Monday, March 21, 2022

मुक्त कीन्हि असि नारि

 मुक्त कीन्हि असि नारि

         हमारा परम सौभाग्य है कि हमने उस धरा पर जन्म लिया है, जहाँ इस युग में कई महान महिला भक्त हुई हैं | मकराना की करमा बाई, जिसके खीचड़े का प्रथम भोग आज भी पुरी में ठाकुरजी को लगता है, उसी करमा का परमात्मा में श्रद्धा और विश्वास इतना दृढ था कि भगवान् श्री कृष्ण को व्यक्त रूप में आकर उनका खीचड़ा खाना पड़ा | कहाँ तो करमा का बापू जीवन भर परमात्मा को भोग लगाने की क्रिया मात्र करता रहा और कहाँ करमा जिसने अपने बापू को खीचडा खाते हुए परमात्मा के दर्शन करा दिए | नमन है, ऐसी विभूति को |
         डेह (नागौर) के पास स्थित एक गाँव मांझुवास की अनपढ़ फूली बाई को भला हम कैसे भूल सकते हैं? फूली बाई नाम-भक्ति की एक आदर्श भक्त हुई है | कहा जाता है कि उनके द्वारा थापी गयी गोबर की थेपड़ी (उपले) में से भी राम-राम की धुन निकलती थी | एक छोटे से गाँव में अभावों के बीच पली-बढ़ी फूली के संतत्व का ही प्रभाव था कि उसने जोधपुर महाराजा और उनकी समस्त सेना को काबुल-युद्ध से लौटते हुए एक साथ बैठा कर भर-पेट भोजन करा दिया |
         मेड़ता की मीराबाई से तो आप सभी परिचित हैं ही, जो बाद में चितौड़ (मेवाड़) की महारानी भी बनी थी | भोजराज के साथ विवाह कर वह चित्तौड़ के महलों में पहुंच तो गई थी परंतु जो जन्म से ही गिरधर की हो गयी थी, उसको भला राजमहल का वैभव कब तक बाँध कर रख सकता था ? राजसी सुख-वैभव को प्रभावहीन करते हुए भगवान् श्री कृष्ण के प्रेम में वृन्दावन और द्वारका तक पहुँच गयी और अंततः भगवान् ने स्वयं उसे सशरीर अपने में लीन कर लिया |
          यह तो हुई कलियुग में भारत जैसे महान देश के एक प्रान्त, राजस्थान और उसके भी एक जिले नागौर की बात | त्रेता युग के समय दक्षिण भारत में भी एक महान नारी-भक्त हुई है, शबरी | शबरी - एक नाम, जो आज भी भक्ति का पर्याय बना हुआ है | कई वर्षों के बीत जाने पर कभी-कभी किसी ऐसे भक्त के दर्शन होते हैं, जिन्होंने भक्ति को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध कर दिया है | एक महिला का भक्त होना विशेष बात है क्योंकि जिस परिवेश में एक बालिका का पालन-पोषण होता है, उसको देखते हुए इस बात की कल्पना तक नहीं की जा सकती कि उसके भीतर की भक्ति भावना उभर कर सबके सामने एक दिन प्रकट भी हो सकती है | इस बार हम चर्चा करेंगे, इसी राम-भक्त शबरी की |
        चलिए ! सबसे पहले चलते हैं, शबरी के पूर्वजन्म की कथा पर | कहा जाता है कि शबरी अपने पूर्वजन्म में एक राज्य की महारानी हुआ करती थी | महारानी के भी कोई पूर्वजन्म के संस्कार ही थे जो वह सदैव संतों की सेवा करने के लिए लालायित रहती थी | कई बार तो उसे स्वयं पर ग्लानि होती थी क्योंकि उसको अपने जीवन में एक महारानी होने के कारण सदैव राजा के मान-सम्मान के अनुरूप आचरण करना पड़ता था | लौकिक दृष्टि से भले ही महारानी का जीवन सुखी प्रतीत होता हो परन्तु इस महारानी को तो अपना जीवन भी बड़ा दुखमय लग रहा है | वह जानती है कि राजमहल सुख की खान नहीं है, केवल संतों की सेवा में रहते हुए सत्संग करना ही उसे सुखी कर सकता है | सत्संग और संतों की सेवा का सुख एक महारानी के रूप में रहते हुए मिलना कभी संभव नहीं हो सकता था | जब सत्संग की व्याकुलता एक सीमा से अधिक बढ़ गयी तो उन्होंने रनिवास को छोड़ने का निश्चय कर लिया | एक रात को महारानी ने राजमहल को त्याग दिया और प्रयाग जाने का रास्ता पकड़ लिया | प्रयागराज में वह सत-संग लेती और संतों की सेवा करती रहती |
          महारानी जैसे उच्च पद को गौरान्वित करने वाली किसी भी नारी के लिए अपना सांसारिक स्वरुप छिपाना बड़ा ही असंभव होता है क्योंकि एक पुरुष की दृष्टि भले ही अन्य किसी पुरुष पर न जाये, एक स्त्री पर अवश्य ही जाकर टिक जाती है | एक दिन ऐसा ही इस महारानी के साथ भी हुआ |
               माघ मास में संगम पर स्नान करने महारानी के राज्य के कुछ नागरिक भी आये थे | उन्होंने सन्तो की सेवा करते हुए अपनी महारानी को पहिचान लिया था | महारानी को लगा कि अब यह बात राजा तक अवश्य ही पहुंचेगी | मिलने वाली संभावित प्रताड़ना के भय से उसने संगम में डूबकर आत्महत्या कर ली | आत्महत्या, एक जघन्य अपराध और उस अपराध-कर्म की सजा.....जन्म हुआ एक भील के घर में, जहां के परिवेश में परमात्मा की बात तक होना लगभग असंभव सा लगता है | उसको जन्म नाम मिला, श्रमणा | भील समुदाय की जाति शबर में उसका जन्म हुआ था, इसलिए बाद में वह शबरी कहलाई |
             गीता में अर्जुन जब भगवान् श्री कृष्ण से पूछते हैं कि अगर योगभ्रष्ट व्यक्ति की पुनः सही मार्ग पकड़ने से पहले ही देह छूट जाये तो क्या होता है ? भगवान् कहते हैं कि अपने नए जन्म के साथ ही वह बाधित हुई प्रगति से आगे की यात्रा प्रारम्भ करते हुए योग-मार्ग पर बढ़ने लगता है | पूर्व में जितनी भी उसकी प्रगति की हुई होती है, वह नष्ट नहीं होती | इसी सिद्धांत के अनुसार भीलनी शबरी ने भले ही आत्महत्या जैसा जघन्य पाप किया हो, परमात्मा के मार्ग से उसका विचलन नहीं हुआ था | आत्महत्या के अपराध का परिणाम एक भील के घर जन्म लेकर उसने भोग लिया | अब आगे उसकी परमात्मा के मिलन के मार्ग में प्रगति होनी शेष है |
