स्वभाव से स्वरुप की ओर
अध्यात्म में तीन शब्द महत्वपूर्ण हैं – पर, स्व और परम | ‘पर’ शब्द जगत (अपरा प्रकृति/क्षर पुरुष) के लिए उपयोग में लिए जाता है जबकि ‘स्व’ स्वयं (परा प्रकृति/अक्षर पुरुष) के लिए और ‘परम’ परमात्मा (पुरुषोत्तम) के लिए | ‘स्व’ का अस्तित्व तभी तक है जब तक हमारा ‘भाव’ स्वयं की इच्छानुसार कुछ बनने का रहता है | यह भाव ही हमारा स्वभाव कहलाता है | जब हम अपने स्वभाव को परमभाव की ओर ले जाते हैं तब ‘स्व’ मिट जाता है और हम ‘परम’ को उपलब्ध हो जाते हैं | स्वभाव हमारा व्यक्तिगत (व्यष्टि) होता है जबकि ‘परमभाव’ समष्टि का है | ‘परमभाव’ से हम सभी प्राणी समान है परन्तु स्वभाव से सब भिन्न भिन्न हैं |
‘पर’ (संसार) में आसक्ति से स्वभाव बनता है और समस्त आसक्तियों के मिटते ही स्वभाव परमभाव में परिवर्तित हो जाता है और मनुष्य अपने स्वरुप में स्थित हो जाता है | ‘पर’ से ‘स्व’ में स्थित हो जाना, स्वरूप को जानने के लिए आवश्यक है | ‘स्व’ में स्थित व्यक्ति ही सही मायने में ‘स्वस्थ’ होता है | शारीरिक स्वस्थता और मानसिक स्वस्थता में अंतर है | शारीरिक रूप से स्वस्थ मनुष्य सांसारिक कार्य में तो निपुण हो सकता है परन्तु केवल मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही अध्यात्म की ओर जाने का प्रयास कर सकता है | यहाँ ‘स्वस्थ’ शब्द का अर्थ मानसिक रूप से स्वस्थ रहने से है |
“अध्यात्म” किसे कहते हैं ? स्वयं को जानने का नाम ही अध्यात्म है | अध्यात्म ही हमें स्वरुप तक पहुंचा सकता है | अध्यात्म के रास्ते सर्वप्रथम व्यक्ति अपने स्वभाव को जानता है और फिर स्वाभावानुसार स्व-धर्म का पालन करते हुए कर्म करता है | इन्हीं कर्मों के माध्यम से वह अपने पूर्व संचित कर्मों (प्रारब्ध) को नष्ट करता है और स्वरुप की ओर चलता है |
बहुत ही रोचक विषय है यह | कल से इस विषय पर थोडा विस्तार से चिंतन प्रारम्भ करते हैं | चलिए ! साथ-साथ चलते हैं – “स्वभाव से स्वरुप की ओर” |
प्रारम्भ एक कहानी से करते हैं | एक सिंह का शावक जन्म लेते ही अपनी मां से बिछुड़ गया | भूख से बिलबिला रहे शावक पर जंगल में भेड़ों को चरा रहे एक गडरिये की दृष्टि पड़ी | उसने अपने हाथों से उस भूखे शावक को पकड़ कर एक भेड़ के थनों से लगाया | दूध की जरा सी मात्रा शरीर में जाते ही शावक सक्रिय हो गया | लगातार दूध मिलते रहने से धीरे-धीरे शावक बड़ा होने लगा | अब तो सिंह शावक उन भेड़ों के झुण्ड में ही रहने लगा | जिधर गडरिया भेड़ों को हांक ले जाता, सिंह शावक भी उनके साथ हो लेता | जिस भेड़ का वह दूध पीता था, उस एक भेड़ को ही वह अपनी मां मानने लगा | दूध पीता, भेड़ों के छोटे छोटे बच्चों के साथ उछलकूद करता और मस्त रहता |
धीरे धीरे समय बीतता गया | अब सिंह शावक भी बड़ा हो गया | भेड़ों के साथ रहते रहते वह भी उन्हीं की तरह दिन भर मिमियाता रहता | एक दिन एक युवा सिंह शिकार की तलाश में जंगल में भटक रहा था | सहसा उसे भेड़ों का वह झुण्ड दिखलाई पड़ा | उसने शिकार के लिए उस झुण्ड पर हमला कर दिया और उसी एक भेड़ को झुंड से अलग कर दिया जिसका दूध वह सिंह शावक पिया करता था | अपनी धाय मां को अलग थलग पड़े देखकर सिंह शावक भी उसके पीछे पीछे मिमियाता हुआ झुण्ड से अलग हो लिया | युवा शेर भय से मिमियाती उस भेड़ का शिकार करने ही वाला था कि उसकी दृष्टि साथ दौड़ते हुए मिमियाते हुए सिंह शावक पर पड़ी | युवा सिंह को भेड़ बने शावक को देख आश्चर्य हुआ | उसने भेड़ का पीछा करना छोड़ दिया और शावक की ओर बढ़ चला |
युवा सिंह को अपनी ओर बढ़ते देखकर सिंह शावक जोर-जोर से मिमियाने लगा | युवा सिंह ने उस शावक को भेड़ से अलग कर लिया और उसे घेर कर अपने साथ ले जाने लगा | भय से मिमियाते हुए वह शावक अपनी धाय मां की ओर देखता और करूण पुकार करता हुआ सिंह के साथ चल रहा था | रास्ते में वह युवा शेर उसको बार बार मिमियाना बंद करने के लिए कहता, डांटता परन्तु उस शावक पर इस बात को कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था | सिंह ने उसे बहुत समझाया कि तू एक शेर का बच्चा है, जोर से दहाड़ परन्तु शावक है कि स्वयं को अभी भी भेड़ का बच्चा ही समझ रहा है | दहाड़, सिंह की आवाज़ होती है और मिमियाना भेड़ की |
अपनी कही बात का असर न होते देखकर सिंह उसे एक कुएं के पास ले जाता है और भीतर झांकने को कहता है | शावक ने जब उस सिंह के साथ कुएं में झाँका तब उसे जल में दोनों की परछाई दिखलाई पड़ी | उसे आश्चर्य हुआ कि दोनों का चेहरा मोहरा एक ही प्रकार का है | अब वह शावक कभी जल में अपनी परछाई देखता और कभी उस सिंह के चेहरे की ओर | अब धीरे धीरे उसके समझ में आने लगा था कि वह इतने दिनों तक भेड़ों के झुण्ड में रहते रहते लगभग भेड़ ही हो चला था | आज उसे अपने वास्तविक स्वरूप के दर्शन हुए हैं | शावक को उहांपोह में देखकर युवा सिंह ने एक जोरदार दहाड़ लगाई | सिंह को दहाड़ते देखकर शावक को भी जोश आया | उसने भी दहाड़ लगाई | वह समझ गया था कि अब तक जो वह स्वयं को एक भेड़ समझता रहा था वह उसके जीवन की बहुत बड़ी भूल थी, वह तो जन्म से ही सिंह है | उसने युवा सिंह के साथ लम्बी दौड़ लगाई और क्षुधा शांत करने के लिए शिकार की खोज में निकल पड़ा |
