सत्य क्या है ? सत्य को विविध प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है | अष्टावक्र महाराज द्वारा कहे गए इस श्लोक (अ.गीता-1/2) के अनुसार सत्य से अर्थ है कि विषयों को भोगने से जिस सुख की अनुभूति आपको होती है वह सही मायने में सुख न होकर छद्म सुख है | वास्तविक सुख तो विषयों से दूर रहने में है | सत्य से दूर ले जाती है, विषयों के प्रति आसक्ति | हमें विषयों से क्षणिक सुख मिलता है | विषयों से दूर रहने से आशय है - विषयों में आसक्ति न रखना | इन्द्रियों द्वारा विषयों का अनुभव होना सत्य है परन्तु विषयों से सुख मिलेगा ही, यह हमारा भ्रम है | सत्य और भ्रम में अंतर यही है कि आप विषयों के प्रति अनासक्त रहेंगे तो वह सत्य है और उनमें आसक्त हो जायेंगे तो यह भ्रम है |
सत्य की ओर अग्रसर होने से आपके जीवन में मुक्ति का रास्ता खुल जाता है | सत्ता केवल एक ही होती है और वह है सत्य की सत्ता | सत्य भी केवल एक होता है, अनेक नहीं | दूसरी बात, माया चाहे कितनी ही प्रबल हो सत्य को कभी पराजित नहीं कर सकती | मूल बात तक पहुँचने के लिए आइये ! भागवतजी का एक श्लोक लेते हैं -
एवं सृष्टानि भूतानि प्रविष्टः पञ्चधातुभि |
एकधा दशधाSSत्मानं विभजञ्जुषते गुणान् || भागवत-11/3/4||
पञ्च भूतों से बने प्राणी के शरीर में परमात्मा ने अंतर्यामी रूप से प्रवेश किया और स्वयं को ही पहले मन के रूप में और फिर दस इन्द्रियों के रूप में विभक्त किया और उन्हीं के द्वारा जीव को विषयों का भोग कराने लगे |
यह श्लोक कहता है कि सब कुछ और सर्वत्र केवल एक परमात्मा ही है | यही वास्तविकता है संसार की, परन्तु हम इस सत्य से विमुख हो चुके हैं | सत्य एक ही है- परमात्मा, जो हमारे भीतर ही नहीं प्रत्येक प्राणी के भीतर अंतर्यामी के रूप में उपस्थित हैं | यही परमात्मा पांच भौतिक तत्व भी बने हुए है जिससे यह शरीर बना है | इन्द्रियाँ भी इनके प्रकाश से प्रकाशित होती हैं जिनसे हमें विषय भोग प्राप्त होते हैं | इन्द्रियों के माध्यम से ही परमात्मा इन विषयों का हमें भोग करवाते हैं |
हम केवल मिले हुए भोग का आनंद लेते रहें, उनमें आसक्त नहीं हों, वहां तक तो सब कुछ उचित है | परन्तु हम तो विषयों को ग्रहण कर उनके भोगों में आसक्त होकर और अधिक भोगों की कामना करने लग जाते हैं | कामना ही नहीं, हम इन कामनाओं को पूर्ण करने के लिए स्वयं कर्ता भी बन जाते हैं | इस प्रकार कर्ता भी हम बन गए और भोक्ता भी हम हो गए | अपने वास्तविक स्वरुप के अनुसार हम न तो कर्ता हैं और न ही कर्म में लिप्त होते है- ‘न करोति न लिप्यते’ (गीता-13/31) | भोगों की कामना कर्म कराती है और कर्म स्वयं के द्वारा किया जाना ‘करोति’ है और विषयों का संग करना भोगों में ‘लिप्यते’ अर्थात लिप्त हो जाना है | “न करोति न लिप्यते” ही हमारा वास्तविक स्वरुप है, फिर भी हम अपने द्वारा करना मानते हुए विभिन्न विषय-भोग प्राप्त करते हैं और उनमें लिप्त हो जाते हैं | यह हमारा भ्रम है, यह सत्य नहीं है | इस प्रकार स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि हम अपना वास्तविक स्वरुप विस्मृत कर बैठे हैं |
हम “न करोति न लिप्यते” हैं फिर हम स्वयं के स्वरुप को क्यों भूल जाते हैं ? अंतर्यामी के रूप में हमारे शरीर में स्वयं परमात्मा हैं | गीता भी कहती है- ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देश्यSर्जुन तिष्ठति (18/61) | फिर भी हम सब स्वयं को शरीर मानते हैं और इस भ्रम से भ्रमित होकर संसार में विभिन्न शरीरों में भटक रहे हैं | शरीर के भीतर जो बैठा है, वह कभी बदलता नहीं है, प्रत्येक बार केवल शरीर ही बदलता है | जो हमारे भीतर बैठा है वही हमारा वास्तविक स्वरुप है | सत्य तो यह है कि हम अपने वास्तविक स्वरुप से परिचय करना चाहते ही नहीं हैं | हम शरीर को ही अपना स्वरुप समझते हैं | शरीर माया द्वारा ही निर्मित है और इस माया के कारण ही हम भ्रमित हो गए हैं | इस बात को स्पष्ट करते हुए भागवत कहती है -
गुणैर्गुणान् स भुन्जान आत्मप्रद्योतितै: प्रभुः |
मन्यमान इदं सृष्टमत्मानमिह सज्जते || भागवत-11/3/5||
वह देहाभिमानी जीव अंतर्यामी के द्वारा प्रकाशित इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भोग तो करता है परन्तु साथ ही इन पञ्च महाभूतों से निर्मित शरीर को आत्मा- अपना स्वरूप मानकर उसी में आसक्त हो जाता है | यही भगवान् की माया है |
शरीर को अपना मानकर ‘न करोति न लिप्यते’ को भूल जाते हैं और माया के वशीभूत होकर विभिन्न योनियों में भ्रमण करते रहते हैं | इस शरीर से जब प्राण बाहर निकल जाते हैं, तब क्या इसमें स्थित ज्ञानेन्द्रियों से किसी विषय का ज्ञान हो सकता है ? क्या फिर इस शरीर की कर्मेन्द्रियों से कर्म किये जा सकते हैं ? क्या इस मृत शरीर से फिर विभिन्न विषय-भोग भोगे जा सकते हैं ? उत्तर मिलेगा – नहीं, नहीं और नहीं |
इतना सब कुछ जानते हुए भी हम भ्रम में ही जी रहे हैं | क्यों सत्य की ओर जाने का प्रयास नहीं करते हैं ? सत्य का अनुभव जिस दिन हमें हो जायेगा, उस दिन से हमारे लिए इस संसार की अहमियत शून्य हो जाएगी | हम संसार में रहते हुए भी संसार से अलग (विमुख) हो जायेंगे | संसार के प्रति हमारा यह तटस्थ भाव हमें सत्य के दर्शन करा देगा |
आज की शिक्षा रोज़गारोन्मुखी है | उस शिक्षा से हम अपना और परिवार का पेट तो भर सकते हैं परन्तु यह शिक्षा सत्य का ज्ञान नहीं करा सकती | हमारी विडंबना यह है कि उदरपूर्ति की शिक्षा को ही ज्ञान समझ बैठे हैं | शिक्षा हमें सांसारिक ज्ञान कराती है इसलिए यह अविद्या है | शिक्षा को ज्ञान मान लेने के कारण शास्त्रों में समाहित ज्ञान और गुरु से मिले ज्ञान को धारण करने में हमें असुविधा होती है |
सत्य यह है कि परमात्मा और आत्मा एक ही है | शरीर में प्रवेश करते ही यह जीवात्मा कहलाती है | वैसे देखा जाये तो आत्मा; मन, प्राण और वाक् की समष्टि है और इनको क्रमशः प्रज्ञात्मा, प्राणात्मा और भूतात्मा कहा जाता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि इसे आत्मा के नाम से कहना भी अनुपयुक्त है | केवल एक परमात्मा ही सब कुछ और सर्वत्र व्याप्त हैं, ऐसा कहा जाना ही उचित जान पड़ता है |
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्री कृष्ण भी कहते हैं –
बहुनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || 7/19 ||
बहुत जन्मों के अंतिम जन्म में अर्थात मनुष्य जीवन में “सब कुछ परमात्मा ही है” - इस प्रकार जानकर जो ज्ञानी मेरी शरण होता है, वैसा महात्मा मिलना अत्यंत दुर्लभ है |
“वासुदेवः सर्वम्” का अर्थ है सब जगह एक परमात्मा ही है, कोई अन्य है ही नहीं | इस बात को जान और मान कर अनुभव कर लेना ही सत्य को जानना है | सैद्धान्तिक रूप से कहना और अनुभव करना दोनों अलग अलग हैं | गीता के प्रारम्भ में ही भगवान् ने कह दिया था – “नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः” (2/16) अर्थात असत की सत्ता नहीं है और सत का अभाव नहीं है | इसी बात को पुष्ट करता है – “वासुदेवः सर्वम्” कहना | कहने का अर्थ है कि सब जगह केवल एक परमात्मा की ही सत्ता है | सत्ता केवल एक की ही होती है, दो की नहीं |
सृष्टि की रचना इसी एक से ही प्रारम्भ होती है | जहां जहां और जितना जितना इसका विस्तार होता है, सभी में और सब स्थानों पर इस एक की ही समान रूप से उपस्थिति रहती है | ब्रह्माण्ड में कौन सा स्थान है जहाँ इसकी उपस्थिति नहीं है | विज्ञान भी यही बात कहता है | दोनों में कहीं किसी प्रकार की मत भिन्नता नहीं है | एक के मन में कामना हुयी कि मैं एक से अनेक होना चाहता हूँ -”एकोSहं बहुस्याम्” | एक से अनेक होने के लिए माया का निर्माण उसी के भीतर हुआ है, अलग से उससे बाहर नहीं | ‘एकोSहं’ सूक्ष्म है जबकि ‘बहुस्याम्’ स्थूल | हम स्थूल में रहते हुए एक को कैसे जान सकेंगे ? इसके लिए हमें स्थूल से अलग होना होगा | यही कारण है कि ‘बहुस्याम्’ की अवस्था में रहते हुए ‘एकोSहं’ का अनुभव होना सहज नहीं है | एक असीम है, उसको ससीम होना है | ससीम होने के लिए माया का होना आवश्यक है | माया दो प्रकार की- विद्या और अविद्या | विद्या ब्रह्म है और अविद्या कर्म | विद्या सदैव एकरूप रहता है जबकि अविद्या प्रतिपल बदलता रहता है |
पुरुष अर्धेन्द्र है, पूर्णता के लिए उसे माया का साथ चाहिए | माया के संपर्क में आने से पूर्व, पुरुष की ऋत संज्ञा होती है | माया का साथ मिलते ही वह पूर्णत्व को प्राप्त होता है | ऋत को जो कि असीम है, माया उसे ससीम कर देती है | इस प्रकार हम क्षर सृष्टि के अंग बन गए हैं | स्थूल अवस्था तक आते-आते हम भूल जाते हैं कि हमारे भीतर सूक्ष्म और कारण शरीर भी है | कारण शरीर ही क्यों; उससे बढकर वह एक जो है, वह भी हमारे भीतर है | उसके भीतर होने के कारण ही हमारा मन सब ओर देखता है |
स्थूल रूप से आँखें देखने के उपकरण मात्र है जबकि सूक्ष्म मन दृश्य को देखने वाला है | मन प्रकाशित होता है, उस एक परम पुरुष के कारण | यहाँ तक कि मन में उठ रही इच्छाएं तक भी उस एक के अधीन हैं | दुर्भाग्यवश हम इन सबका कारण स्थूल शरीर को ही मानने लगते हैं | साथ ही इस स्थूल शरीर को ही स्वयं का होना मानने लगे हैं | यहीं से हमारे जीवन में सुख-दुःख की यात्रा का प्रारम्भ होता है, मैं और मेरा की भावना का पदार्पण होता है | हमारी दृष्टि भीतर गहराई में उस केंद्र की ओर जाती ही नहीं है जहां वह अकेला बैठा होते हुए भी केंद्र से परिधि की ओर स्वयं ही विस्तारित हुआ है | परम पुरुष से पुरुष और माया बना और फिर स्थूल देह तक विस्तृत हुआ | अभी भी उस परम का विस्तार हो रहा है और तब तक होता रहेगा जब तक वापसी की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं हो जाती |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण कह रहे हैं –
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् |
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ||9/18||
परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, साक्षी, सबका वास स्थान, सबका हितकारी, सबकी उत्पत्ति और प्रलय का कारण, स्थिति का आधार, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ |
सोचिये ! अब उस एक के अतिरिक्त अन्य के लिए कहाँ और कौन सा स्थान रह गया है ? इस एक के कारण ही सबका अस्तित्व होना संभव हुआ है | हम तो भ्रमवश इस संसार में भटक रहे हैं, इस संसार का कारण स्वयं को अर्थात स्थूल को मानते हुए | प्रभु की माया ने हमें भ्रमित कर रखा है | जब तक हम ऋत (जिसकी कोई परिधि और केंद्र नहीं हो) थे तब तक आनंद में थे | जब से माया का साथ मिला है. भ्रमित हो गए हैं और इसी संसार में भटक रहे हैं | मनुष्य के द्वारा भ्रमित होना एक साधारण बात है परन्तु भ्रम को ही सत्य स्वीकार लेना उसका दुर्भाग्य है |
परमात्मा के द्वारा माया का प्रपंच रचा ही इसलिए गया है कि वह स्वयं को देख सके जैसे दर्पण में अपना चेहरा देखा जाता है | मनुष्य को भी इसलिए बनाया गया है कि परमात्मा उसमें स्वयं को देख सके | मनुष्य भी दर्पण में बना उसी परमात्मा का प्रतिबिम्ब मात्र है | उस प्रतिबिम्ब (मनुष्य) की प्रत्येक गतिविधि उस मूल (परमात्मा) बिम्ब के हाथ में है | प्रतिबिम्ब स्वयं गति करना चाहता है,ऐसा चाहने से उसमें गति भी होती है परन्तु वह गति उस एक मूल के कारण होती है जो कि दर्पण के बाहर है और इधर प्रतिबिम्ब (मनुष्य) समझ बैठता है कि गति वह स्वयं कर रहा है | प्रतिबिम्ब को समझना होगा कि वह केवल उतना ही नहीं है जितना कि वह दर्पण में दिखलाई पड़ रहा है | जैसे ही दर्पण के सामने से मूल बिम्ब हटता है, प्रतिबिम्ब भी दर्पण से हट जाता है | इससे सिद्ध होता है कि दर्पण के भीतर न होकर दर्पण के बाहर है हमारा वास्तविक स्वरुप | हम दर्पण में दिखलाई पड़ने वाले प्रतिबिम्ब को ही अपना वास्तविक स्वरुप समझकर झूठे ही सुखी-दु:खी हो रहे हैं |
मनुष्य जीवन की यही वास्तविकता है | दर्पण में बने प्रतिबिम्ब को मूल बिम्ब की दृष्टि से देखते हुए आनंद लें, प्रतिबिम्ब के संसार में उलझे नहीं | दर्पण से दूर हो जाओ और प्रतिबिम्ब को भूल जाओ, तभी आपको अपने वास्तविक स्वरुप के दर्शन होंगे | संसार ही वह दर्पण है | उत्तल दर्पण होगा तो उसमें हम छोटे से दिखलाई देंगे और अवतल होगा तो अपने आकार से बहुत ही बड़े | अगर दर्पण समतल हुआ तो दायाँ भाग बाँयां दिखलाई पड़ेगा और बाँयां भाग दाहिना | प्रतिबिम्ब कभी सत्य नहीं हो सकता क्योंकि दर्पण कभी भी सत्य दिखला ही नहीं सकता | ऐसा ही इस संसार के साथ है | संसार असीम को एक सीमा में बान्ध देता है। हम असीम हैं | सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण आदि के प्रतिबिम्ब दर्पण की योग्यता के अनुसार (संसार के अनुसार) बनते बिगड़ते रहेंगे, हमें इनसे तनिक भी विचलित नहीं होना है क्योंकि हम दर्पण की सीमा के बाहर हैं |
जगत के रंगमंच पर एक परमात्मा ही विभिन्न पात्रों की भूमिकाएं निभा रहे हैं | रंगमंच का पर्दा भी वही है, दर्शक भी वही है और अभिनेता भी वही एक ही है | कहीं कोई अन्य नहीं है, यही सत्य है | हमारा ही भ्रम है कि हम नायक-खलनायक को अलग अलग समझते हैं और दर्शकों को अलग | जीवन में आने वाले सुख-दुःख भी वही है, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां भी वही पैदा करता है | रंगमंच पर खेला जा रहा नाटक पटाक्षेप के साथ समाप्त हो सकता है परन्तु वह एक फिर भी बना रहता है | वह कभी अदृश्य नहीं होता, बस केवल हमें भ्रमवश नज़र नहीं आता | भ्रम का आवरण हटते ही सर्वत्र एक वही दृष्टिगत होगा, यही सत्य है |
श्री मद्भागवत महापुराण के एकादश स्कंध में भगवान् दत्तात्रेयजी के गुरुओं की कथा आती है जिसमें उन्होंने अपने 24 गुरुओं के बारे में बताया है | इनमें से उनकी एक गुरु है-मकड़ी | मकड़ी को गुरु मानते हुए उन्होंने शिक्षा ली है, उसके सम्बन्ध में एक श्लोक यहाँ उद्घृत कर रहा हूँ -
यथोर्णनाभिर्हृदयादूरपूर्णां सन्तत्य वक्त्रतः |
तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ||11/9/21||
जैसे मकड़ी अपने ह्रदय से मुंह के द्वारा जाला फैलती है, उसी जाले में विहार करती है और फिर उसे ही निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत को अपने से उत्पन्न करते हैं, उसी में जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने में ही लीन कर लेते हैं |
इस श्लोक के माध्यम से स्पष्ट हो जाता है कि इस ब्रह्मांड में एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई है ही नहीं | यहाँ तक कि प्रत्येक चर-अचर, चेतन-अचेतन, बाहर भीतर, ऊपर नीचे चहुँ ओर केवल उसी एक की सत्ता है | सब स्थानों पर उसकी उपस्थिति है | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि केवल एक वही है | श्री रामचरितमानस में गोस्वामीजी बड़े ही मधुर शब्दों के माध्यम से यही बात कह रहे हैं-
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं | कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ||1/185/6||
उस एक परम को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना असंभव है क्योंकि शब्द भी उन्हीं की देन हैं | जो सबका मूल है, उस मूल की व्याख्या कितनी ही कर ली जाये, उसे स्पष्ट नहीं किया जा सकता | इसीलिए बृहदारण्यक उपनिषद कहती है -
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्त् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
जगत का उत्पादक परमात्मा पूर्ण है, जगत भी पूर्ण है | उस पूर्ण से ही यह पूर्ण निकला है | पूर्ण से पूर्ण निकालने के बाद भी जो शेष बचता है, वह भी पूर्ण है | कहने का अर्थ है कि जगत के विस्तार का कारण ब्रह्म ही है और चौरासी लाख योनियों का बीज भी ब्रह्म ही है | सत्य भी यही है और ज्ञान भी यही है | इसी को जान लेना इस मनुष्य जीवन में आवश्यक है |
सत्य को जान लेने के पश्चात् हमारे सामने स्वयं की स्थिति भी स्पष्ट हो जाती है | हम वही सत्य हैं जो एक मात्र इस जगत का आधार है | सत्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इस एक सत्य के कारण ही हम आपस में एक दूसरे से सम्बंधित है अर्थात हमारे में और किसी अन्य में कोई भेद नहीं है, सब एक ही हैं | शास्त्र कहते हैं कि जो समष्टि में है, वही व्यष्टि में भी है | एक दूसरे से सम्बंधित होने के बाद भी इस सत्य को माया के आवरण के कारण न समझकर स्वयं को अलग और अन्य को स्वयं से अलग समझ रहे हैं | इसी भ्रम के कारण संसार के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं |
बीज से पेड़ बनता है | जब पेड़ बड़ा हो जाता है, तब क्या बीज मर जाता है ? नहीं, बीज कभी भी नहीं मरता | बीज की देह मिट गयी है परन्तु उसका ह्रदय पेड़ में धडक रहा है | केवल बीज की स्थूल देह मिटी है, पुनः बीज के रूप में नयी देह पाने के लिए | इस प्रकार इस संसार का, इस जगत का आवागमन का अटूट चक्र चलता रहता है |
माया के कारण हम इस संसार में उलझकर आवागमन के चक्कर से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं | इस शरीर को छोड़ते हैं क्योंकि यह जर्जर हो चूका है, यह शरीर अब किसी काम का नहीं है | शरीर का अंत समय आ गया है फिर भी हमारी कामनाएं पूर्ण होनी शेष है | नया शरीर उन्हीं कामनाओं को पूर्ण करने के लिए मिला है | कामनाओं के कारण ही हम दूसरी देह के साथ सत्य का सम्बन्ध भूला बैठे हैं और राग-द्वेष, अपना-पराया, मैं-मेरा आदि के चक्कर में पड़ गए हैं | माया के कारण आपसी सम्बन्ध का स्वरुप बदल गया है और एकत्व के स्थान पर भिन्नता आ गयी है | यही भिन्नता संसार के चक्र में हमें उन्हीं लोगों से विभिन्न जन्मों में बार-बार मिलाती बिछुडाती रहती है | पुनर्जन्म इसी सिद्धांत पर आधारित है |
हम पुनर्जन्म के सिद्धांत को समझ नहीं पा रहे हैं | प्रत्येक जीव को एक जन्म का लेन-देन दूसरे जन्म में समायोजित करना ही पड़ता है | नया जीवन इस समायोजन को समझ नहीं पा रहा है और सुखी-दुखी होता रहता है | वास्तव में शरीर ही हमारे सुख-दुःख का आधार है | अतः माया की दृष्टि का परित्याग कर वास्तविक दृष्टि को जाग्रत करना होगा तभी इस संसार से पार जाया जा सकता है, अन्यथा नहीं |
भगवान् और भगवान् की माया के बारे में इतने लम्बे विवेचन के बाद मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरुप को जानने और समझने में सहायता मिलेगी | एक बार उस ओर का संकेत मिलने के बाद ही उधर की यात्रा प्रारम्भ होगी | इतने विवेचन से जो सूत्र निकल कर आये हैं उन पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं |
1.स्व-निर्मित संसार से मुक्त होना तभी संभव होगा जब हम अपने संसार की वास्तविकता को समझ लेंगे |
2.सत्य को जाने बिना हम संसार के माया जाल से बाहर नहीं आ सकते |
3.सत्य केवल एक परमात्मा ही है | परमात्मा के अतिरिक्त इस स्थूल शरीर की इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ भी हम देखते हैं, समझते हैं अथवा जानते-मानते हैं, सब माया अर्थात भ्रम है |
आप जीवन में कितना ही ज्ञान प्राप्त कर लें वास्तव में वह ज्ञान तब तक व्यर्थ है जब तक कि उसको आचरण में न लाया जाये | हमने अपना संसार बनाया है क्योंकि हम विषयों में आसक्त हैं | विषयासक्ति न हो तो संसार भी न हो | इस कारण से बने संसार में कामनाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है क्योंकि विषयासक्ति कामना पैदा करेगी ही और कामना पैदा होगी तो उनको पूरी करने के लिए काम्य-कर्मों को करना पड़ेगा | ऐसे ही कर्म हमें संसार चक्र से बाहर नहीं निकलने देते | कारण कि जीवन में सभी कामनाएं कभी भी पूरी नहीं होती क्योंकि कामनाओं का अंत नहीं है | एक कामना पूर्ण हो रही होती है कि उसी समय नई कामना जन्म ले रही होती है | पुनर्जन्म के मूल में यही अपूर्ण कामनाएं अपनी भूमिका निभाती है |
संसार के विस्तार और उस विस्तार में उलझने का कारण हमारी कामनाएं ही है | अगर इस संसार को सीमित करना है तो हमें अपनी कामनाओं को सीमित करना होगा | कामनाओं को सीमित करके अंततः उन्हें समाप्ति की ओर ले जाना ही इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य है | ‘मैं चाहता हूँ, वैसा हो जाये’ इसी का नाम कामना है | ‘परमात्मा चाहे वैसा ही हो’, यह मुक्ति की राह है |
प्रश्न उठता है कि आत्म-बोध की भी तो कामना होती है | अगर इस कामना को भी समाप्त कर दिया जाये तो फिर हमारा कल्याण कैसे होगा ? सत्य है, कल्याण नहीं हो सकता क्योंकि कामना मन में रहेगी तो संसार भी रहेगा | ऐसे में भला हम मुक्त कैसे हो पाएंगे ?