         पिता ने अपना कर्तव्य समझ कर युवावस्था की देहरी पर खड़ी शबरी के लिए वर ढूंढ लिया | उसके विवाह की तैयारी की जा रही है | बारात के लिए महाभोज का आयोजन किया गया है | भील परिवार में भोजन निरीह पशुओं के मांस का ही होता है | महाभोज के लिए बकरों और मेढ़ों की व्यवस्था की गयी है | अबोध बालिका शबरी पूछती है, ‘इन मासूम प्राणियों का क्या करेंगे ?’ पिता उत्तर देता है कि इन्हें काटा जायेगा और फिर इनके मांस को पकाकर अतिथियों को खिलाया जायेगा |
        ठीक उसी समय शबरी के पूर्वजन्म के संस्कार जाग उठते हैं | निरीह पशुओं की हिंसा की कल्पना कर वह सिहिर उठती है, उसका हृदय द्रवित हो जाता है | ओहो ! मेरे कारण इतने पशुओं की हिंसा हो रही है ? हे भगवान् ! मुझे राह दिखला | तत्काल ही घर छोड़कर घने जंगल में वह  भीलनी बालिका शबरी अदृश्य हो जाती है |
           जंगल में आगे बढ़ते-बढ़ते शबरी सोचती है कि वन में तो बहुत से ऋषि-मुनि तपस्या करते हैं | चलो अच्छा हुआ, मैंने घर को छोड़ दिया जो अब मुझे संतों की सेवा करने का सौभाग्य मिलेगा | परन्तु तुरंत ही वह मायूस हो गयी | मैं एक नारी और वह भी एक नीच जाति की, भला मुझसे सेवा करवाएगा कौन ? कौन मुझे आश्रय देगा ? ऐसा करती हूँ कि जंगल में एक छोटी सी झोंपड़ी बना लेती हूँ और कन्द-मूल-फल खाकर अपनी क्षुधा शांत कर लिया करुँगी | हाँ, हाँ, यही ठीक है, मेरे लिए ऐसा करना ही उचित रहेगा |
           इस प्रकार सोचते-विचारते शबरी घने जंगल के मध्य में पहुँच गयी | उसने देखा कि वहां कई आश्रम बने हुए है, जिनमें अनेकों ऋषि-मुनि तपस्या कर रहे हैं | वह छिपते-छिपाते उन आश्रमों से इतनी दूर चली गयी, जहां सुगमता से किसी ऋषि-मुनि की दृष्टि उस पर न पड़ सके | ऐसे स्थान पर उसने अपने रहने के लिए एक छोटी सी झोंपड़ी बना ली | एक अनपढ़ भीलनी, जो संतों की सेवा को ही परमात्मा के मिलन का मार्ग मान रही है, दिनभर वन में घूमती, ऋषियों की पूजा के लिए फूल तोड़ती और उनके भोजन के लिए कन्द-मूल-फल आदि की व्यवस्था करती |
        मध्य रात्रि को जब सभी गहरी नींद में सो रहे होते, उन ऋषियों के एक एक आश्रम में धीरे-धीरे प्रवेश करती और प्रातःकालीन पूजा के लिए फूल तथा दिन में आहार के लिए फल आदि चुपके से रख आती | लौटकर ब्रह्ममूहूर्त से पहले ही ऋषियों के स्नान के लिए पम्पा सरोवर की ओर जाने वाले मार्ग को बुहार देती | समस्त मार्ग अच्छी प्रकार से बुहारकर ऋषियों के सरोवर जाने से पहले ही वह लौटकर अपनी झोंपड़ी में आ जाती | दिनभर वह संतों के जीवन के बारे में ही सोचती रहती | वह सोचती कि इस जीवन में कब उसे सत्संग करने का अवसर मिलेगा ?
           भक्ति का अर्थ है – सेवा और प्रेम | मनुष्य के समक्ष दो मार्ग हैं –एक श्रेय का और दूसरा प्रेय का | अपने बनाए संसार का ही प्रिय लगना, केवल उसी से प्रेम करना, प्रेय मार्ग है और परमात्मा का प्रिय लगना, भगवान् से प्रेम करना श्रेय मार्ग है | हमें प्रेय मार्ग को छोड़कर श्रेय मार्ग को अपनाना है | भगवान् से प्रेम करने के लिए अपने बनाये संसार से प्रेम करना छोड़ना होगा | सच है, भक्ति करना सरल नहीं है क्योंकि हमें हमारा संसार मीठा लगता है, प्रिय लगता है | जिसको भक्ति करनी है, उसे इस संसार के समस्त सुखों का त्याग करना होता है | इसलिए भक्ति-मार्ग पर आकर सांसारिक सुख की कामना का त्याग कर दो | यह मत सोचो कि इस जीवन का क्या होगा ? भक्ति के लिए परमात्मा पर पूर्ण श्रद्धा का होना आवश्यक है | फिर भगवान् ही उसकी देखरेख करते हैं | गीता में भगवान् कहते ही हैं –‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ | शबरी ने अपने सभी सुखों का त्याग किया था | दिनभर जंगल में कंटीले झाड़-झंखाड़ में  उलझती, गिरती-पड़ती, निकलती और फल-फूल चुनती तथा रात को नींद का त्याग कर आश्रम-आश्रम जाती | यह भक्ति की पराकाष्ठा है |
           सेवा भी भक्ति है | जब आप स्वयं के शरीर के सुख के लिये कोई कार्य करते हो तो यह भोग है और जब यही कार्य दूसरे को सुख पहुँचाने के लिए करते हो तो वह भगवत्-सेवा है | दूसरे को सुख पहुँचाने के लिए त्याग करना पड़ता है | शबरी अपने लिए कुछ नहीं करती बल्कि ऋषियों के सुख के लिए सब कुछ करती है | आश्रम में ऐसी सुन्दर व्यवस्था होते देखकर सभी ऋषियों को आश्चर्य होता | सभी जानने को उत्सुक थे कि हमारे लिए इतना सब कुछ कौन कर रहा है ।
           वन में रहने वाले ऋषियों में एक ऋषि थे, मतंग | ऋषि मतंग अन्य सभी ऋषियों से जरा  भिन्न प्रकृति के थे | कहा जाता है कि वे एक बार के लिए एक हाथी को मारते और एक वर्ष तक उसका मांस खाते रहते | हाथी का एक पर्यायवाची शब्द मतंग भी है | हो सकता है इसी कारण से इन ऋषि का नाम मतंग पड़ा हो | मतंग ऋषि के मन में भी यह जानने की उत्सुकता हुयी कि आखिर उनकी इतनी सेवा कौन कर रहा है ?