हमारे जीवन में और उस सिंह शावक के जीवन में तनिक समानता ढूँढने का प्रयास कीजिये | जरा सा भी भिन्न नहीं है, दोनों का जीवन | हम भी भेड़ों के झुण्ड रुपी इस संसार में स्वयं को एक भेड़ समझते हुए भटक रहे हैं | जिस दिन हमारे को समझाने के लिए एक सच्चा गुरु मिलेगा तभी हम समझ पाएंगे कि हम वास्तव में क्या हैं ? गुरु भी हमारे में से ही कोई एक होगा जिसने अपना वास्तविक स्वरुप जान लिया है | गुरु हमें हमारा परिचय हमारे वास्तविक स्वरुप से कराएगा क्योंकि गुरु उस युवा सिंह की तरह स्वयं का वास्तविक स्वरुप जानता है | जानते तो हम भी थे अपना वास्तविक स्वरुप, परन्तु संसार के झुण्ड में शामिल होकर उसे भूला बैठे हैं | जो स्वरुप अभी हमारा है वह सांसारिक स्वरुप है | सांसारिक स्वरूप को स्वभाव कहा जाता है | हमें इस मनुष्य जीवन में सांसारिक स्वरुप से वास्तविक स्वरुप तक की यात्रा करनी है | इस यात्रा को हम अपने स्वभाव से स्वरुप की यात्रा कह सकते हैं और 'स्व' से 'परम' की यात्रा भी कह सकते हैं |
हम 'परम' से आये हैं, ऐसा कहना भी अनुचित है | नहीं, हम परम से आये नहीं हैं बल्कि हम परम ही हैं | हम क्यों भूल गए अपने परम होने को ? इसी विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाएंगे और ‘स्व’ को छोड़कर ‘परम’ तक पहुँचने का मार्ग तलाश करने का प्रयास करेंगे |
शावक और सिंह की कहानी बताने से तात्पर्य है कि सिंह ‘स्वरुप’ है और शावक ‘स्वभाव’ है | शावक भेड़ों के संग रहते रहते एक प्रकार से भेड़ बनकर ही रह गया था जबकि वह भेड़ न होकर सिंह था | उसका सिंह होना भेड़ की छाया तले दबकर रह गया था | इसी प्रकार संसार का संग हमारे स्वरुप को ढक लेता है | हम संसार के प्रभाव में आकर अपना एक अलग ही व्यक्तित्व गढ़ लेते हैं | हमारे व्यक्तित्व के अनुरूप ही हमारा स्वभाव बन जाता है | स्वरुप मूल तत्व है जबकि स्वभाव व्यक्तित्व | इस प्रकार व्यक्तित्व के तले हमारा स्वरुप दब कर रह गया है | हमें व्यक्तित्व के खोल से बाहर निकलना है जिससे वास्तविक स्वरुप प्रकट हो सके | हमें स्वभाव को इस प्रकार परिवर्तित करना है कि जीवन से समस्त अवांछित हट जाये और केवल स्वरुप ही शेष रह जाये |
स्व को परम होना नहीं है बल्कि यह स्व ही परम है, इस बात को पुनः स्मृति में लाना है | इसके लिए कुछ करना नहीं है बल्कि जो कुछ कर रहे हैं अथवा कुछ बनने का प्रयास कर रहे हैं, उनका त्याग करना है | यह ठीक उसी प्रकार से है जैसे मूर्तिकार मूर्ति को पत्थर से उसके अवांछित भाग को हटाकर निकाल लेता है | देखने में तो आता है कि मूर्तिकार मूर्ति को गढ़ता है परन्तु यह सत्य नहीं है | वह केवल पत्थर के अवांछित भाग को हटाता है और मूर्ति स्वतः ही प्रकट हो जाती है | मूर्ति प्रत्येक पत्थर में पहले से ही विद्यमान है उसी प्रकार स्व में परम भी पहले से ही है केवल जिस अवांछित को हमने ओढ़ रखा है, केवल उस भाग को हमें हटाना है | इसलिए हमें कुछ भी बनना नहीं है बल्कि जो बने हुए हैं उसमें से अवांछित का त्याग करना है | फिर हम जो होंगे वही हमारा वास्तविक स्वरुप होगा |
हमारे स्वभाव में ही 'स्व' छिपा है फिर भी हम उसे पहिचान नहीं पा रहे हैं | स्वभाव में जो ‘भाव’ अंश है, वह एक मात्र कारण है उसका, जोकि हम बने बैठे हैं | हमारा स्वभाव ही हमें स्वरूप का ज्ञान नहीं होने देता क्योंकि अपने स्वभाव को परिवर्तित करते हुए स्वयं जैसा बनना चाहते हैं, उसी ओर की यात्रा हम प्रारम्भ कर देते हैं और अपने स्वरुप से दूर होते चले जाते हैं | जीवन में कुछ न कुछ बनना ही हमारे बिगड़ने का कारण बनता है और हम अपने वास्तविक स्वरुप से धीरे-धीरे दूर होते चले जाते हैं | स्वरूप को जानने के लिए कुछ बनने की आवश्यकता नहीं है बल्कि जो हम बने हुए हैं उससे अलग हो जाने की आवश्यकता है | बनने का प्रयास हमारे स्वभाव को बिगाड़ देता है जबकि अपने मूल स्वभाव के अनुसार जीना ही हमें स्वरुप को जानने की ओर ले जा सकता है |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि “स्वभावोSध्यात्ममुच्यते” अर्थात स्वभाव को ही अध्यात्म कहा जाता हैं | अध्यात्म नाम है, स्वयं को जानने का अर्थात अपने स्वरुप तक पहुँचना | इससे स्पष्ट है कि स्वरुप तक पहुँचने के लिए हमें सर्वप्रथम अपने मूल स्वभाव को जानना होगा और फिर स्वभाव से स्वरुप तक कैसे पहुँच सकते है, इस बात का ज्ञान करना होगा | प्रत्येक मनुष्य एक निश्चित स्वभाव लेकर पैदा होता है और उस स्वभाव के अनुसार अपना जीवन प्रारम्भ करता है | फिर कहाँ गड़बड़ हो जाती है कि वह स्वरुप तक नहीं पहुँच पाता और मनुष्य जीवन व्यर्थ गंवाते हुए 84 में भटकता रहता है ?
गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ||8/6||
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उसी भाव को ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदैव उसी भाव से भावित रहा है |
भाव दो प्रकार के होते हैं – स्वभाव तथा परमभाव | स्वभाव का अर्थ है, मनुष्य जो वर्तमान में है वह अपने वैचारिक भाव के अनुसार है अर्थात उसने अपने स्वयं के होने की जो कल्पना की थी वह उसी भाव के अनुसार वर्तमान में है | परमभाव का अर्थ है, वास्तविक स्वरुप, जोकि सच्चिदानंद है अर्थात परमब्रह्म परमात्मा | यहाँ मनुष्य के स्वभाव में भाव का अर्थ है, मनुष्य का अस्तित्व (Existence) यानि उसकी प्रकृति | भाव अर्थात जैसा व्यक्ति बनना/होना चाहता है | इस भाव के अनुसार ही नए मानव जीवन में उसका स्वभाव बनता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य जन्म के साथ ही अपना स्वभाव इस संसार में लेकर आता है | अतः सर्वप्रथम हमें यह जानना आवश्यक है कि हमारा स्वभाव बनता कैसे है ? हमारे कर्म, आचरण, कामना, विचार आदि ही हमारा स्वभाव बनाते हैं और फिर यही स्वभाव हमारे द्वारा भविष्य में किये जाने वाले कर्म निश्चित करता है | कहने का अर्थ है कि नए जीवन में मनुष्य पूर्व जन्म से मिले स्वभाव के अनुसार कर्म करना प्रारम्भ करता है | कर्मों के प्रति आसक्ति उसे फिर नए कर्म करने को प्रेरित करती है | नए कर्म उस जीवन में परिपक्व होकर फल दे दे तब तो ठीक है अन्यथा यही कर्म संचित होकर नए जीवन में मनुष्य के स्वाभावानुसार परिपक्व होते हैं और फल देते हैं | कर्मों के प्रति उसकी आसक्ति अथवा विरक्ति वर्तमान जीवन में उसके संस्कार बनाती है | जब समय आने पर मनुष्य देह छूटती है तब उन्हीं संस्कारों के अनुसार उसका कारण शरीर बनता है |
कारण शरीर के अनुसार उसका पुनर्जन्म होता है और इस प्रकार पूर्व जीवन का संस्कार ही नए जीवन में उसका स्वभाव बन जाता है | बनते बिगड़ते संस्कार जन्म दर जन्म उसका स्वभाव बनाते और बिगाड़ते रहते हैं | प्रत्येक मनुष्य जीवन में उसको अवसर मिलता है कि वह अपने मूल स्वभाव को पहिचान कर उसके अनुसार जीवन जीते हुए स्वरूप तक पहुँच जाए परन्तु वह स्वाभाविक जीवन जीना छोड़ कृत्रिम जीवन जीना प्रारम्भ कर देता है और इस प्रकार यह कृत्रिम जीवन उसे स्वरूप तक नहीं पहुँचने देता | कृत्रिम जीवन ऊसका स्वभाव परिवर्तित तो कर सकता है परन्तु उसे स्वरुप तक पहुँचने में कोई सहायता नहीं कर सकता | स्वभाव आपको आवागमन से मुक्त तभी होने देता है जब आप अपने भाव अर्थात अपनी प्रकृति को परमात्मा की ओर लगा दें |
मनुष्य जीवन भर या तो किसी के प्रभाव में जीता है अथवा किसी के अभाव में | प्रभाव और अभाव उसे अपने मूल स्वभाव के अनुसार जीने नहीं देते | जब तक वह अपने स्वभाव में नहीं जीएगा तब तक उसे ‘स्व’ का ज्ञान नहीं हो सकेगा | मनुष्य के जीवन में प्रभाव और अभाव होता है सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तिओं का | संसार, अभाव का ही दूसरा नाम है, यहाँ अभाव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इस प्रकार अभाव और प्रभाव से मनुष्य जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता, ऐसे में भला उसको अपने स्वाभावानुसार जीवन जीने का अवसर ही कब और कैसे मिल सकता है ? वह जीवन भर ‘स्वरूप’ को स्वयं से बाहर ही खोजने में लगा रहेगा, उसे वास्तव में पता ही नहीं चल पायेगा कि ‘स्व’ की उपस्थिति तो उसके स्वभाव के भीतर पहले से ही है | इसलिए प्रत्येक अभाव व प्रभाव से बाहर निकलकर स्वभाव में जीना ही स्वरुप तक ले जा सकता है, अन्य कोई साधन स्वरुप तक पहुँचने का नहीं है |
स्वभाव और स्वरुप में क्या अंतर है ? ठीक है, स्वभाव स्वरूप को प्रकट नहीं होने देता परन्तु प्रकट क्यों नहीं होने देता ? दोनों में अंतर नाम मात्र का है | स्वरूप पर प्रकृति के गुणों का आवरण जब चढ़ जाता है तब वह स्वभाव बनकर स्वरुप को प्रकट नहीं होने देता | चलिए ! इसी बात को जानने का प्रयास करते हैं |
शरीर प्रकृति की देन है, इस कारण से शरीर में प्रकृति के तीनों गुण उपस्थित रहते हैं | शरीर में प्रकृति अपने तीनों गुण डालती है क्योंकि कोई भी कर्म बिना गुण के संपन्न नहीं हो सकता | गुणों के कारण ही मनुष्य अपने जीवन में कर्म करना प्रारम्भ करता है | शरीर में ये तीन गुण रहते कहाँ है ? मुख्य रूप से ये गुण स्वभाव के अनुरूप और उसी के साथ शरीर में रहते हैं | स्वभाव परिवर्तन के साथ गुणों की प्रधानता भी परिवर्तित होती रहती है | नए जीवन में शरीर के साथ स्वभाव आया है और स्वभाव के लिए साथ में गुण भी आवश्यक हैं | इसीलिए मनुष्य के स्वभाव को उसकी प्रकृति भी कहा जाता है | स्वभाव के कारण शरीर में उपस्थित गुण ही मनुष्य का आचरण निश्चित करते हैं | अगर पूर्वजन्म के अनुसार इस जन्म में स्वभाव अच्छा मिला है तो सत्व गुण की प्रधानता शरीर में रहेगी और उसी के अनुसार व्यक्ति का आचरण होगा |