सांसारिक कामनाओं से अच्छी है, परमात्मा को पाने की कामना करना | इस कामना के रहते हुए भी हम परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते | अंततः परमात्मा को पाने की इस कामना को भी त्यागना होगा, तभी हम उस परम अवस्था को उपलब्ध होंगे अन्यथा नहीं | एक भी कामना अगर मन में रहती है तो मन का अस्तित्व रहेगा | मन अमन तभी हो सकता है जब वह कामना रहित हो | कामना रहित मन ही परमात्मा है क्योंकि मन के अमन होते ही माया का आवरण गिर जाता है और हम उस परम अवस्था तक पहुँच जाते हैं | स्मरण रहे, परमात्मा को पाने की कामना नहीं होती बल्कि परमात्मा को पाना हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकता है |
आइये ! अब स्व-निर्मित संसार को मन से निकालने का रास्ता ढूंढें और इस आवागमन के चक्र से बाहर निकलने का प्रयास करें |
संसार में जानने योग्य क्या है कि जिसको जानने से हम संसार से बाहर निकलने की यात्रा प्रारम्भ कर सकते हैं | संसार को जगत भी कहा जाता है | जगत का अर्थ है, जो निरंतर गति कर रहा हो | संसार में सतत परिवर्तन होते रहते हैं, इसी कारण से इसे जगत कहा जाता है | इस जगत को जानने के लिए इसकी दो बाते बड़ी महत्वपूर्ण हैं -
एक-इस संसार में सब कुछ सत ही है, सत के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है |
दो-जगत में जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है तथा जो दृष्टिगत नहीं है, सब एक दूसरे से सम्बंधित है |
इन दो बातों को थोडा विस्तार से जान लेना आवश्यक है | इन दोनों में भी पहली वाली बात बड़ी महत्वपूर्ण है | दोनों में से कोई सी एक बात भी हमारे भीतर पूर्णरूपेण स्पष्ट हो जाती है, तो दूसरी स्वतः स्पष्ट है | इन्हें जीवन में अपने आचरण में उतार लेने पर फिर संसार कहीं नहीं रहता केवल एक परमात्मा ही रहता है |
इस संसार में सब कुछ सत है, सत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इस बात को भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के प्रारम्भ में ही कह दिया है | अर्जुन ने उस समय उसको ग्रहण किया अथवा नहीं, कहा नहीं जा सकता क्योंकि मोहग्रस्त व्यक्ति को कोई बात शीघ्र ही समझ में भी तो नहीं आती | अर्जुन की सी अवस्था हमारी भी है | हम तो अर्जुन से भी अधिक मोह में पड़े हैं | उसको तो केवल युद्ध जैसी विपरीत परिस्थिति में मोह हुआ था, यहाँ तो प्रत्येक परिस्थिति में अज्ञान हमारा पीछा करता है |
‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता-2/16) अर्थात असत की तो सत्ता नहीं है और सत का कहीं अभाव नहीं है | संसार में दो विभाग हैं- जड़ और चेतन, जिनको माया और पुरुष कहा जाता है | भौतिक स्थूल शरीर के चक्षुओं से दिखलाई पड़ने वाली प्रत्येक वस्तु/पदार्थ सब जड़ है, माया है और माया मिथ्या/असत है | जैसा कि मैंने पूर्व में भी कहा है कि क्रियाशील प्रकृति का नाम ही माया है | जहाँ क्रिया है वहां परिवर्तन होना अवश्यम्भावी है | देखा जाये तो पदार्थ अथवा वस्तु नाम की भी कोई चीज है ही नहीं | जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है वह सब क्रिया ही क्रिया है । क्रिया जब दिखलाई पड़ने की अवस्था को प्राप्त होती है तब उसे पदार्थ कहा जाता है | क्रियाएं ही पदार्थ को बनाती और बिगाड़ती रहती है | आज जो पदार्थ है कल वह पदार्थ वैसा नहीं रहेगा | उस पदार्थ के प्रत्येक स्तर पर चल रही सतत क्रिया उसको धीरे-धीरे परिवर्तित करती रहेगी | आधुनिक विज्ञान, पदार्थों में हो रही क्रियाओं के आधार पर उस पदार्थ का अर्ध-जीवन काल (Half life) निर्धारितकरते हैं | विज्ञान भी कहता है कि एक दिन समय पाकर वह पदार्थ भी परिवर्तित होकर दूसरा रूप ग्रहण कर लेगा | इसी बात को शताब्दियों से हमारे सनातन शास्त्र भी कहते आ रहे हैं |
यह जगत स्पंदन (Vibrations) का ही परिणाम है | स्पंदित होना ही चैतन्य होने का प्रमाण है | स्पंदन से क्रियारूप विभिन्न तत्वों का निर्माण हुआ और अंततः द्रव्यों (पदार्थों) का | वाद्य यंत्रों को जब हम स्पंदित करते हैं तब उनसे सुर निकलते हैं | स्पंदन सुर के जनक हैं | सुर ही प्रकृति के गुण कहलाते हैं | हम सत हैं और केवल सत ही स्पंदित हो सकता है।बिना सत की उपस्थिति के अकेला पदार्थ स्पंदन पैदा नहीं कर सकता | शरीर भी तो एक पदार्थ ही तो है | ध्यान रखें – स्पंदन (Vibrations) और क्रिया (Action) में बहुत अंतर है | स्पंदन से सुर (गुण) का परिणाम पद (क्रिया) है | शरीर में जो आत्म-तत्व है वही सत है | शरीर में आत्म-तत्व के कारण स्पंदन होता है और फिर उससे सुर अर्थात गुण और गुणों से क्रिया होती है | शरीर में हो रही क्रियाएं ही कर्म कहलाती हैं | आत्म-तत्व की अनुपस्थिति में न तो कोई स्पंदन होगा और न ही क्रिया | इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्पंदन के कारण क्रिया होती है और निरंतर हो रहे स्पंदन से क्रिया फिर विस्तार को प्राप्त होती है | इस प्रकार स्पंदन का अर्थ हुआ, सत के द्वारा किसी क्रिया को विस्तार देना |
स्पंदन से सुर पैदा होते हैं जैसे सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि | ये सात सुर हैं | प्रत्येक सुर का अपना एक गुण होता है और फिर इन गुणों के आधार पर क्रिया होकर तत्व (Element) बनता है | संगीत में स्पंदन से सुर और फिर सुर से पद बनते हैं।इसी प्रकार सृष्टि के सृजन में जब ये पद एक निश्चित अर्थ ले लेते हैं तब ये पद ही पदार्थ बन जाते हैं। विज्ञान ने अभी तक खोजे गए सभी तत्वों को उनके गुण-धर्म के आधार पर सात समूहों में बांटा है | गुणों का परिणाम क्रिया है और क्रिया का परिणाम तत्व है | विभिन्न तत्वों का योग पदार्थ बनाता है | आणविक संख्या के अनुसार आठवें क्रम में ठीक वैसा ही तत्व आ जाता है, जैसा कि प्रथम स्थान पर आने वाला तत्व गुण-धर्म रखता है | सुर में भी जो प्रथम स्थान पर है, आठवें स्थान पर वैसे ही गुण धर्म वाला सुर आ जाता है | जैसे सरगम का पहला सुर है ‘सा’ और आठवाँ सुर भी पुनः ‘सा’ ही होगा | ये सातों गुण पदार्थ में आते आते आपस में संयुक्त होकर तीन ही रह जाते हैं | पदार्थ के तीन गुण हैं- विद्युतीय, भौतिक और रासायनिक जिन्हें क्रमशः सात्विक, राजसिक और तामसिक गुण कहा जाता है | इसी प्रकार सूर्य में सतत हो रहे स्पंदन से प्रकाश उत्पन्न होता है उस प्रकाश में भी तरंग दैर्ध्य (wave length) के अनुसार सात रंग होते हैं – बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल | ये सातों रंग भी संयुक्त होकर प्रकाश को रंगहीन कर देते हैं | जब इस प्रकाश को प्रिज्म से गुजरा जाता है तो फिर यह पुनः सात रंगों में विभाजित हो जाता है | उर्जा सूर्य से इन प्रकाश की किरणों पर सवार होकर ही हमारी धरा तक पहुँचती है | केवल पृथ्वी तक ही क्यों ? सूर्य की उर्जा तो सम्पूर्ण सौरमंडल में सर्वत्र पहुँच रही है ।
स्पंदन प्रारम्भ होने में उर्जा की भूमिका महत्वपूर्ण है | कहने का अर्थ है कि बिना उर्जा के स्पंदन होना भी संभव नहीं है | कहने का अर्थ है कि सब कुछ उर्जा का रूप परिवर्तन मात्र है | स्पंदन का परिणाम सुर (गुण) है और गुणों का परिणाम क्रिया है | स्पंदन में स्थितिज उर्जा (Potential Energy) गतिज उर्जा (Kinetic Energy) में परिवर्तित होती है और उस गतिज उर्जा से जगत का निर्माण होता है | प्रकृति अक्रिय है, वह जब क्रियाशील होती है तब माया का और उससे फिर जगत का निर्माण होता है | जगत का अर्थ ही है- जो गति कर रहा हो | जगत सत से आता अवश्य है परन्तु असत है क्योंकि एक न एक दिन उसे पुनः सत की ओर लौटना है | असत को सत की ओर तो अंततः लौटना ही है परन्तु उसके लौटने से पहले वह मनुष्य के मस्तिष्क को भ्रमित करता रहता है और वह असत को सत समझने लगता है | असत के पीछे भी तो सत की सत्ता है | इसीलिए कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड में सत के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है | सत्ता केवल सत की ही है | असत को सत कहना अनुचित नहीं है, अनुचित है - असत की सत्ता होना मान लेना |
असत की सत्ता मान लेने का दुष्परिणाम ही है कि हम इसमें आसक्त होकर स्वयं में हो रही क्रियाओं को अपने द्वारा किये जाने वाले कर्म मान लेते हैं | हमारा शरीर एक द्रव्य (पदार्थ) ही तो है और अगर यह पदार्थ है तो इसमें क्रियाएं तो होगी ही | क्रियाएं न हो तो शरीर कभी भी बुढा नहीं होगा और न ही यह कभी मरेगा | क्रियाएं ही शरीर को गर्भावस्था से वृद्धावस्था तक ले जाती है | ऐसे में शरीर का अस्तित्व कहाँ रहा, उसमें केवल क्रियाएं ही क्रियाएं तो चल रही है | हम उन क्रियाओं में आसक्त हो गए हैं | यह आसक्ति हमें बार-बार विभिन्न गर्भाशयों की यात्रा कराती रहती है |
अपनी कृति “भज गोविन्दम्” में आदि शंकराचार्यजी महाराज कहते हैं-