          एक रात, उन्होंने सब कुछ जान लेने का निर्णय करते हुए नींद नहीं ली बल्कि सोने का अभिनय किया | अर्धरात्रि को ज्योंही शबरी ने उनके आश्रम में प्रवेश किया, वे उठ बैठे | उन्होंने शबरी को देखा | शबरी तो ऋषि को देखते ही भय से थर-थर काम्पने लगी | एक तो वह नीच जाति की, ऊपर से स्त्री और इधर ऋषि मतंग का एक ब्राह्मण होना | उसने सोचा कि अब उसकी खैर नहीं | प्रताड़ना के भय से वह सिहर उठी | मतंग ऋषि तो पहुंचे हुए संत थे | उनसे शबरी की मानसिकता छुपी न रह सकी | उन्होंने शबरी से प्रेमपूर्वक पूछा – ‘बेटी, तुम कौन हो ? कहाँ रहती हो ?’ उत्तर में शबरी ने अपनी समस्त गाथा मतंग ऋषि को रोते हुए कह सुनाई।    
        सेवा के लिए उसकी अटूट श्रद्धा देखकर ऋषि मतंग ने अपने आश्रम के एक कोने में उसे रहने की अनुमति दे दी और कह दिया कि आज से तुम मेरी बेटी हो | अब आगे से चोरी-छुपके कोई काम करने की आवश्यकता नहीं है | दिन के समय ही जंगल में जाकर फल-फूल ले आया करो | जब मैं शिष्यों के साथ सद्चर्चा करूँ तब तू लौटकर परमात्मा की कथा भी सुन लिया करो |
                 एक नीच जाति की स्त्री को आश्रय देकर मतंग अन्य सभी ऋषियों के कोपभाजन बन गए | उन्होंने मतंग ऋषि को अपने से अलग-थलग कर दिया | मतंग ऋषि पर इस बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा | वे तो जानते थे कि देह और जाति तो प्रारब्ध का परिणाम है | सभी देह भिन्न भिन्न आकार और रंग-रूप की हो सकती है परन्तु सब में एक परमात्मा ही निवास करते हैं | ऐसे में कौन छोटा और कौन बड़ा; कौन ऊँचा और कौन नीचा, कौन पुरुष और कौन स्त्री ? सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ परमात्मा की उपस्थति न हों | सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं | ऐसे में कौन किससे घृणा करे और क्यों करे ? संसार में सभी से प्रेम करना ही परमात्मा की भक्ति है |
        प्रश्न उठता है कि मतंग के स्थान पर अन्य कोई ऋषि होता तो क्या शबरी के साथ वे भी प्रेम का व्यवहार करते ? नीच जाति की और वह भी महिला होना, अन्य ऋषियों के अनुसार ऐसे व्यक्ति से बात तक करना उचित नहीं है। फिर मतंग ऋषि ने शबरी के साथ विपरीत व्यवहार क्यों कर किया ? इसके लिए हमें मतंग के बाल्य काल को जानना होगा।
    मतंग को बचपन से अपने साथियों से उपहास का भाजन बनना पड़ता था।मतंग उसका कारण जानना चाहते थे।एक दिन जंगल में उदास बैठे थे, तब एक गर्दभी से उनका संवाद हुआ। उस गर्दभी ने बताया कि आपका पालन पोषण  ब्राह्मण दम्पति ने किया अवश्य है परंतु आप उस ब्राह्मणी के पति की संतान न होकर एक नाई के पुत्र हैं। ब्राह्मणी ने मेरे समक्ष ही नाई से संसर्ग किया था इसलिए मैं यह बात जानती हूँ। आपको अपने से निम्न स्तर का मानकर ही अन्य ब्राह्मण पुत्र आपकी उपेक्षा करते हैं।
     सब कुछ जानकर मतंग ने ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए तप किया।तप से वे ब्राह्मण बने और फिर ऋषि। ऋषि मतंग अपने बाल्यकाल की बात भूले नहीं थे, इसीलिये उन्होंने शबरी के साथ प्रेम का व्यवहार किया। मतंग जानते थे कि किस कुल में और कहाँ जन्म लेना है, यह व्यक्ति के हाथ में नहीं है। उन्होंने शबरी की सेवा भाव और प्रेम को देखा, जाति को नहीं।
        मतंग ऋषि प्रतिदिन अपने शिष्यों से राम-कथा कहते | उनके साथ शबरी भी बड़े मनोयोग से वह कथा सुनती | राम-कथा के प्रति शबरी की रुचि देखकर मतंग ऋषि ने दया कर उसको राम नाम की दीक्षा दी | उन्होंने कहा कि दिन-रात राम नाम का जाप करती रहो, यह नाम अतिदिव्य है | अपने गुरु के आदेश को शिरोधार्य करते हुए शबरी निरंतर राम नाम का जप करने लगी |
           एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में शबरी ऋषियों के स्नान के लिए पम्पा सरोवर की ओर जाने वाले मार्ग को बुहार रही थी | घुप्प अँधेरा था | उसी समय एक ऋषि गोदावरी स्नान को जा रहे थे कि उनका पैर शबरी की बुहारी से, उसकी झाड़ू से स्पर्श कर गया | ऋषि क्रोधित हो गए | उन्होंने शबरी को विविध प्रकार से प्रताड़ित किया | जब वे ऋषि पम्पा सरोवर पहुंचे तो देखते हैं कि सरोवर का जल रक्ताभ हो गया है और उसमे कीड़े कुलबुला रहे हैं | सभी ने ऋषि मतंग को इसका दोष दिया कि उन्होंने एक भीलनी को अपने आश्रम में आश्रय दे रखा है, उस कारण से ईश्वर कुपित हो गए हैं और उन्होंने इस सरोवर का जल दूषित कर दिया है |
         मतंग ऋषि ने कहा कि मैंने अपने धर्म के अनुरूप ही आचरण किया है | सनातन धर्म की मर्यादा के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया है | किसी निराश्रित को आश्रय प्रदान करना हमारा प्रथम धर्म है | शबरी संतों की सेवा में रत थी, अतः इसने भी कोई भूल नहीं की है | अँधेरे के कारण अगर किसी ऋषि का पैर शबरी की झाड़ू से तनिक छू गया तो इसमें भला शबरी का कोई दोष कैसे हो सकता है ?     
           जब तक व्यक्ति के जीवन में सम-भाव और समदर्शिता नहीं आती तब तक अध्यात्म के मार्ग में प्रगति नहीं हो सकती | मनुष्य की कमी है कि वह किसी भी सुनी-सुनाई बात के अनुसार उस पर विश्वास कर लेता है जबकि वास्तव में उस बात के पीछे तथ्य कुछ और ही होता है | कथ्य और तथ्य दोनों में अंतर होता है | कथ्य का निर्माण सतत असत्य से निर्मित धारणा से होता है, जैसे कि ऋषियों ने यह मान लिया था कि एक नीच जाति की स्त्री को मतंग ऋषि ने अपने आश्रम में रखा है, इसलिए सरोवर का जल विकारग्रस्त हुआ है | तथ्य यह है कि शबरी तो ऋषियों की सेवा में रत है, उसका लक्ष्य किसी की राह में बाधा पहुँचाना कभी रहा ही नहीं | कथ्य और तथ्य दोनों से ही परे सत्य यह है कि भगवान् से अपने भक्त की प्रताड़ना सहन नहीं हुई, इसलिए सरोवर का जल दूषित हो गया था |
           मतंग ऋषि का सत्संग शबरी को बहुत वर्षों तक मिला | प्रारब्ध के अनुसार मतंग ऋषि की देह का भी अंतिम समय आ गया | वे ब्रह्मलोक जाने को तैयार थे | मतंग ऋषि के शिष्यों के माध्यम से जब यह बात शबरी तक पहुंची तो वह अपने गुरु से मिलने दौड़ी चली आयी |
              जब शबरी ने मृत्यु शैया पर सोये अपने गुरु को देखा तो वह बहुत भावुक हो गयी और बोली –‘आपके जाने के बाद मेरा क्या होगा ?’ मतंग ऋषि बोले-‘राम नाम का जप करती रहना | मैंने भी बहुत जप किया है | मैं तो इस जन्म में प्रभु श्री राम के दर्शन नहीं कर सका परन्तु तुम सौभाग्य शाली हो | तुम्हें श्री राम के दर्शन अवश्य होंगे | अभी वे चित्रकूट में हैं | एक दिन वे स्वयं चलकर तुम्हारे पास आयेंगे |’
           एक भक्त को भगवान् का दर्शन होगा, इससे अधिक उसे और क्या आश्वासन चाहिए ? आश्वासन भी साधारण सांसारिक व्यक्ति से न मिलकर एक पहुंचे हुए गुरु से मिला है | शबरी सोच रही है, ‘अनन्त कोटि ब्रह्मांड के नायक साक्षात् परमात्मा, श्री राम के रूप में उसकी कुटिया में आयेंगे | मैं तो अनपढ़ हूँ, बेसहारा हूँ, निर्धन हूँ, क्या ऐसे में परमात्मा मेरे घर आ सकते हैं ?’ एक भक्त के लिए इससे अधिक ख़ुशी की बात क्या होगी कि साक्षात् परमात्मा उसके पास स्वयं चलकर आ रहे हैं | सच है, परमात्मा न धन के भूखे हैं न ज्ञान के, परमात्मा तो बस प्रेम के भूखे हैं | भीतर अगर प्रेम हो, परमात्मा के प्रति अनुराग हो तो परमात्मा अपने आपको रोक नहीं सकते | अपने भक्त प्रहलाद के प्रेम ने उन्हें पत्थर से प्रकट होने को विवश कर दिया था | भगवान् को तो अपने भक्त को कृतार्थ करना होता है | जो केवट को कृतार्थ कर सकता है, वह भला भीलनी को कैसे भूल सकता है ?