स्वभाव ही मनुष्य के गुण निर्धारित करता है और उसी के अनुसार मनुष्य को नए जन्म में परिवार मिलता है | प्रत्येक परिवार का एक वर्ण होता है | वर्ण चार प्रकार के होते हैं | ये चार वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र | भगवान् गीता में इन चारों वर्णों को सृजित करने के बारे में कहते हैं - “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | ||गीता-4/13||” अर्थात मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के अनुसार चारों वर्णों की रचना की गयी है | जिस वर्ण वाले परिवार में मनुष्य जन्म लेता है, उसका स्वभाव भी उसी वर्ण के अनुसार होता है | जिस व्यक्ति को अपने स्वभाव के अनुसार जो वर्ण मिला है उस व्यक्ति का उसी वर्ण का धर्म, स्व-धर्म भी होता है और उसे अपने जीवन में उसी धर्म के अनुसार आचरण करना चाहिए | इसी बात को भगवान् 18 वें अध्याय में स्पष्ट करते हैं-
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप |
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवेर्गुणैः ||गीता-18/41||
अर्थात हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गए हैं |
इस प्रकार स्पष्ट है कि मनुष्य का वर्ण स्वाभावानुसार ही निश्चित होता है और उसे अपने जीवन में उसी स्वभाव के अनुसार कर्म करने चाहिए | यही उस वर्ण का धर्म है | इसी धर्म के अनुसार कर्म करने से वह ‘स्व’ को जानने के निकट पहुँच सकता है इसीलिए इसे स्व-धर्म कहा जाता है | स्व-धर्म के अनुसार स्व-कर्म होते हैं और अंततः स्व-कर्म ही मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरूप तक ले जाते हैं |-
गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ||गीता-18/47||
अर्थात अच्छी तरह अनुष्ठान किये हुए परधर्म से गुण रहित स्वधर्म श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्व-धर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता |
हमने पूर्वजन्म में जैसे फल की कामना की थी उसी अनुसार कर्म भी किये थे | दुर्भाग्यवश वे कर्म उस जीवन में परिपक्व होकर फल नहीं दे पाए थे | वे कर्म ही संचित होकर संस्कार के रूप में पुनर्जन्म का कारण बने और उन्हीं के अनुसार हमें नया मनुष्य जीवन मिला है | जिस भी वर्ण में हमें यह जन्म मिला है, उसकी कामना हमने अपने पूर्व मानव जीवन में की थी | अतः आवश्यक है कि हम इस जीवन में अपने वर्ण के धर्म के अनुसार कर्म करें और अपने प्रारब्ध का फल भोगें | स्व-धर्म के अनुसार कर्म करने से ही हम अपने प्रारब्ध से मुक्त होकर स्वरुप तक पहुँच सकेंगे | अगर हम पर-धर्म के अनुसार कर्म करने लगेंगे तो हमारा प्रारब्ध कभी भी समाप्त नहीं हो सकेगा और हम स्वरुप तक भी नहीं पहुँच सकेंगे | पर-धर्म के अनुसार कर्म करने वाला पाप को प्राप्त होता है, ऐसा कहने का अर्थ है कि फिर हम आवागमन से कभी भी मुक्त नहीं हो सकेंगे |
वर्ण व्यवस्था के अनुसार एक वर्ण में स्थित व्यक्ति को दूसरा वर्ण अधिक गुणों वाला और उच्च प्रतीत होता है और अपना वर्ण कम गुणों वाला और निम्न | ऐसा समझकर व्यक्ति दूसरे वर्ण के कर्म करने लग जाता है | ऐसा करना उसके लिए किसी भी प्रकार हितकर नहीं हो सकता | कौए को सदैव अपनी चाल के अनुसार ही चलना चाहिए | उसे कभी भी हंस की चाल चलने का प्रयास नहीं करना चाहिए | इस प्रकार पर-धर्म के अनुसार चलने वाला जीवन भर भय से मुक्त नहीं हो सकता | भयग्रस्त व्यक्ति सदैव ही अपने स्वरुप को जानने से कोसों दूर खड़ा रह जाता है |
जिस प्रकार भगवान् ने वर्णों की रचना की है उसी प्रकार चार आश्रम भी उन्हीं के बनाये हुए हैं | चार आश्रम हैं- ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम | मनुष्य की आयु एक सौ वर्ष की मानी गयी है | इस आयु को समान रूप से चार भागों में विभाजित कर चार आश्रम बनाये गए हैं | जन्म से लेकर 25 वर्ष तक की आयु को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा गया है | 26 से 50 वर्ष तक की अवस्था गृहस्थ आश्रम की है | 51 से 75 वर्ष की उम्र वानप्रस्थ आश्रम कहलाती है और 75 वर्ष से अधिक की आयु संन्यास की अवस्था होती है | प्रत्येक आश्रम का अपना अपना धर्म होता है | मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आयु को देखकर अपना आश्रम निश्चित कर उसके धर्म के अनुसार ही आचरण और कर्म करे |
श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कंध के 17 वें अध्याय में भगवान् ने वर्णाश्रम-धर्म का निरूपण किया है | वर्ण और आश्रम व्यवस्था की उत्पत्ति को स्पष्ट करते हुए भगवान् कहते हैं-
विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरुपादजा:|
वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणा: ||
गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम |
वक्षः स्थानाद् वने वासो न्यासः शीर्षणि संस्थितः ||भागवत-11/17/13-14||
भगवान्, उद्धवजी को कह रहे हैं कि विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है | वह विराट् पुरुष मैं ही हूँ | मेरे उदर स्थल से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्मचर्याश्रम, वक्षःस्थल से वानप्रस्थाश्रम और मस्तक से संन्यासाश्रम की उत्पत्ति हुई है |