'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं |
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाSपारे पाहि मुरारे ||’21||
इन क्रियाओं के वशीभूत होकर शरीर (पदार्थ) को ही हम सब कुछ समझ लेते हैं और इसी आसक्ति के कारण हमें बार बार जन्म लेना और मरना पड़ता है | उन क्रियाओं के कारण ही तो हमें अपने शरीर में सुख-दुःख का अनुभव होता है | यह संसार दु:खालय है, इससे बाहर निकलना बड़ा ही कठिन है | केवल एक गोविन्द, जिसने इस जगत की रचना की है, जगत का सृजन किया है, वही आपको इस जगत से मुक्ति दिला सकता है | इसलिए क्रियाओं पर ध्यान ने दें, उनमें आसक्त न हो | केवल गोविन्द को भजो, जोकि सत है वही आपको असत से मुक्ति दिला सकता है |
अब प्रश्न उठता है कि जब असत की सत्ता ही नहीं है फिर उससे मुक्ति की बात कहाँ से आ गयी ? सही सोचा है आपने | असत की सत्ता नहीं है, बल्कि इसके पीछे सत की ही सत्ता कार्य करती है | असत को सत्ता दी है हमने, इसमें आसक्त होकर | इसका अर्थ है कि असत के पीछे भी हमारी ही सत्ता है | हाँ, सही है असत के पीछे भी हमारी ही सत्ता है क्योंकि हम स्वयं सत है | परन्तु हम स्वयं को सत कब से मानने लगे ? हम तो स्वयं को असत (शरीर) ही तो मान रहे हैं | अगर हम वास्तव में जानते कि माया असत है, तो फिर केवल मायापति के प्रति ही प्रेम रखते, इस संसार, शरीर और सम्बन्धियों तथा धन, सम्पति आदि से प्रेम नहीं करते क्योंकि ये सब पदार्थ (द्रव्य) से अधिक कुछ भी नहीं है | संसार से प्रेम करना मोह है, अज्ञान है | परन्तु हमने तो इसके ठीक विपरीत कार्य किया है | मायापति को तो भूला दिया है और माया के साथ हो लिए हैं |
इतने विवेचन से स्पष्ट हो गया होगा कि सत्ता केवल एक ही है, शेष जो भी कुछ दृष्टिगत है वह अस्तित्व लिए हुए दिखलाई भले ही पड़ता हो परन्तु वास्तव में वह अस्तित्वहीन है, केवल भ्रम है | उस असत के पीछे भी सत की ही सत्ता कार्य करती है | सत जिस समय चाहेगा असत को अपने में समेट लेगा | इससे यह अनुभव हो जाना चाहिए कि एक सत के अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है | असत की सत्ता मान लेने से सब अलग अलग नज़र आते हैं | जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है, उसे सत की लीला समझें | लीला और सत्य में अंतर होता है, लीला माया है | लीला में कठपुतलियाँ मंच पर नाचती अवश्य हैं परन्तु वे असत ही रहेंगी | सत तो वह सूत्रधार ही होगा जोकि इन कठपुतलियों को अपनी अँगुलियों के स्पंदन के बल से नचा रहा है | जिस समय हमारी दृष्टि कठपुतलियों से हटकर सूत्रधार पर स्थानान्तरित होकर, उसी पर जाकर टिक जाएगी तब हमें भी सर्वत्र सत ही दिखलाई देगा, असत कहीं भी नज़र नहीं आएगा | यहाँ तक कि कठपुतली, मंच और सूत्रधार सब एक रूप हो जायेंगे, सच्चिदानंद रूप - “चिदानंद रूपः शिवोSहम् शिवोSहम् |
अब आते हैं, जगत को जानने की दूसरी महत्वपूर्ण बात पर | जगत में जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है तथा जो दृष्टिगत नहीं भी है, सब आपस में एक दूसरे से सम्बंधित है | हम जानते हैं कि एक सत्य के अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है, फिर भी सबको अलग अलग देखते हैं | भले ही माया के कारण सब अलग अलग दृष्टिगत हो रहे हों, वास्तव में सब एक ही हैं | सबको अलग अलग देखते हुए भी सभी एक दूसरे से सम्बंधित हैं, ऐसा स्वीकार कर लेना ही उचित है | इस संसार में आज जो अशांति फैली हुई है, उसका एक मात्र कारण है कि हम सभी आपस में एक दूसरे से जो सम्बन्ध है उसको स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं |
महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ इस ब्रह्मांड में जो कुछ अणु में है वही विराट में भी है | जो समष्टि में है वही व्यष्टि में भी है | दोनों में कहीं कोई विषमता नहीं है | अणु परमाणुओं के योग से बनता है | एक परमाणु की संरचना और विराट की संरचना समान है | इस प्रकार परमाणु को इस विराट की इकाई कहा जा सकता है | परमाणु के केंद्र में केन्द्रक होता है जिसमें धनात्मक आवेश वाले प्रोटोन रहते हैं | एक से अधिक प्रोटोन के साथ रहने से समान आवेश के कारण उनके बीच प्रतिकर्षण होने की सदैव संभावना बनी रहती है | उनके मध्य प्रतिकर्षण न हो इसलिए उनको आपस में एक साथ बांधे रखने के लिए बिना किसी आवेश वाले कण (न्यूट्रॉन) रहते हैं | केन्द्रक के चारों ओर ऋणात्मक आवेश वाले इलेक्ट्रोन अपनी निश्चित कक्षाओं में परिभ्रमण करते रहते हैं | यही बात हमारे सौरमंडल पर भी लागू है | सौरमंडल के केंद्र में सूर्य है और चारों ओर अपने निश्चित परिभ्रमण पथ पर नौ ग्रह चक्कर लगाते रहते हैं |
यह इस बात का प्रमाण है कि ब्रह्मांड में सभी एक समान है और एक दूसरे से सम्बंधित भी है | आपस में सम्बंधित और एक समान होने के कारण एक के भीतर हुआ किसी भी प्रकार का परिवर्तन दूसरे को कमोबेश प्रभावित अवश्य ही करता है | एक दूसरे से सम्बंधित होने वाली बात को आधुनिक विज्ञान के आधार पर समझाने का यह एक छोटा सा प्रयास भर था | आइये ! अब इसी बात को सनातन शास्त्रों के आधार पर स्पष्ट करते हैं |
पूर्व में हमने “वासुदेव सर्वम्” पर विस्तृत चर्चा की थी | सनातन शास्त्र इस बात को हजारों वर्ष पूर्व से ही कह रहे हैं कि परमात्मा विराट में भी है और अत्यंत सूक्ष्म में भी है | इकाई भी वही और विराट भी वही | एक वही है तो फिर ये विभिन्न रूप; चर-अचर, चेतन-जड़ आदि क्यों दिखलाई पड़ रहे हैं ? संत महात्माओं ने जल में तैरते घड़ों के दृष्टान्त से इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है | जल के विशाल स्रोत जैसे समुद्र में विभिन्न रंग और आकार के, कई घड़े तैर रहे हों तो सभी बाहर से तो भिन्न भिन्न नज़र आयेंगे परन्तु सभी के भीतर जल एक ही प्रकार का होगा | ज्यों ही घड़ा टूटता है, घड़े के भीतर का जल बाहर के जल में मिल जाता है और फिर अंतर करना असंभव हो जाता है कि इसमें घड़े के भीतर का और घड़े के बाहर का जल कौन सा है ? घड़े के शरीर का महत्त्व एक दूसरे से सम्बंधित होने में, नहीं है बल्कि महत्त्व है जल का, जोकि सब घड़ों में एक सा ही है |
दूसरा दृष्टान्त संतजन घटाकाश, मठाकाश, महाकाश का देते हैं | घड़े के आकाश और एक मठ के आकाश में कोई अंतर नहीं है | सभी में आकाश परिपूर्ण रूप से व्याप्त है | घड़े के टूटने पर भी आकाश परिपूर्ण है और घड़े के रहते उसमें भी वह परिपूर्ण है | घट अथवा मठ में आसक्ति होने से वे आकाश में आये परिवर्तन से प्रभावित होंगे, आसक्ति नहीं होगी तो प्रभावित नहीं होंगे | जैसे आकाश में वायु जब मिट्टी को चारों ओर फैला देती है तो मठ के आकाश में भी वही मिट्टी प्रवेश कर जाती है और घड़े का आकाश भी मिट्टी से अछूता नहीं रहता | आकाश एक है, भले ही घड़े और मठ अलग अलग हों | आकाश में आने वाला अल्प और क्षणिक परिवर्तन भी दोनों में समान रूप से दृष्टिगोचर होता है | घड़ा मठ की तुलना में छोटा अवश्य है परन्तु ऐसा नहीं हो सकता कि वह अप्रभावित रहे | अगर घट और मठ का आकश स्वयं को घटाकाश और मठाकाश के रूप में अलग न मानें वे ऐसे परिवर्तन से प्रभावित कतई नहीं होंगे जैसे आकाश (महाकाश) ऐसे परिवर्तन से सदैव ही अप्रभावित रहता है |
इन दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि महत्त्व आकाश अथवा जल का है, घड़े के आकार और रंग का नहीं और न ही घड़े और मठ के आकार का है | एक दूसरे से सम्बंधित होने का कारण जल अथवा आकाश है, घट और मठ नहीं।
“वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः” (गीता-7/19) कहने का अर्थ यही है कि सर्वत्र एक परमात्मा ही है, इसको स्वीकार करने वाला महात्मा अत्यंत दुर्लभ है | जो इस बात को स्वीकार कर लेगा वह प्रत्येक प्रकार के प्रभाव से अप्रभावित रहता है | प्रभावित होता है, हमारा शरीर परन्तु हम शरीर तो नहीं है | हम भी वही हैं और हमारा स्वरुप भी वही है-सच्चिदानंद स्वरुप | गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को इसी बात को आकाश का दृष्टान्त देते हुए समझाते हैं-
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते |
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ||13/32||
जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यंत सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होता |
घड़े और आकाश के दृष्टान्त की शरीर और आत्मा से तुलना करें तो पाएंगे कि शरीर में अहम् भाव रखने वाला ही प्रभावित होता है स्वयं को आत्मा अर्थात चेतन समझने वाला सदैव ही अप्रभावित रहता है | स्वयं के शरीर में अहम् भाव (देहाभिमान) नहीं रहे तो सबकी आत्मा एक ही है और प्रत्येक शरीर में स्थित होने के आधार पर देखें तो आत्मा ही परमात्मा का अंश है अर्थात हमारा स्वरुप भी वही है जो परमात्मा का है | बूँद के जल और जल के विशाल भण्डार के जल में कोई अंतर नहीं है, जो अंशी में है वही अंश में भी है | इस प्रकार हम एक दूसरे से सम्बंधित हुए अथवा नहीं | चेतन के स्तर पर हम एक दूसरे से सम्बंधित हैं परन्तु स्थूल शरीर के स्तर पर भिन्न भिन्न दिखलाई पड़ते हैं | अगर हमारी आसक्ति स्थूल के स्तर पर है तो निश्चित ही हम एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते | प्रभाव शरीर पर पड़ता है चेतन पर नहीं इसलिए शरीर में आसक्ति रहते अप्रभावित रहना संभव नहीं है |