            मतंग ऋषि तो बहुत कुछ समझाकर भीलनी शबरी को अकेला छोड़कर देवलोक चले गए | शबरी अब प्रतीक्षा कर रही है, जब भगवान् श्री राम उसको दर्शन देंगे | भक्त को भगवान् दर्शन देंगे, इतना आश्वासन ही उसे उत्साहित बनाये रखता है, भले ही इसके लिए कितने ही युग बीत जाये | शबरी जानती है कि परमात्मा के दर्शन बिना अब यह देह छूटने से रही | गुरु का कथन ही सत्य कथन है | शबरी तो परमात्मा की प्रतीक्षा में मतंग वन में बैठी है और दिन रात राम-राम रटती रहती है |
      शबरी कभी-कभी यह सोचकर अत्यंत व्याकुल हो उठती है कि मेरे गुरु का वचन तो एक दिन अवश्य ही सत्य होगा, यह तो मैं जानती हूँ परन्तु मेरा पता श्री राम को कौन बताएगा ? कौन उनको जाकर कहेगा कि तुम्हारी अनन्य भक्त - एक भीलनी, इस घने जंगल में तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है ? फिर यह सोचकर धैर्य धारण कर लेती है कि जो घट-घट की बात जानता है, भला उससे मेरा पता भी कभी छिपा रह सकता है ! ऐसा सोचकर फिर से वह दुगुने उत्साह से अपनी कुटिया को आने वाले चारों ओर के सभी रास्ते बुहारने लगती और मन ही मन कहती रहती की मेरे राम जरूर आयेंगे, एक दिन मेरे राम मुझसे मिलने जरूर आयेंगे |
       शबरी इधर मतंग-वन में श्री राम के आने की बाट जोह रही है और उधर भगवान् चित्रकूट में वाल्मीकिजी से विदा लेकर पंचवटी आ गए हैं | पंचवटी में भगवान् की इच्छानुसार छाया रूप जानकीजी की का हरण होता है और दोनों भाई जंगल-जंगल उनको ढूँढने की लीला कर रहे हैं | लीला क्या है, एकदम सत्य सा प्रतीत होता है, मानो एक पति अपनी पत्नी के विरह में मानसिक संतुलन खो चूका है और उसकी खोज में दर दर भटक रहा है | साथ चल रहे छोटे भाई लक्षमण उनको बहुत प्रकार से समझाते हैं परन्तु राम की विरह-वेदना इतनी प्रगाढ़ है कि छूटती नहीं है | रंगमंच का कलाकार इतना ही अधिक मंजा हुआ होना चाहिए कि देखने वाले को उसके अभिनय में सत्यता नज़र आये | आज जब संसार के रंगमंच को रचने वाला स्वयं अभिनय कर रहा है तो फिर उसके सत्य प्रतीत होने में किसी प्रकार की कमी रह जाने का प्रश्न ही नहीं उठता |
            तभी रास्ते में घायल पड़े जटायु से मिलन होता है | प्रभु पूछते हैं-‘जटायु, तुम्हारे साथ यह सब कैसे हुआ ?’ जटायु कहता है – ‘नाथ दसानन यह गति कीन्ही |
तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही ||’
     वह समस्त घटनाक्रम बतला देता है कि दसानन रावण जनकसुता का अपहरण करके दक्षिण दिशा की ओर ले गया है | भगवान् सब कुछ जानते हैं, सब उनका ही तो करा-धरा है परन्तु सामने भक्त है, उसका सहयोग लेना तो बनता ही है | यही भगवान् की विशेषता है, जानते सब कुछ है फिर भी भक्त की बात को सुनते हैं, समझते हैं और उससे अनुग्रहित भी होते हैं | इसी को परमात्मा की भक्त पर अनुकम्पा होना कहते हैं |
           घायल अवस्था में मरणासन्न पड़े जटायु के जीवन की अभिलाषा भी आज पूरी होती है | उसने अपने जीवन में भगवान् के दर्शन की कामना की थी जो आज जाकर पूरी हुई है | भगवान् श्री राम कहते हैं कि मैं तुम्हें पुनः स्वस्थ और सुन्दर बना दूंगा | पर जटायु कहता है-
     जा कर नाम मरत मुख आवा |
     अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा |
      सो मम लोचन गोचर आगें |
      राखौं देह नाथ केहि खाँगे ||
       मरते समय आपका नाम जिसके मुख में भी आ जाये तो अधम से अधम को भी मुक्ति मिल जाती है, ऐसा श्रुति कहती है | फिर मैं तो बहुत ही सौभाग्यशाली हूँ जो साक्षात् आप मेरी आँखों के सामने खड़े हैं | अब मैं कौन सी कामना मन में रखते हुए इस देह को रखूं ? आप ही बताइए |
        नहीं, नहीं, अब वह इस शरीर को छोड़ देगा क्योंकि जीवन का उद्देश्य, परमात्मा से मिलन का था, वह आज पूरा हो गया है | फिर इस पञ्च-तत्व से निर्मित भौतिक शरीर की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है ? जिस शरीर से परमात्मा का कार्य संपन्न हो जाये, फिर उस शरीर का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है | इसलिए जब तक आपके पास यह स्वस्थ शरीर है, तब तक उससे सभी कर्मों को परमात्मा का कार्य मानते हुए करते रहो, फिर परमात्मा स्वयं आपके द्वार पर चलकर आयेंगे, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है | जटायु-प्रसंग हमें यही सन्देश दे रहा है |
            परमात्मा का कार्य करते हुए, परमात्मा की गोद मिले और स्वयं परमात्मा की कृपा-दृष्टि उस पर हो, भला उससे अच्छा किसी के जीवन में क्या हो सकता है ? जटायु ने अपने जीवन की अंतिम साँस ली और भगवान् श्री राम भाव- विह्वल हो उठे | उन्होंने अपने परम भक्त जटायु को परम-गति (सारुप्य-मुक्ति) प्रदान की | स्वयं अपने हाथों से उसके शरीर की अंतिम क्रिया की | धन्य है जटायु का जीवन जिसने इतनी नीच योनि में भी जन्म लेकर परमात्मा को कभी विस्मृत नहीं किया | इधर एक मनुष्य है, जिसको परमात्मा ने सब कुछ दिया है फिर भी उसने परमात्मा को विस्मृत कर रखा है | विषय-भोग में रत मनुष्य से तो वह मांसभक्षी जटायु अच्छा, जिसने परमगति प्राप्त की | शिवजी कथा सुनाते हुए पार्वती को कहते हैं-
     सुनहु उमा ते लोग अभागी |
     हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ||
           जटायु के अंतिम संस्कार से निवृत होकर भगवान् वन में सीता की खोज कर रहे हैं | मतंग-वन से कुछ पहले ही उन्होने देखा कि वे और अनुज लक्ष्मण, दो विशाल भुजाओं के मध्य धीरे-धीरे फंसते जा रहे हैं | दोनों भुजाएं धीरे-धीरे आपस में एक दूसरे के नजदीक आ रही है और राम-लक्ष्मण उन भुजाओं की पकड़ में आ गए हैं | लक्ष्मण भुजाओं के पाश में जकडे बड़े व्याकुल हो रहे हैं | उन्हें लग रहा है कि शीघ्र ही यह राक्षस उसे अपना भोजन बना लेगा | इस राक्षस का नाम है, कबंध ।