इसी अध्याय में आगे भगवान् ने प्रत्येक वर्ण और आश्रम के धर्म विस्तार से बताएं हैं | आधुनिक युग में कोई भी व्यक्ति अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार धर्म का आचरण करते हुए कर्म नहीं कर रहा है | यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वरुप को जानने से वंचित है | इसी युग में संत रैदास हुए हैं जोकि मीरां बाई के गुरु थे | उन्होंने अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार धर्म निभाया और स्वरुप को उपलब्ध हुए | तभी तो कहा जाता है – “मन चंगा तो कठौती में गंगा” | स्व-धर्म के अनुसार कर्म करते हुए उन्होंने चमड़े को भिगोने वाली कठौती में भी मां गंगा को आने को विवश कर दिया था | यह है स्वभाव के अनुसार धर्म पर चलते हुए कर्म करते रहने का परिणाम |
इतने विवेचन से स्पष्ट है कि स्व-धर्म के अनुसार कर्म न करके पर-धर्म के अनुसार कर्म करने वाला सदैव भय-ग्रस्त रहता है क्योंकि ऐसा करना उसके स्वभाव के एकदम विपरीत है | भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ||गीता-3/35||
अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है | अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण करता है जबकि दूसरों का धर्म भय को देने वाला है |
प्रत्येक प्राणी का स्वभाव अलग अलग होता है | अपने स्वभाव के अनुसार ही प्रत्येक प्राणी कर्म करता है | मनुष्य को यह स्वतंत्रता है कि वह अपने स्वभाव अनुसार निर्धारित किये गए कर्मों के अतिरिक्त भी कर्म कर सकता है, अन्य जीवों को ऐसी स्वतंत्रता नहीं है | मनुष्य अपने स्वभाव को नए कर्म करके परिवर्तित भी कर सकता है | स्वभाव में यह परिवर्तन आपके उत्थान का कारण बन सकता है और पतन का कारण भी | साथ ही यह भी सत्य है कि स्वाभाविक कर्म को न करना लगभग असंभव है क्योंकि स्वभावानुसार कर्म करके ही पूर्व जन्म के संचित कर्म को परिपक्व किया जा सकता है अन्यथा नहीं |
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि –
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोSपि तत् || गीता-18/60||
अर्थात हे कुन्तीनन्दन ! अपने स्वभावजन्य कर्म से बंधा हुआ तू मोह के कारण जिस युद्ध को नहीं करना चाहता, उसको तू (क्षात्र-प्रकृति के) परवश होकर करेगा |
अर्जुन को कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में युद्ध प्रारम्भ होने से पहले मोह हो गया था और वह युद्ध नहीं करना चाहता था | तब भगवान् ने कहा कि तू कितना ही चाह ले कि युद्ध नहीं करूँगा परन्तु तेरी प्रकृति जोकि तेरा स्वभाव ही है तुझे युद्ध करने को विवश कर देगा |
गीता में भगवान् स्पष्ट कर देते हैं कि प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के परवश होकर ही कर्म करता है अर्थात प्रत्येक मनुष्य कर्म करने को विवश है | मनुष्य को अपने पूर्वजन्म से मिले स्वभाव के कारण कर्म करना, उसके लिए संचित कर्म को परिपक्व करने के लिए आवश्यक है | जब तक संचित कर्मों का प्रभाव समाप्त नहीं हो जाता तब तक प्रकृति के गुणों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता | यह अवस्था गुणातीत अवस्था कहलाती है | गुणातीत हो जाने पर ही स्वरूप प्रकट होता है | गुणों के आवरण के कारण ही तो स्वरुप, स्वभाव बन जाता है | स्वभाव ही हमारा धर्म निश्चित करता है और इसी धर्म का जीवन में पालन करना आवश्यक है |
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि |
धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोSन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ||2/31||
अर्थात अपने क्षात्र धर्म को देखकर भी विचलित नहीं होना चाहिए; क्योंकि धर्ममय युद्ध से बढकर एक क्षत्रिय के लिए दूसरा कोई कल्याणकारी कर्म नहीं है |
स्वाभानुसार कर्म न करना जीवन में पतन का कारण बनता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य का स्वभाव ही उसका धर्म निश्चित करता है और जो मनुष्य इस धर्म के अनुसार कर्म करता है वह धर्म उसका स्व-धर्म कहलाता है | स्व-धर्म ही आपको स्वरुप तक ले जा सकता है | जो व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करने से दूर भागता है वह बार बार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है क्योंकि उसने अपने संचित कर्मों का फल प्राप्त कर उनको नष्ट नहीं किया है |
जो कर्म हम अपने जीवन में ‘स्व’ को जानने की इच्छा से करते हैं वे स्व-कर्म कहलाते हैं और जो कर्म हम अपने स्वभावानुसार करते हैं वे कर्म स्व-धर्म कहलाते हैं | हमें कर्म स्व-धर्म के अनुसार करने हैं जिससे परमात्मा की कृपा से मिले इस एक मनुष्य जीवन में ही हम अपने स्वरुप को प्राप्त कर लेने की अवस्था तक पहंच जाएँ |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः |
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ||18/45||
अर्थात अपने अपने कर्म में प्रीतिपूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक सिद्धि को प्राप्त कर लेता है | अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है, उसको तू मुझसे सुन |