एक दूसरे से सम्बंधित हैं तभी तो संत कहते हैं कि सभी के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए क्योंकि जो व्यवहार आपको उचित नहीं लगता, निश्चित ही वैसा व्यवहार करना सामने वाले के लिए भी अनुचित होगा | इस बात को ध्यान में रखेंगे तो जीवन सुखमय और शांति पूर्वक चलता रहेगा | जब तक हम शरीर को देखते हुए स्वयं को अलग और दूसरे प्राणियों को अलग मानते रहेंगे तो निश्चित ही हम जीवन में सुखी-दुखी होते रहेंगे और ऐसा जीवन कभी भी शांत जीवन नहीं हो सकता |
गीता को धार्मिक ग्रन्थ कहा जाता है क्योंकि यह ग्रन्थ अपने कर्तव्य-कर्म के बारे में हमारी समस्त भ्रांतियां दूर करता है | गीता कहती है-
सहयज्ञा: प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोSस्त्विष्टकामधुक् ||
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः |
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ||3/10-11||
प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदिकाल में कर्तव्यकर्मों के विधानसहित प्रजा (मनुष्य आदि) की रचना करके कहा कि तुम लोग इस कर्तव्य के द्वारा सबकी वृद्धि करो और यह कर्तव्य-कर्म रुपी यज्ञ तुम लोगों को कर्म सामग्री प्रदान करने वाला हो | कर्तव्य कर्मों के द्वारा तुम लोग देवताओं को उन्नत करो और वे देवता लोग तुम लोगों को उन्नत करें | इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे |
हम एक दूसरे से सम्बंधित हैं, इसलिए आपस में हमें कैसे रहना चाहिए, उपरोक्त दोनों श्लोक इसी बात को सपष्ट करते हैं | प्रकृति भी जीवंत हैं और मनुष्य भी | हम आज आधुनिकता के चक्रव्यूह में फंसकर प्रकृति के साथ जो व्यवहार कर रहे हैं, वह सर्वथा अनुचित है | प्रकृति का दोहन जिस प्रकार कर रहे हैं, उससे प्रकृति निश्चित रूप से प्रभावित हो रही है | प्रकृति प्रभावित होगी तो हम भी प्रभावित होंगे | जंगल काटे जा रहे हैं और निरीह पशुओं का वध अंधाधुंध किया जा रहा है | मांसाहारी पशुओं को अपना पेट भरने के लिए जंगल में आहार तक नहीं मिल पा रहा है | यही कारण है कि आज जंगली पशु भोजन के लिए बस्तियों का रुख कर रहे हैं | हम केवल प्रकृति से ले ही ले रहे हैं, बदले में उसे पीड़ा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे रहे हैं | इससे प्राकृतिक संतुलन डगमगा रहा है |
प्रकृति के रूष्ट होने का प्रमाण इससे अधिक क्या मिलेगा कि नित नई बीमारियाँ हमारे सामने आ रही है और मानवता उसका दंश झेल रही है | नदियाँ सूखती जा रही है क्योंकि बढ़ते तापमान से ग्लेशियर पिघल रहे हैं | वर्षा धीरे धीरे कम होती जा रही है, जल का संकट आसन्न दिखाई दे रहा है फिर भी हम सुधर नहीं रहे हैं | आपस में उन्नति करने की बात धर्म-ग्रंथों में दब कर रह गयी है | इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को समय रहते स्वयं में सुधार लाना होगा और आपस में प्रत्येक जीव की उन्नति में सहयोग देना होगा |
प्रकृति को भी स्वयं के अनुसार रहने का अधिकार है | उसके अधिकार को चुनौती देना स्वयं के जीवन को दांव पर लगाना है | अतः प्रकृति को यथावत बनाये रखना हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक है | इसके लिए हमारी सनातन संस्कृति में देवताओं की कल्पना की गयी है और वांछित भोग प्राप्त करने के लिए उनकी पूजा अर्चना का विधान किया गया है | इन देवताओं की पूजा करते हुए हम प्रकृति का संरक्षण कर सकते हैं | दुर्भाग्यवश हमने अपनी संस्कृति तक को उपहास का पात्र बना डाला है, जिसका परिणाम हमें भुगतना पड़ रहा है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण इस बात को स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि -
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः |
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ||3/12||
यज्ञ से पुष्ट हुए देवता भी तुम लोगों को बिना मांगे ही कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक सामग्री देते रहेंगे | इस प्रकार उन देवताओं की दी हुई सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है |
सांसारिक जीवन में तीन प्रकार की प्रकृति के व्यक्ति रहते हैं – पहली प्रकृति के व्यक्ति केवल देने ही देने में विश्वास रखते हैं, बदले में जो कुछ भी मिल जाये उसी में संतोष धारण कर लेते हैं अर्थात देना और पाना (Give and get) | दूसरी प्रकृति के व्यक्ति का भाव रहता है, देना और लेना (Give and take) | तीसरी प्रकार की प्रकृति के व्यक्तियों का भाव रहता है, देना कुछ भी नहीं बल्कि केवल लेना ही लेना (Only take) | पहली प्रकृति के व्यक्ति प्रकृति को केवल देता ही देता है बदले में लेने की भावना नहीं रखता बल्कि जो कुछ प्राप्त हो जाये उसी में संतुष्ट रहता है | ऐसे व्यक्तियों की आज के समय बहुत आवश्यकता है, जिससे क्षतिग्रस्त हुई प्रकृति में सुधार किया जा सके | दूसरी प्रकृति के लोग देते भी हैं और प्रकृति से लेते भी हैं | ऐसे व्यक्ति प्राकृतिक संतुलन में विश्वास रखते हैं | तीसरी प्रकृति के लोग अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति से केवल लेते ही रहते हैं, बदले में देते कुछ भी नहीं | ऐसे व्यक्ति इस प्रकृति का क्षरण करने में ही रत है, इनको स्वयं में सुधार करना होगा |
लम्बे विवेचन के बाद यह स्पष्ट है कि हम एक दूसरे से इतने घनिष्ट रूप से सम्बंधित हैं कि कहीं भी किसी के साथ कोई छोटी सी भी अप्रत्याशित घटना घटित होती है तो केवल उसकी चीत्कार ही हम तक नहीं पहुंचेगी बल्कि उसकी पीड़ा भी हम तक पहुंच जाएगी और ऐसे में हम भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे | वैज्ञानिकों का मत है कि 84 लाख योनियों के जीवों का आपस में एक दूसरे के जीवन से इतना गहरा सम्बन्ध है कि एक दूसरे के जीवन के लिए प्रत्येक प्रकार के जीव का जीवित रहना आवश्यक है | भागवत में भी कहा गया है – ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ | छोटे से नज़र आने वाले कीट (Arthropodes) इस जगत में सर्वाधिक आबादी वाले प्राणी हैं | वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर इन कीटों का अस्तित्व इस पृथ्वी से समाप्त हो गया तो समझ लें कि फिर इस धरा पर मनुष्य का अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा | कहा जाता है कि एक छोटा सा जीव, मधुमक्खी अगर झाड़-झंखाड़ में फंसकर अपने पंख फडफडाती है तो उससे भी हमारा जीवन प्रभावित होता है | हमारा जीवन एक छोटी सी मधुमक्खी पर भी इतना अधिक निर्भर हो सकता है ! है न आश्चर्य की बात | ज़रा आँख मूँद कर चिंतन कीजिये, आपको मेरी इस बात में सत्यता नज़र आएगी | फिर भी हम समझते नहीं हैं और एक प्रकार की बेहोशी में जीवन जीते हुए न जाने कितने जीवों के साथ दिन-रात अत्याचार करते रहते हैं |
अभी तक हुए विवेचन से फिर कुछ सूत्र स्पष्ट हुए हैं, जिन्हें आपके समक्ष व्यक्त करना चाहूँगा |
1.संसार की कामना, कामना है जबकि परमात्मा को पाने की कामना अर्थात आत्म-बोध की कामना कामना न होकर हमारे जीवन की आवश्यकता है |
2. कामना का अर्थ है-‘मैं चाहूँ, वैसा हो जाये |’ इससे बचना होगा |’परमात्मा चाहते हैं, वैसा ही हो’ इस बात को स्वीकार करना होगा |
3.'संसार में सत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है', यह बात को स्वीकार कर लेने से ही आत्म-बोध का मार्ग खुलता है |
4.हम सभी के शरीर प्रकृति के अंतर्गत हैं और सभी में परमात्मा स्वयं अंतर्यामी के रूप में विराजमान है | अतः एक दूसरे के उत्थान में रुचि लें और प्रकृति का संतुलन बनाने का प्रयास करें अन्यथा हम सभी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे |
इस प्रकार हमने अभी तक जीवन के कुछ महत्वपूर्ण सूत्रों पर चर्चा की है | जीवन में इन सूत्रों पर चलना, उनको आचरण में लाना आवश्यक है | सभी सूत्र कर्म और ज्ञान-योग से सम्बंधित है | कर्म-योग 'कर्म' के आश्रय लेने की बात करता है जबकि ज्ञान-योग 'स्व' के आश्रय पर आधारित है | दोनों ही योग में कुछ न कुछ करना पड़ता है | केवल भगवद्- आश्रय ही एक मात्र ऐसा आश्रय है, जिसमें केवल भगवान् की शरण लेना होता है, करना कुछ भी नहीं होता | आइये ! अब इसी आश्रय तक पहुँचने का प्रयास करते हैं, कुछ और सूत्र जानकर |