            कबन्ध ने राम-लखन को अपने बाहुपाश में बान्ध रखा है | लक्ष्मण को व्याकुल देखकर श्री राम ने आँखों से संकेत किया और तत्क्षण ही दोनों ने अपनी अपनी तलवारें निकाल ली | एक ही झटके से कबन्ध की दोनों भुजाएं काट डाली गयी | कबन्ध घायल हो जमीन पर गिर पड़ा | उसने भगवान् को प्रणाम किया और अपने पूर्व जन्म-का वृतांत कह सुनाया |
         पूर्व जन्म में कबन्ध एक गन्धर्व था | उसका शरीर अतिसुन्दर था, जिस पर उसे बहुत अभिमान था | एक दिन वह गन्धर्व, कई कन्याओं के साथ गंगा तट पर रमण कर रहा था | गंगा तट पर ही मुनि अष्टावक्र बैठे थे | मुनि का शरीर श्यामवर्ण का था और आठ स्थानों से वक्र भी | मुनि को देखकर उस गन्धर्व ने उनका उपहास किया | सत्य है, चर्म चक्षु केवल चर्म ही देख सकते हैं, हृदय नहीं | चर्म चक्षु से देखने वाला भोग के लिए चहुँ ओर केवल चर्म ही खोजता है | वह यह नहीं जानता कि जिसको वह सुन्दर मान रहा है, वह सुन्दर नहीं है बल्कि सुन्दरता तो कुछ और ही है | शरीर की सुन्दरता को तो एक न एक दिन खो जाना है, फिर भी मनुष्य अपने शरीर सौष्ठव का अहंकार करता फिरता रहता है |स्वामीजी कहा करते थे -
   'है' सो सुन्दर है सदा, 'नहीं' सो सुन्दर नाहीं |
   'नहीं' को प्रकट देखिये, 'है' सो दीखे नाहीं ||
       जो सुन्दर दिखलाई पड़ता है, उस सुन्दरता का एक दिन नष्ट हो जाना निश्चित है | एक परमात्मा ही सुन्दर हैं जिनमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता | जो अजर, अमर और अव्यय है, केवल उसी को सुन्दर कहा जा सकता है | परिवर्तनशील संसार और उस संसार में रमण करने वाला यह शरीर सुन्दर दिखलाई पड़ने के बाद भी सुन्दर नहीं है क्योंकि देखने वाली इन्द्रिय भी तो आखिर इस शरीर का ही एक अंग है | आँखें केवल बाहर देखती है, अतः वह संसार की सुन्दरता पर मुग्ध हो सकती है परन्तु जिसकी दृष्टि दिव्य हो जाती है, वह जीवन में पहली बार अपने भीतर देखता है | तब भीतर बैठे परमात्मा की सुन्दरता उसे मोहित कर लेती है, फिर वह बाहर संसार को देखना बंद कर देता है | 
          गन्धर्व ने जब मुनि अष्टावक्र का उपहास किया तब वे क्षुब्ध हो गए | अष्टावक्र मुनि ने उस गन्धर्व को शाप दिया कि जा, तू राक्षस हो जा | मुनि के शाप से गन्धर्व को बड़ा दुःख हुआ | वह तत्काल ही राक्षस रूप में आ गया | उसने अष्टावक्र जी के चरण पकड़ लिए और शाप से मुक्त होने का उपाय पूछा | तब अष्टावक्र मुनि ने कहा कि जब भगवान् श्री राम अपनी भार्या को जंगल-जंगल ढूंढते फिरेंगे तब वे एक दिन तेरे पास भी आयेंगे | उन्हीं के हाथों तुम्हारा उद्धार होगा |
          प्रत्येक अहंकारी व्यक्ति का एक न एक दिन पतन होना निश्चित है और ऐसा ही उस गन्धर्व के साथ हुआ | उसके द्वारा किये गए एक उपहास ने उसके जीवन को बदल दिया | जिस शरीर और सदा संग रहने वाली जिन सुन्दरियों पर उसे गर्व था, वह सब कुछ एक झटके के साथ लुट चूका था | अब एक भयानक राक्षस के रूप में परमात्मा की प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त उसके सामने अन्य कोई रास्ता नहीं था |
                   कबन्ध के मरने से पहले श्री राम ने उसे सीता-हरण का पूरा वृतांत कह सुनाया और साथ ही सीता को पुनः प्राप्त करने के सम्बन्ध में उससे सहायता मांगी | कबंध ने कहा कि मेरा यह राक्षस शरीर जल जाने के बाद ही मुझे सब कुछ जानने की शक्ति मिल सकती है | शक्ति प्राप्त होने के बाद ही मैं आपको बता सकूंगा कि जनकसुता को प्राप्त करने के लिए आपको क्या करना चाहिए ? तब श्री राम ने उसके शरीर को एक गढ्ढे में डालकर उसका अंतिम संस्कार करने का प्रबंध किया | आज कबन्ध रूप धरे उसी अहंकारी गन्धर्व का कल्याण परमात्मा के हाथों होने जा रहा है |
         चिता के जल उठते ही कबन्ध वहां दिव्य रूप में प्रकट हो गया और उसने बतलाया कि सीता को प्राप्त करने के लिए वैसे तो छः युक्तियाँ है परन्तु आपको ‘समाश्रय’ युक्ति का उपयोग करना चाहिए | आपको ऐसे व्यक्ति को अपना मित्र बनाना होगा जो आपकी तरह ही अपनी पत्नी के वियोग में दुखी हो | व्यक्ति को जब अपने समान ही कोई दूसरा दुखी व्यक्ति मिल जाता है, तब उनकी समस्या का निदान भी शीघ्र ही हो जाता है | दिव्य-रूप धारी कबन्ध कह रहा है कि पास में ही ऐसा एक पुरुष रहता है-सुग्रीव | उसकी पत्नी को उसके भाई (बाली) ने बलात उससे छीन लिया है | वह अभी ऋष्यमूक पर्वत पर अपने सहायकों के साथ रहता है | आप उसके साथ मित्रता कीजिये, वही इस समय आपका एक मात्र और महत्वपूर्ण सहायक सिद्ध हो सकता है |
             गन्धर्व आगे भगवान् को कह रहा है कि सुग्रीव सूर्य का औरस पुत्र है | वे वानरों के साथ मिलकर आपकी पत्नी का पता अवश्य ही लगा लेंगे | जहां तक सूर्य तपते हैं, वहां तक संसार में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है, जो सुग्रीव के लिए अज्ञात हो | दिव्य वेशधारी कबन्ध (गन्धर्व) कहता है कि यहाँ से पश्चिम दिशा की ओर सुखद मार्ग है | आप उस रास्ते से आगे बढिए | आगे मतंग-वन आएगा जहां कभी ऋषि मतंग अपने शिष्यों के साथ रहा करते थे | उस वन में मतंग ऋषि के प्रभाव से हाथी कभी भी आक्रमण नहीं करते हैं | उससे आगे पम्पा सरोवर मिलेगा | उसी सरोवर के पूर्व में ऋष्यमूक पर्वत है, जहाँ सुग्रीव अपने चार साथियों के साथ निवास करते है | इतना कहकर कबन्ध ने अपने धाम जाने की आज्ञा मांगी और तत्काल ही वहां से प्रस्थान कर गया |