भगवान् ने गीता में कह दिया है कि अपने अपने कर्म में प्रीतिपूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक सिद्धि अर्थात स्वरुप तक पहुँच जाता है | कैसे पहुँच जाता है, उसको स्पष्ट करते हुए भगवान् कहते हैं कि –
यतः प्रवृतिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ||18/46||
अर्थात जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की प्रवृति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है |
परमात्मा का पूजन अपने कर्म (स्व-कर्म) के द्वारा करें | कौन से परमात्मा का पूजन ? उस परमात्मा का जिसने यह संसार रचा है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है अर्थात वासुदेवः सर्वम् | इसका अर्थ यह है कि जो भी प्राणी आपकी दृष्टि में आता है उसको परमात्मा मानकर उसका पूजन करें अर्थात नि:स्वार्थ भाव से प्रत्येक प्राणी की सेवा करें | नि:स्वार्थ भाव से सेवा कर्म करना ही स्व-कर्म है और परमात्मा का पूजन भी | अपने स्वार्थ से किये जाने वाले कर्म आप करते अवश्य हैं परन्तु वे कर्म आपको अपने स्वरुप तक न ले जाकर 84 लाख योनियों में भटकने की ओर धकेल ले जाते हैं | ऐसे कर्म स्व-कर्म नहीं हो सकते क्योंकि ये स्व-धर्म के अनुसार नहीं किये जा रहे हैं | ऐसे समस्त कर्म त्याज्य हैं |
निःस्वार्थ भाव से किये जाने वाले कर्म में भी अगर आसक्ति हो गयी तो फिर वे भी आपको अपने स्वरुप से दूर कर देंगे | देखा जाये तो कर्म में भाव मुख्य है | स्वार्थ भाव पतन की ओर ले जाता है और निःस्वार्थ भाव स्वरुप तक | इसलिए निःस्वार्थ भाव से किये जाने वाले कर्म ही स्व-कर्म है, जिनको करते हुए मनुष्य सम्यक सिद्धि अर्थात अपने स्वरुप को प्राप्त कर लेता है |
भगवान् का पूजन हम जब निःस्वार्थ भाव से कर्म करते हुए करते हैं तब हम परमात्मा के अति निकट होते हैं | परमात्मा सच्चिदानंद स्वरुप हैं और हमारा स्वरुप भी चिदानंद है | प्रत्येक प्राणी में परमात्मा का दर्शन करते हुए उसकी सेवा में लगे रहना ही स्व-कर्म है और निःस्वार्थ भाव से किये जाने वाला प्रत्येक कर्म हमें अपने स्वरुप तक पहुँचने में सहायक होता है |
यहाँ आकर प्रश्न उठता है कि निःस्वार्थ सेवा स्व-कर्म है और स्व-धर्म भी व्यक्ति का कर्तव्य कर्म है तो फिर स्व-धर्म में और स्व-कर्म में क्या अंतर है ? नाम मात्र का अंतर है, दोनों में | स्व-धर्म विशाल शब्द है जोकि अपने भीतर स्व-कर्म को समेटे हुए है | स्व-धर्म ही तब स्व-कर्म बन जाता है, जब उस कर्म में किसी प्रकार की आसक्ति और स्वार्थ नहीं होता | यह सत्य है कि स्वभाव मनुष्य का धर्म निश्चित करता है और उसका स्व-धर्म उसके कर्म निश्चित करता है | अतः आवश्यक है कि जीवन में मनुष्य स्व-धर्म के अनुसार कर्म करे और कर्मों के प्रति आसक्त न हो | आसक्ति और स्वार्थ रहित होकर स्व-धर्म के अनुसार किये जाने वाले कर्म ही स्व-कर्म है और हम स्व-कर्म करके प्रत्येक प्राणी को परमात्मा मानकर सेवा के माध्यम से उसका पूजन करते हैं | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि स्वभाव से सम्बंधित स्व-धर्म के अनुसार कर्म करते हुए स्वरुप तक पहुंचा जा सकता है |
स्वभाव के अनुसार कर्म करते हुए मनुष्य को यह भ्रम हो जाता है कि ये कर्म परमात्मा करते हैं | नहीं, परमात्मा न तो कोई कर्म करते हैं, न ही आपको उन कर्मों का कोई फल देते हैं और न ही आपको कर्म करने को प्रेरित करते हैं | गीता में इस बात को स्पष्ट करते हुए भगवान् कहते हैं –
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः |
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते || गीता-5/14||
अर्थात परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न ही कर्मफल के साथ संयोग की रचना करते हैं; केवल मनुष्य का स्वभाव ही सब कुछ कर रहा है |
ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज इस श्लोक (गीता-5/14) की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि कर्तापन, कर्म और कर्मफल के साथ संयोग करना जीव का काम है, न कि परमात्मा का | अतः इन सब का त्याग भी जीव को करना है | जीव ही अज्ञानवश प्रकृति (स्वभाव) के साथ सम्बन्ध जोड़ कर कर्मों का कर्ता बनता है और कर्मफल के साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दु:खी होता रहता है |
इससे स्पष्ट है कि जो कर्म हम अपने स्वभाव के अनुसार कर रहे हैं उन कर्मों का हमें कर्ता नहीं बनना है और न ही कर्मफल मिलने पर उस फल व कर्म में आसक्त होना है | स्वभाव को धर्म मानते हुए कर्म कर पूर्वजन्म के प्रारब्ध से मुक्त होकर स्वरुप तक पहुँचना ही हमें अपने जीवन का एक मात्र उद्देश्य रखना चाहिए |
जैसा कि मैंने पूर्व में बताया है कि स्वभाव के अनुसार कर्म करने के लिए प्रकृति के तीन गुणों की उपस्थिति आवश्यक है | बिना गुणों के कर्म हो नहीं सकते | इसीलिए प्रत्येक मनुष्य के शरीर में प्रकृति के तीनों गुण उपस्थित होते हैं | स्वभाव से स्वरुप तक पहुँचने के लिए इन गुणों से परे चला जाना आवश्यक है | इस अवस्था को गुणातीत अवस्था कहा जाता है | गुणों से परे चले जाना कोई हंसी-खेल नहीं है | केवल मनुष्य नाम का यह जीव ही है जो गुणातीत होने का प्रयास कर सकता है, अन्य जीव तो इस योग्य भी नहीं है | गीता में भगवान् कहते हैं-