इतने लम्बे विवेचन से एक बात तो पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है कि क्रिया और पदार्थ में आसक्त व्यक्ति अब तक आवागमन से मुक्त नहीं हो पा रहा है जबकि जीवन का उद्देश्य अपने मूल स्थान पर लौटना है | जब ब्रह्माण्ड में सत के अतिरिक्त कोई दूसरा है ही नहीं तो फिर हम पदार्थ और क्रियाओं का आश्रय ले ही क्यों ? भले ही पदार्थ और क्रिया की पृष्ठभूमि में साक्षात् सच्चिदानंद परमात्मा ही क्यों न हो फिर भी ये असत ही हैं क्योंकि प्रत्येक क्रिया और पदार्थ का परिवर्तित होना शाश्वत सत्य है | परिवर्तनशीलता के कारण उसका क्षरण हो रहा है इसलिए वह सत नहीं हो सकता, वह असत ही रहेगा | यही कारण है कि असत का आश्रय हमें विभिन्न योनियों में भटकाता है, मुक्त नहीं होने देता | असत का आश्रय हमें सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि द्वंद्वों में उलझा देता है | इनसे मुक्त होना आवश्यक है | मुक्ति के लिए केवल एक परमात्मा का आश्रय लेना ही आवश्यक हो जाता है |
भगवद्-आश्रय सीधा सीधा मार्ग है परन्तु परमात्मा का आश्रय लेना ही जीवन में सबसे कठिन कार्य है | कठिन इसलिए है कि हम जीवन के प्रारम्भ से ही क्रिया में विश्वास रखते आये हैं, सदैव कुछ न कुछ करते रहने में ही विश्वास रखते हैं | इसलिए जब तक हमें इस बात का ज्ञान नहीं हो जाता कि करना हमारे वश में हो सकता है, पाना नहीं; तब तक परमात्मा का आश्रय लेना संभव नहीं होता | ज्ञान किस बात का होना चाहिए ? हमें इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि जीवन में हमारा कुछ करना और बनना ही हमें परमात्मा से दूर कर देता है क्योंकि कुछ करने और कुछ बनने के पीछे हमारी आसक्ति और कामनाओं का हाथ रहता है | परमात्मा का आश्रय लेने से कामनाओं का नाश शीघ्र ही हो जाता है |
शरीर भी एक पदार्थ है अतः इसमें क्रियाओं का होना स्वाभाविक है | क्रिया से मुक्ति के लिए जो कुछ करना है, वह हमें करना ही चाहिए क्योंकि इस आधुनिक युग में सीधे सीधे परमत्मा के आश्रय को स्वीकार करना लगभग असंभव सा हो गया है | हाँ, सब कुछ करके भी जब अनुभव होता है कि कुछ करना आवश्यक ही नहीं था, तब परमात्मा का आश्रय शीघ्र ही स्वीकार कर लिया जाता है | जीवन है, इसलिए शरीर से क्रियाएं होंगी ही | हमें क्रियाओं के होने अथवा कर्म करने में विशेष रूप से दो बातों (सूत्रों) का ध्यान रखना है | इन सूत्रों का ध्यान हम तभी रख पाएंगे जब प्रत्येक क्रिया का ज्ञान हमें हो | यहाँ आकर कर्म-योग और ज्ञान-योग मिल जाते हैं | दोनों के समावेश से ही भक्ति-योग का मार्ग प्रशस्त होता है और व्यक्ति पराश्रय (कर्म) और स्व का आश्रय (ज्ञान) छोड़कर भगवद आश्रय स्वीकार करने को उद्यत होता है | फिर भगवद्-आश्रय ही उसके लिए मुक्ति के द्वार खोलता है |
गीता में भगवान् श्री कृष्ण भक्ति-योग अध्याय में कहते हैं –
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते | ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ||12/12||
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल की इच्छा का त्याग श्रेष्ठ है क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति की प्राप्ति हो जाती है |
अभ्यास, ज्ञान और ध्यान में कुछ न कुछ करना होता है जबकि सर्वोत्तम बात है ‘कर्मफल की इच्छा का त्याग’ जिसमें कुछ भी करना नहीं पड़ता बल्कि छोड़ना पड़ता है | कर्म फल की इच्छा का त्याग केवल परमात्मा का आश्रय लेने से ही हो सकता है | कर्म-योग और ज्ञान योग में अभ्यास करना पड़ता है | ये दोनों मार्ग परिश्रम के मार्ग हैं | भक्ति-योग में सब कामनाओं को त्यागना होता है | इसलिए भक्ति मार्ग में विश्राम है |
अभ्यास किस बात का करना है ? ज्ञान की बात सदैव स्मृति में रहे, इस बात का अभ्यास करना है | ज्ञान शास्त्रों और सन्तो से मिलता है | अगर इस ज्ञान को विस्मृत कर दिया जाय तो फिर ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं रहता | ज्ञान हमें सदैव ध्यान (स्मृति) में रहे इसका निरंतर अभ्यास करना है | अभ्यास करने से ज्ञान स्वतः ही श्रेष्ठ हो जाता है और ज्ञान से ध्यान तब श्रेष्ठ हो जाता है, जब उस ज्ञान को ध्यान के माध्यम से एकाग्रचित्त होकर स्मृति में बनाये रखा जाता है | एकाग्रचित्त होने पर स्वतः ही संसार से ध्यान हटकर परमात्मा की ओर हो जायेगा | परमात्मा का ध्यान करते ही सभी कर्म और कामनाएँ महत्वहीन हो जाते हैं | इसीलिए कामना का त्याग इन सभी से श्रेष्ठ कहा गया है | इसके लिए हमें केवल कर्मफल की इच्छाओं का त्याग करना है | कर्मफल की इच्छा ही कामना उत्पन्न करती है | कर्म करना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है, अनुचित है मन में फल की इच्छा (कामना) रखते हुए कर्म करना | जीवन में प्रत्येक इच्छा बंधन है और इच्छा के त्याग में मुक्ति |
वे दो महत्वपूर्ण सूत्र जिनको जीवन में कर्म करते समय सदैव ध्यान में रखना आवश्यक है, वे हैं –
1.शरीर की क्रियाओं को कर्म बनाते हुए यह बात सदैव ध्यान में रखें कि संसार में रहते हुए भी हमें उसमें उलझना नहीं है |
2.जीवन में कर्म का कभी भी आश्रय न लें क्योंकि हम न तो कर्ता हैं और न ही भोक्ता |
उपरोक्त दोनों सूत्र ज्ञान-और कर्म-योग के अंतर्गत आ जाते हैं | महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दोनों सूत्रों की जीवन में पालना हो जाये तो हम पराश्रय छोड़ कर भगवद्-आश्रय ग्रहण कर सकते हैं | आइये ! दोनों ही बातों पर कुछ चिंतन करते हैं | कहने को तो दोनों ही बातें सुगम प्रतीत होती हैं परन्तु इनका पालन करना तभी संभव है, जब हम ज्ञान को ध्यान में रखते हुए त्याग की ओर बढ़ें क्योंकि परमात्मा त्याग से ही मिलते हैं | सर्वप्रथम पहली महत्वपूर्ण बात को स्पष्ट करते हैं | संसार हमें अपने में उलझाता नहीं है बल्कि हम संसार में स्वयं ही उलझ जाते हैं | नाव पानी में रहे तो नाव हमें नदी के पार ले जा सकती है परन्तु नाव में पानी आ जाये तो वही नाव बीच में ही डूबा भी देती है | हम संसार में रहें तो उस संसार से पार हुआ जा सकता है परन्तु हमारे भीतर अगर संसार समा गया हो तो फिर डूबना निश्चित है |
संसार में रहते हुए संसार में उलझने से बचने के लिए चलिए, दत्तात्रेय जी के एक गुरु का उदाहरण लेते हैं | दत्तात्रेय जी के 24 गुरुओं में एक गुरु है, मकड़ी | मकड़ी स्वयं को केंद्र में रखते हुए अपने चारों ओर एक जाला बुनती है, उदरपूर्ति हेतु किसी शिकार को उसमें फंसाने के लिए | उसके बनाये जाल में कीड़े आकर फंस जाते हैं परन्तु मकड़ी स्वयं नहीं फंसती | मकड़ी निर्भय होकर अपने ही बुने जाल में विचरण करती रहती है, उसमें थोड़े से समय के लिए भी नहीं उलझती | जब भी कोई कीड़ा अथवा शिकार उसके जाल को छूता भी है, तो तुरंत ही वह उसमे उलझ जाता है | अथक प्रयास करने के बाद भी वह उससे बाहर निकल नहीं पाता | जब शिकार उस जाल से बाहर निकलने का प्रयास कर कर थक जाता है तब मकड़ी अपने बुने जाल पर चलते हुए आती है और उसके शरीर में अपनी लार को डाल कर घायल कर देती है | शिकार को घायल कर पुनः जाल के केंद्र पर जाकर बैठ जाती है और इंतजार करती है, शिकार के मरने का | शिकार के मरते ही वह फिर उसी जाल पर चलती हुयी शिकार तक पहुँचती है और उसके भीतर का सारा रस चूस कर कीड़े के खोल को अपने जाल से मुक्त कर देती है और पुनः जाल के केंद्र पर जाकर किसी अन्य शिकार के फंसने का इन्तजार करने लगती है | जो तकनीक मकड़ी काम में लेती है, वही तकनीक हमें भी अपने जीवन में काम में लेनी है, जिससे हम भी संसार में रहते हुए उसमें फंसे नहीं | वह कौन सी तकनीक है, जिससे मकड़ी जाल में विचरण करते हुए भी उसमें नहीं फंसती ?
मकड़ी कौन सी तकनीक का उपयोग करती है, उस जाल को बनाने में, जिसमें शिकार तो फंस जाता है परन्तु स्वयं नहीं फंसती ? वैज्ञानिकों ने उसकी जाला बुनने की प्रक्रिया और तकनीक का सूक्ष्मता से अध्ययन किया है | मकड़ी दो प्रकार के जाले एक साथ बुनती है, दोनों जाल एक दूसरे से सटे हुए और समानांतर होते हुए भी आपस में एक निश्चित दूरी बनाये रखते हैं | इन दोनों जालों को अलग अलग साधारण दृष्टि देखना से संभव नहीं है, केवल सूक्ष्मदर्शी के माध्यम से ही उनको स्पष्ट रूप से अलग अलग देखा जा सकता है |
दोनों जाल एक दूसरे से लगभग सटे हुए से रहते हैं | पहला जाल, जिसमें शिकार फंसता है, मकड़ी उसमें चिपचिपा पदार्थ लगा देती है और दूसरे जाल को अपने आवागमन के लिए रूखा ही बनाये रखती है | किसी शिकार के चिपचिपे जाल में फंसते ही मकड़ी रूखे जाल के धागों पर चलती हुयी उस तक पहुँचती है, जिससे वह उसमें नहीं फंसती | लेकिन दोनों जाल के सटे रहने से एक सम्भावना यह भी बनती है कि मकड़ी का कोई पैर भूलवश कभी चिपचिपे धागे से भी छू सकता है | फंसने से बचने के लिए परमात्मा ने उसके पैर गद्दीदार बनाये है, इससे उसके पैर जाल से चिपक नहीं सकते | इस प्रकार दोनों ही परिस्थतियों में वह अपने द्वारा बुने गए जाल में कभी भी फंस नहीं सकती |
