है, परमात्मा के वह निकटतम होता है | फिर असत उसको सत होने के रूप में भ्रमित नहीं कर सकता | भगवान् स्वयं गीता में कहते हैं – ‘येन सर्वमिदं ततम्’ अर्थात जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है | जिससे यह जगत व्याप्त है वही सत्य है, वही ज्ञान है और वही परमात्मा है | जिसको यह बात समझ में आ जाती है वह फिर सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ता |
सत्य पर चलना ही परमात्मा की यात्रा करना है। संसार का आकर्षण ही हमें सत्य से विमुख करता है। जीवन में इसी आकर्षण में फंस कर अपने सुख के लिए हम सत्य से विमुख हो जाते हैं जिसका परिणाम दुःख भोगना है।सुख-दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू है। एक के साथ दूसरा जुड़ा हुआ है फिर भी दोनों का जीवन में आगमन एक साथ नहीं होता है। एक जाता है तो दूसरा आकर उसका स्थान ले लेता है। सुख-दुःख सत्य को छोड़ने के कारण मिलते हैं।सत्य के मार्ग पर चलने वाला सदैव आनन्द में रहता है।
हमारा जीवन धर्ममय होगा, तभी इस जीवन में हम परमात्मा तक पहुंच सकते हैं।धर्ममय जीवन से आशय है -धर्म का अनुसरण करना। सत्य से बढ़कर कोई दूसरा कोई धर्म नहीं है। इसीलिए मानस में तुलसी ने कहा है -
"धरमु न दूसर सत्य समाना"
इसी के साथ यह श्रृंखला समाप्त होती है। आप सभी का साथ बने रहने का आभार।
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||