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||2/45||
वेद तीनों गुणों के कार्य का वर्णन करने वाले हैं | हे अर्जुन ! तू तीनों गुणों से रहित हो जा, राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित हो जा, निरंतर नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित हो जा, योगक्षेम की चाहना भी मत कर और परमात्म परायण हो जा |
फिर योग-क्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) कैसे होगा ? भगवान् श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (9/22) अर्थात उनका योग-क्षेम मैं वहन करता हूँ | लगभग ऐसी ही बात भागवत में भी भगवान् कहते हैं –‘ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान् बिभर्म्यहम् | (10/46/4) अर्थात मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिए लौकिक और पारलौकिक धर्मों को छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं करता हूँ |
तीनों गुणों से रहित होने से आशय है सकाम कर्म का त्याग कर केवल निष्काम कर्म करना | निष्काम भाव से कर्म करने वाला ही गुणातीत अवस्था को उपलब्ध हो सकता है | स्वभाव में छिपे ‘स्व’ को प्रकट करने के लिए ‘भाव’ को उससे अलग करना होगा | प्रायः सांसारिक ‘भाव’ ही हमें सकाम कर्म की ओर ले जा सकता है | संसार के विषय ही मनुष्य की कर्मों में आसक्ति का एक बड़ा कारण है | यह आसक्ति ही उसे सकाम कर्म करने को प्रेरित करती है | विषयों में आसक्ति मन में कामना पैदा करती है और फिर यही कामना व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के कर्म करने को प्रेरित करती है | सकाम भाव का त्याग कर देने से ही स्वरुप को जान लेना संभव है अन्यथा नहीं | केवल एक परमात्मा को ही अपना मानकर उसमें स्थित हो कर कर्म करते रहना ही स्वरुप तक पहुँचने के लिए पर्याप्त है | जब व्यक्ति निर्द्वंद्व अवस्था को उपलब्ध हो जाता है तब उसके मन में न तो कोई कामना रहती है और न ही उसकी किसी विषय में रुचि | इस अवस्था को उपलब्ध हुआ व्यक्ति अपने स्वभाव से गुणों को मुक्त कर देता है और ‘स्व’ को जानते हुए स्वरुप तक पहुँच जाता है |
स्वभाव से स्वरुप तक पहुंचना कर्म-योग है | गीता में स्वभाव को ही अध्यात्म कहा गया है | जीवन में अगर हम स्वभाव का विज्ञान समझ लें तो धर्म और कर्म का विज्ञान भी समझ में आ जायेगा | ‘स्वभाव को ही अध्यात्म कहते है’, ऐसा कहने का अर्थ है कि जीव का वास्तविक स्वरुप भी उसका स्वभाव ही है | जैसे प्रत्येक पत्थर में भगवान् है | जिस कारण से यह मनुष्य शरीर मिला है और जिस प्रकृति (स्वभाव) को हम उपलब्ध हुए हैं उसमें से अवांछित भाग का त्याग करना है | ऐसा करने से ‘स्व’ स्वतः ही प्रकट हो जायेगा | जैसे पत्थर के अवांछित भाग को हटाकर भगवान् की मूर्ति निकाल ली जाती है | स्वभाव में अवांछित भाग है, हमारा कर्मों के प्रति आसक्त होना, हमारा कर्ता भाव, कर्मफल की कामना,राग-द्वेष जैसे विकार इत्यादि | ऐसा सब स्वभाव के साथ आए प्रकृति के तीन गुणों के कारण होता है | अपने स्वभाव के अनुसार जीवन जीना और इन अवांछित तत्वों को त्याग कर गुणों से अतीत हो जाना स्वयं के स्वरुप को जान लेना है |
गीता का तानाबाना स्व-धर्म/स्व-कर्म के चारों ओर बुना गया है | इसी कारण से गीता को कर्म-योग का ग्रन्थ कहा जाता है | जहां प्रथम अध्याय में अर्जुन धर्म को लेकर भ्रमित प्रतीत होता है, उसके उसी भ्रम को केंद्र में रखते हुए भगवान् श्री कृष्ण उसका मोह विभिन्न प्रकार से दूर करने का प्रयास करते हैं | उसमें एक मार्ग कर्म-योग का भी है, जिसको भगवान् ने गीता में विस्तार से स्पष्ट भी किया है | अर्जुन क्षत्रिय था क्योंकि क्षत्रिय वर्ण में पैदा होने के कारण उसका क्षत्रिय स्वभाव ही था | जन्म-जात स्वभाव के अनुसार ही धर्म को अपनाकर उसे कर्म करने चाहिए थे | वह अपने सगे-सम्बन्धियों को युद्धभूमि में आपस में मरते-मारते हुए देखना नहीं चाहता था | यह सोचकर वह स्व-धर्म तथा स्व-कर्म से विमुख होने जा रहा था |
श्री कृष्ण ने उसके क्षत्रिय स्वभाव को पुनः स्मृति में लाने का प्रयास किया परन्तु वह मोहवश वास्तविक ज्ञान को समझ नहीं पा रहा था | अंततः भगवान् को कहना ही पड़ा-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं तव सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः || गीता-18|66||
तू सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जा | मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा |
भगवान् श्री कृष्ण ने कह तो दिया कि सभी धर्मों को छोड़कर एक मेरी शरण में आ जा, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, तो क्या महाभारत का युद्ध भगवान् ने लड़ा था ? नहीं, भगवान् कोई कर्म न तो करते हैं और न ही किसी कर्म में लिप्त होते हैं | युद्ध तो अर्जुन ने ही लड़ा था और वह भी अपने स्वभाव के अनुसार, उस युद्ध को स्व-धर्म मानते हुए | उसका स्वभाव उसे युद्ध करने को विवश कर देता परन्तु युद्ध में वह अपने सगे-सम्बन्धियों का हत्यारा बनकर पाप का भागी नहीं बनना चाहता था | यह उसका केवल अज्ञान था | जीवन में स्वभाव के अनुसार मिले स्व-धर्म का पालन करना ही आवश्यक है | स्व-धर्म के पालन के लिए कर्म करने आवश्यक हैं परन्तु उन कर्मों का आश्रय न लेकर केवल परमात्मा का आश्रय लेकर कर्म करें तो फिर हम सभी प्रकार के पाप से मुक्त रहते हैं | भगवद-आश्रय में रहते हुए मनुष्य निःस्वार्थ भाव और मनोयोग से कर्म करते हुए कर्म के साथ बंधता नहीं है और ‘न बंधा हुआ’ मनुष्य सदैव मुक्त ही है |