            कौन कहता है कि परमात्मा को भक्त का पता नहीं होता ? परमात्मा की सब ओर दृष्टि रहती है | भक्त भले ही सोचता रहे परन्तु भगवान् को सब पता होता है कि कौन भक्त कहाँ है और क्या कर रहा है ? कबन्ध तो एक माध्यम था, रास्ता बतलाने का | जिसने संसार बनाया है, संसार में भ्रमण करने के लिए रास्ते भी तो उसी ने बनाये है | कबन्ध नहीं होता तो भगवान् लीला कैसे करते ? भक्त भी तो भगवान की उसी लीला के पात्र होते हैं | आज भगवान् अपने भक्तों के लिए लीला करते हुए उन्हें आनंदित कर रहे हैं |     
      कबन्ध के अपने धाम प्रस्थान करने के बाद श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ पश्चिम दिशा की ओर जाने का मार्ग पकड़ लेते हैं | इधर शबरी दिन-रात राम नाम का जप करते करते अपनी कुटिया की ओर आने वाले चारों मार्गों को बुहार रही है | निष्पाप शबरी को पता नहीं है कि उसके राम किस मार्ग से आ रहे हैं ? श्री राम भले ही किसी भी मार्ग से आ जाएँ, उनको सारे मार्ग कंटक रहित मिलेंगे | दिन में प्रभु के लिए फल-फूल तोड़ती और ब्रह्म मूहूर्त में सारे मार्ग साफ करती | प्रभु की प्रतीक्षा में जब रात होने लगती तो सभी फल मतंग ऋषि के शिष्यों में बाँट देती और दूसरे दिन सुबह से फिर यही क्रम प्रारम्भ हो जाता |
                 भगवान् राम धीर-धीरे आगे बढ़ते जा रहे थे | पम्पा सरोवर के पास तक आ गए | उन्हें देखकर बहुत से ऋषि-मुनि दौड़कर आये | सभी उनसे अपने आश्रम में चलने का आग्रह करने लगे | लेकिन प्रभु तो प्रेम के भूखे हैं | ‘रामहि केवल प्रेम पिआरा’, भला प्रेम का बंधन किसी को क्यों नहीं खींचेगा ? उन ऋषियों ने तो उनकी परम भक्त शबरी का अपमान किया था | ऐसे अहंकारी ऋषियों का आग्रह भला वे कैसे स्वीकार कर सकते थे ? उन्हें तो शबरी से ही मिलना था | प्रभु जाति, रंग और लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाले को तनिक भी पसंद नहीं करते |   
         भगवान् तो प्रेम के भूखे होते हैं | द्वापर में दुर्योधन अपने घर में ले जाकर स्वादिष्ट पकवान खिलाना चाहता था परन्तु भगवान् को तो अहंकारी व्यक्ति जरा भी पसंद नहीं है, ऐसे में वे दुर्योधन के घर क्यों कर जाते ? उन्हें तो बस प्रेम से ही वश में किया जा सकता है | उसी प्रेम के कारण वे पहुँच गए थे, विदुर के घर | उस समय अकेली विदुरानी थी वहां | उन्होंने प्रेम के अतिरेक में केले के छिलके तक भगवान् को खिला दिए थे और भगवान् ने प्रेम से खा भी लिए | हस्तिनापुर राजभवन से उसी समय लौटे विदुर, संकेत से विदुरानी को समझाने का प्रयास भी करते हैं परन्तु विदुरानी तो एकटक प्रभु को निहार रही है | उसका ध्यान कहीं दूसरी ओर तनिक सा भी नहीं है |
           ऋषियों के आग्रह की उपेक्षा करते हुए प्रभु धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए | अचानक उन्हें शबरी का आश्रम दिखलाई पड़ा | शबरी उसी मार्ग को राम-राम रटते हुए बुहार रही थी | अचानक उसकी दृष्टि प्रभु के चरण कमलों पर पड़ी | समझ गयी कि आज वह पावन दिन आ ही गया है | श्री राम पर दृष्टि पड़ते ही ख़ुशी से पागल हो गयी शबरी | पहले तो बोल रही थी, मेरे राम आयेंगे, मेरे राम आयेंगे और अब उनको देखते ही बोल पड़ी-‘प्रभु आप आ गए !’ प्रश्न भी उसका और उत्तर भी उसका |
         गोस्वामीजी शबरी प्रसंग को अपने शब्दों की धार देते हुए रोचक बनाते हैं और कहते हैं -
      सरसिज लोचन बाहु बिसाला |
      जटा मुकुत सिर उर बनमाला |
      स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई |
      सबरी परी चरन लपटाई ||
      प्रेम मगन मुख बचन न आवा |
     पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ||
       सादर जल लै चरन पखारे |
       पुनि सुन्दर आसन बैठारे ||
           प्रभु श्रीराम का स्वरुप देखकर शबरी भाव विह्वल हो गयी | दोनों भाइयों के चरणों में गिर पड़ी | भाव-वश उसके मुख से बोल नहीं निकल पा रहे थे केवल बार-बार उनके चरणों में नमन करती रही | तुरंत ही कुटिया के भीतर जाकर जल लाई और प्रेम से प्रभु के चरणों को धोया | फिर उन्हें अपनी कुटिया के भीतर ले गयी और कुश के बने सुन्दर आसन पर दोनों भाइयों को बिठाया |
     दोनों भाइयों को सुन्दर आसन पर बिठाकर शबरी उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी | उसने झुककर दोनों भाइयों को प्रणाम किया | शबरी से कुछ भी बोला नहीं जा रहा है | फिर उसने विधिवत उनका सत्कार किया | कह रही है कि प्रभु आपकी स्तुति कैसे करूँ ? एक तो मैं नीच जाति की, ऊपर से एक नारी और फिर मुझे किसी बात का ज्ञान भी तो नहीं है |
        केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी |
        अधम जाति मैं जड़मति भारी ||
        अधम ते अधम अधम अति नारी |
        तिन्हं महँ मैं मतिमंद अघारी || 
            भगवान् ने शबरी पर कृपा दृष्टि डाली | आज शबरी के गुरु मतंग का कहा सत्य सिद्ध हो रहा है | शबरी जानती है कि उसकी तपस्या आज फलीभूत हुई है | शबरी ने  जो भी फूल उसने अपने हाथों से चुने थे, उन पुष्पों से भगवान् की विधिवत पूजा की और फिर फलों को चख चख कर बड़े प्रेम से दोनों भाइयों को खिलाया | भगवान् भी डबडबाई आँखों से भक्त को देखते हुए बड़े प्रेम से फल खा रहे हैं | आज भगवान् अपने भक्त के जूठे फल खा रहे है | उनको भान ही नहीं रहा कि वे जंगल में बनी एक कुटिया में शबरी के फल खा रहे हैं अथवा अपनी माता कौशल्या के हाथों से भोजन कर रहे हैं | सब भेद मिट गया है आज | वाह प्रभु, कैसी लीला है आपकी ? जब लिखने वाला आपकी लीला का वर्णन कर मुग्ध हो रहा है तो उस भक्त भीलनी की दशा का वर्णन शब्दों के माध्यम से किया ही कैसे जा सकता है ?  