यह है वह पहली तकनीक जिससे हमें शिक्षा मिलती है कि मकड़ी जाल में फंसने से जिस प्रकार बच जाती है, उसी प्रकार हमें भी संसार में उलझने से बचना है | दूसरा ज्ञान जो मकड़ी से मिलता है वह है कि जाले का निर्माण मकड़ी स्वयं के मुख की लार से करती है और फिर उसी जाले के कमजोर हो जाने पर स्वयं ही उसे समेट कर उदरस्थ कर लेती है | इस प्रकार स्वयं के द्वारा निर्मित जाल को वह स्वयं ही मिटा डालती है | दोनों ही तकनीक मनुष्य के लिए इस संसार में रहते हुए उपयोगी है | मनुष्य अपने संसार का निर्माण तो कर लेता है और फिर उसमें उलझ जाता है | संसार का निर्माण करना और उसमें उलझकर उसे समेट नहीं पाने को मनुष्य जीवन की विडम्बना ही कहा जा सकता है |
मकड़ी के जीवन से प्रेरणा लेकर मनुष्य उसकी तकनीक का जीवन में उपयोग कर ले तो संसार में फंसने से बच सकता है | यह तकनीक हम अपने जीवन में कैसे उपयोग में ले सकते हैं ? चलिए ! इसी विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाते हैं |
एक प्रसिद्ध कहावत है – “Man always born free but every where in chains”. अर्थात मनुष्य सदैव स्वतंत्र ही पैदा होता है परंतु वह सर्वत्र जंजीरों से घिरा रहता है | जंजीरों से घिरा रहता है, इसलिए उसके बंधने/फंसने की सम्भावना भी सदैव बनी रहती है | गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने से इन जंजीरों में जकडे जाने की सम्भावनाएँ प्रबल हो जाती है | इसका अर्थ यह कदापि न लें कि बिना गृहस्थ जीवन के आदमी जीवन में मुक्त ही रहता है | बंधन तो मन का खेल है और मन तो किसी भी अवस्था में कभी भी चंचल हो सकता है | हाँ, यह सत्य है कि मन के गृहस्थ जीवन में चंचल होने की प्रबल सम्भावना रहती है |
स्वयं के संसार का निर्माण करने में भी गृहस्थ जीवन की भूमिका रहती है | स्व-निर्मित संसार ही उस जाल का निर्माण करता है, जिसमें मनुष्य फंसता है | इसीलिए इस सांसारिक जाल को मक्कड़-जाल भी कहा जाता है | इस स्वयं के बुने हुए जाल में अपनी कामनाओं को पूरी करने के प्रयास में हम स्वयं जाकर फंसते हैं, एकदम मकड़ी के शिकार की तरह | जब संसार के जाल में आकंठ डूबने लगते हैं तब इससे बचने का विचार आता है परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | सांसारिक कामनाओं को बढ़ने से रोकना ही इसका एक मात्र उपाय है | इसके लिए हमें सांसारिक जाल के समानांतर एक जाल और बुनना होगा जिसके धागों पर चलकर हम संसार में विचरण करते हुए भी संसार-जाल में उलझने से बच सकते हैं और परमात्मा तक पहुँच सकते हैं | इस प्रकार दो जाल हुए, एक तो संसार का और दूसरा अध्यात्म का, दोनों जाल एक दूसरे के सामानांतर | इस प्रकार हम संसार के जाल के मध्य रहते हुए भी अध्यात्म के जाल पर विचरण करते हुए संसार में उलझने से बच जायेंगे | कहने का अर्थ है कि संसार के जाल के मध्य रहते हुए संसार के काम करते रहें परन्तु मन का विचरण केवल अध्यात्म के जाल पर ही हो, संसार के जाल पर नहीं; इस बात का सदैव ध्यान रखें | संसार का जाल व्यक्ति को फांसता है जबकि अध्यात्म का जाल (मार्ग) उसे सदैव मुक्त रखता है |
अपना संसार बनाकर उस संसार में रहने को हम विवश हैं क्योंकि यह शरीर और इससे आसक्त होकर बनाया गया संसार हमें प्रारब्ध को भोगने के लिए ही मिला है | अपना संसार बनाकर उसी के माध्यम से ही प्रारब्ध को भोगा जा सकता है, अन्य किसी साधन से नहीं | परमात्मा का सदैव स्मरण करते हुए संसार के माध्यम से अपना प्रारब्ध काटते रहें | प्रारब्ध के कटते ही एक दिन यह शरीर भी चला जायेगा और आप अपने वास्तविक स्वरुप को प्राप्त कर लेंगे और परमात्मा में लीन हो जायेंगे | समस्या जीवन में तभी आती है जब प्रारब्ध से मिले भोग के प्रति आसक्त होकर हम भोगों की कामनाओं को दिन प्रतिदिन बढ़ाते जाते हैं और अपने ही बनाये संसार जाल में फंसकर सुखी दुखी होते रहते हैं |
इस प्रकार संसार के जाल में फंसने से बचने की पहली तकनीक हुई, समानांतर अध्यात्म में रहने का जाल (स्वयं के विचरण का मार्ग) बना लेना | दूसरी तकनीक है, संसार जाल में रहते हुए भी उसमें न उलझना | मकड़ी भी अपने शिकार को फांसने के लिए बुने जाल से भूल से छू भी जाये तो उसमें नहीं फंसती क्योंकि उसके पैर गद्दीदार होते है | हमें भी संसार के जाल में फंसने से बचने के लिए स्वयं को सशक्त बनाना होगा, मकड़ी के पैरों की तरह | सांसारिक व्यवहार निभाते रहें और परमात्मा का चिंतन भी करते रहें | परमात्मा का चिंतन करते हुए किये जाने वाले सांसारिक कर्म भी अकर्म बन जाते हैं | इस प्रकार यह कर्म-योग का मार्ग हुआ |
संसार में बंधन पैदा होता है, अज्ञान के कारण, मोह के कारण, संसार में ममता रहने के कारण | हमें संसार की वास्तविकता का ज्ञान जिस दिन हो जायेगा उस दिन हमारा संसार से मोह और उसमें बनी ममता का भी अंत हो जायेगा | संसार में हम स्वयं फंसते हैं क्योंकि यह हमें रूचिकर लगने लगता है | रूचिकर लगने का कारण है, संसार का आकर्षण जो हमें एक प्रकार का सुख प्रदान करता है | यह सुख वास्तविक सुख नहीं होता बल्कि छद्म सुख होता है अर्थात सुख नहीं केवल सुख का आभास मात्र |
जैसा कि पूर्व में मैंने कहा है कि प्रत्येक सुख की पृष्ठभूमि में दुःख अवश्य ही रहता है | सुख को भोगते हुए एक अवस्था ऐसी आती है जब एक दिन वह दुःख में परिवर्तित हो जाता है | सुख की आसक्ति हमें संसार में बाँध देती है | ज्ञान हमें संसार से मुक्त करता है | जिस दिन हमें अपने जीवन और संसार के परिवर्तनशील होने का ज्ञान हो जायेगा तब स्पष्ट हो जायेगा कि अब तक हम असत के प्रति आसक्त थे जबकि सत कुछ और ही है | सत का ज्ञान होते ही संसार विलीन हो जायेगा और इस संसार को विलीन करेंगे हम स्वयं; ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार से मकड़ी अपने बुने जाल को स्वयं ही समेट लेती है | इस प्रकार यह ज्ञान-योग का मार्ग हुआ |
इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि संसार में रहते हुए हमें परमात्मा को सदैव याद रखना है | फिर अपने कर्तव्य कर्मों का निर्वहन करते हुए एक दिन संसार से मुक्त हो जाना है | ऐसे में हमें संसार की कोई भी शक्ति बंधन में नहीं जकड सकती | हम मुक्त ही पैदा हुए हैं और संसार जाल से घिरे रहते हुए भी मुक्त रह सकते हैं | यही हमारी जीवन्मुक्त अवस्था है जिसे अपने इसी जीवन में प्रत्येक मनुष्य प्राप्त करना चाहेगा |
मैंने पूर्व में दो महत्वपूर्ण सूत्र बताये थे जिनको जीवन में कर्म करते समय सदैव ध्यान में रखना आवश्यक है, उनमें से पहले सूत्र, “शरीर की क्रियाओं को कर्म बनाते हुए यह बात सदैव ध्यान में रखें कि संसार में रहते हुए भी हमें उसमें उलझना नहीं है” पर अल्प रूप से चर्चा की है | अब आते हैं दूसरे सूत्र पर | दूसरा सूत्र है-‘जीवन में कर्म का आश्रय न लें क्योंकि हम न तो कर्ता हैं और न ही भोक्ता |’ इस सूत्र को आत्मसात करने में ही अध्यात्म की पूर्णता है अन्यथा नहीं | स्वयं को जानने का नाम अध्यात्म है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण से अर्जुन पूछ रहे हैं, ’किम् अध्यात्म’ (8/1) अर्थात अध्यात्म क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं कि ‘स्वभावोSध्यात्ममुच्येते’ (8/3) अर्थात स्व-भाव यानि जीव को अध्यात्म कहते हैं |इस प्रकार स्पष्ट है कि स्वयं को जान लेने का नाम ही अध्यात्म है |
पूर्व में यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि स्वरुप की दृष्टि से परमात्मा और जीव में तनिक भी भिन्नता नहीं है | भिन्न बनाती है हमारी मानसिकता, जो संसार में डूबती उतराती रहती है | अथाह जल स्रोत में फैका गया व्यक्ति केवल अपने शरीर को बचाने के लिए ही हाथ-पैर मारता रहता है | इसके अतिरिक्त उसे कुछ भी नहीं सूझता | यही संसार सागर में अवतरित हुए जीव के साथ होता है | अपने शरीर और इससे सम्बंधित संसार के अतिरिक्त उसे कुछ दिखलाई नहीं पड़ता | ऐसे में वह अपना वास्तविक स्वरुप भूला देता है और इस शरीर को ही स्वयं होना मान लेता है | अध्यात्म का मार्ग हमें शरीर से दूर ले जाकर स्वयं से परिचित कराता है और स्व-भाव को उपलब्ध करने में हमारी सहायता करता है | अध्यात्म मार्ग का लक्ष्य आत्म-बोध है |
संसार में रहते हुए जब शरीर ही हमारे लिए सब कुछ बन जाता है तब हम कर्म-बंधन में फंस जाते हैं | जीवन में हम कर्म करने को विवश हैं, ‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्’ (गीता-3/5) इसलिए कर्मों से पलायन करना संभव ही नहीं है | साथ ही गीता यह भी कहती है कि ‘धूमेनाग्निरिवावृता:’ (18/48) सम्पूर्ण कर्म धुएं से अग्नि की तरह किसी न किसी दोष से युक्त है | अगर कर्म बंधन पैदा करते हैं तो फिर मुक्ति का मार्ग क्या है ?