स्वभाव से स्वरूप तक पहुँचने के लिए स्व-धर्म का पालन करते हुए कर्म करने आवश्यक है | स्व-धर्म को स्मृति में बनाये रखना आवश्यक है अन्यथा हमारी भी वही स्थिति हो जाएगी जैसी युद्धभूमि में अर्जुन की हुई थी | अर्जुन को तो श्री कृष्ण जैसे गुरु का सत्संग मिल गया था | इसलिए हमें भी जीवन में सत्संग लेते रहना चाहिए | सत्संग के साथ स्वाध्याय (शास्त्रों का अध्ययन) भी आपकी स्मृति को बनाये रखने में सहायक होता है | परमात्मा का नित्य स्मरण करते हुए निःस्वार्थ भाव से कर्म (सेवा) करते रहें, स्वरुप से दूर नहीं होंगे | भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा भी है-
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||8/5||
जो मनुष्य अन्तकाल में भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर त्यागता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है |
अन्तकाल अभी और इसी समय है क्योंकि हमारे शरीर की कोशिकाएं प्रतिपल मर रही है और इसी प्रकार यह शरीर भी एक दिन अचानक मर जायेगा | परिवार वाले प्रतीक्षा करते रह जायेंगे और यह हंस अकेला ही उड़ जायेगा | अतः परमात्मा का स्मरण प्रत्येक क्षण करते रहें | सत्संग, स्वाध्याय, सुमिरन और सेवा में समस्त योग आ जाते है | इसलिए स्वभाव में ‘स्व’ के साथ मिले ‘भाव’ को परिमार्जित करते हुए उसका लोप कर दें | ‘भाव’ मन के भीतर रहता है, मन को परमात्मा में मिला देने से सांसारिक ‘भाव’ का स्वतः ही लोप हो जाता है | साथ ही परमात्मा का स्मरण करते हुए स्व-धर्म के अनुसार कर्म करते रहें आप तत्काल ही स्वरुप को प्राप्त कर लेंगे ।
कर्म से शरणागति की ओर जाना स्वभाव से स्वरुप तक की यात्रा है | आप चाहे कर्म-योग को उचित मानें अथवा ज्ञान-योग को श्रेष्ठ मानें, स्वरुप का ज्ञान आपको भक्ति की सर्वोच्च अवस्था शरणागति को प्राप्त करने से सहज ही हो जाता है | हम मनुष्य हैं | हम न जाने कितनी योनियों में भ्रमण करते हुए मनुष्य की अवस्था को प्राप्त हुए हैं | यह भी निश्चित है कि हम अपना एक स्वभाव लेकर इस संसार में आये हैं | मनुष्य जीवन हमारे लिए एक सुअवसर है, जिसमें हम स्वभाव के अनुसार स्व-धर्म का पालन करते हुए स्वरुप तक पहुँच सकते है | इसके लिए हमें पूर्व मानव जीवन के कर्मों का फल भोगते हुए नए कर्मों और कामनाओं का और बोझ नहीं ढोना है | यह अवांछनीय बोझ ही हमें नए जन्मों की ओर धकेल देता है | इसलिए आवश्यक है कि स्व-धर्म का पालन करते हुए भगवद-आश्रय में रहते हुए कर्म कर स्वरुप तक पहुँच जाएँ | तभी इस मनुष्य जीवन की सार्थकता है।
सार संक्षेप-
स्वभाव से स्वरुप तक पहुँचने के लिए आवश्यक है कि स्वयं के भाव में परिवर्तन किया जाये | भाव क्या है ? भाव आपके विचार हैं जो स्पष्ट करते हैं कि आप जो है उससे अलग होकर कुछ नया होना चाहते हैं ? स्व के साथ इस भाव के जुड़ जाने से आपका स्वभाव बनता है | उसी स्वभाव के अनुसार जीवन में व्यक्ति का आचरण होता है | सांसारिक भाव के कारण व्यक्ति के अभिव्यक्त होने के विविध प्रकार के आयाम हो जाते है | सांसारिक अभिव्यक्ति आपको अपने स्वरुप से दूर ले जाती है | जो नाटकीयता आप अपने जीवन में वास्तविक रुप पर ओढ़ लेते हैं वह आपको अपने स्वरूप से दूर कर देती है |
सांसारिक जीवन की विषमता से थककर जब आपका स्वभाव अपने स्वरूप को जानने को उत्सुक होता है तब वह परिवर्तित होकर नाटकीयता से दूर कर देता है और व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है | सांसारिक विषमता को जानना और उससे दूर होजाना सर्वप्रथम आपके स्वभाव को परिवर्तित करता है और यह परिवर्तित स्वभाव आपको स्वरूप तक ले जाता है |
आपका स्वभाव क्षर है, आपका स्वरूप अक्षर है और जो स्वरूप से भी परे है वह स्व है अर्थात परमात्मा | स्वभाव मनुष्य अपने जन्म के साथ ले कर आता है | फिर उसी स्वभाव के अनुसार अगर वह जीवन में स्व-धर्म निभाता रहे तो पूर्व जन्म के सभी संस्कार मिट जाते हैं और व्यक्ति स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है | इसके लिए आवश्यक है कि इस जन्म में स्वयं के भाव को सांसारिक गतिशीलता के अनुसार न बदलें बल्कि आत्मबोध के लिए परिवर्तित कर दें | फिर स्वरूप से स्व तक पहुँचाना सुगम हो जाता है |
स्वधर्म और स्वकर्म से स्वरूप और अंततः स्व को जान लेना ही आध्यात्मिक यात्रा की सफलता है और मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी | मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम अपने शरीर के रहते स्व तक पहुँच जाएँ |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||