            प्रेम एक न एक दिन फलीभूत अवश्य ही होता है | प्रेम के बारे में जब चर्चाएँ होती है तब प्रायः लोग प्रेम का प्रतिशत बताने लगते हैं | प्रेम न तो कुछ-कुछ होता है और न ही लगभग | नहीं, प्रेम कभी आधा-अधूरा नहीं होता, होता है तो पूरा का पूरा होता है | फिर भी अगर कुछ अधूरा है भी, तो वह कुछ और हो सकता है, प्रेम नहीं हो सकता | प्रेम तो शत प्रतिशत होता है अन्यथा होता ही नहीं है |
            प्रेम के कारण भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन के रथ के सारथी बने थे | प्रेम के कारण गोपियाँ कृष्ण के विरह में पागल हो जाती थी | इसी प्रेम और विरह पर श्रीमद्भागवत् महापुराण में वेद व्यासजी ने पूरा एक अध्याय (10/30) लिख डाला है | गोपियों के प्रेम के वशीभूत होकर बाल कृष्ण नाचने लगते हैं | तभी तो रसखान जैसे कवि कह उठते हैं – ‘ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं |’ मिट्टी की एक छोटी सी हंडिया में दूध भी नहीं, मक्खन भी नहीं, केवल छाछ | क्या एक हंडिया भर छाछ मिलने की आशा से परमात्मा नाच सकता है ? नहीं, यहाँ महत्त्व छाछ का नहीं है | महत्त्व है गोपियों के प्रेम का | प्रेम जब पूर्णता ले लेता है तब भगवान् को भी भक्त के सामने नाचना पड़ता है | नाचने का अर्थ नृत्य करने से नहीं है, बल्कि भक्त की इच्छानुसार भगवान् का चलना और करना है |
           शबरी प्रेमाभक्ति की मूर्ति है | भगवान् के नाम से प्रेम किया, उसने ऋषि-मुनियों की सेवा करते हुए तपस्या की, उसका परिणाम परमात्मा के दर्शन से अधिक और क्या हो सकता है ? एक परमात्मा को पा लेने से अधिक इस भौतिक संसार में अन्य कुछ है भी नहीं | शबरी आज धन्य हो गयी |
          शबरी से भगवान् श्री राम कह रहे हैं - ‘पुरुष और स्त्री का भेद, जाति, नाम, और आश्रम-ये कोई मेरे भजन के कारण नहीं है | मेरे दर्शन का कारण तो एक मात्र मेरी भक्ति ही है | जो मेरी भक्ति से विमुख है; वे यज्ञ, दान, तप अथवा वेदाध्ययन आदि किसी भी कर्म से मुझे नहीं देख सकते | इसलिए हे भामिनी ! मैं संक्षेप में अपनी भक्ति के साधनों का वर्णन करता हूँ |’ इस प्रकार परमात्मा श्री राम अब शबरी के सामने नवधा-भक्ति का वर्णन करते हैं |
        वे कहते हैं –‘प्रथम भगति संतन्ह कर संगा |’ अर्थात भक्ति का प्रथम साधन है संतों का संग | “सतां संगतिरेवात्र साधनं प्रथमं स्मृतम्” (अ.रा.3/10/22) | संग का बहुत महत्त्व है, जैसी संगति होगी वैसा ही परिणाम मिलता है | संतों का संग करने से सत तक पहुंचा जा सकता है | ‘सठ सुधरहि सत्संगति पाई | पारस परस कुधातु सहाई ||’ दुष्ट व्यक्ति भी अच्छे संग में रहे तो उसमें भी सुधार दृष्टिगोचर होने लगता है | पारस पत्थर के संपर्क में आने से लोहा भी सोना बन जाता है |  
            भक्ति का दूसरा दूसरा साधन है-‘द्वितीयं मत्कथालापः’ यानि मेरे जन्म-कर्मों की कथा का कीर्तन करना अर्थात ‘दूसरि रति मम कथा प्रसंगा’ | भगवान् की कथा लगातार सुनने से परमात्मा के प्रति प्रेम जाग्रत हो जाता है | भगवत-कथा व्यक्ति का ध्यान संसार से हटाकर परमत्मा की ओर कर देती है | कथा सुनने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे मन को शांति मिलती है | कथा श्रवण का आनंद लेने के लिए मन को कथा में लगाना आवश्यक है | जो मनोयोग से कथा नहीं सुनता उसको उस कथा का कोई भी लाभ नहीं मिलता |
       भक्ति का तीसरा साधन है – ‘तृतीयं मद्गुणेरणम्’ अर्थात मेरे गुणों की चर्चा करना | परमात्मा के गुणों की चर्चा करने से तात्पर्य है-परमात्मा की स्तुति करना | गुणों की प्रशंसा करने से परमात्मा के गुण व्यक्ति में भी धीरे-धीरे आने लगते हैं | भागवत में एक अध्याय ‘गोपिका-गीत’ (10/31) है | शरद पूर्णिमा की रात रास-लीला की अवधि में अचानक श्री कृष्ण अंतर्ध्यान हो जाते हैं | तब गोपियाँ उनके विरह में भगवान् के गुणों का गान करती है | अंतत परमात्मा उन सबके मध्य प्रकट होकर उन्हें सांत्वना देते है और उनके साथ महारास (भागवत-10/32-33) की रचना करते हैं।
            भक्ति का चतुर्थ साधन है – ‘व्याख्यातृत्वं चतुर्थं साधनं भवेत्’ अर्थात मेरे वाक्यों की व्याख्या करना | ‘आचार्योपासनं भद्रे मद्बुद्ध्यामायया सदा’ अर्थात अपने गुरुदेव की निष्कपट होकर भगवद्बुद्धि से सेवा करना भक्ति का पांचवां साधन है | ‘पुण्यशीलत्वं यम- नियमादि च | निष्ठा मत्पूजने नित्यं षष्ठं साधनम्’ अर्थात पवित्र स्वभाव, यम-नियमादि का पालन और मेरी पूजा में सदा प्रेम होना, भक्ति का छठा साधन है | ‘मम मन्त्रोपासकत्वं सांगं सप्तमुच्यते’-सातवाँ भक्ति का साधन है-मेरे मन्त्रों की सांगोपांग उपासना करना | भक्ति के अंतिम दो साधन बताते हुए श्री राम शबरी को कहते हैं-
       ‘मद्भक्तेषवधिका पूजा सर्वभूतेषु मन्मतिः |
       बह्यार्थेषु विरागित्वं शमादिसहितं तथा ||
       अष्टमं नवमं तत्वविचारो मम भामिनी |
       एवं नवविधा भक्तिः साधनं यस्य कस्य वा ||अ.रा.-3/10/26-27||
      मेरे भक्तों की मेरे से अधिक पूजा करना, समस्त प्राणियों में मेरी भावना करना, बाह्य पदार्थों में वैराग्य करना और शम-दमादि संपन्न होना-यह मेरी भक्ति का आठवां साधन है | नवां साधन है- तत्व विचार करना | हे भामिनी ! इस प्रकार यह नौ प्रकार की भक्ति है |