गीता कर्म-योग का ग्रन्थ भी है और यही गीता मुक्ति का मार्ग भी दिखलाती है | दोनों बातें विरोधाभासी प्रतीत अवश्य होती है परन्तु विरोधी हैं नहीं | शरीर पदार्थ है और पदार्थ में क्रिया होगी ही | अतः शरीर के रहते जीवन में कर्म करने ही होंगे | हाँ, कर्मों को धर्म अर्थात कर्तव्य कर्म तक सीमित रखना मनुष्य के हाथ में है | गीतोपनिषद का ताना बाना इसी धर्म के चारों ओर बुना गया है | गीता के प्रारम्भ में जब अर्जुन मोह के कारण विषाद को प्राप्त हो जाता है, तब वह धर्म अर्थात अपने कर्तव्य कर्म के बारे में मोहित हो जाता है | इस मोह के कारण ही वह युद्ध में मारे जाने वालों का मारक अर्थात कर्ता नहीं बनना चाहता | उसके विषाद का दूसरा कारण है कि मारने वाले और मरने वाले दोनों ही उसके स्व-निर्मित संसार के सदस्य हैं |
अपनी इन दोनों बातों को ही वह अपने सखा के समक्ष शास्त्रों के उदाहरण देकर सत्य सिद्ध करने का असफल प्रयास करता है | भगवान् मोहग्रस्त व्यक्ति को तब तक कैसे समझाए जब तक वह ज्ञान के नाम पर अपने भीतर अज्ञान लिए बैठा हो | मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने भीतर के कथित ज्ञान को बाहर निकाल फैंक कर शून्य हो जाना होगा | कथित ज्ञान से शून्य हुआ व्यक्ति ही किसी महापुरुष का शिष्य हो सकता है | ऐसा होने पर ही ज्ञान की धारा गुरु से शिष्य की ओर प्रवाहित हो सकती है, अन्यथा नहीं |
जब अर्जुन कहता है-‘शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्” (गीता-2/7) कि मैं आपका शिष्य हूँ | मैं आपकी शरण हूँ, कृपया आप मुझे मार्ग दिखाइए | ये शब्द एक मानसिक रूप से थके हुए व्यक्ति के हैं, जो कर्तव्य-कर्म से च्युत हो रहा है | अपने कथित ज्ञान से शून्य होकर एक सखा अपने दूसरे सखा को गुरु स्वीकार कर उनकी शरण होकर शिष्य बन जाता है | ऐसे में ज्ञान की धारा प्रवाहित हुए बिना भला कैसे रह सकती है ? आइये ! इस धारा में हम भी स्वयं को भिगो लें |
अर्जुन शिष्य बनते ही भगवान् से पूछ रहे हैं –‘पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः’ अर्थात मैं धर्म के विषय में मोहित आपसे पूछता हूँ | अर्जुन क्या पूछ रहे हैं ? अर्जुन व्यक्ति के धर्म के बारे में भगवान् का निश्चित मत पूछ रहे हैं जिसे जानकार वह अपने कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ सके | धर्म का अर्थ है व्यक्ति का कर्तव्य और कर्तव्य को निभाने के लिए कर्म करने आवश्यक है | इस प्रकार धर्म का अर्थ हुआ, कर्तव्य-कर्म | कर्म को कर्ता-भाव से नहीं करने हैं क्योंकि कर्म शरीर से प्रकृति के गुणों के अनुसार होते हैं, इसमें स्वयं मनुष्य की कोई भूमिका नहीं होती | जब मनुष्य कर्मों में अपनी भूमिका मानने लगता है, तभी कर्म-बंधन होता है अन्यथा नहीं | शरीर में आसक्ति के कारण कर्तापन छूटना संभव नहीं है |
सम्पूर्ण गीता-शास्त्र में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को विविध प्रकार से समझाते हैं कि तुम न तो कर्ता हो और न ही भोक्ता | इसके लिए वे कर्म-योग कहते हैं, फिर ज्ञान-योग को समझाते हैं | भगवान् श्री कृष्ण संसार की रचना, प्रकृति, जीव, कर्म, ज्ञान, भक्ति, क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम, समता, अनासक्ति, देव-असुर सम्पदा आदि विभिन्न प्रकार से उसे समझाने का प्रयास करते हैं | अर्जुन का धर्म उसे फिर भी समझ में नहीं आता | जहां गीता में ज्ञान का प्रारम्भ धर्म शब्द से अर्जुन प्रश्न पूछ कर करते है, उसी धर्म शब्द के साथ भगवान् गीता-ज्ञान का समापन भी करते हैं | वे कहते हैं-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||18/66||
सम्पूर्ण धर्मों (कर्तव्य कर्मों) का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा | मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा |
यहाँ भगवान् कर्तव्य-कर्मों को छोड़ने की बात नहीं कह रहे हैं बल्कि कर्मों का आश्रय छोड़कर भगवद-आश्रय लेने की बात कह रहे हैं | भगवद-आश्रय लेकर किये जाने वाले कर्म हमें बान्ध नहीं सकते | केवल यही एक मार्ग है जो अग्नि (कर्मों) को धुएं (दोष) से मुक्त कर सकता है और कर्म को अकर्म बना सकता है |
पूर्व में भी हमने पाप और पुण्य कर्मों पर चिंतन किया है | गीता में भगवान ने पूर्व में भी कहा है कि जो व्यक्ति सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा के अर्पण करके और आसक्तिरहित होकर कर्म करता है वह कर्मों में लिप्त नहीं होता | ‘लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा’ (गीता-5/10), ऐसा व्यक्ति जल से कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नहीं होता | समस्या कर्मों का आश्रय लेने से ही आती है | कर्मों का आश्रय ही उन कर्मों को पाप और पुण्य कर्मों में विभाजित कर देता है | अनासक्त होकर और परमात्मा के आश्रित रहकर किये जाने वाले कर्मों में न तो कोई पाप कर्म है और न ही कोई पुण्य कर्म | कर्मों को परमात्मा स्वीकार ही नहीं करते क्योंकि वे स्वयं ‘न करोति न लिप्यते‘ हैं |
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः |
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ||गीता-5/15||
सर्वव्यापी परमात्मा न तो किसी के पाप कर्म को और न ही शुभ-कर्म को ग्रहण करते हैं | अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है उसी से सभी जीव मोहित हो रहे हैं |
जीव कर्मों को लेकर मोहित हो रहे हैं तभी तो वे उन्हें पाप और पुण्य कर्मों में विभाजित कर रहे हैं | परमात्मा को आपके कर्मों से कुछ लेना देना नहीं है | वे आपके किसी भी कर्म को ग्रहण नहीं करते | हाँ, हम मोहित होकर समझ रहे हैं कि शुभ कर्म परमात्मा ग्रहण कर लेते हैं और पाप-कर्म ग्रहण नहीं करते | आपके कर्म आपको ही प्रभावित करते हैं इसमें परमात्मा की कोई भूमिका नहीं है | गोस्वामीजी मानस में कह रहे हैं –
कर्म प्रधान विश्व करि राखा | जो जस करिहि सो तस फल चाखा ||
अज्ञान के कारण हम प्रत्येक कर्म को परमात्मा से जोड़ देते हैं | वास्तव में देखा जाये तो कर्म जिस माध्यम से होते है और जो कर्म करता है, सभी जड़ विभाग के अंतर्गत है | अतः कर्मों से चेतन विभाग का कोई लेना देना नहीं है | इसीलिए गीता के अंत में भगवान् ने अर्जुन को कर्मों का आश्रय छोड़ अपनी शरण में आने का कहा है | परमात्मा का आश्रय ले लेने से कोई भी कर्म फिर पाप-कर्म नहीं रहता क्योंकि तब मनुष्य जड़ विभाग के आश्रय को छोड़ कर चेतन विभाग का आश्रय ले चूका है | भगवद आश्रय से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं |
मनुष्य को आनंद की अवस्था तक ले जाने में इन सभी जीवन-सूत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है | जीवन–सूत्र आचरण में लाने के लिए है, केवल इनको पढ़ लेने अथवा लिख देने से कोई लाभ होने वाला नहीं है | मनुष्य अपने जीवन की विषमताओं के लिए स्वयं उत्तरदायी है | जैसा कि मैंने पूर्व में कहा है कि न तो कोई पाप कर्म है और न ही कोई पुण्य कर्म है | इसी प्रकार मनुष्य के जीवन में न तो कोई बंधन है और न ही उसे मुक्त होना है | जो बंधा हुआ नहीं है, वह मुक्त तो पहले से ही है | जब कहीं कोई पाप नहीं है, पुण्य नहीं है, बंधन नहीं है और मुक्ति नहीं है, तो फिर क्यों तो कर्म करने के बारे में कोई विचार करें और क्यों ही मुक्त होने की कामना करें ? जो कर्मों को पाप और पुण्य कर्मों में विभाजित करता है वही जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होने की कामना करता है क्योंकि वही मनुष्य कर्मों के साथ बंधा हुआ है | भगवद आश्रय लिए हुए व्यक्ति से पाप-कर्म हो ही नहीं सकते | उसके लिए फिर न तो कहीं पाप है और न ही कोई पुण्य |
कामना के कारण कर्म होते हैं और कर्म की सफलता अथवा विफलता से राग-द्वेष, लोभ-मोह आदि विकार होते हैं | राग-द्वेष, लोभ-मोह जैसे द्वंद्वात्मक विकारों के कारण ही मनुष्य बंधता है और आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता | गीता के सातवें अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत |
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ||27||
इच्छा (राग) और द्वेष से उत्पन्न होने वाले द्वंद्व-मोह से मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसार में मूढ़ता (अज्ञान) को प्राप्त हो रहे हैं | प्राणी का यही अज्ञान उसे आवगमन से मुक्त नहीं होने देता ।
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये |
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं चाखिलम् ||29||
वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जान लेते है ।
उपरोक्त श्लोक के आधार पर ही हमने इस श्रृंखला में कर्म की, अध्यात्म की और ब्रह्म की विस्तार से चर्चा की है | सब कुछ जान लेने के उपरांत निष्कर्ष क्या निकलता है ? इस ओर भी दृष्टि डालते हुए इस लम्बी श्रृंखला का समापन करते हैं ।
कर्म, अध्यात्म और ब्रह्म पर विवेचन से हमें क्या अनुभव हुआ ? इस बात को जानने के लिए एक छोटी सी कहानी –
दीपावली का त्यौहार आ रहा है | अपनी पत्नी के निर्देशानुसार एक व्यक्ति दीपक लेने के लिए अपनी आरामदायक कीमती गाडी में बैठकर कुम्हार के द्वार पहुँचता है | कुम्हार नीम के पेड़ तले मूंज की बनी कठोर खटिया पर बिना कुछ भी बिछाए लेटा हुआ है और मन ही मन कुछ गुनगुना रहा है | वातानुकूलित कार से उतरकर पैदल चलते हुए पसीने से लथपथ हुआ वह कुम्हार के पास जाकर विभिन्न ढेरियों में पड़े दीपक का मूल्य पूछता है | लेटे लेटे ही कुम्हार सबका मूल्य बताता है | व्यक्ति उनमें से कुछ दीपकों का चयन कर मूल्य देकर क्रय कर लेता है |
दीपक लेकर वह कुम्हार से कुछ वार्तालाप करने लगता है | वार्तालाप का आधार कुम्हार को व्यापार करने की कला से परिचित कराना है | आइये, हम भी उनके वार्तालाप में बिना किसी व्यवधान उत्पन्न किये सम्मिलित हो जाते हैं |
व्यक्ति--“आप इन दीपकों को व्यवस्थित रूप से रखकर और कुछ पोलिश करके रंगीन रूप दे देते तो इस मूल्य से कहीं अधिक मूल्य आपको मिल जाता | आवश्यकता के समय लोग आपसे अधिक मूल्य देकर भी दीपक खरीद लेते |
कुम्हार- इससे क्या होता ?
व्यक्ति-इससे आपकी आय बढ़ जाती और आप स्वचालित यंत्र से दीपक बनाते, जिससे आपके दीपकों का उत्पादन बढ़ जाता और साथ ही आपकी आय भी |
कुम्हार-फिर?
व्यक्ति- फिर आपके पास मेरी तरह गाडी होती, नौकर-चाकर होते, बंगला होता और आप वातानुकूलित कमरे की ठण्डी छाया में बैठकर विश्राम करते |
कुम्हार- इतने पापड़ बेलकर अंततः जब विश्राम ही करना है, तो अभी मैं क्या कर रहा हूँ ? ठंडी छाया में बैठा विश्राम तो मैं अभी भी कर रहा हूँ | महोदय ! जैसा आप बता रहें है, उतना प्रपंच करके तो मैं ठंडी छाया और वातानुकूलित कमरे में बैठकर भी विश्राम नहीं कर पाऊंगा | क्या आप इतना कुछ करके विश्राम की अवस्था को उपलब्ध हो गए हैं ?
कुम्हार का प्रतिप्रश्न सुनकर वह व्यक्ति निरुत्तर हो गया क्योंकि कुम्हार की बातों में सत्यता थी | कहानी का सारांश यह है कि जब अंततः विश्राम की अवस्था को प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य है तो फिर हम इतना सब कुछ करने और जानने का प्रपंच ही क्यों करें और किसलिए करें ? शरीर है तो कर्म भी होंगे और कर्म तभी अकर्म होंगे जब वे परमात्मा का आश्रय लेकर किये जाए | इस प्रकार करना महत्वपूर्ण नहीं है | ज्ञान वह अंगुली है जो परमात्मा की ओर संकेत भर करती है, परमात्मा तक ले जाती नहीं है | इसलिए जानना भी महत्वपूर्ण नहीं है | हाँ, जानने और करने से एक दिन यह अनुभव अवश्य हो जाता है कि अब समय आ गया है कि इन दोनों का आश्रय छोड़ एक परमात्मा का आश्रय लिया जाय |
इतने लम्बे विवेचन से कुम्हार की कही बात ही महत्वपूर्ण प्रतीत होती है कि अधिक प्रपंच में पड़ने का कोई लाभ नहीं है | हमारे जीवन के लिए जितने भी सूत्र इस श्रृंखला में निकलकर सामने आये हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण सूत्र न तो स्व-आश्रय है, न पराश्रय है क्योंकि इन दोनों में केवल परिश्रम ही परिश्रम है। एक मात्र महत्वपूर्ण सूत्र है- भगवद-आश्रय,केवल वही हमें विश्राम की अवस्था तक ले जा सकता है | हरिः शरणम्, हरिः शरणम्, हरिः शरणम् .............|
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||