          इस प्रकार भक्ति के नौ साधन बताकर भगवान् कहते हैं कि इनमें से एक भी भक्ति किसी में भी हो उसको मेरे स्वरुप का अनुभव हो जाता है | श्री रामचरितमानस में गोस्वामीजी भी लगभग इन्हीं नौ साधनों का वर्णन करते हैं | प्रथम भक्ति- संतों का संग | दूसरी भक्ति – मेरी कथा श्रवण में रुचि | तीसरी भक्ति –गुरु के चरणों की सेवा | चौथी भक्ति – मेरे गुणों का गान | पांचवीं भक्ति – मन्त्रों का जाप और परमात्मा में विश्वास | छठी भक्ति – क्षमा, दम, शील आदि का पालन | सातवीं भक्ति – प्रभु के समान ही समस्त जग को देखना | संतों को मुझसे अधिक मानना | आठवीं भक्ति – संतोष धारण करना | दूसरे में दोष न देखना | नवीं भक्ति – सभी प्रकार के कपट से दूर रहना और मेरे में पूर्ण विश्वास रखना |
           भक्ति के साधनों में से किसी भी एक साधन का जीवन में उपयोग करेंगे तो स्वतः ही शेष सभी साधन आपको मिल जायेंगे | जो व्यक्ति भक्ति मार्ग पर अग्रसर होता है उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं रह जाता है | आवश्यकता है, संसार से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख होने की | 
          इसके बाद भगवान् श्री राम शबरी से सीता के बारे में पूछते हैं | शबरी कहती है – ‘नाथ ! आप तो सर्वज्ञ हैं | मैं आपको क्या बता सकती हूँ ? भगवान् का अपने भक्त के प्रति प्रेम देखिये, सब कुछ पहले से जानते हुए भी फिर एक भक्त से ही सहायता चाह रहे हैं | वहां चित्रकूट में वाल्मीकिजी से अपने रहने का स्थान पूछ रहे थे और यहाँ शबरी से सीता का पता पूछ रहे हैं |
       शबरी भी भगवान् का मान रखती है | वह बतलाती है कि सीताजी को रावण हर कर ले गया है | यहाँ पास में ही पम्पा सरोवर है | वहां ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव रहते है | आप उनके साथ मित्रता कीजिये | वे आपका सभी प्रकार से सहयोग करेंगे |” इसके बाद शबरी ने प्राण त्यागने की इच्छा प्रकट की | राम ने पूछा – ‘तुम्हारी कोई इच्छा है तो बताओ | शबरी बोली – ‘नाथ ! इस पम्पा सरोवर का जल विकारयुक्त हो गया है | वह पुनः अपनी पवित्रता को प्राप्त कर ले, ऐसा कोई उपाय करो |’ श्री राम बोले – ‘एक ऋषि ने आपको लात मारी थी, उसी कारण से इस जल में विकार आ गया है | तुम इसमें स्नान करोगी तभी यह सरोवर पुनः शुद्ध हो पायेगा |’ 
          भगवान् की लीला तो देखो, अपनी महिमा बताने के स्थान पर अपने भक्त की महिमा बढा रहे हैं | सीता कहाँ है, वहां तक कैसे पहुंचा जा सकता है ? प्रभु सब जानते हैं फिर भी शबरी को पूछ रहे हैं | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं – ‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ अर्थात अर्जुन ! तू तो केवल निमित्त मात्र बन जा | कुरुक्षेत्र में महाभारत के ये सब योद्धा तो मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके है अर्थात इनका मरना तो निश्चित है, तू तो इनको मारने का श्रेय ले ले | पम्पा सरोवर का जल तो पवित्र भगवान् के कारण ही हुआ था परन्तु उन्हें तो इसका श्रेय अपने भक्त को देना है |
         सुग्रीव से मित्रता करने की बात कहकर शबरी ने पम्पा सरोवर में स्नान किया | सरोवर की गरिमा पुनः लौट आई | फिर शबरी ने परमात्मा के दर्शन करते करते योगाग्नि के माध्यम से अपने शरीर से मुक्त हो गई | इस प्रकार शबरी का उद्धार हुआ |
          किं दुर्लभं जगन्नाथे श्रीरामे भक्तवत्सले |
          प्रसन्ने धमजन्मापि शबरी मुक्तिमाप सा ||अ.रा.-3/10/42||
अर्थात भक्तवत्सल जगन्नाथ श्रीराम के प्रसन्न होने पर क्या दुर्लभ है ? अर्थात कुछ भी दुर्लभ नहीं है | देखो, उनकी कृपा से नीच कुल में जन्मी निष्पाप शबरी ने भी मोक्ष प्राप्त कर लिया ।
            शबरी, निम्न वर्ग में पैदा हुई एक साधारण सी महिला जिसने राम शब्द का ‘र’ अक्षर भी ठीक से न पढ़ा होगा, मन में सेवा और प्रेम की भावना से ओतप्रोत लड़की जंगल में अकेली निकल गयी | सेवा और प्रेम ही उसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य था | परमात्मा को पाने की कल्पना भी उसने अपने जीवन में कभी नहीं की थी | जहां सेवा और प्रेम हो वहां प्रभु स्वयं रहते हैं |
        मतंग ऋषि का सानिध्य मिलने से और उनके द्वारा मिले राम नाम के गुरु-मन्त्र ने उसे परमात्मा के निकट ला दिया | भगवान् से बड़ा भगवान् का नाम होता है | इसी नाम को सहारा बनाकर शबरी ने संसार सागर को पार कर लिया | राम-नाम की महिमा को उसने प्रत्यक्ष कर दिखाया | गोस्वामीजी शबरी के बारे में मानस में लिखते हैं -
           जाति हीन अघ जन्म महि,
           मुक्त कीन्हि असि नारि |
           महामंद मन सुख चहसि,
           ऐसे प्रभुहि बिसारि ||मानस-3/36||
       जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी,ऐसी स्त्री को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन ! तू ऐसे प्रभु को भूलकर सुख चाहता है ?
          शबरी के जीवन से प्रेरणा लें और प्रभु को सेवा और प्रेम के माध्यम से प्राप्त करने का प्रयास करें | परमात्मा को कभी भी भूले नहीं | दिन रात प्रभु का स्मरण करते रहें और कहते रहें, ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !! मैं आपको भूलूँ नहीं |’
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||